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==सूरदास==
 
==सूरदास==
हिन्दी साहित्य में [[भक्तिकाल]] में [[कृष्ण-भक्ति]] के भक्त कवियों में महाकवि सूरदास का नाम अग्रणी है । उनका जन्म 1478 ईस्वी में [[मथुरा]] [[आगरा]] मार्ग पर स्थित [[रुनकता]] नामक गांव में हुआ था । कुछ लोगों का कहना है कि सूरदास जी का जन्म सीही नामक ग्राम में एक गरीब [[सारस्वत ब्राह्मण]] परिवार में हुआ था । बाद में वह आगरा और मथुरा के बीच गऊघाट पर आकर रहने लगे थे । सूरदास जी के पिता श्री रामदास गायक थे । सूरदास जी के जन्मांध होने के विषय में भी मतभेद हैं । आगरा के समीप गऊघाट पर उनकी भेंट श्री [[वल्लभाचार्य]] से हुई और वे उनके शिष्य बन गए । वल्लभाचार्य ने उनको [[पुष्टिमार्ग]] में दीक्षा दे कर [[कृष्णलीला]] के पद गाने का आदेश दिया । सूरदास जी [[अष्टछाप कवियों]] में एक थे । सूरदास जी की मृत्यु [[गोवर्धन]] के पास [[पारसौली ग्राम]] में 1583 ईस्वी में हुई ।  
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हिन्दी साहित्य में [[भक्तिकाल]] में [[कृष्णभक्ति]] के भक्त कवियों में महाकवि सूरदास का नाम अग्रणी है । उनका जन्म 1478 ईस्वी में [[मथुरा]] [[आगरा]] मार्ग पर स्थित [[रुनकता]] नामक गांव में हुआ था । कुछ लोगों का कहना है कि सूरदास जी का जन्म सीही नामक ग्राम में एक गरीब सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था । बाद में वह आगरा और मथुरा के बीच गऊघाट पर आकर रहने लगे थे । सूरदास जी के पिता श्री रामदास गायक थे । सूरदास जी के जन्मांध होने के विषय में भी मतभेद हैं । आगरा के समीप गऊघाट पर उनकी भेंट श्री [[वल्लभाचार्य]] से हुई और वे उनके शिष्य बन गए । वल्लभाचार्य ने उनको [[पुष्टिमार्ग]] में दीक्षा दे कर [[कृष्णलीला]] के पद गाने का आदेश दिया । सूरदास जी [[अष्टछाप]] कवियों में एक थे । सूरदास जी की मृत्यु [[गोवर्धन]] के पास [[पारसौली]] ग्राम में 1583 ईस्वी में हुई ।  
 
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इनके बारे में ‘भक्तमाल’ और ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ में थोड़ी-बहुत जानकारी मिल जाती है । ‘आईने अकबरी’ और ‘मुंशियात अब्बुलफजल’ में भी किसी संत सूरदास का उल्लेख है, किन्तु वे बनारस के कोई और सूरदास प्रतीत होते हैं । अनुश्रुति यह अवश्य है कि अकबर बादशाह सूरदास का यश सुनकर उनसे मिलने आए थे । ‘भक्तमाल’ में इनकी भक्ति, कविता एवं गुणों की प्रशंसा है तथा इनकी अंधता का उल्लेख है । ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ के अनुसार वे आगरा और मथुरा के बीच साधु के रूप में रहते थे । वे वल्लभाचार्य के दर्शन को गए और उनसे लीलागान का उपदेश पाकर कृष्ण-चरित विषयक पदों की रचना करने लगे । कालांतर में श्रीनाथ जी के मंदिर का निर्माण होने पर महाप्रभु वल्लभाचार्य ने इन्हें यहाँ कीर्तन का कार्य सौंपा ।
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इनके बारे में ‘भक्तमाल’ और ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ में थोड़ी-बहुत जानकारी मिल जाती है । ‘आईना-ए-अकबरी’ और ‘मुंशियात अब्बुलफजल’ में भी किसी संत सूरदास का उल्लेख है, किन्तु वे बनारस के कोई और सूरदास प्रतीत होते हैं । अनुश्रुति यह अवश्य है कि अकबर बादशाह सूरदास का यश सुनकर उनसे मिलने आए थे । ‘भक्तमाल’ में इनकी भक्ति, कविता एवं गुणों की प्रशंसा है तथा इनकी अंधता का उल्लेख है । ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ के अनुसार वे आगरा और मथुरा के बीच साधु के रूप में रहते थे । वे वल्लभाचार्य के दर्शन को गए और उनसे लीलागान का उपदेश पाकर कृष्ण-चरित विषयक पदों की रचना करने लगे । कालांतर में श्रीनाथ जी के मंदिर का निर्माण होने पर महाप्रभु वल्लभाचार्य ने इन्हें यहाँ कीर्तन का कार्य सौंपा ।
 
सूरदास के विषय में कहा जाता है कि वे जन्मांध थे । उन्होंने अपने को ‘जन्म को आँधर’ कहा भी है । किन्तु इसके शब्दार्थ पर अधिक नहीं जाना चाहिए । सूर के काव्य में प्रकृतियाँ और जीवन का जो सूक्ष्म सौन्दर्य चित्रित है उससे यह नहीं लगता कि वे जन्मांध थे । उनके विषय में ऐसी कहानी भी मिलती है कि तीव्र अंतर्द्वन्द्व के किसी क्षण में उन्होंने अपनी आँखें फोड़ ली थीं । उचित यही मालूम पड़ता है कि वे जन्मांध नहीं थे । कालांतर में अपनी आँखों की ज्योति खो बैठे थे । सूरदास अब अंधों को कहते हैं । यह परम्परा सूर के अंधे होने से चली है । सूर का आशय ‘शूर’ से है । शूर और सती मध्यकालीन भक्त साधकों के आदर्श थे ।
 
सूरदास के विषय में कहा जाता है कि वे जन्मांध थे । उन्होंने अपने को ‘जन्म को आँधर’ कहा भी है । किन्तु इसके शब्दार्थ पर अधिक नहीं जाना चाहिए । सूर के काव्य में प्रकृतियाँ और जीवन का जो सूक्ष्म सौन्दर्य चित्रित है उससे यह नहीं लगता कि वे जन्मांध थे । उनके विषय में ऐसी कहानी भी मिलती है कि तीव्र अंतर्द्वन्द्व के किसी क्षण में उन्होंने अपनी आँखें फोड़ ली थीं । उचित यही मालूम पड़ता है कि वे जन्मांध नहीं थे । कालांतर में अपनी आँखों की ज्योति खो बैठे थे । सूरदास अब अंधों को कहते हैं । यह परम्परा सूर के अंधे होने से चली है । सूर का आशय ‘शूर’ से है । शूर और सती मध्यकालीन भक्त साधकों के आदर्श थे ।
 
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१०:४९, १२ जून २००९ का अवतरण

सूरदास

हिन्दी साहित्य में भक्तिकाल में कृष्णभक्ति के भक्त कवियों में महाकवि सूरदास का नाम अग्रणी है । उनका जन्म 1478 ईस्वी में मथुरा आगरा मार्ग पर स्थित रुनकता नामक गांव में हुआ था । कुछ लोगों का कहना है कि सूरदास जी का जन्म सीही नामक ग्राम में एक गरीब सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था । बाद में वह आगरा और मथुरा के बीच गऊघाट पर आकर रहने लगे थे । सूरदास जी के पिता श्री रामदास गायक थे । सूरदास जी के जन्मांध होने के विषय में भी मतभेद हैं । आगरा के समीप गऊघाट पर उनकी भेंट श्री वल्लभाचार्य से हुई और वे उनके शिष्य बन गए । वल्लभाचार्य ने उनको पुष्टिमार्ग में दीक्षा दे कर कृष्णलीला के पद गाने का आदेश दिया । सूरदास जी अष्टछाप कवियों में एक थे । सूरदास जी की मृत्यु गोवर्धन के पास पारसौली ग्राम में 1583 ईस्वी में हुई ।


इनके बारे में ‘भक्तमाल’ और ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ में थोड़ी-बहुत जानकारी मिल जाती है । ‘आईना-ए-अकबरी’ और ‘मुंशियात अब्बुलफजल’ में भी किसी संत सूरदास का उल्लेख है, किन्तु वे बनारस के कोई और सूरदास प्रतीत होते हैं । अनुश्रुति यह अवश्य है कि अकबर बादशाह सूरदास का यश सुनकर उनसे मिलने आए थे । ‘भक्तमाल’ में इनकी भक्ति, कविता एवं गुणों की प्रशंसा है तथा इनकी अंधता का उल्लेख है । ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ के अनुसार वे आगरा और मथुरा के बीच साधु के रूप में रहते थे । वे वल्लभाचार्य के दर्शन को गए और उनसे लीलागान का उपदेश पाकर कृष्ण-चरित विषयक पदों की रचना करने लगे । कालांतर में श्रीनाथ जी के मंदिर का निर्माण होने पर महाप्रभु वल्लभाचार्य ने इन्हें यहाँ कीर्तन का कार्य सौंपा । सूरदास के विषय में कहा जाता है कि वे जन्मांध थे । उन्होंने अपने को ‘जन्म को आँधर’ कहा भी है । किन्तु इसके शब्दार्थ पर अधिक नहीं जाना चाहिए । सूर के काव्य में प्रकृतियाँ और जीवन का जो सूक्ष्म सौन्दर्य चित्रित है उससे यह नहीं लगता कि वे जन्मांध थे । उनके विषय में ऐसी कहानी भी मिलती है कि तीव्र अंतर्द्वन्द्व के किसी क्षण में उन्होंने अपनी आँखें फोड़ ली थीं । उचित यही मालूम पड़ता है कि वे जन्मांध नहीं थे । कालांतर में अपनी आँखों की ज्योति खो बैठे थे । सूरदास अब अंधों को कहते हैं । यह परम्परा सूर के अंधे होने से चली है । सूर का आशय ‘शूर’ से है । शूर और सती मध्यकालीन भक्त साधकों के आदर्श थे ।


सूरदास की जन्मतिथि एवं जन्मस्थान के विषय में विद्वानों में मतभेद है । " साहित्य लहरी' सूरदास जी की रचना मानी जाती है । 'साहित्य लहरी' के रचना-काल के सम्बन्ध में निम्न पद मिलता है -

मुनि पुनि के रस लेख ।

दसन गौरीनन्द को लिखि सुवल संवत् पेख ।।

रचनाएं-

सूरदास जी द्वारा लिखित पाँच ग्रन्थ बताए जाते हैं -

सूरसागर
सूरसारावली
साहित्य-लहरी
नल-दमयन्ती
ब्याहलो

मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै ।

जैसे उड़ि जहाज की पंछी, फिरि जहाज पै आवै ॥

कमल-नैन को छाँड़ि महातम, और देव को ध्यावै ।

परम गंग को छाँड़ि पियासो, दुरमति कूप खनावै ॥

जिहिं मधुकर अंबुज-रस चाख्यो, क्यों करील-फल भावै।

'सूरदास' प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै ॥