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==सूर्य / Surya==
 
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*भगवान विराट के नेत्र से जिनकी अभिव्यक्ति है, जो लोक लोचन के अधिदेवता हैं, जो उपासना करने पर समस्त रोगों, नेत्र दोषों, ग्रह पीड़ाओं को दूर करके उपासक की सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करते हैं, अनादि काल से भारतीय कर्मनिष्ठ द्विजादि जिन्हें प्रतिदिन अपनी अर्ध्यांजलि निवेदित करते हैं, जो समस्त सचराचर जगत के जीवनदाता और सम्पूर्ण प्राणियों के आराध्य हैं, उन ज्योतिघन, जीवन, उष्णता और ज्ञान के स्वरूप भगवान सूर्यनारायण को हमारा शतश: प्रणिपात।
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*दृश्य सूर्यमण्डल उनका एक स्थूल निवास है। विश्व में कोटि-कोटि सूर्य मण्डल हैं। विज्ञान आकाशगंगा के प्रत्येक तारक को सूर्य कहता है। हमारे गगन की आकाशगंगा के पीछे कितने ही नीहारिका मण्डल हैं। सब आकाशगंगा हैं। सब सूर्यों से जगमगाती हैं। कोई नहीं जानता, उनकी संख्या कितनी है। उन सब सूर्यों के अधिष्ठाता भगवान नारायण ही हैं। श्री सूर्यनारायण की आराधना इसी रूप में आराधक करते हैं।
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*महर्षि [[कश्यप]] लोक पिता हैं। उनकी पत्नी देवमाता अदिति के गर्भ से भगवान विराट के नेत्रों से व्यक्त सूर्यदेव जगत में प्रकट हुए। सूर्य मण्डल का दृश्य रूप भौतिक जगत में उनकी देह है। [[विश्वकर्मा]] की पुत्री [[संज्ञा]] से उनका परिणय हुआ। संज्ञा के दो पुत्र और एक कन्या हुई- श्राद्धदेव ([[वैवस्वत|वैवस्वतमनु और [[यमराज]] तथा [[यमुना]] जी। संज्ञा भगवान सूर्य के तेज को सहन नहीं कर पाती थी। उसने अपनी छाया उनके पास छोड़ दी और स्वयं घोड़ी का रूप धारण करके तप करने लगी। उस छाया से शनैश्चर, सावर्णि मनु और तपती नामक कन्या हुई। भगवान सूर्य ने जब संज्ञा को तप करते देखा तो उसे तुष्ट करके अपने यहाँ ले आये। संज्ञा के बड़वा (घोड़ी) रूप से [[अश्विनीकुमार]] हुए। [[त्रेता युग|त्रेता]] में कपिराज [[सुग्रीव]] और [[द्वापर युग|द्वापर]] में महारथी [[कर्ण]] भगवान सूर्य के अंश से ही उत्पन्न हुए।
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*पक्षिराज [[गरूड़]] के बड़े भाई विनता नन्दन [[अरूण]] जी भगवान सूर्य के रथ को हाँकते हैं। रथ में सात उज्ज्वल घोड़े जुते हैं। अहर्निश यह रथ पूर्ण वेग से चलता रहता है।
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*सौर सिद्धान्त भी वस्तुत: सूर्य को गतिशील मानता है। विज्ञान के महान विद्वान अभी परस्पर इस सम्बन्ध में सहमत नहीं हैं। उनका अन्वेषण चल रहा है। नित्य नये सिद्धान्त वहाँ बनते जा रहे हैं।
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*भगवान सूर्य अपने रथ पर आसीन अविश्रान्त भाव से मेरू की प्रदक्षिणा करते रहते हैं। उन्हीं के द्वारा [[दिन]], [[रात्रि]], [[मास]], [[ऋतु]], [[अयन]], [[वर्ष]] आदि का विभाग होता है। वही दिशाओं के भी विभाजक हैं।
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*भगवान सूर्य की उपासना बारह महीनों में बारह नामों से होती है। उस समय उनके पार्षद भी परिवर्तित हो जाते हैं। इन पार्षदों में [[ऋषि]], [[अप्सराएँ]], [[गन्धर्व]], [[राक्षस]], [[भल्ल]] और [[नाग]] हैं।
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*ऋषि रथ से आगे चलते हुए भगवान की स्तुति करते हैं।
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*गन्धर्व गान करते हैं।
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*अप्सराएँ नाचती हैं।
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*राक्षस रथ को पीछे से ठेलते हैं।
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*भल्ल रथयोजक बनते हैं और
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*नाग रथ को ले चलते हैं।
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*यह सूर्यव्यूह निम्न है—
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महीना भगवान मास-सम्बद्ध नाम सूर्य का ऋषि अप्सरा गन्धर्व राक्षस भल्ल नाग
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मधु (चैत्र) धाता पुलस्त्य कृतस्थली तुम्बुरू हेति रथकृत वासुकि
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माधव (वैशाख) अर्यमा पुलह पुलह पुंजिकस्थली नारद प्रहेति ओज: कच्छनीर
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शुक्र (ज्येष्ठ) मित्र अत्रि मेनका हहा पौरूषेय रथस्वन तक्षक
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शुचि (आषाढ़) वरूण वसिष्ठ रम्भा हूहू शुक्र चित्रस्वन सहजन्य
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नभ (श्रावण) इन्द्र अंगिरा प्रम्लोचा विश्वावसु वर्य श्रोता एलापत्र
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नभस्य (भाद्रपद) विवस्वान भृगु अनुम्लोचा उग्रसेन व्याघ्र आसारण शंखपाल
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तप (आश्विन) पूषा गौतम घृताची धनंजय वात सुरूचि सुषेण
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तपस्य (कार्तिक) क्रतु भरद्वाज वर्चा पर्जन्य सेनजित् विश्व ऐरावत
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सह (मार्गशीर्ष) अंशु कश्यप उर्वशी ऋतसेन विद्युच्छत्रु तार्क्ष्य महाशंख
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पुष्य (पौष) भग आयु पूर्वंचित्ति स्फूर्ज अरिष्टनेमि ऊर्ण कर्कोटक
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इष (माघ) त्वष्टा ऋचीकतनय (जमदग्नि) तिलोत्तमा शतजित ब्रह्मापेत धृतराष्ट्र कम्बल
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ऊर्ज (फाल्गुन) विष्णु विश्वामित्र रम्भा सूर्यवर्चा मखापेत सत्यजित् अश्वतर
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भगवान सूर्य की आराधना नैष्ठिक रूप से करने वाले उड़ीसा में थोड़े लोग मिलते हैं। सौर-सम्प्रदाय अब व्यापक रहा नहीं; किंतु सन्ध्या भगवान आदित्य की ही उपासना है और वह द्विजातिमात्र का अनिवार्य कर्तव्य है।
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भगवान सूर्य साक्षात नारायण हैं। उन श्रुतिधाम ने वाजि (अश्व)- रूप धारण करके महर्षि याज्ञवल्क्य को शुक्ल यजुर्वेद का उपदेश किया। श्रीहनुमानजी के विद्यागुरू भी वही हैं। भारत में रविवार का व्रत खूब प्रख्यात है। अनेक आर्त उससे सफलकाम होते हैं। 
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*सूर्य को मानव/अवतार/देवता मानते हुए उसका जन्म अदिति (प्रकृति) से हुआ  माना गया है।
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*सूर्य की दो पत्नियाँ अर्थात सहचरी  बतायी गयीं हैं।
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#[[संज्ञा]]( चेतना या ऊर्जा) और
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#[[छाया]] ।
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*छाया की कोख़ से [[शनि]] का जन्म हुआ। गुणों में पिता से विपरीत धर्म-कर्त्तव्य  वाला होने के कारण शनि पिता सूर्य के  साथ मनमुटाव जैसा व्यवहार करता बताया गया है, परंतु सूर्य पुत्र के अवगुणों को तो  कुदृष्टि से देखता है पर पुत्र के साथ तट्स्थ बना  रहता है। 
 
*[[भागवत पुराण|श्रीमद्भागवतपुराण]] में सूर्य के विषय में विस्तार से वर्णन किया गया  है।  सूर्य की स्थिति बतायी है -  
 
*[[भागवत पुराण|श्रीमद्भागवतपुराण]] में सूर्य के विषय में विस्तार से वर्णन किया गया  है।  सूर्य की स्थिति बतायी है -  
 
'अंडमध्यगतः सूर्यो द्यावाभूम्योर्यदन्तरम।<br />
 
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==ज्योतिष में सूर्य==
 
==ज्योतिष में सूर्य==
 
ज्योतिष के अनुसार सूर्य सबसे तेजस्वी, प्रतापी और सत और तमो गुण वाला ग्रह कहा गया है। यह आत्मा का कारक और हृदय एवं नाड़ी संस्थान का अधिपति है। सूर्य समस्त ब्रह्मांड का केंद्र ज्योतिष में भी माना गया है। प्राचीन ज्ञान का हर विषय मानवीकरण और रूपक के माध्यम से स्पष्ट किया गया मिलता है। सूर्य भी इससे अछूता नहीं है।  
 
ज्योतिष के अनुसार सूर्य सबसे तेजस्वी, प्रतापी और सत और तमो गुण वाला ग्रह कहा गया है। यह आत्मा का कारक और हृदय एवं नाड़ी संस्थान का अधिपति है। सूर्य समस्त ब्रह्मांड का केंद्र ज्योतिष में भी माना गया है। प्राचीन ज्ञान का हर विषय मानवीकरण और रूपक के माध्यम से स्पष्ट किया गया मिलता है। सूर्य भी इससे अछूता नहीं है।  
*सूर्य को मानव/अवतार/देवता मानते हुए उसका जन्म अदिति (प्रकृति) से हुआ  माना गया है।
 
*सूर्य की दो पत्नियाँ अर्थात सहचरी  बतायी गयीं हैं।
 
#[[संज्ञा]]( चेतना या ऊर्जा) और
 
#[[छाया]] ।
 
*छाया की कोख़ से शनि का जन्म हुआ। गुणों में पिता से विपरीत धर्म-कर्त्तव्य  वाला होने के कारण शनि पिता सूर्य के  साथ मनमुटाव  जैसा व्यवहार करता बताया गया है, परंतु सूर्य पुत्र के अवगुणों को तो  कुदृष्टि से देखता है पर पुत्र के साथ तट्स्थ बना  रहता है। 
 
 
*सूर्य कृतिका, उत्तराषाढ़ा और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रों का स्वामी है। (कृतिकानक्षत्र ज्ञानार्जन, पशुपालन, रोग, अनासक्ति, अशांत और  तार्किकता इत्यादि गुण-प्रधान बताया गया है तो उत्तराषाढ़ा  चित्रकला, सफाई, यश-कीर्ति,  प्रज्ञा, पुष्टता, गर्वीलापन, दृढ़ता और निपुणता जैसे विषयोंका प्रधान बताया गया है लेकिन  उत्तराफाल्गुनी तेज-स्मरणशक्ति, कला-कुशलता, व्यवहार-कुशलता, एकांतप्रेमी, माता-पिता के सुख से वंचित जैसे गुणों की प्रधानता वाला बताया गया मिलता है।)  
 
*सूर्य कृतिका, उत्तराषाढ़ा और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रों का स्वामी है। (कृतिकानक्षत्र ज्ञानार्जन, पशुपालन, रोग, अनासक्ति, अशांत और  तार्किकता इत्यादि गुण-प्रधान बताया गया है तो उत्तराषाढ़ा  चित्रकला, सफाई, यश-कीर्ति,  प्रज्ञा, पुष्टता, गर्वीलापन, दृढ़ता और निपुणता जैसे विषयोंका प्रधान बताया गया है लेकिन  उत्तराफाल्गुनी तेज-स्मरणशक्ति, कला-कुशलता, व्यवहार-कुशलता, एकांतप्रेमी, माता-पिता के सुख से वंचित जैसे गुणों की प्रधानता वाला बताया गया मिलता है।)  
 
*सूर्य सिंह राशि, जो काल-पुरुष( समय का मानवीयकरण) का आमाशय/ पेट माना गया है और गणना से पांचवी राशि है, का स्वामी माना गया है और भावों के अनुसार पाँचवाँ भाव शिक्षा, संतान, शौक और आदत का है।
 
*सूर्य सिंह राशि, जो काल-पुरुष( समय का मानवीयकरण) का आमाशय/ पेट माना गया है और गणना से पांचवी राशि है, का स्वामी माना गया है और भावों के अनुसार पाँचवाँ भाव शिक्षा, संतान, शौक और आदत का है।

१३:१०, ९ नवम्बर २००९ का अवतरण

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सूर्य / Surya

  • भगवान विराट के नेत्र से जिनकी अभिव्यक्ति है, जो लोक लोचन के अधिदेवता हैं, जो उपासना करने पर समस्त रोगों, नेत्र दोषों, ग्रह पीड़ाओं को दूर करके उपासक की सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करते हैं, अनादि काल से भारतीय कर्मनिष्ठ द्विजादि जिन्हें प्रतिदिन अपनी अर्ध्यांजलि निवेदित करते हैं, जो समस्त सचराचर जगत के जीवनदाता और सम्पूर्ण प्राणियों के आराध्य हैं, उन ज्योतिघन, जीवन, उष्णता और ज्ञान के स्वरूप भगवान सूर्यनारायण को हमारा शतश: प्रणिपात।
  • दृश्य सूर्यमण्डल उनका एक स्थूल निवास है। विश्व में कोटि-कोटि सूर्य मण्डल हैं। विज्ञान आकाशगंगा के प्रत्येक तारक को सूर्य कहता है। हमारे गगन की आकाशगंगा के पीछे कितने ही नीहारिका मण्डल हैं। सब आकाशगंगा हैं। सब सूर्यों से जगमगाती हैं। कोई नहीं जानता, उनकी संख्या कितनी है। उन सब सूर्यों के अधिष्ठाता भगवान नारायण ही हैं। श्री सूर्यनारायण की आराधना इसी रूप में आराधक करते हैं।
  • महर्षि कश्यप लोक पिता हैं। उनकी पत्नी देवमाता अदिति के गर्भ से भगवान विराट के नेत्रों से व्यक्त सूर्यदेव जगत में प्रकट हुए। सूर्य मण्डल का दृश्य रूप भौतिक जगत में उनकी देह है। विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा से उनका परिणय हुआ। संज्ञा के दो पुत्र और एक कन्या हुई- श्राद्धदेव ([[वैवस्वत|वैवस्वतमनु और यमराज तथा यमुना जी। संज्ञा भगवान सूर्य के तेज को सहन नहीं कर पाती थी। उसने अपनी छाया उनके पास छोड़ दी और स्वयं घोड़ी का रूप धारण करके तप करने लगी। उस छाया से शनैश्चर, सावर्णि मनु और तपती नामक कन्या हुई। भगवान सूर्य ने जब संज्ञा को तप करते देखा तो उसे तुष्ट करके अपने यहाँ ले आये। संज्ञा के बड़वा (घोड़ी) रूप से अश्विनीकुमार हुए। त्रेता में कपिराज सुग्रीव और द्वापर में महारथी कर्ण भगवान सूर्य के अंश से ही उत्पन्न हुए।
  • पक्षिराज गरूड़ के बड़े भाई विनता नन्दन अरूण जी भगवान सूर्य के रथ को हाँकते हैं। रथ में सात उज्ज्वल घोड़े जुते हैं। अहर्निश यह रथ पूर्ण वेग से चलता रहता है।
  • सौर सिद्धान्त भी वस्तुत: सूर्य को गतिशील मानता है। विज्ञान के महान विद्वान अभी परस्पर इस सम्बन्ध में सहमत नहीं हैं। उनका अन्वेषण चल रहा है। नित्य नये सिद्धान्त वहाँ बनते जा रहे हैं।
  • भगवान सूर्य अपने रथ पर आसीन अविश्रान्त भाव से मेरू की प्रदक्षिणा करते रहते हैं। उन्हीं के द्वारा दिन, रात्रि, मास, ऋतु, अयन, वर्ष आदि का विभाग होता है। वही दिशाओं के भी विभाजक हैं।
  • भगवान सूर्य की उपासना बारह महीनों में बारह नामों से होती है। उस समय उनके पार्षद भी परिवर्तित हो जाते हैं। इन पार्षदों में ऋषि, अप्सराएँ, गन्धर्व, राक्षस, भल्ल और नाग हैं।
  • ऋषि रथ से आगे चलते हुए भगवान की स्तुति करते हैं।
  • गन्धर्व गान करते हैं।
  • अप्सराएँ नाचती हैं।
  • राक्षस रथ को पीछे से ठेलते हैं।
  • भल्ल रथयोजक बनते हैं और
  • नाग रथ को ले चलते हैं।
  • यह सूर्यव्यूह निम्न है—

महीना भगवान मास-सम्बद्ध नाम सूर्य का ऋषि अप्सरा गन्धर्व राक्षस भल्ल नाग मधु (चैत्र) धाता पुलस्त्य कृतस्थली तुम्बुरू हेति रथकृत वासुकि माधव (वैशाख) अर्यमा पुलह पुलह पुंजिकस्थली नारद प्रहेति ओज: कच्छनीर शुक्र (ज्येष्ठ) मित्र अत्रि मेनका हहा पौरूषेय रथस्वन तक्षक शुचि (आषाढ़) वरूण वसिष्ठ रम्भा हूहू शुक्र चित्रस्वन सहजन्य नभ (श्रावण) इन्द्र अंगिरा प्रम्लोचा विश्वावसु वर्य श्रोता एलापत्र नभस्य (भाद्रपद) विवस्वान भृगु अनुम्लोचा उग्रसेन व्याघ्र आसारण शंखपाल तप (आश्विन) पूषा गौतम घृताची धनंजय वात सुरूचि सुषेण तपस्य (कार्तिक) क्रतु भरद्वाज वर्चा पर्जन्य सेनजित् विश्व ऐरावत सह (मार्गशीर्ष) अंशु कश्यप उर्वशी ऋतसेन विद्युच्छत्रु तार्क्ष्य महाशंख पुष्य (पौष) भग आयु पूर्वंचित्ति स्फूर्ज अरिष्टनेमि ऊर्ण कर्कोटक इष (माघ) त्वष्टा ऋचीकतनय (जमदग्नि) तिलोत्तमा शतजित ब्रह्मापेत धृतराष्ट्र कम्बल ऊर्ज (फाल्गुन) विष्णु विश्वामित्र रम्भा सूर्यवर्चा मखापेत सत्यजित् अश्वतर

भगवान सूर्य की आराधना नैष्ठिक रूप से करने वाले उड़ीसा में थोड़े लोग मिलते हैं। सौर-सम्प्रदाय अब व्यापक रहा नहीं; किंतु सन्ध्या भगवान आदित्य की ही उपासना है और वह द्विजातिमात्र का अनिवार्य कर्तव्य है। भगवान सूर्य साक्षात नारायण हैं। उन श्रुतिधाम ने वाजि (अश्व)- रूप धारण करके महर्षि याज्ञवल्क्य को शुक्ल यजुर्वेद का उपदेश किया। श्रीहनुमानजी के विद्यागुरू भी वही हैं। भारत में रविवार का व्रत खूब प्रख्यात है। अनेक आर्त उससे सफलकाम होते हैं।


  • सूर्य को मानव/अवतार/देवता मानते हुए उसका जन्म अदिति (प्रकृति) से हुआ माना गया है।
  • सूर्य की दो पत्नियाँ अर्थात सहचरी बतायी गयीं हैं।
  1. संज्ञा( चेतना या ऊर्जा) और
  2. छाया
  • छाया की कोख़ से शनि का जन्म हुआ। गुणों में पिता से विपरीत धर्म-कर्त्तव्य वाला होने के कारण शनि पिता सूर्य के साथ मनमुटाव जैसा व्यवहार करता बताया गया है, परंतु सूर्य पुत्र के अवगुणों को तो कुदृष्टि से देखता है पर पुत्र के साथ तट्स्थ बना रहता है।
  • श्रीमद्भागवतपुराण में सूर्य के विषय में विस्तार से वर्णन किया गया है। सूर्य की स्थिति बतायी है -

'अंडमध्यगतः सूर्यो द्यावाभूम्योर्यदन्तरम।
सूर्याण्डगोलयोर्मध्ये कोट्यः स्युः पञ्चविंशतिः॥'

  • स्वर्ग और पृथ्वी के बीच में जो ब्रह्माण्ड का केंद्र है वहीं सूर्य की स्थिति है।

'मृतेऽण्ड एष एतस्मिन यद भूत्ततो मार्तण्ड इति व्यपदेशः।
हिरण्यगर्भ इति यद्धिरण्याण्डसमुद्भवः॥'

अर्थ

इस अचेतन में विराजने के कारण इसे 'मार्तण्ड' भी कहा जाता है। यह ज्योतिर्मय(हिरण्यमय) ब्रह्मांड से प्रकट हुए हैं इसलिए इन्हें 'हिरण्यगर्भा' भी कहते हैं। सूर्य ही दिशा, आकाश, द्युलोक (अंतरिक्ष) भूलोक, स्वर्ग और मोक्ष के प्रदेश , नरक, और रसातल और अन्य भागों के विभागों का कारण है। सूर्य ही समस्त देवता, तिर्यक, मनुष्य, सरीसृप और लता-वृक्षादि समस्त जीव समूहों के आत्मा और नेत्रेन्द्रियके अधिष्ठाता हैं, अर्थात सूर्य से ही जीवन है। 'सूर्येण हि विभज्यन्ते दिशः खं द्यौर्मही भिदा। स्वर्गापवर्गोनरका रसौकांसि च सर्वशः॥' 'देवतिर्यङ्मनुष्याणां सरीसृपसवीरुधाम। सर्वजीवनिकायानां सूर्य आत्मा दृगीश्वरः॥'

सूर्य की स्थिति

सूर्य ग्रहों और नक्षत्रों का स्वामी है। सूर्य उत्तरायण, दक्षिणायन और विषुवत नाम वाली क्रमशः मंद, शीघ्र और समान गतियों से चलते हुए समयानुसार मकरादि राशियों में ऊँचे-नीचे और समान स्थानों में जाकर दिन रात को बड़ा,छोटा करता है। जब मेष या तुला राशि पर आता है तब दिन-रात समान हो जाते हैं। तब प्रतिमास रात्रियों में एक-एक घड़ी कम होती जाती है और दिन बढ़ते जाते हैं। जब वृश्चिकादि राशियों पर सूर्य चलते हैं तब इसके विपरीत परिवर्तन होता है। श्रीमद्भागवपुराण में सूर्य की परिक्रमा का मार्ग नौ करोड़, इक्यावन लाख योजन बताया है। समय के साथ सूर्य को स्पष्ट करने के लिए रुपक है:'सूर्य का संवत्सर नाम का एक चक्र (पहिया) है, उसमें माह रुपी बारह अरे हैं, ऋतु रुपी छह नेमियाँ हैं और तीन चौमासे रुपी तीन नाभियाँ हैं।'

ज्योतिष में सूर्य

ज्योतिष के अनुसार सूर्य सबसे तेजस्वी, प्रतापी और सत और तमो गुण वाला ग्रह कहा गया है। यह आत्मा का कारक और हृदय एवं नाड़ी संस्थान का अधिपति है। सूर्य समस्त ब्रह्मांड का केंद्र ज्योतिष में भी माना गया है। प्राचीन ज्ञान का हर विषय मानवीकरण और रूपक के माध्यम से स्पष्ट किया गया मिलता है। सूर्य भी इससे अछूता नहीं है।

  • सूर्य कृतिका, उत्तराषाढ़ा और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रों का स्वामी है। (कृतिकानक्षत्र ज्ञानार्जन, पशुपालन, रोग, अनासक्ति, अशांत और तार्किकता इत्यादि गुण-प्रधान बताया गया है तो उत्तराषाढ़ा चित्रकला, सफाई, यश-कीर्ति, प्रज्ञा, पुष्टता, गर्वीलापन, दृढ़ता और निपुणता जैसे विषयोंका प्रधान बताया गया है लेकिन उत्तराफाल्गुनी तेज-स्मरणशक्ति, कला-कुशलता, व्यवहार-कुशलता, एकांतप्रेमी, माता-पिता के सुख से वंचित जैसे गुणों की प्रधानता वाला बताया गया मिलता है।)
  • सूर्य सिंह राशि, जो काल-पुरुष( समय का मानवीयकरण) का आमाशय/ पेट माना गया है और गणना से पांचवी राशि है, का स्वामी माना गया है और भावों के अनुसार पाँचवाँ भाव शिक्षा, संतान, शौक और आदत का है।