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श्री [[बांकेबिहारीजी]] महाराज को [[वृंदावन]] में प्रकट करने वाले स्वामी हरिदासजी का जन्म  विक्रम सम्वत् 1535 में भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की अष्टमी ([[श्रीराधाष्टमी]]) के ब्रह्म मुहूर्त में हुआ था । आपके पिता श्री आशुधीर जी अपने उपास्य श्रीराधा-माधव की प्रेरणा से पत्नी गंगादेवी के साथ अनेक तीर्थो की यात्रा करने के पश्चात् अलीगढ जनपद की कोल तहसील में [[ब्रज]] आकर एक गांव में बस गए । श्रीहरिदासजीका व्यक्तित्व बडा ही विलक्षण था । वे बचपन से ही एकान्त-प्रिय थे । उन्हें अनासक्त भाव से भगवद्-भजन में लीन रहने से बडा आनंद मिलता था। श्री हरिदासजी का कण्ठ बडा मधुर था और उनमें संगीत की अपूर्व प्रतिभा थी । धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल गई । उनका गांव उनके नाम से विख्यात हो गया ।
 
श्री [[बांकेबिहारीजी]] महाराज को [[वृंदावन]] में प्रकट करने वाले स्वामी हरिदासजी का जन्म  विक्रम सम्वत् 1535 में भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की अष्टमी ([[श्रीराधाष्टमी]]) के ब्रह्म मुहूर्त में हुआ था । आपके पिता श्री आशुधीर जी अपने उपास्य श्रीराधा-माधव की प्रेरणा से पत्नी गंगादेवी के साथ अनेक तीर्थो की यात्रा करने के पश्चात् अलीगढ जनपद की कोल तहसील में [[ब्रज]] आकर एक गांव में बस गए । श्रीहरिदासजीका व्यक्तित्व बडा ही विलक्षण था । वे बचपन से ही एकान्त-प्रिय थे । उन्हें अनासक्त भाव से भगवद्-भजन में लीन रहने से बडा आनंद मिलता था। श्री हरिदासजी का कण्ठ बडा मधुर था और उनमें संगीत की अपूर्व प्रतिभा थी । धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल गई । उनका गांव उनके नाम से विख्यात हो गया ।
 
हरिदासजी को उनके पिता ने यज्ञोपवीत-संस्कार के उपरान्त वैष्णवी दीक्षा प्रदान की । युवा होने पर माता-पिता ने उनका विवाह हरिमति नामक परम सौंदर्यमयी एवं सद्गुणी कन्या से कर दिया, किंतु स्वामी हरिदासजी की आसक्ति तो अपने श्यामा-कुंजबिहारी के अतिरिक्त अन्य किसी में थी ही नहीं । उन्हें गृहस्थ जीवन से विमुख देखकर उनकी पतिव्रता पत्नी ने उनकी साधना में विघ्न उपस्थित न करने के उद्देश्य से योगाग्निके माध्यम से अपना शरीर त्याग दिया और उनका तेज स्वामी हरिदासके चरणों में लीन हो गया ।
 
हरिदासजी को उनके पिता ने यज्ञोपवीत-संस्कार के उपरान्त वैष्णवी दीक्षा प्रदान की । युवा होने पर माता-पिता ने उनका विवाह हरिमति नामक परम सौंदर्यमयी एवं सद्गुणी कन्या से कर दिया, किंतु स्वामी हरिदासजी की आसक्ति तो अपने श्यामा-कुंजबिहारी के अतिरिक्त अन्य किसी में थी ही नहीं । उन्हें गृहस्थ जीवन से विमुख देखकर उनकी पतिव्रता पत्नी ने उनकी साधना में विघ्न उपस्थित न करने के उद्देश्य से योगाग्निके माध्यम से अपना शरीर त्याग दिया और उनका तेज स्वामी हरिदासके चरणों में लीन हो गया ।

१०:१०, १२ मई २००९ का अवतरण

स्वामी हरिदासजी

श्री बांकेबिहारीजी महाराज को वृंदावन में प्रकट करने वाले स्वामी हरिदासजी का जन्म विक्रम सम्वत् 1535 में भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की अष्टमी (श्रीराधाष्टमी) के ब्रह्म मुहूर्त में हुआ था । आपके पिता श्री आशुधीर जी अपने उपास्य श्रीराधा-माधव की प्रेरणा से पत्नी गंगादेवी के साथ अनेक तीर्थो की यात्रा करने के पश्चात् अलीगढ जनपद की कोल तहसील में ब्रज आकर एक गांव में बस गए । श्रीहरिदासजीका व्यक्तित्व बडा ही विलक्षण था । वे बचपन से ही एकान्त-प्रिय थे । उन्हें अनासक्त भाव से भगवद्-भजन में लीन रहने से बडा आनंद मिलता था। श्री हरिदासजी का कण्ठ बडा मधुर था और उनमें संगीत की अपूर्व प्रतिभा थी । धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल गई । उनका गांव उनके नाम से विख्यात हो गया । हरिदासजी को उनके पिता ने यज्ञोपवीत-संस्कार के उपरान्त वैष्णवी दीक्षा प्रदान की । युवा होने पर माता-पिता ने उनका विवाह हरिमति नामक परम सौंदर्यमयी एवं सद्गुणी कन्या से कर दिया, किंतु स्वामी हरिदासजी की आसक्ति तो अपने श्यामा-कुंजबिहारी के अतिरिक्त अन्य किसी में थी ही नहीं । उन्हें गृहस्थ जीवन से विमुख देखकर उनकी पतिव्रता पत्नी ने उनकी साधना में विघ्न उपस्थित न करने के उद्देश्य से योगाग्निके माध्यम से अपना शरीर त्याग दिया और उनका तेज स्वामी हरिदासके चरणों में लीन हो गया ।

विक्रम सम्वत् 1560 में पच्चीस वर्ष की अवस्था में श्रीहरिदास वृन्दावन पहुंचे । वहां उन्होंने निधिवन को अपनी तपोस्थली बनाया । हरिदास जी निधिवन में सदा श्यामा-कुंजबिहारी के ध्यान तथा उनके भजन में तल्लीन रहते थे । स्वामीजी ने प्रिया-प्रियतम की युगल छवि श्री बांकेबिहारीजी महाराज के रूप में प्रतिष्ठित की । हरिदासजी के ये ठाकुर आज असंख्य भक्तों के इष्टदेव हैं । वैष्णव स्वामी हरिदास को श्रीराधा का अवतार मानते हैं । श्यामा-कुंजबिहारी के नित्य विहार का मुख्य आधार संगीत है । उनके रास-विलास से अनेक राग-रागनियां उत्पन्न होती हैं । ललिता संगीत की अधिष्ठात्री मानी गई हैं । ललितावतार स्वामी हरिदास संगीत के परम आचार्य थे । उनका संगीत उनके अपने आराध्य की उपासना को समर्पित था, किसी राजा-महाराजा को नहीं । बैजूबावरा और तानसेन जैसे विश्व-विख्यात संगीतज्ञ स्वामीजी के शिष्य थे । मुगल सम्राट अकबर उनका संगीत सुनने के लिए रूप बदलकर वृन्दावन आया था । विक्रम सम्वत् 1630 में स्वामी हरिदास का निकुंजवास निधिवन में हुआ ।

स्वामी जी ने एक नवीन पंथ सखी-सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया । उनके द्वारा निकुंजोपासना के रूप में श्यामा-कुंजबिहारी की उपासना-सेवा की पद्धति विकसित हुई, यह बडी विलक्षण है । निकुंजोपासना में जो सखी-भाव है, वह गोपी-भाव नहीं है । निकुंज-उपासक प्रभु से अपने लिए कुछ भी नहीं चाहता, बल्कि उसके समस्त कार्य अपने आराध्य को सुख प्रदान करने हेतु होते हैं । श्री निकुंजविहारी की प्रसन्नता और संतुष्टि उसके लिए सर्वोपरि होती है । राधाष्टमीके पावन पर्व में स्वामी हरिदास का पाटोत्सव ( जन्मोत्सव ) वृंदावन में बडे धूमधाम के साथ मनाया जाता है । सायंकाल मंदिर से चाव की सवारी निधिवन में स्थित उनकी समाधि पर जाती है । ऐसा माना जाता है कि ललितावतार स्वामी हरिदास की जयंती पर उनके लाडिले ठाकुर बिहारीजीमहाराज उन्हें बधाई देने श्रीनिधिवन पधारते हैं । देश के सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ निधिवनमें स्वामीजी की समाधि के समक्ष अपना संगीत प्रस्तुत करके उनका आशीर्वाद लेते हैं।