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गीता अध्याय-5 श्लोक-1 / Gita Chapter-5 Verse-1
पच्चमोऽध्याय: प्रसंग--
भगवान् के श्रीमुख से ही 'ब्रह्रार्पण ब्रह्रा हवि:', 'ब्रह्राग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुहृति', 'तद्विद्वि प्राणिपातेन' आदि वचनों द्वारा ज्ञानयोग अर्थात् कर्मसंन्यास की भी प्रशंसा अर्जुन ने सुनी । इससे अर्जुन यह निर्णय नही कर सके कि इन दोनों में से मेरे लिये कौन-सा साधन श्रेष्ठ है । अतएव अब भगवान् के श्रीमुख से ही उसका निर्णय कराने के उद्देश्य से अर्जुन उनसे प्रश्न करते हैं-
इस पच्चम अध्याय में कर्मयोग-निष्ठा और सांख्ययोग-निष्ठा का वर्णन है, सांख्ययोग का ही पर्यायवाची शब्द 'संन्यास' है । इसलिये इस अध्याय का नाम 'कर्म-संन्यासयोग' रखा गया है ।
प्रसंग-
अब भगवान् अर्जुन के इस प्रश्न का उत्तर देते हैं-
संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ।।1।।
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अर्जुन बोले-
हे कृष्ण ! आप कर्मों के संन्यास की और फिर कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं । इसलिये इन दोनों में से जो एक मेरे लिये भलीभाँति निश्चित कल्याणकारक साधन हो, उसको कहिये ।।1।।
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arjuna said:
Krishna, you extol sankhyayoga ¼the Yoga of knowledge½ and then the yoga of action. Pray tell me which of the two is decidedly conducive to my good. (1)
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कर्मणाम् = कर्मों के; संन्यासम् = सन्यास की; पुन: = फिर; योगम् = निष्काम कर्मयोग की; शंससि = प्रशंसा करते हो (इसलिये) एतयो: = इन दोनों में; एकम् = एक; यत् = जो; सुनिश्चितम् = निश्चय किया हुआ; श्रेय: = कल्याण कारक (होवे); तत् = उसको; मे = मेरे लिये; ब्रूहि = कहिये
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