रसखान की भाषा

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रसखान की भाषा

सोलहवीं शताब्दी में ब्रजभाषा साहित्यिक आसन पर प्रतिष्ठित हो चुकी थी। भक्त-कवि सूरदास इसे सार्वदेशिक काव्य भाषा बना चुके थे। किन्तु उनकी शक्ति भाषा सौष्ठव की अपेक्षा भाव द्योतन में अधिक रमी। इसीलिए बाबू जगन्नाथ दास रत्नाकर ब्रजभाषा का व्याकरण बनाते समय रसखान, बिहारी और घनानन्द के काव्याध्ययन को सूरदास से अधिक महत्त्व देते हैं। बिहारी की व्यवस्था कुछ कड़ी तथा भाषा परिमार्जित एवं साहित्यिक है। घनानन्द में भाषा-सौन्दर्य उनकी 'लक्षणा' के कारण माना जाता है। रसखान की भाषा की विशेषता उसकी स्वाभाविकता है। उन्होंने ब्रजभाषा के साथ खिलवाड़ न कर उसके मधुर, सहज एवं स्वाभाविक रूप को अपनाया। साथ ही बोलचाल के शब्दों को साहित्यिक शब्दावली के विकट लाने का सफल प्रयास किया।

शब्द-शक्ति-चमत्कार

प्रत्येक शब्द के अर्थ का बोध शब्द की शक्ति द्वारा होता है। वैयाकरणों ने 'शब्दार्थ-सम्बन्ध: शक्ति' कहकर इसी परिभाषा को सार्थक किया है। शब्द की शक्ति ही उसकी सार्थकता की द्योतक होती है। काव्य में अभीप्सित अर्थ की स्पष्ट अभिव्यक्ति के अतिरिक्त, यह भी आवश्यक है कि भाषा में शिष्टता, रमणीयता, चमत्कारिता और संवेदनशीलता हो। रसखान की भाषा की शक्ति इस लक्ष्य की पूर्ति में कहां तक सफल हो सकी है इसी का विवचेन प्रस्तुत शीर्षक के अन्तर्गत किया गया है।

  • शब्दशक्तियां तीन मानी गई हैं-
  1. अभिधा- अभिधा शक्ति वह शक्ति है जिससे सांकेतिक (प्रसिद्ध) अर्थ का अवबोध हुआ करता है। और इसीलिए उसे शब्द की प्रथम (मुख्य) शक्ति कहते हैं।<balloon title="साहित्यदर्पण, पृ0 40;" style=color:blue>*</balloon>
  2. लक्षणा- लक्षणा शक्ति वह शक्ति है जो कहीं मुख्यार्थ के (अन्वयबोध के) बाधित अथवा अनुपपन्न हो जाने पर वहां एक ऐसे अर्थ का अवबोधन करवाया करती है जो कि मुख्यार्थ से (सर्वथा असंबद्ध नहीं अपितु) किसी न किसी रूप से संबद्ध तो अवश्य रहा करता है किन्तु मुख्यार्थ के स्वभाव से भिन्न स्वभाव का ही हुआ करता है और ऐसा होने के कारण रूढ़ि है या प्रयोजन-विवक्षा।<balloon title="साहित्यदर्पण ,पृ0 48" style=color:blue>*</balloon>
  3. व्यंजना- व्यंजना शक्ति वह शक्ति है जो अभिधा आदि शक्तियों के शांत हो जाने पर (अपने-अपने कार्य कर चुकने के बाद क्षीण सामर्थ्य हो जाने पर) एक ऐसे अर्थ का अवबोधन कराया करती है जो बाध्य, लक्ष्यादि रूप अर्थों से सर्वथा एक विलक्षण प्रकार का अर्थ हुआ करता है।<balloon title="साहित्य दर्पण, पृ0 75" style=color:blue>*</balloon>

अभिधा शक्ति

रसखान के काव्य में भक्ति तथा प्रेम सम्बन्धी पद्यों में, वात्सल्य-वर्णन में, संयोग लीला तथा रूप-चित्रण के सामान्य इतिवृत्तात्मक अंशों में अभिधा शक्ति से द्योतित वाच्यार्थ की प्रधानता स्वभावत: है ही, विशेष भावपूर्ण स्थलों पर अभिधा में भी चमत्कार का निरूपण है—

  • बैन वही उनको गुन गाइ औ कान वही उन बैन सो सानी।<balloon title="सुजान रसखान, 4" style=color:blue>*</balloon>
  • सेष सुरेस दिनेस गनेस प्रजेस धनेस महेस मनावौ।<balloon title="सुजान रसखान, 5" style=color:blue>*</balloon>
  • देस बिदेस के देखे नरेसन रीझ की कोऊ न बूझ करैगो।<balloon title="सुजान रसखान, 7" style=color:blue>*</balloon>
  • वेई ब्रह्म ब्रह्मा जाहि सेवत हैं रैन-दिन, सदासिव सदा ही धरत ध्यान गाढ़े हैं।<balloon title="सुजान रसखान, 10" style=color:blue>*</balloon>
  • सुनिये सब की कहिये न कछू रहिये इमि या मन-बागर में।<balloon title="सुजान रसखान,8" style=color:blue>*</balloon>
  • गावैं गुनी गनिका गंधरब्बा औ सरद सबै गुन गावत।<balloon title="सुजान रसखान,12" style=color:blue>*</balloon> उपर्युक्त पंक्तियों में रसखान ने अभिधा शक्ति द्वारा अपने मन की अभिलाषा को बड़े सुन्दर ढंग से व्यक्त किया है। भक्तिपूर्ण मनोभिलाषा की इस हृदयहारिणी अभिव्यक्ति में चमत्कार का वैशेष्ट्य है।
  • रसखान ने कृष्ण के बाल-रूप का चित्रण अभिधा के द्वारा किया है-

आजु गई हुती भोर ही हौं रसखानि रई वहि नंद के भौनहिं।
वाकौ जियौ जुग लाख करोर जसोमति को सुख जात कह्यौ नहिं।
तेल लगाइ लगाइ कै अंजन भौंह बनाइ बनाइ डिठौनहिं।
डालि हमेलनि हार निहारत वारत ज्यौ चुचकारत छौनहिं॥<balloon title="सुजान रसखान, 20" style=color:blue>*</balloon>

धूरि भरे अति सोभित स्यामजू तैसी बनी सिर सुन्दर चोटी।
खेलत खात फिरें अंगना पग पैजनी बाजति पीरी कछौटी।<balloon title="सुजान रसखान, 21" style=color:blue>*</balloon>

  • लक्षणा और व्यंजना की निबंधना न होने पर भी कृष्ण के बाल सौंदर्य की अभिव्यक्ति निस्संदेह शक्तिमती है-

मैया की सौं सोच कटू मटकी उतारे को न
गोरस के ढारे को न चीर चीरि डारे को।
यहै दुख भारी गहै डगर हमारी माँझ,
नगर हमारे ग्वाल बगर हमारे को।<balloon title="सुजान रसखान, 46" style=color:blue>*</balloon>

गौरज बिराजै भाल लहलही बनमाल,
आगे गैयाँ ग्वाल गावैं मृदु बानि री।
तैसी धुनि बाँसुरी की मधुर मधुर जैसी,
बंक चितवनि मंद मंद मुसकानि री।

कदम विटप के निकट तटनी के तट,
अटा चढ़ि चाहि पीत पटा फहरानि री।
रस बरसावै तनतपति बुझावै नैन,
प्राननि रिझावै वह आवै रसखानि री।<balloon title="सुजान रसखान, 183" style=color:blue>*</balloon>

रसखान ने पद्यों में अभिधा शक्ति का प्रयोग किया है। अंतिम पद्य अभिधा का सुन्दर उदाहरण है। रसखान के भक्ति प्रेम तथा बाललीला संबंधी पद्यों में अभिधाशक्ति के चमत्कारपूर्ण दर्शन होते हैं। उनकी प्राय: सभी रचनाएं रसपूर्ण या भावपूर्ण हैं। अतएव उनके काव्य में अभिधा का एकांत प्रयोग अधिक नहीं है। जहां रस या भाव की व्यंजना होती है वहां व्यंजना-शक्ति का अस्तित्व स्वयं सिद्ध है।

लक्षणा-शक्ति

लक्षणा शब्द शक्ति वह शब्द शक्ति है जो कहीं मुख्यार्थ के (अन्वयबोध) वाधित हो जाने पर वहां एक ऐसे अर्थ का अवबोधन करवाया करती है, जो मुख्यार्थ से किसी न किसी रूप में संबंध तो अवश्य रहा करता है, किन्तु मुख्यार्थ के स्वभाव से भिन्न स्वभाव का ही हुआ करता है और ऐसा होने का कारण या तो रूढ़ि है या प्रयोजन-विवक्षा।<balloon title="मुख्यार्थ बाधे तद्युक्तो ययान्योऽर्थ: प्रतीयते। रूढे: प्रयोजनाद्वाऽसौ लक्षणा शक्तिरर्पिता॥ साहित्यदर्पण, पृ0 48" style=color:blue>*</balloon> लक्षणा शक्ति के अनेक भेदोपभेद हैं। हम केवल प्रमुख भेदों के आधार पर रसखान के काव्य में प्रयुक्त लक्षणा शक्ति का विवेचन करेंगे।

रूढ़ि-लक्षणा

रूढ़ि-लक्षणा वह है जिसमें रूढ़ि के कारण मुख्यार्थ को छोड़कर उससे संबंध रखने वाला अन्य अर्थ ग्रहण किया जाय।<balloon title="काव्य-दर्पण, पृ0 22" style=color:blue>*</balloon> रसखान के काव्य में रूढ़ि-लक्षणा यत्र-तत्र मिल जाती है। रूढ़ि-लक्षणा का सफल प्रयोग कवि के भाषाधिकार का परिचायक है—

कुंजगली में अली निकसी तहाँ सांकरे ढोटा कियौ भटभेरी।
माइ री वा मुख की मुसकान गयौ मन बूड़ि फिरै नहिं फेरो।
डोरि लियौ दृग चोरी लियो चित डारयौ है प्रेम को फंद घनेरो।
कैसी करौं अब क्यौं निकसौं रसखानि परयौ तन रूप को घेरो॥<balloon title="सुजान रसखान, 28" style=color:blue>*</balloon>

  • 'मन बूड़ने' में रूढ़ि-लक्षणा है। मन वास्तव में डूबा नहीं। इसका लक्ष्यार्थ यह है कि मन कृष्ण के सौंदर्य के वशीभूत हो गया।
  • 'रूप के घेरो' का लक्ष्यार्थ यह है कि एक बार देखने के बाद गोपी का हृदय कृष्ण के स्वरूप से प्रभावित हो गया है।
  • बार ही गौरस बेंचि री आज तूं माई के मूड़ चढ़ै कत मौडी।<balloon title="सुजान रसखान, 41" style=color:blue>*</balloon> मूड़ चढ़ने में रूढ़ि लक्षण है।

काल्हि परयौ मुरली-धुनि मैं रसखानि जू कानन नाम हमारो।
ता दिन ते नहिं धीर रह्यौ जग जानि लयौ अति कीनो पँवारो।
गाँवन गाँवन मैं अब तौ बदनाम भई सब सौ कै किनारो।
तौ सजनी फिरि कहौं पिय मेरो वही जग ठोंकि नगारो।<balloon title="सुजान रसखान, 55" style=color:blue>*</balloon>

इस पद में रसखान ने तीन बार रूढ़ि-लक्षणा का सफल प्रयोग किया है। वास्तव में नगाड़ा ठोंका नहीं गया। कहने का तात्पर्य यह है कि बात सब में प्रसिद्ध हो गई है।

  • कहाँ लौं सयानी चंदा हाथन छिपाइबो।<balloon title="सुजान रसखान, 100" style=color:blue>*</balloon> चंद्रमा को हाथ से छिपाया नहीं जा सकता। चंदा को छिपाने में लक्ष्यार्थ बात छिपाने से है। इस पंक्ति में रूढ़ि लक्षणा को चमत्कारिक ढंग से व्यक्त किया गया है।
  • आँख से आँख लड़ी जबहीं तब सौं ये रहैं अँसुवा रंग भीनी।<balloon title="सुजान रसखान, 181" style=color:blue>*</balloon> यहां आंख लड़ने का लक्ष्यार्थ दर्शन होने से है। रसखान के काव्य में रूढ़ि लक्षणा के अनेक उदाहरण मिलते हैं। ये प्रयोग भाव एवं भाषा सुन्दर बनाने में सहायक हुए हैं।

प्रयोजनवती लक्षणा

  • प्रयोजनवती लक्षणा वह है जिसमें किसी विशेष प्रयोजन की सिद्धि के लिए लक्षणा की जाय।<balloon title="काव्य-दर्पण, पृ0 23" style=color:blue>*</balloon>
  • रसखान के काव्य में प्रयोजनवती लक्षणा के प्राय: सभी भेदों के दर्शन होते हैं।
  • वा छबि रसखानि बिलोकत वारत काम कला निज कोटी।<balloon title="सुजान रसखान, 21" style=color:blue>*</balloon> कृष्ण-रूप के सामने करोड़ों कामदेवों और चंद्रमा के सौंदर्य वारने से प्रयोजन कृष्ण को अधिक रूपवान सिद्ध करना है।
  • मैं तबही निकसी घर तें तकि नैन बिसाल को चोट चलाई।<balloon title="सुजान रसखान,30" style=color:blue>*</balloon> चोट चलाने से प्रयोजन प्रहार करने से है। नयनों की कटाक्ष-प्रभाव का यहां वर्णन है।

आजु ही बारक 'लेहू दही' कहि कै कछु नैनन में बिहँसी है।
बैरिनि वाहि भई मुसकानि जु वा रसखानि कै प्रान बसी है।<balloon title=" सुजान रसखान, 38" style=color:blue>*</balloon>

  • 'नैनन में विहंसने' में शरारत के लक्ष्यार्थ द्वारा प्रयोजनवती लक्षणा है।
  • बैरिनि में मुसकान के दुखदायी होने की व्यंजना है।
  • मुस्कान वेदना का कारण बन गई।

हार हियैं भरि भावन सौं पट दीने लला वचनामृत बौरी।<balloon title="सुजान रसखान, 27" style=color:blue>*</balloon>
बचनामृत का प्रयोजन प्रेम भरे वचनों से है।
मेरी सुनौ मति आइ अली उहाँ जौनी गली हरि गावत है।
हरि लैहै बिलोकत प्रानन कों पुनि गाढ़ परें घर आवत है।
उन तान की तान तनी ब्रज मैं रसखानि सयान सिखावत है।
तकि पाय धरौ रपटाय नहीं वह चारो सौं डारि फंदावत है।<balloon title="सुजान रसखान, 60" style=color:blue>*</balloon>

  • द्वितीय पंक्ति में प्रयोजनवती गौणी लक्षणा है और चतुर्थ पंक्ति में चेतावनी द्वारा कि तुम मुरली की ध्वनि सुनकर फिसल न जाओ, संभल कर चलो में प्रयोजनवती शुद्धा लक्षणा है।

उपादान लक्षणा

जहां वाक्यार्थ की संगति के लिए अन्य अर्थ के लक्षित किये जाने पर भी अपना अर्थ न छूटे वहां उपादान लक्षणा होती है।<balloon title="काव्य-दर्पण, पृ0 24" style=color:blue>*</balloon> रसखान के काव्य में उपादान लक्षणा के सफल प्रयोग के दर्शन होते हैं।

अन्त ते न आयौ याही गाँवरे को जायौ
माई बापरे जिवायौ प्याइ दूध बारे बारे को।
सोई रसखानि पहिवानि कानि छाँडि चाहै,
लोचन नचावत नचैया द्वारे द्वारे को।
मैया की सौं सोच कछू मटकी उतारे को न
गोरस के ढारे को न चीर चीरि डारे को।
यहै दुख भारी गहै डगर हमारी माँझ,
नगर हमारे ग्वाल बगर हमारे को।<balloon title="सुजान रसखान, 46" style=color:blue>*</balloon>

तीसरी पंक्ति में उपादान लक्षणा है। द्वार-द्वार नाचने वाला आज हमारे सामने आंखें नचा रहा है। उपादान लक्षणा से विदित हो रहा है कि वह हमारे साथ छल कर रहा है।

लक्षणलक्षणा

  • जहां वाच्यार्थ की सिद्धि के लिए वाक्यार्थ अपने को छोड़ कर केवल लक्ष्यार्थ को सूचित करे, यहां लक्षणलक्षणा होती है।<balloon title="काव्य दर्पण, पृ0 25" style=color:blue>*</balloon>
  • पै रसखानि वही मेरो साधन, और त्रिलोक रहौ कि नसावौ।<balloon title="सुजान रसखान, 5" style=color:blue>*</balloon> यहां त्रिलोक से लक्ष्य शेष जो कुछ भी है उस ऐश्वर्य की मुझे कामना नहीं। यहां कार्यकारक सम्बन्ध से लक्षणलक्षणा है।
  • माँगत दान मैं आन लियो सु कियौ निलजी रस जोबन खायौ।<balloon title="सुजान रसखान, 43" style=color:blue>*</balloon> 'रस जोबन' खाने की वस्तु नहीं है। इसका लक्ष्यार्थ रति क्रीड़ा से है। काम रति के आनन्द की व्यंजना की गई है। वाच्यार्थ के त्याग से यहां लक्षणलक्षणा है।

जहदजहल्लक्षणा

जहां पर किसी शब्द का वाच्यार्थ अंशत: स्वीकृत किया जाता है और अंशत: बाधित होता है वहां जहदजहल्लक्षणा होती है। इसी विशेषता के कारण इसे भाग त्यागलक्षणा भी कहते हैं। रसखान के काव्य में जहदजहल्लक्षणा के भी उदाहरण मिलते हैं-

अरी अनोखी बाम, तूँ आई गौने नई।
बाहर धरसि न पाम, है छलिया तुव ताक मैं।<balloon title="सुजान रसखान, 98" style=color:blue>*</balloon>

'तुव ताक में' देख रहा है, इस वाच्यार्थ के होते हुए भी लक्ष्यार्थ यह निकल रहा है कि वह तुम्हें पकड़ना चाहता है। ध्वनि यह है कि तुम सावधान हो जाओ।

नीकें निहारि कै देखे न आँखिन, हौं कबहूँ भरि नैन न जागी।
मो पछितावो यहै जु सखी कि कलंक लग्यौ पर अंक न लागी।<balloon title="सुजान रसखान, 138" style=color:blue>*</balloon>

जहदजहल्लक्षणा के द्वारा यह चरितार्थ हो रहा है कि मैं बदनाम भी हुई किन्तु कृष्ण के आलिंगन का आनन्द भी नहीं प्राप्त हुआ। रसखान के काव्य में लक्षणा शक्ति के अनेक सफल उदाहरण मिलते हैं।

व्यंजना-शक्ति

व्यंजना-शक्ति शब्द और अर्थ आदि की वह शक्ति है जो अभिधा आदि शक्तियों के शान्त हो जाने पर (अपने-अपने कार्य कर चुकने के बाद क्षीण सामर्थ्य हो जाने पर) एक ऐसे अर्थ का अवबोधन कराया करती है जो वाध्य, लक्ष्यादिरूप अर्थों से सर्वथा एक विलक्षण प्रकार का अर्थ हुआ करता है।<balloon title="विरतास्वभिधाद्यासु ययाऽर्थों बोध्यते पर: सा वृत्तिव्यंजना नाम शब्दस्यार्थादिकस्य च॥ साहित्यदर्पण, पृ0 75" style=color:blue>*</balloon> रसखान की भाषा पारदर्शी है। शब्दों में निबद्ध भाव अनुभूति को मूर्तता प्रदान करते हैं। नेत्रों के सामने एक सजीव चित्र खिंच जाता है। इसके लिए रसखान ने व्यंजना शक्ति का आश्रय लिया। शक्तिभाव से भरे हुए पदों में भी व्यंजना द्वारा अपने भावों का सुन्दर निरूपण किया है-

कहा रसखानि सुखसंपति सुमार कहा
कहा तन जोगी ह्वै लगाए अंग छार को।<balloon title="सुजान रसखान,9" style=color:blue>*</balloon>

यहां यह व्यंजित हो रहा है कि समस्त ऐश्वर्य और बाहरी नियम, व्रत आदि व्यर्थ हैं। अर्थात उनका सेवन नहीं करना चाहिए।

ऐसे ही भए तौ नर कहा रसखानि जौ पै,
चित दै न कोनी प्रीति पीत पटवारे सों॥<balloon title="सुजान रसखान" style=color:blue>*</balloon>

व्यंजना द्वारा ध्वनित हो रहा है कि कृष्ण-प्रेम के बिना सब चीजें व्यर्थ हैं।

काहे को सोच करै रसखानि कहा करि है रबि नंद बिचारो।
ता खन जा खन राखियै माखन चाखनहारौ सो राखनहारो॥<balloon title="सुजान रसखान, 18" style=color:blue>*</balloon>

यहां विवक्षितान्य पर वाच्य ध्वनित है। प्रश्नात्मक वाक्य से नकारात्मक ध्वनि यह निकल रही है कि रसखान को सोच करने की तनिक भी आवश्यकता नहीं है।

काग के भाग बड़े सजनी हरि-हाथ् सौं लै गयौ माखन-रोटी।<balloon title="सुजान रसखान, 21" style=color:blue>*</balloon> यह व्यंग्य ध्वनित हो रहा है कि कौवे जैसे छोटे से पक्षी का इतना बड़ा भाग्य है कि वह कृष्ण के हाथ से माखन-रोटी ले गया। मुझे यह सौभाग्य भी प्राप्त नहीं।

कोऊ न काहू की कानि करै कछु चेटक सो जु कियौ जदुरैया।<balloon title="सुजान रसखान, 24" style=color:blue>*</balloon> 'प्रभाव चेटक सौं' मैं है। वास्तव में जादू नहीं किया गया है। अर्थान्तरसंक्रमितवाच्य द्वारा 'सो' में चमत्कार है।

गौरस के मिस जो रस चाहत सो रस कान्हजू नेकु न पैहौ।<balloon title="सुजान रसखान, 42" style=color:blue>*</balloon> उपर्युक्त पंक्तियों में अभिधामूला व्यंजना है। गोरस और जो रस में ऐन्द्रिय सुख भोग, कामरति के आनन्द की व्यंजना है।

हाँसी मैं हार हरयौ रसखानि जू जौ कहूँ नेकु तगा टुटि जैहैं।
एकहि मोती के मोल लला सिगरे ब्रज हाटहि हाट बिकैहैं॥<balloon title="सुजान रसखान, 45" style=color:blue>*</balloon>

वाक्य ध्वनि यह है कि यदि हमारा हार टूट गया तो तुम्हारा बड़ा अपमान होगा। नायिका के मन में विद्यमान कृष्ण विषयक प्रेम की भी व्यंजना हो रही है।

करियै उपाय बाँस डारियै कटाय
नाहिं उपजैगो बाँस नाहिं बाजै फेरि बाँसुरी।<balloon title="सुजान रसखान, 54" style=color:blue>*</balloon>

यहां लोकोक्ति के आधार पर मुरली को समूल नष्ट करने की व्यंजना है।

मोहन के मन भाइ गयौ इक भाइ सौं ग्वालिनैं गोधन गायौ।
ताकों लग्यौ चट, चौहट सौं दुरि औचक गात सों गात छुवायौ।
रसखानि लही इनि चातुरता चुपचाप रही जब लौं घर आयौ।
नैन नचाइ चितै मुसकाइ सु ओट ह्वै जाइ अँगूठा दिखायौ।<balloon title="सुजान रसखान,101" style=color:blue>*</balloon>

इस पद में गोपी की बुद्धिमानी की व्यंजना हो रही है। यह कृष्ण की सब चेष्टाओं पर चुप रही, किन्तु घर आने पर उसने नयन नचाकर मुस्करा कर अंगूठा दिखा दिया। यहां पर व्यंजना है कि अब कृष्ण इसका कुछ नहीं कर सकते। साथ ही गोपी की शरारत और चातुर्य भी ध्वनित हो रहे हैं।

नवरंग अनंग भरी छबि सौं वह मूरति आँखि गड़ी ही रहै।
बतियाँ मन की मन ही मैं रहै घतिया उर बीच अड़ी ही रहै।
तबहूँ रसखानि सुजान अली नलिनीदल बूँद पड़ी ही रहै।
जिय की नहिं जानत हों सजनी रजनी अँसुवान लड़ी ही रहै।<balloon title="सुजान रसखान,127" style=color:blue>*</balloon>

नवरंग में अतिशय सौन्दर्य की जो नित्य नए रूप में दिखाई देता है, व्यंजना हो रही है। 'आंखि ही गड़ी रहै' अर्थात आंख में ऐसी बसी है कि हिलती ही नहीं है। आंख में कोई चीज पड़ने से पीड़ा होती है। यहां कृष्ण प्रेम के कारण कसक हो रही है। रजनी में एकान्त हो जाने पर सब के सो जाने के उपरान्त अश्रुओं में किसी प्रकार की बाधा नहीं पड़ती। यहां नायिका के रोदन के साथ-साथ प्रेम की अतिशयता की व्यंजना है।

  • कोउ रही पुतरी सी खरी कोउ घाट डरी कोउ बाट परी जू।<balloon title="सुजान रसखान, 142" style=color:blue>*</balloon> यहां गोपियों के किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाने की व्यंजना है।
  • पै कहा करौ वा रसखानि बिलौकि हियौ हुलसै हुलसै हुलसै।<balloon title="सुजान रसखान, 143" style=color:blue>*</balloon> नायिका के प्रेमावशीभूत होने की व्यंजना है।
  • लखि नैन की कोर कटाछ चलाइ कै लाज की गांठन खोलत है।<balloon title="सुजान रसखान, 157" style=color:blue>*</balloon> यहां लज्जा के बंधनों को तोड़ देने की व्यंजना है। उसके कटाक्ष के प्रभाव से लज्जा के बंधन टूट गए हैं। लज्जा की पराकाष्ठा की हृदयस्पर्शी अभिव्यंजना हैं।

भटू सुन्दर स्याम सिरोमनि मोहन जोहन में चित चोरत है।
अवलोकन बंक बिलोकन मैं ब्रजबालन के दृग जोरत है।<balloon title="सुजान रसखान, 171" style=color:blue>*</balloon>

यहां प्रेम के वशीभूत होने की व्यंजना है।

मोहनी मोहन सौं रसखानि अचानक भेंट भई बन माहीं।
जेठ की घाम भई सुखधाम अनन्द ही अंग ही अंग समाहीं।
जीवन को फल पायौ भटू रसबातन केलि सौं तोरत नाहीं।
कान्ह को हाथ कंघा पर है मुख ऊपर मोरकिरीट की छाहीं॥<balloon title="सुजान रसखान, 185" style=color:blue>*</balloon>

प्रिय की निकटता के कारण कष्टदायक वस्तुओं के सुखद प्रतीत होने की व्यंजना द्वितीय पंक्ति में है। जेठ की धूप इसलिए सुखद प्रतीत हो रही है कि गर्मी में कोई वन में नहीं घूमता। इससे नायक-नायिका को एकान्त में मिलने की सुविधा प्राप्त है। 'अंग ही अंग समाही' में प्रगाढ़ आलिंगन से उत्पन्न अतिशय सुख की अभिव्यक्ति है। रूपक और श्लेष अलंकार के द्वारा रति के अतिशय आनन्द को किसी भी प्रकार बाधित नहीं करना चाहतीं। सुख की पराकाष्ठा पर पहुंची हुई प्रेयसी के रति आनन्दातिरेक की व्यंजना हो रही है।

पिचका चलाई और जुवती भिजाइ नेह,
लोचन नचाइ मेरे अंगहि नचाइ गौ।
सामहिं नचाइ भौरी नन्दहि नचाइ खोरी
बैरिन सचाइ गौरी मोहि सकुचाइ गौ।<balloon title="सुजान रसखान, 194" style=color:blue>*</balloon>

चंचल नेत्रों का प्रभाव इतना अधिक था कि सात्विक भावों का उदय होने लगा। 'बैरिन सचाइ' में पिछले बैर का बदला निकालने की व्यंजना है। पहले कभी गोपी ने कृष्ण-प्रेम की अवहेलना की होगी। 'सकुचाने' में यह व्यंजना है कि लोग देखकर भांप गए कि उसके मन में प्रेम है। रसखान के काव्य का अवलोकन करने पर यह भली-भांति विदित हो जाता है कि रसखान ने व्यंजना शब्दशक्ति के आश्रय से उत्तम कोटि के ध्वनि काव्य की रचना की। रसखान द्वारा 'व्यंजना' के बहुधा प्रयोग से भी यह सिद्ध होता है कि भाषा पर उनका पूर्ण अधिकार था। रसखान प्रसूत लाक्षणिक प्रयोगों और ध्वन्यात्मक अभिव्यंजना शैली की सम्यक प्रतीति न होने के कारण ही हिन्दी के एक आलोचक ने उनके काव्य को अभिधाकाव्य माना है।<balloon title="'रसखान का काव्य अभिधा का काव्य है'।" style=color:blue>*</balloon> उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्टतया सिद्ध है कि उनकी यह मान्यता सर्वथा असंगत है।

रसखान के काव्य में प्रयुक्त शब्द शक्तियों के उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट निष्कर्ष निकलता है कि उन्होंने स्थान-स्थान पर काव्य चमत्कार को उत्कर्ष प्रदान करने वाली लक्षणा और व्यंजना का उपयुक्त प्रयोग किया है। उनकी भाषा के धारावाहिक और प्रसाद-गुण पूर्ण बाह्य रूप के कारण अनेक आलोचकों को यह भ्रांति हो गई है कि वे अविधा के कवि हैं। तत्वत: अभिधा और प्रसाद में कोई विरोध नहीं है। जटिलता न होते हुए भी रसखान की रचनाओं में उपर्युक्त शब्द-शक्तियों का चमत्कार असंदिग्ध है।

रसखान की भाषा में मुहावरों और लोकोक्तियों का प्रयोग

मुहावरों के प्रयोग से भाषा सशक्त एवं सजीव हो जाती है। जनता के सम्पर्क में रहने वाले लेखक की भाषा में मुहावरे स्वभावत: अधिक होते हैं। मुहावरे भाषा की