ॠषभदेव का त्याग

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ॠषभदेव का त्याग / Rishabhdev Ka Tyaag

  • राजा प्रियवत के पौत्र नाभि की कोई संतान नहीं थी। उन्होंने संतान प्राप्ति के लिए बड़ा जप-तप किया और बड़ी दान-दक्षिणा भी दी, किंतु फिर भी उन्हें संतान प्राप्ति नहीं हुई। इस कारण वे बड़े दुखी और निराश हुए। नाभि ने बड़े-बड़े ॠषियों और मुनियों से परामर्श किया। वे चाहते थे कि दिव्य पुरुष की भांति ही उनके घर में पुत्र उत्पन्न हो। ॠषियों ने उन्हें यज्ञ द्वारा दिव्य पुरुष के आह्वान की सलाह दी। नाभि ने यज्ञ का आयोजन किया। बड़े-बड़े ॠषि और मुनि एकत्रित हुए। यज्ञ होने लगा। मन्त्रों और आहुतियों के साथ दिव्य पुरुष का आह्वान किया जाने लगा। दिव्य पुरुष प्रसन्न होकर प्रकट हुए। ॠषियों ने उनकी प्रार्थना करते हुए कहा,'प्रभो! हम सब आपके दास हैं, आप हमारे स्वामी हैं। हम पर कृपा कीजिए। हमारी रक्षा कीजिए और हमारी मनोभिलाषाओं को पूर्ण करके हमारे जीवन को सार्थक बनाइए। दीनबंधु, आप जगत में जो कुछ होता है, आप ही की इच्छा से होता है। हमारे राजा नाभि आपके ही समान पुत्र चाहते हैं। उन पर दया कीजिए, उनकी मनोकामना पूर्ण कीजिए।'
  • ॠषियों की प्रार्थना से दिव्य पुरुष प्रसन्न हुए। उन्होंने प्रसन्न मुद्रा में कहा,'ॠषियों, मेरे समान दूसरा कौन हो सकता है? तुम्हारी प्रार्थना पर मैं स्वयं नाभि के घर जन्म धारण करूंगा।'दिव्य पुरुष ने अपने वचनानुसार स्वयं नाभि के घर जन्म लिया। बड़ा ही सुंदर स्वरूप था उनका। अंग-अंग में ज्योति थी, सुंदरता थी और शौर्य था। नाभि ने उनका नाम ॠषभदेव रखा। ॠषभदेव बड़े अलौकिक और बए चमत्कारिक थे। जब वे बड़े हुए, तो नाभि उन्हें राज्य देकर वन में चले गए। ॠषभदेव राजसिंहासन पर बैठकर राज्य करने लगे। उन्होंने अपना विवाह किया। एक-एक करके उनके दस पुत्र उत्पन हुए। भरत उन्हीं के पुत्र थे।
  • किंतु ॠषभदेव की राज्य, पृथ्वी, सांसरिक सुखों और पुत्रों में कोई आसक्ति नहीं थी। वे कार्य करते जा रहे थे, किंतु उन कार्यों में उनकी कोई रुचि नहीं थी, न उनके प्रति मोह ही था। वे उन्हें मिथ्या समझते थे, निस्सार समझते थे। एक दिन ॠषभदेव ने अपने पुत्रों को बुलाकर कहा,'यह राज्य, यह वैभव और ये सुख की सामग्रियां सब निस्सार हैं। यह शरीर, शरीर की इन्द्रियां, मन और बुद्धि— यह सभी मिथ्या हैं। सत्य है परमात्मा रूपी ब्रह्म। अतः मनुष्य को परमात्मा रूपी ब्रह्म को जाने और समझने की चेष्टा करनी चाहिए। जब तक मनुष्य परमात्मा रूपी ब्रह्म को समझ नहीं लेता, वह अहम के जाल में फंसा रहता है और नाना प्रकार के कष्ट भोगता है।'
  • ॠषभदेव अपने पुत्रों को निरासक्ति का उपदेश देकर वन की ओर चल दिए। जिस प्रकार छोटा बालक बड़े प्रेम से मिट्टी का घरौंदा बनाकर उसे तोड़ देता है, उसी प्रकार ॠषभदेव ने बिना किसी मोह के राज्य और घर-द्वार को छोड़ दिया। उन्हें राज्य और घर-द्वार से मोह हो ही कैसे सकता था? वे तो दिव्य पुरुष के प्रतिरूप थे। ॠषभदेव ने घर छोड़ने पर वस्त्रों का परित्याग कर दिया। वे दिगंबर हो गए। वे दिगंबर के रूप में पृथ्वी पर परिभ्रमण करने लगे। वे जहां भी जाते, उपदेश देते हुए कहते, 'मनुष्यों, अपने को समझो। जो कुछ तुम कर रहे हो, वह ठीक नहीं है। तुम्हारे दुखों का यही कारण है कि तुम अपने को समझ नहीं रहे हो। जिस दिन तुम अपने आपको समझ लोगे, उस दिन तुम्हारे सारे दुखों का अंत हो जाएगा।'
  • ॠषभदेव पृथ्वी पर विचरते हुए सिंहों को गले से लगा लेते थे। सर्पों को पकड़कर माला की भांति गले में डाल लेते थे और विष पीने के बाद भी जीवित रहते थे। उनकी चमत्कारिकता पर साधारण मनुष्य तो मुग्ध थे ही, बड़े-बड़े सम्राट भी मुग्ध थे। ॠषभदेव पृथ्वी पर विचरते हुए दक्षिण दिशा में एक सघन वन में जा पहुंचे। जिस समय वे सघन वन के पास पहुंचे, उस समय वन में भीषण दावाग्नि लगी हुई थी, जीव-जंतु व्याकुल होकर भाग रहे थे। ॠषभदेव हंसते हुए दावाग्नि में कूद पड़े। दावाग्नि तो बुझ गई, पर ॠषभदेव अदृश्य हो गए। जो भी इस नश्वर जगत में जन्म लेता है, उसे एक-न-एक दिन अवश्य अदृश्य हो जाना पड़ता है। कोई इस जगत में सदा रह ही कैसे सकता है, क्योंकि यह जगत तो स्वयं ही मिट्टी के समान गल जाने वाला है।