गया

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गया / Gaya

आधुनिक काल में भी सभी धार्मिक हिन्दुओं की दृष्टि में गया का विलक्षण महत्व है। इसके इतिहास, प्राचीनता, पुरातत्त्व-सम्बन्धी अवशेषों, इसके चतुर्दिक के पवित्र स्थलों, इसमें किये जानेवाले श्राद्ध-कर्मों तथा गया वालों के विषय में कई मतों का उद्घोष किया गया है। जो लोग गया की प्राचीनता एवं इसके इतिहास की जानकारी करना चाहते हैं उन्हें निम्न ग्रन्थ एवं लेख पढ़ने चाहिए- बुद्ध गया [१], महाबोधि [२] ,गया गजेटियर [३] , गया गजेटियर [४], इण्डियन ऐण्टीक्वेरी [५], इण्डियन ऐण्टीक्वेरी [६], गया एवं बुद्धगया [७], मध्य काल के निबन्ध [८]


गया के विषय में सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है गया-माहात्म्य [९] विद्वानों ने गया-माहात्म्य के अध्यायों की प्राचीनता पर सन्देह प्रकट किया है।

  • राजेन्द्रलाला मित्र ने इसे तीसरी या चौथी शताब्दी में प्रणीत माना है।
  • ओ' मैली ने गयासुर की गाथा का आविष्कार 14वीं या 15वीं शताब्दी का माना है, क्योंकि उनके मत से गयावाल वैष्णव हैं, जो मध्वाचार्य द्वारा स्थापित सम्प्रदाय के समर्थक हैं और हरि नरसिंहपुर के महन्त को अपना गुरू मानते हैं[१०] किन्तु यह मत असंगत है। वास्तव में गयावाल लोग आलसी, भोगासक्त एवं अज्ञानी हैं और उनकी जाति अब मरणोन्मुख है। ओ' मैली ने लिखा है कि प्रारम्भ में गयावलों के 1484 कुल थे, बुचनन हैमिल्टन के काल में वे लगभग 1000 थे, सन् 1893 में उनकी संख्या 128 रह गयी, 1909 की जनगणना में शुद्ध गया वालों की संख्या 168 और स्त्रियों की 153 थी। गया वैष्णव तीर्थ है, यदि गयावाल मध्य काल के किसी आचार्य को अपना गुरू मानें तो वे आचार्य, स्वभावत:, वैष्णव आचार्य मध्व होंगे न कि शंकर।
  • डा0 बरूआ ने व्याख्या करके यह प्रतिष्ठापित किया है कि गया-माहात्म्य 13वीं या 14वीं शताब्दी के पूर्व का लिखा हुआ नहीं हो सकता। डा0 बरूआ का निष्कर्ष दो कारणों से असंगत ठहर जाता है। वे सन्देहात्मक एवं अप्रामाणिक तर्क पर अपना मत आधारित करते हैं। वे वनपर्व में पाये जानेवाले वृत्तान्त की जाँच करते हैं और उसकी तुलना गया माहात्म्य के अपेक्षाकृत अधिक पूर्ण वृतान्त से करके निष्कर्ष निकालते हैं [११] दूसरी बात जो डा0 बरूआ के मत की असंगति प्रकट करती है, यह है कि उन्होंने कीलहार्न द्वारा सम्पादित अभिलेख के 12वें श्लोक की व्याख्या भ्रामक रूप में की है[१२]

'गया' का नाम

  • ऋग्वेद [१३] में आया है 'अस्तवि जनो दिव्यो गयेन'[१४] ये ऋग्वेद के एक ऋषि हैं। ऋग्वेद में 'गय' शब्द अ य अर्थों में भी आया है जिनका यहाँ उल्लेख असंगत है।
  • अथर्ववेद [१५]में असित एवं कश्यप के साथ गय नामक एक व्यक्ति जादूगर या ऐन्द्रजालिक के रूप में वर्णित है।
  • वैदिक संहिताओं में असुरों, दासों एवं राक्षसों को जादू एवं इन्द्रजाल में पारंगत कहा गया है (ऋ0 7।99।4, 7।104।24—25 एवं अथर्ववेद 4।23।5)। ऐसी कल्पना कठिन नहीं है कि 'गय' आगे चलकर 'गयासुर' में परिवर्तित हो गया हो। निरूक्त (12।19) ने 'इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम्' (ऋ0 1।22।17) की व्याख्या करते हुए दो विश्लेषण दिये हैं, जिनमें एक प्राकृतिक रूप की ओर तथा दूसरा भौगोलिक या किंवदन्तीपूर्ण मतों की ओर संकेत करता है- 'वह (विष्णु) अपने पदों को तीन ढंगों से रखता है।' शाकपूणि के मत से विष्णु अपने पद की पृथिवी, अन्तरिक्ष एवं स्वर्ग में रखते हैं, और्णवाभ के मत से समारोहण, विष्णुपद एवं गय-शीर्ष पर रखते हैं।(2) वैदिक उक्ति का तात्पर्य चाहे जो हो, किन्तु यह स्पष्ट है कि ईसा की कई शताब्दियों पूर्व इसके दो विश्लेषण उपस्थित हो चुके थे, और यदि बुद्ध के निर्वाण की तिथियाँ ठीक मान ली जायँ तो यह कहना युक्तिसंगत है कि और्णवाभ एवं यास्क बुद्ध के पूर्व हुए थे। देखिए सैकेंड बुक आव दि ईस्ट (जिल्द 13, पृ0 22-23, जहाँ सिंहली गाथा के अनुसार बुद्ध की निर्वाणतिथि ई0 पू0 483 मानी गयी है और पश्चिमी लेखकों के मत से ई0 पू0 429-400)।(3) गयशीर्ष का नाम वनपर्व (87।11 एवं 95।9),

(2) त्रेधा निधत्ते पदम्। पृथिव्यामन्तरिक्षे दिवीति शाकपूणि:। समारोहणे गयाशिरसि-इति और्णवाभ:। निरूक्त (12।19)। (3) अधिकांश संस्कृत-विद्वान् निरूक्त को कम-से-कम ई0पू0 पाँचवीं शताब्दी का मानते हैं। और्णवाभ निरूक्त के पूर्वकालीन हैं। विंटरनित्ज का हिस्ट्री आव संस्कृत लिटरेचर, भाग 1, पृ0 69, अंग्रेजी संस्करण)। गयाशीर्ष के वास्तविक स्थल एवं विस्तार के विषय में विद्वान् एकमत नहीं हैं। देखिए डा0 राजेन्द्रलाल मित्र कृत 'बुद्ध-गया' (पृ0 19), डा0 बरूआ (भाग 1,पृ0 246) एवं सैकेड बुक आव दि ईस्ट (जिल्द 13, पृ0 134, जहाँ कनिंघम ने 'गयासीस' को बह्मयोनि माना है)। विष्णुधर्मसूत्र (85।4, यहाँ 'गयाशीर्ष' शब्द आया है), विष्णुपुराण (22।20, जहाँ इसे ब्रह्मा की पूर्व वेदी कहा गया है), महावग्ग (1।21।1, जहाँ यह आया है कि उरवेला में रहकर बुद्ध सहस्त्रों भिक्षुओं के साथ गयासीस अर्थात् गयाशीर्ष में गये) में आया है। जैन एवं बौद्ध ग्रन्थों में ऐसा आया है कि राजा गय का राज्य गया के चारों ओर था। उत्तराध्ययनसूत्र में आया है कि वह राजगृह के राजा समुद्रविजय का पुत्र था और ग्यारहवाँ चक्रवर्ती हुआ। अश्वघोष के बुद्धचरित में आया है कि ऋषि गय के आश्रम में बुद्ध आये, उस सन्त (भविष्य के बुद्ध) ने नैरञ्जना नदी के पुनीत तट पर अपना निवास बनाया और पुन: वे गया के काश्यप के आश्रम में, जो उरूबिल्व कहलाता था, गये। इस ग्रन्थ में यह भी आया है कि वहाँ धर्माटवी थी, जहाँ वे 700 जटिल रहते थे, जिन्हें बुद्ध ने निर्वाण-प्राप्ति में सहायता दी थी। विष्णुधर्मसूत्र (85।40) में श्राद्ध के लिए विष्णुपद पवित्र स्थल कहा गया है। ऐसा कहा जा सकता है कि और्णवाभ ने किसी क्षेत्र में किन्हीं ऐसे तीन स्थलों की ओर संकेत किया है जहाँ किंवदन्ती के आधार पर, विष्णुपद के चिह्न दिखाई पड़ते थे। (4) इनमें दो अर्थात् विष्णुपद एवं गयशीर्ष विख्यात है; अत: ऐसा कहना तर्कहीन नहीं हो सकता कि 'समारोहण' कोई स्थल है जो इन दोनों के कहीं पास में ही है। समारोहण का अर्थ है। 'ऊपर चढ़ना', ऐसा प्रतीत होता है कि यह शब्द फल्गु नदी से ऊपर उठने वाली पहाड़ी की चढ़ाई की ओर संकेत करता है। ऐसा सम्भव है कि यह गीतनादित (पक्षियों के स्वर से गंजित) उद्यन्त पहाड़ी ही है। 'उद्यन्त' का अर्थ है 'सूर्योदय की पहाड़ी'; यह सम्पूर्ण आर्यावर्त का द्योतम है, ऐसा कहना आवश्यक नहीं है; यह उस स्थान का द्योतक है जहाँ विष्णुपद एवं गयशीर्ष अवस्थित हैं। इससे ऐसा कहा जा सकता है कि ईसा के 600 वर्ष पूर्व अर्थात् बुद्ध के पूर्व कम-से-कम (गया में) विष्णुपद एवं गय-शीर्ष के विषय में कोई परम्परां स्थिर हो चुकी थी। यदि किसी ग्रन्थ में इनमें से किसी एक का नाम उल्लिखित नहीं है तो इससे यह नहीं कहा जा सकता कि वह नहीं था और न उसका वह नाम था। अब हम वनपर्व की बात पर आयें। डा0 बरूआ इसके कुछ श्लोकों पर निर्भर रह रहे हैं (84।82-103 एवं 95।9-21)। हम कुछ बातों की चर्चा करके इन श्लोकों को व्याख्या उपस्थित करेंगे। नारदीय0 (उत्तर, 46।16) का कथन है कि गयशीर्ष क्रौचपद से फल्गुतीर्थ तक विस्तृत है। वनपर्व (अध्याय 82) ने भीष्म के तीर्थ-सम्बन्धी प्रश्नों का उत्तर पुलस्त्य द्वारा दिलाया है। सर्वप्रथम पुष्कर (श्लोक 20-40) का वर्णन आया है और तब बिना क्रम के जम्बूमार्ग, तन्दुलिकाश्रम, अगस्त्त्यसर, महाकाल, कोटितीर्थ, भद्रवट (स्थाणुतीर्थ), नर्मदा, प्रभास एवं अन्य तीर्थों का विवेचन हुआ है। अगले अध्याय 83 में कुरूक्षेत्र का विस्तृत वर्णन है। (4) मेहरौली (देहली से 9 मील उत्तर) के लौह-स्तम्भ के लेख का अन्तिम श्लोक यों है- 'तेनायं प्रणिधाय भूमिपतिना.... प्रांशुर्विष्णुपदे गिरौ भगवतो विष्णोर्ध्वज: स्थापित:' (गुप्ताभिलेख, सं0 32, पृ0 149)। यह स्तम्भाभिलेख किसी चन्द्र नामक राजा का है। इससे प्रकट होता है कि 'विष्णुपद' नामक कोई पर्वत था। किन्तु यह नहीं प्रकट होता कि इसके पास कोई 'गयाशिरस्' नामक स्थल था। अत: 'विष्णुपद' एवं 'गयशिरस्' साथ-साथ गया की ओर संकेत करते हैं। अभिलेख में कोई तिथि नहीं है, किन्तु इसके अक्षरों से प्रकट होता है कि यह समुद्रगुप्त के काल के आस-पास का है। अत: विष्णुपद चौथी शताब्दी में देहली के पास के किसी पर्वत पर रहा होगा। उसी समय या उसके पूर्व में यह वर्णन आया है कि विपाशा नदी के दक्षिण में एक विष्णुपद था। वनपर्व (84।82-103) के महत्वपूर्ण श्लोकों की व्याख्या के पूर्व गया के विषय में कहे जानेवाले श्लोकों में जो कुछ आया है उसका वर्णन अनिवार्य है। डा0 बरूआ तथा अन्य लोगों ने अध्याय 84 तथा आगे के अध्यायों के श्लोकों की व्याख्या सावधानी से नहीं की है। वनपर्व (84।1।89) में धौम्य द्वारा 57 तीर्थों (यथा नैमिष, शाकम्भरी, गंगाद्वार, कनखल, गंगा-यमुना-संगम, कुब्जाभ्रक आदि) के नाम गिनाकर गया के तीर्थों के विषय में विवेचन उपस्थित किया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि प्रस्तुतलेखक को अन्य तीर्थों के विषय में अधिक वर्णन करना अभीष्ट नहीं था, इसी से उसने कुछ तीर्थों का वर्णन आगे दो बार किया है। पद्मपुराण (आदि, 38।2-19) ने वनपर्व को ज्यों-का-ज्यों उतारा है, लगता है, एक-दूसरे ने दोनों को उद्धृत किया है। वनपर्व में नैमिष का वर्णन दो स्थानों पर (यथा 84।59-64 एवं 87।6-7) हुआ है और गया का भी (यथा 85।82-103 एवं 87।8-12) दो बार हुआ है। गया के तीर्थों के नाम जिस ढंग से लिये गये हैं और उनका वर्णन जिस ढंग से किया गया है उससे यह नहीं कहा जा सकता कि वनपर्व गया और उससे सम्बन्धित किंवदन्तियों के विषय में विशद वर्णन करना चाहता था। यह निष्कर्ष इस बात से और शक्तिशाली हो उठता है कि अनुशासनपर्व में तीन तीर्थों का जो उल्लेख हुआ है वह वनपर्व (84।82-103) में नहीं पाया जाता, यथा- ब्रह्महत्या करने वाला व्यक्ति गया में अश्मप्रस्थ (प्रेतशिला), निरविन्द की पहाड़ी एवं कौंचपदी पर विशुद्ध हो जाता है (अनुशासन0 25।42)। ये तीनों तीर्थ वनपर्व मं नहीं आते। वायु0 (109।15) में अरविन्दक को शिलापर्वत का शिखर कहा गया है, और नारदीय0 ने कौंचपद (मुण्ड-प्रस्थ) की चर्चा की है। स्पष्ट है कि गयामाहात्म्य में उल्लिखित इन तीन तीर्थों का नाम अनुशासनपर्व में भी आया है। यह चिन्ता की बात है कि डा0 बरूआ ने गया की प्राचीनता के विषय में केवल वनपर्व (अध्याय 84 एवं 95), अग्निपुराण (अध्याय 114-116) एवं वायुपुराण (अध्याय 105-111) का ही सहारा लिया, उन्होंने अन्य पुराणों को नहीं देखा और उन्होंने यह भी नहीं देखा कि और्णवाभ द्वारा व्याख्यात विष्णु के तीन पद संभवत: गया के तीर्थों की ओर संकेत करते हैं। पद्म0 (आदि, 38।2-21), गरूड़ (1, अध्याय 82-86), नारदीय0 (उत्तर, अध्याय 44-47) आदि में गया के विषय में बहुत-कुछ कहा गया है और उनके बहुत से श्लोक एक-से हैं। महाभारत (वन0 82।81) का 'सावित्र्यास्तु पदं' पद्म0 (आदि, 38।13) में 'सावित्र पदं' आया है जिसका अर्थ विष्णु (सवितृ) का पद हो सकता है। तो ऐसा कहना कि वनपर्व में प्रतिमा-संकेत नहीं मिलता, डा0 बरूआ के भ्रामक विवेचन का द्योतक है। गया में धर्म की प्रतिमा भी थी, क्योंकि वनपर्व में आया है कि यात्री धर्म का स्पर्श करते थे (धर्म तत्राभिसंस्पृश्य)। इसके अतिरिक्त बछड़े के साथ 'गोपद' एवं 'सावित्र पद' की ओर भी संकेत मिलता है। इन उदाहरणों से सूचित होता है कि वनपर्व में प्रतिमा-पूजन की ओर संकेत विद्यमान हैं। फाहियान (399-413 ई0) ने लिखा है कि उसके समय में हिन्दू धर्म का नगर गया समाप्त प्राय था। यह सम्भव है कि चौथी शताब्दी के पूर्व भूकम्प के कारण गया नगर के मन्दिर आदि नष्ट-भ्रष्ट हो चुके होंगे। प्राचीन पालि ग्रन्थों एवं ललितविस्तर में गया के मन्दिरों का उल्लेख है। गया कई अवस्थाओं से गुजरा है। ईसा की कई शताब्दियों पूर्व यह एक समृद्धिशाली नगर था। ईसा के उपरान्त चौथी शताब्दी में यह नष्ट प्राय था। किन्तु सातवीं शताब्दी में ह्वेनसाँग ने इसे भरा-पूरा लिखा है जहाँ ब्राह्मणों के 1000 कुल थे। आगे चलकर जब बौद्ध धर्म की अवनति हो गयी तो इसके अन्तर्गत बौद्ध अवशेषों की भी परिगणना होने लगी। वायुपुराण में वर्णन आया है कि गया प्रेतशिला से महाबोधि वृक्ष तक विस्तृत है (लगभग-13 मील) डा0 बरूआ ने डा0 कीलहार्न द्वारा सम्पादित शिलालेख के 12वें श्लोक का अर्थ ठीक से नहीं किया है (इण्डियन ऐण्टीक्वेरी, जिल्द 16, पृ0 63)। श्लोक का अनुवाद यों है (5)---'उस बुद्धिमान् (राजकुमार यक्षपाल) ने मौनादित्य एवं अन्य देवों (इसमें उल्लिखित) की प्रतिमाओं के लिए एक मन्दिर बनवाया, उसने उत्तर मानससर बनवाया और अक्षय (वट) के पास एक सत्र (भोजन-व्यवस्था के दान) की योजना की।' नयपाल के राज्यकाल का यह शिलालेख लगभग 1040 ई0 में उत्कीर्ण हुआ। डा0 बरूआ का कथन है कि उत्तरमानस तालाब उसी समय खोदा गया, और वह 1040 ई0 से प्राचीन नहीं हो सकता, अत: यह तथा अन्य तीर्थ पश्चात्कालीन हैं तथा गयामाहात्म्य, जिसमें उत्तर मानस की चर्चा है, 11वीं शताब्दी के पश्चात् लिखित हुआ है। किन्तु डा0 बरूआ का यह निष्कर्ष अति दोषपूर्ण है। यदि तालाब शिलालेख के समय पहली बार खोदा गया था तो इसे ख्यात (प्रसिद्ध) कहना असम्भव है। खोदे जाने की कई शताब्दियों के उपरान्त ही तालाब प्रसिद्ध हो सकता है। उत्तरमानस तालाब वायु0 (77।108, और यह श्लोक कल्पतरू द्वारा 1110 ई0 में उद्धृत किया गया है), पुन: वायु0 (82।21) एवं अग्नि0 (115।10) में वर्णित है। इससे स्पष्ट है कि उत्तर मानस 8वीं या 9वीं शताब्दी में प्रख्यात था। केवल इतना ही कहा जा सकता है कि यह तालाब मिट्टी से भर गया था अत: यह पुन: सन् 1040 के लगभग खोदा गया या लम्बा-चौड़ा बनाया गया। इसका कोई अन्य तात्पर्य नहीं है। ऐसा कहा जा सकता है कि गयामाहात्म्य (वायु0, अध्याय 105-112) जो सम्भवत: वायुपुराण के बाद का है, 13वीं या 14वीं शताब्दी का नहीं है अर्थात् कुछ पुराना है। कई पुराणों एवं ग्रन्थों से सामग्रियाँ इसमें संगृहीत की गयी हैं, यथा वनपर्व, अनुशासनपर्व, पद्म0 (1।38), नारदीय0 (उत्तर, अध्याय 44-47) आदि। इसके बहुत से श्लोक बार-बार दुहराये गये हैं। डा0 बरूआ ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया है कि वायु0 (82।20-24) में गया के बहुत-से उपतीर्थों का उल्लेख हुआ है। यथा-ब्रह्मकूप, प्रभास, प्रेतपर्वत, उत्तर मानस, उदीची, कनखल, दक्षिण मानस, धर्मारण्य, गदाधर मतंग। अध्याय 70।97-108 में ये नाम आये हैं- गृध्रकूट, भरत का आश्रम, मतंगपद, मुण्डपृष्ठ एवं उत्तर मानस। गयामाहात्म्य के बहुत से श्लोक स्मृतिचन्द्रिका (लगभग 1150-1225) द्वारा श्राद्ध एवं आशौच के विषय में उद्धृत हैं। बहुत-सी बातों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि गयामाहात्म्य 7वीं एवं 10वीं शताब्दी के बीच कभी प्रणीत हुआ होगा। अब हमें यह देखना है कि महाभारत के अन्य भागों एवं स्मृतियों में गया का वर्णन किस प्रकार हुआ है। वनपर्व के अध्याय 87 एवं 95 में इसकी ओर संकेत है। ऐसा आया है कि पूर्व की ओर (काम्यक वन से, जहाँ पर पाण्डव लोग कुछ समय तक रहे थे) बढ़ते हुए यात्री नैमिष वन एवं गोममी के पास पहुँचेंगे। तब कहा गया है कि गया नामक पवित्र पर्वत है, ब्रह्मकूप नामक तालाब है। इसके उपरान्त वह प्रसिद्ध श्लोक है, जिसका अर्थ है कि 'व्यक्ति को बहुत-से पुत्रों की अभिलाषा करनी चाहिए और यदि उनमें एक भी गया जाता है या अश्वमेघ करता है या नील वृष छोड़ता है तो पितर लोग तृप्त हो जाते हैं (वनपर्व 87।10-12)।(6) इसके उपरान्त वनपर्व (अ0 87) ने पवित्र (5) मौनादित्यसहस्त्रलिंगकमलार्धागींणनारायण,-- द्विसोमेश्वरफल्गुनाथविजयादित्याह्वयानां कृती। स प्रासादमचीकरद् दिविषदां केदारदेवस्य च, ख्यातस्योत्तरमानसस्य खननं सत्रं तथा चाक्षये॥ (6) एष्टव्या बहव: पुत्रा यधेकोपि गयां व्रजेत्। यजेत वाश्वमेधेन नीलं वा वृषमुत्सुजेत्॥ महानदी च तत्रैव तथा गयशिरो नृप। यत्रासौ कोर्त्यते विप्रैरक्षय्यकरणो वट:॥ यत्र दत्तं पितृभ्योन्नमक्षय्यं भवति प्रभो। सा च पुच्यजला तत्र फल्गुनामा महानदी॥ वनपर्व (87।10-12); राजर्षिणा पुण्यकृता गयेनानुपमद्युते। नगो गयशिरो यत्र पुण्या चैव महानदी॥...ऋषियज्ञेन महता यत्राक्षयवटो महान्। अक्षये देवयजने अक्षयं यत्र वै फलम्॥ वनपर्व (95।9-14)। और देखिए एष्टव्या... नामक श्लोक के लिए विष्णुत्रर्मसूत्र (85। अन्तिम श्लोक), मत्स्य0 (22।6), वायु0 (105।10), कूर्म0 (2।35।12), पद्म0 (1।38।17 एवं 5।11।62) तथा नारदीय0 (उत्तर 44।5-6)। नदी फल्गु (महानदी), गयशिरस् अक्षयवट का उल्लेख किया है, जहाँ पितरों को दिया गया भोजन अक्षय हो जाता है। वनपर्व (अध्याय 95) में ब्रह्मसर (जहाँ अगस्त्य धर्मराज अर्थात् यम के पास गये थे, श्लोक 12), और अक्षयवट (श्लोक 14) का उल्लेख है। इसमें आया है कि अमूर्तरय के पुत्र राजा गय ने एक यज्ञ किया था, जिसमें भोजन एवं दक्षिणा पर्याप्त रूप में दी गयी थी।(7) वसिष्ठधर्मसूत्र (111।42) में आया है कि जब व्यक्ति गया जाता है और पितरों को भोजन देता है तो वे उसी प्रकार प्रसन्न होते हैं जिस प्रकार अच्छी वर्षा होने से कृषकगण प्रसन्न होते हैं, और ऐसे पुत्र से पितृगण, सचमुच, पुत्रवान् हो जाते हैं। विष्णुधर्मसूत्र (85।65-67) ने श्राद्ध योग्य जिन 55 तीर्थों के नाम दिये हैं, उनमें गया-सम्बन्धी तीर्थ हैं- गयाशीर्ष, अक्षयवट, फल्गु, उत्तर मानस, मतंग-वापी, विष्णुपद। याज्ञ0 (1।261) में आया है कि गया में व्यक्ति जो कुछ दान करता है उससे अक्षय फल मिलता है। अत्रि-स्मृति (55-58) में पितरों के लिए गया जाना, फल्गु-स्नान करना पितृतर्पण करना, गया में गदाधर (विष्णु) एवं गयाशीर्ष का दर्शन करना वर्णित है। शंख (14।27-28) ने भी गयातीर्थ में किये गये श्राद्ध से उत्पन्न अक्षय फल का उल्लेख किया है।(8) लिखितस्मृति (12-13) ने गया की महत्ता के विषय में यह लिखा है- चाहे जिसके नाम से, चाहे अपने लिए या किसी के लिए गया-शीर्ष में पिण्डदान किया जाय तब व्यक्ति नरक में रहता हो तो स्वर्ग जाता है और स्वर्ग वाला मोक्ष पाता है। और देखिए अग्निपुराण (115।46-47)। कूर्म0 में आया है कि कई पुत्रों की अभिलाषा करनी चाहिए जिससे कि यदि उनमें कोई किसी कार्यवश गया जाय और श्राद्ध करे तो वह अपने पितरों की रक्षा करता है और स्वयं परमपद पाता है। कल्पतरू (तीर्थ, पृ0 163) द्वारा उद्धृत मत्स्य0 (22।4-6) में आया है कि गया पितृतीर्थ है, सर्वोत्कृष्ट तीर्थ है और वहाँ ब्रह्मा रहते हैं। मत्स्य0 में 'एष्टव्या बहव: पुत्र:' नामक श्लोक आया है। गयामाहात्म्य (वायुपुराण, अध्याय 105-112) में लगभग 560 श्लोक हैं। यहाँ हम संक्षेप में उसका निष्कर्ष देंगे और कुछ महत्त्वपूर्ण श्लोकों को उद्धृत भी करेंगे। अध्याय 105 में सामान्य बातें हैं और उसमें आगे के अध्यायों के मुख्य विषयों की ओर संकेत है। इसमें आया है कि श्वेतवाराहकल्प में गय ने यज्ञ किया और उसी के नाम पर गया का नामकरण हुआ।(9) पितर लोग पुत्रों की अभिलाषा रखते हैं, क्योंकि वह पुत्र जो गया जाता है वह पितरों को नरक जाने से बचाता है।(10) गया में व्यक्ति को अपने पिता तथा अन्यों को पिण्ड देना चाहिए, वह अपने को भी बिना (7) यह ज्ञातव्य है कि रामायण (1।32।7) के अनुसार धर्मारण्य की संस्थापना ब्रह्मा के पौत्र, कुश के पुत्र असूर्तरय (या अमूर्तरय) द्वारा हुई थी। (8) यह कुछ आश्चर्यजनक है कि डा0 बरूआ (गया एवं बुद्धगया, जिल्द 1, पृ0 66) ने शंख के श्लोक 'तीर्थे वामरकण्टके ' में 'वामरकण्टक' तीर्थ पढ़ा है न कि 'वा' को पृथक् कर 'अमरकण्टक'! (9) वायु0 (105।7-8) एवं अग्नि0 (114।41)-- 'गयोपि चाकरोद्यार्ग बह्वन्नं बहुदक्षिणम्। गयापुरी तेन नाम्ना0, त्रिस्थलीसेतु (पृ0 340-341) में यह पद्य उद्धृत है। (10) यहीं पर "एष्टव्या बहव: पुत्रा यद्येकोपि गयां व्रजेत्।... उत्सृजेत्" (वायु0 105।10) नामक श्लोक आया है। त्रिस्थली0 (पृ0 319) ने एक श्लोक उद्धृत किया है जिसमें योग्य पुत्र की परिभाषा दी हुई है-- 'जीवतो वाक्यकरणात्..... त्रिभि: पुत्रस्य पुत्रता॥' तिल का पिण्ड दे सकता है। गया में श्राद्ध करने से सभी महापातक नष्ट हो जाते हैं। गया में पुत्र या किसी अन्य द्वारा नाम एवं गोत्र के साथ पिण्ड पाने से शाश्वत ब्रह्म की प्राप्ति होती है।(11) मोक्ष चार प्रकार का होता है (अर्थात् मोक्ष की उत्पत्ति चार प्रकार से होती है)—ब्रह्मज्ञान से, गयाश्राद्ध से, गौओं को भगाये जाने पर उन्हें बचाने में मरण से तथा कुरूक्षेत्र में निवास करने से, किन्तु गयाश्राद्ध का प्रकार सबसे श्रेष्ठ है।(12) गया में श्राद्ध किसी समय भी किया जा सकता है। अधिक मास में भी, अपनी जन्म-तिथि पर भी, जब बृहस्पति एवं शुक्र न दिखाई पड़ें तब भी या जब बृहस्पति सिंह राशि में हों तब भी ब्रह्मा द्वारा प्रतिष्ठापित ब्राह्मणों को गया में सम्मान देना चाहिए। कुरूक्षेत्र, विशाला, विरजा एवं गया को छोड़कर सभी तीर्थों में मुण्डन एवं उपवास करना चाहिए।(13) संन्यासी को गया में पिण्डदान नहीं करना चाहिए। उसे केवल अपने दण्ड का प्रदर्शन करना चाहिए और उसे विष्णुपद पर रखना चाहिए।(14) सम्पूर्ण गया क्षेत्र पाँच कोसों में है। गयाशिर एक कोस में है और तीनों लोकों के सभी तीर्थ इन दोनों में केन्द्रित हैं।(15) गया में पितृ-पिण्ड निम्न वस्तुओं से दिया जा सकता है; पायस (दूध में पकाया हुआ चावल), पका चावल, जौ का आटा, फल, कन्दमूल, तिल की खली, मिठाई, घृत या दही या मधु से मिश्रित गुड़। गयाश्राद्ध में जो विधि है वह है पिण्डासन बनाना, पिण्डदान करना, कुश पर पुन: जल छिड़कना, (ब्राह्मणों को) दक्षिणा देना एवं भोजन देने की घोषणा या संकल्प करना; किन्तु पितरों का आवाहन नहीं होता, दिग्बन्ध (दिशाओं से कृत्य की रक्षा) नहीं होता और न (अयोग्य व्यक्तियों एवं पशुओं से) देखे जाने पर दोष ही लगता है। (16) जो लोग (गया जैसे) तीर्थ पर किये गये श्राद्ध से उत्पन्न पूर्ण फल भोगना चाहते हैं उन्हें विषयाभिलाषा, क्रोध, लोभ छोड़ देना चाहिए, ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए, केवल एक बार खाना चाहिए, पृथिवी पर सोना चाहिए, सत्य बोलना चाहिए, शुद्ध रहना चाहिए और सभी जीवों के कल्याण के लिए तत्पर रहना चाहिए। प्रसिद्ध नदी वैतरणी गया में आयी है, जो व्यक्ति इसमें स्नान करता है और गोदान करता है वह अपने (11) आत्मजोवान्यजो वापि गयाभूमौ यदा यदा। यन्नाम्ना पातयेत्पिण्डं तन्नयेद् ब्रह्म शाश्वतम्॥ नामगोत्रे समुच्चार्य पिण्डपातनभिष्यते। (वायु0 105।14-15); आधा पाद 'यन्नाम्ना... शाश्वतम्' अग्नि0 (116।21) में भी आया है। (12) ब्रह्मज्ञानं गयाश्राद्धं गोग्रहे मरणं तथा। वास: पुसां कुरूक्षेत्रे मुक्तिरेषा चतुर्विधा॥ ब्रह्मज्ञानेन किं कार्य... यदि पुत्रो गयां ब्रजेत॥ गयायां सर्वकालेषु पिण्डं वद्याद्विचक्षण:। वायु0 (105।16-18)। मिलाइए अग्नि0 (115।8) 'न कालादि गयातीर्थे दद्यात्पिण्डांश्च नित्यश:।' और देखिए नारदीय0 (उत्तर, 44।20), अग्नि0 (115।3-4 एवं 5-6) एवं वामनपुराण (33।8)। (13) मुण्डनं चोपवासश्च... विरजां गयाम्॥ वायु0 (105।25)। (14) दण्डं प्रदर्शयेद् भिक्षुर्गयां गत्वा न पिण्डद:। दण्डं न्यस्य विष्णुपदे पितृभि: सहमुच्यते॥ वायु0 (105।26), नारदीय0 एवं तीर्थप्रकाश (पृ0 390)। (15) पंचकोशं गयाक्षेत्रं कोशमेकं गयाशिर:। तन्मध्ये सर्वातीर्थानि त्रैलोक्ये यानि सन्ति वै॥ वायु0 (105।29-30 एवं 106।653; त्रिस्थली0,पृ0 335; तीर्थप्र0,पृ0 391)। और देखिए अग्नि0 (115।42) एवं नारदीय0 (उत्तर, 44।16)। प्रसिद्ध तीर्थों के लिए पाँच कोसों का विस्तार मानना एक नियम-सा हो गया है। (16) पिण्डसनं पिण्डदानं पुन: प्रत्यवनेजनम्। दक्षिणा चान्नसंकल्पस्तीर्थश्राद्धेष्वयं विधि:॥ नावाहनं न दिग्बन्धो न दोषो दृष्टिसम्भव:।... अन्यत्रावाहिता: काले पितरो यान्त्यमुं प्रति। तीर्थे सदा वसन्त्येते तस्मादावहनं न हि॥ वायु0 (105।37-39)।'नावाहनं...विधि:' फिर से दुहराया गया है (वायु0 110।28-29)। कुल की 21 पीढ़ियों की रक्षा करता है। अक्षयवट के नीचे जाना चाहिए और वहाँ (गया के) ब्राह्मणों को संतुष्ट करना चाहिए। गया में कोई भी ऐसा स्थल नहीं है जो पवित्र न हो।(17) 106वें अध्याय में गयासुर की गाथा आयी है। गयासुर ने, जो 125 योजन लम्वा एवं 60 योजन चौड़ा था, कोलाहल नामक पर्वत पर सहस्त्रों वर्षों तक तप किया। उसके तप से पीड़ित एवं चिन्तित देवगण रक्षा के लिए ब्रह्मा के पास गये। ब्रह्मा उन्हें लेकर शिव के पास गये जिन्होंने विष्णु के पास जाने का प्रस्ताव किया। ब्रह्मा, शिव एवं देवों ने विष्णु की स्तुति की और उन्होंने प्रकट होकर कहा कि वे लोग अपने-अपने वाहनों पर चढ़कर गयासुर के पास चलें। विष्णु ने उससे कठिन तप का कारण पूछा और कहा कि वह जो वरदान चाहे माँग ले। उसने वर माँगा कि वह देवों, ऋषियों, मन्त्रों, संन्यासियों आदि से अधिक पवित्र हो जाय। देवों ने 'तथास्तु' अर्थात्' 'ऐसा ही हो' 'कहा और स्वर्ग चले गये। जो भी लोग गयासुर को देखते थे या उसके पवित्र शरीर का स्पर्श करते थे, वे स्वर्ग चले जाते थे। यम की राजधानी खाली पड़ गयी और वे ब्रह्मा के पास चले गये। ब्रह्मा उन्हें लेकर विष्णु के पास गये। विष्णु ने ब्रह्मा से उससे प्रार्थना करने को कहा कि वह यज्ञ के लिए अपने शरीर को दे दे। गयासुर सन्नद्ध हो गया और वह दक्षिण-पश्चिम होकर पृथिवी पर इस प्रकार गिर पड़ा कि उसका सिर कोलाहल पर्वत पर उत्तर की ओर और पैर दक्षिण की ओर हो गये। ब्रह्मा ने सामग्रियाँ एकत्र कीं और अपने मन से उत्पन्न ऋत्विजों (जिनमें 40 के नाम आये हैं) को भी बुलाया और गयासुर के शरीर पर यज्ञ किया। उसका शरीर स्थिर नहीं था, हिल रहा था, अत: ब्रह्मा ने यम से गयासुर के सिर पर अपने घर की शिला को रखने को कहा। यम ने वैसा ही किया। किन्तु तब भी गयासुर का शरीर शिला के साथ हिलता रहा। ब्रह्मा ने शिव एवं अन्य देवों को शिला पर स्थिर खड़े होने को कहा। उन्होंने वैसा किया, किन्तु तब भी शरीर हिलता-डोलता रहा। तब ब्रह्मा विष्णु के पास गये और उनसे शरीर एवं शिला को अडिग करने को कहा। इस पर विष्णु ने स्वयं अपनी मूर्ति दी जो शिला पर रखी गयी, किन्तु तब भी वह हिलती रही। विष्णु उस शिला पर जनार्दन, पुण्डरीक एवं आदि-गदाधर के तीन रूपों में बैठ गये, ब्रह्मा पाँच रूपों (प्रपितामह, पितामह, फल्ग्वीश, केदार एवं कनकेश्वर) में बैठ गये, विनायक हाथी के रूप में और सूर्य तीन रूपों में, लक्ष्मी (सीता के रूप में), गौरी (मंगला के रूप में), गायत्री एवं सरस्वती भी बैठ गयीं। हरि ने प्रथम गदा द्वारा गयासुर को स्थिर कर दिया, अत: हरि को आदि गदाधर कहा गया। गयासुर ने पूछा- 'मैं प्रवंचित क्यों किया गया हूँ? मैं ब्रह्मा के यज्ञ के लिए उन्हें अपना शरीर दे चुका हूँ। क्या मैं विष्णु के शब्द पर ही स्थिर नहीं हो सकता था (गदा से मुझे क्यों पीड़ा दी जा रही है)?' तब देवों ने उससे वरदान माँगने को कहा। उसने वर माँगा; 'जब तक पृथिवी , पर्वत, सूर्य, चन्द्र एवं तारे रहें, तब तक ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव एवं अन्य देव शिला पर रहें। यह तीर्थ मेरे नाम पर रहे, सभी तीर्थ गया के मध्य में केन्द्रित हों, जो पाँच कोसों तक विस्तृत है और सभी तीर्थ गयाशिर मं भी रहें जो एक कोस विस्तृत है और सभी लोगों का कल्याण करें। सभी देव यहाँ व्यक्त रूपों (मूर्तियों) में एवं अव्यक्त रूपों (पदचिह्न आदि) अचानक नष्ट हो जायँ।' देवों ने 'तथास्तु' कहा। इसके उपरान्त ब्रह्मा ने ऋत्विजों को पाँच कोसों वाला गया-नगर, 55 गाँव, सुसज्जित घर, कल्पवृक्ष एवं कामधेनु, दुग्ध की एक नदी, सोने के कूप, पर्याप्त भोजन आदि समान दिये, किन्तु ऐसी व्यवस्था कर दी कि वे किसी से कुछ माँगें नहीं। किन्तु लोभी ब्राह्मणों ने धर्मारण्य में धर्म के लिए यज्ञ किया और उसकी दक्षिणा माँगी। ब्रह्माँ ने वहाँ आकर उन्हें शाप दिया और उनसे सब कुछ छीन लिया। जब ब्राह्मणों ने विलाप किया कि उनसे सब कुछ छीन लिया गया और अब (17) गयायां न हि तत्स्थानं यत्र तीर्थ न विद्यते। वायु0 (105।46, अग्नि0 116।28)। उन्हें जीविका के लिए कुछ चाहिए, तब ब्रह्मा ने कहा कि वे गया-यात्रियों के दान पर जीएँगे और जो लोग उन्हें सम्मानित करेंगे वे मानो उन्हें (ब्रह्मा को) ही सम्मानित करेंगे। 107वें अध्याय में उस शिला की गाथा है जो गयासुर के सिर पर उसे स्थिर करने के लिए रखी गयी थी। धर्म की धर्मव्रता नामक कन्या थी। उसके गुणों के अनुरूप धर्म को कोई वर नहीं मिल रहा था, अत: उन्होंने उसे तप करने को कहा। धर्मव्रता ने सहस्त्रों वर्षों तक केवल वायु पीकर कठिन तप किया। मरीचि ने, जो ब्रह्मा के मानस पुत्र थे, उसे देखा और अपनी पत्नी बनाने की इच्छा प्रकट की। धर्मव्रता ने इसके लिए उन्हें पिता धर्म से प्रार्थना करने को कहा। मरीचि ने वैसा ही किया और धर्म ने अपनी कन्या मरीचि को दे दी। मरीचि उसे लेकर अपने आश्रम में गये और उससे एक सौ पुत्र उत्पन्न किये। एक बार मरीचि श्रमित होकर सो गये और धर्मव्रता से पैर दबाने को कहा। जब वह पैर दबा रही थी तो उसके श्वशुर ब्रह्मा वहाँ आये। वह अपने पति का पैर दबाना छोड़कर उनके पिता की आवभगत में उठ पड़ी। इसी बीच में मरीचि उठ पड़े और अपनी पत्नी को वहाँ न देखकर उसे शिला बन जाने का शाप दे दिया। क्योंकि पैर दबाना छोड़कर उसने उनकी आज्ञा का उल्लंघन जो कर दिया था। वह निर्दोष थी अत: क्रोधित होकर शाप देना चाहा, किन्तु रूककर उसने कहा-- 'महादेव तुम्हें शाप देंगे।' उसने गार्हपत्य अग्नि में खड़े होकर तप किया और मरीचि ने भी वैसा ही किया। इन्द्र के साथ सदा की भाँति देवगण विचलित हो गये और वे विष्णु के पास गये। विष्णु ने धर्मव्रता से वर माँगने को कहा। उसने पति के शाप को मिटाने का वर माँगा। देवों ने कहा कि मरीचि ऐसे महान् ऋषि का शाप नहीं टूट सकता अत: वह कोई दूसरा वर माँगे। इस पर उसने कहा कि वह सभी नदियों, ऋषियों, देवों से अधिक पवित्र हो जाय, सभी तीर्थ उस शिला पर स्थिर हो जायँ, सभी व्यक्ति जो उस शिला के तीर्थों में स्नान करें या पिण्डदान एवं श्राद्ध करें, ब्रह्मलोक चले जायँ और गंगा के समान सभी पवित्र नदियाँ उसमें अवस्थित हों। देवों ने उसकी बात मान ली और कहा कि वह गयासुर के सिर पर स्थिर होगी और हम सभी उस पर खड़े होंगे।(18) 108वें अध्याय में पाठान्तर-सम्बन्धी कई विभिन्नताएँ हैं। 'आनन्दाश्रम' के संस्करण में इसका विषय संक्षेप में यों है। शिला गयासुर के सिर पर रखी गयी और इस प्रकार दो अति पुनीत वस्तुओं का संयोग हुआ, जिस पर ब्रह्मा ने अश्वमेध किया और जब देव लोग यज्ञिय आहुतियों का अपना भाग लेने के लिए आये तो शिला ने विष्णु एवं अन्य लोगों से कहा- प्रण कीजिए कि आप लोग शिला पर अवस्थित रहेंगे और पितरों को मुक्ति देंगे। देव मान गये और आकृतियों एवं पदचिह्नों के रूप में शिला पर अवस्थित हो गये। शिला असुर के सिर के पृष्ठ भाग में रखी गयी थी अत: उस पर्वत को मुण्डपृष्ठ कहा गया, जिसने पितरों को ब्रह्मलोक दिया। इसके उपरान्त अध्याय में प्रभास नामक पर्वत का, प्रभास पर्वत एवं फल्गु के मिलन-स्थल के समीप रामतीर्थ, भरत के आश्रम का, यमराज एवं धर्मराज तथा श्याम एवं शबल नामक यम के कुत्तों को दी जाने वाली बलि का, शिला की वाम दिशा के पास अवस्थित उद्यन्त पर्वत का, अगस्त्त्य कुण्ड का तथा गृंध्रकूट पर्वत, च्यवन के आश्रम, पुनपुना नदी, कौञ्चपद एवं भस्मकूट पर स्थित जनार्दन का वर्णन आया है। गयासुर की गाथा से डा0 मित्र एवं पश्चात्कालीन लेखकों के मन में दुविधाएँ उत्पन्न हो गयी हैं। डा0 राजेन्द्रलाल मित्र ने गयासुर की गाथा को चित्र-विचित्र एवं मूर्खतापूर्ण माना है। उनका कहना है कि वह राक्षस या दुष्ट (18) अग्नि0 (114।8-22) में भी शिला की गाथा संक्षेप में कही गयी है। बहुत-से शब्द वे ही हैं जो वायुपुराण में पाये जाते हैं। पिशाच नहीं है, प्रत्युत एक भक्त वैष्णव है (बोधगया, पृ0 15-16)। गयासुर की गाथा विलक्षण नहीं है। पुराणों में ऐसी गाथाएँ हैं जो आधुनिक लोगों को व्यर्थ एवं कल्पित लगेंगी। प्रह्लाद बाण (शिव का भक्त) एवं बलि (जो श्रेष्ठ राजा एवं विष्णु-भक्त था) ऐसे असुर थे, जो राक्षस या पिशाच के व्यवहार से दूर भक्त व्यक्ति थे, किन्तु उन्होंने देवों से युद्ध अवश्य किया था। उदाहरणार्थ कूर्म0 (1।16।59-60 एवं 91-92) में वर्णन आया है कि प्रह्लाद ने नृसिंह से युद्ध किया था; पद्म0 (भूमिखण्ड, 1।8) में आया है कि उसने सर्वप्रथम विष्णु से युद्ध किया और वैष्णवी तनु में प्रवेश किया (इस पुराण ने उसे महाभागवत कहा है); वामन0 (अध्याय 7-8) ने उसके नर-नारायण के साथ हुए युद्ध का उल्लेख किया है। पालि ग्रन्थों (अंगुत्तरनिकाय, भाग 4,पृ0 197-204) में वह पहाराद एवं असुरिन्द (असुरेन्द्र) कहा गया है। बलि के विषय में, जो प्रह्लाद का पौत्र था, अच्छा राजा एवं विष्णुभक्त था, देखिए ब्रह्मपुराण (अध्याय 73) कूर्म0 (1।17), वामन0 (अध्याय 77 एवं 92)। बलि के पुत्र बाण द्वारा शिव की सहायता से कृष्ण के साथ युद्ध किये जाने के लिए देखिए ब्रह्म0 (अध्याय 205-206) एवं विष्णुपुराण (5।33।37-38)। डा0 राजेन्द्रलाल मित्र (बोधगया, पृ0 14-18) का कथन है कि गयासुर की गाथा बौद्धधर्म के ऊपर ब्राह्मणवाद की विजय का रूपक है। ओ' मैली (जे0 ए0 एस0 बी0, 1904 ई0, भाग 3, पृ0 7) के मत से गयासुर की गाथा ब्राह्मणवाद के पूर्व के उस समझौते की सूचक है जो ब्राह्मणवाद एवं भूतपिशाच-पूजावाद के बीच हुआ था। डा0 बरूआ ने इन दोनों मतों का खण्डन किया है। उनका कथन है (भाग 1, पृ0 40-41) कि इस गाथा का अन्तर्हित भाव यह है कि लोग फल्गु के पश्चिमी तट के पर्वतों को पवित्र समझें। उन्होंने मत प्रकाशित किया है कि बौद्धधर्म में गया की चर्चा नहीं होती, गय या नमुचि या वृत्र अन्धकार का राक्षस एवं इन्द्र का शत्रु कहा गया है और त्रिविक्रम नामक वैदिक शब्द की और्णवाभ कृत व्याख्या में गयासुर की गाथा का मूल पाया जाता है।(19) स्थानाभाव से हम इन सिद्धांतों की चर्चा नहीं करेंगे। ऐसा कहा जा सकता है कि ईसा की कई शताब्दियों पूर्व गया एक प्रसिद्ध पितृ-तीर्थ हो चुका था और गयासुर की गाथा केवल गया एवं उसके आस-पास के कालान्तर में उत्पन्न पवित्र स्थलों की पुनीतता को प्रकट करने का उत्तरकालीन प्रयास मात्र है। 109वें अध्याय में इसका वर्णन हुआ है कि किस प्रकार आदि-गदाधर व्यक्त एवं अव्यक्त रूप में प्रकट हुए। उनकी गदा कैसे उत्पन्न हुई और किस प्रकार गदालोल तीर्थ सभी पापों को नाश करने वाला हुआ। गद नामक एक शक्तिशाली असुर था, जिसने ब्रह्मा की प्रार्थना पर अपनी अस्थियाँ उन्हें दे दीं। ब्रह्मा की इच्छा से विश्वकर्मा ने उन अस्थियों से एक अलौकिक गदा बना दी। स्वायंभुव मनु के समय में ब्रह्मा के पुत्र हेति नामक असुर ने सहस्त्रों दैवी वर्षों तक कठिन तप किया। उसे ब्रह्मा एवं अन्य देवों द्वारा ऐसा वर प्राप्त हुआ कि वह देवों, दैत्यों मनुष्यों या कृष्ण के चक्र आदि शस्त्रों द्वारा मारा नहीं जा सकता। हेति ने देवों को जीत लिया और इन्द्र हो गया। हेति दैत्य की गाथा अग्नि0 (114।26-27) एवं नारदीय0 (उत्तर, 47।9-11) में भी आयी है। हरि को आदि गदाधर इसलिए कहा जाता है कि उन्होंने उस गदा को सर्वप्रथम धारण किया, गदा के सहारे गयासुर के सिर पर रखी हुई शिला पर खड़े हुए और गयासुर के सिर को स्थिर कर दिया।(20) वे अपने को मुण्डपृष्ठ प्रभास एवं अन्य पर्वतों के रूप में प्रकट करते (19) यह नहीं स्पष्ट हो पाता कि डा0 बरूआ को यह सूचना कहाँ से मिली कि गय वेद में वृत्र- जैसे राक्षस के समान है। ऋग्वेद में कम-से-कम वृत्र के समान गय कोई राक्षस नहीं है। (20) वायुपुराण (105।60) में आदि-गदाधर के नाम के विषय में कहा गया है। त्रिस्थलीसेतु (पृ0 338)। वायु0 (109।13) में पुन: आयी है। हैं। ये पर्वत एवं अक्षयवट, फल्गु एवं अन्य नदियाँ आदि-गदाधर के अव्यक्त रूप हैं। विष्णुपद, रूद्रपद, ब्रह्मपद एवं अन्य पर गदाधर के अव्यक्त एवं व्यक्त रूप हैं।(21) गदाधर की मूर्ति विशुद्ध व्यक्त रूप है। असुर हेति विष्णु द्वारा मारा गया और विष्णुलोक चला गया। जब गयासुर का शरीर स्थिर हो गया तो ब्रह्मा ने विष्णु की स्तुति की और विष्णु ने उनसे वर माँगने को कहा। ब्रह्मा ने कहा- 'हम (देवगण) लोग आपके बिना शिला में नहीं रहेंगे, यदि आप व्यक्त रूप में रहें तो हम उसमें आप के साथ रहेंगे। शिव ने भी विष्णु की स्तुति की (वायु0 109।43-50)। वायु0 (109।20 एवं 43-45) ने कई स्थानों पर देवता के व्यक्ताव्यक्त प्रतीकों का उल्लेख किया है। इसका तात्पर्य यह है कि विष्णु फल्गु में अव्यक्त रूप में, विष्णुपद में व्यक्ताव्यक्त रूप में एक मूर्तियों में व्यक्त रूप में स्थित हैं (देखिए त्रिस्थलीसेतु, पृ0 365, प्रतिमास्वरूपी व्यक्त:)। (21) हम यहाँ पर प्रमुख नदियों, पर्वतों एवं पदों का उल्लेख करते हैं। जब तक विशिष्ट निर्देश न किया जाय तब तक यहाँ पर कोष्ठ में दिये गये अध्यायों एवं श्लोकों को वायुपुराण का समझना चाहिए। पुनीत नदियाँ ये हैं—फल्गु (जिसे महानदी भी कहा गया है, अग्नि0 115।25), धृतकुल्या, मधुकुल्या (ये दोनों वायु0 109।17 में हैं), मधुस्त्रवा (106।75), अग्निधारा (उद्यन्त पर्वत से, 108।59), कपिला (108।58), वैतरणी (105।44 एवं 109।17), देविका (112।30), आकाशगंगा (अग्नि0 116।5)। इनमें कुछ केवल नाले या धाराऐं मात्र हैं। पुनीत पर्वत एवं शिखर ये हैं—गयाशिर (109।36, अग्नि0 115।26 एवं 44), मुण्डपृष्ठ (108।12, 109।14), प्रभास (108।13 एवं 16, 109।14), उद्यन्त (वनपर्व 84।93, वायु0 108।59, 109।15), भस्मकूट (109।15), अरविन्दक (109।15), नागकूट (111।22, अग्नि0 115।25), गृध्रकूट (109।15), प्रेतकूट (109।15), आदिपाल (109।15), कौञ्चपाद (109।16), रामशिला, प्रेतशिला (110।15, 108।67), नग (108।28), ब्रह्मयोनि (नारदीय0 2।47।54)। प्रमुख स्नान-स्थल ये हैं- फल्गुतीर्थ, (111।13, अग्नि0 115।25-26 एवं 44), रामतीर्थ (108।16।18), शिलातीर्थ(108।2), गदालोल (111।75-76, अग्नि0 115।69), वैतरणी (105।-44), ब्रह्मसर (वनपर्व, 84।85, वायु0 111।30), ब्रह्मकुण्ड (110।8), उत्तर मानस (111।2 एवं 22), दक्षिण मानस (111।6 एवं 8¬), रूक्मिणीकुण्ड, प्रेतकुण्ड, नि:क्षारा (नि:क्षीरा) पुष्करिणी (108।84), मतंगवापी (111।24)। पुनीत स्थल ये हैं—पञ्चलोक, सप्तलोक, वैकुण्ठ, लोहदण्डक (सभी चार 109।16), गोप्रचार (111।35-37, जहाँ ब्रह्मा द्वारा स्थापित आमों के वृक्ष हैं), धर्मारण्य (111।23), ब्रह्मयूप (अग्नि0 115।39 एवं वनपर्व 84।86)। पुनीत वृक्ष ये हैं--- अक्षयवट (वनपर्व 84।83, 95।14, वायु0 105।45, 111।79-813, अग्नि0 115।70-73), गोप्रचार के पास आभ्र (111।35-37), गृध्रकूटवट (108।63), महाबोधितरू (111।26-27, अग्नि0 115।37),। आभ्र वृक्ष के विषय में यह श्लोक विख्यात है-- 'एको मुनि: कुम्भकुशाग्रहस्त आभ्रस्य मूले सलिलं ददान:। आभ्रश्य सिक्त: पितरश्च तृप्ता एका किया द्वचर्वकरी प्रसिद्धा॥: (वायु0 111।37, अग्नि0 115।40, नारदीय0, उत्तर, 46।7, पद्म0 सृष्टिखण्ड, 11।77)। बहुत-से अन्य तीर्थ भी हैं, यथा- फल्ग्वीश, फल्गुचण्डी, अंगारकेश्वर (सभी अग्नि0 116।29) जो यहाँ वर्णित नहीं हैं। पद (ऐसी शिलाएँ जिन पर पदचिह्न हैं) ये हैं- वायु0 (111।46-58) ने 16 के नाम लिये हैं और अभ्यों की ओर सामान्यत: संकेत किया है। अग्नि0 (115।48-53) ने कम-से-कम 13 के नाम लिये हैं। वायु0 द्वारा उल्लिखित नाम ये हैं--- विष्णु, रूद्र, ब्रह्म, कश्यप, दक्षिणाग्नि, गार्हपत्य, आहवनीय, सभ्य, आवसभ्य, शक, अगस्त्य, कौञ्च, मातंग, सूर्य, कार्तिकेय एवं गणेश। इनमें चार अति महान् हैं- काश्यप, विष्णु, रूद्र एवं ब्रह्मा (वायु0 111।56)। नारदीय0 (उत्तर, 46।27) का कथन है कि विष्णुपद एवं रूद्रपद उत्तम हैं, किन्तु ब्रह्मपद सर्वोत्तम है। 110वें अध्याय में गयायात्रा का वर्णन है। गया के पूर्व में महानदी (फल्गु) है। यदि वह सूखी हो, तो गड्ढा खोदकर (काण्ड बनाकर) स्नान करना चाहिए और अपनी वेद-शाखा के अनुसार तर्पण एवं श्राद्ध करना चाहिए, किन्तु अर्ध्य (सम्मान के लिए जल देना) एवं आवाहन नहीं करना चाहिए। अपराह्न में यात्री को प्रेतशिला को जाना चाहिए और ब्रह्मकुण्ड में स्नान करना चाहिए, देवों का तर्पण करना चाहिए, वायु0 (110।10-12) के मन्त्रों के साथ प्रेतशिला पर अपने सपिण्डों को श्राद्ध करना चाहिए तथा अपने पितरों को पिण्ड देने चाहिए। अष्टकाओं एवं वृद्धिश्राद्ध में, गया में एवं मृत्यु के वार्षिक श्राद्ध में अपनी माता के लिए पृथक् श्राद्ध करना चाहिए किन्तु अन्य अवसरों पर अपने पिता के साथ श्राद्ध करना चाहिए।(22) अपने पितरों के अतिरिक्त अन्य सपिण्डों को उस स्थान से जहाँ अपने पिता आदि का श्राद्ध किया जाता है, दक्षिण में श्राद्ध करना चाहिए, अर्थात् कुश फैलाने चाहिए, एक बार तिलयुक्त जल देना चाहिए, जौ के आटे का एक पिण्ड देना चाहिए और मन्त्रोचारण (वायु0 110।21-22) करना चाहिए। गयाशिर में दिये जानेवाले पिण्ड का आकार मुष्ठिका या आर्द्रामलक (हरे आमले) या शमी पेड़ के पत्र के बराबर होना चाहिए।(23) इस प्रकार व्यक्ति सात गोत्रों की रक्षा करता है, अर्थात् अपने पिता, माता, पत्नी, बहन, पुत्री, फूफी (पिता की बहिन) एवं मौसी के गोत्रों की रक्षा करता है। तिलयुक्त जल एवं पिण्ड नाना के पक्ष के सभी लोगों को, सभी बन्धुओं, सभी शिशुओं, जो जलाये गये हों या न जलाये गये हों, जो बिजली या डाकुओं से मारे गये हों, या जिन्होंने आत्महत्या कर ली हो, या जो भाँति-भाँति के नरकों की यातनाएँ सह रहे हों या जो दुष्कर्मों के फलस्वरूप पशु, पक्षी, कीट, पतंग या वृक्ष हो गये हों, उन सभी को देने चाहिए (वायु0 110।30-35)। इस विषय में देखिए इस खंड के अध्याय 11 एवं 12 । 111वें अध्याय में कतिपय तीर्थों की यात्रा करने का क्रम उपस्थित किया गया है। पूरी यात्रा सात दिनों में समाप्त होती है। 110वें अध्याय में कहा गया है कि गया में प्रवेश करने पर यात्री फल्गु के जल में स्नान करता है, तर्पण एवं श्राद्ध करता है और उसी दिन वह प्रेतशिला (जो वायु0 108।15 के अनुसार शिला का एक भाग है) पर जाता है और श्राद्ध करता है तथा पके हुए भात एवं घी के पिण्ड देता है (वायु0 110।15)। ऐसा करने से जिसके लिए श्राद्ध किया जाता है वह प्रेत-स्थिति से छुटकारा पा जाता है। वायु0 (108।17-22) में ऐसा कहा गया है कि रामतीर्थ में, जो उस स्थान पर है जहाँ फल्गु प्रभास पर्वत से मिलती हैं, स्नान करना चाहिए। रामतीर्थ में स्नान करने, श्राद्ध करने एवं पिण्ड देने से वे व्यक्ति जिनके लिए ऐसा किया जाता है, पितर लोगों (प्रेतशिला पर श्राद्ध करने से जो प्रेतत्व की स्थिति से मुक्त हो गये रहते हैं) की श्रेणी में आ जाते हैं। प्रेतशिला के दक्षिण एक पर्वत पर यमराज, धर्मराज एवं श्याम तथा शबल नामक दो कुत्तों को बलि (कुश, तिल एवं जल के साथ भोजन की) देनी चाहिए। गया में प्रवेश करने के दूसरे दिन यात्री को प्रेतपर्वत पर जाना चाहिए, ब्रह्मकुण्ड में स्नान एवं तर्पण करके श्राद्ध में तिल, धृत, दही (22) अष्टकासु च वृद्धौ च गयायां च मृतेहनि। मातु: श्राद्धं पृथक कुर्यादन्यत्र पतिना सह॥ वायु0 (110।17; तीर्थप्र0, प0 389 एवं तीर्थचि0, पृ0 398)। (23) मुष्टिमात्रप्रमाणं च आद्रमिलकमात्रकम्। शमीपत्रमाणं वा पिण्डं दद्याद् गयाशिरे॥ उद्धरेत्सप्त गोत्राणि कुलानि शतमुद्धरेत्॥ पितृमति: स्वभार्याया भगिन्या दुहितुस्तथा। पितृष्वसुर्मातृष्वसु: सप्त गोत्रा: प्रकीर्तिता:॥ वायु0 (110।25-26)। और देखिए त्रिस्थलीसेतु (पृ0 327)। एवं मधु से मिश्रित पिण्ड पितरों (पिता, पितामह आदि) को देना चाहिए (वायु0 110।23-24)।(24) इसके उपरान्त यात्री को विविध रूपों से संबधित लोगों के लिए कुशों पर जल, तिल एवं पिण्ड देना चाहिए (वायु0 110।34-35)। तब उसे गया आने की साक्षी के लिए देवों का आह्वान करना चाहिए और पितृ-ऋण से मुक्त होना चाहिए (वायु0 110।59-60)। वायुपुराण (110।61) में ऐसा आया है कि गया के सभी पवित्र स्थलों पर प्रेतपर्वत पर किये गये पिण्डकर्म के समान ही कृत्य करने चाहिए (सर्वस्थानेषु चैवं स्यात् पिण्डदानं तु नारद। प्रेतपर्वतमारभ्य कुर्यात्तीर्थेषु च क्रमात्॥)। तीसरे दिन पञ्चतीर्थी कृत्या करना चाहिए (वायु0 111।1)।(25) सर्वप्रथम यात्री उत्तर मानस मं् स्नान करता है, देवों का तर्पण करता है और पितरों को मन्त्रों के साथ (वायु0 110।21-24) जल एवं श्राद्ध के पिण्ड देता है। इसका फल पितरों के लिए अक्षय होता है। इसके उपरान्त यात्री दक्षिण मानस की ओर तीन तीर्थों में जाता है, यथा उदीचीतीर्थ (उत्तर में), कनखल (मध्य में) एवं दक्षिण मानस (दक्षिण में)। इन तीनों तीर्थों में श्राद्ध किया जाता है। इसके उपरान्त यात्री फल्गुतीर्थ को जाता है जो गयातीर्थों में सर्वोत्तम है। यात्री फल्गु में पिण्डों के साथ श्राद्ध एवं तर्पण करता है। फल्गु-श्राद्ध से कर्ता एवं वे लोग, जिनके लिए कर्ता श्राद्ध करता है, मुक्ति पा जाते हैं (मुक्तिर्भवति कर्तृणां पितृणां श्राद्धत: सदा, वायु0 110।13)। ऐसा कहा गया है कि फल्गु जलधारा के रूप में आदिगदाधर है।(26) फल्गुस्नान से व्यक्ति अपनी, दस पितरों एवं दस वंशजों की रक्षा करता है। इसके उपरान्त यात्री वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरूद्ध, विष्णु एवं श्रीधर को प्रणाम करके गदाधर को पंचामृत से स्नान कराता है।(27) पंचतीर्थी कृत्य के दूसरे दिन (अर्थात् गयाप्रवेश के चौथे दिन) यात्री को धर्मारण्य जाना चाहिए, जहाँ पर धर्म ने यज्ञ किया था। वहाँ उसे मतंगवापी में (जो धर्मारण्य में ही अवस्थित है) स्नान करना चाहिए। इसके उपरान्त उसे ब्रह्मतीर्थ नामक कूप पर तर्पण श्राद्ध एवं पिण्डदान करना चाहिए। ऐसा ही ब्रह्मतीर्थ एवं ब्रह्मयूप के बीच भी करना चाहिए और तब ब्रह्मा एवं धर्मेश्वर को नमस्कार करना चाहिए।(28) यात्री को महाबोधि वृक्ष (पवित्र पीपल वृक्ष) को प्रणाम कर उसके नीचे श्राद्ध (24) प्रेतपर्वत एवं ब्रह्मकुण्ड के विषय में त्रिस्थलीसेतु (पृ0 355) यों कहता है- 'प्रेतपर्वतो गयावायव्यदिशि गयातो गव्यूत्यधिकदूरस्थ:। ब्रह्मकुण्डे प्रेतपर्वतमूल ईशानभागे।' (25) पाँच तीर्थ ये हैं- उत्तर मानस, उदीचीतीर्थ, कनखल, दक्षिण मानस एवं फल्गु। त्रिस्थली0 (पृ0 360) का कथन है कि एक ही दिन इन सभी तीर्थों में स्थान नहीं करना चाहिए। वायु0 (111।12) में आया है कि फल्गुतीर्थ गयाशिर ही है- 'नागकूटाद् गृध्रकूटाद्यूपादुत्तरमानसात्। एतद् गयाशिर: प्रोक्तं फल्गुतीर्थ तदुच्यते॥ किन्तु अग्नि0 (115।25-26) में अन्तर है--'नागाज्जनार्दनात्कूपाद्वटाच्चोत्तरमानात् । एत....च्यते॥ गरूड़पुराण (1।83।4) में ऐसा है--'नागाज्जना0... तदुज्यते॥' त्रिस्थली0 (पृ0 359) ने यों पढ़ा है--'मुण्डपृष्ठान्नगाधस्तात्फल्गुतीर्थमनुत्त मम्।' (26) गंगा पादोदकं विष्णो: फल्गुर्ह्यादिगदाधर:। स्वयं हिद्रवरूपेण तस्माद् गंगाधिकं विदु:॥ वायु0 (111।16)। (27) पञ्चमृत में दुग्ध, दधि, घृत, मधु एवं शक्कर होते हैं और इन्हीं से गदाधर को स्नान कराया जाता है। देखिए नारदीय0 (उत्तर, 43।53)-'पञ्चामृतेन च स्नानमर्चायां तु विशिष्यते।' (28) डा0 बरूआ (गया एवं बुद्ध-गया, भाग 1, पृ0 22) का कथन है कि 'धर्म' एवं 'धर्मेश्वर' बुद्ध के द्योतक हैं, किन्तुओं' मैली का कहना है कि 'धर्म' का संकेत 'यम' की ओर है। सम्भवत: ओ' मैली की बात ठीक है। पद्म0 (सृष्टिखण्ड, 11।73) का कथन है कि पिण्डदान के लिए तीन अरण्य (वन) हैं- पुष्करारण्य, नैमिषारण्य एवं धर्मारण्य। करना चाहिए। अग्नि0 (115-34-37) एवं नारदीय0 (उत्तर, 45।1405) ने इन तीर्थों का उल्लेख किया है। पंचतीर्थों कृत्य के तीसरे दिन (अर्थात् गया प्रवेश के पाँचवें दिन) यात्री को ब्रह्मसर में स्नान करना चाहिए और ब्रह्मकूप एवं ब्रह्मयूप (ब्रह्मा द्वारा यज्ञ करने के लिए स्थापित यज्ञिय स्तम्भ) के मध्य में पिण्डों के साथ श्राद्ध करना चाहिए। इस श्राद्ध से यात्री अपने पितरों की रक्षा करता है। यात्री को ब्रह्मयूप की प्रदक्षिणा करनी चाहिए और ब्रह्मा को प्रणाम करना चाहिए। गोप्रचार के पास ब्रह्मा द्वारा लगाये गये आभ्र वृक्ष हैं। ब्रह्मसर से जल लेकर किसी आम्र वृक्ष मंन देने से पितर लोग मोक्ष पाते हैं। इसके उपरान्त यम एवं धर्मराज को, यम के दो कुत्तों को तथा कौओं को बलि देनी चाहिए और तब ब्रह्मसर में स्नान करना चाहिए। यह वायु0 (111।30-40) का निष्कर्ष है। इनमें कुछ बातें अग्नि0 (115।34-40) एवं नारदीय0 (उत्तर, 46) में भी पायी जाती हैं। इसके उपरान्त पंचतीर्थी कृत्यों के चौथे दिन (गया प्रवेश के छठे दिन) यात्री को फल्गु में साधारण स्नान करना चाहिए और गयाशिर के गतिपय पदों पर श्राद्ध करना चाहिएं गयाशिर कौञ्चपद से फल्गुतीर्थ तक विस्तृत हैं। गयाशिर पर किया गया श्राद्ध अक्षय फल देता है।(29) यहाँ पर आदि-गदाधर विष्णुपद के रूप में रहते हैं। विष्णुपद पर पिण्डदान करने से यात्री एक सहस्त्र कुलों की रक्षा करता है और अपने को कल्याणमय, अक्षय एवं अनन्त विष्णुलोक में ले जाता है। इसके उपरान्त वायु0 (111।47-56 ने रूद्रपद, ब्रह्मपद एवं अन्य 14 पदों पर किये गये श्राद्धों के फलों की चर्चा की है।(30) गयाशिर पर यात्री जिसका नाम लेकर पिण्ड देता है, वह व्यक्ति यदि नरक में रहता है तो स्वर्ग जाता है और यदि वह स्वर्ग में रहता है तो मोक्ष प्राप्त करता है। पञ्चतीर्थी कृत्यों के पाँचवें दिन (गया-प्रवेश के सातवें दिन) यात्री को गदालोल नामक तीर्थ में स्नान करना चाहिए।(31) गदालोल में पिण्डों के साथ श्राद्ध करने से यात्री अपने एवं अपने पितरों को ब्रह्मलोक में ले जाता है। इसके उपरान्त उसे अक्षयवअ पर श्राद्ध करना चाहिए और ब्रह्मा द्वारा प्रतिष्ठापित गया के ब्राह्मणों को दानों एवं भोजन से सम्मानित करना चाहिए। जब वे परितृप्त हो जाते हैं तो पितरों के साथ देव भी तृप्त हो जाते हैं।(32) इसके उपरान्त यात्री को अक्षयवअ को प्रणाम कर मन्त्र के साथ उसकी पूजा करनी चाहिए और प्रपितामह की पूजा के लिए प्रणाम करना चाहिए। और देखिए अग्नि0 (115।69-73) एवं नारदीय0 (उत्तर, अध्याय 47)। त्रिस्थलीसेतु (पृ0 368) में आया है कि उपर्युक्त कृत्य गया में किये जाने वाले सात दिनों के कृत्य हैं और (29) कौञ्चपादात्फल्गुतीर्थ यावत्साक्षाद् गयाशिर:। वायु0 (111।44)। कौञ्चपाद को वायु0 (108।75) ने मुण्डपृष्ठ कहा है-"कौञ्चरूपेण हि मुनिर्मुष्डवृष्ठे तपोऽकरोत्। तस्य पादांकितो यस्मात्कौञ्चपादस्तत: स्मृत:॥ (30) त्रिस्थली0 (पृ0 366) में आया है कि विष्णुपद एवं अभ्य पदों पर किये गये श्राद्धों के अतिरिक्त गयाशिर पर पृथक् रूप से श्राद्ध नहीं होता। गयाशिरिसि य: पिण्डन्धेवां नाम्ना तु निर्वपेत्। नरकस्था दिवं यान्ति स्वर्गस्था मोक्षमाप्नुयु:॥ देखिए वायु0 (111।73) एवं अग्नि0 (115।47)। गयाशिर गया का केन्द्र है और यह अत्यन्त पवित्र स्थल है। (31) इस तीर्थ का नाम गदालोल इसलिए पड़ा कि यहाँ पर आदि-गदाधर ने अपनी गदा से असुर हेति के सिर को कुचलने के उपरान्त उसे (गदा को) धोया था। हेत्यसुरस्य यच्छीर्ष गदया तद् द्विधा कृतम्। तत: प्रक्षालिता यस्मात्तीर्थ तच्च विमुक्तये। गदालोलमिति ख्यातं सर्वोवामुत्तमोत्तमम्॥ वायु0 (111।74)। गदालोल फल्गु की धारा में ही है। (32) मिलाइए- 'ये युष्मान्यूजयिव्यन्ति गयायाभागता नरा:। हव्यकव्यैर्धनै: श्राद्धैस्तेषां कुलशतं व्रजेत्। नरकात् स्वर्गलोकाय स्वर्गलोकात्परां गतिम्॥' अग्नि0 (114।39-40)। यदि यात्री गया में आधे मास या पूर्ण मास तक रहे तो वह अपनी सुविधा के अनुसार अन्य तीर्थों की यात्रा कर सकता है, किन्तु सर्वप्रथम प्रेतशिला पर श्राद्ध करना चाहिए और सबसे अन्त में अक्षयवट पर। त्रिस्थली0 में यह आया है कि यद्यपि वायु0, अग्नि0 एवं अन्य पुराणों में तीर्थों की यात्रा के क्रम में भिन्नता पायी जाती है, किन्तु वायु0 में उपस्थापित क्रम के मान्यता दी जानी चाहिए, क्योंकि उसने सब कुछ विस्तार के साथ वर्णित किया है, यदि कोई इन क्रमों को नहीं जानता है तो वह किसी भी क्रम का अनुसरण कर सकता है, किन्तु प्रेतशिला एवं अक्षयवट का क्रम नहीं परिवर्तित हो सकता।(33) गयायात्रा (वायु0, अध्याय 112) में आया है कि राजा गय ने यज्ञ किया और दो वर पाये, जिनमें एक था गया के ब्राह्मणों को फिर से संमान्य पद देना और दूसरा था गया पुरी को उसके नाम पर प्रसिद्ध करना। गयायात्रा में विशाल नामक राजा की भी गाथा आयी है जिसने पुत्रहीन होने पर गयाशीर्ष में पिण्डदान किया, जिसके द्वारा उसने अपने तीन पूर्वपुरूषों को बचाया, पुत्र पाया और स्वयं स्वर्ग चला गया। इसमें एक अन्य गाथा भी आयी है (श्लोक 16-20)- एक रोगी व्यक्ति प्रेत की स्थिति में था, उसने अपनी सम्पत्ति का छठा भाग एक व्यापारी को दिया और शेष को गयाश्राद्ध करने के लिए दिया और इस प्रकार वह प्रेत-स्थिति से मुक्ति पा गया। यह कथा अग्नि0 (115।54-63), नारदीय0 (उत्तर, 44।26-50)।, गरूड़0 (1।84।34-43), वराह0 (7।12) में भी पायी जाती है। इसके उपरान्त श्लोक 20-60 में गया के कई तीर्थों के नाम आये हैं, यथा- गायत्रीतीर्थ, प्राची-सरस्वतीतीर्थ, विशाला, लेलिहान, भरत का आश्रम, मुण्डपृष्ठ , आकाशगंगा, वैतरंणी एवं अन्य नदियाँ तथा पवित्र स्थल। अन्त में इसने निष्कर्ष निकाला है कि पूजा एवं पिण्डदान से छ: गयाएँ मुक्ति देती हैं, यथा- गयागज, गयादित्य, गायत्री (तीर्थ), गदाचर, गया एवं गयाशिर ।(34) अग्नि0 (अध्याय 116।1-34) में गया के तीर्थों की एक लम्बी तालिका दी हुई है और उसे त्रिस्थलीसेतु (पृ0 376-378) ने दद्धृत किया है। किन्तु हम उसे यहाँ नहीं दे रहे हैं। गया के तीर्थों की संख्या बड़ी लम्बी-चौड़ी है, किन्तु अधिकांश यात्री सभी की यात्रा नहीं करते। गया के यात्री को तीन स्थानों की यात्रा करना अनिवार्य है, यथा- फल्गु नदी, विष्णुपद एवं अक्षयवट। यहाँ दुग्ध, जल, पुष्पों, चन्दन, ताम्बूल, दीप से पूजा की जाती है और पित्तरों को पिण्ड दिये जाते हैं। किन्तु फल्गु के पश्चिम एक चट्टान पर विष्णुचरणों के ऊपर विष्णु-पद का मन्दिर निर्मित हुआ है। गया का प्राचीन नगर विष्णु-पद के चारों ओर बसा हुआ था, यह मन्दिर गया का सबसे बड़ा एवं महत्त्वपूर्ण स्थल है। पद-चिह्न (लगभग 16 इंच लम्बे) विष्णु भगवान् के ही कहे जाते हैं और वे अष्ट कोण वाले रजत-घेरे के अन्दर हैं। सभी जाति-वाले यात्री (अछूतों को छोड़कर) चारों ओर खड़े होकर उन पर भेट चढ़ाते हैं, किन्तु कभी-कभी लम्बी रकम पाने की लालसा से पुरोहित लोग अन्य यात्रियों को हटाकर द्वार वन्द कर एक-दो मिनटों के लिए किसी कट्टर या धनी व्यक्ति को पूजा करने की व्यवस्था कर देते हैं। कुल 45 वेदियाँ हैं जहाँ अवकाश पाने पर यात्री सुबिधानुसार जा संकते हैं और ये वेदियाँ गया (प्राचीन नगर) के पाँच मील उत्तर-पूर्व और सात मील दक्षिण के विस्तार में फैली हुई हैं। यद्यपि प्राचीन बौद्धग्रन्थों, फाहियान एवं ह्वेनसाँग ने (33) क्रमतोऽक्रमतो वापि गयायात्रा महाकला। अग्नि0 (115।74) एवं त्रिस्थली0 (पृ0 368)। (34) गयागजो गयादित्यो गायत्री च गदाधर:। गया गयाशिरश्चैवषड् गया मुक्तिदायिका:॥ वायु0 (112।60), तीर्थचि0 (पृ0 328, 'षड् गयं मुक्ति दायकं' पाठ आया है) एवं त्रिस्थली0 (पृ0 372)। यह नारदीय0 (उत्तर, 47।39-40) में आया है। लगता है, गया के गदाधर-मन्दिर के निकट हाथी की आकृति से युक्त स्तम्भ को गयागज कहा गया है। गया एवं उरूबिल्ला या उरूबेला (जहाँ बुद्ध ने छ: वर्षों तक कठिन तप किये थे और उनको सम्बोधि प्राप्त हुई थी) में अन्तर, बताया है, तथापि गयामाहात्म्य ने महाबोधितरू को तीर्थस्थलों में गिना है और कहा है कि हिन्दू यात्री को उसकी यात्रा करनी चाहिए और यह बात आज तक ज्यों-की-त्यों मानी जाती रही है। हिन्दुओं ने बौद्ध स्थलों पर कब अधिकार कर लिया यह कहना कठिन है। बोधि-वृक्ष इस विश्व का सबसे प्राचीन ऐतिहासिक वृक्ष है। इसकी एक शाखा महान् अशोक (लगभग ई0पू0 250 वर्ष) द्वारा लंका में भेजी गयी थी और लंका के कण्डी नामक स्थान का पीपल वृक्ष वही शाखा है या उसका वंशज है। गयाशीर्ष पथरीली पर्ववमालाओं का एक विस्तार है, यथा गयाशिर, मुण्डपृष्ठ, प्रभास, गृध्रकूट, नागकूट, जो लगभग दो मील तक फैला हुआ है।(35) हमने पहले देख लिया है कि गयायात्रा में अक्षयवट-सम्बन्धी कृत्य अन्तिम कृत्य हैं। गयावाल पुरोहित फूलों की माला से यात्री के अँगूठे या हाथों को बाँध देते हैं और दक्षिणा लेते हैं। वे यात्री को प्रसाद रूप में मिठाई देते हैं, मस्तक पर तिलक लगाते हैं, उसकी पीठ थपथपाते हैं, 'सुफल' शब्द का उच्चारण करते हैं, घोषणा करते हैं कि यात्री के पितर स्वर्ग चले गये हैं और यात्री को आशीर्वाद देते हैं। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि 'धामी' नामक कुछ विशिष्ट पुरोहित होते हैं, जो पाँच वेदियों पर पौरोहित्य का अधिकार रखते हैं, यथा प्रेतशिला, रामशिला, रामकुण्ड ब्रह्मकुण्ड एवं काकबलि, जो रामशिला एवं प्रेतशिला पर अवस्थित हैं। ये धामी पुरोहित गयावाल ब्राह्मणों से मध्यम पड़ते हैं। गया में किन पितरों का श्राद्ध करना चाहिए, इस विषय में मध्य काल के निबन्धों में मतैक्य नहीं है। वायु0 एवं अन्य पुराणों में ऐसा आया है कि जो गया में श्राद्ध करता है वह पितृ-ऋण से मुक्त हो जाता है, या जो कुछ गया, धर्मपृष्ठ , ब्रह्मसर, गयाशीर्ष एवं अक्षयवट में पितरों को अर्पित होता है वह अक्षय हो जाता है। इन सभी स्थानों अथवा उक्तियों में 'पितृ' शब्द बहुवचन में आया है। इससें प्रकट होता है कि गया में श्राद्ध तीन पूर्व पुरूषों का किया जाता है।(36) गौतम के एक श्लोक के अनुसार माता के तीन पूर्व-पुरूषों का भी श्राद्ध किया जाता है।(36) पिता एवं माता के पक्ष के छ: पूर्व पुरूषों की पत्नियों के विषय मं ही मत-मतान्तर पाये जाते हैं। अग्नि0 (115।10) ने एक विकल्प दिया है कि गयाश्राद्ध के देवता 9 या 12 हैं। जब वे 9 होते हैं तो तीन पितृ-पक्ष के पितरों, तीन मातृ-पक्ष के पुरूष पितरों और अन्तिम की (अर्थात् मातृ-वर्ग के तीन पुरूष पितरों की) पत्नियों का श्राद्ध किया जाता है, किन्तु माता, पितामही एवं प्रपितामही के लिए पृथक् रूप से श्राद्ध किया जाता है। जब गया श्राद्ध में 12 देवता होते हैं तो एक ही श्राद्ध में पितृ एवं मातृ वर्गों के सभी पितरों की पत्नियों को सम्मिलित कर लिया जाता है। अपरार्क (पृ0 432) ने भी गयाश्राद्ध में अग्नि0 के समान विकल्प दिया है।(37) स्मृत्यर्थसार एवं हेमाद्रि के मत से पितृ वर्ग के पितरों और उनकी पत्नियों (माता, मातामही आदि) के लिए अन्वष्टका-श्राद्ध एवं गयाश्राद्ध पृथक् होता है, किन्तु मातृ वर्ग के पितरों एवं उनकी पत्नियों का श्राद्ध एक ही में होता है (अत: देवता (35) गयाशिर एवं गया बौद्धकाल में अति विख्यात स्थल थे, ऐसा बौद्ध ग्रन्थों से प्रकट होता है। देखिए महावग्ग (1।21।1) एवं अंगुत्तर निकाय (जिल्द 4, पृ0 302)- 'एकं समयं भगवा गयायां विहरति गयासीसे।' (36) पितरो यत्र पूज्यन्ते तत्र मातामहा अपि। अविशेषेण कर्तव्यं विशेषान्नरकं व्रजेत्॥ इति गौतमोवते:। त्रिस्थली0 (पृ0 349), स्मृत्यर्थसार (पृ0 56)। (37) ततश्चान्वष्टकादित्रये स्त्रीणां श्राद्धं पृथगेव। गयामहालयादौ तु पृथक् सह वा भर्तृभिरिति सिद्धम्। अपरार्क (पृ0 432); गुरूड़0 (1।84।24) में आया है- 'श्राद्धं तु नवदेवत्यं कुर्याद् द्वादशदैवतम्। अन्वष्टकासु वृद्धौ च गयायां मृतवासरे॥' केवल 9 ही होंगे,)।(38) यम (श्लोक 80) के मत से माता, पितामही एवं प्रपितामही अपने पतियों के साथ श्राद्ध में सम्मिलित होती हैं। कुछ लोगों मे मत से गयाश्राद्ध के देवता केवल छ: होते हैं, यथा- पितृवर्ग के तीन पुरूष पितर एवं मातृवर्ग के तीन पुरूष पितर (त्रिस्थलीसेतु, पृ0 349)। रघुनन्दन ने अपने तीर्थयात्रातत्त्व में कहा है कि यह गौडीय मत है। अन्त में त्रिस्थलीसेतु (पृ0 349) ने टिप्पणी की है कि मत-मतान्तरों में देशाचर का पालन करना चाहिए। प्रजापति-स्मृति (183-184) ने विरोधी मत दिये हैं कि श्राद्ध में कब-कब 12 या 6 देवता होने चाहिए। जब 12 देवता होते हैं तो प्रेतशिला-श्राद्ध में जो संकल्प किया जाता है वह गया के सभी तीर्थों में प्रयुक्त होता है।(39) यह ज्ञातव्य है कि गयाश्राद्ध की अपनी विशिष्टताएँ हैं, उसमें मुण्डन नहीं होता (वायु0 83।18) तथा केवल गयावाल ब्राह्मणों को ही पूजना पड़ता है, अन्य ब्राह्मणों को नहीं, चाहे वे बड़े विद्वान् ही क्यें न हों। गयावाल ब्राह्मणों के कुल, चरित्र या विद्या पर विचार नहीं किया जाता। इन सब बातों पर हमने अध्याय 11 में विचार कर लिया है। किन्तु यह स्मरणीय है कि नारायण भट्ट (त्रिस्थली0, पृ0 352) ने इसको गया के सभी श्राद्धों में स्वीकृत नहीं किया है, केवल अक्षयवट में ही ऐसा माना है। गया में व्यक्ति अपना भी श्राद्ध कर सकता है, किन्तु तिल के साथ नहीं।(40) त्रिस्थली0 (पृ0 350) में आया है कि जब कोई अपना श्राद्ध करे तो पिण्डदान भश्मकूट पर जनार्दन की प्रतिमा के हाथ में होना चाहिए और यह तभी किया जाना चाहिए जब कि यह निश्चित हो कि वह पुत्रहीन है या कोई अन्य अधिकारी व्यक्ति श्राद्ध करने के लिए न हो (वायु0 108।85; गरूड0; नारदीय0 उत्तर, 47।62-65)। गया में कोई भी सम्बन्धी या असम्बन्धी पिण्डदान कर सकता है (वायुपुराण, 105।14-15) और देखिए वायु0 (83।38)।(41) गयाश्राद्ध-पद्धति के विषय में कई प्रकाशित एवं अप्रकाशित ग्रन्थ मिलते हैं, यथा- वाचस्पतिकृत गयाश्राद्ध-पद्धति, रघुनन्दनकृत तीर्थयात्रातत्त्व (बंगला लिपि में), माघव के पुत्र रघुनाथ की गयाश्राद्धपद्धति, वाचस्पति की गयाश्राद्धविधि। हम यहाँ रघुनन्दन के तीर्थयात्रातत्त्व की विधि का संक्षेप में वर्णन करेंगे। रघुनन्दन ने तीर्थचिन्तामणि का अनुसरण किया है। गया-प्रवेश करने के उपरान्त यात्री को फल्गु-स्नान के लिए उचित संकल्प करना चाहिए, नदी से मिट्टी लेकर शरीर में लगाना चाहिए और स्नान करना चाहिए। इसके पश्चात् उसे 12 पुरूष एवं स्त्री पितरों का तर्पण करना चाहिए। तब उसे संकल्प करना चाहिए कि मैं 'ओम् अद्येत्यादि अश्वमेध-सहस्त्रजन्म-फलविलक्षणफल (38) तत्र मातृश्राद्धं पृथक् प्रशस्तम्। मातामहानां सपत्नीकमेव। स्मृत्यर्थसार (पृ0 59-60); देखिए त्रिस्थली0 (पृ0 349), जहाँ हेमाद्रि का मत दिया गया है। (39) ओम्। अद्यामुकगोत्राणां पितृ-पितामहप्रपितामहानाममुकदेवशर्मणाम्, अमुकगोत्राणां मातृ-पितामही-प्रतितामहीनाममुकामुकदेवीनाम्, अमुकगोत्राणां मातामह- प्रमातामह-वृद्धप्रमातामहानाममुकामुकदेवज्ञर्मणाम्, अमुकगोत्राणां मातामही-प्रमातामही- वृद्धाप्रमातामहीनाममुकामुकदेवीनां प्रेतत्वविमुक्तिकाम: प्रेतशिलायां श्राद्धमहं करिप्ये। तीर्थचि0 (पृ0 287)। और देखिए गरूड़0 (1।84।45-47)। (40) आत्मनस्तु महाबुद्धे गयायां तु तिलैर्दिना। पिण्डनिर्वपणं कुर्यात्तथा चान्यत्र गोत्रजा:॥ वायु0 (83।34), त्रिस्थली0 (पृ0 350)। और देखिए वायु0 (105।12); अग्नि0 (115।67)- 'पिण्डों देयस्तु सर्वेम्य: सर्वेश्य कुलतारकै:। आत्मनस्तु तथा देयो ह्यक्षयं लोकमिच्छता॥' (41) आत्मजोप्यन्यजो वापि गयाभूमौ यदा तदा। यन्नाम्ना पातयेत्पिण्डं नयेद् ब्रह्म शाश्वतम्॥ नामगोत्रे समुच्चार्य पिण्डपातनमिष्यते। येन केनापि कस्मैचित्स याति परमां गतिम्॥ वायु0 (105।14-15)। और देखिए वायु0 (83।38)।

प्राप्तिकाम: फल्गुतीर्थस्नानमहं करिष्ये' शब्दों के साथ गया-श्राद्ध करूँगा। इसके उपरान्त उसे आवाहन एवं अर्ध्य कृत्यों को छोड़कर पार्वण श्राद्ध करना चाहिए। यदि यात्री श्राद्ध की सभी क्रियाएँ न कर सके तो वह केवल पिण्डदान कर सकता है। उसी दिन उसे प्रेतशिला जाना चाहिए और वहाँ निम्न रूप से श्राद्ध करना चाहिए- भूमि की शुद्धि करनी चाहिए, उस पर बैठना चाहिए, आचमन करना चाहिए, दक्षिणाभिमुख होना चाहिए, अपसव्य रूप से जनेऊ धारण करना चाहिए, श्लोकोच्चारण (वायु0 110।10-12 'कव्यवालो... श्राद्धेनानेन शाश्वतीम्') करना चाहिए। पितरों का ध्यान करना चाहिए, प्राणायाम करना चाहिए, पुण्डरीकाक्ष का स्मरण कर श्राद्ध-सामग्री पर जल छिड़कना चाहिए और संकल्प करना चाहिए। तब ब्राह्मणों को दक्षिणा देने तक के सारे श्राद्ध-कृत्य करने चाहिए; श्राद्धवेदी के दक्षिण बैठना चाहिए, अपसव्य रूप से जनेऊ धारण करना चाहिए, दक्षिणाभिमुख होना चाहिए, भूमि पर तीन कुशों को रखना चाहिए मन्त्रोच्चारण (वायु0 110।10-12) करके तिलयुक्त अंजलि-जल से एक बार आवाहन करना चाहिए, तब पिता को पाद्य (पैर धोने के जल) से सम्मानित करना चाहिए और दो श्लोकों (वायु0 110।20, 21 'ओम्' के साथ 'आ ब्रह्म...तिलोदकम') का उच्चारण करना चाहिए, अंजलि में जल लेकर पिता आदि का आवाहन करना चाहिए और 'ओम् अद्य अमुकगोत्र पितरमुकदेवशर्मन एष ते पिण्ड: स्वधा' के साथ पायस या तिल, जल, मधु से मिश्रित किसी अन्य पदार्थ का पिण्ड अपने पिता को देना चाहिए। इसी प्रकार उसे शेष 11 देवताओं (पितामह आदि 8 या 5 जैसे कि लोकाचार हो)। को पिण्ड देना चाहिए। उसे अपनी योग्यता के अनुसार दक्षिणा देनी चाहिए। तब उसे जहाँ वह अब तक बैठा था, उसके दक्षिण बैठना चाहिए, भूमि पर जड़सहित कुश (जिनके अग्र भाग दक्षिण रहते हैं)। रखने चाहिए, मन्त्रोच्चारण (वायु0 110।10-12) करना चाहिए, तिलांजलि से आवाहन करना चाहिए, दो श्लोकों (वायु0 110।22-23) का पाठ करना चाहिए, तिल, कुशों, घृत, दधि, जल एवं मधु से युक्त जौ के आटे का एक पिण्ड सभी 12 देवताओं (पितरों के लिए) को देना चाहिए। इसके उपरान्त षोडशीकर्म किया जाता है, जो निम्न है। एक-दूसरे के दक्षिण 19 स्थल (पिण्डों के लिए) बनाये जाते हैं और एक के पश्चात् एक पर पञ्चगव्य छिड़का जाता है, इसके पश्चात् प्रत्येक स्थल पर अग्र भाग को दक्षिण करके कुश रखे जाते हैं और कुशों पर इच्छित व्यक्तियों का मन्त्रों (वायु0 110।30-32) के साथ आवाहन किया जाता है और उनकी पूजा चन्दनादि से की जाती है। जब षोडषीकर्म किसी देव-स्थल पर किया जाता है। तो देव-पूजा भी होती है, तिलयुक्त अंजलि-जल दिया जाता है और प्रथम स्थल से आरम्भ कर पिण्ड रखे जाते हैं। यह पिण्डदान अपसव्य रूप में किया जाता है। रघुनन्दन का कथन है कि यद्यपि 19 पिण्ड दिये जाते हैं तब भी पारिभाषिक रूप में इसे श्राद्धषोडशी कहा जाता है।(42) यहा ज्ञातव्य है कि पुरूषों के लिए मन्त्रों में 'ये', 'ते' एवं 'तेम्य:' का प्रयोग होता है, अत: यह 'पुं-षोडशी' है। स्त्रीलिंग शब्दों का प्रयोग करके यह स्त्री-षोडशी' भी हो जाती है (वायु0 110।56; त्रिस्थली0, पृ0 357; तीर्थचि0, पृ0 292)। तिलयुक्त जल से पूर्ण पात्र द्वारा तीन बार पिण्डों पर जल छिड़का जाता है। मन्त्रपाठ (तीर्थचि0 पृ0 293 एवं तीर्थयात्रातत्त्व पृ0 10-11) भी किया जाता है। इसके उपरान्त कर्ता को पृथिवी पर झुककर बुलाये गये देवों (पितरों) को चले जाने के लिए कहना चाहिए; "हे पिता एवं अन्य लोगों, आप मुझे क्षमा करें" कहना चाहिए। इसके उपरान्त उसे जनेऊ को सव्य रूप में धारण करके आचमन करना चाहिए और पूर्वाभिमुख हो दो मन्त्रों (वायु0 110।59-60, 'साक्षिण: सन्तु' एवं 'आगतोस्मि गयाम') का उच्चारण करना चाहिए। यदि व्यक्ति इ विस्तृत पद्धति को (42) ऊनाविंशती षोडशत्वं पारिभाषिकं पञ्चाभ्रवत्। तीर्थयात्रातत्त्व (पृ0 8)। जब कोई किसी से पूछता है कि उसके पास कितने आम्र-वृक्ष या फल हैं तो उत्तर यह दिया जा सकता है कि 'पाँच, भलें ही 6 या 7 की संख्या हो। निबाहने में असमर्थ हो तो उसे कम-से-कम संकल्प करके पिण्डदान करना चाहिए। उसे अपसव्य रूप में जनेऊ धारण कर वायु0 के श्लोकों (110।10-12 एवं 110।59-60) का पाठ करना चाहिए और अपने सूत्र के अनुसार अन्य कृत्य करने चाहिए, यथा-पिण्ड रखे जाने वाले स्थान पर रेखा खींचना, कुश बिछाना, पिण्डों पर जल छिड़कना, पिण्डदान करना, पुनर्जलसिंचन, श्वासावरोध, परिधान की गाँठ खोलना, एक सूत का अर्पण करना एवं चन्दन लगाना। इसके उपरान्त यात्री प्रेतशिला से नीचे उतरकर रामतीर्थ में स्नान करता है, जो प्रभासहृद के समान है। इसके उपरान्त उसे तर्पण एवं श्राद्ध अपने गृह्यसूत्र के अनुसार करना चाहिए। उसे पिता आदि को 12 पिण्ड, एक अक्षय पिण्ड एवं षोडशीपिण्ड देने चाहिए। यदि ये सभी कर्म न किये जा सकें तो एक का सम्पादन पर्याप्त है। इसके उपरान्त 'राम-राम' मन्त्र (वायु0 108।20) के साथ संकल्प करके राम को प्रणाम करना चाहिए। जब यात्री यह स्नान, श्राद्ध एवं पिण्डदान करता है तो उसके पितर प्रेत-स्थिति से मुक्ति पा जाते हैं (वायु0 108।21)। इसके उपरान्त उसे ज्योतिर्मान् प्रभासेश (शिव) की पूजा करनी चाहिए। राम एवं शिव (प्रभासेश) की पूजा 'आपस्त्वमसि' (वायु0 108।22) मन्त्र के साथ की जानी चाहिए। इसके उपरान्त भात की बलि ('यह बलि है, ओम यम आपको नमन है' कहकर) यम को देनी चाहिए। इसके पश्चात् प्रभास पर्वत के दक्षिण नग पर्वत पर 'द्वौ श्वानौ' (वायु0 108।30) श्लोक का पाठ करके बलि देनी चाहिए और कहना चाहिए-'यह यमराज एवं धर्मराज को बलि है; नमस्कार'। यह बलि सभी यात्रियों के लिए आवश्यक है; शेष योग्यता के अनुसार किये जा सकते हैं। इस प्रकार गया-प्रवेश के प्रथम दिन के कृत्य समाप्त होते हैं। गया-प्रवेश के दूसरे दिन यात्री को फल्गु में स्नान करना चाहिए, आह्निक तर्पण एवं देवपूजा करनी चाहिए और तब अपराह्न में ब्रह्मकुण्ड (प्रेतपर्वत के मूल के उत्तर-पश्चिम में अवस्थित) में स्नान करना चाहिए।(43) यहाँ पर किया गया श्राद्ध ब्रह्मवेदी पर सम्पादित समझा जाता है (अर्थात् जहाँ ब्रह्मा ने अश्वमेघ यज्ञ किया था)। इसके उपरान्त यात्री को दक्षिणाभिमुख होकर 'ये केचित्' (वायु0 110।64) के साथ तिलयुक्त जलांजलि देनी चाहिए।(44) गयाप्रवेश के तीसरे दिन पंचतीर्थी कृत्य किये जाते हैं, जिनका वर्णन ऊपर हो चुका है। यात्री 'उत्तरे मानसे स्नानम्' (वायु0 110।2-3) मन्त्रपाठ के साथ उत्तर मानस में स्नान करता है।(45) उसे एक अंजलि जल देकर श्राद्ध करना चाहिए (वायु0 110।20-21)। इसके उपरान्त उसे उत्तर मानस में दक्षिण बैठकर, कुशों को (अग्रभाग को दक्षिण करके) बिछाकर, तिल युक्त जल देकर, तिल, कुशों, मधु, दधि एवं जल में यव के आटे को मिलाकर उसका एक पिण्ड देना चाहिए। तब उसे 'नमोस्तु भानवे' (वायु0 111।5) मन्त्र के साथ उत्तर मानस में सूर्य की प्रतिमा की पूजा करनी चाहिए। इसके उपरान्त यात्री को मौन रूप से दक्षिण मानस को जाना चाहिए और वहाँ उदीचीतीर्थ में स्नान (43) ब्रह्मकुण्डस्नान का संकल्प यों है- "ओम् अद्येत्यादि पित्रादीनां पुनरावृत्तिरहितब्रह्मलोकप्राप्तिकाम: प्रेतपर्वते श्राद्धमहं करिष्ये।' तीर्थयात्रातत्त्व (पृ0 13)। (44) यहाँ यह एक ही बार कह दिया जाता है कि प्रत्येक स्नान के लिए उपयुक्त संकल्प होता है, प्रत्येक स्नान के उपरान्त तर्पण होता है, जिस प्रकार प्रेतशिला पर आवाहन से लेकर देवों को साक्षी बनाने तक श्राद्ध के सभी कृत्य किये जाते हैं, उसी प्रकार सब स्थलों पर श्राद्ध कर्म किये जाते हैं। अत: अब हम इस बात को बार-बार नहीं दुहरायेंगे, केवल विशिष्ट स्थलों की विशिष्ट व्यवस्थाओं की ओर ही निर्देश किया जायगा। (45) संकल्प यों है--'ओम् अद्येत्यादि पापक्षयपूर्वक-सूर्यलोकादिसंसिद्धिपितृमुक्तिकाम उत्तरमानसे स्नानमहं करिष्ये।' करना चाहिए, इसी प्रकार उसे कनखल एवं दक्षिण मानस में स्नान करना चाहिए (वायु0 11।9-10), दक्षिणार्क को प्रणाम करना चाहिए एवं उनकी पूजा करनी चाहिए, मौनार्क को प्रणाम करना चाहिए और तब गदाधर के दक्षिण में स्थित फल्गु में स्नान करके वहाँ तर्पण एवं श्राद्ध करना चाहिए। इसके उपरान्त यात्री को पितामह की पूजा करनी चाहिए (वायु0 111।19), मदाधर को जाना चाहिए और उनकी पूजा करनी चाहिए (वायु0 111।21)। तब यात्री पंच तीर्थों को जाता है और स्नान करके तर्पण करता हे। इसके उपरान्त वह गदाधर की प्रतिमा को पंचामृत से नहलाता है। रघुनन्दन का कथन है कि गदाधर को पंचामृत से नहलाना अनिवार्य है। अन्य कार्य अपनी योग्यता के अनुसार किया जा सकता है। इस प्रकार पंचतीर्थी के कृत्य समाप्त हो जाते हैं। पंचतीर्थीं के पश्चात अन्य तीर्थों की यात्रा का वर्णन हे जिसे हम यहाँ नहीं दुहराएँगे। केवल वायु0 के विशिष्ट मन्त्रों की ओर निर्देश मात्र किया जायगा। मतगवापी में स्नान एवं श्राद्ध करके यात्री को इस से उत्तर मतंगेश को जाना चाहिए और मन्त्रोच्चारण (वायु0 111।25 'प्रमाणं देवता: सन्तु') करना चाहिए। ब्रह्मा द्वारा लगाये गये आम्र-वृक्ष की जड़ में जल ढारते हुए 'आम्र ब्रह्म-सरोद्भूत...' का पाठ करना चाहिए (वायु0 111।36)। ब्रह्मा को प्रणाम करने का मन्त्र 'नमो ब्रह्मणे....' (वायु0 111।346) है। यम को बलि 'यमराज धर्मराज..' (वायु0 111।38) के साथ देनी चाहिए। कुत्तों को वायु0 के 111।39 एवं कौओं को वायु0 111।40 के मन्त्र के साथ बलि दी जानी चाहिए। पदों के कृत्य के लिए यात्री को रूद्रपद से आरम्भ करना चाहिए और श्राद्ध करके विष्णुपद को जाना चाहिए और वहां पाँच उपचारों से इंदं विष्णुर्विचक्र मे (ऋ0 1।22।17) मन्त्र के साथ पूजन करना चाहिए, विष्णुपद की वेदी के दक्षिण उसे श्राद्धषोडशी करनी चाहिए (वायु0 110।60)। रघुनन्दन ने विभिन्न पदों के श्राद्धों पर संक्षेप में लिखा है और कहा है कि पदों का अन्तिम श्राद्ध काश्यपपद पर होता है। गदालोल-तीर्थस्नान के लिए उन्होंने वायु0 (111।76) का मन्त्र दिया है। इसके उपरान्त उन्होंने कहा है कि अक्षयवट पर श्राद्ध वट के उत्तर उसके मूल के पास करना चाहिए। अक्षयवट को नमस्कार करने के लिए वायु0 के (111।82-83) मन्त्र दिये गये हैं। इसके उपरान्त रघुनन्दन ने गायत्री, सरस्वती, विशाला, भरताश्रम एवं मुण्डपृष्ठ नामक उपतीर्थों के श्राद्धों का उल्लेख किया है। तब उन्होंने व्यवस्था दी है कि यात्री को वायु0 (105।544 'यासौ वैतरणी नाम...') के मन्त्र को कहकर वैतरणी नदी (भस्मकूट और देवनदी के पास स्थित) को पार करना चाहिए। रघुनन्दन ने गोप्रचार, घृतकुल्या, मधुकुल्या आदि तीर्थों की ओर निर्देश करके कहा है कि यात्री को पाण्डुशिला (जो पितामह के पास चम्पकवन में है) जाकर श्राद्ध करना चाहिए। रघुनन्दन ने टिप्पणी की है कि घृतकुल्या, मधुकुल्या, देविका एवं महानदी नामक नदियाँ एवं धाराएँ (जब वे शिला से मिलती हैं तो) मधुस्त्रवा कही जाती हैं (वायु0 112।30) और वहाँ के तर्पण एवं श्राद्ध से अधिक फल की प्राप्ति होती है। इसके उपरान्त दशाश्वमेध, मतंगपद, मखकुण्ड (उद्यन्त पर्वत के पास), गयाकूट आदि का उल्लेख हुआ है। रघुनन्दन ने अन्त में व्यवस्था दी है कि यात्री को भस्मकूट पर अपने दाहिने हाथ से जनार्दन के हाथ में दधि से मिश्रित (किन्तु तिल के साथ नहीं) एक पिण्ड रखना चाहिए और ऐसा करते हुए पाँच श्लोकों (वायु0 108।86-90) का पाठ करना चाहिए। इसके उपरान्त रघुनन्दन ने मातृषोडशी के लिए 16 श्लोक उदधृत किये हैं, जो वायुपुराण में नहीं पाये जाते। अब हमें गयाक्षेत्र, गया एवं गयाशिर या गयाशीर्ष के अन्तरों को समझना चाहिए। वायु0, अग्नि0 एवं नारदीय0 के अनुसार गयाक्षेत्र पाँच कोसों एवं गयाशिर एक कोस तक विस्तृत है।(46) काशी, प्रयाग आदि जैसे तीर्थों को पंचकोश (46) 'पञ्चकोशं गयाक्षेत्रं कोशमेकं गयाशिर:।' वायु0 (106।65); अग्नि0 (115।42) एवं नारदीय0 (उत्तर, 44।16)। कहना एक सामान्य रीति हो गयी है। किन्तु वायु0 के मतानुसार गयाक्षेत्र लम्बाई में प्रेतशिला से लेकर महाबोधिवृक्ष तक लगभग 13 मील है। गया को मुण्डपृष्ठ की चारों दिशाओं में ढाई कोश विस्तृत माना गया है।(47) गयाशिर गया से छोटा है और उसे फल्गुतीर्थ माना गया है। प्राचीन बौद्ध ग्रन्थों में गया एवं गयासीस (गयाशीर्ष का पालि रूप) अति प्रसिद्ध कहे गये हैं (महावग्ग 1।21।1 एवं अंगुत्तरनिकाय, जिल्द 4, पृ0 302)। हमने अति प्रसिद्ध एवं पवित्र तीर्थों में चार का वर्णन विस्तार से किया है। अन्य तीर्थों के विषय में विस्तार से लिखना स्थानाभाव से यहाँ सम्भव नहीं है। लगग आधे दर्जन तीर्थों के विषय में, संक्षेप में हम कुछ लिखेंगे। आगे हम कुछ विशिष्ट बातों के साथ अन्य तीर्थों की सूची देंगे। किन्तु यहाँ कुछ कहने के पूर्व कुछ प्रसिद्ध तीर्थ-कोटियों की चर्चा कर देना आवश्यक है। सात नगरियों का एक वर्ग प्रसिद्ध है, जिसमें प्रत्येक तीर्थ अति पवित्र एवं मोक्षदायक माना जाता है। और ये सात तीर्थ हैं- अयोध्या, मथुरा, माया (हरिद्वार), काशी, काञ्ची, अवन्तिका (उज्जयिनी) एवं द्वारका।(48) बदरीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वर एवं द्वारका को चार धाम कहा जाता है। शिवपुराण (4।1।183।21-24) में 12 ज्योतिर्लिगों के नाम आये हैं- सौराष्ट्र में सोमनाथ, श्रीशैल पर्वत (कर्नूल जिले में कृष्ण नामक स्टेशन से 50 मील दूर) पर मल्लकार्जुन, उज्जयिनी में महाकाल, ओंकार-क्षेत्र (एक नर्मदा द्वीप) में परमेश्वर, हिमालय में केदार, डाकिनी में भीमाशंकर (पूना के उत्तर-पश्चिम भीमा नदी के निकास-स्थल पर), काशी में विश्वेश्वर, गौतमी (गोदावरी, नासिक के पास) के तअ पर व्यम्बकेश्वर, चिताभूमि में वैद्यनाथ, दारूकावन में नागेश, सेतुबन्ध में रामेश्वर एवं शिवालय (देवगिरि या दौलताबाद से 7 मील की दूरी पर एलूर नामक ग्राम का आधुनिक स्थल) में घृष्णेश। शिवपुराण (कोटिद्रुम-संहिता, अध्याय 1) ने 12 ज्योतिर्लिगों के नाम दिये हैं और इनके विषय की आख्यायिकाएँ अध्याय 14-33 में दी हुई हैं। स्कन्द0 (केदारखण्ड, 7।30-35) ने 12 ज्योतिलिंगों के थ अन्रू लिंगों का भी वर्णन दिया है। बार्हस्पत्यसूत्र (डा0 एफ0 डब्लू0 टामस द्वारा सम्पादित) ने विष्णु, शिव एवं शक्ति के आठ-आठ बड़े तीर्थों का उल्लेख किया है, जो सिद्धियाँ देते हैं।(49) (47) मुण्डपृष्ठाच्च पूर्वस्मिन् दक्षिणे पश्चिमोत्तरे। सार्ध कोशद्वयं मानं गयेति परिकीर्तितम्॥ वायु0 (त्रिस्थलीसेतु, पृ0 342)। (48) अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्ची ह्यवन्तिका। एता: पुण्यतमा: प्रोक्ता: पुरीणामुत्तमोत्तमा:॥ ब्रह्माण्ड0 (4।40।91); काशी कान्ती च मायाख्या त्वयोध्याद्वारवत्यपि। मथुरावन्तिका चैता: सप्तपुर्योत्र मोक्षदा:॥ स्कन्द0 (काशीखण्ड, 6।68); काञ्च्यवन्ती द्वारवती काश्ययोध्या च पञ्चमी। मायापुरी च मथुरा पुर्य: सप्त विमुक्तिदा:॥ काशीखण्ड (23।7); अयोध्या...वन्तिका। पुरी द्वारवती ज्ञेया सप्तैता मोक्षदायिका:॥ गरूड़0 (प्रेतखण्ड, 34।5-6)। स्कन्द0 (नागरखण्ड, 47।4) में कान्ती को रूद्रसेन की राजधानी कहा गया है, किन्तु ब्राह्मण्ड0 (3।13।94-97) में कान्तीपुरी को व्यास के ध्यान का स्थल, कुमारधारा एवं पुष्करिणी कहा गया है। कान्ती को कुछ लोग नेपाल की राजधानी काठमाण्डू का प्राचीन नाम कहते हैं, किन्तु ऐश्येण्ट जियाग्राफी में इसे ग्वालियर के उत्तर 20 मील दूर पर स्थित कोटिवल कहा गया है। (49) अष्ट वैष्णवक्षेत्रा:। बदरिका-सालग्राम-पुरूषोत्तम-द्वारका-बिल्वाचल-अनन्त-सिंह-श्रीरंगा:। अष्टी शैवा:। अविमुक्त-गंगाद्वार-शिवक्षेत्र-रामेयमुना(?)-शिवसरस्वती-मव्य-शार्दूल-गजक्षेत्रा:। शाधता अष्टौ च। ओग्घीणजाल-पूर्ण-काम-कोल्ल-श्रीशैल-काञ्ची-महेन्दा:। एते महाक्षेत्रा: सर्वेसिद्धिकराश्च। बार्हस्पत्यसूत्र (3।119-126)।

  1. डा0 राजेन्द्रलाल मिश्र का ग्रन्थ 'बुद्ध गया' (1878 ई0)
  2. जनरल कनिंघम का 'महाबोधि' (1892)
  3. ओ' मैली के गया गजेटियर के गया-श्राद्ध एवं गयावाल नामक अध्याय
  4. पी0सी0 राय चौधरी द्वारा सम्पादित गया गजेटियर का नवीन संस्करण (1957 ई0)
  5. इण्डियन ऐण्टीक्वेरी (जिल्द 10, पृ0 339-340, जिसमें बुद्धगया के चीनी अभिलेंख, सन् 1033 ई0 का तथा गया के अन्य अभिलेखों का, जिनमें बुद्ध-परिनिर्वाण के 1813 वर्षों के उपरान्त का एक अभिलेख भी है जो विष्णुपद के पास 'दक्षिण मानस' कुण्ड के सूर्यमन्दिर में उत्कीर्ण है, वर्णन है)
  6. इण्डियन ऐण्टीक्वेरी (जिल्द 16, पृ0 63), जहाँ विश्वादित्य के पुत्र यक्षपाल के उस लेख का वर्णन है जिसमें पालराज नयपाल देव (मृत्यु, सन् 1045 ई0) द्वारा निर्माण किये गये मन्दिर में प्रतिष्ठापित प्रतिमाओं का उल्लेख है
  7. डा0 वेणीमाधव बरूआ का दो भागों में 'गया एवं बुद्धगया' ग्रन्थ; जे0वी0ओ0आर0एस0 (जिल्द 24, 1938 ई0, पृ0 89-111)
  8. मध्य काल के निबन्धों के लिए देखिए कल्पतरू (तीर्थ, पृ0 163-174), तीर्थ-चिन्तामणि (पृ0 268-328), त्रिस्थलीसेतु (पृ0 316-379), तीर्थप्रकाश (पृ0 384-452), तीर्थेन्दुशेखर (पृ0 54-59) तथा त्रिस्थलीसेतु-सार-संग्रह (पृ0 36-38)
  9. गया-माहात्म्य (वायुपुराण, अध्याय 105-112)
  10. मध्वाचार्य के जन्म-मरण की तिथियों के विषय में मतैक्य नहीं है। जन्म एवं मरण के विषय में 'उत्तररादिमठ' ने क्रम से शक संवत् 1040 (सन् 1118 ई0) एवं 1120 (1198 ई0) की तिथियाँ दी हैं। किन्तु इन तिथियों द्वारा मध्व के ग्रन्थ महाभारततात्पर्यनिर्णय की तिथि से मतभेद पड़ता है, क्योंकि वहाँ जन्मतिथि गतकलि 4300 है। अन्नमलाई विश्वविद्यालय की पत्रिका (जिल्द 3, 1934 ई0) के प्रकाशित लेख में ठीक तिथि सन् 1238-1317 ई0 है।
  11. महाभारत में वर्णित गया प्रमुखत: धर्मराज यम, ब्रह्मा एवं शिव शूली का तीर्थस्थल है, और विष्णु एवं वैष्णववाद नाम या भावना के रूप में इससे सम्बन्धित नहीं हो सकते। ब्रह्मयूप, शिवलिंग एवं वृषभ के अतिरिक्त यहाँ किसी अन्य मूर्ति या मन्दिर के निर्माण की ओर संकेत नहीं मिलता।' इस निष्कर्ष के लिए हमें महाभारत एवं अन्य संस्कृत ग्रन्थों को अवगाहन करके गयामाहात्म्य से तुलना करनी होगी।
  12. इण्डियन ऐण्टीक्वेरी, जिल्द 16 में वह अभिलेख वर्णित है)
  13. ऋग्वेद(10।63 एवं 10।64) के दो सूक्तों के रचयिता थे प्लति के पुत्र गय। ऋ0 (10।63।17 एवं 10।64।17)
  14. (दैवी पुरोहित गय द्वारा प्रशंसित हुए)
  15. अथर्ववेद(1।14।4)