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०९:४३, २४ अक्टूबर २००९ का अवतरण
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गीता अध्याय-13 श्लोक-34 / Gita Chapter-13 Verse-34
प्रसंग-
तीसरे श्लोक में, जिससे जो उत्पत्र हुआ है, यह बात सुनने के लिये कहा गया था, उसका वर्णन पूर्व श्लोक के उत्तरार्द्ध में कुछ किया गया । अब उसी की कुछ बात इस श्लोक के पूर्वार्द्ध में कहते हुए इसके उत्तरार्द्ध में और इक्कीसवें श्लोक में प्रकृति में स्थित पुरूष के स्वरूप का वर्णन किया जाता है –
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा ।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् ।।34।।
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इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को तथा कार्य सहित प्रकृति से मुक्त होने को जो पुरूष ज्ञान-नेत्रों द्वारा तत्त्व से जानते हैं, वे महात्माजन परम ब्रह्रा परमात्मा को प्राप्त होते है ।।34।।
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Arjuna, as the one sun illumines this entire universe, so the one Atma (Spirit) illumines the whole Ksetra(Field)
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कार्यकरणकर्तृत्वे = कार्य और करण के उत्पन्न करने में (और) ; पुरूष: = जीवात्मा ; सुखदु:खानाम् = सुखदु:खों के ; हेतु: = हेतु ; प्रकृति: = प्रकृति ; उच्यते = कही जाती है ; भोक्तृत्वे = भोक्तापन में अर्थात् भोगने में ; हेतु: = हेतु ; उच्यते = कहा जाता है ;
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