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==गोदावरी / Godavari==
 
==गोदावरी / Godavari==
==इतिहास==
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वैदिक साहित्य में अभी तक गोदावरी की कहीं भी चर्चा नहीं प्राप्त हो सकी है। [[बौद्ध]] ग्रन्थों में बावरी के विषय में कई दन्तकथाएँ मिलती हैं। वह पहले महाकोसल का पुरोहित था और पश्चात पसनेदि का, वह गोदावरी पर अलक के पार्श्व में अस्यक की भूमि में निवास करता था और ऐसा कहा जाता है कि उसने [[श्रावस्ती]] में बुद्ध के पास कतिपय शिष्य भेजे थे।<balloon title="सुत्तनिपात, सैक्रेड बुक आव दि ईस्ट, जिल्द 10, भाग 2, 184 एवं 187" style=color:blue>*</balloon> [[पाणिनि]]<balloon title="पाणिनि, 5.4.75" style=color:blue>*</balloon> के 'संख्याया नदी-गोदावरीभ्यां च' वार्तिक में 'गोदावरी' नाम आया है और इससे 'सप्तगोदावर' भी परिलक्षित होता है। [[रामायण]], [[महाभारत]] एवं [[पुराण|पुराणों]] में इसकी चर्चा हुई हैं। [[वन पर्व महाभारत|वन पर्व]]<balloon title="वनपर्व, 88.2" style=color:blue>*</balloon> ने इसे दक्षिण में पायी जाने वाली एक पुनीत नदी की संज्ञा दी है और कहा है कि यह निर्झरपूर्ण एवं वाटिकाओं से आच्छादित तटवाली थी और यहाँ मुनिगण तपस्या किया करते थे। रामायण के [[अरण्य काण्ड वा॰ रा॰]]<balloon title="अरण्य काण्ड, 13.13 एवं 21" style=color:blue>*</balloon> ने गोदावरी के पास के पंचवटी नामक स्थल का वर्णन किया है, जहाँ मृगों के झुण्ड रहा करते थे और जो [[अगस्त्य]] के आश्रम से दो योजन की दूरी पर था। [[ब्रह्म पुराण]]<balloon title="अध्याय 70-175" style=color:blue>*</balloon> में गोदावरी एवं इसके उपतीर्थों का सविस्तार वर्णन हुआ है। तीर्थंसार<balloon title="नृसिंहपुराण का एक भाग" style=color:blue>*</balloon> ने ब्रह्मपुराण के कतिपय अध्यायों<balloon title="यथा- 89, 91, 106, 107, 116-118, 121, 122, 131, 144, 154, 159, 172" style=color:blue>*</balloon> से लगभग 60 श्लोक उद्धृत किये हैं, जिससे यह प्रकट होता है कि आज के ब्रह्मपुराण के गौतमी वाले अध्याय 1500 ई. के पूर्व उपस्थित थे। वामन काणे के लेख के अनुसार<balloon title="जर्नल आव दी बाम्बे ब्रांच आव दी एशियाटिक सोसाइटी, सन् 1917, पृ0 27-28" style=color:blue>*</balloon> ब्रह्म पुराण ने गोदावारी को सामान्य रूप में गौतमी कहा है।<ref>विन्ध्यस्य दक्षिणे गंगा गौतमी सा निगद्यते। उत्तरे सापि विन्ध्यस्य भागीरथ्यभिधीयते॥ ब्रह्म पुराण (78।77) एवं तीर्थसार (पृ0 45)।</ref> ब्रह्मपुराण<balloon title="ब्रह्मपुराण, 78.77" style=color:blue>*</balloon> में आया है कि विन्ध्य के दक्षिण में [[गंगा]] को गौतमी और उत्तर में [[भागीरथी]] कहा जाता है। गोदावरी की 200 योजन की लम्बाई कही गयी है और कहा गया है कि इस पर साढ़े तीन करोड़ तीर्थ पाये जाते हैं।<balloon title="ब्रह्म पुराण 77.8-9" style=color:blue>*</balloon> दण्डकारण्य को धर्म एवं मुक्ति का बीज एवं उसकी भूमि को (उसके द्वारा आश्लिष्ट स्थल को) पुण्यतम कहा गया है।<ref>तिस्र: कोट्योऽर्धकोटी च योजनानां शतद्वयें। तीर्थानि मुनिशार्दूल सम्भविष्यन्ति गौतम॥ ब्रह्म पुराण (77।8-9)। धर्मबीजं मुक्तिबीजं दण्डकारण्यमुच्यते। विशेषाद् गौतमीश्लिष्टो देश: पुण्यतमोऽभवत्॥ ब्रह्म पुराण (161।73)।</ref>
[[नासिक]] के इतिहास इसके स्नान-स्थलों, मन्दिरों, जलाशयों, तीर्थयात्रा एवं पूजा-कृत्यों के विषय में स्थानाभाव से अधिक नहीं लिखा जा सकता। इस विषय में देखिए बम्बई का गजेटियर<balloon title="जिल्द 16, नासिक जिला" style=color:blue>*</balloon> यहाँ यह वर्णित है कि नासिक में 60 मन्दिर एवं गोदावरी के वाम तट पर पंचवटी में 16 मन्दिर हैं। किन्तु आज प्राचीन मन्दिरों में कदाचित् ही कोई खड़ा हो। सन् 1680 ई0 में दक्षिण की सूबेदारी में [[औरंगज़ेब]] ने नासिक के 25 मन्दिर तुड़वा डाले। आज के सभी मन्दिर पूना के पेशवाओं द्वारा निर्मित कराये गये हैं (सन् 1850 एवं 1818 के भीतर) इनमें तीन उल्लेखनीय हैं-
 
*पंचवटी में रामजी का मन्दिर,
 
*गोदावरी के बायें तट पर पहले मोड़ के पास नारो-शंकर का मन्दिर (या घण्टामन्दिर) एवं
 
*नासिक के आदित्यवार पेठ में सुन्दर नारायण का मन्दिर।
 
==नासिक नाम की उत्पत्ति==
 
नासिक के उत्सवों में [[रामनवमी]] एक बहुत बड़ा पर्व है। 'नासिक' शब्द 'नासिका' से बना है और इसी से 'नासिक्य' शब्द भी बना है। सम्भवत: यह नाम इसलिए पड़ा है कि यहीं पर लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक (नासिका) काटी थी।<ref>देखिए बम्बई गजेटियर, जिल्द 6, पृ0 517-518, 529-531 एवं 522-526 </ref>
 
==दन्तकथाएँ==
 
वैदिक साहित्य में अभी तक गोदावरी की कहीं भी चर्चा नहीं प्राप्त हो सकी है। [[बौद्ध]] ग्रन्थों में बावरी के विषय में कई दन्तकथाएँ मिलती हैं। वह पहले महाकोसल का पुरोहित था और पश्चात् पसनेदि का, वह गोदावरी पर अलक के पार्श्व में अस्यक की भूमि में निवास करता था और ऐसा कहा जाता है कि उसने [[श्रावस्ती]] में बुद्ध के पास कतिपय शिष्य भेजे थे।<balloon title="सुत्तनिपात, सैक्रेड बुक आव दि ईस्ट, जिल्द 10, भाग 2, 184 एवं 187" style=color:blue>*</balloon> [[पाणिनि]]<balloon title="पाणिनि, 5.4.75" style=color:blue>*</balloon> के 'संख्याया नदी-गोदावरीभ्यां च' वार्तिक में 'गोदावरी' नाम आया है और इससे 'सप्तगोदावर' भी परिलक्षित होता है। [[रामायण]], [[महाभारत]] एवं [[पुराण|पुराणों]] में इसकी चर्चा हुई हैं। [[वन पर्व महाभारत|वन पर्व]]<balloon title="वनपर्व, 88.2" style=color:blue>*</balloon> ने इसे दक्षिण में पायी जाने वाली एक पुनीत नदी की संज्ञा दी है और कहा है कि यह निर्झरपूर्ण एवं वाटिकाओं से आच्छादित तटवाली थी और यहाँ मुनिगण तपस्या किया करते थे। रामायण के [[अरण्य काण्ड वा॰ रा॰]]<balloon title="अरण्य काण्ड, 13.13 एवं 21" style=color:blue>*</balloon> ने गोदावरी के पास के पंचवटी नामक स्थल का वर्णन किया है, जहाँ मृगों के झुण्ड रहा करते थे और जो [[अगस्त्य]] के आश्रम से दो योजन की दूरी पर था। [[ब्रह्म पुराण]]<balloon title="अध्याय 70-175" style=color:blue>*</balloon> में गोदावरी एवं इसके उपतीर्थों का सविस्तार वर्णन हुआ है। तीर्थंसार<balloon title="नृसिंहपुराण का एक भाग" style=color:blue>*</balloon> ने ब्रह्मपुराण के कतिपय अध्यायों<balloon title="यथा- 89, 91, 106, 107, 116-118, 121, 122, 131, 144, 154, 159, 172" style=color:blue>*</balloon> से लगभग 60 श्लोक उद्धृत किये हैं, जिससे यह प्रकट होता है कि आज के ब्रह्मपुराण के गौतमी वाले अध्याय 1500 ई. के पूर्व उपस्थित थे। वामन काणे के लेख के अनुसार<balloon title="जर्नल आव दी बाम्बे ब्रांच आव दी एशियाटिक सोसाइटी, सन् 1917, पृ0 27-28" style=color:blue>*</balloon> ब्रह्म पुराण ने गोदावारी को सामान्य रूप में गौतमी कहा है।<ref>विन्ध्यस्य दक्षिणे गंगा गौतमी सा निगद्यते। उत्तरे सापि विन्ध्यस्य भागीरथ्यभिधीयते॥ ब्रह्म पुराण (78।77) एवं तीर्थसार (पृ0 45)।</ref> ब्रह्मपुराण<balloon title="ब्रह्मपुराण, 78.77" style=color:blue>*</balloon> में आया है कि विन्ध्य के दक्षिण में [[गंगा]] को गौतमी और उत्तर में [[भागीरथी]] कहा जाता है। गोदावरी की 200 योजन की लम्बाई कही गयी है और कहा गया है कि इस पर साढ़े तीन करोड़ तीर्थ पाये जाते हैं।<balloon title="ब्रह्म पुराण 77.8-9" style=color:blue>*</balloon> दण्डकारण्य को धर्म एवं मुक्ति का बीज एवं उसकी भूमि को (उसके द्वारा आश्लिष्ट स्थल को) पुण्यतम कहा गया है।<ref>तिस्र: कोट्योऽर्धकोटी च योजनानां शतद्वयें। तीर्थानि मुनिशार्दूल सम्भविष्यन्ति गौतम॥ ब्रह्म पुराण (77।8-9)। धर्मबीजं मुक्तिबीजं दण्डकारण्यमुच्यते। विशेषाद् गौतमीश्लिष्टो देश: पुण्यतमोऽभवत्॥ ब्रह्म पुराण (161।73)।</ref>
 
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==ब्रह्मगिरि पर उतरी गंगा==
 
==ब्रह्मगिरि पर उतरी गंगा==
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बहुत-से पुराणों में एक श्लोक आया है- 'मध्य के देश सह्य पर्वत के अनन्तर में हैं, वहीं पर गोदावरी है और वह भूमि तीनों लोकों में सबसे सुन्दर है। वहाँ [[गोवर्धन]] है, जो मन्दर एवं गन्धमादन के समान है।'<ref>सह्यस्यानन्तरे चैते तत्र गोदावरी नदी। पृथिव्यामपि कृत्स्नायां स प्रदेशो मनोरम:। यत्र गोवर्धनो नाम मन्दरो गन्धमादन:॥ [[मत्स्य पुराण]] (114.37-38=वायु0 45.112-113=मार्कण्डेय0 54.34-35=ब्रह्माण्ड0 2।16।43)। और देखिए ब्रह्म पुराण (27.43-44)।</ref> ब्रह्म पुराण<balloon title="27.43-44" style=color:blue>*</balloon> में वर्णन आया है कि किस प्रकार गौतम ने [[शिव]] की जटा से गंगा को ब्रह्मगिरि पर उतारा, जहाँ उनका आश्रम था और किस प्रकार इस कार्य में [[गणेश]] ने सहायता दी। [[नारद पुराण]]<balloon title="उत्तरार्ध, 72" style=color:blue>*</balloon> में आया है कि जब [[गौतम]] तप कर रहे थे तो बारह वर्षों तक पानी नहीं बरसा और दुर्भिक्ष पड़ गया, इस पर सभी मुनिगण उनके पास गये और उन्होंने गंगा को अपने आश्रम में उतारा। वे प्रात:काल शालि के अन्न बोते थे और मध्याह्न में काट लेते थे और यह कार्य वे तब तक करते चले गये जब तक पर्याप्त रूप में अन्न एकत्र नहीं हो गया। शिवजी प्रकट हुए और ऋषि ने प्रार्थना की कि वे (शिवजी) उनके आश्रम के पास रहें और इसी से वह पर्वत जहाँ गौतम का आश्रम अवस्थित था, त्र्यम्बक नाम से विख्यात हुआ।<balloon title="श्लोक 24" style=color:blue>*</balloon>
 
बहुत-से पुराणों में एक श्लोक आया है- 'मध्य के देश सह्य पर्वत के अनन्तर में हैं, वहीं पर गोदावरी है और वह भूमि तीनों लोकों में सबसे सुन्दर है। वहाँ [[गोवर्धन]] है, जो मन्दर एवं गन्धमादन के समान है।'<ref>सह्यस्यानन्तरे चैते तत्र गोदावरी नदी। पृथिव्यामपि कृत्स्नायां स प्रदेशो मनोरम:। यत्र गोवर्धनो नाम मन्दरो गन्धमादन:॥ [[मत्स्य पुराण]] (114.37-38=वायु0 45.112-113=मार्कण्डेय0 54.34-35=ब्रह्माण्ड0 2।16।43)। और देखिए ब्रह्म पुराण (27.43-44)।</ref> ब्रह्म पुराण<balloon title="27.43-44" style=color:blue>*</balloon> में वर्णन आया है कि किस प्रकार गौतम ने [[शिव]] की जटा से गंगा को ब्रह्मगिरि पर उतारा, जहाँ उनका आश्रम था और किस प्रकार इस कार्य में [[गणेश]] ने सहायता दी। [[नारद पुराण]]<balloon title="उत्तरार्ध, 72" style=color:blue>*</balloon> में आया है कि जब [[गौतम]] तप कर रहे थे तो बारह वर्षों तक पानी नहीं बरसा और दुर्भिक्ष पड़ गया, इस पर सभी मुनिगण उनके पास गये और उन्होंने गंगा को अपने आश्रम में उतारा। वे प्रात:काल शालि के अन्न बोते थे और मध्याह्न में काट लेते थे और यह कार्य वे तब तक करते चले गये जब तक पर्याप्त रूप में अन्न एकत्र नहीं हो गया। शिवजी प्रकट हुए और ऋषि ने प्रार्थना की कि वे (शिवजी) उनके आश्रम के पास रहें और इसी से वह पर्वत जहाँ गौतम का आश्रम अवस्थित था, त्र्यम्बक नाम से विख्यात हुआ।<balloon title="श्लोक 24" style=color:blue>*</balloon>
  
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*वञ्जरा-संगम<balloon title="159" style=color:blue>*</balloon> आदि।
 
*वञ्जरा-संगम<balloon title="159" style=color:blue>*</balloon> आदि।
 
किन्तु स्थानाभाव से हम इनकी चर्चा नहीं करेंगे। किन्तु नासिक, गोवर्धन, पंचवटी एवं जनस्थान के विषय में कुछ लिख देना आवश्यक है।
 
किन्तु स्थानाभाव से हम इनकी चर्चा नहीं करेंगे। किन्तु नासिक, गोवर्धन, पंचवटी एवं जनस्थान के विषय में कुछ लिख देना आवश्यक है।
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==दान का वर्णन==
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भरहुत स्तूप के घेरे के एक स्तम्भ पर एक लेख है जिसमें नासिक के वसुक की पत्नी गोरक्षिता के दान का वर्णन है। यह लेख ई॰पू॰ 200 ई॰ का है और अब तक के पाये गये नासिक-सम्बन्धी लेखों में सब से पुराना हे। महाभाष्य<balloon title="महाभाष्य, 6.1.63" style=color:blue>*</balloon> में नासिक्य पुरी का उल्लेख हुआ हें [[वायु पुराण]]<balloon title="वायु पुराण, 45.130" style=color:blue>*</balloon> ने नासिक्य को एक देश के रूप में कहा है। पाण्डुलेणा की गुफ़ाओं के नासिक लेखों से पता चलता है कि ईसा के कई शताब्दियों पूर्व से नासिक एक समृद्धिशाली स्थल था।<balloon title="एपिग्रैफिया इण्डिका, जिल्द 8, पृ0 59-96" style=color:blue>*</balloon> टॉलेमी (लगभग 150 ई॰) ने भी नासिक का उल्लेख किया हे।<balloon title="टॉलेमी, पृ0 156" style=color:blue>*</balloon>
  
==दान का वर्णन==
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==इतिहास==
भरहुत स्तूप के घेरे के एक स्तम्भ पर एक लेख है जिसमें नासिक के वसुक की पत्नी गोरक्षिता के दान का वर्णन है। यह लेख ई0पू0 200 ई0 का है और अब तक के पाये गये नासिक-सम्बन्धी लेखों में सब से पुराना हे। महाभाष्य<balloon title="महाभाष्य, 6.1.63" style=color:blue>*</balloon> में नासिक्य पुरी का उल्लेख हुआ हें वायु पुराण<balloon title="वायु पुराण, 45.130" style=color:blue>*</balloon> ने नासिक्य को एक देश के रूप में कहा है। पाण्डुलेणा की गुफाओं के नासिक लेखों से पता चलता है कि ईसा के कई शताब्दियों पूर्व से नासिक एक समृद्धिशाली स्थल था।<balloon title="एपिग्रैफिया इण्डिका, जिल्द 8, पृ0 59-96" style=color:blue>*</balloon> टॉलेमी (लगभग 150 ई0) ने भी नासिक का उल्लेख किया हे।<balloon title="टॉलेमी, पृ0 156" style=color:blue>*</balloon>
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[[नासिक]] के इतिहास इसके स्नान-स्थलों, मन्दिरों, जलाशयों, तीर्थयात्रा एवं पूजा-कृत्यों के विषय में स्थानाभाव से अधिक नहीं लिखा जा सकता। इस विषय में देखिए बम्बई का गजेटियर<balloon title="जिल्द 16, नासिक ज़िला" style=color:blue>*</balloon> यहाँ यह वर्णित है कि नासिक में 60 मन्दिर एवं गोदावरी के वाम तट पर पंचवटी में 16 मन्दिर हैं। किन्तु आज प्राचीन मन्दिरों में कदाचित् ही कोई खड़ा हो। सन् 1680 ई॰ में दक्षिण की सूबेदारी में [[औरंगज़ेब]] ने नासिक के 25 मन्दिर तुड़वा डाले। आज के सभी मन्दिर पूना के पेशवाओं द्वारा निर्मित कराये गये हैं (सन् 1850 एवं 1818 के भीतर) इनमें तीन उल्लेखनीय हैं-
==गुफा का दर्शन==
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*पंचवटी में रामजी का मन्दिर,  
पंचवटी में सीता-गुफा का दर्शन किया जाता है, इसके पास बरगद के प्राचीन पेड़ हैं जिनके विषय में ऐसा विश्वास है कि ये पाँच वटो से उत्पन्न हुए हैं जिनसे इस स्थान को पंचवटी की संज्ञा मिली है। सीता-गुफा से थोड़ी दूर पर काले राम का मन्दिर है जो पश्चिम भारत के सुन्दर मन्दिरों में परिगणित होता है। गोवर्धन<balloon title="नासिक से 6 मील पश्चिम" style=color:blue>*</balloon> एवं तपोवन<balloon title="नासिक से 1॥ मील दक्षिण-पूर्व" style=color:blue>*</balloon> के बीच में बहुत-से स्नान-स्थल एवं पवित्र कुण्ड हैं। गोदावरी की बायीं ओर जहां इसका दक्षिण की ओर प्रथम घुमाव है, नासिक का रामकुण्ड नामक पवित्रतम स्थल है। कालाराम-मन्दिर के प्रति दिन के धार्मिक कृत्य एवं पूजा यात्री लोग नासिक में ही करते हैं।
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*गोदावरी के बायें तट पर पहले मोड़ के पास नारो-शंकर का मन्दिर (या घण्टामन्दिर) एवं
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*नासिक के आदित्यवार पेठ में सुन्दर नारायण का मन्दिर।
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==गुफ़ा का दर्शन==
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पंचवटी में सीता-गुफ़ा का दर्शन किया जाता है, इसके पास बरगद के प्राचीन पेड़ हैं जिनके विषय में ऐसा विश्वास है कि ये पाँच वटो से उत्पन्न हुए हैं जिनसे इस स्थान को पंचवटी की संज्ञा मिली है। सीता-गुफ़ा से थोड़ी दूर पर काले राम का मन्दिर है जो पश्चिम भारत के सुन्दर मन्दिरों में परिगणित होता है। गोवर्धन<balloon title="नासिक से 6 मील पश्चिम" style=color:blue>*</balloon> एवं तपोवन<balloon title="नासिक से 1॥ मील दक्षिण-पूर्व" style=color:blue>*</balloon> के बीच में बहुत-से स्नान-स्थल एवं पवित्र कुण्ड हैं। गोदावरी की बायीं ओर जहां इसका दक्षिण की ओर प्रथम घुमाव है, नासिक का रामकुण्ड नामक पवित्रतम स्थल है। कालाराम-मन्दिर के प्रति दिन के धार्मिक कृत्य एवं पूजा यात्री लोग नासिक में ही करते हैं।
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==नासिक नाम की उत्पत्ति==
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नासिक के उत्सवों में [[रामनवमी]] एक बहुत बड़ा पर्व है। 'नासिक' शब्द 'नासिका' से बना है और इसी से 'नासिक्य' शब्द भी बना है। सम्भवत: यह नाम इसलिए पड़ा है कि यहीं पर लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक (नासिका) काटी थी।<ref>देखिए बम्बई गजेटियर, जिल्द 6, पृ0 517-518, 529-531 एवं 522-526 </ref>
 
==पंचवटी==
 
==पंचवटी==
 
उषवदात के नासिक-शिलालेख में, जो बहुत लम्बा एवं प्रसिद्ध हैं, 'गोवर्धन' शब्द आया है।<balloon title="देखिए बम्बई गजेटियर, जिल्द 16, पृ0 569-570" style=color:blue>*</balloon> पंचवटी नाम ज्यों-का-त्यों चला आया है। यह ज्ञातव्य है कि रामायण<balloon title="रामायण, 3.13.13" style=color:blue>*</balloon> में पंचवटी को देश कहा गया है। [[शल्य पर्व महाभारत|शल्य पर्व]]<balloon title="शल्य पर्व, 939.9-10" style=color:blue>*</balloon>, रामायण<balloon title="रामायण, 3.21.19-20" style=color:blue>*</balloon>, [[नारद पुराण]]<balloon title="नारदीय पुराण, 2.75.30" style=color:blue>*</balloon> एवं [[अग्नि पुराण]]<balloon title="अग्नि पुराण, 7.2-3" style=color:blue>*</balloon> के मत से जनस्थान दण्डकारण्य में था और पंचवटी उसका (अर्थात् जनस्थान का) एक भाग था। जनस्थान विस्तार में 4 योजन था और यह नाम इसलिए पड़ा कि यहाँ जनक-कुल के राजाओं ने गोदावरी की कृपा से मुक्ति पायी थी।<balloon title="ब्रह्म पुराण 88.22-24" style=color:blue>*</balloon>
 
उषवदात के नासिक-शिलालेख में, जो बहुत लम्बा एवं प्रसिद्ध हैं, 'गोवर्धन' शब्द आया है।<balloon title="देखिए बम्बई गजेटियर, जिल्द 16, पृ0 569-570" style=color:blue>*</balloon> पंचवटी नाम ज्यों-का-त्यों चला आया है। यह ज्ञातव्य है कि रामायण<balloon title="रामायण, 3.13.13" style=color:blue>*</balloon> में पंचवटी को देश कहा गया है। [[शल्य पर्व महाभारत|शल्य पर्व]]<balloon title="शल्य पर्व, 939.9-10" style=color:blue>*</balloon>, रामायण<balloon title="रामायण, 3.21.19-20" style=color:blue>*</balloon>, [[नारद पुराण]]<balloon title="नारदीय पुराण, 2.75.30" style=color:blue>*</balloon> एवं [[अग्नि पुराण]]<balloon title="अग्नि पुराण, 7.2-3" style=color:blue>*</balloon> के मत से जनस्थान दण्डकारण्य में था और पंचवटी उसका (अर्थात् जनस्थान का) एक भाग था। जनस्थान विस्तार में 4 योजन था और यह नाम इसलिए पड़ा कि यहाँ जनक-कुल के राजाओं ने गोदावरी की कृपा से मुक्ति पायी थी।<balloon title="ब्रह्म पुराण 88.22-24" style=color:blue>*</balloon>
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==पौराणिक कथा==
 
==पौराणिक कथा==
[[गौतम]] मुनि बहुत वर्षों तक वहाँ तपस्या में लगे रहे। तदनन्तर अम्बिकापति भगवान [[शिव]] ने उनकी तपस्या से संतुष्ट हो उन्हें अपने पार्षदगणों के साथ दर्शन दिया और कहा- 'वर माँगो।' तब मुनिवर गौतम ने भगवान त्र्यंम्बक को साष्टांग प्रणाम किया और बोले-'सबका कल्याण करने वाले भगवन! आपके चरणों में मेरी सदा भक्ति बनी रहे और मेरे आश्रम के समीप इसी पर्वत के ऊपर आपको मैं सदा विराजमान देखूँ, यही मेरे लिये अभीष्ट वर है।' मुनि के ऐसा कहने पर भक्तों को मनोवाञ्छित वर देने वाले [[पार्वती]]वल्लभ भगवान शिव ने उन्हें अपना सामीप्य प्रदान किया। भगवान त्र्यम्बक उसी रूप से वहीं निवास करने लगे। तभी से वह पर्वत त्र्यंम्बक कहलाने लगा। सुभगे! जो मानव भक्तिभाव से गोदावरी-गंगा में जाकर स्नान करते हैं, वे भवसागर से मुक्त हो जाते हैं। जो लोग गोदावरी के जल में स्नान करके उस पर्वत पर विराजमान भगवान त्र्यम्बक का विविध उपचारों से पूजन करते हैं, वे साक्षात महेश्वर हैं। मोहिनी! भगवान त्र्यम्बक का यह माहात्म्य मैंने संक्षेप से बताया है। तदनन्तर जहाँ तक गोदावरी का साक्षात दर्शन होता है, वहाँ तक बहुत-से पुण्यमय आश्रम हैं। उन सब में स्नान करके देवताओं तथा पितरों का विधिपूर्वक तर्पण करने से मनुष्य मनोवांछित कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। भद्रे! गोदावरी कहीं प्रकट हैं और कहीं गुप्त हैं; फिर आगे जाकर पुण्यमयी गोदावरी नदी ने इस पृथ्वी को आप्लावित किया है। मनुष्यों की भक्ति से जहाँ वे महेश्वरी देवी प्रकट हुई हैं, वहाँ महान पुण्यतीर्थ है जो स्नान मात्र से पापों को हर लेने वाला है। तदनन्तर गोदावरी देवी [[पंचवटी]] में जाकर भली-भाँति प्रकाश में आयी हैं। वहाँ वे सम्पूर्ण लोकों को उत्तम गति प्रदान करती हैं। विधिनन्दिनी! जो मनुष्य नियम एवं व्रत का पालन करते हुए पंचवटी की गोदावरी में स्नान करता है, वह अभीष्ट कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। जब [[त्रेता युग]] में भगवान श्री [[राम]] अपनी धर्मपत्नी [[सीता]] और छोटे भाई [[लक्ष्मण]] के साथ आकर रहने लगे, तब से उन्होंने पंचवटी को और भी पुण्यमयी बना दिया। शुभे! इस प्रकार यह सब गौतमाश्रम का माहात्म्य कहा गया है।  
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[[गौतम]] मुनि बहुत वर्षों तक वहाँ तपस्या में लगे रहे। तदनन्तर अम्बिकापति भगवान [[शिव]] ने उनकी तपस्या से संतुष्ट हो उन्हें अपने पार्षदगणों के साथ दर्शन दिया और कहा- 'वर माँगो।' तब मुनिवर गौतम ने भगवान त्र्यंम्बक को साष्टांग प्रणाम किया और बोले-'सबका कल्याण करने वाले भगवन! आपके चरणों में मेरी सदा भक्ति बनी रहे और मेरे आश्रम के समीप इसी पर्वत के ऊपर आपको मैं सदा विराजमान देखूँ, यही मेरे लिये अभीष्ट वर है।' मुनि के ऐसा कहने पर भक्तों को मनोवाञ्छित वर देने वाले [[पार्वती]]वल्लभ भगवान शिव ने उन्हें अपना सामीप्य प्रदान किया। भगवान त्र्यम्बक उसी रूप से वहीं निवास करने लगे। तभी से वह पर्वत त्र्यंम्बक कहलाने लगा। सुभगे! जो मानव भक्तिभाव से गोदावरी-गंगा में जाकर स्नान करते हैं, वे भवसागर से मुक्त हो जाते हैं। जो लोग गोदावरी के जल में स्नान करके उस पर्वत पर विराजमान भगवान त्र्यम्बक का विविध उपचारों से पूजन करते हैं, वे साक्षात महेश्वर हैं। मोहिनी! भगवान त्र्यम्बक का यह माहात्म्य मैंने संक्षेप से बताया है। तदनन्तर जहाँ तक गोदावरी का साक्षात दर्शन होता है, वहाँ तक बहुत-से पुण्यमय आश्रम हैं। उन सब में स्नान करके देवताओं तथा पितरों का विधिपूर्वक तर्पण करने से मनुष्य मनोवांछित कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। भद्रे! गोदावरी कहीं प्रकट हैं और कहीं गुप्त हैं; फिर आगे जाकर पुण्यमयी गोदावरी नदी ने इस [[पृथ्वी]] को आप्लावित किया है। मनुष्यों की भक्ति से जहाँ वे महेश्वरी देवी प्रकट हुई हैं, वहाँ महान पुण्यतीर्थ है जो स्नान मात्र से पापों को हर लेने वाला है। तदनन्तर गोदावरी देवी [[पंचवटी]] में जाकर भली-भाँति प्रकाश में आयी हैं। वहाँ वे सम्पूर्ण लोकों को उत्तम गति प्रदान करती हैं। विधिनन्दिनी! जो मनुष्य नियम एवं व्रत का पालन करते हुए पंचवटी की गोदावरी में स्नान करता है, वह अभीष्ट कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। जब [[त्रेता युग]] में भगवान श्री [[राम]] अपनी धर्मपत्नी [[सीता]] और छोटे भाई [[लक्ष्मण]] के साथ आकर रहने लगे, तब से उन्होंने पंचवटी को और भी पुण्यमयी बना दिया। शुभे! इस प्रकार यह सब गौतमाश्रम का माहात्म्य कहा गया है।
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गोदावरी / Godavari

वैदिक साहित्य में अभी तक गोदावरी की कहीं भी चर्चा नहीं प्राप्त हो सकी है। बौद्ध ग्रन्थों में बावरी के विषय में कई दन्तकथाएँ मिलती हैं। वह पहले महाकोसल का पुरोहित था और पश्चात पसनेदि का, वह गोदावरी पर अलक के पार्श्व में अस्यक की भूमि में निवास करता था और ऐसा कहा जाता है कि उसने श्रावस्ती में बुद्ध के पास कतिपय शिष्य भेजे थे।<balloon title="सुत्तनिपात, सैक्रेड बुक आव दि ईस्ट, जिल्द 10, भाग 2, 184 एवं 187" style=color:blue>*</balloon> पाणिनि<balloon title="पाणिनि, 5.4.75" style=color:blue>*</balloon> के 'संख्याया नदी-गोदावरीभ्यां च' वार्तिक में 'गोदावरी' नाम आया है और इससे 'सप्तगोदावर' भी परिलक्षित होता है। रामायण, महाभारत एवं पुराणों में इसकी चर्चा हुई हैं। वन पर्व<balloon title="वनपर्व, 88.2" style=color:blue>*</balloon> ने इसे दक्षिण में पायी जाने वाली एक पुनीत नदी की संज्ञा दी है और कहा है कि यह निर्झरपूर्ण एवं वाटिकाओं से आच्छादित तटवाली थी और यहाँ मुनिगण तपस्या किया करते थे। रामायण के अरण्य काण्ड वा॰ रा॰<balloon title="अरण्य काण्ड, 13.13 एवं 21" style=color:blue>*</balloon> ने गोदावरी के पास के पंचवटी नामक स्थल का वर्णन किया है, जहाँ मृगों के झुण्ड रहा करते थे और जो अगस्त्य के आश्रम से दो योजन की दूरी पर था। ब्रह्म पुराण<balloon title="अध्याय 70-175" style=color:blue>*</balloon> में गोदावरी एवं इसके उपतीर्थों का सविस्तार वर्णन हुआ है। तीर्थंसार<balloon title="नृसिंहपुराण का एक भाग" style=color:blue>*</balloon> ने ब्रह्मपुराण के कतिपय अध्यायों<balloon title="यथा- 89, 91, 106, 107, 116-118, 121, 122, 131, 144, 154, 159, 172" style=color:blue>*</balloon> से लगभग 60 श्लोक उद्धृत किये हैं, जिससे यह प्रकट होता है कि आज के ब्रह्मपुराण के गौतमी वाले अध्याय 1500 ई. के पूर्व उपस्थित थे। वामन काणे के लेख के अनुसार<balloon title="जर्नल आव दी बाम्बे ब्रांच आव दी एशियाटिक सोसाइटी, सन् 1917, पृ0 27-28" style=color:blue>*</balloon> ब्रह्म पुराण ने गोदावारी को सामान्य रूप में गौतमी कहा है।[१] ब्रह्मपुराण<balloon title="ब्रह्मपुराण, 78.77" style=color:blue>*</balloon> में आया है कि विन्ध्य के दक्षिण में गंगा को गौतमी और उत्तर में भागीरथी कहा जाता है। गोदावरी की 200 योजन की लम्बाई कही गयी है और कहा गया है कि इस पर साढ़े तीन करोड़ तीर्थ पाये जाते हैं।<balloon title="ब्रह्म पुराण 77.8-9" style=color:blue>*</balloon> दण्डकारण्य को धर्म एवं मुक्ति का बीज एवं उसकी भूमि को (उसके द्वारा आश्लिष्ट स्थल को) पुण्यतम कहा गया है।[२]

ब्रह्मगिरि पर उतरी गंगा

बहुत-से पुराणों में एक श्लोक आया है- 'मध्य के देश सह्य पर्वत के अनन्तर में हैं, वहीं पर गोदावरी है और वह भूमि तीनों लोकों में सबसे सुन्दर है। वहाँ गोवर्धन है, जो मन्दर एवं गन्धमादन के समान है।'[३] ब्रह्म पुराण<balloon title="27.43-44" style=color:blue>*</balloon> में वर्णन आया है कि किस प्रकार गौतम ने शिव की जटा से गंगा को ब्रह्मगिरि पर उतारा, जहाँ उनका आश्रम था और किस प्रकार इस कार्य में गणेश ने सहायता दी। नारद पुराण<balloon title="उत्तरार्ध, 72" style=color:blue>*</balloon> में आया है कि जब गौतम तप कर रहे थे तो बारह वर्षों तक पानी नहीं बरसा और दुर्भिक्ष पड़ गया, इस पर सभी मुनिगण उनके पास गये और उन्होंने गंगा को अपने आश्रम में उतारा। वे प्रात:काल शालि के अन्न बोते थे और मध्याह्न में काट लेते थे और यह कार्य वे तब तक करते चले गये जब तक पर्याप्त रूप में अन्न एकत्र नहीं हो गया। शिवजी प्रकट हुए और ऋषि ने प्रार्थना की कि वे (शिवजी) उनके आश्रम के पास रहें और इसी से वह पर्वत जहाँ गौतम का आश्रम अवस्थित था, त्र्यम्बक नाम से विख्यात हुआ।<balloon title="श्लोक 24" style=color:blue>*</balloon>

विशेष महत्ता

वराह पुराण<balloon title="वराह पुराण, 71.37-44" style=color:blue>*</balloon> ने भी कहा है कि गौतम ही जाह्नवी को दण्डक वन में ले आये और वह गोदावरी के नाम से प्रसिद्ध हो गयी। कूर्म पुराण<balloon title="कूर्म पुराण, 2.20.29-35" style=color:blue>*</balloon> ने नदियों की एक लम्बी सूची देकर अन्त में कहा है कि श्राद्ध करने के लिए गोदावरी की विशेष महत्ता है। ब्रह्म पुराण<balloon title="ब्रह्म पुराण, 124.93" style=color:blue>*</balloon> में ऐसा आया है कि 'सभी प्रकार के कष्टों को दूर करने के लिए केवल दो (उपाय) घोषित हैं- पुनीत नदी गौतमी एवं शिव जो करुणाकर हैं। ब्रह्म पुराण ने यहाँ के लगभग 100 तीर्थों का वर्णन किया है, यथा-

  • त्र्यम्बक<balloon title="71.6" style=color:blue>*</balloon>,
  • कुशावर्त<balloon title="980.1-3" style=color:blue>*</balloon>,
  • जनस्थान<balloon title="988.1" style=color:blue>*</balloon>,
  • गोवर्धन<balloon title="अध्याय 91" style=color:blue>*</balloon>,
  • प्रवरा-संगम<balloon title="106" style=color:blue>*</balloon>,
  • निवासपुर<balloon title="106.55" style=color:blue>*</balloon>,
  • वञ्जरा-संगम<balloon title="159" style=color:blue>*</balloon> आदि।

किन्तु स्थानाभाव से हम इनकी चर्चा नहीं करेंगे। किन्तु नासिक, गोवर्धन, पंचवटी एवं जनस्थान के विषय में कुछ लिख देना आवश्यक है।

दान का वर्णन

भरहुत स्तूप के घेरे के एक स्तम्भ पर एक लेख है जिसमें नासिक के वसुक की पत्नी गोरक्षिता के दान का वर्णन है। यह लेख ई॰पू॰ 200 ई॰ का है और अब तक के पाये गये नासिक-सम्बन्धी लेखों में सब से पुराना हे। महाभाष्य<balloon title="महाभाष्य, 6.1.63" style=color:blue>*</balloon> में नासिक्य पुरी का उल्लेख हुआ हें वायु पुराण<balloon title="वायु पुराण, 45.130" style=color:blue>*</balloon> ने नासिक्य को एक देश के रूप में कहा है। पाण्डुलेणा की गुफ़ाओं के नासिक लेखों से पता चलता है कि ईसा के कई शताब्दियों पूर्व से नासिक एक समृद्धिशाली स्थल था।<balloon title="एपिग्रैफिया इण्डिका, जिल्द 8, पृ0 59-96" style=color:blue>*</balloon> टॉलेमी (लगभग 150 ई॰) ने भी नासिक का उल्लेख किया हे।<balloon title="टॉलेमी, पृ0 156" style=color:blue>*</balloon>

इतिहास

नासिक के इतिहास इसके स्नान-स्थलों, मन्दिरों, जलाशयों, तीर्थयात्रा एवं पूजा-कृत्यों के विषय में स्थानाभाव से अधिक नहीं लिखा जा सकता। इस विषय में देखिए बम्बई का गजेटियर<balloon title="जिल्द 16, नासिक ज़िला" style=color:blue>*</balloon> यहाँ यह वर्णित है कि नासिक में 60 मन्दिर एवं गोदावरी के वाम तट पर पंचवटी में 16 मन्दिर हैं। किन्तु आज प्राचीन मन्दिरों में कदाचित् ही कोई खड़ा हो। सन् 1680 ई॰ में दक्षिण की सूबेदारी में औरंगज़ेब ने नासिक के 25 मन्दिर तुड़वा डाले। आज के सभी मन्दिर पूना के पेशवाओं द्वारा निर्मित कराये गये हैं (सन् 1850 एवं 1818 के भीतर) इनमें तीन उल्लेखनीय हैं-

  • पंचवटी में रामजी का मन्दिर,
  • गोदावरी के बायें तट पर पहले मोड़ के पास नारो-शंकर का मन्दिर (या घण्टामन्दिर) एवं
  • नासिक के आदित्यवार पेठ में सुन्दर नारायण का मन्दिर।

गुफ़ा का दर्शन

पंचवटी में सीता-गुफ़ा का दर्शन किया जाता है, इसके पास बरगद के प्राचीन पेड़ हैं जिनके विषय में ऐसा विश्वास है कि ये पाँच वटो से उत्पन्न हुए हैं जिनसे इस स्थान को पंचवटी की संज्ञा मिली है। सीता-गुफ़ा से थोड़ी दूर पर काले राम का मन्दिर है जो पश्चिम भारत के सुन्दर मन्दिरों में परिगणित होता है। गोवर्धन<balloon title="नासिक से 6 मील पश्चिम" style=color:blue>*</balloon> एवं तपोवन<balloon title="नासिक से 1॥ मील दक्षिण-पूर्व" style=color:blue>*</balloon> के बीच में बहुत-से स्नान-स्थल एवं पवित्र कुण्ड हैं। गोदावरी की बायीं ओर जहां इसका दक्षिण की ओर प्रथम घुमाव है, नासिक का रामकुण्ड नामक पवित्रतम स्थल है। कालाराम-मन्दिर के प्रति दिन के धार्मिक कृत्य एवं पूजा यात्री लोग नासिक में ही करते हैं।

नासिक नाम की उत्पत्ति

नासिक के उत्सवों में रामनवमी एक बहुत बड़ा पर्व है। 'नासिक' शब्द 'नासिका' से बना है और इसी से 'नासिक्य' शब्द भी बना है। सम्भवत: यह नाम इसलिए पड़ा है कि यहीं पर लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक (नासिका) काटी थी।[४]

पंचवटी

उषवदात के नासिक-शिलालेख में, जो बहुत लम्बा एवं प्रसिद्ध हैं, 'गोवर्धन' शब्द आया है।<balloon title="देखिए बम्बई गजेटियर, जिल्द 16, पृ0 569-570" style=color:blue>*</balloon> पंचवटी नाम ज्यों-का-त्यों चला आया है। यह ज्ञातव्य है कि रामायण<balloon title="रामायण, 3.13.13" style=color:blue>*</balloon> में पंचवटी को देश कहा गया है। शल्य पर्व<balloon title="शल्य पर्व, 939.9-10" style=color:blue>*</balloon>, रामायण<balloon title="रामायण, 3.21.19-20" style=color:blue>*</balloon>, नारद पुराण<balloon title="नारदीय पुराण, 2.75.30" style=color:blue>*</balloon> एवं अग्नि पुराण<balloon title="अग्नि पुराण, 7.2-3" style=color:blue>*</balloon> के मत से जनस्थान दण्डकारण्य में था और पंचवटी उसका (अर्थात् जनस्थान का) एक भाग था। जनस्थान विस्तार में 4 योजन था और यह नाम इसलिए पड़ा कि यहाँ जनक-कुल के राजाओं ने गोदावरी की कृपा से मुक्ति पायी थी।<balloon title="ब्रह्म पुराण 88.22-24" style=color:blue>*</balloon>

महापुण्य

जब बृहस्पति ग्रह सिंह राशि में प्रवेश करता है उस समय का गोदावरी-स्नान आज भी महापुण्य-कारक माना जाता है।<balloon title="धर्मसिन्धु, पृ0 7" style=color:blue>*</balloon> ब्रह्म पुराण<balloon title="ब्रह्म पुराण, 152.38-39" style=color:blue>*</balloon> में ऐसा आया है कि तीनों लोकों के साढ़े तीन करोड़ देवता इस समय यहाँ स्नानार्थ आते हैं और इस समय का केवल एक गोदावरी-स्नान भागीरथी में प्रति दिन किये जाने वाले 60 सहस्र वर्षों तक के स्नान के बराबर है। वराह पुराण<balloon title="वराह पुराण, 71.45-46" style=color:blue>*</balloon> में ऐसा आया है कि जब कोई सिंहस्थ वर्ष में गोदावरी जाता है, वहाँ स्नान करता है और पितरों का तर्पण एवं श्राद्ध करता है तो उसके वे पितर, जो नरक में रहते हैं, स्वर्ग चले जाते हैं, और जो स्वर्ग के वासी होते हैं, वे मुक्ति पा जाते हैं। 12 वर्षों के उपरान्त, एक बार बृहस्पति सिंह राशि में आता है। इस सिंहस्थ वर्ष में भारत के सभी भागों से सहस्रों की संख्या में यात्रीगण नासिक आते हैं।

पौराणिक कथा

गौतम मुनि बहुत वर्षों तक वहाँ तपस्या में लगे रहे। तदनन्तर अम्बिकापति भगवान शिव ने उनकी तपस्या से संतुष्ट हो उन्हें अपने पार्षदगणों के साथ दर्शन दिया और कहा- 'वर माँगो।' तब मुनिवर गौतम ने भगवान त्र्यंम्बक को साष्टांग प्रणाम किया और बोले-'सबका कल्याण करने वाले भगवन! आपके चरणों में मेरी सदा भक्ति बनी रहे और मेरे आश्रम के समीप इसी पर्वत के ऊपर आपको मैं सदा विराजमान देखूँ, यही मेरे लिये अभीष्ट वर है।' मुनि के ऐसा कहने पर भक्तों को मनोवाञ्छित वर देने वाले पार्वतीवल्लभ भगवान शिव ने उन्हें अपना सामीप्य प्रदान किया। भगवान त्र्यम्बक उसी रूप से वहीं निवास करने लगे। तभी से वह पर्वत त्र्यंम्बक कहलाने लगा। सुभगे! जो मानव भक्तिभाव से गोदावरी-गंगा में जाकर स्नान करते हैं, वे भवसागर से मुक्त हो जाते हैं। जो लोग गोदावरी के जल में स्नान करके उस पर्वत पर विराजमान भगवान त्र्यम्बक का विविध उपचारों से पूजन करते हैं, वे साक्षात महेश्वर हैं। मोहिनी! भगवान त्र्यम्बक का यह माहात्म्य मैंने संक्षेप से बताया है। तदनन्तर जहाँ तक गोदावरी का साक्षात दर्शन होता है, वहाँ तक बहुत-से पुण्यमय आश्रम हैं। उन सब में स्नान करके देवताओं तथा पितरों का विधिपूर्वक तर्पण करने से मनुष्य मनोवांछित कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। भद्रे! गोदावरी कहीं प्रकट हैं और कहीं गुप्त हैं; फिर आगे जाकर पुण्यमयी गोदावरी नदी ने इस पृथ्वी को आप्लावित किया है। मनुष्यों की भक्ति से जहाँ वे महेश्वरी देवी प्रकट हुई हैं, वहाँ महान पुण्यतीर्थ है जो स्नान मात्र से पापों को हर लेने वाला है। तदनन्तर गोदावरी देवी पंचवटी में जाकर भली-भाँति प्रकाश में आयी हैं। वहाँ वे सम्पूर्ण लोकों को उत्तम गति प्रदान करती हैं। विधिनन्दिनी! जो मनुष्य नियम एवं व्रत का पालन करते हुए पंचवटी की गोदावरी में स्नान करता है, वह अभीष्ट कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। जब त्रेता युग में भगवान श्री राम अपनी धर्मपत्नी सीता और छोटे भाई लक्ष्मण के साथ आकर रहने लगे, तब से उन्होंने पंचवटी को और भी पुण्यमयी बना दिया। शुभे! इस प्रकार यह सब गौतमाश्रम का माहात्म्य कहा गया है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. विन्ध्यस्य दक्षिणे गंगा गौतमी सा निगद्यते। उत्तरे सापि विन्ध्यस्य भागीरथ्यभिधीयते॥ ब्रह्म पुराण (78।77) एवं तीर्थसार (पृ0 45)।
  2. तिस्र: कोट्योऽर्धकोटी च योजनानां शतद्वयें। तीर्थानि मुनिशार्दूल सम्भविष्यन्ति गौतम॥ ब्रह्म पुराण (77।8-9)। धर्मबीजं मुक्तिबीजं दण्डकारण्यमुच्यते। विशेषाद् गौतमीश्लिष्टो देश: पुण्यतमोऽभवत्॥ ब्रह्म पुराण (161।73)।
  3. सह्यस्यानन्तरे चैते तत्र गोदावरी नदी। पृथिव्यामपि कृत्स्नायां स प्रदेशो मनोरम:। यत्र गोवर्धनो नाम मन्दरो गन्धमादन:॥ मत्स्य पुराण (114.37-38=वायु0 45.112-113=मार्कण्डेय0 54.34-35=ब्रह्माण्ड0 2।16।43)। और देखिए ब्रह्म पुराण (27.43-44)।
  4. देखिए बम्बई गजेटियर, जिल्द 6, पृ0 517-518, 529-531 एवं 522-526

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