"मथुरा" के अवतरणों में अंतर
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०७:०७, २३ सितम्बर २००९ का अवतरण
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मथुरा का परिचय (पौराणिक)मथुरा, भगवान कृष्ण की जन्मस्थली और भारत की परम प्राचीन तथा जगद्-विख्यात नगरी है । शूरसेन देश की यहाँ राजधानी थी । पौराणिक साहित्य में मथुरा को अनेक नामों से संबोधित किया गया है जैसे- शूरसेन नगरी, मधुपुरी, मधुनगरी, मधुरा आदि । भारतवर्ष का वह भाग जो हिमालय और विंध्याचल के बीच में पड़ता है, प्राचीनकाल में आर्यावर्त कहलाता था । यहां पर पनपी हुई भारतीय संस्कृति को जिन धाराओं ने सींचा वे गंगा और यमुना की धाराएं थीं । इन्हीं दोनों नदियों के किनारे भारतीय संस्कृति के कई केन्द्र बने और विकसित हुए । वाराणसी, प्रयाग, कौशाम्बी, हस्तिनापुर,कन्नौज आदि कितने ही ऐसे स्थान हैं, परन्तु यह तालिका तब तक पूर्ण नहीं हो सकती जब तक इसमें मथुरा का समावेश न किया जाय । यह आगरा और दिल्ली से क्रमश: 58 कि.मी उत्तर-पश्चिम एवं 145 कि मी दक्षिण-पश्चिम में यमुना के किनारे राष्ट्रीय राजमार्ग 2 पर स्थित है । वाल्मीकि रामायण में मथुरा को मधुपुर या मधुदानव का नगर कहा गया है तथा यहाँ लवणासुर की राजधानी बताई गई है-[१]इस नगरी को इस प्रसंग में मधुदैत्य द्वारा बसाई, बताया गया है । लवणासुर, जिसको शत्रुध्न ने युद्ध में हराकर मारा था इसी मधुदानव का पुत्र था ।[२] इससे मधुपुरी या मथुरा का रामायण-काल में बसाया जाना सूचित होता है । रामायण में इस नगरी की समृद्धि का वर्णन है । [३] इस नगरी को लवणासुर ने भी सजाया संवारा था ।[४]( दानव, दैत्य, राक्षस आदि जैसे संबोधन विभिन्न काल में अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं, कभी जाति या क़बीले के लिए, कभी आर्य अनार्य संदर्भ में तो कभी दुष्ट प्रकृति के व्यक्तियों के लिए । ) । प्राचीनकाल से अब तक इस नगर का अस्तित्व अखण्डित रूप से चला आ रहा है । शूरसेन जनपदशूरसेन जनपद के नामकरण के संबंध में विद्वानों के अनेक मत हैं किन्तु कोई भी सर्वमान्य नहीं है । शत्रुघ्न के पुत्र का नाम शूरसेन था । जब सीताहरण के बाद सुग्रीव ने वानरों को सीता की खोज में उत्तर दिशा में भेजा तो शतबलि और वानरों से कहा- 'उत्तर में म्लेच्छ' पुलिन्द, शूरसेन, प्रस्थल , भरत ( इन्द्रप्रस्थ और हस्तिनापुर के आसपास के प्रान्त ), कुरु (कुरुदेश) ( दक्षिण कुरु- कुरुक्षेत्र के आसपास की भूमि ), मद्र, काम्बोज, यवन, शकों के देशों एवं नगरों में भली भाँति अनुसन्धान करके दरद देश में और हिमालय पर्वत पर ढूँढ़ो । [५] इससे स्पष्ट है कि शत्रुघ्न के पुत्र से पहले ही 'शूरसेन' जनपद नाम अस्तित्व में था । हैहयवंशी कार्तवीर्य अर्जुन के सौ पुत्रों में से एक का नाम शूरसेन था और उस के नाम पर यह शूरसेन राज्य का नामकरण होने की संम्भावना भी है, किन्तु हैहयवंशी कार्तवीर्य अर्जुन का मथुरा से कोई सीधा संबंध होना स्पष्ट नहीं है । महाभारत के समय में मथुरा शूरसेन देश की प्रख्यात नगरी थी । लवणासुर के वधोपरांत शत्रुध्न ने इस नगरी को पुन: बसाया था । उन्होंने मधुवन के जंगलों को कटवा कर उसके स्थान पर नई नगरी बसाई थी । यहीं कृष्ण का जन्म(श्री कृष्ण जन्मस्थान), यहां के अधिपति कंस के कारागार में हुआ तथा उन्होंने बचपन ही में अत्याचारी कंस का वध करके देश को उसके अभिशाप से छुटकारा दिलवाया । कंस की मृत्यु के बाद श्री कृष्ण मथुरा ही में बस गए किंतु जरासंध के आक्रमणों से बचने के लिए उन्होंने मथुरा छोड़ कर द्वारकापुरी बसाई [६] दशम सर्ग, 58 में मथुरा पर कालयवन के आक्रमण का वृतांत है । इसने तीन करोड़ म्लेच्छों को लेकर मथुरा को घेर लिया था ।[७] प्राचीन साहित्य में मथुराहरिवंश पुराण 1,54 में भी मथुरा के विलास-वैभव का मनोहर चित्र है ।[८]विष्णु पुराण में भी मथुरा का उल्लेख है, [९] विष्णु-पुराण 4,5,101 में शत्रुध्न द्वारा पुरानी मथुरा के स्थान पर ही नई नगरी के बसाए जाने का उल्लेख है । [१०] इस समय तक मधुरा नाम का रूपांतर मथुरा प्रचलित हो गया था । कालिदास ने रघुवंश 6,48 में इंदुमती के स्वंयवर के प्रसंग में शूरसेना धिप सुषेण की राजधानी मथुरा में वर्णित की है ।[११] इसके साथ ही गोवर्धन का भी उल्लेख है । मल्लिनाथ ने 'मथुरा` की टीका करते हुए लिखा है` -'कालिंदीतीरे मथुरा लवणासुरवधकाले शत्रुध्नेन निर्मास्यतेति वक्ष्यति` ।प्राचीन ग्रंथों-हिंदू, बौद्ध, जैन एवं यूनानी साहित्य में इस जनपद का शूरसेन नाम अनेक स्थानों पर मिलता है । प्राचीन ग्रंथों में मथुरा का मेथोरा[१२] , मदुरा [१३] , मत-औ-लौ [१४] , मो-तु-लो [१५] तथा सौरीपुर [१६] (सौर्यपुर) नामों का भी उल्लेख मिलता है । इन उदाहरणों से ऐसा प्रतीत होता है कि शूरसेन जनपद की संज्ञा ईसवी सन् के आरम्भ तक जारी रही [१७] और शक-कुषाणों के प्रभुत्व के साथ ही इस जनपद की संज्ञा राजधानी के नाम पर `मथुरा' हो गई । इस परिवर्तन का मुख्य कारण था कि यह नगर शक-कुषाणकालीन समय में इतनी प्रसिद्धि को प्राप्त हो चुका था कि लोग जनपद के नाम को भी मथुरा नाम से पुकारने लगे और कालांतर में जनपद का शूरसेन नाम जनसाधारण के स्मृतिपटल से विस्मृत हो गया । शूरसेन जनपद की सीमाप्राचीन शूरसेन जनपद का विस्तार दक्षिण में चंबल नदी से लेकर उत्तर में वर्तमान मथुरा नगर से 75 कि. मी. उत्तर में स्थित कुरु(कुरुदेश) राज्य की सीमा तक था । उसकी सीमा पश्चिम में मत्स्य और पूर्व में पांचाल जनपद से मिलती थी । मथुरा नगर को महाकाव्यों एवं पुराणों में 'मथुरा' एवं `मधुपुरी' नामों से संबोधित किया गया है । [१८] विद्वानों ने `मधुपुरी' की पहचान मथुरा के 6 मील पश्चिम में स्थित वर्तमान 'महोली' से की है । [१९] प्राचीन काल में यमुना नदी मथुरा के पास से गुजरती थी, आज भी इसकी स्थिति यही है । प्लिनी [२०] ने यमुना को जोमेनस कहा है जो मेथोरा और क्लीसोबोरा [२१] के मध्य बहती थी । पुराणों में मथुरापुराणों में मथुरा के गौरवमय इतिहास का विषद विवरण मिलता है । अनेक धर्मों से संबंधित होने के कारण मथुरा में बसने और रहने का महत्त्व क्रमश: बढ़ता रहा । ऐसी मान्यता थी कि यहाँ रहने से पाप रहित हो जाते हैं तथा इसमें रहने करने वालों को मोक्ष की प्राप्ति होती है । [२२] वराह पुराण में कहा गया है कि इस नगरी में जो लोग शुध्द विचार से निवास करते हैं, वे मानव के रूप में साक्षात् देवता हैं । [२३] श्राद्ध कर्म का विशेष फल मथुरा में प्राप्त होता है । मथुरा में श्राद्ध करने वालों के पूर्वजों को आध्यात्मिक मुक्ति मिलती है । [२४] उत्तनिपाद के पुत्र ध्रुव ने मथुरा में तपस्या कर के नक्षत्रों में स्थान प्राप्त किया था । [२५] पुराणों में मथुरा की महिमा का वर्णन है । पृथ्वी के यह पूछने पर कि मथुरा जैसे तीर्थ की महिमा क्या है ? महावराह ने कहा था- "मुझे इस वसुंधरा में पाताल अथवा अंतरिक्ष से भी मथुरा अधिक प्रिय है ।[२६] वराह पुराण में भी मथुरा के संदर्भ में उल्लेख मिलता है, यहाँ की भौगोलिक स्थिति का वर्णन मिलता है । [२७] यहाँ मथुरा की माप बीस योजन बतायी गयी है । [२८] इस मंडल में मथुरा, गोकुल, वृंदावन, गोवर्धन आदि नगर, ग्राम एवं मंदिर, तड़ाग, कुंड, वन एवं अनगणित तीर्थों के होने का विवरण मिलता है । इनका विस्तृत वर्णन पुराणों में मिलता है । गंगा के समान ही यमुना के गौरवमय महत्त्व का भी विशद विवरण किया गया है । पुराणों में वर्णित राजाओं के शासन एवं उनके वंशों का भी वर्णन प्राप्त होता है । ब्रह्मपुराण में वृष्णियों एवं अंधकों के स्थान मथुरा पर, राक्षसों के आक्रमण का भी विवरण मिलता है [२९] वृष्णियों एवं अंधकों ने डर कर मथुरा को छोड़ दिया था और उन्होंने अपनी राजधानी द्वारावती (द्वारिका) में प्रतिष्ठित की थी ।[३०] मगध नरेश जरासंध ने 23 अक्षौहिणी सेना से इस नगरी को घेर लिया था ।[३१] अपने महाप्रस्थान के समय युधिष्ठर ने मथुरा के सिंहासन पर वज्रनाभ को आसीन किया । [३२] सात नाग-नरेश गुप्तवंश के उत्कर्ष के पूर्व यहाँ पर राज्य कर रहे थे ।[३३] उग्रसेन और कंस मथुरा के शासक थे जिस पर अंधकों के उत्तराधिकारी राज्य करते थे । [३४] कालान्तर में शत्रुध्न के पुत्रों को मथुरा से सात्वत भीम ने निकाला तथा उसने तथा उसके पुत्रों ने यहाँ पर राज्य किया । [३५] शूरसेन ने जो शत्रुध्न का पुत्र था, उसने यमुना के पश्चिम में बसे हुए सात्वत यादवों पर आक्रमण किया और वहाँ के शासक माधव लवण का वध करके मथुरा नगरी को अपनी राजधानी घोषित किया ।[३६] मथुरा की स्थापना श्रावण महीने में होने के कारण ही संभवत: इस माह में उत्सव आदि करने की परंपरा है । पुरातन काल में ही यह नगरी इतनी वैभवशाली थी कि मथुरा नगरी को देवनिर्मिता कहा जाने लगा था [३७] मथुरा के महाभारत काल के राजवंश को यदु अथवा यदुवंशीय कहा जाता है । यादव वंश में मुख्यत: दो वंश हैं । जिन्हें-वीतिहोत्र एवं सात्वत के नाम से जाना जाता है । सात्वत वर्ग भी कई शाखाओं में बँटा हुआ था । जिनमें वृष्णि, अंधक, देवावृद्ध तथा महाभोज प्रमुख थे । [३८] यदु और यदुवंश का प्रमाण ऋग्वेद में भी मिलता है । इस वंश का संबंध तुर्वश, द्रुह, अनु एवं पुरु से था [३९] से ज्ञात होता है कि यदु तुर्वश किसी दूरस्थ प्रदेश से यहाँ आए थे । वैदिक साहित्य में सात्वतों का भी नाम आता है । [४०] शतपथ ब्राह्मण में आता है कि एक बार भरतवंशी शासकों ने सात्वतों से उनके यज्ञ का घोड़ा छीन लिया था । भरतवंशी शासकों द्वारा सरस्वती, यमुना और गंगा के तट पर यज्ञ किए जाने के वर्णन से राज्य की भौगोलिक स्थिति का ज्ञान हो जाता है । [४१] सात्वतों का राज्य भी समीपवर्ती क्षेत्रों में ही रहा होगा । इस प्रकार महाभारत एवं पुराणों में वर्णित सात्वतों का मथुरा से संबंध स्पष्टतया ज्ञात हो जाता है । टीका-टिप्पणी
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