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भागा हुआ हुमायूँ लगभग 14 वर्ष तक काबुल में रहा । सिकंदर सूर की व्यवस्था बिगड़ने का समाचार सुन उसका लाभ उठाने के लिए उसने सन् 1554 में भारत पर आक्रमण किया और लाहौर तक अधिकार कर लिया । उसके बाद तत्कालीन बादशाह सिंकदर सूर पर आक्रमण किया और उसे हराया । 23 जुलाई, सन् 1554 में दोबारा भारत का बादशाह बना लेकिन 7 माह राज्य करने के बाद  24 जनवरी, सन् 1555 में पुस्तकालय  की सीढ़ी से गिरकर उसकी मृत्यु हो गई । उसका मकबरा दिल्ली में बना हुआ है । हुमायूँ की मृत्यु के समय उसका पुत्र अकबर 13−14 वर्ष का बालक था । हुमायूँ के बाद उसका पुत्र अकबर उत्तराधिकारी घोषित किया गया और उसका संरक्षक बैरमखां को बनाया गया, तब [[हेमचंद्र]] सेना लेकर दिल्ली आया और उसने मु्ग़लों को वहाँ से भगा दिया । हेमचंद्र की पराजय 6 नवंबर सन् 1556 में पानीपत के मैदान में हुई थी । उसी दिन स्वतंत्र हिन्दू राज्य का सपना टूट बालक अकबर के नेतृत्व में मुग़लों का शासन जम गया ।  
 
भागा हुआ हुमायूँ लगभग 14 वर्ष तक काबुल में रहा । सिकंदर सूर की व्यवस्था बिगड़ने का समाचार सुन उसका लाभ उठाने के लिए उसने सन् 1554 में भारत पर आक्रमण किया और लाहौर तक अधिकार कर लिया । उसके बाद तत्कालीन बादशाह सिंकदर सूर पर आक्रमण किया और उसे हराया । 23 जुलाई, सन् 1554 में दोबारा भारत का बादशाह बना लेकिन 7 माह राज्य करने के बाद  24 जनवरी, सन् 1555 में पुस्तकालय  की सीढ़ी से गिरकर उसकी मृत्यु हो गई । उसका मकबरा दिल्ली में बना हुआ है । हुमायूँ की मृत्यु के समय उसका पुत्र अकबर 13−14 वर्ष का बालक था । हुमायूँ के बाद उसका पुत्र अकबर उत्तराधिकारी घोषित किया गया और उसका संरक्षक बैरमखां को बनाया गया, तब [[हेमचंद्र]] सेना लेकर दिल्ली आया और उसने मु्ग़लों को वहाँ से भगा दिया । हेमचंद्र की पराजय 6 नवंबर सन् 1556 में पानीपत के मैदान में हुई थी । उसी दिन स्वतंत्र हिन्दू राज्य का सपना टूट बालक अकबर के नेतृत्व में मुग़लों का शासन जम गया ।  
 
==अकबर (शासन काल सन् 1556 से 1605 )==
 
==अकबर (शासन काल सन् 1556 से 1605 )==
जब हुमायूँ शेरशाह से हारकर भागने की तैयारी में था उस समय अकबर का जन्म सिंध के रेगिस्तान में अमरकोट के पास  23 नवंबर सन् 1542 में हुआ था, । हुमायूँ की दयनीय दशा के कारण अकबर की बाल्यावस्था संकट में बीती और कई बार उसकी जान पर भी जोखिम रहा । सं. 1612 में हुमायूँ ने भारत पर आक्रमण कर अपना खोया हुआ राज्य पुन: प्राप्त कर लिया ; किंतु वह केवल 7 माह तक ही जीवित रहा था । उसकी मृत्यु सं.1612 के अंत में दिल्ली में हो गयी थी । उस समय अकबर पंजाब में था । हुमायूँ की मृत्यु के 21 दिन बाद (14 फरवरी, सन् 1556 ) पंजाब के जिला गुरदासपुर के कलानूर में बड़ी सादगी के साथ उसको गद्दी पर बैठा दिया था । इस समय तक हुमायूँ की मृत्यु का समाचार गुप्त रखा गया और अकबर के गद्दी पर बैठने पर ही हुमायूँ को दिल्ली में दफनाया गया था । उसका मकबरा उसकी दूसरी पत्नी रानी बेगम ने अपने निजी धन से बनवाना शुरू किया था, जो 13-14 बर्ष के बाद (अप्रैल सन् 1570 में) बन कर तैयार हुआ था । यह मकबरा अकबर कालीन मुग़ल स्थापत्य शैली का एक दर्शनीय नमूना है
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जब हुमायूँ शेरशाह से हारकर भागने की तैयारी में था उस समय अकबर का जन्म सिंध के रेगिस्तान में अमरकोट के पास  23 नवंबर सन् 1542 में हुआ था, । हुमायूँ की दयनीय दशा के कारण अकबर की बाल्यावस्था संकट में बीती और कई बार उसकी जान पर भी जोखिम रहा । सं. 1612 में हुमायूँ ने भारत पर आक्रमण कर अपना खोया हुआ राज्य पुन: प्राप्त कर लिया ; किंतु वह केवल 7 माह तक ही जीवित रहा था । उसकी मृत्यु सं.1612 के अंत में दिल्ली में हो गयी थी । उस समय अकबर पंजाब में था । हुमायूँ की मृत्यु के 21 दिन बाद (14 फरवरी, सन् 1556 ) पंजाब के जिला गुरदासपुर के कलानूर में बड़ी सादगी के साथ उसको गद्दी पर बैठा दिया था ।
 
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हुमायूँ ने भारत से निष्कासित होने के बाद काबुल पर अधिकार किया, और 10 वर्ष के बालक अकबर को सं. 1609 (जनवरी सन् 1552) में गज़नी का राज्य-पाल बनाया था । जब हुमायूँ पुन: भारत में आया, तब 13 वर्ष का अकबर पंजाब का राज्यपाल था । जिस समय कलानूर में उसे हुमायूँ का उत्तराधिकारी घोषित किया गया, उस समय उसकी आयु केवल 13−14 वर्ष की थीं । छोटी उम्र में ही वह वयस्क व्यक्तियों से अधिक उतार−चढ़ाव के अनुभव प्राप्त कर चुका था । आरंभ में बैरमखाँ उसका संरक्षक था, जो उसकी तरफ से राज्य का संचालन करता था ।
 
हुमायूँ ने भारत से निष्कासित होने के बाद काबुल पर अधिकार किया, और 10 वर्ष के बालक अकबर को सं. 1609 (जनवरी सन् 1552) में गज़नी का राज्य-पाल बनाया था । जब हुमायूँ पुन: भारत में आया, तब 13 वर्ष का अकबर पंजाब का राज्यपाल था । जिस समय कलानूर में उसे हुमायूँ का उत्तराधिकारी घोषित किया गया, उस समय उसकी आयु केवल 13−14 वर्ष की थीं । छोटी उम्र में ही वह वयस्क व्यक्तियों से अधिक उतार−चढ़ाव के अनुभव प्राप्त कर चुका था । आरंभ में बैरमखाँ उसका संरक्षक था, जो उसकी तरफ से राज्य का संचालन करता था ।
अकबर से शासन काल के आरंभिक 5 वर्ष में उसके संरक्षक बैरमखाँ का प्रभुत्व था । अकबर को बैरमखाँ की कठोर नीति कतई पंसद नहीं थी । इधर उसने अपनी  योग्यता, वीरता और प्रबंध−कुशलता का भी  परिचय दिया । वह बैरमखाँ के हाथ की कठपुतली बनना नहीं चाहता था । उसने सन् 1560 में बैरमखाँ को हज भेजा और  स्वतंत्रपूर्वक राज्य की व्यवस्था करने लगा । हज के मार्ग में बैरमखाँ की मृत्यु हो गई थी । उस समय उसका एक मात्र पुत्र रहीम केवल 4 वर्ष का बालक था । अकबर ने रहीम को अपने संरक्षण में रखा ।
 
  
 
'''आगरा में राजधानी की व्यवस्था'''
 
'''आगरा में राजधानी की व्यवस्था'''
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'''अकबर की मृत्यु'''
 
'''अकबर की मृत्यु'''
  
सम्राट् अकबर अपनी योग्यता, वीरता, बुद्धिमत्ता और शासन−कुशलता के कारण ही एक बड़े साम्राज्य का निर्माण कर सका था । उसका यश, वैभव और प्रताप अनुपम था । इसलिए उसनी गणना भारतवर्ष के महान् सम्राटों  में की जाती है । उनका अंतिम काल बड़े क्लेश और दु:ख में बीता था । अकबर ने 50 वर्ष तक शासन किया था । उस दीर्घ काल में मानसिंह और रहीम के अतिरिक्त उसके सभी विश्वसनीय सरदार−सामंतों का देहांत हो गया था । अबुलफज़ल, बीरबल, टोडरमल, पृथ्वीराज जैसे प्रिय दरबारी परलोक जा चुके थे । उसके दोनों छोटे पुत्र मुराद और दानियाल का देहांत हो चुका था । पुत्र सलीम शेष था; किंतु वह अपने पिता के विरूद्ध सदैव षड्यंत्र और विद्रोह करता रहा था । जब तक अकबर जीवित रहा, तब तक सलीम अपने दुष्कृत्यों से उसे दु:खी करता रहा; किंतु वह सदैव अपराधों को क्षमा करते रहे थे । जब अकबर सलीम के विद्रोह से तंग आ गया, तब अपने उत्तर काल में उसने उस बड़े बेटे शाहजादा खुसरो को अपना उत्तराधिकारी बनाने का विचार किया था । किंतु अकबर ने खुसरो को अपना उत्तराधिकारी नहीं बनाया लेकिन उस महत्वाकांक्षी युवक के मन में राज्य की जो लालसा जागी, वह उसकी अकाल मृत्यु का कारण बनी । जब अकबर अपनी मृत्यु−शैया पर था, उस समय उसने सलीम के सभी अपराधों को क्षमा कर दिया और अपना ताज एवं खंजर देकर उसे ही अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था । उस समय अकबर की आयु 63 वर्ष और सलीम की 38 वर्ष थी । अकबर का देहावसान अक्टूबर, सन् 1605 में हुआ था । उसे आगरा के पास सिकंदरा में दफनाया गया, जहाँ उसका कलापूर्ण मकबरा बना हुआ है । अकबर के बाद सलीम [[जहाँगीर]] के नाम से मुग़ल सम्राट बना ।
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सम्राट् अकबर अपनी योग्यता, वीरता, बुद्धिमत्ता और शासन−कुशलता के कारण ही एक बड़े साम्राज्य का निर्माण कर सका था । उसका यश, वैभव और प्रताप अनुपम था । इसलिए उसनी गणना भारतवर्ष के महान् सम्राटों  में की जाती है । उनका अंतिम काल बड़े क्लेश और दु:ख में बीता था । अकबर ने 50 वर्ष तक शासन किया था । उस दीर्घ काल में मानसिंह और रहीम के अतिरिक्त उसके सभी विश्वसनीय सरदार−सामंतों का देहांत हो गया था । अबुलफज़ल, बीरबल, टोडरमल, पृथ्वीराज जैसे प्रिय दरबारी परलोक जा चुके थे । उसके दोनों छोटे पुत्र मुराद और दानियाल का देहांत हो चुका था । पुत्र सलीम शेष था; किंतु वह अपने पिता के विरूद्ध सदैव षड्यंत्र और विद्रोह करता रहा था । जब तक अकबर जीवित रहा, तब तक सलीम अपने दुष्कृत्यों से उसे दु:खी करता रहा; किंतु वह सदैव अपराधों को क्षमा करते रहे थे । जब अकबर सलीम के विद्रोह से तंग आ गया, तब अपने उत्तर काल में उसने उस बड़े बेटे शाहजादा खुसरो को अपना उत्तराधिकारी बनाने का विचार किया था । जब अकबर अपनी मृत्यु−शैया पर था, उस समय उसने सलीम के सभी अपराधों को क्षमा कर दिया और अपना ताज एवं खंजर देकर उसे ही अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था । उस समय अकबर की आयु 63 वर्ष और सलीम की 38 वर्ष थी । अकबर का देहावसान अक्टूबर, सन् 1605 में हुआ था । उसे आगरा के पास सिकंदरा में दफनाया गया, जहाँ उसका कलापूर्ण मकबरा बना हुआ है । अकबर के बाद सलीम [[जहाँगीर]] के नाम से मुग़ल सम्राट बना ।
  
 
'''मुग़लकालीन सिक्के'''
 
'''मुग़लकालीन सिक्के'''
  
राज्य प्रशासन की आर्थिक नीति के लिए राजकीय मुद्रा के रूप में सिक्कों का प्रचलन सदा से रहा है । हमारे देश में सिक्के विक्रमपूर्व छठी शती से ही प्रचलित रहे हैं । ये सिक्के स्वर्ण, रजत एवं ताम्रधातुओं के बनाये जाते रहे हैं । उसी परंपरा में मुग़ल सम्राटों के भी सिक्के हैं । मुग़ल काल में प्रशासन की ओर सर्वप्रथम शेरशाह ने ध्यान दिया था । फलत: उसने राजकीय मुद्रा के रूप में सिक्के भी बहुत बड़ी संख्या में जारी किये थे, जो परंपरा के अनुसार सोने, चाँदी एवं ताबें के थे । उस समय में जीवनोपयोगी वस्तुएँ सस्ती थीं, अत: सोने के सिक्कों का प्रयोग जनता में बहुत कम होता था । अधिकतर सिक्के चाँदी एवं ताँबे के थे । एक रूपया का सिक्का चाँदी का था, जो उस काल में बहुमूल्य मुद्रा के रूप में प्रयुक्त होता था । उस पर फारसी एवं नागरी लिपि में शाह का नाम और रूपया शब्द का उल्लेख किया जाता था । मुग़ल सम्राट अकबर की प्रशानसिक उपलब्धियों में सुदृढ़ आर्थिक स्थिति भी थी, जिसका आधार सिक्का प्रणाली थी । अकबरकालीन सिक्कों में रूपया का महत्वपूर्ण स्थान था । सम्राट अकबर के बाद उसके उत्तराधिकारी सभी सम्राटों ने सिक्के जारी किये थे ; जिनके नमूने भारत के विभिन्न राजकीय संग्रहालयों में देखे जा सकते है ।  
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राज्य प्रशासन की आर्थिक नीति के लिए राजकीय मुद्रा के रूप में सिक्कों का प्रचलन सदा से रहा है । हमारे देश में सिक्के विक्रमपूर्व छठी शती से ही प्रचलित रहे हैं । ये सिक्के स्वर्ण, रजत एवं ताम्रधातुओं के बनाये जाते रहे हैं । उसी परंपरा में मुग़ल सम्राटों के भी सिक्के हैं । मुग़ल काल में प्रशासन की ओर सर्वप्रथम शेरशाह ने ध्यान दिया था । फलत: उसने राजकीय मुद्रा के रूप में सिक्के भी बहुत बड़ी संख्या में जारी किये थे, जो परंपरा के अनुसार सोने, चाँदी एवं ताबें के थे । उस समय में जीवनोपयोगी वस्तुएँ सस्ती थीं, अत: सोने के सिक्कों का प्रयोग जनता में बहुत कम होता था । अधिकतर सिक्के चाँदी एवं ताँबे के थे । एक रूपया का सिक्का चाँदी का था, जो उस काल में बहुमूल्य मुद्रा के रूप में प्रयुक्त होता था । उस पर फारसी एवं नागरी लिपि में शाह का नाम और रूपया शब्द का उल्लेख किया जाता था । मुग़ल सम्राट अकबर की प्रशानसिक उपलब्धियों में सुदृढ़ आर्थिक स्थिति भी थी, जिसका आधार सिक्का प्रणाली थी । अकबरकालीन सिक्कों में रूपया का महत्वपूर्ण स्थान था । सम्राट अकबर के बाद उसके उत्तराधिकारी सभी सम्राटों ने सिक्के जारी किये थे ; जिनके नमूने भारत के विभिन्न राजकीय संग्रहालयों में रखे है ।  
 
==जहाँगीर (शासन काल सन् 1605 से सन्1627)==
 
==जहाँगीर (शासन काल सन् 1605 से सन्1627)==
 
उसका जन्म सन् 1569 के 30 अगस्त को सीकरी में हुआ था । अपने आरंभिक जीवन में वह शराबी और आवारा शाहजादे के रूप में बदनाम था । उसके पिता सम्राट अकबर ने उसकी बुरी आदतें छुड़ाने की बड़ी चेष्टा की ; किंतु उसे सफलता नहीं मिली । इसीलिए समस्त सुखों के होते हुए भी वह अपने बिगड़े हुए बेटे के कारण जीवनपर्यंत दुखी रहा । अंतत: अकबर की मृत्यु के पश्चात [[जहाँगीर]] ही मुग़ल सम्राट बना । उस समय उसकी आयु 36 वर्ष की थी । ऐसे बदनाम व्यक्ति के गद्दीनशीं होने से जनता में असंतोष एवं घबराहट थी । लोगों की आंशका होने लगी कि अब सुख−शांति के दिन विदा हो गये, और अशांति−अव्यवस्था एवं लूट−खसोट का जमाना फिर आ गया ।  
 
उसका जन्म सन् 1569 के 30 अगस्त को सीकरी में हुआ था । अपने आरंभिक जीवन में वह शराबी और आवारा शाहजादे के रूप में बदनाम था । उसके पिता सम्राट अकबर ने उसकी बुरी आदतें छुड़ाने की बड़ी चेष्टा की ; किंतु उसे सफलता नहीं मिली । इसीलिए समस्त सुखों के होते हुए भी वह अपने बिगड़े हुए बेटे के कारण जीवनपर्यंत दुखी रहा । अंतत: अकबर की मृत्यु के पश्चात [[जहाँगीर]] ही मुग़ल सम्राट बना । उस समय उसकी आयु 36 वर्ष की थी । ऐसे बदनाम व्यक्ति के गद्दीनशीं होने से जनता में असंतोष एवं घबराहट थी । लोगों की आंशका होने लगी कि अब सुख−शांति के दिन विदा हो गये, और अशांति−अव्यवस्था एवं लूट−खसोट का जमाना फिर आ गया ।  
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==मुहम्मदशाह==
 
==मुहम्मदशाह==
 
अंतिम मुग़ल सम्राटों में मुहम्मदशाह (शासन काल सन् 1719−1748 ) का नाम उल्लेखनीय है । वह आरामतलब, विलासी एवं शक्तिहीन होने के कारण शासन कार्य के अयोग्य था, किंतु राग−रंग और गायन−वादन का बड़ा प्रेमी था । उसने शासन के अधिकार अपने मंत्रियों को सौंप दिये थे और वह स्वयं दिन−रात गायन में लगा रहता था । उसके शासन में प्रबंध की शिथिलता के कारण उपद्रव होने लगे थे,राज्य में अव्यवस्था और अशांति की स्थिति हो गई थी ।
 
अंतिम मुग़ल सम्राटों में मुहम्मदशाह (शासन काल सन् 1719−1748 ) का नाम उल्लेखनीय है । वह आरामतलब, विलासी एवं शक्तिहीन होने के कारण शासन कार्य के अयोग्य था, किंतु राग−रंग और गायन−वादन का बड़ा प्रेमी था । उसने शासन के अधिकार अपने मंत्रियों को सौंप दिये थे और वह स्वयं दिन−रात गायन में लगा रहता था । उसके शासन में प्रबंध की शिथिलता के कारण उपद्रव होने लगे थे,राज्य में अव्यवस्था और अशांति की स्थिति हो गई थी ।
 
'''सवाई राजा जयसिंह'''
 
 
मुहम्मदशाह के शासन काल में आमेर का सवाई राजा जयसिंह बड़ा प्रभावशाली हिन्दू नरेश था । मुग़ल सम्राट मुहम्मदशाह ने अपने साम्राज्य की शासन−व्यवस्था सुदृढ़ एवं राज−प्रबंध को ठीक करने के लिए जयसिंह का सहयोग प्राप्त किया और उसे आगरा का सूबेदार बना दिया । मुहम्मदशाह ने जयसिंह को 'सवाई महाराज' की पदवी दी थी । जयसिंह नाम का उसका पूर्वज मिर्जा राजा कहलाता था । यह जयसिंह सवाई राजा के नाम से प्रसिद्ध हुआ । वह सन् 1720 से 1726 तक आगरा का सूबेदार रहा । वह मुग़ल दरबार का सबसे शक्तिशाली सामंत था । मथुरा−वृन्दावन सहित सारा ब्रजमंडल उसके प्रशासन में था । उसने हिन्दुओं  की स्थिति को सुधारने और ब्रज के महत्व को बढ़ाने का प्रयत्न किया था । अपने प्रभावों से उसने मुहम्मदशाह से कई राजकीय सुविधाएँ प्राप्त की थीं । उसने अपनी पुत्री का विवाह सन् 1723 की श्रीकृष्ण−जन्माअष्टमी पर मथुरा में ही बड़ी धूमधाम से की थी । सवाई जयसिंह ने जहाँ मुग़ल साम्राज्य की राजकीय व्यवस्था को ठीक किया था वहाँ हिन्दुओं की शोचनीय स्थिति को सुधारने के लिए मुहम्मदशाह से अनेक सुविधाएँ भी प्राप्त की थीं । सन् 1727 में सवाई जयसिंह अवकाश लेकर अपने राज्य आमेर में चला गया, जहाँ वह सन् 1732 तक रहा । उस समय में उसने जयपुर नगर का निर्माण किया, ज्योतिष की अनेक वेधशालाएँ बनवाईं । सन् 1727 में मुहम्मदशाह ने फिर उसे मालवा का सूबेदार बनाया ; ताकि वह मराठों को उत्तर की ओर बढ़ने से रोक सके । सन् 1732 में मराठों के तत्कालीन पेशवा बाजीरात से संधि हो गई थी और वह मालवा से जयपुर लौट गया । उसने जयपुर नगर को विद्या−कला तथा उद्योग वाणिज्य का प्रसिद्ध केन्द्र बना दिया था । उसका देहावसान सन् 1743 में हुआ था ।
 
 
==नादिरशाह का आक्रमण==
 
==नादिरशाह का आक्रमण==
 
मुहम्मदशाह के शासन काल की दु:खद घटना नादिरशाह का भारत पर आक्रमण था । मुग़ल शासन से अब तक किसी बाहरी शत्रु का  देश पर आक्रमण नहीं हुआ था; किंतु उस समय दिल्ली की शासन−सत्ता दुर्बल हो गई थी । ईरान के महत्वाकांक्षी लुटेरे शासक नादिरशाह ने भारत पर आक्रमण करने का साहस किया था । उसने मुग़ल सम्राट द्वारा शासित काबुल−कंधार प्रदेश पर अधिकार कर पेशावर स्थित मुग़ल सेना को नष्ट कर दिया था । मुहम्मदशाह ने नादिरशाह के आक्रमण को हँसी में उड़ा दिया । उसकी आँखे तब खुली जब नादिरशाह की सेना पंजाब के करनाल तक आ पहुँची । मुहम्मदशाह ने अपनी सेना उसके विरूद्ध भेजी ; किंतु 24 फरवरी, 1739 में उसकी पराजय हो गई । नादिरशाह ने पहिले 2 करोड़ रूपया हर्जाना माँगा, उसके स्वीकार होने पर वह 20 करोड़ माँगने लगा । नादिरशाह ने दिल्ली को लूटने और नर संहार करने की आज्ञा दे दी। उसके बर्बर सैनिक राजधानी में घुसे और लूटमार करने लगे । दिल्ली के हजारों नागरिक मारे गये, वहाँ भारी लूट की गई । इस लूट में नादिरशाह को अपार दौलत मिली । उसे 20 करोड़ की बजाय 30 करोड़ रूपया नकद मिला । इसके अतिरिक्त जवाहरात, बेगमों के बहुमूल्य आभूषण, सोने चाँदी के अगणित बर्तन तथा अन्य कीमती वस्तुएँ उसे मिली थी । इनके साथ ही साथ दिल्ली की लूट में उसे कोहनूर हीरा और शाहजहाँ का 'तख्त-ए- ताऊस' भी मिला था । वह बहुमूल्य मयूर सिंहासन अब भी ईरान में है, या नहीं इसका ज्ञान किसी को नहीं है ।
 
मुहम्मदशाह के शासन काल की दु:खद घटना नादिरशाह का भारत पर आक्रमण था । मुग़ल शासन से अब तक किसी बाहरी शत्रु का  देश पर आक्रमण नहीं हुआ था; किंतु उस समय दिल्ली की शासन−सत्ता दुर्बल हो गई थी । ईरान के महत्वाकांक्षी लुटेरे शासक नादिरशाह ने भारत पर आक्रमण करने का साहस किया था । उसने मुग़ल सम्राट द्वारा शासित काबुल−कंधार प्रदेश पर अधिकार कर पेशावर स्थित मुग़ल सेना को नष्ट कर दिया था । मुहम्मदशाह ने नादिरशाह के आक्रमण को हँसी में उड़ा दिया । उसकी आँखे तब खुली जब नादिरशाह की सेना पंजाब के करनाल तक आ पहुँची । मुहम्मदशाह ने अपनी सेना उसके विरूद्ध भेजी ; किंतु 24 फरवरी, 1739 में उसकी पराजय हो गई । नादिरशाह ने पहिले 2 करोड़ रूपया हर्जाना माँगा, उसके स्वीकार होने पर वह 20 करोड़ माँगने लगा । नादिरशाह ने दिल्ली को लूटने और नर संहार करने की आज्ञा दे दी। उसके बर्बर सैनिक राजधानी में घुसे और लूटमार करने लगे । दिल्ली के हजारों नागरिक मारे गये, वहाँ भारी लूट की गई । इस लूट में नादिरशाह को अपार दौलत मिली । उसे 20 करोड़ की बजाय 30 करोड़ रूपया नकद मिला । इसके अतिरिक्त जवाहरात, बेगमों के बहुमूल्य आभूषण, सोने चाँदी के अगणित बर्तन तथा अन्य कीमती वस्तुएँ उसे मिली थी । इनके साथ ही साथ दिल्ली की लूट में उसे कोहनूर हीरा और शाहजहाँ का 'तख्त-ए- ताऊस' भी मिला था । वह बहुमूल्य मयूर सिंहासन अब भी ईरान में है, या नहीं इसका ज्ञान किसी को नहीं है ।

१०:५६, २५ मई २००९ का अवतरण

इतिहास

मुग़ल काल

मुग़ल राजवंश

बाबर और उसके वंशज 'मुग़ल' कहे जाते हैं ; वे मुग़ल न होकर अपने पूर्ववर्ती सुल्तानों की तरह तुर्क थे । बाबर का पिता तैमूर का वंशज था और उसकी माता मुग़ल जाति के विख्यात चंगेजखाँ के वंश में खान यूनस की पुत्री थी । बाबर की नसों में तुर्कों के साथ मंगोलों का भी रक्त था । बाबर ने काबुल पर अधिकार कर स्वयं को मुग़ल प्रसिद्ध किया था । यही नाम बाद में भारत में भी प्रचलित हो गया ।

बाबर

मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक जहीरूद्दीन बाबर का जन्म मध्य एशिया के फरगाना राज्य में हुआ था । उसका पिता वहाँ का शासक था, जिसकी मृत्यु के बाद बाबर राज्याधिकारी बना । इब्राहीम लोदी और राणा सांगा की हार के बाद बाबर ने भारत में मुग़ल राज्य की स्थापना की और आगरा को अपनी राजधानी बनाया । उससे पहले सुल्तानों की राजधानी दिल्ली थी ; किंतु बाबर ने उसे राजधानी नहीं बनाया क्योंकि वहाँ पठानों थे, जो तुर्कों की शासन−सत्ता पंसद नहीं करते थे । प्रशासन और रक्षा दोनों नज़रियों से बाबर को दिल्ली के मुकाबले आगरा सही लगा । मुग़लराज्य की राजधानी आगरा होने से शुरू से ही ब्रज से घनिष्ट संबंध रहा । मध्य एशिया में शासकों का सबसे बड़ा पद 'खान' था, जो मंगोलवंशियों को ही दिया जाता था । दूसरे बड़े शासक 'अमीर' कहलाते थे । बाबर का पूर्वज तैमूर भी 'अमीर' ही कहलाता था । भारत में दिल्ली के मुस्लिम शासक 'सुल्तान' कहलाते थे । बाबर ने अपना पद 'बादशाह' घोषित किया था । बाबर के बाद सभी मुग़ल सम्राट 'बादशाह' कहलाये गये । बाबर केवल 4 वर्ष तक भारत पर राज्य कर सका । उसकी मृत्यु 26 दिसम्बर सन् 1530 को आगरा में हुई । उस समय उसकी आयु केवल 48 वर्ष की थी । बाबर की अंतिम इच्छानुसार उसका शव काबुल ले जाकर दफनाया गया, जहाँ उसका मकबरा बना हुआ है । उसके बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र हुमायूँ मुग़ल बादशाह बना

हुमायुँ

बाबर में बेटों में हुमायुँ सबसे बड़ा था । वह वीर, उदार और भला था ; लेकिन बाबर की तरह कुशल सेनानी और निपुण शासक नहीं था । वह सन् 1530 में अपने पिता की मृत्यु होने के बाद बादशाह बना और 10 वर्ष तक राज्य को दृढ़ करने के लिए शत्रुओं और अपने भाइयों से लड़ता रहा । उसे शेरखाँ नाम के पठान सरदार ने शाहबाद ज़िले के चौसा नामक जगह पर सन् 1539 में हरा दिया था । पराजित हो कर हुमायूँ ने दोबारा अपनी शक्ति को बढ़ा कन्नौज नाम की जगह पर शेरखाँ की सेना से 17 मई, सन् 1540 में युध्द किया लेकिन उसकी फिर हार हुई और वह इस देश से भाग गया । इस समय शेर खाँ सूर(शेरशाह सूरी ) और उसके वंशजों ने भारत पर शासन किया ।

शेहशाह के उत्तराधिकारी

शेरशाह सूरी के बाद उसका दूसरा बेटा इस्लामशाह 22 मई, सन् 1545 में गद्दी पर बैठा । उसने शेरशाह की नीति को लागू रखा ; पर शान्ति और व्यवस्था बनी न रह सकी । उसकी रूचि काव्य और संगीत में थी । संघर्षों में भी वह समय निकाल लेता था । 'असलमसाह' के नाम से उसकी हिन्दी रचनाएँ भी मिलती है । उसने अपनी राजधानी ग्वालियर को बनाया । उसकी मृत्यु सं. 1610 (30 अक्टूबर, सन् 1553) में हो गयी थी ।


इस्लामशाह के बाद उसका चचेरा भाई मुहम्मद आदिलशाह गद्दी पर बैठा । वह बड़ा अय्याश और शराबी था । उसके समय में शासन की व्यवस्था शिथिल हो चारों तरफ अशांति फैल गयी थी । अयोग्य होने पर भी वह संगीत कला का बड़ा विद्वान था । बड़े−बड़े संगीतज्ञ भी उसका लोहा मानते थे । उसने अपने दरबार में अनेक संगीतज्ञों को आश्रय दिया था । बाबा रामदास और तानसेन जैसे गायक पहले उसी के दरबार में थे और बाद में वे अकबर के दरबारी गायक हुए । आदिलशाह की अयोग्यता के कारण उसके विरोधी हो गये और राज्य में विद्रोह होने लगा । अंत में उसने भाग कर बिहार में शरण ली । सिकंदरशाह सूर उसके स्थान पर गद्दी पर बैठ गया था ।

हुमायूँ द्वारा पुन: राज्य−प्राप्ति

भागा हुआ हुमायूँ लगभग 14 वर्ष तक काबुल में रहा । सिकंदर सूर की व्यवस्था बिगड़ने का समाचार सुन उसका लाभ उठाने के लिए उसने सन् 1554 में भारत पर आक्रमण किया और लाहौर तक अधिकार कर लिया । उसके बाद तत्कालीन बादशाह सिंकदर सूर पर आक्रमण किया और उसे हराया । 23 जुलाई, सन् 1554 में दोबारा भारत का बादशाह बना लेकिन 7 माह राज्य करने के बाद 24 जनवरी, सन् 1555 में पुस्तकालय की सीढ़ी से गिरकर उसकी मृत्यु हो गई । उसका मकबरा दिल्ली में बना हुआ है । हुमायूँ की मृत्यु के समय उसका पुत्र अकबर 13−14 वर्ष का बालक था । हुमायूँ के बाद उसका पुत्र अकबर उत्तराधिकारी घोषित किया गया और उसका संरक्षक बैरमखां को बनाया गया, तब हेमचंद्र सेना लेकर दिल्ली आया और उसने मु्ग़लों को वहाँ से भगा दिया । हेमचंद्र की पराजय 6 नवंबर सन् 1556 में पानीपत के मैदान में हुई थी । उसी दिन स्वतंत्र हिन्दू राज्य का सपना टूट बालक अकबर के नेतृत्व में मुग़लों का शासन जम गया ।

अकबर (शासन काल सन् 1556 से 1605 )

जब हुमायूँ शेरशाह से हारकर भागने की तैयारी में था उस समय अकबर का जन्म सिंध के रेगिस्तान में अमरकोट के पास 23 नवंबर सन् 1542 में हुआ था, । हुमायूँ की दयनीय दशा के कारण अकबर की बाल्यावस्था संकट में बीती और कई बार उसकी जान पर भी जोखिम रहा । सं. 1612 में हुमायूँ ने भारत पर आक्रमण कर अपना खोया हुआ राज्य पुन: प्राप्त कर लिया ; किंतु वह केवल 7 माह तक ही जीवित रहा था । उसकी मृत्यु सं.1612 के अंत में दिल्ली में हो गयी थी । उस समय अकबर पंजाब में था । हुमायूँ की मृत्यु के 21 दिन बाद (14 फरवरी, सन् 1556 ) पंजाब के जिला गुरदासपुर के कलानूर में बड़ी सादगी के साथ उसको गद्दी पर बैठा दिया था ।


हुमायूँ ने भारत से निष्कासित होने के बाद काबुल पर अधिकार किया, और 10 वर्ष के बालक अकबर को सं. 1609 (जनवरी सन् 1552) में गज़नी का राज्य-पाल बनाया था । जब हुमायूँ पुन: भारत में आया, तब 13 वर्ष का अकबर पंजाब का राज्यपाल था । जिस समय कलानूर में उसे हुमायूँ का उत्तराधिकारी घोषित किया गया, उस समय उसकी आयु केवल 13−14 वर्ष की थीं । छोटी उम्र में ही वह वयस्क व्यक्तियों से अधिक उतार−चढ़ाव के अनुभव प्राप्त कर चुका था । आरंभ में बैरमखाँ उसका संरक्षक था, जो उसकी तरफ से राज्य का संचालन करता था ।

आगरा में राजधानी की व्यवस्था

मुग़लों के शासन के प्रारम्भ से सुल्तानों के शासन के अंतिम समय तक दिल्ली ही भारत की राजधानी रही थी । सुल्तान सिंकदर लोदी के शासन के उत्तर काल में उसकी राजनैतिक गतिविधियों का केन्द्र दिल्ली के बजाय आगरा हो गया था । यहाँ उसकी सैनिक छावनी थी । मुग़ल राज्य के संस्थापक बाबर ने शुरू से ही आगरा को अपनी राजधानी बनाया । बाबर के बाद हुमायूँ और शेरशाह सूरी और उसके उत्तराधिकारियों ने भी आगरा को ही राजधानी बनाया । मुग़ल सम्राट अकबर ने पूर्व व्यवस्था को कायम रखते हुए आगरा को राजधानी का गौरव प्रदान किया । इस कारण आगरा की बड़ी उन्नति हुई और वह मुग़ल साम्राज्य का सबसे बड़ा नगर बन गया था । कुछ समय बाद अकबर ने फतेहपुर सीकरी को राजधानी बनाया ।


मुग़ल सम्राट अकबर की उदार धार्मिक नीति के फलस्वरूप ब्रजमंडल में वैष्णव धर्म के नये मंदिर−देवालय बनने लगे और पुराने का जीर्णोंद्धार होने लगा, तब जैन धर्माबलंबियों में भी उत्साह का संचार हुआ था । गुजरात के विख्यात श्वेतांबराचार्य हीर विजय सूरि से सम्राट अकबर बड़े प्रभावित हुए थे । सम्राट ने उन्हें बड़े आदरपूवर्क सीकरी बुलाया, वे उनसे धर्मोपदेश सुना करते थे । इस कारण मथुरा−आगरा आदि ब्रज प्रदेश में बसे हुए जैनियों में आत्म गौरव का भाव जागृत हो गया था । वे लोग अपने मंदिरों के निर्माण अथवा जीर्णोद्धार के लिए प्रयत्नशील हो गये थे ।

अकबर की मृत्यु

सम्राट् अकबर अपनी योग्यता, वीरता, बुद्धिमत्ता और शासन−कुशलता के कारण ही एक बड़े साम्राज्य का निर्माण कर सका था । उसका यश, वैभव और प्रताप अनुपम था । इसलिए उसनी गणना भारतवर्ष के महान् सम्राटों में की जाती है । उनका अंतिम काल बड़े क्लेश और दु:ख में बीता था । अकबर ने 50 वर्ष तक शासन किया था । उस दीर्घ काल में मानसिंह और रहीम के अतिरिक्त उसके सभी विश्वसनीय सरदार−सामंतों का देहांत हो गया था । अबुलफज़ल, बीरबल, टोडरमल, पृथ्वीराज जैसे प्रिय दरबारी परलोक जा चुके थे । उसके दोनों छोटे पुत्र मुराद और दानियाल का देहांत हो चुका था । पुत्र सलीम शेष था; किंतु वह अपने पिता के विरूद्ध सदैव षड्यंत्र और विद्रोह करता रहा था । जब तक अकबर जीवित रहा, तब तक सलीम अपने दुष्कृत्यों से उसे दु:खी करता रहा; किंतु वह सदैव अपराधों को क्षमा करते रहे थे । जब अकबर सलीम के विद्रोह से तंग आ गया, तब अपने उत्तर काल में उसने उस बड़े बेटे शाहजादा खुसरो को अपना उत्तराधिकारी बनाने का विचार किया था । जब अकबर अपनी मृत्यु−शैया पर था, उस समय उसने सलीम के सभी अपराधों को क्षमा कर दिया और अपना ताज एवं खंजर देकर उसे ही अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था । उस समय अकबर की आयु 63 वर्ष और सलीम की 38 वर्ष थी । अकबर का देहावसान अक्टूबर, सन् 1605 में हुआ था । उसे आगरा के पास सिकंदरा में दफनाया गया, जहाँ उसका कलापूर्ण मकबरा बना हुआ है । अकबर के बाद सलीम जहाँगीर के नाम से मुग़ल सम्राट बना ।

मुग़लकालीन सिक्के

राज्य प्रशासन की आर्थिक नीति के लिए राजकीय मुद्रा के रूप में सिक्कों का प्रचलन सदा से रहा है । हमारे देश में सिक्के विक्रमपूर्व छठी शती से ही प्रचलित रहे हैं । ये सिक्के स्वर्ण, रजत एवं ताम्रधातुओं के बनाये जाते रहे हैं । उसी परंपरा में मुग़ल सम्राटों के भी सिक्के हैं । मुग़ल काल में प्रशासन की ओर सर्वप्रथम शेरशाह ने ध्यान दिया था । फलत: उसने राजकीय मुद्रा के रूप में सिक्के भी बहुत बड़ी संख्या में जारी किये थे, जो परंपरा के अनुसार सोने, चाँदी एवं ताबें के थे । उस समय में जीवनोपयोगी वस्तुएँ सस्ती थीं, अत: सोने के सिक्कों का प्रयोग जनता में बहुत कम होता था । अधिकतर सिक्के चाँदी एवं ताँबे के थे । एक रूपया का सिक्का चाँदी का था, जो उस काल में बहुमूल्य मुद्रा के रूप में प्रयुक्त होता था । उस पर फारसी एवं नागरी लिपि में शाह का नाम और रूपया शब्द का उल्लेख किया जाता था । मुग़ल सम्राट अकबर की प्रशानसिक उपलब्धियों में सुदृढ़ आर्थिक स्थिति भी थी, जिसका आधार सिक्का प्रणाली थी । अकबरकालीन सिक्कों में रूपया का महत्वपूर्ण स्थान था । सम्राट अकबर के बाद उसके उत्तराधिकारी सभी सम्राटों ने सिक्के जारी किये थे ; जिनके नमूने भारत के विभिन्न राजकीय संग्रहालयों में रखे है ।

जहाँगीर (शासन काल सन् 1605 से सन्1627)

उसका जन्म सन् 1569 के 30 अगस्त को सीकरी में हुआ था । अपने आरंभिक जीवन में वह शराबी और आवारा शाहजादे के रूप में बदनाम था । उसके पिता सम्राट अकबर ने उसकी बुरी आदतें छुड़ाने की बड़ी चेष्टा की ; किंतु उसे सफलता नहीं मिली । इसीलिए समस्त सुखों के होते हुए भी वह अपने बिगड़े हुए बेटे के कारण जीवनपर्यंत दुखी रहा । अंतत: अकबर की मृत्यु के पश्चात जहाँगीर ही मुग़ल सम्राट बना । उस समय उसकी आयु 36 वर्ष की थी । ऐसे बदनाम व्यक्ति के गद्दीनशीं होने से जनता में असंतोष एवं घबराहट थी । लोगों की आंशका होने लगी कि अब सुख−शांति के दिन विदा हो गये, और अशांति−अव्यवस्था एवं लूट−खसोट का जमाना फिर आ गया ।

खुसरो का विद्रोह और निधन

जहाँगीर के बड़े पुत्र का नाम खुसरो था । वह रूपवान, गुणी और वीर था। अपने अनेक गुणों में अकबर के समान था । इसलिए बड़ा लोकप्रिय था । अकबर भी अपने उस पौत्र को बड़ा प्यार करता था । जहाँगीर के कुकृत्यों से जब अकबर बड़ा दुखी हो गया, तब अपने अंतिम काल में उसने खुसरो को अपना उत्तराधिकारी बनाने का विचार किया । फिर सोच विचार करने पर अकबर ने जहाँगीर को ही अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया । खुसरो के मन में बादशाह बनने की लालसा पैदा हुई थी, उसने उसे विद्रोही बना दिया । चूँकि जहाँगीर गद्दीनशीं था, अत: राजकीय साधन उसे सुलभ थे । उनके कारण खुसरों का विद्रोह विफल हो गया; और उसे अपनी जान से हाथ धोना पड़ा ।

ब्रज की धार्मिक स्थिति

ब्रज अपनी सुदृढ़ धार्मिक स्थिति के लिए परंपरा से प्रसिद्ध रहा है । उसकी यह स्थिति कुछ सीमा तक मुग़लकाल में थी । सम्राट अकबर के शासनकाल में ब्रज की धार्मिक स्थिति में नये युग का सूत्रपात हुआ था । मुग़ल साम्राज्य की राजधानी आगरा ब्रजमंडल के अंतर्गत थी; अत: ब्रज के धार्मिक स्थलों से सीधा संबंध था । आगरा की शाही रीति-नीति, शासन−व्यवस्था और उसकी उन्नति−अवनति का ब्रज का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा था । सम्राट अकबर के काल में ब्रज की जैसी धार्मिक स्थिति थी, वैसी जहाँगीर के शासन काल में नही रही थी ; फिर भी वह प्राय:संतोषजनक थी । उसने अपने पिता अकबर की उदार धार्मिक नीति का अनुसरण किया , जिससे उसके शासन−काल में ब्रजमंडल में प्राय: शांति और सुव्यवस्था कायम रही । उसके 22 वर्षीय शासन काल में दो−तीन बार ही ब्रज में शांति−भंग हुई थी । उस समय धार्मिक स्थिति गड़बड़ा गई थी ; और भक्तजनों का कुछ उत्पीड़न भी हुआ था किंतु शीघ्र ही उस पर काबू पा लिया गया था।

अंतिम काल और मृत्यु

जहाँगीर ने अपने उत्तर जीवन में शासन का समस्त भार नूरजहाँ को सौंप दिया था । वह स्वयं शराब पीकर निश्चिंत पड़े रहने में ही अपने जीवन की सार्थकता समझता था । शराब की बुरी लत और ऐश−आराम ने उसके शरीर को निकम्मा कर दिया था । वह कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं कर सकता था । सौभाग्य से अकबर के काल में मुग़ल साम्राज्य की नींव इतनी सृदृढ़ रखी गई थी कि जहाँगीर के निकम्मेपन से उसमें कोई खास कमी नहीं आई थी । अपने पिता द्वारा स्थापित नीति और परंपरा का पल्ला पकड़े रहने से जहाँगीर अपने शासन−काल के 22 वर्ष बिना खास झगड़े−झंझटों के प्राय: सुख−चैन से पूरे कर गया था । नूरजहाँ अपने सौतेले पुत्र खुर्रम को नहीं चाहती थी । इसलिए जहाँगीर के उत्तर काल में खुर्रम ने एक−दो बार विद्रोह भी किया था ; किंतु वह असफल रहा था। जहाँगीर की मृत्यु सन् 1627 में उस समय हुई जब वह कश्मीर से वापिस आ रहा था । रास्ते में लाहौर में उसका देहावसान हो गया । उसे वहाँ के रमणीक उद्यान में दफनाया गया था । बाद में वहाँ उसका भव्य मकबरा बनाया गया । मृत्यु के समय उसकी आयु 58 वर्ष की थी । जहाँगीर के पश्चात् उसका पुत्र खुर्रम शाहजहाँ के नाम से मुग़ल सम्राट हुआ

शाहजहाँ ( सन् 1627 से सन् 1658 )

शाहजहाँ का जन्म 5 जनवरी 1591 ई0 को लाहौर में हुआ था । उसका नाम खुर्रम था । खुर्रम जहाँगीर का छोटा पुत्र था, जो छल−बल से अपने पिता का उत्तराधिकारी हुआ था । वह बड़ा कुशाग्र बुद्धि, साहसी और शौकीन बादशाह था । वह बड़ा कला प्रेमी, विशेषकर स्थापत्य कला का प्रेमी था । उसका विवाह 20 वर्ष की आयु में नूरजहाँ के भाई आसक खाँ की पुत्री अरजुमनबानो से सन् 1611 में हुआ था । वही बाद में मुमताज महल के नाम से उसकी प्रियतमा बेगम हुई । 20 वर्ष की आयु में ही शाहजहाँ जहाँगीर शासन का एक शक्तिशाली स्तंभ समझा जाता था ।


शाहजहाँ ने सन् 1648 में आगरा की बजाय दिल्ली को राजधानी बनाया ; किंतु उसने आगरा की कभी उपेक्षा नहीं की । उसके प्रसिद्ध निर्माण कार्य आगरा में भी थे । शाहजहाँ का दरबार सरदार सामंतों, प्रतिष्ठित व्यक्तियों तथा देश−विदेश के राजदूतों से भरा रहता था । उसमें सब के बैठने के स्थान निश्चित थे । जिन व्यक्तियों को दरबार में बैठने का सौभाग्य प्राप्त था, वे अपने को धन्य मानते थे ; और लोगों की दृष्टि में उन्हें गौरवान्वित समझा जाता था । जिन विदेशी सज्ज्नों को दरबार में जाने का सुयोग प्राप्त हुआ था, वे वहाँ के रंग−ढंग, शान−शौकत और ठाट−बाट को देख कर आश्चर्य किया करते थे। तख्त-ए-ताऊस शाहजहाँ के बैठने का राजसिंहासन था ।

शाहजहाँ की मृत्यु

शाहजहाँ 8 वर्ष तक आगरा के किले के शाहबुर्ज में कैद रहा । उसका अंतिम समय बड़े दु:ख मानसिक क्लेश में बीता था । उस समय उसकी प्रिय पुत्री जहाँआरा उसकी सेवा के लिए साथ रही थी । शाहजहाँ ने उन वर्षों को अपने वैभवपूर्ण जीवन का स्मरण करते और ताजमहल को अश्रुपूरित नेत्रों से देखते हुए बिताये थे । अंत में जनवरी, सन् 1666 में उसका देहांत हो गया । उस समय उसकी आयु 74 वर्ष की थी । उसे उसकी प्रिय बेगम के पार्श्व में ताजमहल में ही दफनाया गया था ।

नीति परिवर्तन

मुग़ल सम्राट् अकबर के शासन काल में धार्मिक उदारता और सहिष्णुता की जो नीति अपनायी गई थी; और जो कुछ सीमा तब जहाँगीर और शाहजहाँ के शासन काल में भी कायम रही थी, वह शाहजहाँ के मरते ही समाप्त हो गई । इस प्रकार एक मुग़ल युग का अंत हुआ ; और दूसरा आंरभ हुआ । वह युग ब्रज के लिए बड़े ही दुर्भाग्य का था । उसका कारण औरंगज़ेब का शासन था

औरंगज़ेब (शासन काल सन् 1658 सन् 1707 )

औरंगज़ेब अपने सगे भाई−भतीजों की निर्ममता पूर्वक हत्या और अपने वृद्ध पिता को गद्दी से हटा कर सम्राट बना था । उसने शासन सँभालते ही अकबर के समय से प्रचलित नीति में परिवर्तन किया । जिस समय वह सम्राट बना था, उस समय शासन और सेना में कितने ही बड़े−बड़े पदों पर राजपूत राजा नियुक्त थे । वह उनसे घृणा करता था और उनका अहित करने का कुचक्र रचता रहता था । अपनी हिन्दू विरोधी नीति की सफलता में उसे जिन राजाओं की ओर से बाधा जान पड़ती थी, उनमें आमेर नरेश मिर्जा राजा जयसिंह और जोधपुर के राजा यशवंतसिंह प्रमुख थे । उन दोनों का मुग़ल सम्राटों से पारिवारिक संबंध होने के कारण राज्य में बड़ा प्रभाव था । इसलिए औरंगज़ेब को प्रत्यक्ष रूप से उनके विरूद्ध कोई कार्यवाही करने का साहस नहीं होता था ; किंतु वह उनका अहित करने का नित्य नई चालें चलता रहता था। औरंगजेब की ओर से मथुरा का फौजदार अब्दुलनवी नामक एक कट्टर मुसलमान था । सन् 1669 में गोकुल सिंह जाट के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया । महावन परगना के सिहोरा गाँव में उसकी विद्रोहियों से मुठभेड़ हुई जिसमें अब्दुलनबी मारा गया और मु्ग़ल सेना बुरी तरह हार गई ।


औरंगज़ेब ने ब्रज संस्कृति को आघात पहुँचाने के लिये ब्रज के नामों को परिवर्तित किया । मथुरा, वृंदावन, परासोली (गोर्वधन) को क्रमश: इस्लामाबाद, मेमिनाबाद और मुहम्मदपुर कहा गया था । वे सभी नाम अभी तक सरकारी कागजों में रहे आये हैं, जनता में कभी प्रचलित नहीं हुए । ब्रज में आने वाले तीर्थ−यात्रियों पर भारी कर लगाया गया, मंदिर नष्ट किये लगे, जजिया कर फिर से लगाया गया और हिन्दुओं को मुसलमान बनाया ।

औरंगज़ेब की मृत्यु

औरंगज़ेब के अन्तिम समय में दक्षिण में मराठों का ज़ोर बहुत बढ़ गया था । उन्हें दबाने में शाही सेना को सफलता नहीं मिल रही थी । इसलिए सन् 1683 में औरंगज़ेब स्वयं सेना लेकर दक्षिण गया । वह राजधानी से दूर रहता हुआ अपने शासन−काल के लगभग अंतिम 25 वर्ष तक उसी अभियान में रहा । 50 वर्ष तक शासन करने के बाद उसकी मृत्यु दक्षिण के अहमदनगर में 20 फरवरी सन् 1707 ई0 में हो गई थी । उसकी नीति ने इतने विरोधी पैदा कर दिये, जिस कारण मुग़ल साम्राज्य का अंत ही हो गया । औरंगजेब के पुत्रों में बड़े का नाम मुअज़्ज़म और छोटे का नाम आज़ाम था । मुअज़्ज़म औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुग़ल सम्राट हुआ ।

आज़मशाह

यह औरंगज़ेब का छोटा बेटा था । वह आरंभ से ही ब्रजभाषा साहित्य का प्रेमी और पोषक था । उसे औरंगज़ेब की हिन्दू विरोधी नीति में कोई रूचि नहीं थी । उसने ब्रजभाषा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए मीरजा खाँ नामक एक विद्वान से फारसी भाषा में ग्रंथ लिखवाया था, जिसका नाम "तोहफतुल हिन्द" (भारत का उपहार ) रखा गया था । वस्तुत: वह ब्रजभाषा का विश्वकोश है जिसमें पिंगल, रस अलंकार, श्रृंगार,रस, नायिकाभेद, संगीत, सामुद्रिक शास्त्र, कोष, व्याकरण आदि विषयों का विवरण किया गया है । आज़मशाह इस ग्रंथ के द्वारा ब्रजभाषा साहित्य में पारंगत हुआ था । आज़म ने 'निवाज कवि' को आश्रय प्रदान कर उससे कालिदास के प्रसिद्ध नाटक 'अभिज्ञान शाकुंतल' का ब्रजभाषा में अनुवाद कराया था । उसी की आज्ञा से 'बिहारी सतसई' का क्रमबद्ध संपादन कराया गया था । औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्रों में राज्याधिकार के लिए जो भीषण युद्ध हुआ था, उसमें आज़मशाह पराजित होकर मारा गया और उसका बड़ा भाई मुअज़्ज़शाह बहादुरशाह के नाम से मुग़ल सम्राट हुआ ।

परवर्ती मुग़ल सम्राट (सन् 1707−1748 )

औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद जितने मुग़ल सम्राट हुए, सभी शक्तिहीन तथा अयोग्य शासक थे । वे नाम के सम्राट थे, उनके साम्राज्य का क्षेत्रफल घट गया, और उस पर भी उसका नियंत्रण नहीं रहा था । उस काल में दक्षिण के मराठों का प्रभाव बहुत बढ़ गया था । राजस्थान के राजपूत राजा और ब्रज प्रदेश के जाट सरदार शक्ति बढ़ा रहे थे । उत्तर में सिक्खों और रूहेलों का ज़ोर बढ़ रहा था । इस कारण मुग़ल सम्राटों के प्रभाव में बड़ी कमी हो गई थी । उस काल के कुछ प्रमुख मुग़ल सम्राट थे,

बहादुरशाह(शासन काल सन् 1707 से 1712 तक )

वह मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब का बड़ा पुत्र था । उसका नाम मुअज़्ज़म था, और अपने छोटे भाई आज़म को पराजित कर बहादुरशाह के नाम से मु्गल सम्राट हुआ था । उस समय उसकी आयु 64 वर्ष थी । वह शरीर से अशक्त और स्वभाव से दुर्बल था । अत: शासन व्यवस्था पर नियंत्रण करने में असमर्थ रहा । सन् 1712 में उसकी मृत्यु हो गई । उसे दिल्ली में दफनाया गया था । बहादुरशाह के पश्चात् उसका पुत्र जहाँदारशाह बादशाह हुआ । वह बड़ा विलासी और अयोग्य शासक था ; अपने भतीजे फरूख़सियर द्वारा सन् 1713 में मार डाला गया । उसके बाद फरूख़सियर मुग़ल सम्राट हुआ ।

फरूख़सियर (सन् 1713−1718 )

उसके शासन काल में 2 सैयद बंधु अब्दुल्ला और हुसैनअली मुग़ल शासन के प्रधान सूत्रधार थे । वे इतने प्रभावशाली और शक्तिसम्पन्न थे कि जिसे चाहते, उसे बादशाह बना देते ; और जब चाहते, उसे तख़्त से उतार देते थे । उन्होंने अपनी कूटनीतिज्ञता से अनेक मुग़ल सरदारों के साथ ही साथ कुछ हिन्दु सामंतों का भी सहयोग प्राप्त कर लिया था । अकबर की नीति के अनुकरण का ढोंग करते हुए वे हिन्दू रीति−रिवाजों का पालन करते थे और उनके व्रत−उत्सवों को मनाते थे । बसंत और होली पर वे हिन्दुओं के साथ मिल कर रंग−गुलाल खेलते थे । अंत में मुहम्मदशाह मुग़ल सम्राट हुआ ।

मुहम्मदशाह

अंतिम मुग़ल सम्राटों में मुहम्मदशाह (शासन काल सन् 1719−1748 ) का नाम उल्लेखनीय है । वह आरामतलब, विलासी एवं शक्तिहीन होने के कारण शासन कार्य के अयोग्य था, किंतु राग−रंग और गायन−वादन का बड़ा प्रेमी था । उसने शासन के अधिकार अपने मंत्रियों को सौंप दिये थे और वह स्वयं दिन−रात गायन में लगा रहता था । उसके शासन में प्रबंध की शिथिलता के कारण उपद्रव होने लगे थे,राज्य में अव्यवस्था और अशांति की स्थिति हो गई थी ।

नादिरशाह का आक्रमण

मुहम्मदशाह के शासन काल की दु:खद घटना नादिरशाह का भारत पर आक्रमण था । मुग़ल शासन से अब तक किसी बाहरी शत्रु का देश पर आक्रमण नहीं हुआ था; किंतु उस समय दिल्ली की शासन−सत्ता दुर्बल हो गई थी । ईरान के महत्वाकांक्षी लुटेरे शासक नादिरशाह ने भारत पर आक्रमण करने का साहस किया था । उसने मुग़ल सम्राट द्वारा शासित काबुल−कंधार प्रदेश पर अधिकार कर पेशावर स्थित मुग़ल सेना को नष्ट कर दिया था । मुहम्मदशाह ने नादिरशाह के आक्रमण को हँसी में उड़ा दिया । उसकी आँखे तब खुली जब नादिरशाह की सेना पंजाब के करनाल तक आ पहुँची । मुहम्मदशाह ने अपनी सेना उसके विरूद्ध भेजी ; किंतु 24 फरवरी, 1739 में उसकी पराजय हो गई । नादिरशाह ने पहिले 2 करोड़ रूपया हर्जाना माँगा, उसके स्वीकार होने पर वह 20 करोड़ माँगने लगा । नादिरशाह ने दिल्ली को लूटने और नर संहार करने की आज्ञा दे दी। उसके बर्बर सैनिक राजधानी में घुसे और लूटमार करने लगे । दिल्ली के हजारों नागरिक मारे गये, वहाँ भारी लूट की गई । इस लूट में नादिरशाह को अपार दौलत मिली । उसे 20 करोड़ की बजाय 30 करोड़ रूपया नकद मिला । इसके अतिरिक्त जवाहरात, बेगमों के बहुमूल्य आभूषण, सोने चाँदी के अगणित बर्तन तथा अन्य कीमती वस्तुएँ उसे मिली थी । इनके साथ ही साथ दिल्ली की लूट में उसे कोहनूर हीरा और शाहजहाँ का 'तख्त-ए- ताऊस' भी मिला था । वह बहुमूल्य मयूर सिंहासन अब भी ईरान में है, या नहीं इसका ज्ञान किसी को नहीं है ।


नादिरशाह प्राय: दो महीने तक दिल्ली में लूटमार करता रहा । मुगलों की राजधानी उजाड़ और बर्बाद हो गई थी । जब वह यहाँ से गया, तब करोड़ों की संपदा के साथ ही साथ वह 1,000 हाथी, 7,000 घोड़े, 10,000 ऊँट, 100 खोजे, 130 लेखक, 200 संगतराश, 100 राज और 200 बढ़ई भी अपने साथ ले गया था । ईरान पहुँच कर उसे तख्त-ए-ताऊस पर बैठ कर बड़ा शानदार दरबार किया । वह अधिक समय तक जीवित नहीं रहा । उसके कुकृत्यों का प्रायश्चित उसके सैनिकों के विद्रोह के रूप में हुआ था, जिसमें वह मारा गया । नादिरशाह की मृत्यु सन् 1747 में हुई थी । मुहम्मदशाह नादिरशाह के आक्रमण के बाद भी कई वर्ष तक जीवित रहा था, किंतु उसका शासन दिल्ली के आस−पास के भाग तक ही सीमित रह गया था । मुग़ल साम्राज्य के अधिकांश सूबे स्वतंत्र हो गये और विभिन्न स्थानों में साम्राज्य विरोधी शक्तियों का उदय हो गया था । मुहम्मदशाह उन्हें दबाने में असमर्थ था । वह स्वयं अपने मंत्रियों और सेनापतियों पर निर्भर था । उसकी मृत्यु 26 अप्रैल, सन् 1748 में हुई थी । इस प्रकार उसने 20 वर्ष तक शासन किया था ।


मुहम्मदशाह के बाद भी दिल्ली में कई मुग़ल सम्राट हुए, किंतु वे नाम मात्र के बादशाह थे । उनके नाम क्रमश: अहमदशाह (सन् 1748−1754 ), आलमग़ीर द्वितीय (सन् 1754−1759 ), शाहआलम (सन् 1759−1806 ), मुहम्मद अकबर (सन् 1806−1837 ) और बहादुरशाह (सन् 1837−1858 ) मिलते हैं । इस प्रकार मुग़ल साम्राज्य का अस्तित्व बहादुरशाह तक बना रहा था ; किंतु ब्रज की राजनैतिक हलचलों से मुहम्मदशाह को ही अंतिम मुग़ल सम्राट कहा जा सकता है । मुहम्मदशाह के परवर्ती तथाकथित मुग़ल शासकों के समय में जाट−मराठा अत्यंत शक्तिशाली हो गये थे । फलत: सन् 1748 से 1826 तक की कालावधि को ब्रज के इतिहास में 'जाट−मराठा काल' कहा जाता है ।