मुग़ल काल

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इतिहास

मुग़ल काल

मुग़ल राजवंश

बाबर और उसके वंशज 'मुग़ल' कहे जाते हैं ; वे मुग़ल न होकर अपने पूर्ववर्ती सुल्तानों की तरह तुर्क थे । बाबर का पिता तैमूर का वंशज था और उसकी माता मुग़ल जाति के विख्यात चंगेजखाँ के वंश में खान यूनस की पुत्री थी । बाबर की नसों में तुर्कों के साथ मंगोलों का भी रक्त था । बाबर ने काबुल पर अधिकार कर स्वयं को मुग़ल प्रसिद्ध किया था । यही नाम बाद में भारत में भी प्रचलित हो गया ।

बाबर

मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक जहीरूद्दीन बाबर का जन्म मध्य एशिया के फरगाना राज्य में हुआ था । उसका पिता वहाँ का शासक था, जिसकी मृत्यु के बाद बाबर राज्याधिकारी बना । इब्राहीम लोदी और राणा सांगा की हार के बाद बाबर ने भारत में मुग़ल राज्य की स्थापना की और आगरा को अपनी राजधानी बनाया । उससे पहले सुल्तानों की राजधानी दिल्ली थी ; किंतु बाबर ने उसे राजधानी नहीं बनाया क्योंकि वहाँ पठानों थे, जो तुर्कों की शासन−सत्ता पंसद नहीं करते थे । प्रशासन और रक्षा दोनों नज़रियों से बाबर को दिल्ली के मुकाबले आगरा सही लगा । मुग़लराज्य की राजधानी आगरा होने से शुरू से ही ब्रज से घनिष्ट संबंध रहा । मध्य एशिया में शासकों का सबसे बड़ा पद 'खान' था, जो मंगोलवंशियों को ही दिया जाता था । दूसरे बड़े शासक 'अमीर' कहलाते थे । बाबर का पूर्वज तैमूर भी 'अमीर' ही कहलाता था । भारत में दिल्ली के मुस्लिम शासक 'सुल्तान' कहलाते थे । बाबर ने अपना पद 'बादशाह' घोषित किया था । बाबर के बाद सभी मुग़ल सम्राट 'बादशाह' कहलाये गये । बाबर केवल 4 वर्ष तक भारत पर राज्य कर सका । उसकी मृत्यु 26 दिसम्बर सन् 1530 को आगरा में हुई । उस समय उसकी आयु केवल 48 वर्ष की थी । बाबर की अंतिम इच्छानुसार उसका शव काबुल ले जाकर दफनाया गया, जहाँ उसका मकबरा बना हुआ है । उसके बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र हुमायूँ मुग़ल बादशाह बना


बाबर में बेटों में हुमायुँ सबसे बड़ा था । वह वीर, उदार और भला था ; लेकिन बाबर की तरह कुशल सेनानी और निपुण शासक नहीं था । वह सन् 1530 में अपने पिता की मृत्यु होने के बाद बादशाह बना और 10 वर्ष तक राज्य को दृढ़ करने के लिए शत्रुओं और अपने भाइयों से लड़ता रहा । उसे शेरखाँ नाम के पठान सरदार ने शाहबाद ज़िले के चौसा नामक जगह पर सन् 1539 में हरा दिया था । पराजित हो कर हुमायूँ ने दोबारा अपनी शक्ति को बढ़ा कन्नौज नाम की जगह पर शेरखाँ की सेना से 17 मई, सन् 1540 में युध्द किया लेकिन उसकी फिर हार हुई और वह इस देश से भाग गया । इस समय शेर खाँ सूर(शेरशाह सूरी ) और उसके वंशजों ने भारत पर शासन किया ।

शेहशाह के उत्तराधिकारी

शेरशाह सूरी के बाद उसका दूसरा बेटा इस्लामशाह 22 मई, सन् 1545 में गद्दी पर बैठा । उसने शेरशाह की नीति को लागू रखा ; पर शान्ति और व्यवस्था बनी न रह सकी । उसकी रूचि काव्य और संगीत में थी । संघर्षों में भी वह समय निकाल लेता था । 'असलमसाह' के नाम से उसकी हिन्दी रचनाएँ भी मिलती है । उसने अपनी राजधानी ग्वालियर को बनाया । उसकी मृत्यु सं. 1610 (30 अक्टूबर, सन् 1553) में हो गयी थी ।


इस्लामशाह के बाद उसका चचेरा भाई मुहम्मद आदिलशाह गद्दी पर बैठा । वह बड़ा अय्याश और शराबी था । उसके समय में शासन की व्यवस्था शिथिल हो चारों तरफ अशांति फैल गयी थी । अयोग्य होने पर भी वह संगीत कला का बड़ा विद्वान था । बड़े−बड़े संगीतज्ञ भी उसका लोहा मानते थे । उसने अपने दरबार में अनेक संगीतज्ञों को आश्रय दिया था । बाबा रामदास और तानसेन जैसे गायक पहले उसी के दरबार में थे और बाद में वे अकबर के दरबारी गायक हुए । आदिलशाह की अयोग्यता के कारण उसके विरोधी हो गये और राज्य में विद्रोह होने लगा । अंत में उसने भाग कर बिहार में शरण ली । सिकंदरशाह सूर उसके स्थान पर गद्दी पर बैठ गया था ।

हुमायूँ द्वारा पुन: राज्य−प्राप्ति

भागा हुआ हुमायूँ लगभग 14 वर्ष तक काबुल में रहा । सिकंदर सूर की व्यवस्था बिगड़ने का समाचार सुन उसका लाभ उठाने के लिए उसने सन् 1554 में भारत पर आक्रमण किया और लाहौर तक अधिकार कर लिया । उसके बाद तत्कालीन बादशाह सिंकदर सूर पर आक्रमण किया और उसे हराया । 23 जुलाई, सन् 1554 में दोबारा भारत का बादशाह बना लेकिन 7 माह राज्य करने के बाद 24 जनवरी, सन् 1555 में पुस्तकालय की सीढ़ी से गिरकर उसकी मृत्यु हो गई । उसका मकबरा दिल्ली में बना हुआ है । हुमायूँ की मृत्यु के समय उसका पुत्र अकबर 13−14 वर्ष का बालक था । हुमायूँ के बाद उसका पुत्र अकबर उत्तराधिकारी घोषित किया गया और उसका संरक्षक बैरमखां को बनाया गया, तब हेमचंद्र सेना लेकर दिल्ली आया और उसने मु्ग़लों को वहाँ से भगा दिया । हेमचंद्र की पराजय 6 नवंबर सन् 1556 में पानीपत के मैदान में हुई थी । उसी दिन स्वतंत्र हिन्दू राज्य का सपना टूट बालक अकबर के नेतृत्व में मुग़लों का शासन जम गया ।

अकबर (शासन काल सन् 1556 से 1605 )

जब हुमायूँ शेरशाह से हारकर भागने की तैयारी में था उस समय अकबर का जन्म सिंध के रेगिस्तान में अमरकोट के पास 23 नवंबर सन् 1542 में हुआ था, । हुमायूँ की दयनीय दशा के कारण अकबर की बाल्यावस्था संकट में बीती और कई बार उसकी जान पर भी जोखिम रहा । सं. 1612 में हुमायूँ ने भारत पर आक्रमण कर अपना खोया हुआ राज्य पुन: प्राप्त कर लिया ; किंतु वह केवल 7 माह तक ही जीवित रहा था । उसकी मृत्यु सं.1612 के अंत में दिल्ली में हो गयी थी । उस समय अकबर पंजाब में था । हुमायूँ की मृत्यु के 21 दिन बाद (14 फरवरी, सन् 1556 ) पंजाब के जिला गुरदासपुर के कलानूर में बड़ी सादगी के साथ उसको गद्दी पर बैठा दिया था । इस समय तक हुमायूँ की मृत्यु का समाचार गुप्त रखा गया और अकबर के गद्दी पर बैठने पर ही हुमायूँ को दिल्ली में दफनाया गया था । उसका मकबरा उसकी दूसरी पत्नी रानी बेगम ने अपने निजी धन से बनवाना शुरू किया था, जो 13-14 बर्ष के बाद (अप्रैल सन् 1570 में) बन कर तैयार हुआ था । यह मकबरा अकबर कालीन मुग़ल स्थापत्य शैली का एक दर्शनीय नमूना है ।


हुमायूँ ने भारत से निष्कासित होने के बाद काबुल पर अधिकार किया, और 10 वर्ष के बालक अकबर को सं. 1609 (जनवरी सन् 1552) में गज़नी का राज्य-पाल बनाया था । जब हुमायूँ पुन: भारत में आया, तब 13 वर्ष का अकबर पंजाब का राज्यपाल था । जिस समय कलानूर में उसे हुमायूँ का उत्तराधिकारी घोषित किया गया, उस समय उसकी आयु केवल 13−14 वर्ष की थीं । छोटी उम्र में ही वह वयस्क व्यक्तियों से अधिक उतार−चढ़ाव के अनुभव प्राप्त कर चुका था । आरंभ में बैरमखाँ उसका संरक्षक था, जो उसकी तरफ से राज्य का संचालन करता था । अकबर से शासन काल के आरंभिक 5 वर्ष में उसके संरक्षक बैरमखाँ का प्रभुत्व था । अकबर को बैरमखाँ की कठोर नीति कतई पंसद नहीं थी । इधर उसने अपनी योग्यता, वीरता और प्रबंध−कुशलता का भी परिचय दिया । वह बैरमखाँ के हाथ की कठपुतली बनना नहीं चाहता था । उसने सन् 1560 में बैरमखाँ को हज भेजा और स्वतंत्रपूर्वक राज्य की व्यवस्था करने लगा । हज के मार्ग में बैरमखाँ की मृत्यु हो गई थी । उस समय उसका एक मात्र पुत्र रहीम केवल 4 वर्ष का बालक था । अकबर ने रहीम को अपने संरक्षण में रखा ।

राजपूतों से वैवाहिक संबंध

बैरमखाँ के अनुशासन से मुक्त होते ही अकबर ने उदार नीति से शासन करना आरंभ किया । उसने शेरशाह का अनुकरण करते हुए हिन्दुओं के साथ सद् व्यवहार किया । उनके सहयोग से राज्यविस्तार और शासन को सुदृढ़ करने में सफलता प्राप्त की थी । वह राजपूतों की वीरता और प्रतिज्ञा−पालन की आदत से प्रभावित था । उसने अपनी कुशाग्र बुद्धि से समझ लिया कि भारत में मुग़ल राज्य को सुदृढ़ और स्थायी बनाने के लिए राजपूत वीरों का सहयोग प्राप्त करना आवश्यक है, उसके लिए वह राजपूत राजाओं से मित्रतापूर्ण वैवाहिक संबंध स्थापित करने लगा । उससे पहले सुल्तानों के काल में सुंदर हिन्दू लड़कियों को मुसलमानी शासक बलात् पकड़ कर निकाह कर लेते थे, जिससे पारस्परिक कटुता की निरंतर वृद्धि होती रही थी । अकबर ने बल के स्थान पर मित्रता का व्यवहार किया । इस प्रकार उसने सुल्तानी काल की कुप्रथा को खत्म कर कटुता के स्थान पर हिन्दुओं का प्रेम पाया ।


14 जनवरी, सन् 1562 में अपनी प्रथम अजमेर यात्रा में वह आमेर राजा बिहारीमल से मिला और राजपूतों से वैवाहिक संबंध स्थापित कर सहयोग प्राप्त करने में सफल हुआ । इस प्रकार राजपूत राजाओं में कछवाहा नरेश सबसे पहले अकबर के सम्बन्धी और सहायक हुए । राजा बिहारीमल ने अपनी बेटी का विवाह अकबर के साथ किया । उस समय अकबर की उम्र 19 वर्ष थी । यह विवाह अकबर की उन्नति का सूत्रधार बन गया । बिहारीमल का पुत्र भगवानदास और पौत्र मानसिंह अंत तक अकबर के सहयोगी और सहायक बने रहे थे । अकबर की पहली पत्नी और युवराज सलीम की माँ का मूल नाम अज्ञात है । वह अपने वास्तविक नाम से नहीं अपनी उपाधि 'मरियम ज़मानी' (विश्व के प्रति दयालु महिला) के नाम से प्रसिद्ध रही थी । अकबरी दरबार के इतिहासकार 'अबुलफजल' कृत 'आइना-ए- अकबरी' में और जहाँगीर के लिखे आत्मचरित "तुजुक जहाँगीर" में उसे मरियम ज़मानी ही कहा गया है । यह उपाधि उसे सलीम के जन्म पर सन् 1569 में दी गई थी । कुछ लोगों ने उसका नाम जोधाबाई लिख दिया है, जो सही नहीं है । जोधाबाई जोधपुर के राजा उदयसिंह की पुत्री थी, जिसका विवाह सलीम के साथ सन् 1585 में हुआ था ।


वह सम्राट अकबर की महारानी और जहाँगीर की माता होने से मुग़ल अंत:पुर की सर्वाधिक प्रतिष्ठित नारी थीं । वह मुस्लिम बादशाह से विवाह होने पर भी हिन्दू धर्म के प्रति निष्ठावान रही । सम्राट अकबर ने उसे पूरी धार्मिक स्वतंत्रता दी थी । वह हिन्दू धर्म के अनुसार धर्मोपासना, उत्सव−त्यौहार एवं रीति−रिवाजों को करती थी । उसकी मृत्यु सम्राट अकबर के देहावसान के 18 वर्ष पश्चात् सन् 1623 में आगरा में हुई थी । उसकी याद में एक भव्य स्मारक आगरा के निकटवर्ती सिकंदरा नामक स्थान पर सम्राट के मकबरे के समीप बनाया गया, जो आज भी है ।

मेवाड़ का युद्ध

राजस्थान में मेवाड़ राज्य अपनी गौरवमयी परंपरा और अनुपम वीरता के कारण सर्वोपरि माना जाता था । राजपूत राजाओं पर प्रभुत्व स्थापित करने के लिए अकबर ने मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ पर विशाल सेना के साथ आक्रमण किया था । उस समय मेवाड़ का राजा उदयसिंह था । वह ड़रकर राजधानी से भाग गया ; लेकिन वहाँ के सामंतों ने बिना राजा के ही अकबर की सेना से संघर्ष किया । इन वीरों के कारण अकबर की विशाल सेना को चित्तौड़ पर शीघ्र विजय नहीं मिली थी । बाद में कहीं मुग़ल सेना चित्तौड पर अधिकार कर सकी थी । सम्राट अकबर ने चित्तौड़ पर अधिकार कर राज्य के अधिकांश भाग को अपने राज्य में मिला लिया था ; किंतु महाराणा प्रताप ने मुग़ल सम्राट की अधीनता स्वीकार नहीं की थी । वे जीवन पर्यंत छापामार युद्ध कर अकबर को परेशान करते रहे थे ।

प्रशासन व्यवस्था

सुल्तानों के शासनकाल का प्रशासनिक या राजनैतिक दृष्टि से कोई महत्व नहीं था । यही स्थिति अकबर के समय में थी । अकबर के समय में वित्तमंत्री राजा टोडरमल ने प्रशासन का ढ़ाँचा ही बदल दिया था । उसने भूमि का नया बंदोबस्त कर राज्य को 15 सूबों में बाँट दिया था । प्रत्येक सूबे में कई सरकार(जिले ), प्रत्येक सरकार में कई परगने और प्रत्येक परगना में कई मुहालें होते थे । सूबे के शासन को 'सिपहसालार' और सरकार के हकिम को 'फौजदार' कहा जाता था । बड़े−बड़े शहरों में 'कोतवाल' भी होते थे । सब सूबों में आगरा का सूबा सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण था । आगरा सूबा में 13 सरकारें और 203 परगने थे । आगरा सरकार में 31 परगनें थे ; जिनका क्षेत्रफल 1864 वर्ग मील था । उस समय में मथुरामंडल आगरा सरकार के अंतर्गत था और उनका प्रशासनिक केन्द्र महावन था । मथुरा नगर तब एक साधारण मुहाल था, जिसका कोई प्रशासनिक महत्व नहीं था । सुल्तानों के समय से ही मथुरामंडल का प्रशासनिक केन्द्र महावन रहा था, मुग़ल काल में वही व्यवस्था कायम रही थी । अकबर के समय में महावन का हाक़िम अलीख़ान था । उसका पिता ब्रज के बच्छगाँव का रहने वाला क्षत्रिय था, जो पठानों के समय में मुसलमान हो गया था । अलीख़ान की पुत्री पीरजादी बचपन से ही कृष्ण−भक्त थी । उसके प्रभाव से अलीख़ान कृष्ण−भक्त हो गया था । दोनों पिता−पुत्री गो. विट्टलनाथ जी के प्रति बड़ी श्रद्धा रखते थे । मथुरा मुहाल का तब विस्तार 37,347 बीघा था और उसकी मालगुजारी 11,55807 दाम थी ।

आगरा में राजधानी की व्यवस्था

मुग़लों के शासन के प्रारम्भ से सुल्तानों के शासन के अंतिम समय तक दिल्ली ही भारत की राजधानी रही थी । सुल्तान सिंकदर लोदी के शासन के उत्तर काल में उसकी राजनैतिक गतिविधियों का केन्द्र दिल्ली के बजाय आगरा हो गया था । यहाँ उसकी सैनिक छावनी थी । मुग़ल राज्य के संस्थापक बाबर ने शुरू से ही आगरा को अपनी राजधानी बनाया । बाबर के बाद हुमायूँ और शेरशाह सूरी और उसके उत्तराधिकारियों ने भी आगरा को ही राजधानी बनाया । मुग़ल सम्राट अकबर ने पूर्व व्यवस्था को कायम रखते हुए आगरा को राजधानी का गौरव प्रदान किया । इस कारण आगरा की बड़ी उन्नति हुई और वह मुग़ल साम्राज्य का सबसे बड़ा नगर बन गया था । कुछ समय बाद अकबर ने फतेहपुर सीकरी को राजधानी बनाया ।

तीर्थकर और जजिया हटाना

अकबर राजा बनने के 8वें वर्ष सन् 1563 में पहली बार मथुरा आया था । तभी उसे पता चला कि मथुरा में तीर्थ−यात्रियों से कर लिया जाता है । उसने तीर्थकर बंद करने का हुक्म दे दिया, इस कर से शाही खजाने को 10 लाख सालाना की आमदनी होती थी । गैर मुस्लिमों पर एक कर और लगाया था, जो जज़िया कहलाता था । अकबर ने अपने शासन के नवें वर्ष मार्च, सन् 1564 में उस कर को भी हटा दिया था । इस कर को हटवाने में अकबर की हिन्दू रानियों और हिन्दू दरबारियों का विशेष रूप से हाथ था ।

धर्मस्थानों के निर्माण की आज्ञा

सम्राट अकबर ने सभी धर्म वालों को अपने मंदिर−देवालय आदि बनवाने की स्वतंत्रता प्रदान की थी । जिसके कारण ब्रज के विभिन्न स्थानों में पुराने पूजा−स्थलों का पुनरूद्धार किया गया और नये मंदिर−देवालयों को बनवाया गया था ।

गो−वध पर रोक

हिन्दू समुदाय में गौ को पवित्र माना जाता है । मुसलमान हिन्दुओं को आंतकित करने के लिए गौ−वध किया करते थे । अकबर ने गौ−वध बंद करने की आज्ञा देकर हिन्दू जनता के मन को जीत लिया था । शाही आज्ञा से गौ−हत्या के अपराध की सजा मृत्यु थी ।

धार्मिक विद्वानों का सत्संग

जिस समय अकबर ने अपनी राजधानी फतेहपुर−सीकरी में स्थानान्तरित की, उस समय उसकी धार्मिक जिज्ञासा बड़ी प्रबल थी । उसने वहाँ राजकीय इमारतों के साथ ही साथ एक इबादतखाना (उपासना गृह ) भी सन् 1575 में बनवाया था, जहाँ वह सभी धर्मों के विद्वानों के प्रवचन सुन उनसे विचार−विमर्श किया करता था । वह अपना अधिकांश समय धर्म−चर्चा में ही लगाता था । वह मुस्लिम धर्म के विद्वानों के साथ ही साथ ईसाई, जैन और वैष्णव धर्माचार्यों के प्रवचन सुनता था और कभी−कभी उनमें शास्त्रार्थ भी कराता था । सन् 1576 से जनवरी, सन् 1579 तक लगभग 3 वर्ष तक वहाँ धार्मिक विचार−विमर्श का जोर बढ़ता गया । उस समय के धर्माचार्य श्री विट्ठलनाथ जी का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है । हीरविजय सूरि श्वेतांबर जैन धर्म के विद्वान आचार्य थे । अकबर ने दीन-ए-इलाही धर्म बनाया और चलाया ।


दिल्ली के सुलतानों के पश्चात मथुरा मंडल पर मुग़ल सम्राट का शासन हुआ था । उनमें सम्राट अकबर सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं । उसने अपनी राजधानी दिल्ली के बजाय आगरा में रखी थी । आगरा ब्रजमंडल का प्रमुख नगर है ; अत: राजकीय रीति−नीति का प्रभाव इस भूभाग पर पड़ा था । से सम्राट अकबर की धार्मिक नीति उदार थी, जिससे ब्रज के अन्य धर्मावलंबी प्रचुरता से लाभान्वित हुए थे । सम्राट अकबर से पहिले ग्वालियर और बटेश्वर (जि. आगरा) जैन धर्म के परंपरागत केन्द्र थे । अकबर के शासन काल में आगरा भी इस धर्म का प्रसिद्ध केन्द्र हो गया था ग्वालियर और बटेश्वर का तो पहिले से ही सांस्कृतिक एवं धार्मिक महत्व था; किंतु आगरा राजनैतिक कारण से जैनियों का केन्द्र बना । ब्रजमंडल के जैन धर्माबलंबियों में अधिक संख्या व्यापारी वैश्यों की थी । उनमें सबसे अधिक अग्रवाल, खंडेलवाल−ओसवाल आदि थे । मुग़ल साम्राज्य की राजधानी आगरा उस समय में व्यापार−वाणिज्य का भी बड़ा केन्द्र था, इसलिए वणिक वृत्ति के जैनियों का वहाँ बड़ी संख्या में एकत्र होना स्वाभाविक था ।


मुग़ल सम्राट अकबर की उदार धार्मिक नीति के फलस्वरूप ब्रजमंडल में वैष्णव धर्म के नये मंदिर−देवालय बनने लगे और पुराने का जीर्णोंद्धार होने लगा, तब जैन धर्माबलंबियों में भी उत्साह का संचार हुआ था । गुजरात के विख्यात श्वेतांबराचार्य हीर विजय सूरि से सम्राट अकबर बड़े प्रभावित हुए थे । सम्राट ने उन्हें बड़े आदरपूवर्क सीकरी बुलाया, वे उनसे धर्मोपदेश सुना करते थे । इस कारण मथुरा−आगरा आदि ब्रज प्रदेश में बसे हुए जैनियों में आत्म गौरव का भाव जागृत हो गया था । वे लोग अपने मंदिरों के निर्माण अथवा जीर्णोद्धार के लिए प्रयत्नशील हो गये थे । आचार्य हीर विजय सूरि जी स्वयं मथुरा पधारे थे । उनकी यात्रा का वर्णन "हीर सौभाग्य" काव्य के 14 वें सर्ग में हुआ था । उसमें लिखा है, सूरि जी ने मथुरा के विहार कर पार्श्वनाथ और जम्बूस्वामी के स्थलों तथा 527 स्तूपों की यात्रा की थी । सूरि जी के कुछ काल पश्चात सन् 1591 में कवि दयाकुशल ने जैन तीर्थों की यात्रा कर तीर्थमाला की रचना की थी । उसके 40वें पद्य में उसने अपने उल्लास का इस प्रकार कथन किया है,−

"मथुरा देखिउ मन उल्लसइ । मनोहर थुंम जिहां पांचसइं ।।


गौतम जंबू प्रभवो साम । जिनवर प्रतिमा ठामोमाम ।।"

अकबर की मृत्यु

सम्राट् अकबर अपनी योग्यता, वीरता, बुद्धिमत्ता और शासन−कुशलता के कारण ही एक बड़े साम्राज्य का निर्माण कर सका था । उसका यश, वैभव और प्रताप अनुपम था । इसलिए उसनी गणना भारतवर्ष के महान् सम्राटों में की जाती है । उनका अंतिम काल बड़े क्लेश और दु:ख में बीता था । अकबर ने 50 वर्ष तक शासन किया था । उस दीर्घ काल में मानसिंह और रहीम के अतिरिक्त उसके सभी विश्वसनीय सरदार−सामंतों का देहांत हो गया था । अबुलफज़ल, बीरबल, टोडरमल, पृथ्वीराज जैसे प्रिय दरबारी परलोक जा चुके थे । उसके दोनों छोटे पुत्र मुराद और दानियाल का देहांत हो चुका था । पुत्र सलीम शेष था; किंतु वह अपने पिता के विरूद्ध सदैव षड्यंत्र और विद्रोह करता रहा था । जब तक अकबर जीवित रहा, तब तक सलीम अपने दुष्कृत्यों से उसे दु:खी करता रहा; किंतु वह सदैव अपराधों को क्षमा करते रहे थे । जब अकबर सलीम के विद्रोह से तंग आ गया, तब अपने उत्तर काल में उसने उस बड़े बेटे शाहजादा खुसरो को अपना उत्तराधिकारी बनाने का विचार किया था । किंतु अकबर ने खुसरो को अपना उत्तराधिकारी नहीं बनाया लेकिन उस महत्वाकांक्षी युवक के मन में राज्य की जो लालसा जागी, वह उसकी अकाल मृत्यु का कारण बनी । जब अकबर अपनी मृत्यु−शैया पर था, उस समय उसने सलीम के सभी अपराधों को क्षमा कर दिया और अपना ताज एवं खंजर देकर उसे ही अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था । उस समय अकबर की आयु 63 वर्ष और सलीम की 38 वर्ष थी । अकबर का देहावसान अक्टूबर, सन् 1605 में हुआ था । उसे आगरा के पास सिकंदरा में दफनाया गया, जहाँ उसका कलापूर्ण मकबरा बना हुआ है । अकबर के बाद सलीम जहाँगीर के नाम से मुग़ल सम्राट बना ।

मुग़लकालीन सिक्के

राज्य प्रशासन की आर्थिक नीति के लिए राजकीय मुद्रा के रूप में सिक्कों का प्रचलन सदा से रहा है । हमारे देश में सिक्के विक्रमपूर्व छठी शती से ही प्रचलित रहे हैं । ये सिक्के स्वर्ण, रजत एवं ताम्रधातुओं के बनाये जाते रहे हैं । उसी परंपरा में मुग़ल सम्राटों के भी सिक्के हैं । मुग़ल काल में प्रशासन की ओर सर्वप्रथम शेरशाह ने ध्यान दिया था । फलत: उसने राजकीय मुद्रा के रूप में सिक्के भी बहुत बड़ी संख्या में जारी किये थे, जो परंपरा के अनुसार सोने, चाँदी एवं ताबें के थे । उस समय में जीवनोपयोगी वस्तुएँ सस्ती थीं, अत: सोने के सिक्कों का प्रयोग जनता में बहुत कम होता था । अधिकतर सिक्के चाँदी एवं ताँबे के थे । एक रूपया का सिक्का चाँदी का था, जो उस काल में बहुमूल्य मुद्रा के रूप में प्रयुक्त होता था । उस पर फारसी एवं नागरी लिपि में शाह का नाम और रूपया शब्द का उल्लेख किया जाता था । मुग़ल सम्राट अकबर की प्रशानसिक उपलब्धियों में सुदृढ़ आर्थिक स्थिति भी थी, जिसका आधार सिक्का प्रणाली थी । अकबरकालीन सिक्कों में रूपया का महत्वपूर्ण स्थान था । सम्राट अकबर के बाद उसके उत्तराधिकारी सभी सम्राटों ने सिक्के जारी किये थे ; जिनके नमूने भारत के विभिन्न राजकीय संग्रहालयों में देखे जा सकते है ।

जहाँगीर (शासन काल सन् 1605 से सन्1627)

उसका जन्म सन् 1569 के 30 अगस्त को सीकरी में हुआ था । अपने आरंभिक जीवन में वह शराबी और आवारा शाहजादे के रूप में बदनाम था । उसके पिता सम्राट अकबर ने उसकी बुरी आदतें छुड़ाने की बड़ी चेष्टा की ; किंतु उसे सफलता नहीं मिली । इसीलिए समस्त सुखों के होते हुए भी वह अपने बिगड़े हुए बेटे के कारण जीवनपर्यंत दुखी रहा । अंतत: अकबर की मृत्यु के पश्चात जहाँगीर ही मुग़ल सम्राट बना । उस समय उसकी आयु 36 वर्ष की थी । ऐसे बदनाम व्यक्ति के गद्दीनशीं होने से जनता में असंतोष एवं घबराहट थी । लोगों की आंशका होने लगी कि अब सुख−शांति के दिन विदा हो गये, और अशांति−अव्यवस्था एवं लूट−खसोट का जमाना फिर आ गया । उस समय जनता में कितना भय और आतंक था, इसका विस्तृत वर्णन जैन कवि बनारसीदास ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ "अर्थकथानक" में किया है । उसका कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत है,−

"घर−घर दर−दर दिये कपाट । हटवानी नहीं बैठे हाट ।

भले वस्त्र अरू भूषण भले । ते सब गाढ़े धरती चले ।

घर−घ्र सबन्हि विसाहे अस्त्र । लोगन पहिरे मोटे वस्त्र ।।"

खुसरो का विद्रोह और निधन

जहाँगीर के बड़े पुत्र का नाम खुसरो था । वह रूपवान, गुणी और वीर था। अपने अनेक गुणों में अकबर के समान था । इसलिए बड़ा लोकप्रिय था । अकबर भी अपने उस पौत्र को बड़ा प्यार करता था । जहाँगीर के कुकृत्यों से जब अकबर बड़ा दुखी हो गया, तब अपने अंतिम काल में उसने खुसरो को अपना उत्तराधिकारी बनाने का विचार किया । फिर सोच विचार करने पर अकबर ने जहाँगीर को ही अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया । खुसरो के मन में बादशाह बनने की लालसा पैदा हुई थी, उसने उसे विद्रोही बना दिया । चूँकि जहाँगीर गद्दीनशीं था, अत: राजकीय साधन उसे सुलभ थे । उनके कारण खुसरों का विद्रोह विफल हो गया; और उसे अपनी जान से हाथ धोना पड़ा ।

प्रशासन

जहाँगीर ने अपनी बदनामी को दूर करने के लिए अपने विशाल साम्राज्य का प्रशासन अच्छा करने की ओर ध्यान दिया । उसने यथासंभव अपने पिता अकबर की शासन नीति का ही अनुसरण किया और पुरानी व्यवस्था को कायम रखा था । जिन व्यक्तियों ने षड़यंत्र में सहायता की थी उसने उन्हें मालामाल कर दिया; जो कर्मचारी जिन पदों पर अकबर के काल में थे, उन्हें उन्हीं पदों पर रखते हुए उनकी प्रतिष्ठा को यथावत् बनाये रखा । कुछ अधिकारियों की उसने पदोन्नति भी कर दी थी । इस प्रकार के उदारतापूर्ण व्यवहार का उसके शासन पर बड़ा अनुकूल प्रभाव पडा ।

न्याय

जहाँगीर ने न्याय व्यवस्था ठीक रखने की ओर विशेष ध्यान दिया था। न्यायाधीशों के अतिरिक्त वह स्वयं भी जनता के दु:ख दर्द को सुनता था । उसके लिए उसने अपने निवास−स्थान से लेकर नदी के किनारे तक एक जंज़ीर बंधवाई थी और उसमें बहुत सी घंटियाँ लटकवा दी थीं । यदि किसी को कुछ फरियाद करनी हो, तो वह उस जंज़ीर को पकड़ कर खींच सकता है, ताकि उसमें बंधी हुई घंटियों की आवाज सुन कर बादशाह उस फरियादी को अपने पास बुला सके । जहाँगीर के आत्मचरित से ज्ञात होता है, वह जंज़ीर सोने की थी और उसके बनवाने में बड़ी लागत आई थी । उसकी लंबाई 40 गज की थी और उसमें 60 घंटियाँ बँधी हुई थीं । उन सबका वजन 10 मन के लगभग था । उससे जहाँ बादशाह के वैभव का प्रदर्शन होता था, वहाँ उसके न्याय का भी ढ़िंढोरा पिट गया था । किंतु इस बात का कोई उल्लेख नहीं मिलता है कि किसी व्यक्ति ने उस जंजीर को हिलाकर बादशाह को कभी न्याय करने का कष्ट दिया हो । उस काल में मुस्लिम शासकों का ऐसा आंतक था कि उस जंज़ीर में बँधी हुई घंटियों को बजा कर बादशाह के ऐशो−आराम में विध्न डालने का साहस करना बड़ा कठिन था ।


जहाँगीर के शासन−काल में प्लेग नामक भंयकर बीमारी का कई बार प्रकोप हुआ था । सन् 1618 में जब वह बीमारी दोबारा आगरा में फैली थी, तब उससे बड़ी बर्बादी हुई थी । उसके संबंध में जहाँगीर ने लिखा है − "आगरा में पुन: महामारी का प्रकोप हुआ जिससे लगभग एक सौ मनुष्य प्रति दिन मर रहे हैं । बगल, पट्टे या गले में गिल्टियाँ उभर आती हैं और लोग मर जाते हैं । यह तीसरा वर्ष है कि रोग जाड़े में जोर पकड़ता है और गर्मी के आरंभ में समाप्त हो जाता है । इन तीन वर्षों में इसकी छूत आगरा के आस−पास के ग्रामों तथा बस्तियों में फैल गई है । ....जिस आदमी को यह रोग होता था, उसे जोर का बुखार आता था और उसका रंग पीलापन लिये हुए स्याह हो जाता था, और दस्त होते थे और दूसरे दिन ही वह मर जाता था । जिस घर में एक आदमी बीमार होता, उससे सभी को उस रोग ही छूत लग जाती और घर का घर बर्बाद हो जाता था ।"

शराबबंदी का निर्देश

जहाँगीर को शराब पीने की लत थी, जो अंतिम काल तक रही थी । वह उसके दुष्टपरिणाम को जानता था ; किंतु उसे छोड़ने में असमर्थ था । किंतु जनता को शराब से बचाने के लिए उसने गद्दी पर बैठते ही उसे बनाने और बेचने पर पाबंदी लगा दी थी । उसने शासन−सँभालते ही एक शाही फरमान निकाला था, जिसमें 12 आज्ञाओं को साम्राज्य भर में मानने का आदेश दिया गया था । उसमें तीसरी आज्ञा शराबबंदी से संबंधित थी । उस प्रकार की आज्ञा होने पर भी वह स्वयं शराब पीता था और उसके प्राय: सभी सरदार सामंत, हाकिम और कर्मचारी भी शराब पीने के आदी थी । ऐसी स्थिति में शराबबंदी की शाही आज्ञा का कोई प्रभावकारी परिणाम निकला हो, इससे संदेह है ।

ग्रामीणों का विद्रोह

जहाँगीर के शासन−काल में एक बार ब्रज में यमुना पार के किसानों और ग्रामीणों ने विद्रोह करते हुए कर देना बंद कर दिया था । जहाँगीर ने खुर्रम को उसे दबाने के लिए भेजा । विद्रोहियों ने बड़े साहस और दृढ़ता से युद्ध किया ; किंतु शाही सेना से वे पराजित हो गये थे । उनमें से बहुत से मार दिये गये और स्त्रियों तथा बच्चों को कैद कर लिया गया । उस अवसर पर सेना ने खूब लूट की थी , जिसमें उसे बहुत धन मिला था । उक्त घटना का उल्लेख स्वयं जहाँगीर ने अपने आत्म चरित्र में किया है किंतु उसके कारण पर प्रकाश नहीं डाला । संभव है, वह विद्रोह हुसैनबेग़ बख्शी की लूटमार के प्रतिरोध में किया गया हो ।

ब्रज के जंगलों में शिकार

उस समय में ब्रज में अनेक बीहड़ वन थे, जिनमें शेर आदि हिंसक पशु भी पर्याप्त संख्या में रहते थे । मुस्लिम शासक इन वनों में शिकार करने को आते थे । जहाँगीर बादशाह ने भी नूरजहाँ के साथ यहाँ कई बार शिकार किया था । जहाँगीर अचूक निशानेबाज था । सन् 1614 में जहाँगीर मथुरा में था, तब अहेरिया ने सूचना दी कि पास के जंगल में एक शेर है, जो जनता को कष्ट दे रहा है । यह सुन कर बादशाह ने हाथियों द्वारा जंगल पर घेरा डाल दिया और खुद नूरजहाँ के साथ शिकार को गया । उस समय जहाँगीर ने जीव−हिंसा न करने का व्रत लिया था, अत: स्वयं गोली न चला कर उसने नूरजहाँ को ही गोली चलाने की आज्ञा दी थी । नूरजहाँ ने हाथी पर से एक ही निशाने में शेर को मार दिया था । सन् 1626 में जब जहाँगीर मथुरा में नाव में बैठ कर यमुना की सैर कर रहा था, तब अहेरियों ने उसे सूचना दी कि पास के जंगल में एक शेरनी अपने तीन बच्चों के साथ मौजूद है । वह नाव से उतर कर जंगल में गया और वहाँ उसने शेरनी को मार कर उसके बच्चों को जीवित पकड़वा लिया था । उस अवसर पर जहाँगीर ने अपने जन्मदिन का उत्सव भी मथुरा में ही मनाया था । उसका तब 56 वर्ष पूरे कर 57 वाँ वर्ष आरंभ हुआ था । उसके उपलक्ष में उसने तुलादान किया और बहुत सा दानपुण्य किया था ।

व्यक्तित्व एवं अभिरूचि

सम्राट जहाँगीर का व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक था ;किंतु उसका चरित्र बुरी−भली आदतों का अद्भुत मिश्रण था । अपने बचपन में कुसंग के कारण वह अनेक बुराईयों के वशीभूत हो गया था, उनमें कामुकता और मदिरा−पान विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । गद्दी पर बैठते ही उसने अपनी अनेक बुरी आदतों को छोड़ कर अपने को बहुत कुछ सुधार लिया था ; किंतु मदिरा−पान को वह अंत समय तक भी नहीं छोड़ सका था । अतिशय मद्य−सेवन के कारण उसके चरित्र की अनेक अच्छाईयाँ दब गई थीं । मदिरा−पान के संबंध में उसने स्वयं अपने आत्मचरित में लिखा है −"हमने सोलह वर्ष की आयु से मदिरा पीना आरंभ कर दिया था । प्रतिदिन बीस प्याला तथा कभी−कभी इससे भी अधिक पीते थे । इस कारण हमारी ऐसी अवस्था हो गई कि यदि एक घड़ी भी न पीते तो हाथ काँपने लगते तथा बैठने की शक्ति नहीं रह जाती थी । हमने निरूपाय होकर इसे कम करना आरंभ कर दिया और छह महीने का समय में बीस प्याले से पाँच प्याले तक पहुँचा दिया।"


जहाँगीर साहित्यप्रेमी था, जो उसको पैतृक देन थी । यद्यपि उसने अकबर की तरह उसके संरक्षण और प्रोत्साहन में विशेष योग नहीं दिया था, तथापि उसका ज्ञान उसे अपने पिता से अधिक था । वह अरबी, फारसी और ब्रजभाषा−हिन्दी का ज्ञाता तथा फारसी का अच्छा लेखक था । उसकी रचना "तुज़क जहाँगीर" (जहाँगीर का आत्म चरित ) उत्कृष्ट संस्मरणात्मक कृति है ।

ब्रज की धार्मिक स्थिति

ब्रज अपनी सुदृढ़ धार्मिक स्थिति के लिए परंपरा से प्रसिद्ध रहा है । उसकी यह स्थिति कुछ सीमा तक मुग़लकाल में थी । सम्राट अकबर के शासनकाल में ब्रज की धार्मिक स्थिति में नये युग का सूत्रपात हुआ था । मुग़ल साम्राज्य की राजधानी आगरा ब्रजमंडल के अंतर्गत थी; अत: ब्रज के धार्मिक स्थलों से सीधा संबंध था । आगरा की शाही रीति-नीति, शासन−व्यवस्था और उसकी उन्नति−अवनति का ब्रज का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा था । सम्राट अकबर के काल में ब्रज की जैसी धार्मिक स्थिति थी, वैसी जहाँगीर के शासन काल में नही रही थी ; फिर भी वह प्राय:संतोषजनक थी । उसने अपने पिता अकबर की उदार धार्मिक नीति का अनुसरण किया , जिससे उसके शासन−काल में ब्रजमंडल में प्राय: शांति और सुव्यवस्था कायम रही । उसके 22 वर्षीय शासन काल में दो−तीन बार ही ब्रज में शांति−भंग हुई थी । उस समय धार्मिक स्थिति गड़बड़ा गई थी ; और भक्तजनों का कुछ उत्पीड़न भी हुआ था किंतु शीघ्र ही उस पर काबू पा लिया गया था।

अंतिम काल और मृत्यु

जहाँगीर ने अपने उत्तर जीवन में शासन का समस्त भार नूरजहाँ को सौंप दिया था । वह स्वयं शराब पीकर निश्चिंत पड़े रहने में ही अपने जीवन की सार्थकता समझता था । शराब की बुरी लत और ऐश−आराम ने उसके शरीर को निकम्मा कर दिया था । वह कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं कर सकता था । सौभाग्य से अकबर के काल में मुग़ल साम्राज्य की नींव इतनी सृदृढ़ रखी गई थी कि जहाँगीर के निकम्मेपन से उसमें कोई खास कमी नहीं आई थी । अपने पिता द्वारा स्थापित नीति और परंपरा का पल्ला पकड़े रहने से जहाँगीर अपने शासन−काल के 22 वर्ष बिना खास झगड़े−झंझटों के प्राय: सुख−चैन से पूरे कर गया था । नूरजहाँ अपने सौतेले पुत्र खुर्रम को नहीं चाहती थी । इसलिए जहाँगीर के उत्तर काल में खुर्रम ने एक−दो बार विद्रोह भी किया था ; किंतु वह असफल रहा था। जहाँगीर की मृत्यु सन् 1627 में उस समय हुई जब वह कश्मीर से वापिस आ रहा था । रास्ते में लाहौर में उसका देहावसान हो गया । उसे वहाँ के रमणीक उद्यान में दफनाया गया था । बाद में वहाँ उसका भव्य मकबरा बनाया गया । मृत्यु के समय उसकी आयु 58 वर्ष की थी । जहाँगीर के पश्चात् उसका पुत्र खुर्रम शाहजहाँ के नाम से मुग़ल सम्राट हुआ

शाहजहाँ ( सन् 1627 से सन् 1658 )

शाहजहाँ का जन्म 5 जनवरी 1591 ई0 को लाहौर में हुआ था । उसका नाम खुर्रम था । खुर्रम जहाँगीर का छोटा पुत्र था, जो छल−बल से अपने पिता का उत्तराधिकारी हुआ था । वह बड़ा कुशाग्र बुद्धि, साहसी और शौकीन बादशाह था । वह बड़ा कला प्रेमी, विशेषकर स्थापत्य कला का प्रेमी था । उसका विवाह 20 वर्ष की आयु में नूरजहाँ के भाई आसक खाँ की पुत्री अरजुमनबानो से सन् 1611 में हुआ था । वही बाद में मुमताज महल के नाम से उसकी प्रियतमा बेगम हुई । 20 वर्ष की आयु में ही शाहजहाँ जहाँगीर शासन का एक शक्तिशाली स्तंभ समझा जाता था । फिर उस विवाह से उसकी शक्ति और भी बढ़ गई थी । नूरजहाँ, आसफ खाँ और उनका पिता एतमुद्दौला जो जहाँगीर शासन के कर्त्ताधर्त्ता थे, शाहजहाँ के विश्वसनीय समर्थक हो गये थे । शाहजहाँ के शासन−काल में मुग़ल साम्राज्य की समृद्धि, शान−शौकत और ख्याति चरम सीमा पर थी । उसके दरबार में देश−विदेश के अनेक प्रतिष्ठित व्यक्ति आते थे । वे शाहजहाँ के वैभव और ठाट−बाट को देख कर चकित रह जाते थे । उसके शासन का अधिकांश समय सुख−शांति से बीता था ; उसके राज्य में खुशहाली रही थी । उसके शासन की सब से बड़ी देन उसके द्वारा निर्मित सुंदर, विशाल और भव्य भवन हैं । उसके राजकोष में अपार धन था । सम्राट शाहजहाँ को सब सुविधाएँ प्राप्त थीं ।


शाहजहाँ ने सन् 1648 में आगरा की बजाय दिल्ली को राजधानी बनाया ; किंतु उसने आगरा की कभी उपेक्षा नहीं की । उसके प्रसिद्ध निर्माण कार्य आगरा में भी थे । शाहजहाँ का दरबार सरदार सामंतों, प्रतिष्ठित व्यक्तियों तथा देश−विदेश के राजदूतों से भरा रहता था । उसमें सब के बैठने के स्थान निश्चित थे । जिन व्यक्तियों को दरबार में बैठने का सौभाग्य प्राप्त था, वे अपने को धन्य मानते थे ; और लोगों की दृष्टि में उन्हें गौरवान्वित समझा जाता था । जिन विदेशी सज्ज्नों को दरबार में जाने का सुयोग प्राप्त हुआ था, वे वहाँ के रंग−ढंग, शान−शौकत और ठाट−बाट को देख कर आश्चर्य किया करते थे। तख्त-ए-ताऊस शाहजहाँ के बैठने का राजसिंहासन था ।

धार्मिक नीति

सम्राट अकबर ने जिस उदार धार्मिक नीति के कारण अपने शासन काल में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की थी, वह शाहजहाँ के काल में नहीं थी । उसमें इस्लाम के प्रति कट्टरता और कुछ हद तक धर्मान्धता थी । वह मुसलमानों में सुन्नियों के प्रति पक्षपाती और शियाओं के लिए अनुदार था । हिन्दुओं के प्रति सहिष्णुता एवं उदारता नहीं थी । शाहजहाँ ने खुले आम हिन्दू धर्म के प्रति विरोध भाव प्रकट नहीं किया तथापि वह अपने अंत:करण में हिन्दूओं के प्रति असहिष्णु एवं अनुदार था ।

दारा शिकोह

शाहजहाँ के चार पुत्र थे, जिनमें दारा शिकोह सब से बड़ा था । उससे छोटे क्रमश: शुज़ा और मुराद थे । बड़ा होने के कारण दारा राज्य का उत्तराधिकारी था । शाहजहाँ भी उसे अपने बाद बादशाह बनाना चाहता था; अत: वह सदैव उसे अपने पास रखता था । दारा प्राय: राजधानी में रह कर अपने पिता को शासन कार्य में सहयोग देता था । सन् 1654 के बाद शासन में उसका अधिक हाथ रहा था । दारा अपने पितामह अकबर की भाँति सहिष्णु एवं उदार था । वह धार्मिक विद्वान भी था । उसे सूफियों और वेदांतियों से बहुत प्रेम था । उसने हिन्दुओं के धर्मग्रंथो का अच्छा अध्ययन किया था, और वह हिन्दुओं के प्रति सहानुभूति रखता था । उसका दरबार हिन्दू पंडितों, भक्त कवियों और विद्वानों से भरा रहता था । मथुरा का परगना उसकी जागीर में था ; अत: उसके उदार विचारों के कारण उस काल में ब्रज की स्थिति में सुधार दिखलाई दिया था। उसने श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर बने हुए केशवराय जी के मंदिर के लिए एक संगीन करकरहटा भेंट किया था

शाहजहाँ का अंतिम काल

सन् 1657 में शाहजहाँ बहुत बीमार हो गया था । उस समय उसने दारा को अपना विधिवत् उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था । दारा भी राजधानी में रह कर अपने पिता की सेवा−सुश्रूषा और शासन की देखभाल करने लगा । शाहजहाँ के शेष तीनों पुत्र भी राज्य प्राप्ति के इच्छुक थे । वे अपने पिता की बीमारी का समाचार सुन कर अपनी−अपनी सेनाएँ लेकर राजधानी की ओर चल पड़े, ताकि वे राज्य प्राप्ति के लिए संघर्ष कर सकें । दारा ने उन तीनों का सामना करने के लिए सेनाएँ भेजीं । औरंगजेब ने मुराद को अपनी ओर मिला लिया और उन दोनों की सम्मिलित फौज ने दारा की सेना को पराजित कर दिया । फिर उन्होंने शुज़ा को भी भागने के लिए बाध्य किया । उसके बाद औरंगजेब ने मुराद को अधिक शराब पिला कर बेहोशी की दशा में कैद कर लिया और बीमार पिता को गद्दी से हटा कर स्वयं बादशाह बनने के लिए दिल्ली की ओर चल पड़ा ।

दारा का अंत

दारा हताश होकर राजधानी से भाग गया ; किंतु उसे शीघ्र ही पकड़ कर औरंगजेब के सामने लाया गया । उसके दोनों बेटों सुलेमान और सिपहर को गिरफ्तार कर कैदी बना लिया गया । इस प्रकार औरंगजेब की छल−फरेब भरी कुटिल नीति के कारण दारा राजगद्दी से ही वंचित नहीं हुआ, वरन् अपने पुत्रों सहित असमय ही मार डाला गया । दारा को मारने से पहिले बड़ा अपमानित किया गया था । दारा का सबसे बड़ा अपराध यह था कि वह उदार धार्मिक विचारों का था ; इसलिए वह काफ़िर था और काफ़िर की सजा मौत होती है । फलत: उसे कत्ल किया गया और उसका सिर काट कर औरंगजेब की सेवा में भेज दिया गया । औरंगजेब ने हुक्म दिया कि इस अभागे को हुमायूँ के मकबरे में दफना दो । इस प्रकार औरंगजेब ने अपने सभी भाई−भतीजों को मारा और अपने वृद्ध पिता को तख्त-ए- ताऊस से हटा कर आगरा के किले में कैद कर लिया और ख़ुद सन् 1658 में मुग़ल सम्राट बन बैठा ।

शाहजहाँ की मृत्यु

शाहजहाँ 8 वर्ष तक आगरा के किले के शाहबुर्ज में कैद रहा । उसका अंतिम समय बड़े दु:ख मानसिक क्लेश में बीता था । उस समय उसकी प्रिय पुत्री जहाँआरा उसकी सेवा के लिए साथ रही थी । शाहजहाँ ने उन वर्षों को अपने वैभवपूर्ण जीवन का स्मरण करते और ताजमहल को अश्रुपूरित नेत्रों से देखते हुए बिताये थे । अंत में जनवरी, सन् 1666 में उसका देहांत हो गया । उस समय उसकी आयु 74 वर्ष की थी । उसे उसकी प्रिय बेगम के पार्श्व में ताजमहल में ही दफनाया गया था ।

नीति परिवर्तन

मुग़ल सम्राट् अकबर के शासन काल में धार्मिक उदारता और सहिष्णुता की जो नीति अपनायी गई थी; और जो कुछ सीमा तब जहाँगीर और शाहजहाँ के शासन काल में भी कायम रही थी, वह शाहजहाँ के मरते ही समाप्त हो गई । इस प्रकार एक मुग़ल युग का अंत हुआ ; और दूसरा आंरभ हुआ । वह युग ब्रज के लिए बड़े ही दुर्भाग्य का था । उसका कारण औरंगजेब का शासन था ==औरंगजेब (शासन काल सन् 1658 सन् 1707 )== औरंगजेब अपने सगे भाई−भतीजों की निर्ममता पूर्वक हत्या और अपने वृद्ध पिता को गद्दी से हटा कर सम्राट बना था । उसने शासन सँभालते ही अकबर के समय से प्रचलित नीति में परिवर्तन किया । उदारता और सहिष्णुता के स्थान पर उसने मज़हबी कट्टरता को अपनाया और वह मुग़ल साम्राज्य को एक कट्टर इस्लामी सल्तनत बनाने की पूरी् कोशिश करने लगा । औरंगजेब ने अपनी नई नीति को कार्यान्वित करने के लिए प्रशासन के पदों से उन कर्मचारियों को हटा दिया, जिनमें थोड़ी भी धार्मिक उदारता थी या जिन्हें हिन्दुओं से सहानुभूति थी । जिन राजाओं की वीरता और स्वामिभक्ति के कारण मुग़ल साम्राज्य इतना विस्तृत और समृद्धिशाली बना था, उन्हें वह सदा संदेह दृष्टि से देखा करता था । जिस समय वह सम्राट बना था, उस समय शासन और सेना में कितने ही बड़े−बड़े पदों पर राजपूत राजा नियुक्त थे । वह उनसे घृणा करता था और उनका अहित करने का कुचक्र रचता रहता था । अपनी हिन्दू विरोधी नीति की सफलता में उसे जिन राजाओं की ओर से बाधा जान पड़ती थी, उनमें आमेर नरेश मिर्जा राजा जयसिंह और जोधपुर के राजा यशवंतसिंह प्रमुख थे । उन दोनों का मुग़ल सम्राटों से पारिवारिक संबंध होने के कारण राज्य में बड़ा प्रभाव था । इसलिए औरंगजेब को प्रत्यक्ष रूप से उनके विरूद्ध कोई कार्यवाही करने का साहस नहीं होता था ; किंतु वह उनका अहित करने का नित्य नई चालें चलता रहता था। औरंगजेब की ओर से मथुरा का फौजदार अब्दुलनवी नामक एक कट्टर मुसलमान था । सन् 1669 में गोकुल सिंह जाट के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया । महावन परगना के सिहोरा गाँव में उसकी विद्रोहियों से मुठभेड़ हुई जिसमें अब्दुलनबी मारा गया और मु्ग़ल सेना बुरी तरह हार गई ।


औरंगजेब ने उन्हें दबाने के लिए कई बार सेना भेजी; किंतु उसे सफलता नहीं मिली । वह नवंबर, सन् 1669 में खुद सेना सहित दिल्ली से मथुरा की ओर बढ़ा । उसने अपने एक सेनापति हसनअली को मथुरा का फौजदार नियुक्त कर आदेश दिया कि वह विद्रोहियों को कुचल दे और ब्रज के हिन्दुओं को बर्बाद कर दे । हसनअली ने शाही सेना के साथ गोकुल को उसने साथियों सहित घेर लिया और उन पर आक्रमण कर दिया । गोकुल की सेना शाही सेना की तुलना में बहुत कम थी; फिर भी उसने कड़ा मुकाबला किया । अंत में गोकुला की हार हुई । उस युद्ध में अनेक विद्रोही मारे गये, और बहुत से पकड़ लिये गये । गोकुला को बड़ी निर्दयतापूर्वक मारा गया ; और पकड़े हुए लोगों को मुसलमान बनाया गया । इस प्रकार उस विद्रोह का अंत हुआ । इस घटना के बाद औरंगजेब ने ब्रज में ऐसा दमन−चक्र चलाया कि यहाँ सुल्तानी काल से भी बुरी स्थिति हो गई ।

ब्रज के स्थानों का नाम परिवर्तन

औरंगजेब ने ब्रज संस्कृति को आघात पहुँचाने के लिये ब्रज के नामों को परिवर्तित किया । मथुरा, वृंदावन, परासोली (गोर्वधन) को क्रमश: इस्लामाबाद, मेमिनाबाद और मुहम्मदपुर कहा गया था । वे सभी नाम अभी तक सरकारी कागजों में रहे आये हैं, जनता में कभी प्रचलित नहीं हुए ।

जजिया कर

ब्रज में आने वाले तीर्थ−यात्रियों पर भारी कर लगाया गया, मंदिर नष्ट किये लगे, जजिया कर फिर से लगाया गया और हिन्दुओं को मुसलमान बनाया । उस समय के कवियों की रचनाओं में औरंगज़ेब के अत्याचारों का उल्लेख इस प्रकार है-

  • जब तें साह तख्त पर बैठे । तब तें हिन्दुन तें उर ऐंठे ॥

महँगे कर तीरथन लगाये । देव-देवालै निदरि ढहाए ॥

घर-घर बाँधि जेजिया लीन्हें । अपने मन भाये सब कीन्हे ॥ ( लाल कृत "छात्र प्रकाश" )

  • देवल गिरावते फिरावते निसान अली, ऐसे डूबे राव-राने सबी गये लब की ॥ (भूषण कवि )

तोड़े गये मंदिरों की जगह पर मस्ज़िद और सराय बनाई गईं तथा मकतब और कसाईखाने का कायम किये गये । हिन्दूओं के दिल को दुखाने के लिए गो−वध करने की खुली टूट दे दी गई।

धर्माचार्यों का निष्क्रमण

जब ब्रज में इतना अत्याचार होने लगा, तब यहाँ के धर्मप्राण भक्तजन अपनी देव−मूर्तियाँ और धार्मिक पोथियों को लेकर भागने का विचार करने लगे । किंतु कहाँ जायें, यह उनके लिए बड़ी समस्या थी । वे तीर्थ स्थानों में रह कर अपना धर्म−कर्म करना चाहते थे ; किंतु यहाँ रहना उनके लिए असंभव हो गया था । महात्मा 'सूर किशोर' ने उस समय के भक्तों की मनोस्थिति को इस प्रकार व्यक्त किया है-

जहँ तीरथ तहँ जमन-बास, पुनि जीविका न लहियै । असन-बसन जहँ मिलै, तहाँ सतसंगन पैयै ॥

राह चोर-बटमार कुटिल, निरधन दुख देहीं । सहबासिन सन बैर, दूर कहुँ बसै सनेही ॥

कहैं 'सूर किसोर' मिलैं नहीं, जथा जोग चाही जहाँ । कलिकाल ग्रसेउ अति प्रबल हिय, हाय राम ! रहियै कहाँ ? (मिथिला माहात्म्य, छ्न्द- 1 )


उस समय कुछ प्रभावशाली हिन्दू राज्यों की स्थिति औरंगजेब के मज़हबी तानाशाही से मुक्त थी ; अत: ब्रज के अनेक धर्माचार्य एवं भक्तजन अपने परिकर के साथ वहाँ जा कर बसने लगे । उस अभूतपूर्व धार्मिक निष्क्रमण के फलस्वरूप ब्रज में गोवर्धन और गोकुल जैसे समृद्धिशाली धर्मस्थान उजड़ गये, और वृंदावन शोभाहीन हो गया था । औरंगजेब के शासन में ब्रज की जैसी बर्बादी हुई, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता है ।

जज़िया कर का पुनप्रचलन

जो लोग मुसलमान नहीं होना चाहते थे, उनसे मुस्लिम शासन में जज़िया नाम से कर वसूल किया जाता था । यह कर अकबर के शासन में हटा दिया गया था । तब से लेकर औरंगजेब के शासन के आरंभिक काल तक वह बंद रहा । जब मिर्जा राजा जयसिंह के बाद महाराज यशवंत सिंह का भी देहांत हो गया, तब औरंगजेब ने निरंकुश होकर सन् 1679 में फिर से इस कर को लगाया । इस अपमानपूर्ण कर का हिन्दुओं द्वारा विरोध किया गया । मेवाड़ के वृद्ध राणा राजसिंह ने इसके विरोध में औरंगजेब को उपालंभ देते हुए एक पत्र लिखा था, जिसका उल्लेख टॉड कृत राजस्थान नामक ग्रंथ में हुआ है ।

मथुरा की दुर्दशा

औरंगजेब के अत्याचारों से मथुरा की जनता अपने पैतृक आवासों को छोड़ कर निकटवर्ती हिन्दू राजाओं के राज्यों में जाकर बसने लगी थी । जो रह गये थे, वे बड़ी कठिन परिस्थिति में अपने जीवन बिता रहे थे । उस समय में मथुरा का कोई महत्व नहीं था। उसकी धार्मिक के साथ ही साथ उसकी भौतिक समृद्धि भी समाप्त हो गई थी । प्रशासन की दृष्टि से उस समय में मथुरा से अधिक महावन, सहार और सादाबाद का महत्व था, वहाँ मुसलमानों की संख्या भी अपेक्षाकृत अधिक थी ।

औरंगजेब की मृत्यु

औरंगजेब के अन्तिम समय में दक्षिण में मराठों का ज़ोर बहुत बढ़ गया था । उन्हें दबाने में शाही सेना को सफलता नहीं मिल रही थी । इसलिए सन् 1683 में औरंगजेब स्वयं सेना लेकर दक्षिण गया । वह राजधानी से दूर रहता हुआ अपने शासन−काल के लगभग अंतिम 25 वर्ष तक उसी अभियान में रहा । 50 वर्ष तक शासन करने के बाद उसकी मृत्यु दक्षिण के अहमदनगर में 20 फरवरी सन् 1707 ई0 में हो गई थी । उसकी नीति ने इतने विरोधी पैदा कर दिये, जिस कारण मुग़ल साम्राज्य का अंत ही हो गया । वतर्मान काल के विद्वानों ने औरंगजेब की नीति की आलोचना करते हुए उसके दुष्परिणामों का उल्लेख किया है । प्रो0 कादरी के लिखा है, − "बाबर ने मुग़ल राज्य के भवन के लिए मैदान साफ किया, हुमायूँ ने उसकी नीव डाली, अकबर ने उस पर सुंदर भवन खड़ा किया, जहाँगीर ने उसे सजाया−सँवारा, शाहजहाँ ने उसमें निवास कर आंनद किया; किंतु औरंगजेब ने उसे विध्वंस कर दिया था ।"डा. रामधारीसिंह का कथन है, − "बाबर से लेकर शाहजहाँ तक मुगलों ने भारत की जिस सामाजिक संस्कृति को पाल−पोस कर खड़ा किया था, उसे औरंगजेब ने एक ही झटके से तोड़ डाला और साथ ही साम्राज्य की कमर भी तोड़ दी । वह हिन्दुओं का ही नही सूफियों का भी दुश्मन था और सरमद जैसे संत को उसने सूली पर चढ़ा दिया।"औरंगजेब के पुत्रों में बड़े का नाम मुअज़्ज़म और छोटे का नाम आज़ाम था । मुअज़्ज़म औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुग़ल सम्राट हुआ ।

आज़मशाह

यह औरंगज़ेब का छोटा बेटा था । वह आरंभ से ही ब्रजभाषा साहित्य का प्रेमी और पोषक था । उसे औरंगजेब की हिन्दू विरोधी नीति में कोई रूचि नहीं थी । उसने ब्रजभाषा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए मीरजा खाँ नामक एक विद्वान से फारसी भाषा में ग्रंथ लिखवाया था, जिसका नाम "तोहफतुल हिन्द" (भारत का उपहार ) रखा गया था । वस्तुत: वह ब्रजभाषा का विश्वकोश है जिसमें पिंगल, रस अलंकार, श्रृंगार,रस, नायिकाभेद, संगीत, सामुद्रिक शास्त्र, कोष, व्याकरण आदि विषयों का विवरण किया गया है । आज़मशाह इस ग्रंथ के द्वारा ब्रजभाषा साहित्य में पारंगत हुआ था । आज़म ने 'निवाज कवि' को आश्रय प्रदान कर उससे कालिदास के प्रसिद्ध नाटक 'अभिज्ञान शाकुंतल' का ब्रजभाषा में अनुवाद कराया था । उसी की आज्ञा से 'बिहारी सतसई' का क्रमबद्ध संपादन कराया गया था । औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्रों में राज्याधिकार के लिए जो भीषण युद्ध हुआ था, उसमें आज़मशाह पराजित होकर मारा गया और उसका बड़ा भाई मुअज़्ज़शाह बहादुरशाह के नाम से मुग़ल सम्राट हुआ ।

परवर्ती मुग़ल सम्राट (सन् 1707−1748 )

औरंगजेब की मृत्यु के बाद जितने मुग़ल सम्राट हुए, सभी शक्तिहीन तथा अयोग्य शासक थे । वे नाम के सम्राट थे, उनके साम्राज्य का क्षेत्रफल घट गया, और उस पर भी उसका नियंत्रण नहीं रहा था । उस काल में दक्षिण के मराठों का प्रभाव बहुत बढ़ गया था । राजस्थान के राजपूत राजा और ब्रज प्रदेश के जाट सरदार शक्ति बढ़ा रहे थे । उत्तर में सिक्खों और रूहेलों का ज़ोर बढ़ रहा था । इस कारण मुग़ल सम्राटों के प्रभाव में बड़ी कमी हो गई थी । उस काल के कुछ प्रमुख मुग़ल सम्राट थे,

बहादुरशाह(शासन काल सन् 1707 से 1712 तक )

वह मुग़ल सम्राट औरंगजेब का बड़ा पुत्र था । उसका नाम मुअज़्ज़म था, और अपने छोटे भाई आज़म को पराजित कर बहादुरशाह के नाम से मु्गल सम्राट हुआ था । उस समय उसकी आयु 64 वर्ष थी । वह शरीर से अशक्त और स्वभाव से दुर्बल था । अत: शासन व्यवस्था पर नियंत्रण करने में असमर्थ रहा । सन् 1712 में उसकी मृत्यु हो गई । उसे दिल्ली में दफनाया गया था । बहादुरशाह के पश्चात् उसका पुत्र जहाँदारशाह बादशाह हुआ । वह बड़ा विलासी और अयोग्य शासक था ; अपने भतीजे फरूख़सियर द्वारा सन् 1713 में मार डाला गया । उसके बाद फरूख़सियर मुग़ल सम्राट हुआ ।

फरूख़सियर (सन् 1713−1718 )

उसके शासन काल में 2 सैयद बंधु अब्दुल्ला और हुसैनअली मुग़ल शासन के प्रधान सूत्रधार थे । वे इतने प्रभावशाली और शक्तिसम्पन्न थे कि जिसे चाहते, उसे बादशाह बना देते ; और जब चाहते, उसे तख़्त से उतार देते थे । उन्होंने अपनी कूटनीतिज्ञता से अनेक मुग़ल सरदारों के साथ ही साथ कुछ हिन्दु सामंतों का भी सहयोग प्राप्त कर लिया था । अकबर की नीति के अनुकरण का ढोंग करते हुए वे हिन्दू रीति−रिवाजों का पालन करते थे और उनके व्रत−उत्सवों को मनाते थे । बसंत और होली पर वे हिन्दुओं के साथ मिल कर रंग−गुलाल खेलते थे । अंत में मुहम्मदशाह मुग़ल सम्राट हुआ ।

मुहम्मदशाह

अंतिम मुग़ल सम्राटों में मुहम्मदशाह (शासन काल सन् 1719−1748 ) का नाम उल्लेखनीय है । वह आरामतलब, विलासी एवं शक्तिहीन होने के कारण शासन कार्य के अयोग्य था, किंतु राग−रंग और गायन−वादन का बड़ा प्रेमी था । उसने शासन के अधिकार अपने मंत्रियों को सौंप दिये थे और वह स्वयं दिन−रात गायन में लगा रहता था । उसके शासन में प्रबंध की शिथिलता के कारण उपद्रव होने लगे थे,राज्य में अव्यवस्था और अशांति की स्थिति हो गई थी ।

सवाई राजा जयसिंह

मुहम्मदशाह के शासन काल में आमेर का सवाई राजा जयसिंह बड़ा प्रभावशाली हिन्दू नरेश था । मुग़ल सम्राट मुहम्मदशाह ने अपने साम्राज्य की शासन−व्यवस्था सुदृढ़ एवं राज−प्रबंध को ठीक करने के लिए जयसिंह का सहयोग प्राप्त किया और उसे आगरा का सूबेदार बना दिया । मुहम्मदशाह ने जयसिंह को 'सवाई महाराज' की पदवी दी थी । जयसिंह नाम का उसका पूर्वज मिर्जा राजा कहलाता था । यह जयसिंह सवाई राजा के नाम से प्रसिद्ध हुआ । वह सन् 1720 से 1726 तक आगरा का सूबेदार रहा । वह मुग़ल दरबार का सबसे शक्तिशाली सामंत था । मथुरा−वृन्दावन सहित सारा ब्रजमंडल उसके प्रशासन में था । उसने हिन्दुओं की स्थिति को सुधारने और ब्रज के महत्व को बढ़ाने का प्रयत्न किया था । अपने प्रभावों से उसने मुहम्मदशाह से कई राजकीय सुविधाएँ प्राप्त की थीं । उसने अपनी पुत्री का विवाह सन् 1723 की श्रीकृष्ण−जन्माअष्टमी पर मथुरा में ही बड़ी धूमधाम से की थी । सवाई जयसिंह ने जहाँ मुग़ल साम्राज्य की राजकीय व्यवस्था को ठीक किया था वहाँ हिन्दुओं की शोचनीय स्थिति को सुधारने के लिए मुहम्मदशाह से अनेक सुविधाएँ भी प्राप्त की थीं । सन् 1727 में सवाई जयसिंह अवकाश लेकर अपने राज्य आमेर में चला गया, जहाँ वह सन् 1732 तक रहा । उस समय में उसने जयपुर नगर का निर्माण किया, ज्योतिष की अनेक वेधशालाएँ बनवाईं । सन् 1727 में मुहम्मदशाह ने फिर उसे मालवा का सूबेदार बनाया ; ताकि वह मराठों को उत्तर की ओर बढ़ने से रोक सके । सन् 1732 में मराठों के तत्कालीन पेशवा बाजीरात से संधि हो गई थी और वह मालवा से जयपुर लौट गया । उसने जयपुर नगर को विद्या−कला तथा उद्योग वाणिज्य का प्रसिद्ध केन्द्र बना दिया था । उसका देहावसान सन् 1743 में हुआ था ।

नादिरशाह का आक्रमण

मुहम्मदशाह के शासन काल की दु:खद घटना नादिरशाह का भारत पर आक्रमण था । मुग़ल शासन से अब तक किसी बाहरी शत्रु का देश पर आक्रमण नहीं हुआ था; किंतु उस समय दिल्ली की शासन−सत्ता दुर्बल हो गई थी । ईरान के महत्वाकांक्षी लुटेरे शासक नादिरशाह ने भारत पर आक्रमण करने का साहस किया था । उसने मुग़ल सम्राट द्वारा शासित काबुल−कंधार प्रदेश पर अधिकार कर पेशावर स्थित मुग़ल सेना को नष्ट कर दिया था । मुहम्मदशाह ने नादिरशाह के आक्रमण को हँसी में उड़ा दिया । उसकी आँखे तब खुली जब नादिरशाह की सेना पंजाब के करनाल तक आ पहुँची । मुहम्मदशाह ने अपनी सेना उसके विरूद्ध भेजी ; किंतु 24 फरवरी, 1739 में उसकी पराजय हो गई । नादिरशाह ने पहिले 2 करोड़ रूपया हर्जाना माँगा, उसके स्वीकार होने पर वह 20 करोड़ माँगने लगा । नादिरशाह ने दिल्ली को लूटने और नर संहार करने की आज्ञा दे दी। उसके बर्बर सैनिक राजधानी में घुसे और लूटमार करने लगे । दिल्ली के हजारों नागरिक मारे गये, वहाँ भारी लूट की गई । इस लूट में नादिरशाह को अपार दौलत मिली । उसे 20 करोड़ की बजाय 30 करोड़ रूपया नकद मिला । इसके अतिरिक्त जवाहरात, बेगमों के बहुमूल्य आभूषण, सोने चाँदी के अगणित बर्तन तथा अन्य कीमती वस्तुएँ उसे मिली थी । इनके साथ ही साथ दिल्ली की लूट में उसे कोहनूर हीरा और शाहजहाँ का 'तख्त-ए- ताऊस' भी मिला था । वह बहुमूल्य मयूर सिंहासन अब भी ईरान में है, या नहीं इसका ज्ञान किसी को नहीं है ।


नादिरशाह प्राय: दो महीने तक दिल्ली में लूटमार करता रहा । मुगलों की राजधानी उजाड़ और बर्बाद हो गई थी । जब वह यहाँ से गया, तब करोड़ों की संपदा के साथ ही साथ वह 1,000 हाथी, 7,000 घोड़े, 10,000 ऊँट, 100 खोजे, 130 लेखक, 200 संगतराश, 100 राज और 200 बढ़ई भी अपने साथ ले गया था । ईरान पहुँच कर उसे तख्त-ए-ताऊस पर बैठ कर बड़ा शानदार दरबार किया । वह अधिक समय तक जीवित नहीं रहा । उसके कुकृत्यों का प्रायश्चित उसके सैनिकों के विद्रोह के रूप में हुआ था, जिसमें वह मारा गया । नादिरशाह की मृत्यु सन् 1747 में हुई थी । मुहम्मदशाह नादिरशाह के आक्रमण के बाद भी कई वर्ष तक जीवित रहा था, किंतु उसका शासन दिल्ली के आस−पास के भाग तक ही सीमित रह गया था । मुग़ल साम्राज्य के अधिकांश सूबे स्वतंत्र हो गये और विभिन्न स्थानों में साम्राज्य विरोधी शक्तियों का उदय हो गया था । मुहम्मदशाह उन्हें दबाने में असमर्थ था । वह स्वयं अपने मंत्रियों और सेनापतियों पर निर्भर था । उसकी मृत्यु 26 अप्रैल, सन् 1748 में हुई थी । इस प्रकार उसने 20 वर्ष तक शासन किया था ।


मुहम्मदशाह के बाद भी दिल्ली में कई मुग़ल सम्राट हुए, किंतु वे नाम मात्र के बादशाह थे । उनके नाम क्रमश: अहमदशाह (सन् 1748−1754 ), आलमग़ीर द्वितीय (सन् 1754−1759 ), शाहआलम (सन् 1759−1806 ), मुहम्मद अकबर (सन् 1806−1837 ) और बहादुरशाह (सन् 1837−1858 ) मिलते हैं । इस प्रकार मुग़ल साम्राज्य का अस्तित्व बहादुरशाह तक बना रहा था ; किंतु ब्रज की राजनैतिक हलचलों से मुहम्मदशाह को ही अंतिम मुग़ल सम्राट कहा जा सकता है । मुहम्मदशाह के परवर्ती तथाकथित मुग़ल शासकों के समय में जाट−मराठा अत्यंत शक्तिशाली हो गये थे । फलत: सन् 1748 से 1826 तक की कालावधि को ब्रज के इतिहास में 'जाट−मराठा काल' कहा जाता है ।