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==विविध रूपों में मानव का सफल चित्रण== | ==विविध रूपों में मानव का सफल चित्रण== | ||
− | कुषाणकाल में मनुष्य और पशुओं के सम्मुख चित्रण की पुरानी परम्परा छोड़ दी | + | कुषाणकाल में मनुष्य और पशुओं के सम्मुख चित्रण की पुरानी परम्परा छोड़ दी गयी। साथ ही साथ मानव शरीर के चित्रण की क्षमता भी बढ़ गई। विशेषत: रमणी के सौंदर्य को रूप-रूपान्तरों में अंकित करने में [[मथुरा]] का कलाकार पूर्णत: सफल रहा। स्तन्य की ओर संकेत करने वाली स्नेहमयी देवी झुनझुना, दिखलाकर बच्चों का मनोरंजन करने वाली माता, विविध प्रकार के अलंकारों से अपने को मण्डित करने वाली युवतियां, धनराशि के समान श्याम केशकलाप को निचोड़ते हुए उनके कारण मोर के मन में उत्सुकता जगाने वाली प्रेमिकाएं, उन्मुक्त आकाश के नीचे निर्झरस्नान करने वाली मुग्धाएं, फूलों को चुनने वाली अंगनाएं, कलशधारणी गोपवधू, दीपवाहिका, विदेशी दासी, मद्यपान से मतवाली वेश्या, दर्पण से प्रसाधन करने वाली रमणी आदि अनेकानेक रूपों में नारी मथुरा के कलाकारों के द्वारा पूर्ण सफलता के साथ दिखलाया गया। |
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[[चित्र:Lion-Palm-Yaksha-Capitol.jpg|सिंह - ताल - यक्ष ध्वज <br /> Lion-Palm-Yaksha-Capital <br />प्राप्ति स्थान-सौंख , राजकीय संग्रहालय, [[मथुरा]]|thumb|250px]] | [[चित्र:Lion-Palm-Yaksha-Capitol.jpg|सिंह - ताल - यक्ष ध्वज <br /> Lion-Palm-Yaksha-Capital <br />प्राप्ति स्थान-सौंख , राजकीय संग्रहालय, [[मथुरा]]|thumb|250px]] | ||
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− | + | पुरुषों के चित्रण में भी वे पीछे नहीं थे। धन संग्रह के प्रतीक बड़ी तोंद वाले कुबेर, ईरानी वेश में सूर्य, राजकीय वेश में कुषाण दरबारी, विदेशी पहरेदार, फीतेदार चप्पल पहने हुए सैनिक, भोले-भोले उपासक, विविध प्रकार की पगड़ियां बांधे हुए पुरुष, बहुमूल्य वस्त्रालंकारों से मंडित बोधिसत्त्व आदि छोटे-बड़े वर्ग के पुरुष और [[देवता]] बड़ी ही कुशलता से अंकित किये गये हैं। | |
− | मूर्तियों के अंकन में परिष्कार कुषाणकाल की मूर्तियां शुंग काल के समान चपटी न होकर गहराई के साथ उकेरी गई | + | मूर्तियों के अंकन में परिष्कार कुषाणकाल की मूर्तियां शुंग काल के समान चपटी न होकर गहराई के साथ उकेरी गई हैं। प्रारम्भिक अवस्था की तुलना में अब आकृतियों की ऊंचाई बढ़ जाती है।<balloon title="स्टेला क्रेमरिच, Indian Sculpture,कलकत्ता, 1933,पृ. 40-43" style="color:blue">*</balloon> यहाँ तक कि वे कहीं-कहीं पृष्ठभूमि की सारी ऊंचाई छा जाती हैं। उसी अनुपात में निम्नकोटि की आकृतियों की ऊंचाई में भी बृद्धि होती है। मथुरा की प्रारम्भिक कलाकृतियों की स्थूलता और भौंड़ापन कुषाणकाल में पहुंचते-पहूंचते मांसल और सुडौल शरीर में बदल जाता है। वस्त्रों के पहरावे में भी सुरूचि की मात्रा अधिक हो जाती है। अब उत्तरीय चपटे रूप में नहीं पड़ता अपितु मोटी घुमावदार रस्सी के रूप में दिखालाई पड़ता है।<balloon title="वही।" style="color:blue">*</balloon> |
− | प्रारम्भिक कुषाणकाल की मूर्तियों में केवल बांया कंधा ढॅका रहता है, और कमर के ऊपर वाला वस्त्र का भाग शरीर से सटा हुआ कुछ पारदर्शक-सा रहता है, नीचे वाले भाग की ओर अनुपातत: कम ध्यान दिया गया | + | प्रारम्भिक कुषाणकाल की मूर्तियों में केवल बांया कंधा ढॅका रहता है, और कमर के ऊपर वाला वस्त्र का भाग शरीर से सटा हुआ कुछ पारदर्शक-सा रहता है, नीचे वाले भाग की ओर अनुपातत: कम ध्यान दिया गया है। जांघ और पैरों की बनावट में एक प्रकार की कड़ाई दिखलाई पड़ती है।<balloon title="वही ; Age of the Imperial Unity, भाग 2,पृ.522-23" style="color:blue">*</balloon> कुषाण काल के मध्य में यह दोष हट जाता है और बहुधा मूर्तियां एक घुटना किंचित मोड़कर खड़ी दिखलायी पड़ती है।<balloon title="सं. सं.00 एफ 6,00' ई॰ 24; 17'1325 आदि" style="color:blue">*</balloon> इस काल के मूर्ति निर्माण की दूसरी विशेषता मूर्तियों का आगे और पीछे दोनों ओर से गढ़ा जाना है। इस काल की बहुसंख्यक मूर्तियां ऐसी ही हैं। सम्मुख भाग के समान कलाकार ने पृष्ठ भाग की ओर भी ख़ूब ध्यान दिया है। इसकी दो पद्धतियां थीं, या तो पीछे की ओर पीठ पर लहराने वाला केशकलाप, आभरण उत्तरीयादि वस्त्र, आदि दिखलाये जाते थे अथवा पशु-पक्षियों से युक्त वृक्ष अंकित किये जाते थे।<balloon title="अशोक एवं कदम्ब के वृक्ष तथा उन पर स्थित गिलहरी और शुक,सं. सं. 12.264;00' एफ 2,33.2328" style="color:blue">*</balloon> |
− | 3. लम्बी कथाओं के अंकन में नवीनताएं<balloon title="आनन्द कुमारस्वामी, HIIA.,पृ. 65-69,पादटिप्पणी 1,पृ.66" style="color:blue">*</balloon> [[जातक कथा|जातक कथाओं]] के समान अनेक दृश्योंवाली कथाएं भरहूत तथा [[साँची]] में भी अंकित की गई थीं, परन्तु वहां पद्धति यह थी कि एक ही चौखट के भीतर अगल-बगल या तले ऊपर कई दृश्यों को दिखलाया जाता था, पर अब प्रत्येक दृश्य के लिए अलग-अलग चौखट दी जाने | + | 3. लम्बी कथाओं के अंकन में नवीनताएं<balloon title="आनन्द कुमारस्वामी, HIIA.,पृ. 65-69,पादटिप्पणी 1,पृ.66" style="color:blue">*</balloon> [[जातक कथा|जातक कथाओं]] के समान अनेक दृश्योंवाली कथाएं भरहूत तथा [[साँची]] में भी अंकित की गई थीं, परन्तु वहां पद्धति यह थी कि एक ही चौखट के भीतर अगल-बगल या तले ऊपर कई दृश्यों को दिखलाया जाता था, पर अब प्रत्येक दृश्य के लिए अलग-अलग चौखट दी जाने लगी। उदाहरणार्थ मथुरा से प्राप्त एक द्वार स्तंभ पर अंकित नंद-सुन्दरी की कथा<balloon title="लखनऊ संग्रहालय संख्या जे. 533।" style="color:blue">*</balloon> कई चौखटों में इस प्रकार सजाई गई है कि उससे सम्पूर्ण द्वार-स्तंभ सुशोभित हो सके। चौखटें अलग-अलग होने के कारण उनके भीतर बनी मूर्तियों के आकार भी सरलता से ऊंचे बनाये जा सके। |
==प्राचीन और नवीन अभिप्रायों की मिलावट== | ==प्राचीन और नवीन अभिप्रायों की मिलावट== | ||
[[चित्र:kuber-1.jpg|आसवपायी कुबेर <br />Bacchanalian Group <br />प्राप्ति स्थान-पाली खेडा, [[मथुरा]] , राजकीय संग्रहालय, मथुरा|250px|thumb]] | [[चित्र:kuber-1.jpg|आसवपायी कुबेर <br />Bacchanalian Group <br />प्राप्ति स्थान-पाली खेडा, [[मथुरा]] , राजकीय संग्रहालय, मथुरा|250px|thumb]] | ||
− | मथुरा के कलाकारों ने परम्परा से चले आने वाले वृक्ष, लता और पशु-पक्षियों के अभिप्रायों को अपनाते हुए साथ ही अपनी प्रतिभा से देशकाल के अनुरूप नवीन अभिप्रायों का सृजन | + | मथुरा के कलाकारों ने परम्परा से चले आने वाले वृक्ष, लता और पशु-पक्षियों के अभिप्रायों को अपनाते हुए साथ ही अपनी प्रतिभा से देशकाल के अनुरूप नवीन अभिप्रायों का सृजन किया। उसका फल यह हुआ कि मथुरा की कला में प्रकृति और उसके अनेक रूपों का अंकन मिलता है। यहाँ विविध वृक्ष, लताएं, मगर, मछलियां आदि जलचर, मोर, हंस, तोते आदि पक्षी व गिलहरियां, बन्दर, हाथी, शरभ, सिंह आदि छोटे-बड़े पशु सभी दिखलाई पड़ते हैं। पुष्पों में यदि केवल कमल और कमल-लता को ही लें तो उसके अनेक रूप नहीं है। कुषाणकालीन कला में दृष्टिगोचर होने वाले अभिप्रायों को दो वर्गों में बाटा जा सकता है:<balloon title="आनन्द कुमारस्वामी, HIIA.,पृ.50-51, 62" style="color:blue">*</balloon> |
− | (1) प्राचीन भारतीय पद्धति के | + | (1) प्राचीन भारतीय पद्धति के अभिप्राय। |
− | (2) नवीन अभिप्राय जिनमें से कुछ पर विदेशी प्रभाव स्पष्ट | + | (2) नवीन अभिप्राय जिनमें से कुछ पर विदेशी प्रभाव स्पष्ट है। |
− | प्रथम प्रकार के अभिप्राय वे हैं जो विशुद्ध रूप से भारतीय हैं और [[गांधार]] कला के संपर्क में आने के पूर्व बराबर व्यवहृत होते थे, इनमें पशु-पक्षियों के अतिरिक्त दोहरे छत वाले विहार, गवाक्ष वातायन, वेदिकाएं, कपि-शीर्ष, कमल, मणिमाला, पंचपटि्टका, घण्टावली, हत्थे या पंचागङुलितल, अष्टमांगलिक चिह्र यथा पूर्णघट, भद्रासन, स्वस्तिक, मीन-युग्म, शराव-संपुट, श्रीवत्स, रत्न-पात्र व त्रिरत्न, आदि का समावेश होता | + | प्रथम प्रकार के अभिप्राय वे हैं जो विशुद्ध रूप से भारतीय हैं और [[गांधार]] कला के संपर्क में आने के पूर्व बराबर व्यवहृत होते थे, इनमें पशु-पक्षियों के अतिरिक्त दोहरे छत वाले विहार, गवाक्ष वातायन, वेदिकाएं, कपि-शीर्ष, कमल, मणिमाला, पंचपटि्टका, घण्टावली, हत्थे या पंचागङुलितल, अष्टमांगलिक चिह्र यथा पूर्णघट, भद्रासन, स्वस्तिक, मीन-युग्म, शराव-संपुट, श्रीवत्स, रत्न-पात्र व त्रिरत्न, आदि का समावेश होता है। |
− | नवीन अभिप्रायों से तात्पर्य उन अभिप्रायों से है जो गांधार कला के संपर्क में आने के बाद मथुरा की कलाकृतियों मंव भी अपनाये | + | नवीन अभिप्रायों से तात्पर्य उन अभिप्रायों से है जो गांधार कला के संपर्क में आने के बाद मथुरा की कलाकृतियों मंव भी अपनाये गये। इनमें (corinthian flower) भटकटैया का फूल, प्रभा मण्डल, मालधारी यक्ष, अंगूर की लता, मध्य एशियाई और ईरानी पद्धति के ताबीज के समान अलंकार आदि को गणना की जा सकती है। |
==गांधार कला का प्रभाव== | ==गांधार कला का प्रभाव== | ||
[[चित्र:sunga-dynasty-terracottas.jpg|शुंग कालीन मृण्मूर्ति <br /> Shunga Terracottas|thumb|250px|left]] | [[चित्र:sunga-dynasty-terracottas.jpg|शुंग कालीन मृण्मूर्ति <br /> Shunga Terracottas|thumb|250px|left]] | ||
− | कुषाणों के शासन काल में उत्तर-पश्चिम भारत में कला की एक नवीन शैली चल | + | कुषाणों के शासन काल में उत्तर-पश्चिम भारत में कला की एक नवीन शैली चल पडी़। यह भारतीय और [[यूनानी]] कला का एक मिश्रित रूप था। जिस गांधार प्रदेश में इसका बोलबाला रहा, उसी के आधार पर इसे गांधार कला के नाम से कला जगत में पहचाना जाता है। एक ही शासन की छत्रछाया में पनपने के कारण इन शैलियों का परस्पर सम्पर्क में आना स्वाभाविक था। परन्तु दोनों के मूलभूत सिद्धान्त अलग थे। गांधार कला पर यूनानी कला का गहरा प्रभाव था। वह मानव-चित्रण के बहिरंग पक्ष को अधिक महत्त्व देती थी। इसके विपरीत भारतीय विचारधारा में पली हुई मथुरा कला भाव-पक्ष की ओर बढी़ चली जा रही थी। फल यह हुआ कि गांधार कला से मथुरा के कलाकार कुछ सीमित अंश तक प्रभावित हुए। इसमें उन्होंने न केवल उनके निर्माण सिद्धान्त ही अपनाये, वरन् उनकी कुछ कथावस्तुओं को भी मूर्तरूप देने का प्रयत्न किया। उदाहरणार्थ यूनानी वीर [[हरक्यूलियस]] का नेमियन सिंह के साथ जो युद्ध हुआ था, उस दृश्य का चित्रण मथुरा कला में मिलता है। तथापि यह भी सत्य है कि मथुरा की सम्पूर्ण कलाकृतियों में यूनानी प्रभाव दिखलाने वाली प्रतिमाओं की संख्या बड़ी ही अल्प है। इस प्रभाव को सूचित करने वाले अंश निम्नांकित हैं : |
(1) [[बुद्ध]] और बोधिसत्त्वों की कुछ मूर्तियां जो अधोलिखित विशेषताओं से युक्त हैं-<br /> | (1) [[बुद्ध]] और बोधिसत्त्वों की कुछ मूर्तियां जो अधोलिखित विशेषताओं से युक्त हैं-<br /> | ||
− | (क) अर्धवर्तुलाकार धारियों वाला वस्त्र, जिससे बहुधा दोनों कंधे और कभी-कभी पूरा शरीर ढंका रहता | + | (क) अर्धवर्तुलाकार धारियों वाला वस्त्र, जिससे बहुधा दोनों कंधे और कभी-कभी पूरा शरीर ढंका रहता है।<br /> |
(ख) मस्तक पर लहरदार बाल <br /> | (ख) मस्तक पर लहरदार बाल <br /> | ||
− | (ग) नेत्र और होंठ भरे हुए तथा धारदार, विशेषतया ऊपर की पलकें भारी रहती | + | (ग) नेत्र और होंठ भरे हुए तथा धारदार, विशेषतया ऊपर की पलकें भारी रहती है।<br /> |
(2) बुद्ध जीवन को अंकित करने वाले कतिपय दृश्य, जैसे, इस संग्रहालय की मूर्ति संख्या 00. एच 1, | (2) बुद्ध जीवन को अंकित करने वाले कतिपय दृश्य, जैसे, इस संग्रहालय की मूर्ति संख्या 00. एच 1, | ||
− | 00.एच 11,00.एच 7,00.एन् 2 | + | 00.एच 11,00.एच 7,00.एन् 2 आदि। <br /> |
(3) कला के कुछ नवीन अभिप्राय, जैसे, मालधारी यक्ष, [[गरुड़]], द्राक्षालता आदि <br /> | (3) कला के कुछ नवीन अभिप्राय, जैसे, मालधारी यक्ष, [[गरुड़]], द्राक्षालता आदि <br /> | ||
(4) मदिरापान के दृश्य।<balloon title="आनन्द कुमारस्वामी, HIIA.,पृ.62 ;एस.के.सरस्वती, A Survey of Indian Sculpture,कलकत्ता 1957,पृ.66" style="color:blue">*</balloon> | (4) मदिरापान के दृश्य।<balloon title="आनन्द कुमारस्वामी, HIIA.,पृ.62 ;एस.के.सरस्वती, A Survey of Indian Sculpture,कलकत्ता 1957,पृ.66" style="color:blue">*</balloon> | ||
गांधार कला की एक सुन्दर नारी की मूर्ति जो हारिति<balloon title="आनन्द कुमारस्वामी, HIIA., 62" style="color:blue">*</balloon> | गांधार कला की एक सुन्दर नारी की मूर्ति जो हारिति<balloon title="आनन्द कुमारस्वामी, HIIA., 62" style="color:blue">*</balloon> | ||
− | , [[कम्बोजिका]]<ref> ड़ा. वासुदेवशरण अग्रवाल उसे कम्बोजिका की प्रतिमा मानते हैं जिसका नाम सिंहशीर्ष पर अंकित लेख में मिलता है। उक्त सिंहशीर्ष और यह गांधार प्रतिमा मथुरा के एक ही स्थान से अर्थात् सप्तार्षि टीले से मिले थे।</ref> आदि नामों से पहचानी जाती है मथुरा क्षेत्र से ही मिली है, उसका उल्लेख इस संदर्भ में आवश्यक | + | , [[कम्बोजिका]]<ref> ड़ा. वासुदेवशरण अग्रवाल उसे कम्बोजिका की प्रतिमा मानते हैं जिसका नाम सिंहशीर्ष पर अंकित लेख में मिलता है। उक्त सिंहशीर्ष और यह गांधार प्रतिमा मथुरा के एक ही स्थान से अर्थात् सप्तार्षि टीले से मिले थे।</ref> आदि नामों से पहचानी जाती है मथुरा क्षेत्र से ही मिली है, उसका उल्लेख इस संदर्भ में आवश्यक है। संभव है कि गांधार कला की यह कलाकृति किसी प्रेमी ने यहाँ मंगवाकर स्थापित की हो। |
==व्यक्ति-विशेष की मूर्तियों का निर्माण== | ==व्यक्ति-विशेष की मूर्तियों का निर्माण== | ||
− | भारतीय कला को मथुरा की यह विशेष देन | + | भारतीय कला को मथुरा की यह विशेष देन है। भारतीय कला के इतिहास में यहीं पर सर्वप्रथम हमें शासकों की लेखों से अंकित मानवीय आकारों में बनी प्रतिमाएं दिखलाई पड़ती हैं।<balloon title="व्यक्ति प्रतिमाओं के विशेष अध्ययन के लिए देखिये: टी.जी.अर्वमुनाथन् , Portrait Sculpture in South India ,लंदन, 1931" style="color:blue">*</balloon> कुषाण सम्राट वेमकटफिश, [[कनिष्क]] एवं पूर्ववर्ती शासक चष्टन की मूर्तियां [[माँट]] नामक स्थान से पहले ही मिल चुकी हैं। एक और मूर्ति जो संभवत: [[हुविष्क]] की हो सकती है, इस समय गोकर्णेश्वर के नाम से मथुरा मे पूजी जाती है। ऐसा लगता है कि कुषाण राजाओं को अपने और पूर्वजों के प्रतिमा-मन्दिर या देवकुल बनवाने की विशेष रूचि थी। इस प्रकार का एक देवकुल तो माँट में था और दूसरा संभवत: गोकर्णेश्वर में। इन स्थानों से उपरोक्त लेखांकित मूर्तियों के अतिरिक्त अन्य राजपुरुषों की मूर्तियां भी मिली हैं, पर उन पर लेख नहीं है <ref> सी.एम.कीफर, Kushana Art and the Historical Effigies of Mat and Surkh Kotal, मार्ग, खण्ड 15,संख्या 2,मार्च 1962, पृ.43-48 </ref>। इस सुंदर्भ में यह बतलाना आवश्यक है कि कुषाणों का एक और देवकुल, जिसे वहां बागोलांगो (bagolango) कहा गया है, अफ़ग़ानिस्तान के सुर्ख कोतल नामक स्थान पर था। हाल में ही यहाँ की खुदाई से इस देवकुल की सारी रूपरेखा स्पष्ट हुयी है। |
− | ==टीका | + | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== |
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१३:०२, २ नवम्बर २०१३ के समय का अवतरण
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मूर्ति कला : मूर्ति कला 2 : मूर्ति कला 3 : मूर्ति कला 4 : मूर्ति कला 5 : मूर्ति कला 6 |
मूर्ति कला 2 / संग्रहालय / Sculptures / Museum
विविध रूपों में मानव का सफल चित्रण
कुषाणकाल में मनुष्य और पशुओं के सम्मुख चित्रण की पुरानी परम्परा छोड़ दी गयी। साथ ही साथ मानव शरीर के चित्रण की क्षमता भी बढ़ गई। विशेषत: रमणी के सौंदर्य को रूप-रूपान्तरों में अंकित करने में मथुरा का कलाकार पूर्णत: सफल रहा। स्तन्य की ओर संकेत करने वाली स्नेहमयी देवी झुनझुना, दिखलाकर बच्चों का मनोरंजन करने वाली माता, विविध प्रकार के अलंकारों से अपने को मण्डित करने वाली युवतियां, धनराशि के समान श्याम केशकलाप को निचोड़ते हुए उनके कारण मोर के मन में उत्सुकता जगाने वाली प्रेमिकाएं, उन्मुक्त आकाश के नीचे निर्झरस्नान करने वाली मुग्धाएं, फूलों को चुनने वाली अंगनाएं, कलशधारणी गोपवधू, दीपवाहिका, विदेशी दासी, मद्यपान से मतवाली वेश्या, दर्पण से प्रसाधन करने वाली रमणी आदि अनेकानेक रूपों में नारी मथुरा के कलाकारों के द्वारा पूर्ण सफलता के साथ दिखलाया गया।
पुरुषों के चित्रण में भी वे पीछे नहीं थे। धन संग्रह के प्रतीक बड़ी तोंद वाले कुबेर, ईरानी वेश में सूर्य, राजकीय वेश में कुषाण दरबारी, विदेशी पहरेदार, फीतेदार चप्पल पहने हुए सैनिक, भोले-भोले उपासक, विविध प्रकार की पगड़ियां बांधे हुए पुरुष, बहुमूल्य वस्त्रालंकारों से मंडित बोधिसत्त्व आदि छोटे-बड़े वर्ग के पुरुष और देवता बड़ी ही कुशलता से अंकित किये गये हैं।
मूर्तियों के अंकन में परिष्कार कुषाणकाल की मूर्तियां शुंग काल के समान चपटी न होकर गहराई के साथ उकेरी गई हैं। प्रारम्भिक अवस्था की तुलना में अब आकृतियों की ऊंचाई बढ़ जाती है।<balloon title="स्टेला क्रेमरिच, Indian Sculpture,कलकत्ता, 1933,पृ. 40-43" style="color:blue">*</balloon> यहाँ तक कि वे कहीं-कहीं पृष्ठभूमि की सारी ऊंचाई छा जाती हैं। उसी अनुपात में निम्नकोटि की आकृतियों की ऊंचाई में भी बृद्धि होती है। मथुरा की प्रारम्भिक कलाकृतियों की स्थूलता और भौंड़ापन कुषाणकाल में पहुंचते-पहूंचते मांसल और सुडौल शरीर में बदल जाता है। वस्त्रों के पहरावे में भी सुरूचि की मात्रा अधिक हो जाती है। अब उत्तरीय चपटे रूप में नहीं पड़ता अपितु मोटी घुमावदार रस्सी के रूप में दिखालाई पड़ता है।<balloon title="वही।" style="color:blue">*</balloon>
प्रारम्भिक कुषाणकाल की मूर्तियों में केवल बांया कंधा ढॅका रहता है, और कमर के ऊपर वाला वस्त्र का भाग शरीर से सटा हुआ कुछ पारदर्शक-सा रहता है, नीचे वाले भाग की ओर अनुपातत: कम ध्यान दिया गया है। जांघ और पैरों की बनावट में एक प्रकार की कड़ाई दिखलाई पड़ती है।<balloon title="वही ; Age of the Imperial Unity, भाग 2,पृ.522-23" style="color:blue">*</balloon> कुषाण काल के मध्य में यह दोष हट जाता है और बहुधा मूर्तियां एक घुटना किंचित मोड़कर खड़ी दिखलायी पड़ती है।<balloon title="सं. सं.00 एफ 6,00' ई॰ 24; 17'1325 आदि" style="color:blue">*</balloon> इस काल के मूर्ति निर्माण की दूसरी विशेषता मूर्तियों का आगे और पीछे दोनों ओर से गढ़ा जाना है। इस काल की बहुसंख्यक मूर्तियां ऐसी ही हैं। सम्मुख भाग के समान कलाकार ने पृष्ठ भाग की ओर भी ख़ूब ध्यान दिया है। इसकी दो पद्धतियां थीं, या तो पीछे की ओर पीठ पर लहराने वाला केशकलाप, आभरण उत्तरीयादि वस्त्र, आदि दिखलाये जाते थे अथवा पशु-पक्षियों से युक्त वृक्ष अंकित किये जाते थे।<balloon title="अशोक एवं कदम्ब के वृक्ष तथा उन पर स्थित गिलहरी और शुक,सं. सं. 12.264;00' एफ 2,33.2328" style="color:blue">*</balloon> 3. लम्बी कथाओं के अंकन में नवीनताएं<balloon title="आनन्द कुमारस्वामी, HIIA.,पृ. 65-69,पादटिप्पणी 1,पृ.66" style="color:blue">*</balloon> जातक कथाओं के समान अनेक दृश्योंवाली कथाएं भरहूत तथा साँची में भी अंकित की गई थीं, परन्तु वहां पद्धति यह थी कि एक ही चौखट के भीतर अगल-बगल या तले ऊपर कई दृश्यों को दिखलाया जाता था, पर अब प्रत्येक दृश्य के लिए अलग-अलग चौखट दी जाने लगी। उदाहरणार्थ मथुरा से प्राप्त एक द्वार स्तंभ पर अंकित नंद-सुन्दरी की कथा<balloon title="लखनऊ संग्रहालय संख्या जे. 533।" style="color:blue">*</balloon> कई चौखटों में इस प्रकार सजाई गई है कि उससे सम्पूर्ण द्वार-स्तंभ सुशोभित हो सके। चौखटें अलग-अलग होने के कारण उनके भीतर बनी मूर्तियों के आकार भी सरलता से ऊंचे बनाये जा सके।
प्राचीन और नवीन अभिप्रायों की मिलावट
मथुरा के कलाकारों ने परम्परा से चले आने वाले वृक्ष, लता और पशु-पक्षियों के अभिप्रायों को अपनाते हुए साथ ही अपनी प्रतिभा से देशकाल के अनुरूप नवीन अभिप्रायों का सृजन किया। उसका फल यह हुआ कि मथुरा की कला में प्रकृति और उसके अनेक रूपों का अंकन मिलता है। यहाँ विविध वृक्ष, लताएं, मगर, मछलियां आदि जलचर, मोर, हंस, तोते आदि पक्षी व गिलहरियां, बन्दर, हाथी, शरभ, सिंह आदि छोटे-बड़े पशु सभी दिखलाई पड़ते हैं। पुष्पों में यदि केवल कमल और कमल-लता को ही लें तो उसके अनेक रूप नहीं है। कुषाणकालीन कला में दृष्टिगोचर होने वाले अभिप्रायों को दो वर्गों में बाटा जा सकता है:<balloon title="आनन्द कुमारस्वामी, HIIA.,पृ.50-51, 62" style="color:blue">*</balloon>
(1) प्राचीन भारतीय पद्धति के अभिप्राय।
(2) नवीन अभिप्राय जिनमें से कुछ पर विदेशी प्रभाव स्पष्ट है।
प्रथम प्रकार के अभिप्राय वे हैं जो विशुद्ध रूप से भारतीय हैं और गांधार कला के संपर्क में आने के पूर्व बराबर व्यवहृत होते थे, इनमें पशु-पक्षियों के अतिरिक्त दोहरे छत वाले विहार, गवाक्ष वातायन, वेदिकाएं, कपि-शीर्ष, कमल, मणिमाला, पंचपटि्टका, घण्टावली, हत्थे या पंचागङुलितल, अष्टमांगलिक चिह्र यथा पूर्णघट, भद्रासन, स्वस्तिक, मीन-युग्म, शराव-संपुट, श्रीवत्स, रत्न-पात्र व त्रिरत्न, आदि का समावेश होता है।
नवीन अभिप्रायों से तात्पर्य उन अभिप्रायों से है जो गांधार कला के संपर्क में आने के बाद मथुरा की कलाकृतियों मंव भी अपनाये गये। इनमें (corinthian flower) भटकटैया का फूल, प्रभा मण्डल, मालधारी यक्ष, अंगूर की लता, मध्य एशियाई और ईरानी पद्धति के ताबीज के समान अलंकार आदि को गणना की जा सकती है।
गांधार कला का प्रभाव
कुषाणों के शासन काल में उत्तर-पश्चिम भारत में कला की एक नवीन शैली चल पडी़। यह भारतीय और यूनानी कला का एक मिश्रित रूप था। जिस गांधार प्रदेश में इसका बोलबाला रहा, उसी के आधार पर इसे गांधार कला के नाम से कला जगत में पहचाना जाता है। एक ही शासन की छत्रछाया में पनपने के कारण इन शैलियों का परस्पर सम्पर्क में आना स्वाभाविक था। परन्तु दोनों के मूलभूत सिद्धान्त अलग थे। गांधार कला पर यूनानी कला का गहरा प्रभाव था। वह मानव-चित्रण के बहिरंग पक्ष को अधिक महत्त्व देती थी। इसके विपरीत भारतीय विचारधारा में पली हुई मथुरा कला भाव-पक्ष की ओर बढी़ चली जा रही थी। फल यह हुआ कि गांधार कला से मथुरा के कलाकार कुछ सीमित अंश तक प्रभावित हुए। इसमें उन्होंने न केवल उनके निर्माण सिद्धान्त ही अपनाये, वरन् उनकी कुछ कथावस्तुओं को भी मूर्तरूप देने का प्रयत्न किया। उदाहरणार्थ यूनानी वीर हरक्यूलियस का नेमियन सिंह के साथ जो युद्ध हुआ था, उस दृश्य का चित्रण मथुरा कला में मिलता है। तथापि यह भी सत्य है कि मथुरा की सम्पूर्ण कलाकृतियों में यूनानी प्रभाव दिखलाने वाली प्रतिमाओं की संख्या बड़ी ही अल्प है। इस प्रभाव को सूचित करने वाले अंश निम्नांकित हैं :
(1) बुद्ध और बोधिसत्त्वों की कुछ मूर्तियां जो अधोलिखित विशेषताओं से युक्त हैं-
(क) अर्धवर्तुलाकार धारियों वाला वस्त्र, जिससे बहुधा दोनों कंधे और कभी-कभी पूरा शरीर ढंका रहता है।
(ख) मस्तक पर लहरदार बाल
(ग) नेत्र और होंठ भरे हुए तथा धारदार, विशेषतया ऊपर की पलकें भारी रहती है।
(2) बुद्ध जीवन को अंकित करने वाले कतिपय दृश्य, जैसे, इस संग्रहालय की मूर्ति संख्या 00. एच 1,
00.एच 11,00.एच 7,00.एन् 2 आदि।
(3) कला के कुछ नवीन अभिप्राय, जैसे, मालधारी यक्ष, गरुड़, द्राक्षालता आदि
(4) मदिरापान के दृश्य।<balloon title="आनन्द कुमारस्वामी, HIIA.,पृ.62 ;एस.के.सरस्वती, A Survey of Indian Sculpture,कलकत्ता 1957,पृ.66" style="color:blue">*</balloon>
गांधार कला की एक सुन्दर नारी की मूर्ति जो हारिति<balloon title="आनन्द कुमारस्वामी, HIIA., 62" style="color:blue">*</balloon>
, कम्बोजिका[१] आदि नामों से पहचानी जाती है मथुरा क्षेत्र से ही मिली है, उसका उल्लेख इस संदर्भ में आवश्यक है। संभव है कि गांधार कला की यह कलाकृति किसी प्रेमी ने यहाँ मंगवाकर स्थापित की हो।
व्यक्ति-विशेष की मूर्तियों का निर्माण
भारतीय कला को मथुरा की यह विशेष देन है। भारतीय कला के इतिहास में यहीं पर सर्वप्रथम हमें शासकों की लेखों से अंकित मानवीय आकारों में बनी प्रतिमाएं दिखलाई पड़ती हैं।<balloon title="व्यक्ति प्रतिमाओं के विशेष अध्ययन के लिए देखिये: टी.जी.अर्वमुनाथन् , Portrait Sculpture in South India ,लंदन, 1931" style="color:blue">*</balloon> कुषाण सम्राट वेमकटफिश, कनिष्क एवं पूर्ववर्ती शासक चष्टन की मूर्तियां माँट नामक स्थान से पहले ही मिल चुकी हैं। एक और मूर्ति जो संभवत: हुविष्क की हो सकती है, इस समय गोकर्णेश्वर के नाम से मथुरा मे पूजी जाती है। ऐसा लगता है कि कुषाण राजाओं को अपने और पूर्वजों के प्रतिमा-मन्दिर या देवकुल बनवाने की विशेष रूचि थी। इस प्रकार का एक देवकुल तो माँट में था और दूसरा संभवत: गोकर्णेश्वर में। इन स्थानों से उपरोक्त लेखांकित मूर्तियों के अतिरिक्त अन्य राजपुरुषों की मूर्तियां भी मिली हैं, पर उन पर लेख नहीं है [२]। इस सुंदर्भ में यह बतलाना आवश्यक है कि कुषाणों का एक और देवकुल, जिसे वहां बागोलांगो (bagolango) कहा गया है, अफ़ग़ानिस्तान के सुर्ख कोतल नामक स्थान पर था। हाल में ही यहाँ की खुदाई से इस देवकुल की सारी रूपरेखा स्पष्ट हुयी है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ड़ा. वासुदेवशरण अग्रवाल उसे कम्बोजिका की प्रतिमा मानते हैं जिसका नाम सिंहशीर्ष पर अंकित लेख में मिलता है। उक्त सिंहशीर्ष और यह गांधार प्रतिमा मथुरा के एक ही स्थान से अर्थात् सप्तार्षि टीले से मिले थे।
- ↑ सी.एम.कीफर, Kushana Art and the Historical Effigies of Mat and Surkh Kotal, मार्ग, खण्ड 15,संख्या 2,मार्च 1962, पृ.43-48