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#ऋग्वेद<balloon title="ऋग्वेद 10.72.5" style=color:blue>*</balloon> में अदिति को देवयान को पितृयान से अलग करने वाली और देवमाता कहा गया है। तिलक के अनुसार ये सारे उल्लेख अदिति से वर्ष के प्रारम्भ होने का कथन करते हैं। अदिति से वर्ष के प्रारम्भ मानने का मतलब है पुनर्वसु से वर्ष का प्रारम्भ मानना। इस प्रकार जिस समय अदिति से यज्ञ का प्रारम्भ होता था, उस समय पुनर्वसु नक्षत्र मृगाशिरा से दो नक्षत्र बाद में पड़ती है। वसन्त-सम्पात को मृगशिरा से सरककर पीछे हटने में लगभग 2000 वर्ष लगे होंगे। इस प्रकार तिलक के अनुसार यह समय 4000+2000= 6000 ई0 पू0 का है। आर्यसभ्यता का यही प्राचीनतम काल है। 4000 ई0 पू0 से 6000 ई0 पू0 के समय को तिलक ने अदिति-काल की संज्ञा दी। यह वह समय है जबकि अलंकृत ऋचाओं तथा सूक्तों की सत्ता नहीं थी। गद्य-पद्य- उभयात्मक यज्ञपरक निविद् मन्त्रों की सत्ता इस काल की है। ग्रीक तथा पारसियों के पास इस काल की कोई परम्परा सुरक्षित नहीं।<balloon title=" तिलक, ओरायन, पृ0 214-20" style=color:blue>*</balloon>
 
#ऋग्वेद<balloon title="ऋग्वेद 10.72.5" style=color:blue>*</balloon> में अदिति को देवयान को पितृयान से अलग करने वाली और देवमाता कहा गया है। तिलक के अनुसार ये सारे उल्लेख अदिति से वर्ष के प्रारम्भ होने का कथन करते हैं। अदिति से वर्ष के प्रारम्भ मानने का मतलब है पुनर्वसु से वर्ष का प्रारम्भ मानना। इस प्रकार जिस समय अदिति से यज्ञ का प्रारम्भ होता था, उस समय पुनर्वसु नक्षत्र मृगाशिरा से दो नक्षत्र बाद में पड़ती है। वसन्त-सम्पात को मृगशिरा से सरककर पीछे हटने में लगभग 2000 वर्ष लगे होंगे। इस प्रकार तिलक के अनुसार यह समय 4000+2000= 6000 ई0 पू0 का है। आर्यसभ्यता का यही प्राचीनतम काल है। 4000 ई0 पू0 से 6000 ई0 पू0 के समय को तिलक ने अदिति-काल की संज्ञा दी। यह वह समय है जबकि अलंकृत ऋचाओं तथा सूक्तों की सत्ता नहीं थी। गद्य-पद्य- उभयात्मक यज्ञपरक निविद् मन्त्रों की सत्ता इस काल की है। ग्रीक तथा पारसियों के पास इस काल की कोई परम्परा सुरक्षित नहीं।<balloon title=" तिलक, ओरायन, पृ0 214-20" style=color:blue>*</balloon>
 
==याकोबी तथा तिलक के मत की समीक्षा==
 
==याकोबी तथा तिलक के मत की समीक्षा==
*याकोबी तथा तिलक की वेदों के रचनाकाल-विषयक नई खोज ने विद्वानों में एक हलचल मचा दी। सर्वप्रथम इनका मत विद्वानों को पूर्णतया काल्पनिक, असंभव किंवा व्यर्थ प्रतीत हुआ और कई विद्वानों ने इसका मजाक उड़ाया। हिटनी<balloon title="हिटनी 'आन ए रेसेण्ट अटेम्प्ट बाई याकोवी एण्ड तिलक टु डिटरमिन ओन एष्ट्रोनॉमिकल एविडेन्स द डेट आफ द अर्लिएस्ट वेदिक पीरिएड एज 4000 बी0सी0, इण्डियन एण्टीक्वेरी, अप्रैल 1895, पृ0 362-65" style=color:blue>*</balloon> और थिबौत<balloon title="थिबौत, इण्डियन एण्टीक्वेरी, अप्रैल 1895 में प्रकाशित लेख 'आन सम रिसेण्ट अटेम्प्ट्स टु डिटरमिन द एण्टीक्वेरी आफ वेदिक सिविलिजेशन' पृ0 87-96" style=color:blue>*</balloon> ने इस मत का डटकर विरोध किया। प्राचीन वैदिक आर्यों को ज्योतिष-सम्बन्धी ज्ञान था यह इनको स्वीकार्य नहीं था।  
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*याकोबी तथा तिलक की वेदों के रचनाकाल-विषयक नई खोज ने विद्वानों में एक हलचल मचा दी। सर्वप्रथम इनका मत विद्वानों को पूर्णतया काल्पनिक, असंभव किंवा व्यर्थ प्रतीत हुआ और कई विद्वानों ने इसका मज़ाक़ उड़ाया। हिटनी<balloon title="हिटनी 'आन ए रेसेण्ट अटेम्प्ट बाई याकोवी एण्ड तिलक टु डिटरमिन ओन एष्ट्रोनॉमिकल एविडेन्स द डेट आफ द अर्लिएस्ट वेदिक पीरिएड एज 4000 बी0सी0, इण्डियन एण्टीक्वेरी, अप्रैल 1895, पृ0 362-65" style=color:blue>*</balloon> और थिबौत<balloon title="थिबौत, इण्डियन एण्टीक्वेरी, अप्रैल 1895 में प्रकाशित लेख 'आन सम रिसेण्ट अटेम्प्ट्स टु डिटरमिन द एण्टीक्वेरी आफ वेदिक सिविलिजेशन' पृ0 87-96" style=color:blue>*</balloon> ने इस मत का डटकर विरोध किया। प्राचीन वैदिक आर्यों को ज्योतिष-सम्बन्धी ज्ञान था यह इनको स्वीकार्य नहीं था।  
 
*थिबौत की आपत्तियां हिटनी की अपेक्षा कुछ अधिक उग्र थीं, यद्यपि उसने यह भी अपना भाव अभिव्यक्त किया कि तिलक और याकोबी के निष्कर्षों को पूर्णतया असम्भव कहने का उसे अधिकार नहीं। उसका कहना था कि हो सकता है कि वैदिक साहित्य और सभ्यता कहीं उससे भी अधिक प्राचीन हो और इस बात के अनेक प्रमाण परवर्ती वैदिक साहित्य में मिल सकते हैं। किन्तु इस बात को स्वीकार करने से पूर्व उसे इस बात की पूर्णतया पुष्टि हो जानी चाहिये कि जिन वैदिक ज्योतिष-सम्बन्धी उद्धरणों के आधार पर तिलक तथा याकोबी ने अपने निष्कर्ष निकाले हैं उनके अर्थ वहीं हैं जो उन्होंने किये हैं। थिबौत के अनुसार ज्योतिष-गणना के आधार पर यह समय 1100 ई0 पू0 का सिद्ध होता है।  
 
*थिबौत की आपत्तियां हिटनी की अपेक्षा कुछ अधिक उग्र थीं, यद्यपि उसने यह भी अपना भाव अभिव्यक्त किया कि तिलक और याकोबी के निष्कर्षों को पूर्णतया असम्भव कहने का उसे अधिकार नहीं। उसका कहना था कि हो सकता है कि वैदिक साहित्य और सभ्यता कहीं उससे भी अधिक प्राचीन हो और इस बात के अनेक प्रमाण परवर्ती वैदिक साहित्य में मिल सकते हैं। किन्तु इस बात को स्वीकार करने से पूर्व उसे इस बात की पूर्णतया पुष्टि हो जानी चाहिये कि जिन वैदिक ज्योतिष-सम्बन्धी उद्धरणों के आधार पर तिलक तथा याकोबी ने अपने निष्कर्ष निकाले हैं उनके अर्थ वहीं हैं जो उन्होंने किये हैं। थिबौत के अनुसार ज्योतिष-गणना के आधार पर यह समय 1100 ई0 पू0 का सिद्ध होता है।  
 
*एक तरफ हिटनी तथा थिबौत ने तिलक तथा याकोबी के मतों की जहां कड़ी आलोचना की, वहां दूसरी ओर ब्यूलर ने अपने एक लेख में उनकी काफी प्रशंसा की।<balloon title="इण्डियन एण्टीक्वेरी भाग 23, 1894 में प्रकाशित लेख 'नोट आन प्रोफेसर याकोबीज् एज आफ द वेद एण्ड आन प्रोफेसर तिलकाज ओरायन', पृ0 240-48" style=color:blue>*</balloon> उसने उनके द्वारा प्रस्तुत किये गये प्रमाणों की परीक्षा की और वेदों के रचनाकाल-निर्धारण में उन्हें पुष्ट पाया। उसने निष्कर्ष रूप में इस बात को कहा कि प्राचीन हिन्दुओं को ज्योतिष-विषयक ज्ञान था जो वैज्ञानिक सिद्धान्तों तथा वास्तविक पर्यवेक्षण पर आधारित था। ब्यूलर ने अभिलेखों तथा जैन एवं बौद्ध-साहित्य के आधार पर भी तिलक तथा याकोबी के द्वारा स्थापित वैदिक साहित्य की प्राचीनता का समर्थन किया। सन 1965 में नरेन्द्र नाथ ला ने अपनी पुस्तक में तिलक तथा याकोबी के मतों का विवेचन किया तथा हिटनी एवं थिबौत द्वारा उठाई गई सभी आपत्तियों का एक-एक करके समाधान किया।<balloon title="नरेन्द्रनाथ ला एज ऑफ द ॠग्वेद, 1965" style=color:blue>*</balloon> डा0 ला ने भारतीय ऐतिहासिक परम्परा में प्राप्त राजवंशों की कालगणना द्वारा भी तिलक के मत की पुष्टि की।  
 
*एक तरफ हिटनी तथा थिबौत ने तिलक तथा याकोबी के मतों की जहां कड़ी आलोचना की, वहां दूसरी ओर ब्यूलर ने अपने एक लेख में उनकी काफी प्रशंसा की।<balloon title="इण्डियन एण्टीक्वेरी भाग 23, 1894 में प्रकाशित लेख 'नोट आन प्रोफेसर याकोबीज् एज आफ द वेद एण्ड आन प्रोफेसर तिलकाज ओरायन', पृ0 240-48" style=color:blue>*</balloon> उसने उनके द्वारा प्रस्तुत किये गये प्रमाणों की परीक्षा की और वेदों के रचनाकाल-निर्धारण में उन्हें पुष्ट पाया। उसने निष्कर्ष रूप में इस बात को कहा कि प्राचीन हिन्दुओं को ज्योतिष-विषयक ज्ञान था जो वैज्ञानिक सिद्धान्तों तथा वास्तविक पर्यवेक्षण पर आधारित था। ब्यूलर ने अभिलेखों तथा जैन एवं बौद्ध-साहित्य के आधार पर भी तिलक तथा याकोबी के द्वारा स्थापित वैदिक साहित्य की प्राचीनता का समर्थन किया। सन 1965 में नरेन्द्र नाथ ला ने अपनी पुस्तक में तिलक तथा याकोबी के मतों का विवेचन किया तथा हिटनी एवं थिबौत द्वारा उठाई गई सभी आपत्तियों का एक-एक करके समाधान किया।<balloon title="नरेन्द्रनाथ ला एज ऑफ द ॠग्वेद, 1965" style=color:blue>*</balloon> डा0 ला ने भारतीय ऐतिहासिक परम्परा में प्राप्त राजवंशों की कालगणना द्वारा भी तिलक के मत की पुष्टि की।  

०८:१९, २२ दिसम्बर २००९ का अवतरण


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वेदों का रचना काल / Vedic Period

वेदों का रचनाकाल-निर्धारण वैदिक साहित्येतिहास की एक जटिल समस्या है। विभिन्न विद्वानों ने भाषा, रचनाशैली, धर्म एवं दर्शन, भूमर्भशास्त्र, ज्योतिष, उत्खनन में प्राप्त सामग्री, अभिलेख आदि के आधार पर वेदों का रचनाकाल निर्धारित करने का प्रयास किया है, किन्तु इनसे अभी तक कोई सर्वमान्य रचनाकाल निर्धारित नहीं हो सकता है। इसका कारण यही है कि सबका किसी न किसी मान्यता के साथ पूर्वाग्रह है। 18वीं शती के अन्त तक भारतीय विद्वानों की यह धारणा थी कि वेद अपौरूषेय है, अर्थात किसी मनुष्य की रचना नहीं है। संहिताओं, ब्राह्मणों, दार्शनिक ग्रन्थों, पुराणों तथा अन्य परवर्ती साहित्य में अनेक उद्धरण मिलते हैं जिनमें वेद के अपौरुषेयत्व का कथन मिलता है। वेद-भाष्यकारों की भी परम्परा वेद को अपौरुषेय ही मानती रही। इस प्रकार वेद के अपौरुषेयत्व की धारणा उसके कालनिर्धारण की सम्भावना को ही अस्वीकार कर देती है। दूसरी तरफ 19वीं सदी के प्रारम्भ से ही, जबकि पाश्चात्य विद्वानों के द्वारा वेदाध्ययन का महत्त्वपूर्ण प्रयास किया गया, यह धारणा प्रतिष्ठित होने लगी कि वेद अपौरुषेय नहीं, मानव ऋषियों की रचना है; अतएव उनके कालनिर्धारण की सम्भावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। फलस्वरूप, अनेक पाश्चात्य विद्वानों के द्वारा इस दिशा में प्रयास किया गया। वैदिक किंवा आर्य-संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति है, इस तथ्य को चूँकि पाश्चात्य मानसिकता अंगीकार न कर सकी, इसलिये वेदों का रचनाकाल ईसा से सहस्त्राब्दियों पूर्व मानना उनके लिये सम्भव नहीं था, क्योंकि विश्व की अन्य संस्कृतियों की सत्ता इतने सुदूरकाल तक प्रमाणित नहीं हो सकती थी, यद्यपि उन्होंने इतना अवश्य स्वीकार किया कि वेद विश्व का प्रचीनतम साहित्य है। इस प्रकार वेद विश्व का प्राचीनतम वाड्मय है इस विषय में भारतीय तथा पाश्चात्य सभी विद्वान् एकमत हैं, वैमत्य केवल इस बात में है कि इसकी प्राचीनता कालावधि में कहाँ रखी जाय। वेद के रचनाकाल-निर्धारण की दिशा में अब तक विद्वानों ने जो कार्य किये हैं तथा एतद्विषयक अपने मत स्थापित किये है उनका यहां संक्षेप में उल्लेख किया(1) जाता है।<balloon title="डा0 व्रजविहारी चौबे, वैदिक वाड्मय: एक अनुशीलन, भूमिका खण्ड, कात्यायन वैदिक साहित्य प्रकाशन, होशियारपुर 1972, पृ0 144-210" style=color:blue>*</balloon>

मैक्समूलर का मत

  • बौद्ध धर्म के आविर्भावकाल को आधार बनाकर सर्वप्रथम मैक्समूलर ने वेद के रचनाकाल को सुनिश्चित करने का प्रयास किया। उसने यह माना कि जिस प्रकार क्रिश्चियन वर्ष प्रारम्भ दुनिया के इतिहास को दो भागों में बांटता है, उसी प्रकार बुद्ध-युग भारत के इतिहास को दो भागों में बांटता है। बुद्ध के कालनिर्धारण में उसने ग्रीक इतिहासकारों को प्रमाण मानकर बुद्ध का निर्वाणकाल 477 ई0पू0 माना जो चन्द्रगुप्त के राजसिंहासन पर बैठने से 162 वर्ष पूर्व का है।
  • ग्रीक इतिहासकारों के अनुसार 325 ई0पू0 में सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण किया था और पश्चिमोत्तर भारत को अपने अधीन कर लिया था। सिकन्दर के उत्तराधिकारियों की मृत्यु के बाद 317 ई0पू0 में चन्द्रगुप्त ने पाटलिपुत्र पर अधिकार किया और 315 ई0पू0 में सम्राट बन गया। ग्रीक इतिहासकारों द्वारा उद्धृत सैण्ड्राकोटस (Sandracottus) को मैक्समूलर ने चन्द्रगुप्त मौर्य समझा।
  • कात्यायन, जो सूत्र-साहित्य के प्रमुख लेखक हैं, चन्द्रगुप्त मौर्य से पूर्ववर्ती तथा बुद्ध से परवर्ती हैं। दोनों के मध्य उनकी स्थिति मानकर मैक्समूलर ने कात्यायन का समय चतुर्थ शताब्दी का उत्तारर्ध निर्धारित किया। कात्यायन सूत्रकाल के प्रथम लेखक नहीं, शौनक आदि आचार्य उनसे पूर्व के हैं। पाणिनि ने भी शौनक का उल्लेख किया है, इसलिये शौनक पाणिनि से भी पूर्व के हैं। कात्यायन से बाद के भी कई सूत्रकार हैं। इसलिये शौनक से भी पूर्ववर्ती तथा कात्यायन से भी परवर्ती सूत्रकारों का विचार करते हुए मैक्समूलर ने सूत्रकाल को 600 ई0पू0 से लेकर 200 ई0पू0 तक माना।<balloon title="मैक्समूलर,हिस्ट्री ऑफ एंशियेंट संस्कृत लिटरेचर, पृ0 244-45" style=color:blue>*</balloon> चार सौ वर्षों का यह सूत्रकाल है। इन्हीं चार सौ वर्षों में समस्त सूत्र-साहित्य रचा गया।
  • सम्पूर्ण सूत्र-साहित्य जिसके आधार पर लिखा गया था, वह है ब्राह्मण-साहित्य। इसका अभिप्राय यह है कि सूत्रकाल तक सम्पूर्ण ब्राह्मण साहित्य की रचना हो चुकी थी। जिस प्रकार सूत्रकाल और परवर्ती लौकिक संस्कृत के बीच की कड़ी परिशिष्ट-साहित्य है उसी प्रकार ब्राह्मणकाल और सूत्रकाल के बीच की कड़ी आरण्यक और उपनिषद हैं। कई आरण्यकों के रचयिता तो निश्चित रूप से सूत्रकार ही हैं। शौनक के शिष्य आश्वलायन ऐतरेय आरण्यक के पंचम अध्याय के रचयिता माने जाते हैं। इस प्रकार आरण्यक और उपनिषदें ब्राह्मणकाल के अन्तिम भाग की उपज हैं। ब्राह्मण साहित्य की विशालता, प्राचीन ब्राह्मणों की कई शाखाओं, चरणों, प्राचीन एवं अर्वाचीन चरणों के मतभेदों, ब्राह्मण-लेखकों की वंशावलियों तथा उनकी गद्यात्मक रचनाशैली को देखते हुए मैक्समूलर ने इनकी रचना के लिये 200 वर्षों का समय पर्याप्त मानकर सम्पूर्ण ब्राह्मणसाहित्य का रचनाकाल 800 ई0पू0 से लेकर 600 ई0पू0 तक माना।<balloon title="मैक्समूलर, हिस्ट्री ऑफ एंशियेंट संस्कृत लिटरेचर, पृ0 435" style=color:blue>*</balloon> मैक्समूलर ने यह भी माना कि यजुर्वेद-संहिता तथा सामवेद-संहिता इसी ब्राह्मणकाल की रचनायें हैं। अथर्ववेद-संहिता इन दोनों से अर्वाचीन है।
  • ब्राह्मणकाल वैदिक वाड्मय का आदिकाल नहीं है। इनकी रचना से पूर्व वैदिक साहित्य में एक ऐसी प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है जो मौलिक, स्वतन्त्र तथा सृजनात्मक नहीं, अपितु किसी पूर्वयुग की परम्परा पर आश्रित है। इसमें केवल पूर्वयुग की रचनाओं का संकलन, वर्गीकरण तथा अनुकरण ही दिखाई पड़ता है। ब्राह्मणपूर्व-युग की इन प्रवृत्तियों को परिलक्षित करने वाली एक ही रचना ऋग्वेद-संहिता उपलब्ध है।
  • मैक्समूलर ने इस काल को मन्त्रकाल की संज्ञा दी। इस मन्त्रकाल की मुख्य प्रवृत्ति यद्यपि पूर्वयुग की रचनाओं को संकलित करना था, किन्तु जहां वे प्राचीन ऋषि-कवियों की रचनाओं को लोगों के मुख से सुनकर संकलित करते थे, वहां उनमें संशोधन भी करते थे। अधिक संख्या में मन्त्रों को संकलित और संशोधित करते समय अधिकांश व्यक्ति अपनी काव्य-प्रतिभा का प्रदर्शन करने की इच्छा भी करते होंगे और उन्हीं मन्त्रों की अनुकृति पर कतिपय नये मन्त्रों की रचना भी करने लगे होंगे। इस प्रकार के मन्त्र खिल के नाम से मिलते हैं। इन खिल-मन्त्रों के अतिरिक्त ऋग्वेद के दश मण्डलों के अन्दर भी कुछ ऐसे कवियों के मन्त्र संकलित हैं जो पूर्ववर्ती काल के कवियों के अनुकर्ता हैं। ये कवि ऋग्वेद के अन्तिम संकलन के समय के हैं। इस प्रकार इन दो प्रकार के मन्त्रों की रचना इस मन्त्रकाल में हुई। मैक्समूलर का कहना है कि प्राचीन ऋषियों की रचनाओं को संकलित करने, उनका वर्गीकरण करने तथा उनके अनुकरण पर नये मन्त्रों की रचना के लिये 200 वर्षों का समय अधिक नहीं कहा जा सकता। ऋग्वेद में अर्वाचीन कवियों की वंशावलियों तथा संकलनकर्ताओं के भी दो वर्गों को देखते हुए मैक्समूलर ने मन्त्र काल को 1000 ई0 पू0 से 800 ई0 पू0 तक माना।<balloon title="मैक्समूलर, हिस्ट्री ऑफ एंशियेंट संस्कृत लिटरेचर, पृ0 497" style=color:blue>*</balloon>
  • वैदिक काव्यधारा के इतिहास में मैक्समूलर ने मन्त्रकाल से पूर्व एक छन्द:काल की सत्ता स्वीकार की। मन्त्र रचना का यह वह युग था जिसमें मौलिक, सृजनात्मक, स्वच्छन्द एवं स्वाभाविक काव्य-रचना हुई जिसका अनुसरण मन्त्र काल में दिखाई पड़ता है। इस छन्द:काल की भी रचनायें ऋग्वेद-संहिता में संकलित हैं। मैक्समूलर ने इस छन्द:काल के लिये भी 200 वर्षों का समय स्वीकार कर इसकी अवधि 1200 ई0पू0 से 1000 ई0पू0 तक मानी।<balloon title=" मैक्समूलर,हिस्ट्री ऑफ एंशियेंट संस्कृत लिटरेचर, पृ0 572" style=color:blue>*</balloon> इस प्रकार मैक्समूलर के अनुसार सम्पूर्ण वैदिक साहित्य-सूत्र-साहित्य से लेकर प्राचीनतम ऋड्-मन्त्र तक- एक सहस्त्र वर्षों अर्थात 200 ई0पू0 1200 ई0पू0 में रचा गया।

मैक्समूलर के मत की समीक्षा

  • वैदिक वाड्मय के निश्चित-कालनिर्धारण की दिशा में चूँकि मैक्समूलर ने सर्वप्रथम प्रयास किया था, इसलिये यह स्वाभाविक था कि विद्वानों का ध्यान उस ओर आकृष्ट हो। प्रारम्भ में अधिकांश विद्वानों ने उसके इस मत को प्रामाणिक माना। बाद में कुछ ही ऐसे विद्वान थे जो मैक्समूलर के समर्थक बने रहे। अधिकांश ने अपनी धारणा बदल ली और उसके मत की काफी आलोचना की। जिस बुद्ध के निर्वाणकाल, सिकन्दर के आक्रमण, चन्द्रगुप्त के राज्यकाल तथा ग्रीक इतिहासकारों के उल्लेखों को मैक्समूलर ने वैदिक वाडमय के कालनिर्धारण का आधार बनाया, उसको विद्वानों ने महत्त्वहीन घोषित कर दिया। वैदिक वाड्मय को चार भागों में विभाजित कर प्रत्येक के लिये उसने जो 200 वर्षों की अवधि निर्धारित की, उसकी विद्वानों ने कड़ी आलोचना की।
  • मैक्समूलर के आलोचकों में प्रमुख थे विल्सन, मार्टिन हाग, ब्यूलर, हिटनी, ब्लूमफील्ड, याकोवी आदि। विल्सन ने 200 वर्षों की जगह पर 400 या 500 वर्षों की प्रत्येक काल की अवधि मानकर ब्राह्मणों का रचनाकाल 1000 ई0 पू0 या 1100 ई0पू0 माना।<balloon title="विल्सन, 'एडिनवर्ग रिव्यू', 1860, पृ0 375; ट्रान्सलेशन आफ द ऋग्वेद, भाग 1, पृ0 45" style=color:blue>*</balloon> आगे उसने यह भी सम्भावना व्यक्त की कि वैदिक वाड्मय के प्रत्येक काल का यह अन्तराल एक सहस्त्र वर्षों से भी अधिक का होगा।<balloon title="विल्सन, 'एडिनवर्ग रिव्यू', 1860, पृ0 375; ट्रान्सलेशन आफ द ऋग्वेद, भाग 1, पृ0 45-46" style=color:blue>*</balloon>
  • मार्टिन हाग ने मैक्समूलर के काल निर्धारण के विरूद्ध विशाल ब्राह्मण-साहित्य के 1400-1200 ई0पू0 में रचे जाने का उल्लेख किया। उसने लिखा है कि संहिताओं की रचना में कम-से-कम 500-600 वर्षों का समय लगा होगा और संहिताओं के अन्त और ब्राह्मणों के प्रारम्भ होने में भी कम-से-कम 200 वर्षों का समय लगा होगा। इस प्रकार हाग के अनुसार 2000-1400 ई0पू0 संहिताकाल है। ऋग्वेद के प्राचीन सूक्तों की रचना इससे भी कुछ सौ वर्ष की हो सकती है, ऐसा मानकर उसने वैदिक वाड्मय का आदिकाल 2400-2000 ई0पू0 निर्धारित किया।<balloon title="मार्टिन हाग, 'ऐतरेय ब्राह्मण' भाग, 1, 1863, भू0, पृ0 47 आगे" style=color:blue>*</balloon>
  • व्यूलर ने भारत की तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक तथा भौगोलिक परिस्थितियों को देखते हुए मैक्समूलर द्वारा निर्धारित समय को अत्यल्प, अतएव त्याज्य बताया। उसका कहना था कि केवल यही तथ्य कि ब्राह्मणसाहित्य का दक्षिण में प्रसार ईसा से कई शताब्दियों पूर्व हो चुका था, इस बात को सिद्ध करने के लिये पर्याप्त है कि आर्यों की दक्षिण-विजय 7वीं या 8वीं सदी ई0 पूर्व में सम्पन्न हो चुकी थी। तैत्तिरीय, बौधायन, आपस्तम्ब, भारद्वाज, हिरण्यकेशी आदि अनेक शाखायें दक्षिण में फैल चुकी थीं। ऐसी स्थिति में यह कल्पना कि भारतीय आर्य 1200 ई0पू0 या 1500 ई0पू0 में भारत की उत्तरी सीमा तथा अफगानिस्तान की पूर्वी सीमा पर स्थित थे, पूर्णतया असम्भव सिद्ध हो जाती है।<balloon title="मार्टिन हाग, 'ऐतरेय ब्राह्मण' भाग, 1, 1863, भू0, पृ0 47 आगे" style=color:blue>*</balloon> ब्यूलर ने बौद्ध साहित्य में उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर भी मैक्समूलर के मत का प्रतिवाद किया। उसका कहना था कि बौद्धों के धार्मिक साहित्य से इस बात का पता चलता है कि 500 ई0पू0 तक ब्राह्मण-सम्बन्धी विविध विज्ञान और साहित्य विकास की उस सीमा तक पहुंच चुका था जो बहुत प्राचीनकाल से जाना जाता है। ब्यूलर ने जैन परम्परा के आधार पर भी मैक्समूलर के वैदिक कालनिर्धारण को गलत सिद्ध किया। उसका कहना था कि जैनी परम्परा के अनुसार उनके एक तीर्थकर का निर्वाणकाल 776 ई0पू0 है। इस प्रकार जब एक ब्राह्मण कर्मकाण्ड-विरोधी सम्प्रदाय, जिसके उपदेश ज्ञानमार्ग के सिद्धान्त पर आधारित है, ई0पू0 आठवीं शताब्दी में प्रादुर्भूत हुआ तो यह मानना कि उसके 50 वर्ष पूर्व ब्राह्मणकाल प्रारम्भ हुआ असंगत किंवा असम्भव प्रतीत होता है और इससे भी अधिक असम्भव यह स्वीकार हुआ असंगत किंवा असम्भव प्रतीत होता है और इससे भी अधिक असम्भव यह स्वीकार करना है कि 1200 या 1500 ई0पू0 से भारतीय आर्यो की साहित्यिक गतिविधियों का प्रारम्भ हुआ होगा।<balloon title="इण्डियन ऐण्टीक्वेरी, भाग 23, 1894, पृ0 245 आगे" style=color:blue>*</balloon>
  • विल्सन, हाग, ब्यूलर आदि विद्वानों द्वारा की गई आलोचना का परिणाम यह हुआ कि स्वयं मैक्समूलर अपने मत की अप्रामाणिकता का अनुभव करने लगा और अन्ततोगत्वा उसने अपना मत बदल दिया। सन् 1862 में ऋग्वेद-संहिता के चतुर्थ भाग की प्रस्तावना में उसको स्वीकार करना पड़ा कि वैदिक वाड्मय के प्रथम तीन कालों के तिथिनिर्धारण में जो उसने मत व्यक्त किया है वह पूर्णरूपेण काल्पनिक है। 1890 में 'जिफोर्ड व्याख्यानमाला, में उसने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया कि वैदिक मन्त्रों की रचना 1000 ई0 पू0 में या 1500 ई0पू0 या 2000 ई0 पू0 में या 3000 ई0 पू0 में हुई इसको दुनिया की कोई शक्ति निर्धारित नहीं कर सकती।<balloon title="मैक्समूलर 'फिजीकल रिलीजन' (कलेक्टेड वर्क्स आफ मैक्समूलर, भाग 2), 1890, पृ0 91" style=color:blue>*</balloon>

याकोबी का मत

  • मैक्समूलर के मत की प्रतिक्रिया में जर्मन विद्वान याकोवी ने ज्योतिष-सम्बन्धी तथ्यों के आधार पर वेदों का रचनाकाल निर्धारित करने का प्रयास किया। उसने वैदिक साहित्य के काल निर्धारण के लिये विभिन्न ऋतुओं तथा नक्षत्रों में वर्षारम्भ की स्थिति तथा गृह्यसूत्रों में प्रचलित ध्रुव दर्शन की प्रथा को आधार बनाया। उसने देखा कि वैदिक ग्रन्थों में विभिन्न ऋतुओं तथा नक्षत्रों से वर्ष के प्रारम्भ होने का उल्लेख मिलता है। वर्षा, शरद, तथा हिम ऋतुओं से वर्ष के प्रारम्भ होने का उल्लेख अनेक स्थलों पर मिलता है। वर्ष, वर्षा-ऋतु अर्थात प्रौष्ठपाद से शुरू होता था।, शरद-वर्ष मार्गशीर्ष से तथा हिम-वर्ष फाल्गुन से। चातुर्मास्य याग के प्रसंग में वर्षारम्भ के विषय में एक दूसरे के विरोधी कथन ब्राह्मण तथा श्रौत सूत्रों में मिलते हैं। याकोबी का कहना था कि विभिन्न ऋतुओं तथा नक्षत्रों से वर्षारम्भ के विषय में जो विरोध दिखाई पड़ता है। वह तब समाप्त हो जायेगा जब हम यह मान लेंगे कि ऋग्वेद के समय में प्रचलित ये तीनों वर्ष बाद में केवल याजिक कार्यो में ही सुरक्षित रहे, वास्तविक रूप में प्रचलित नहीं थे। ये वर्ष केवल ऋग्वेद-काल में वास्तविक रूप में प्रचलित रहे। उत्तर-वैदिककाल में उन महीनों से जिनसे वर्ष के शुरु होने का उल्लेख किया गया था नक्षत्रों की स्थिति-परिवर्तन के कारण उस महीने में ऋतुयें शरु होती नहीं देखी गई, इनमें आवश्यक संशोधन कर दिया गया। याकोवी का कहना था कि यह स्थिति ही निश्चित तिथि का ज्ञान कराने में सहायक है। ब्राह्मणसाहित्य में कृत्तिका को नक्षत्रों में प्रथमस्थानीया माना गया है। जिस समय कृत्तिका प्रथमस्थानीया थी उस समय वसन्तसम्पात (Vernal equirnox) की स्थिति कृत्तिका में थी, ग्रीष्म-संक्रान्ति (Summer Solstice) मघा में थी। याकोबी के अनुसार यह समय 2500 ई0 पू0 का है जिसमें ब्राह्मणों की रचना हुई।<balloon title="इण्डियन ऐण्टीक्वेरी, भाग 23, 1894, पृ0 157" style=color:blue>*</balloon>
  • कौषीतकि-ब्राह्मण<balloon title="कौषीतकि-ब्राह्मण 5.1" style=color:blue>*</balloon> मे जो यह कहा गया है कि उत्तराफाल्गुनी वर्ष का मुख है और पूर्वाफाल्गुनी पूंछ है, तथा तैतरीय ब्राह्मण<balloon title="तैतरीय ब्राह्मण 1.1.2.8" style=color:blue>*</balloon> में जो यह कहा गया है कि पूर्वाफल्गुनी वर्ष की अन्तिम रात है और उत्तराफाल्गुनी वर्ष की प्रथम रात है, इससे याकोवी ने यह निष्कर्ष निकाला कि उत्तराफाल्गुनी से ही किसी समय वर्ष का प्रारम्भ होता था। वर्षा ऋतु से शुरु होने वाला वर्ष ग्रीष्म-सक्रांन्ति से शुरू होता था जिसकी स्थिति उत्तराफाल्गुनी में थी। जिस समय ग्रीष्मसंक्रान्ति उत्तराफाल्गुनी में थी हिम संक्रान्ति पूर्व भाद्रपद में थी, शरत-सम्पात मूल में था और वसन्त-सम्पात मृगशिरा में था। मृगशिरा में वसन्त-सम्पात की स्थिति कृत्तिका में वसन्त-सम्पात की स्थिति से प्राचीन है। मृगशिरा कृत्तिका से दो नक्षत्र पीछे पड़ती है। सम्पात को एक नक्षत्र पीछे सरकने में लगभग एक हजार वर्ष का समय लग जाता है। दो नक्षत्र पीछे सरकने में 2000 वर्ष का समय लगता है। इस प्रकार मृगशिरा में वसन्त-सम्पात की स्थिति कृत्तिका में वसन्त-सम्पात की स्थिति से 2000 वर्ष पूर्व की है। अर्थात 4500 ई0पू0 में वसन्त-सम्पात की स्थिति मृगशिरा में थी। याकोबी के अनुसार यही समय ऋग्वेद के मन्त्रों का रचनाकाल है। उसका कहना है कि ऋग्वेद की रचना भले उस समय न हुई हो, किन्तु उस समय की एक उच्चकोटि की विकसित सभ्यता का परिणाम तो उसे अवश्य कहा जायेगा। उस सभ्यता का समय 4500-2500 ई0पू0 का है और इसी के उत्तरार्ध का समय ऋग्वेद-संहिता का है।<balloon title="इण्डियन ऐण्टीक्वेरी, भाग 23, 1894, पृ0 157" style=color:blue>*</balloon>
  • याकोबी ने गृह्यसूत्रों में प्रचलित ध्रुवदर्शन की प्रथा के आधार पर भी वेदों के रचना काल को निर्धारित करने का प्रयास किया जो पूर्व-स्थापित मत के समर्थन में ही था। उसका कहना है कि यद्यपि उत्तरी तारा (North Star) और पोल-स्टार (Pole Star) दोनों को पर्याय समझा जाता है, किन्तु इनमें अन्तर है। उत्तरी तारा वह प्रकाशमान तारा है। जो उत्तरी ध्रुव के अत्यधिक समीप होता है। वह तारा जिसकी दूरी उत्तरी ध्रुव से इतनी कम होती है कि उसको व्यवहार में ध्रुव कहने लगते हैं पोल स्टार कहलाता है। याकोबी के अनुसार ड्रैकोनिस (Draconis) नामक तारा की पोल स्टार से 0°. 6' पर तथा उर्सइ माइनोरिस (Ursae Minoris) की 0°.28' पर दूरी सबसे कम है। इन दूरियों पर इन दोनों तारों को ध्रुव माना जा सकता है। गृह्यसूत्रों में विवाह के प्रसंग में जिस ध्रुवदर्शन की बात कही गई है वह वास्तविक पोलस्टार था। उसके बाद केवल ड्रैकोनिस ही पोलस्टार हो सकता है। यह समय तारों की गति की गणना के अनुसार 2780 ई0पू0 सिद्ध होता है। बहुत दिनों तक वह मूल ध्रुब के पास रहा, इसलिये यह स्वाभाविक था कि हिन्दू उसको अपने रीति रिवाजों में सम्बन्धित करें। इस प्रकार याकोबी के अनुसार ध्रुव का नामकरण तथा विवाह में मूल ध्रुव के प्रत्यक्ष दर्शन की प्रथा को नक्षत्र गणना के आधार पर 3000 ई0 पू0 के प्रथमार्थ में माना जा सकता है। ऋग्वेद के विवाहसूक्त में ध्रुवदर्शन की प्रथा का उल्लेख नहीं, इसलिये यह कहा जा सकता है कि ऋग्वेद के सूक्तों की रचना 3000 ई0 पू0 से पहले हो चुकी होगी। इस प्रकार संक्षेप में याकोबी के अनुसार 4500 ई0पू0 से 3000 ई0पू0 ऋग्वेद का रचनाकाल है तथा 3000 ई0पू0 से 2000 ई0 पू0 ब्राह्मणों का रचनाकाल है।

बालगंगाधर तिलक का मत

  • जिस समय बॉन में याकोबी ने ज्योतिष सम्बन्धी तथ्यों के आधार पर ऋग्वेद का रचनाकाल 4500 ई0पू0 निर्धारित किया उसी समय भारत में ज्योतिष-सम्बन्धी तथ्यों के ही आधार पर स्वतन्त्र रूप से कार्य करते हुए बालगंगाधर तिलक भी उसी निष्कर्ष पर पहुँचे। दोनों में अन्तर यह था कि तिलक ने वैदिक साहित्य से अनेक ऐसे भी प्रमाण उद्धृत किये जिनसे वेदमन्त्रों का रचना काल दो हजार वर्ष और पूर्व सिद्ध होता है। तिलक के अनुसार वैदिक याज्ञिक साहित्य के अवलोकन से यह बात स्पष्ट रूप से मालूम होती है कि जिस प्रकार ऋतुओं के साथ वर्ष या सत्र के प्रारम्भ का सम्बन्ध माना जाता था उसी प्रकार नक्षत्रों के साथ भी वर्ष या सत्र के प्रारम्भ का सम्बन्ध माना जाता था। जिस नक्षत्र से वर्ष का प्रारम्भ वैदिक साहित्य में मिलता है, उससे यह बात पुष्ट होती है कि वसन्त-सम्पात से ही वर्ष या उत्तरायण का प्रारम्भ होता था। सम्पात या संक्रान्ति हमेशा एक ही नक्षत्र पर नहीं होते। जिस नक्षत्र में एक समय सम्पात पड़ेगा कई सौ वर्ष बाद वह उसी नक्षत्र में नहीं पड़ेगा। इस असंगति को दर करने के लिये समय-समय पर वैदिक ज्योतिष-वैज्ञानिकों के द्वारा सुधार किये जाते रहे।
  • तिलक के अनुसार प्राचीन कैलेण्डर में तीन परिवर्तनों के प्रमाण वैदिक वाङमय में मिलते हैं: एक समय कृत्तिका नक्षत्र में, एक समय मृगशिरा नक्षत्र में तथा एक समय पुनर्वसु नक्षत्र में वसन्त-सम्पात पड़ता था। जिस समय कृत्रिका, वसन्त-सम्पात, उत्तरायण तथा वर्ष का प्रारम्भ एक साथ था वह समय 2500 ई0पू0 का है। कृत्तिका से एक नक्षत्र पूर्व अर्थात भरणी नक्षत्र के 10° में वसन्त-सम्पात को उल्लेख वेदांग ज्योतिष में मिलता है। यह समय 1400 ई0 पू0 का है। इस प्रकार 2500 ई0 पू0 से 1400 ई0 पू0 तक के काल को तिलक ने कृत्तिकाकाल की संज्ञा दी।<balloon title="तिलक, ओरायन, पूना, 1893, पृ0 33-62; 221" style=color:blue>*</balloon> इसी समय तैत्तिरीय-संहिता तथा अनेक ब्राह्मणों की रचना हुई। इस समय तक ऋग्वेद के सूक्त प्राचीन और अस्पष्ट हो चुके थे। यह वह काल था जिसमें सम्भवत: वेदों की संहिताओं का व्यवस्थित रूप से ग्रन्थ के रूप में संकलन हुआ और प्राचीनतम सूक्तों के अर्थबोध की दिशा में भी प्रयत्न हुए। इसी समय भारतीयों का चीनियों के साथ सम्पर्क हुआ और चीनियों ने उनकी नक्षत्रविद्या ग्रहण की।
  • जिस समय मृगशिरा नक्षत्र, वसन्त-सम्पात, उत्तरायण तथा वर्ष का प्रारम्भ एक साथ था वह समय 4500 ई0पू0 का है। कृत्तिका काल से पूर्व अर्थात 2500 ई0पू0 से लेकर 4500 ई0 पू0 के काल को तिलक ने मृगशिराकाल की संज्ञा दी। आर्य सम्भ्यता के इतिहास में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण काल यही है। ऋग्वेद के अधिकांश सूक्तों की रचना इसी समय हुई। अनेक नये आख्यानों तथा प्राचीन आख्यानों के नये रूपों का विकास भी इसी समय हुआ। इस काल में आर्य, ग्रीक, तथा पारसी एक साथ निवास करते थे। इसके अन्तिक काल में वे एक दूसरे से अलग हुए।<balloon title="तिलक, ओरायन, पूना, 1893, पृ0 33-62; 220" style=color:blue>*</balloon>
  • ऋग्वैदिक मन्त्रों के रचनाकाल की 4500 ई0 पू0 तक की अवधि याकोबी ने भी निर्धारित की थी। किन्तु वह उससे पीछे नहीं जा सका। तिलक ने वैदिक साहित्य में कई ऐसे उद्धरण खोज निकाले जिसमें वसन्त-सम्पात, उत्तरायण तथा वर्ष के आरम्भ का पुनर्वसु नक्षत्र में होने का संकेत मिलता है। तिलक ने देखा कि तैतरीय संहिता तथा तांडय ब्राह्मण में जहां फाल्गुनी पूर्णमास से वर्ष के प्रारम्भ होने का उल्लेख किया गया है वहां चित्रा पूर्णमास से भी वर्ष के प्रारम्भ होने की बात कही गई है।<balloon title=" चित्रापूर्णमासे दीक्षेरन् मुखं वा एतत्संवत्सरस्य यच्चित्रा पूर्णमासो मुखत एवं संवत्सरमारम्य दीक्षन्ते। तैतरीय संहिता 7.4.8;" style=color:blue>*</balloon>
  • तिलक के अनुसार तैतरीय संहिता में जिस वर्ष के प्रारम्भ होने का उल्लेख किया गया है वह वर्ष वस्तुत: पुनर्वसु नक्षत्र से शुरु होता था। उस दिन वसन्त-सम्पात भी होता था। पुनर्वसु नक्षत्र, वसन्त-सम्पात और वर्ष का प्रारम्भ तीनों की स्थिति एक साथ थी, इसके समर्थन में तिलक ने कई प्रमाण दिये हैं। पुर्नवसु को नक्षत्रों में प्रथम स्थान प्रदान करने वाली सूची यद्यपि वैदिक साहित्य में नहीं मिलती और न आग्रहायण जैसा उसका पर्यायवाची शब्द ही मिलता है, फिर भी याज्ञिक साहित्य में पुनर्वसु को नक्षत्रों की सूची में प्रथमस्थानीय मानने का संकेत मिलता है। *पुनर्वसु नक्षत्र की अधिष्ठात्री देवता अदिति है।
  1. ऐतरेय ब्राह्मण<balloon title="ऐतरेय ब्राह्मण 1.7" style=color:blue>*</balloon> में अदिति से सभी यज्ञों के शुरू होने तथा उसी में समाप्त होने का उल्लेख है।
  2. माध्यन्दिन संहिता<balloon title=""माध्यन्दिन संहिता 4.19" style=color:blue>*</balloon> में अदिति को 'उभयत: शीर्ष्णी' अर्थात दोनों तरफ शिरवाली कहा गया है्।
  3. ऋग्वेद<balloon title="ऋग्वेद 10.72.5" style=color:blue>*</balloon> में अदिति को देवयान को पितृयान से अलग करने वाली और देवमाता कहा गया है। तिलक के अनुसार ये सारे उल्लेख अदिति से वर्ष के प्रारम्भ होने का कथन करते हैं। अदिति से वर्ष के प्रारम्भ मानने का मतलब है पुनर्वसु से वर्ष का प्रारम्भ मानना। इस प्रकार जिस समय अदिति से यज्ञ का प्रारम्भ होता था, उस समय पुनर्वसु नक्षत्र मृगाशिरा से दो नक्षत्र बाद में पड़ती है। वसन्त-सम्पात को मृगशिरा से सरककर पीछे हटने में लगभग 2000 वर्ष लगे होंगे। इस प्रकार तिलक के अनुसार यह समय 4000+2000= 6000 ई0 पू0 का है। आर्यसभ्यता का यही प्राचीनतम काल है। 4000 ई0 पू0 से 6000 ई0 पू0 के समय को तिलक ने अदिति-काल की संज्ञा दी। यह वह समय है जबकि अलंकृत ऋचाओं तथा सूक्तों की सत्ता नहीं थी। गद्य-पद्य- उभयात्मक यज्ञपरक निविद् मन्त्रों की सत्ता इस काल की है। ग्रीक तथा पारसियों के पास इस काल की कोई परम्परा सुरक्षित नहीं।<balloon title=" तिलक, ओरायन, पृ0 214-20" style=color:blue>*</balloon>

याकोबी तथा तिलक के मत की समीक्षा

  • याकोबी तथा तिलक की वेदों के रचनाकाल-विषयक नई खोज ने विद्वानों में एक हलचल मचा दी। सर्वप्रथम इनका मत विद्वानों को पूर्णतया काल्पनिक, असंभव किंवा व्यर्थ प्रतीत हुआ और कई विद्वानों ने इसका मज़ाक़ उड़ाया। हिटनी<balloon title="हिटनी 'आन ए रेसेण्ट अटेम्प्ट बाई याकोवी एण्ड तिलक टु डिटरमिन ओन एष्ट्रोनॉमिकल एविडेन्स द डेट आफ द अर्लिएस्ट वेदिक पीरिएड एज 4000 बी0सी0, इण्डियन एण्टीक्वेरी, अप्रैल 1895, पृ0 362-65" style=color:blue>*</balloon> और थिबौत<balloon title="थिबौत, इण्डियन एण्टीक्वेरी, अप्रैल 1895 में प्रकाशित लेख 'आन सम रिसेण्ट अटेम्प्ट्स टु डिटरमिन द एण्टीक्वेरी आफ वेदिक सिविलिजेशन' पृ0 87-96" style=color:blue>*</balloon> ने इस मत का डटकर विरोध किया। प्राचीन वैदिक आर्यों को ज्योतिष-सम्बन्धी ज्ञान था यह इनको स्वीकार्य नहीं था।
  • थिबौत की आपत्तियां हिटनी की अपेक्षा कुछ अधिक उग्र थीं, यद्यपि उसने यह भी अपना भाव अभिव्यक्त किया कि तिलक और याकोबी के निष्कर्षों को पूर्णतया असम्भव कहने का उसे अधिकार नहीं। उसका कहना था कि हो सकता है कि वैदिक साहित्य और सभ्यता कहीं उससे भी अधिक प्राचीन हो और इस बात के अनेक प्रमाण परवर्ती वैदिक साहित्य में मिल सकते हैं। किन्तु इस बात को स्वीकार करने से पूर्व उसे इस बात की पूर्णतया पुष्टि हो जानी चाहिये कि जिन वैदिक ज्योतिष-सम्बन्धी उद्धरणों के आधार पर तिलक तथा याकोबी ने अपने निष्कर्ष निकाले हैं उनके अर्थ वहीं हैं जो उन्होंने किये हैं। थिबौत के अनुसार ज्योतिष-गणना के आधार पर यह समय 1100 ई0 पू0 का सिद्ध होता है।
  • एक तरफ हिटनी तथा थिबौत ने तिलक तथा याकोबी के मतों की जहां कड़ी आलोचना की, वहां दूसरी ओर ब्यूलर ने अपने एक लेख में उनकी काफी प्रशंसा की।<balloon title="इण्डियन एण्टीक्वेरी भाग 23, 1894 में प्रकाशित लेख 'नोट आन प्रोफेसर याकोबीज् एज आफ द वेद एण्ड आन प्रोफेसर तिलकाज ओरायन', पृ0 240-48" style=color:blue>*</balloon> उसने उनके द्वारा प्रस्तुत किये गये प्रमाणों की परीक्षा की और वेदों के रचनाकाल-निर्धारण में उन्हें पुष्ट पाया। उसने निष्कर्ष रूप में इस बात को कहा कि प्राचीन हिन्दुओं को ज्योतिष-विषयक ज्ञान था जो वैज्ञानिक सिद्धान्तों तथा वास्तविक पर्यवेक्षण पर आधारित था। ब्यूलर ने अभिलेखों तथा जैन एवं बौद्ध-साहित्य के आधार पर भी तिलक तथा याकोबी के द्वारा स्थापित वैदिक साहित्य की प्राचीनता का समर्थन किया। सन 1965 में नरेन्द्र नाथ ला ने अपनी पुस्तक में तिलक तथा याकोबी के मतों का विवेचन किया तथा हिटनी एवं थिबौत द्वारा उठाई गई सभी आपत्तियों का एक-एक करके समाधान किया।<balloon title="नरेन्द्रनाथ ला एज ऑफ द ॠग्वेद, 1965" style=color:blue>*</balloon> डा0 ला ने भारतीय ऐतिहासिक परम्परा में प्राप्त राजवंशों की कालगणना द्वारा भी तिलक के मत की पुष्टि की।