शक कुषाण काल

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शक-कुषाण


इतिहास तो एक सिलसिले वार मुकम्मिल चीज़ है, और जब तक तुम्हे यह मालूम न हो कि दुनियाँ के दूसरे हिस्सों में क्या हुआ - तुम किसी एक देश का इतिहास समझ ही नहीं सकते ।

                                                                                                   -जवाहर लाल नेहरु (विश्व-इतिहास की झलक)





कुषाण भी शकों की ही तरह मध्य एशिया से निकाले जाने पर काबुल-कंधार की ओर यहाँ आ गये थे । उस काल में यहाँ के हिन्दी यूनानियों की शक्ति कम हो गई थी, उन्हें कुषाणों ने सरलता से पराजित कर दिया । उसके बाद उन्होंने काबुल-कंधार पर अपना राज्याधिकार कायम किया । उनके प्रथम राजा का नाम कुजुल कडफाइसिस था । उसने काबुल – कंधार के यवनों (हिन्दी यूनानियों) को हरा कर भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर बसे हुए पह्लवों को भी पराजित कर दिया । कुषाणों का शासन पश्चिमी पंजाब तक हो गया था । कुजुल के पश्चात् उसके पुत्र विम तक्षम ने कुषाण राज्य का और भी अधिक विस्तार किया । भारत की तत्कालीन राजनैतिक परिस्थिति का लाभ उठा कर शक लोग आगे बढ़े और उन्होंने हिंद यूनानी शासकों की शक्ति को कमजोर कर शुंग साम्राज्य के पश्चिमी भाग को अपने अधिकार में कर लिया । विजित प्रदेश का केन्द्र उन्होंने मथुरा को बनाया, जो उस समय उत्तर भारत के धर्म, कला तथा व्यापारिक यातायात का एक प्रमुख नगर था । [संदर्भ देखें]

शकों ने उत्तर-पश्चिमी राज्य की राजधानी तक्षशिला बनाई । धीरे-धीरे तक्षशिला और मथुरा पर शकों की दो अलग -अलग शाखाओं का अधिकार हो गया । मथुरा नगर का महत्व इतना बढ़ गया कि शूरसेन जनपद को ही “मथुरा राज्य” कहा जाने लगा । मथुरा में जिन शक राजाओं का आधिपत्य रहा उनकी उपाधि 'क्षत्रप' मिलती है । तक्षशिला के शक- शासकों की भी यही उपाधि थी । उसके बाद अधिक प्रतापी शासकों को 'महा-क्षत्रप' की उपाधि देना प्रारम्भ कर दिया । ये 'क्षत्रप' स्वयं को भारतीय महाराजाओं या सम्राटों के समकक्ष मानने लगे । शासन की ओर से विभिन्न प्रदेशों के शासनार्थ जो उपशासक नियुक्त होते थे उनकी संज्ञा 'क्षत्रप' प्रसिद्ध हो गई थी ।

शकों के पहले प्रतापी राजा का नाम 'मोअस' ज्ञान में आता है । इसके सिक्के काफी अधिक संख्या में मिलें हैं । तक्षशिला में मिले एक ताम्रपत्र से इस राजा का नाम 'मोग' संज्ञान में आता है । इसका समय ई. पूर्व 100 के लगभग है । 'मोअस' ने पूर्वी तथा पश्चिमी गांधार प्रदेश के यूनानी राज्य को समाप्त कर दिया । मोअस का उत्तराधिकारी ऐजेज प्रथम हुआ । उसके बाद ऐजेज द्वितीय गोन्डोफरस आदि अनेक शासक हुए । इन के बाद शकों के कुसुलक वंश का अधिकार हो गया । मथुरा पर जिन शासकों ने राज्य किया उनके नाम सिक्कों तथा अभिलेखों द्वारा ज्ञात हुए है । शुरु के 'क्षत्रप' शासकों के नाम 'हगान' और 'हगामष' मिलते है । इनके सिक्कों से ऐसा ज्ञात होता है कि दोनों ने सम्मिलित रूप से शासन किया । संभवत: ये दोनो भाई रहे होंगे । कुछ सिक्के केवल 'हगामष' के मिले हैं । दो अन्य शासकों के नाम से साथ भी क्षत्रप शब्द मिलता है । ये शासक हैं- 'शिवघोष' तथा 'शिवदत्त' । इनके सिक्के कम मिले है, पर वे महत्वपूर्ण हैं । [संदर्भ देखें] इनके तथा हगान और हगामष के सिक्कों पर एक ओर लक्ष्मी और दूसरी ओर घोड़ा बना हुआ है ।

हगान-हगामष के पश्चात राजुबुल मथुरा का शासक हुआ । इसके सिक्कों पर खरोष्टी में लेख मिलते हैं - राजुबुल के ये सिक्के बड़ी संख्या में मिले हैं और ये सिक्के कई भाँति के है । कुछ सिक्कों पर 'छत्रपस' के स्थान पर 'महाछत्रपस' लिखा हुआ मिलता है । उसकी 'अप्रतिहतचक्र' उपाधि से शासक के स्वतन्त्र शासन तथा शक्ति को सूचित करती है । इसके सिक्के सिंधु-घाटी से लेकर पूर्व में गंगा यमुना दोआब तक मिले है, जिनसे राजुबुल की विशाल सत्ता का ज्ञान होता है । इसके समय में मथुरा राज्य की सीमाएं भी बढ़ गई । [संदर्भ] मोरा (जिला मथुरा) से ब्राह्मी लिपि में लिखा हुआ एक महत्वपूर्ण शिलालेख प्राप्त हुआ है, जिसमें राजुबुल के लिए 'महाक्षत्रपस' शब्द का प्रयोग किया गया है । इस लेख में राजुबुल के एक पुत्र का भी विवरण मिलता है, पर उसका नाम खण्ड़ित हो गया है । 1869 ई० में मथुरा से पत्थर का एक 'सिंह-शीर्ष' मिला जो लंदन के ब्रिटिश म्यूजियम में रखा हुआ है । उस पर खरोष्टी लिपि और प्राकृत भाषा में कई लेख हैं । इनमें क्षत्रप शासकों के नाम मिलते है । एक शिलालेख में महाक्षत्रप राजुबुल की पटरानी कमुइअ (कंबोजिका) के द्वारा बुद्ध के अवशेषों पर एक स्तूप तथा एक 'गुहा विहार' नामक मठ बनवाने का उल्लेख मिलता है । संभवत: यह मठ मथुरा में यमुना-तट पर वर्तमान सप्तर्षि टीला पर रहा होगा । [संदर्भ] यहीं से ऊपर उल्लेखित 'सिंह-शीर्ष'मिला था ।

महाक्षत्रप शोडास का शासन-काल ई० पूर्व 80 से ई० पूर्व 57 के बीच माना जाता है । यह सबसे पहला अभिलेख है जिसमें मथुरा में कृष्ण-मंदिर के निर्माण का उल्लेख मिलता है । शोडास का समकालीन तक्षशिला का शासक पतिक था । मथुरा के उक्त सिंह- शीर्ष पर खुदे हुए एक लेख में पतिक की उपाधि 'महाक्षत्रप' दी हुई है । तक्षशिला से प्राप्त सं०78 में एक दूसरे शिलालेख में 'महादानपति' पतिक का नाम आया है । सम्भवतः ये दोनो पतिक एक ही है और जब शोडास मथुरा का क्षत्रप था उसी समय पतिक तक्षशिला में महाक्षत्रप था । मथुरा-लेख में पतिक के साथ मेवकि का नाम भी आता है । गणेशरा गाँव (जि० मथुरा) से मिले एक लेख में क्षत्रप घटाक का नाम भी है ।

राजुबुल के बाद उसका पुत्र शोडास (लगभग ई० पूर्व 80-57) शासनाधिकारी हुआ । इस सिंह-शीर्ष के शिलालेख पर शोडास की उपाधि 'क्षत्रप' अंकित है, किन्तु मथुरा में ही मिले अन्य शिलालेखों में उसे 'महाक्षपत्र' कहा गया है । कंकाली टीला (मथुरा) से प्राप्त एक शिलापट्ट पर सं० (?) 72 का ब्रह्मी लेख है, जिसके अनुसार 'स्वामी महाक्षत्रप' शोडास के शासनकाल में जैन भिक्षु की शिष्या अमोहिनी ने एक जैन विहार की स्थापना की । [संदर्भ देखें] राजुबुल की पत्नी कंबोजिका ने मथुरा में यमुना नदी के तट पर एक बौद्ध-बिहार निर्मित कराया था, जिसके लिए शोडास ने कुछ भूमि दान में दी थी । मथुरा के हीनयान मत वाले बौद्धों की 'सर्वास्तिवादिन्' नामक शाखा के भिक्षुओं के निर्वाह के लिए यह दान दिया गया था । सिंह-शीर्ष के इन खरोष्ठी लेखों से ज्ञात होता है कि शोडाल के काल में मथुरा के बौद्धों में हीनयान तथा महायान (महासंधिक)-- मुख्यतः इन दोनों शाखाओं के अनुयायी थे और इनमें परस्पर वाद-विवाद भी होते थे ।

शोडास के सिक्के दो प्रकार के है, पहले वे है जिन पर सामने की तरफ खड़ी हुई लक्ष्मी की मूर्ति तथा दूसरी तरफ लक्ष्मी का अभिषेक चित्रित है् । इन सिक्कों पर हिन्दी में 'राजुबुल पुतस खतपस शोडासस' लिखा हुआ है । [संदर्भ देखें] दूसरे प्रकार के सिक्कों पर लेख में केवल 'महाक्षत्रप शोडासस' चित्रित है । इससे अनुमान होता है कि शोडास के पहले वाले सिक्के उस समय के होगें जब उसका पिता जीवित रहा होगा और दूसरे राजुबुल की मृत्यु के बाद, जब शोडास को राजा के पूरे अधिकार मिल चुके होगें । [संदर्भ] शोडास तथा राजुबुल के सिक्के हिंद -यूनानी शासक स्ट्रैटो तथा मथुरा के मित्र- शासकों के सिक्कों से बहुत मिलते-जुलते हैं । शोडास के अभिलेखों में सबसे महत्वपूर्ण वो लेख है जो एक सिरदल (धन्नी) पर उत्कीर्ण है । यह सिरदल मथुरा छावनी के एक कुएँ पर मिली थी, जो कटरा केशवदेव से लाई गई प्रतीत होती है ।

महाक्षत्रप शोडास का शासन-काल ई० पूर्व 80 से ई० पूर्व 57 के बीच माना जाता है । यह सबसे पहला अभिलेख है जिसमें मथुरा में कृष्ण-मंदिर के निर्माण का उल्लेख मिलता है । शोडास का समकालीन तक्षशिला का शासक पतिक था । मथुरा के उक्त सिंह- शीर्ष पर खुदे हुए एक लेख में पतिक की उपाधि 'महाक्षत्रप' दी हुई है । तक्षशिला से प्राप्त सं०78 में एक दूसरे शिलालेख में 'महादानपति' पतिक का नाम आया है । सम्भवतः ये दोनो पतिक एक ही है और जब शोडास मथुरा का क्षत्रप था उसी समय पतिक तक्षशिला में महाक्षत्रप था । मथुरा-लेख में पतिक के साथ मेवकि का नाम भी आता है । गणेशरा गाँव (जि० मथुरा) से मिले एक लेख में क्षत्रप घटाक का नाम भी है । [संदर्भ देखें] शोडास के साथ इन क्षत्रपों का क्या संबंध था, यह विवरण कहीं नहीं मिलता है । ई० पूर्व पहली शती का पूर्वार्द्ध पश्चिमोत्तर भारत के शकों के शासन का समय था । इस समय में तक्षशिला से लेकर उत्तरी महाराष्ट्र् तक शकों का ही एकछ्त्र राज्य हो गया था । [संदर्भ]

तक्षशिला के कुसुलुक वंशी लिश्रक और पतिक शक्तिशाली राजा थे । मथुरा प्रदेश में राजुबुल तथा शोडास की प्रभुता थी । सौरष्ट्र् और महाराष्ट्र् में भूमक औरनहपान आदि शासक थे । नहपान के दामाद उषवदात (ऋशभदत्त) के समय में शकों का प्रभुत्व पूना से उत्तर में अजमेर तक फैला हुआ था । नासिक तथा जुन्नर की गुफाओं में इनके बहु-संख्यक लेख मिले हैं जिनसे ज्ञात होता है कि नहपान और उशवदात के समय में अनेक गुफा-मंदिरो का निर्माण किया गया और विभिन्न धार्मिक कार्य किये गये । इन शकों के समय में उज्जयिनी प्रधान केन्द्र था । ई० पूर्व 57 के लगभग उज्जयिनी के उत्तर में मालवगण अपनी शक्ति संगठित करते रहे और भारत से शकों को भगा कर विदेशी शासन से छुटकारा पाने का प्रयास करने लगे । उन्होंने महाराष्ट्र के सातवाहन शासकों से इस कार्य में मदद ली और उज्जयिनी के शकों को पराजित कर दिया । यह पराजय शकों की शक्ति पर भारी सिद्ध हुई और वे भारत के राजनैतिक रंगमंच से ओझल हो गये । इसी वर्ष विक्रम संवत् की