"संस्कृत में सांख्य" के अवतरणों में अंतर
आदित्य चौधरी (चर्चा | योगदान) |
आदित्य चौधरी (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति १: | पंक्ति १: | ||
− | ==महाभारत (शांतिपर्व)== | + | {{Menu}} |
− | [[ | + | {{सांख्य दर्शन}} |
− | * | + | ==संस्कृत में सांख्य दर्शन== |
− | < | + | {{tocright}} |
− | + | हम उन ग्रन्थों में उपलब्ध [[सांख्य दर्शन]] का परिचय प्रस्तुत करेगें जिन्हें सांख्य सम्प्रदाय के ग्रन्थ मानने की परम्परा नहीं है लेकिन जिनमें सांख्य दर्शन का उल्लेख व परिचय प्राप्त होता है। ऐसे भी ग्रन्थ है जिनमें प्रस्तुत दर्शन सांख्यीय मान्यताओं के अनुरूप सांख्य सम्प्रदाय की शब्दावली में ही है। इस प्रकार के ग्रन्थों में प्रमुख है- | |
+ | #अहिर्बुध्न्यसंहिता, | ||
+ | #महाभारत (विशेष रूप से शांतिपर्व), | ||
+ | #श्रीमद्भागवत, | ||
+ | #भगवद्गीता, | ||
+ | #पुराण, | ||
+ | #उपनिषद्, | ||
+ | #चिकित्सकीय शास्त्र आदि। | ||
+ | ==अहिर्बुध्न्यसंहिता== | ||
+ | *अहिर्बुध्न्यसंहिता<balloon title="इसके अन्तर्गत सांख्यदर्शन का परिचय आचार्य उदयवीर शास्त्रीकृत सां.द.इ. तथा अणिम सेनगुप्ताकृत ESST के आधार पर तैयार किया गया है।" style=color:blue>*</balloon> पांचरात्र सम्प्रदाय का प्रमुख ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ के 12वें अध्याय के 18वें श्लोक में सांख्य दर्शन को [[विष्णु]] के संकल्प रूप में बताकर कहा गया है- | ||
+ | <poem>षष्टिभेदस्मृतं तन्त्रं सांख्यं नाम महामुने। | ||
+ | प्राकृतं वैकृतं चेति मण्डले द्वे समासत:॥</poem> | ||
+ | *[[कपिल]] के सांख्य दर्शन में साठ (पदार्थों) के भेद का विवेचन है (ऐसा) कहा जाता है। संक्षेप में प्राकृत तथा वैकृत मण्डल (भाग) है। | ||
+ | *प्राकृत मण्डल में 32 तथा वैकृत मण्डल में 28 पदार्थ हैं। | ||
+ | *प्रथम मण्डल के पदार्थ 'तन्त्र' और द्वितीय मण्डल के पदार्थ 'काण्ड' कहे गए। | ||
+ | *प्राकृत मण्डल में निम्नलिखित पदार्थ हैं- | ||
+ | #ब्रह्मतंत्र, | ||
+ | #पुरुषतंत्र, | ||
+ | #शक्ति, | ||
+ | #नियत, | ||
+ | #कालतंत्र, | ||
+ | #गुणतंत्र, | ||
+ | #अक्षरतंत्र, | ||
+ | #प्राणतंत्र, | ||
+ | #कर्तृतंत्र समित (स्वामि) तन्त्र, | ||
+ | #ज्ञानक्रिया, | ||
+ | #मात्रतन्त्र तथा | ||
+ | #भूततन्त्र। | ||
+ | *इनमें गुणतन्त्र में सत्त्व, रजस, तमस ज्ञानतन्त्र में पंचज्ञान साधन, क्रियातन्त्र में पंचकर्मसाधन, मात्रतन्त्र में पंवतन्मात्र, भूततन्त्र में पंचस्थूलभूत निहित मानें तो कुल 32 पदार्थ हो जाते हैं। | ||
+ | *वैकृत मण्डल में 28 पदार्थ निम्नालिखित हैं- | ||
+ | #कृत्यकाण्ड में पांच, | ||
+ | #भोगकाण्ड, वृत्तकाण्ड में एक-एक, | ||
+ | #क्लेशकाण्ड में पांच, | ||
+ | #प्रमाणकाण्ड में तीन, तथा | ||
+ | #ख्याति, | ||
+ | #धर्म, | ||
+ | #वैराग्य, | ||
+ | #ऐश्वर्य गुण, | ||
+ | #लिंग, | ||
+ | #दृष्टि, | ||
+ | #आनुश्रविक, | ||
+ | #दुख, | ||
+ | #सिद्धि, | ||
+ | #काषाय, | ||
+ | #समय तथा | ||
+ | #मोक्षकाण्ड। | ||
+ | *षष्टितन्त्र के विभिन्न साठ पदार्थों की इस प्रकार की गणना, सांख्य के प्रचलित व उपलब्ध ग्रन्थों में उल्लिखित साठ पदार्थों की गणना से भिन्न तो प्रतीत होती है तथापि सांख्यभिमत के सर्वथा अनुकूल है। | ||
+ | *सांख्यशास्त्रीय परम्परा में पांच विपर्यय, नौ तुष्टियाँ, आठ सिद्धियाँ, अट्ठाइस अशक्तियाँ तथा दस मौलिकार्थ-इस प्रकार साठ पदार्थ माने जाते है। | ||
+ | *सांख्यदर्शन, परम्परा में परिगणित 20 तत्त्व (ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय, तन्मात्र तथा स्थूलभूत प्राकृत मण्डल में सम्मिलित हैं। साथ ही पुरुष और त्रिगुण भी सम्मिलित हैं। | ||
+ | *संहिता में तीनों गुणों के गुणतन्त्र के अन्तर्गत रखा गया लेकिन प्रकृति की पृथक गणना नहीं की गई। | ||
+ | *प्राकृततन्त्र में मन, बुद्धि, अहंकार का संकेत स्पष्ट नहीं है, ऐसा उदयवीर शास्त्री स्वीकार करते हैं। किन्तु अणिमा सेनगुप्ता के अनुसार कर्तृतन्त्र में इनका अन्तर्भाव किया जा सकता है। क्योंकि ये तीन अन्त:करण पुरुष के समस्त भोग कर्म के आधारभूत हैं<balloon title="इ.सां. स्कूल पृष्ठ 103 तथा ओ.डे.सि. पृष्ठ 119 भी द्रष्टव्य" style=color:blue>*</balloon>। | ||
+ | *वैकृत मण्डल में प्रस्तुत अट्ठाइस पदार्थों में कुछ का सांख्य दर्शन में प्रसंगवश उल्लेख तो होता हैं तथापि इन्हें पृथक तत्त्वरूप में नहीं जाना जाता। त्रिविध प्रमाण, बुद्धि के आठ भावों में से सात्त्विक भाव ज्ञान (ख्याति), धर्म, वैराग्य, ऐश्वर्य, सिद्धि, (सिद्धिकाण्ड) मोक्ष आदि की चर्चा सांख्य दर्शन में उपलब्ध है। पुरुषार्थ रूप भोग का भी वैकृत मण्डल में उल्लेख है। पंचविपर्यय कलेश रूप में उल्लिखित है। प्रकृति, परमात्मा तथा जीवात्मा (दो चेतन तत्त्वों) की मान्यता संहिताकार की जानकारी में रही होगी ऐसा माना जा सकता है<balloon title="इ.सां. स्कूल पृष्ठ - 103" style=color:blue>*</balloon>। यहां ब्रह्म शब्द प्रकृति के अर्थ में लिए जाने की संभावना युक्तिसंगत इसलिए नहीं कही जा सकती, क्योंकि प्रकृति और गुणत्रय की तात्विक अभिन्नता है और गुणतंत्र की गणना भी प्राकृत मण्डल में है। | ||
+ | *प्राकृत मण्डल में उल्लिखित नियति, काल, अक्षर, सामि पदार्थों का स्पष्ट कथन सांख्य साहित्य में नहीं पाया जाता, तथापि इनके किन्हीं अर्थों को सांख्य दर्शन में मान्य तत्त्वों के साथ सामंजस्य रूप में स्वीकार अवश्य किया जा सकता है। पुरुष और प्रकृति सत्ता की दृष्टि से अक्षर कहे जा सकते हैं।<balloon title="शांति पर्व 107/11, 12" style=color:blue>*</balloon> | ||
+ | *इसी तरह सामि (स्वामी) अधिष्ठानुभूत परमात्मा के सम्बन्ध में समझा जा सकता हैं।<balloon title="इ.सां. स्कूल पृष्ठ- 103" style=color:blue>*</balloon> <ref>3</ref> नियति यदि स्वभाव के अर्थ में लिया जाय तो सृष्टि वैषम्य की स्वाभाविता प्रकृति में तथा भोगापवर्गोन्मुखता जीवात्मा पुरुष के स्वभाव के रूप में लिया ही जा सकता है। | ||
+ | *अहिर्बुध्न्यसंहिता के इस षष्टिभेद के बारे में उदयवीर शास्त्री का मत है कि 'वार्षगण्य के योग संबंधी व्याख्या-ग्रन्थों के आधार पर और कुछ इधर-उधर से सुन-जानकर संहिताकार ने साठ पदार्थों की संख्या पूरी गिनाने का प्रयास किया<balloon title="सां. द. इ. पृष्ठ 212-13" style=color:blue>*</balloon>'। | ||
+ | *दूसरी ओर अणिमा सेनगुप्ता का मत है कि संहिताकार व्यक्तिगत (साक्षात्) रूप से षष्टितन्त्र के विषयवस्तु से परिचित रहे होंगे। अत: यह (संहिता) कपिल के मूल विचारों पर ही आधृत कही जा सकती है<balloon title="इ.सां. स्कूल पृष्ठ 104" style=color:blue>*</balloon>। संहिताकार षष्टितन्त्र से सुपरिचित या अल्पपरिचित रहा हो या यत्र-तत्र उपलब्ध जानकारी के आधार पर साठ पदार्थों की गणना की हो- एक तथ्य स्पष्ट है कि षष्टितन्त्र के कपिलप्रोक्त सांख्य दर्शन का नाम होने के विषय में संदेह मात्र भी न था। यह सम्भवत: उसके अन्तर्गत प्रचलित हो गई हो जैसा कि भागवत और शांतिपर्व में भी परिलक्षित होता है। | ||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
==उपनिषदों में सांख्य दर्शन== | ==उपनिषदों में सांख्य दर्शन== | ||
<poem>द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। | <poem>द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। |
०८:३४, ९ फ़रवरी २०१० का अवतरण
संस्कृत में सांख्य दर्शन
हम उन ग्रन्थों में उपलब्ध सांख्य दर्शन का परिचय प्रस्तुत करेगें जिन्हें सांख्य सम्प्रदाय के ग्रन्थ मानने की परम्परा नहीं है लेकिन जिनमें सांख्य दर्शन का उल्लेख व परिचय प्राप्त होता है। ऐसे भी ग्रन्थ है जिनमें प्रस्तुत दर्शन सांख्यीय मान्यताओं के अनुरूप सांख्य सम्प्रदाय की शब्दावली में ही है। इस प्रकार के ग्रन्थों में प्रमुख है-
- अहिर्बुध्न्यसंहिता,
- महाभारत (विशेष रूप से शांतिपर्व),
- श्रीमद्भागवत,
- भगवद्गीता,
- पुराण,
- उपनिषद्,
- चिकित्सकीय शास्त्र आदि।
अहिर्बुध्न्यसंहिता
- अहिर्बुध्न्यसंहिता<balloon title="इसके अन्तर्गत सांख्यदर्शन का परिचय आचार्य उदयवीर शास्त्रीकृत सां.द.इ. तथा अणिम सेनगुप्ताकृत ESST के आधार पर तैयार किया गया है।" style=color:blue>*</balloon> पांचरात्र सम्प्रदाय का प्रमुख ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ के 12वें अध्याय के 18वें श्लोक में सांख्य दर्शन को विष्णु के संकल्प रूप में बताकर कहा गया है-
षष्टिभेदस्मृतं तन्त्रं सांख्यं नाम महामुने।
प्राकृतं वैकृतं चेति मण्डले द्वे समासत:॥
- कपिल के सांख्य दर्शन में साठ (पदार्थों) के भेद का विवेचन है (ऐसा) कहा जाता है। संक्षेप में प्राकृत तथा वैकृत मण्डल (भाग) है।
- प्राकृत मण्डल में 32 तथा वैकृत मण्डल में 28 पदार्थ हैं।
- प्रथम मण्डल के पदार्थ 'तन्त्र' और द्वितीय मण्डल के पदार्थ 'काण्ड' कहे गए।
- प्राकृत मण्डल में निम्नलिखित पदार्थ हैं-
- ब्रह्मतंत्र,
- पुरुषतंत्र,
- शक्ति,
- नियत,
- कालतंत्र,
- गुणतंत्र,
- अक्षरतंत्र,
- प्राणतंत्र,
- कर्तृतंत्र समित (स्वामि) तन्त्र,
- ज्ञानक्रिया,
- मात्रतन्त्र तथा
- भूततन्त्र।
- इनमें गुणतन्त्र में सत्त्व, रजस, तमस ज्ञानतन्त्र में पंचज्ञान साधन, क्रियातन्त्र में पंचकर्मसाधन, मात्रतन्त्र में पंवतन्मात्र, भूततन्त्र में पंचस्थूलभूत निहित मानें तो कुल 32 पदार्थ हो जाते हैं।
- वैकृत मण्डल में 28 पदार्थ निम्नालिखित हैं-
- कृत्यकाण्ड में पांच,
- भोगकाण्ड, वृत्तकाण्ड में एक-एक,
- क्लेशकाण्ड में पांच,
- प्रमाणकाण्ड में तीन, तथा
- ख्याति,
- धर्म,
- वैराग्य,
- ऐश्वर्य गुण,
- लिंग,
- दृष्टि,
- आनुश्रविक,
- दुख,
- सिद्धि,
- काषाय,
- समय तथा
- मोक्षकाण्ड।
- षष्टितन्त्र के विभिन्न साठ पदार्थों की इस प्रकार की गणना, सांख्य के प्रचलित व उपलब्ध ग्रन्थों में उल्लिखित साठ पदार्थों की गणना से भिन्न तो प्रतीत होती है तथापि सांख्यभिमत के सर्वथा अनुकूल है।
- सांख्यशास्त्रीय परम्परा में पांच विपर्यय, नौ तुष्टियाँ, आठ सिद्धियाँ, अट्ठाइस अशक्तियाँ तथा दस मौलिकार्थ-इस प्रकार साठ पदार्थ माने जाते है।
- सांख्यदर्शन, परम्परा में परिगणित 20 तत्त्व (ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय, तन्मात्र तथा स्थूलभूत प्राकृत मण्डल में सम्मिलित हैं। साथ ही पुरुष और त्रिगुण भी सम्मिलित हैं।
- संहिता में तीनों गुणों के गुणतन्त्र के अन्तर्गत रखा गया लेकिन प्रकृति की पृथक गणना नहीं की गई।
- प्राकृततन्त्र में मन, बुद्धि, अहंकार का संकेत स्पष्ट नहीं है, ऐसा उदयवीर शास्त्री स्वीकार करते हैं। किन्तु अणिमा सेनगुप्ता के अनुसार कर्तृतन्त्र में इनका अन्तर्भाव किया जा सकता है। क्योंकि ये तीन अन्त:करण पुरुष के समस्त भोग कर्म के आधारभूत हैं<balloon title="इ.सां. स्कूल पृष्ठ 103 तथा ओ.डे.सि. पृष्ठ 119 भी द्रष्टव्य" style=color:blue>*</balloon>।
- वैकृत मण्डल में प्रस्तुत अट्ठाइस पदार्थों में कुछ का सांख्य दर्शन में प्रसंगवश उल्लेख तो होता हैं तथापि इन्हें पृथक तत्त्वरूप में नहीं जाना जाता। त्रिविध प्रमाण, बुद्धि के आठ भावों में से सात्त्विक भाव ज्ञान (ख्याति), धर्म, वैराग्य, ऐश्वर्य, सिद्धि, (सिद्धिकाण्ड) मोक्ष आदि की चर्चा सांख्य दर्शन में उपलब्ध है। पुरुषार्थ रूप भोग का भी वैकृत मण्डल में उल्लेख है। पंचविपर्यय कलेश रूप में उल्लिखित है। प्रकृति, परमात्मा तथा जीवात्मा (दो चेतन तत्त्वों) की मान्यता संहिताकार की जानकारी में रही होगी ऐसा माना जा सकता है<balloon title="इ.सां. स्कूल पृष्ठ - 103" style=color:blue>*</balloon>। यहां ब्रह्म शब्द प्रकृति के अर्थ में लिए जाने की संभावना युक्तिसंगत इसलिए नहीं कही जा सकती, क्योंकि प्रकृति और गुणत्रय की तात्विक अभिन्नता है और गुणतंत्र की गणना भी प्राकृत मण्डल में है।
- प्राकृत मण्डल में उल्लिखित नियति, काल, अक्षर, सामि पदार्थों का स्पष्ट कथन सांख्य साहित्य में नहीं पाया जाता, तथापि इनके किन्हीं अर्थों को सांख्य दर्शन में मान्य तत्त्वों के साथ सामंजस्य रूप में स्वीकार अवश्य किया जा सकता है। पुरुष और प्रकृति सत्ता की दृष्टि से अक्षर कहे जा सकते हैं।<balloon title="शांति पर्व 107/11, 12" style=color:blue>*</balloon>
- इसी तरह सामि (स्वामी) अधिष्ठानुभूत परमात्मा के सम्बन्ध में समझा जा सकता हैं।<balloon title="इ.सां. स्कूल पृष्ठ- 103" style=color:blue>*</balloon> [१] नियति यदि स्वभाव के अर्थ में लिया जाय तो सृष्टि वैषम्य की स्वाभाविता प्रकृति में तथा भोगापवर्गोन्मुखता जीवात्मा पुरुष के स्वभाव के रूप में लिया ही जा सकता है।
- अहिर्बुध्न्यसंहिता के इस षष्टिभेद के बारे में उदयवीर शास्त्री का मत है कि 'वार्षगण्य के योग संबंधी व्याख्या-ग्रन्थों के आधार पर और कुछ इधर-उधर से सुन-जानकर संहिताकार ने साठ पदार्थों की संख्या पूरी गिनाने का प्रयास किया<balloon title="सां. द. इ. पृष्ठ 212-13" style=color:blue>*</balloon>'।
- दूसरी ओर अणिमा सेनगुप्ता का मत है कि संहिताकार व्यक्तिगत (साक्षात्) रूप से षष्टितन्त्र के विषयवस्तु से परिचित रहे होंगे। अत: यह (संहिता) कपिल के मूल विचारों पर ही आधृत कही जा सकती है<balloon title="इ.सां. स्कूल पृष्ठ 104" style=color:blue>*</balloon>। संहिताकार षष्टितन्त्र से सुपरिचित या अल्पपरिचित रहा हो या यत्र-तत्र उपलब्ध जानकारी के आधार पर साठ पदार्थों की गणना की हो- एक तथ्य स्पष्ट है कि षष्टितन्त्र के कपिलप्रोक्त सांख्य दर्शन का नाम होने के विषय में संदेह मात्र भी न था। यह सम्भवत: उसके अन्तर्गत प्रचलित हो गई हो जैसा कि भागवत और शांतिपर्व में भी परिलक्षित होता है।
उपनिषदों में सांख्य दर्शन
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्य: पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति॥
समाने वृक्षे पुरुषों निमग्नोऽनाशया शोचति मुह्यमान:।
जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोक:॥
यदा पश्य: पश्यते रुक्मवर्णं कर्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम्।
तदा विद्वान्पुण्यपापे विधूय निरंजन: परमं साम्यमुपैति॥ - मुण्डकोपनिषद् 3/1/1-3
- दो सुन्दर वर्ण वाले पक्षी एक ही वृक्ष पर सखा-भाव से सदा साथ-साथ रहते हैं। उनमें से एक तो फल भोग करता है और दूसरा भोग न करते हुए देखता रहता है। एक ही वृक्ष पर रहने पर भी वृक्ष पर 'ईशत्व' न होने से मोहित होकर चिन्तित रहता है। वह जिस समय अपने से भिन्न ईश्वर और उसकी महिमावान शोकरहित पक्षी देखता है, जब जगत्कर्ता ईश्वर पुरुष को देखता है तब वह विद्वान पुण्य-पाप त्याग कर उसके समान शुद्ध और परम साम्य को प्राप्त हो जाता है।
- आलंकारिक काव्यमय रूप से महाभारत में प्रस्तुत त्रैतवादी सांख्य का इस मंत्र में स्पष्ट निरूपण दीखता है। वृक्ष(प्रकृति) पर बैठे दो पक्षी हैं। एक वृक्ष के फलों का भोग कर रहा है। (जीवात्मा) दूसरा शोक रहित भाव से देख रहा है परमात्मा। इस तरह प्रकृति और परमात्मा-जीवात्मा निरूपण ही वास्तव में कपिल सांख्य का आधार बना। इस त्रैत को श्वेताश्वतर उपनिषद में इस प्रकार प्रस्तुत किया गया- 'यहां दो चेतन तत्त्वों का उल्लेख है एक अनीश और भोक्ता है और दूसरा विश्व का ईश, भर्ता है। एक प्रकृति है जो जीवात्मा के भोग के लिए नियुक्त है। इस तरह तीन अज अविनाशी तत्त्व हैं, शाश्वत तत्त्व (ब्रह्म) है इन्हें जानकर (व्यक्ताव्यक्तज्ञविज्ञानात्) मुक्ति प्राप्त होती है। श्वेताश्वतर में इस प्रसंग में एक अन्य रूप से सांख्य सम्मत त्रैतावाद का उल्लेख है-
अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां वह्वी: प्रजा सृजामानां सरूपा:।
अजो हि एको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्य:॥<balloon title="श्वेताश्वतर उपनिषद 4/5" style=color:blue>*</balloon>
यहां लोहित शुक्ल कृष्ण वर्ण क्रमश: रजस, सत्त्व तथा तमस-त्रिगुण के लिए प्रयुक्त है। इन तीन गुणों से युक्त एक अजा (अजन्मा) तत्त्व है। इसका भोग करता हुआ एक अज तत्त्व है तथा भोग रहित एक और अज तत्त्व (परमात्मा) है। इस प्रकार यह उपनिषद्वाक्य त्रिगुणात्मक प्रसवधर्मि (सृजन करने वाली) प्रकृति का उल्लेख भी करती है। परमात्मा को मायावी कहकर प्रकृति को ही माया कहा गया है।<balloon title="श्वेताश्वतर उपनिषद 4/10" style=color:blue>*</balloon> इस प्रसंग में पुन: मायावी और माया से बन्धे हुए अन्य तत्त्व जीवात्मा का उल्लेख भी है।<balloon title="श्वेताश्वतर उपनिषद 4/10 4/9" style=color:blue>*</balloon>
- सांख्यसम्मत तत्त्वों का सांख्य परम्परा की पदावली में ही 'कठोपतिषद' इस प्रकार वर्णन करती है।<balloon title="कठोपनिषद् 2/3/6,8" style=color:blue>*</balloon>
इन्द्रियेम्य: परं मनो मनस: सत्त्वमुत्तमम्।
सत्त्वादधिमहानात्मा महतोऽव्यक्तमुत्तमम्।
अव्यक्तात्तु पर: पुरुषो व्यापकोऽलिंग एव च॥
यं ज्ञात्वा मुच्यते जन्तुरमृतत्त्वं च गच्छति। (कठोपनिषद- 2।3।7-8)
- इन समस्त इन्द्रियों से युक्त आत्मा-जीवात्मा-को भोक्ता कहा गया है। सांख्य दर्शन में तो पुरुष के अस्तित्व हेतु दी गई युक्तियों में भोक्तृत्व को पुरुष का लक्षण भी माना गया है। इन शब्दों के प्रयोग से तथा उक्त वर्णन से इन उपनिषदों पर सांख्यदर्शन के प्रभाव का पता चलता है।
- छान्दोग्योपनिषद में सृष्टि रचना के संदर्भ में कहा गया है कि पहले सत ही था। उसने ईक्षण किया- 'मैं बहुत हो जाऊँ' य उसने तेज का सृजन किया। इसी तरह तेज से अप् तथा अप् से अन्न के सृजन का वर्णन है। इस वर्णन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सत् तेज या अप् नहीं हो गया वरन सत् सृजन किया। अत: उसे ही उपादान मान लेने का कोई ठोस आधार नहीं है। वास्तव में सत् में अव्यक्त भाव से स्थित तेज अप् अन्न का सृजन किया- ऐसा भाव है। तेज अप्, अन्न क्रमश: सांख्योक्त सत्त्व, रजस व तमस ही है। इस प्रसंग में बताया गया तेजस अग्निरूप रक्त वर्ण का, अप् शुक्ल वर्ण का तथा अन्न कृष्ण वर्ण का है। प्रत्येक पदार्थ में ये तीनों ही सत्य हैं। शेष वाचारम्मणं विकार मात्र हैं। इन तीन का सृजन करके वह जीवात्मा से उसमें प्रविष्ट हुआ। प्रवेश से चेतन-अचेतन द्वैत की सांख्यसम्मत मान्यता की स्थापना ही होती है।
- आचार्य उदयवीर शास्त्री ने इस प्रसंग को 'अनेन तथा अनुप्रवेश्य' शब्दों के आधार पर परमात्मा तथा जीवात्मा दो चेतन तत्त्वों का अर्थ ग्रहण किया।<balloon title="सां.सि. पृष्ठ 50" style=color:blue>*</balloon> इसी प्रसंग में जिस 'त्रिवृत' की चर्चा की गई है वह त्रिगुण की परस्पर क्रिया के रूप में ही समझी जा सकती है।
- मैत्र्युपनिषद में तो सांख्य तत्त्वों का उन्हीं शब्दों में उल्लेख है। पुरुषश्चेता प्रधानानान्त:स्थ: स एव भोक्ता प्राकृतमन्नं भुङक्ता इति... प्राकृतमन्न त्रिगुणभेद परिणामात्मान्महदाद्यं विशेषान्तं लिंगम्, आदि उपनिषदों में सांख्य सिद्धान्तों का मिलना इस बात का सूचक है कि सांख्य पर उपनिषत प्रभाव है और सांख्य शास्त्र का उपनिषदों पर प्रभाव है।
भागवत में सांख्य दर्शन
- माता देतहूति की जिज्ञासा को शान्त करते हुए परमर्षि कपिल बताते हैं<balloon title="श्रीमद्भागवत तृतीय स्कन्ध 26वां अध्याय द्रष्टव्य" style=color:blue>*</balloon> -
अनादिरात्मा पुरुषो निर्गुण: प्रकृते: पर:।
प्रत्याग्धामास्वयंज्योतिर्विश्वं येन समन्वितम्॥
कार्यकारणकर्तृत्वे कारणं प्रकृतिं विदु:।
भोक्तृत्वे सुखद:खानां पुरुषं प्रकृते: परम्।
यत्तत्त्रिगुणमव्यक्तं नित्यं सदसदात्मकम्।
प्रधानं प्रकृतिं प्राहुरविशेषं विशेषवत्।
पञ्चभि: पञ्चभिर्ब्रह्य चतुर्भिदशभिस्तथा॥
एतच्चतुर्विंशतिकं गणं: प्राधानिकं विदु:॥
प्रकृतेगुर्णसाम्यस्य निर्विशेषस्य मानवि।
चेष्टा यत: स भगवान् काल इत्युपलक्षित:॥
- इसके अनन्तर महदादि तत्त्वों की उत्पत्ति कही गई। सांख्यकारिकोक्त मत से भिन्न अहंकार से उत्पन्न होने वाले तत्त्वों का यहां उल्लेख है। यहां वैकारिक अहंकार से मन की उत्पत्ति कही गई है।
- कारिका में भी मन को सात्विक अहंकार से उत्पन्न माना गया है। फिर तेजस अहंकार से बुद्धि तत्त्व की उत्पत्ति कही गई। इससे पूर्व परमात्मा की तेजोमयी माया से महत्तत्त्व की उत्पत्ति कही गई। ऐसा प्रतीत होता है कि भागवतकार महत तथा बुद्धि को भिन्न मानते हैं, जबकि सांख्य शास्त्र में महत और बुद्धि को पर्यायार्थक माना गया। तेजस अहंकार से इन्द्रियों की उत्पत्ति बताई गई है जबकि कारिकाकार ने मन सहित समस्त इन्द्रियों को सात्त्विक अहंकार से माना है। तामस अहंकार से तन्मात्रोत्पत्ति भागवत तथा सांख्यशास्त्रीय मत में समान है। भिन्नता यह है कि भागवत में तामसाहंकार से शब्द तन्मात्र से आकाश तथा आकाश से श्रोत्रेन्द्रिय की उत्पत्ति कही गई। इसी तरह क्रमश: तन्मात्रोत्पत्ति को समझाया गया है।<balloon title="भागवत श्लोक 32-46" style=color:blue>*</balloon>
सांख्य दर्शन में पुरुष को अकर्ता, निर्गुण, अविकारी माना गया है। और तदनुरूप उसे प्रकृति के विकारों से निर्लिप्त माना गया है। तथापि अज्ञानतावश वह गुण कर्तृत्व को स्वयं के कर्तृत्व के रूप में देखने लगता है। और देह संसर्ग से किए हुए पुण्य पापादि कर्मों के दोष से विभिन्न योनियों में जन्म लेता हुआ संसार में रहता हैं यही बात श्रीमदभागवत में कही गई है<balloon title="(भागवत 3/27/1,2)" style=color:blue>*</balloon>।
प्रकृतिस्थोऽपि पुरुषो नाज्यते प्राकृतैर्गुणै:।
अविकारादकर्तृत्वान्निगुर्णत्वाज्जलार्कवत्॥
स एष यर्हि प्रकृतेर्गुष्णभिविषज्जते।
अहंक्रियाविमूढात्मा कर्ताऽस्मीत्यभिमन्यते॥
- भागवत के एकादश स्कन्ध में प्राचीन सांख्य में तत्वों की अलग-अलग संख्या में गणना का सुन्दर समन्वय करते हुए यह बतलाया गया है कि मूलत: ये सभी भेद एक ही दर्शन के हैं। यह समन्वय उचित और सरल हो या न हो, इतना तो स्पष्ट है कि सांख्य के विभिन्न रूप प्रचलित हो चले थे और भागवतकार इन्हें विषमता न मानकर कपिल के दर्शन के ही रूप मानते थे।
अन्य पुराण
भागवत पुराण विद्वानों के लिए ऐतिहासिक ग्रन्थ मात्र नहीं वरन जनसामान्य श्रद्धालुओं में भी अत्यन्त ख्यातिलब्ध है। अत: उक्त ग्रन्थ का पृथक उल्लेख किया गया। सृष्टि प्रलयादि विषयों पर सभी पुराणों में मतैक्य है। अत: यहां प्रमुखत: विष्णु पुराण के ही अंश, जिनसे सांख्य दर्शन का स्वरूप परिचय हो सके-प्रस्तुत किए जा रहे हैं-
तद्ब्रह्म परमं नित्यमजमक्षय्यमव्ययम्।
एकस्वरूपं तु सदा हेयाभावाच्च निर्मलम्॥
तदेव सर्वमेवैतद् व्यक्ताव्यक्तस्वरूपवत्।
तथा पुरूषरूपेण कालरूपेण च स्थितम्॥<balloon title="विष्णु पुराण 1/2/13,14" style=color:blue>*</balloon>
यह ब्रह्म नित्य अजन्मा अक्षय अव्यय एकरूप और निर्मल है। वही इन सब व्यक्त-अव्यक्त रूप (जगत्) से तथा पुरुष और काल रूप से स्थित है।
अव्यक्तं कारणं यत्तत्प्रधानमृषिसत्तमै:।
प्रोच्यते प्रकृति: सूक्ष्मा नित्यं सदसदात्मकम्।<balloon title="(विष्णु पुराण 1/2/19),वायुपुराण 1/4/28 भी" style=color:blue>*</balloon>
प्रकृतिर्या मया ख्याता व्यक्ताव्यक्तस्वरूपिणी।
पुरुषश्चाप्युभावेतौ लीयेते परमात्मनि॥
परमात्मा च सर्वेषामाधार: परमेश्वर:॥<balloon title="(विष्णु पुराण 6/4/39,40)" style=color:blue>*</balloon>
व्यक्त जगत का अव्यक्त कारण सदसदात्मक प्रकृति कही जाती है। प्रकृति और पुरुष दोनों ही (प्रलय काले) परमात्मा में लीन हो जाते हैं। प्रकृति का स्वरूप बताया गया है:-
सत्वं रजस्तमश्चेति गुणत्रयमुदाहतम्।
साम्यावस्थितिमेतेषामव्यक्तां प्रकृतिं विदु:॥<balloon title="(कूर्म/उत्तर खण्ड 6/26),ब्रह्मवैवर्तपुराण 2/1/19 भी" style=color:blue>*</balloon>
प्रधानपुरुषौ चापि प्रविश्यात्मेच्छया हरि:।
क्षोभयामास सम्प्राप्ते सर्गकाले व्ययाव्ययौ ॥29॥
यथा सन्निधिमात्रेण गन्ध: क्षोभाय जायते।
मनसो नोपकर्तृत्वात्तथाऽसौ परमेश्वर:॥30॥
प्रधानतत्त्वमुद्भूतं महान्तं तत्समावृणोत्।
सात्त्वि को राजसश्चैव तामसश्च त्रिधा महान्॥34॥
वैकारिकस्तैजसश्च भूतादिश्चैव तामस:॥35॥
त्रिविधोऽयमहंकारो महत्तत्त्वादजायत॥36॥
तन्मात्राण्यविशाणि अविशेषास्ततो हि ते ।45।
न शान्ता नापि धोरास्ते न मूढाश्चविशेषिण:।
भूततन्मात्रसर्गोऽयमंहकारात्तु तामसात्॥46॥
तैजसानीन्द्रियाण्याहुर्देवा वैकारिका दश।
एकादशं मनश्चात्र देवा वैकारिका: स्मृता:॥46
पुरुषाधिष्ठितत्वाच्च प्रधानानुग्रहेण च।
महदाद्या विशेषान्ता ह्यण्डमुत्पादयन्ति ते॥54॥
तस्मिन्नण्डेऽभवद्विप्र सदेवासुरमानुष:॥58॥
वि.पु. प्रथम अंश द्वितीय अध्याय
आध्यात्मिकादि मैत्रेय ज्ञात्वा तापत्रयं बुध:।
उत्पन्नज्ञानवैराग्य: प्राप्नोत्यात्यन्तिकं लयम्॥<balloon title="ब्रह्मवैवर्तपुराण षष्ठ अंश पंचम अध्याय। श्लोक.1" style=color:blue>*</balloon>
परमात्मा प्रधान या प्रकृति और पुरुष में प्रवेश करके उन्हें प्रेरित करता है। तब सर्ग क्रिया आरंभ होती है। यद्यपि मूलत: प्रकृति, पुरुष, काल, विष्णु के ही अन्य रूप हैं, तथापि सर्ग-चर्चा में प्रेरिता तथा प्रधान पुरुष को भिन्न किन्तु अपृथक ही ग्रहण किया जाता है। तन्मात्र अविशेष हैं जिनकी उत्पत्ति तामस अहंकार से होती है। सुख-दु:ख मोहात्मक अनुभूति तन्मात्रों की नहीं होती। ये जब विशेष इन्द्रिय द्वारा ग्राह्य होते हैं। आशय यह है कि ये अविशेष विशेष के बिना नहीं जाने जाते है। राजस अहंकार से पञ्चकर्मेन्द्रियाँ तथा पञ्चज्ञानेन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं तथा वैकारिक अथवा सात्त्विक अहंकार से मन की उत्पत्ति का समर्थन विज्ञान भिक्षु भी करते है। तथापि कारिका मत में सात्त्विक अहंकार से एकादशेन्द्रिय की उत्पत्ति मानी गई है।
चरक संहिता में सांख्य दर्शन
अतिप्राचीन काल में ही सांख्य दर्शन का व्यापक प्रचार-प्रसार होने से ज्ञान के सभी पक्षों से संबंधित शास्त्रों में सांख्योक्त तत्त्वों की स्वीकृति तथा प्रकृति-पुरुष संबंधी मतों का उल्लेख है। चरक संहिता में शारीरस्थानम् में पुरुष के संबंध में अनेक प्रश्न उठाकर उनका उत्तर दिया गया है। जिसमें सांख्य दर्शन का ही पूर्ण प्रभाव परिलक्षित होता है। शारीरस्थानम् के प्रथम अध्याय में प्रश्न किया गया<balloon title="चरकसंहिता, शारीरस्थानम् 1/3, 4" style=color:blue>*</balloon>-
कतिधा पुरुषों धीमन्! धातुभेदेन भिद्यते।
पुरुष: कारणं कस्मात् प्रभव: पुरुषस्य क:॥
किमज्ञो ज्ञ: स नित्य: किमनित्यो निदर्शित:।
प्रकृति: का विकारा: के, किं लिंगं पुरुषस्य य॥ इनके अतिरिक्त पुरुष की स्वतंत्रता, व्यापकता, निष्क्रियता, कतृर्त्व, साक्षित्व आदि पर प्रश्न उठाए गए। उनका उत्तर इस प्रकार दिया गया<balloon title="चरकसंहिता 16, 17" style=color:blue>*</balloon>।
खादयश्चेतना षष्ठा धातव: पुरुष: स्मृत:।
चेतनाधातुरप्येक: स्मृत: पुरुषसंज्ञक:॥
पुनश्च धातुभेदेन चतुर्विशतिक: स्मृत।
मनोदशेन्द्रियाण्यर्था: प्रकृतिश्चाष्टधातुकी॥
- यहां पुरुष के तीन भेद बताए गए हैं-
- षड्धातुज,
- चेतना धातुज तथा
- चतुर्विशतितत्त्वात्मक।
- षड्धातुज पुरुष वास्तव में चेतनायुक्त पञ्चतत्त्वात्मक है। पांच महाभूत रूपी पुरि में रहने वाला आत्मतत्त्व, चेतना चिकित्सकीय दृष्टि से प्रयोत्य है।
- दूसरा पुरुष एक धातु अर्थात चेतना तत्त्व मात्र है।
- तीसरा पुरुष चौबीस तत्त्वयुक्त है। चौबीस तत्त्वयुक्त इस पुरुष को ही 'राशिपुरुष' भी कहा गया है। इस राशि पुरुष में कर्म, कर्मफल, ज्ञान सुख-दु:ख, जन्म-मरण आदि घटित होते हैं<balloon title="चरकसंहिता 37, 38" style=color:blue>*</balloon>। इन तत्त्वों के संयुक्त न रहने पर अर्थात मात्र चेतन तत्व की अवस्था में तो सुख-दु:खादि भोग ही नहीं होते<balloon title="चरकसंहिता, क्रियोपभोगे भूतानां नित्यं पूरुषसंज्ञक:" style=color:blue>*</balloon> और नही चेतन तत्त्व का अनुमान ही संभव हैं। इस प्रकार से कथित पुरुष के मुख्य रूप से दो ही भेद माने जा सकते हैं।
- षड्धातुज का तो चतुर्विंशतिक में या राशिपुरुष रूप में अन्तर्भाव हो जाता है। एक धातु रूप चेतन तत्त्व दूसरा पुरुष है इन दोनों की उत्पत्ति के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा गया-
प्रभवो न ह्यनादित्वाद्विद्यते परमात्मन:।
पुरुषो राशिसंज्ञस्तु मोहेच्छाद्वेषकर्मज:॥<balloon title="चरकसंहिता, शारीस्थानम 1/53" style=color:blue>*</balloon>
अनादि:पुरुषो नित्यो विपरीतस्तु हेतुज:
सदकारणवन्नित्यं दृष्टं हेतुजमन्यथा॥1/59
अव्यषक्तमात्मा क्षेत्रज्ञ: शाश्वतो विभुश्व्यय:।
तस्म्माद्यदन्यत्तद्व्यक्तं वक्ष्यते चापरं द्वयम्॥61
- अनादिपुरुष (परमात्मा) तथा राशिपुरुष का यह वैधर्म्य विचारणीय है। ईश्वरकृष्ण की कारिका में पुरुष को व्यक्त के समान तथा विपरीत भी कहा गया है। व्यक्त को हेतुमत आदि कहकर तदनुरूप पुरुष है तद्विपरीत भी पुरुष है। न तो कारिका में और न ही शारीरस्थानम् के उपर्युक्त वर्णन में इन्हें एक ही पुरुष के लक्षण मानने का आग्रह संकेत है।
बुद्धचरितम में सांख्य दर्शन
- प्रसिद्ध बौद्ध आचार्य अश्वघोष की काव्य रचना 'बुद्धचरितम्' में भी सांख्य दर्शन आचार्य अराठ के दर्शन के रूप में मिलता है।
- अश्वघोष का जीवनकाल ईसा की प्रथम शताब्दि में माना जाता है। बुद्धचरितम् में सांख्य शब्द से किसी दर्शन का उल्लेख न होने पर अराड दर्शन के सांख्य दर्शन कहने में कोई असंगति नहीं है।
- बुद्धचरितम् के अनुसार अराड कपिल की दर्शन-परम्परा के आचार्य थे। अराड जिस सिद्धान्त को प्रस्तुत करते हैं उसे प्रतिबुद्ध कपिल का कहते हैं। 'सशिष्य: कपिलश्चेह प्रतिबुद्ध इति स्मृत:<balloon title="(द्वादश: सर्ग:)" style=color:blue>*</balloon>' अपने दर्शन के प्रवक्ता के रूप में वे जैगीषव्य जनक वृद्ध पाराशर के प्रति भी सम्मान व्यक्त करते हैं इसके अतिरिक्त अराड दर्शन में प्रस्तुत व प्रयुक्त पदावली भी महाभारत में प्रस्तुत सांख्य का ही स्मरण कराती है।
- बुद्धचरितम् में सांख्य दर्शन को इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है-
श्रूयतामयमस्माकम् सिद्धान्त: श्रृण्वतां वर।
यथा भवति संसारो यथा चैव निवर्तते॥
प्रकृतिश्च विकारश्च जन्म मृत्युर्जरैव च।
तत्वावसत्वमित्युक्तं स्थिरं सत्वं परे हि तत्॥
तत्र तु प्रकृतिर्नाम विद्धि प्रकृतिकोविद।
पञ्चभूतान्यहंकारं बुद्धिमव्यक्तमेव च॥
अस्य क्षेत्रस्य विज्ञानात् इति संज्ञि च।
क्षेत्रज्ञ इति चात्मानं कथयन्त्यात्मचिंतका:॥
अज्ञान कनंर्म तृषणा च ज्ञेया: संसारहेतव:।
स्थितोऽस्मिन्स्त्रये जन्तुस्तत् सत्त्वं नाभिवर्तते॥
इत्यविद्या हि विद्वान् स पञ्चपर्वा समीहते।
तमो मोह महामोह तामिस्त्रद्वयमेव च॥
द्रष्टा श्रोता च मन्ता च कार्यकारणमेव च।
अहमित्येवमागम्य संसारे परिवर्तते॥<balloon title="(द्वादश सर्ग से संकलित)" style=color:blue>*</balloon>
व्यक्त, अव्यक्त और ज्ञ के भेदज्ञान से अपवर्ग प्राप्ति सांख्य का मान्य सिद्धान्त है। बुद्धचरितम् के अनुसार प्रतिबुद्धि, अबुद्ध, व्यक्त तथा अव्यक्त के सम्यक् ज्ञान से पुरुष को संसारचक्र से मुक्ति मिलती है मोक्षावस्था शाश्वत और अपरिवर्तनशील है। इस अवस्था में वह दुख और अज्ञान से मुक्त होता है। (परमात्मा) को नित्य तथा व्यक्त पुरुष को अनित्य कहा गया है। अठारहवीं कारिका में पुरुषबहुत्व के लिए दिए गए हेतु जीवात्मा के लिए ही है। जिस के विपर्यास से साक्षी अर्कता आदि लक्षण वाला पुरुष सिद्ध होता है। चरक संहिता के उपर्युक्त उल्लेख तथा कारिका के दर्शन के उक्त स्थलों पर अभी पर्याप्त सूक्ष्म स्पष्टीकरण अपेक्षित है। शारीरस्थानम् में कितने पुरुष है? प्रश्न के उत्तर में पुरुष के भेद बताये गये हैं। इस प्रसंग में ये एक ही पुरुषतत्त्व या चेतनतत्त्व के भिन्न-भिन्न रूप हैं- ऐसा संकेत न होने से अनादि पुरुष जो कि नित्य अकारण (अहेतुक) है तथा आदि पुरुष (राशिपुरुष) जो अनित्य है ऐसे दो भेद तो ग्रहण किए जा सकते हैं। इस प्रसंग में जो पुरुषसंबंधी बातें कही गई हैं। उन्हें राशिपुरुषसंबंधी ही समझना चाहिए क्योंकि चिकित्सकीय शास्त्र का संबंध उस पुरुष से ही है। प्रकृति और विकारों के संबंध में पूछे गए प्रश्नों के उत्तर में कहा है-
खादीनि बुद्धिरव्यक्तमहंकारस्तथाऽष्टम:।
भूतप्रकृतिरुद्दिष्टा चिकाराश्चैव षोडश॥
बुद्धीन्द्रियाणि पञ्चार्था विकारा इति संज्ञिता:॥<balloon title="शारीरस्थानम् 1/63, 64" style=color:blue>*</balloon>
जायते बुद्धिरव्यक्तताद् बुद्धयाहमिति मन्यते।
परम् खादीन्यहंकारादुत्पद्यन्ते यथाक्रमम्॥ 66॥
- यहां 'उद्दिष्टा', 'संज्ञिता', 'मन्यते', आदि पद यह सूचित करते हैं कि उपरोक्त मत पूर्व में ही स्थापित और प्रचलित थे। 'यथाक्रम' भी सूचित करता है कि इससे पूर्व में ही एक क्रम तत्त्वोत्पत्ति का स्थापित हो चुका था और यहां उसका अनुकरण ही किया गया है। स्पष्ट है पूर्व में ही स्थापित यह मत सांख्य दर्शन का है।
- चरक संहिता के शारीरस्थानम् के पांचवे अध्याय में मोक्ष संबंधी विचार इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है-
मोहेच्छाद्वेषकर्ममूला प्रवृत्ति:...एवमहंकारादिभिदोर्षै:
भ्राम्यमाणो नातिवर्तते प्रवृत्तिं: सा च मूलमघस्य॥10
निवृत्तिरपवर्ग: तत्परं प्रशान्तं तदक्षरं तद्ब्रह्म स मोक्ष: ॥11॥
सर्वभाव स्वभावज्ञो यथा भवति निस्पृह:
योगं यथा साधयते सांख्यं संपद्यते यथा॥16॥
पश्यत: सर्वभावान् हि सर्वावस्थासु सर्वदा।
ब्रह्मभूतस्य संयोगो न शुद्धस्योपपद्यते॥21॥
नात्मन: करणाभावाल्लिगमप्युपलभ्यते।
स सर्वकारणत्यागान्मुक्त इत्यभिधीयते॥22॥
- ↑ 3