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{{बौध्द दर्शन}}
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{{सांख्य दर्शन}}
==महायान साहित्य==
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==आचार्य और सांख्यवाङमय==
 
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मानव सभ्यता का भारतीय इतिहास विश्व में प्राचीनतम जीवित इतिहास है। हजारों वर्षों के इस काल में अनेकानेक प्राकृतिक, राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन होते रहे हैं। परिवर्तन के इस कालचक्र में इतिहास का बहुत सा अंश लुप्त हो जाना स्वाभाविक है। [[महाभारत]] में [[सांख्य दर्शन]] का हमेशा ही प्राचीन इतिहास के रूप में कथन हुआ है। इससे एक बात तो स्पष्ट है कि महाभारत के रचनाकाल तक यह दर्शन सुप्रतिष्ठित हो चुका था। तत्त्वगणना और स्वरूप की विभिन्न प्रस्तुतियों के आधार पर कहा जा सकता है कि तब तक सांख्य दर्शन अनेक रूपों में स्थापित हो चुका था और उनका संकलन महाभारत में किया गया। महाभारत ग्रंथ के काल के विषय में अन्य भारतीय ऐतिहासिक तथ्यों की तरह ही मतभेद है। मतभेद मुख्यत: दो वर्गों (पाश्चात्य और भारतीय विद्वद्वर्गों) में माना जा सकता है। भारतीय विद्वदवर्ग भी दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। एक वर्ग पाश्चात्त्य मत का समर्थक और दूसरा विशुद्ध रूप से भारतीय वाङमय के आधार पर मत रखने वाले विद्वानों का।
==महायानसूत्र==
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*पाश्चात्त्य मत के अनुसार महाभारत के मोक्षधर्म पर्व की रचना 200 वर्ष ई.पूर्व से 200 ई. के मध्य हुई<balloon title="एन्सा." style=color:blue>*</balloon>।
महयानसूत्र अनन्त हैं। उनमें कुछ उपलब्ध हैं, और कुछ मूल रूप में अनुपलब्ध हैं। भोट-भाषा, चीनी भाषा में अनेक सूत्रों के अनुवाद उपलब्ध हैं। कुछ सूत्र अवश्य ऐसे हैं, जिन का महायान बौद्ध परम्परा में अत्यधिक आदर है। ऐसे सूत्रों की संख्याय 9 है। इन 9 सूत्रों को 'नव धर्म' भी कहते हैं तथा 'वैपुल्यसूत्र' भी कहते हैं। वे इस प्रकार है-
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*डॉ0 राजबलि पाण्डेय के अनुसार महाभारत ग्रन्थ का परिवर्तन ई.पू. 32 से ई.पू. 286 वर्ष की अवधि में तथा कुछ विद्वानों के अनुसार मोक्षधर्म पर्व परिवर्द्धन [[शुंग काल]] (ई.पू. 185 के आसपास) में हुआ<balloon title="प्राचीन भारत पृ. 191, 206" style=color:blue>*</balloon>।
#सद्धर्मपुण्डरीक,
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*डॉ0 आद्या प्रसाद मिश्र ने ए.बी. कीथ के मत (ई.पू. 200 से 200 ई.) की समीक्षा करते हुए अपना मत प्रस्तुत किया कि वर्तमान महाभारत भी 600 वर्ष ई. पू. से बहुत पहले का होना चाहिए<balloon title="सांख्य दर्शन की ऐतिहासिक परम्परा पृ. 23" style=color:blue>*</balloon>। यह ठीक है कि महाभारत ग्रन्थ अपने विकास क्रम में कई व्यक्तियों द्वारा लम्बे समय तक परिवर्द्धित होता हुआ वर्तमान स्थिति को प्राप्त हुआ है। लेकिन कब कितना और कौन सा अंश जोड़ा गया, इसके स्पष्ट प्रमाण के अभाव में भारतीय साक्ष्य को मान्य करते हुए वर्षगणना के बजाय इतना ही कहना पर्याप्त समझते हैं कि महाभारत ग्रन्थ में उपलब्ध सांख्य दर्शन अत्यन्त प्राचीन है और प्राचीन सांख्य दर्शन के विस्तृत परिचय के लिए महाभारत एक प्राचीनतम प्रामाणिक रचना है।  
#ललितविस्तार,
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==आचार्य-परम्परा==
#लंकावतार,
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*शांति पर्व अध्याय 318 के अनुसार कुछ सांख्याचार्यों के नाम इस प्रकार हैं-
#सुवर्णप्रभास,
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जैगीषव्य, असितदेवल, [[पराशर]], वार्षगण्य, [[भृगु]], पञ्चशिख, [[कपिल]], [[गौतम]], आर्ष्टिषेण, [[गर्ग]], [[नारद]], आसुरि, [[पुलस्त्य]], सनत्कुमार, [[शुक्र]], [[कश्यप]]। इनके अतिरिक्त शांति पर्व में विभिन्न स्थलों पर [[याज्ञवल्क्य]], [[व्यास]], [[वसिष्ठ]] का भी उल्लेख है। युक्तिदीपिका में [[जनक]]-[[वसिष्ठ]] का उल्लेख है। *ईश्वरकृष्णकृत सांख्यकारिका के अनुसार कपिल, आसुरी और पञ्चशिख;
#गण्डव्यूह,
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*माठरवृत्ति के अनुसार [[भार्गव]], उलूक, [[वाल्मीकि]], हारीत, देवल आदि;
#तथागतगुह्यक,
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*युक्तिदीपिका में [[जनक]], [[वसिष्ठ]] के अतिरिक्त हारीत, वाद्वलि, कैरात, पौरिक, ऋषभेश्वर, पञ्चाधिकरण, [[पतञ्जलि]], वार्षगण्य, कौण्डिन्य, मूक आदि नामों का उल्लेख है। *शांतिपर्व तथा सातवें सनातन को भी योगवेत्ता सांख्यविशारद कहा गया है। उपर्युक्त प्राचीन आचार्यों के अतिरिक्त सांख्य सूत्र, तत्त्वसमास व सांख्य कारिकाओं के व्याख्याकार भी सांख्याचार्य कहे जा सकते हैं। अत्यन्त प्राचीन आचार्यों का वर्णन करने से पूर्व सांख्य प्रणेता कपिल के बारे में उल्लेख करना आवश्यक होगा, क्योंकि कपिल एक हैं अथवा एक से अधिक, ऐतिहासिक व्यक्ति हैं या काल्पनिक, इस प्रकार के अनेक मत इनके विषय में प्रचलित हैं।
#समाधिराज,
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==सांख्य प्रवर्तक कपिल==
#दशभूमीश्वर एवं
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<poem>विद्यासहायवन्तं च आदित्यस्थं समाहितम्।
#अष्टसाहसिका आदि
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कपिलं प्राहुराचार्या: सांख्यनिश्चितनिश्चया:<balloon title="शांति पर्व 339/68" style=color:blue>*</balloon>॥
#प्रज्ञापारमितासूत्र।
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श्रृणु में त्वमिदं सूक्ष्मं सांख्यानां विदितात्मनाम्।
 
+
विहितं यतिभि: सर्वै: कपिलादिभिरीश्वरै:<balloon title="शांति पर्व 301/3" style=color:blue>*</balloon>॥
==सद्धर्मपुण्डरीक==
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पंचम: कपिलो नाम सिद्धेश: कालविप्लुतम्।
*महायान वैपुल्यसूत्रों में यह अन्यतम एवं एक आदृत सूत्र है। 'पुण्डरीक' का अर्थ 'कमल' होता है। 'कमल' पवित्रता और पूर्णता का प्रतीक होता है। जैसे पंक (कीचड़) में उत्पन्न होने पर भी कमल उससे लिप्त नहीं होता, वैसे लोक में उत्पन्न होने पर भी बुद्ध लोक के दोषों से लिप्त नहीं होते। इसी अर्थ में सद्धर्मपुण्डरीक यह ग्रन्थ का सार्थक नाम है।
+
प्रोवाचाऽऽसुरये सांख्यं तत्त्वग्रामविनिर्णयम्<balloon title="गरुडपुराण 1/18" style=color:blue>*</balloon>॥
*चीन, जापान, कोरिया, तिब्बत आदि महायानी देशों में इसका बड़ा आदर है और यह सूत्र बहुत पवित्र माना जाता है।
+
श्रेय: किमत्र संसारे दु:खप्राये नृणामिति।
*चीनी भाषा में इसके छह अनुवाद हुए, जिसमें पहला अनुवाद ई. सन् 223 में हुआ।
+
प्रष्टुं तं मोक्षधर्मज्ञं कपिलाख्यं महामुनिम्<balloon title="विष्णुपुराण 2/13/54" style=color:blue>*</balloon>॥</poem>
*धर्मरक्ष, कुमारजीव, ज्ञानगुप्त और धर्मगुप्त इन आचार्यों के अनुवाद भी प्राप्त होते हैं।
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*सांख्यप्रणेता या प्रवर्तक कपिल नामक मुनि हैं।
*चीन और जापान में आचार्य कुमारजीव- कृत इसका अनुवाद अत्यन्त लोकप्रिय है।
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*शांति पर्व में ही 349वें अध्याय में निर्विवाद शब्दों में कहा है कि 'सांख्यस्य वक्ता कपिल: परमर्षि: स उच्चते।'  
*ईस्वीय 615 वर्ष में जापान के एक राजपुत्र शी-तोकु-ताय-शि ने इस पर एक टीका लिखी, जो अत्यन्त आदर के साथ पढ़ी जाती है।
+
*प्राचीन वाङमय में प्राय: कपिल का उल्लेख परमर्षि, सिद्ध, मुनि आदि विशेषणों के साथ हुआ है।
*इस ग्रन्थ पर आचार्य वसुबन्धु ने 'सद्धर्म-पुण्डरीकशास्त्र' नामक टीका लिखी, जिसका बोधिरुचि और रत्नमति ने लगभग 508 ईस्वीय वर्ष में चीनी भाषा में अनुवाद किया था। इसका सम्पादन 1992 में प्रो. एच. कर्न एवं बुनियिउ नंजियों ने किया।
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*गीता में 'सिद्धानां कपिलो मुनि:' कहकर उन्हें सिद्धों में श्रेष्ठ बताने का प्रयास किया गया।
*इस ग्रन्थ में कुल 27 अध्याय है, जिन्हें 'परिवर्त' कहा गया है। प्रथम निदान परिवर्त में इसमें उपदेश की पृष्ठभूमि और प्रयोजन की चर्चा करते हुए कहा गया है कि यह 'वैपुल्यसूत्रराज' है। इस परिच्छेद का मुख्य प्रतिपाद्य तो भगवान का यह कहना है कि 'तथागत नाना निरुक्ति और निदर्शनों (उदाहरणों) से, विविध उपायों से नाना अधिमुक्ति, रुचि और (बुद्धि की) क्षमता वाले सत्वों को सद्धर्म का प्रकाशन करते हैं। सद्धर्म कत्तई तर्कगोचर नहीं है। तथागत सत्त्वों को तत्त्वज्ञान का सम्यग् अवबोध कराने के लिए ही लोक में उत्पन्न हुआ करते हैं। तथागत यह महान कृत्य एक ही यान पर आधिष्ठित होकर करते हैं, वह एक यान है 'बुद्धयान' उससे अन्य कोई दूसरा और तीसरा यान नहीं है। वह बुद्धमय ही सर्वज्ञता को प्राप्त कराने वाला है। अतीत, अनागत और प्रत्युत्पन्न तीनों कालों के बुद्धों ने बुद्धयान को ही अपनाया है। वे बुद्धयान का ही तीन यानों (श्रावकयान, प्रत्येक बुद्धयान और बोधिसत्त्वयान) के रूप में निर्देश करते हैं। अत: बुद्धयान ही एकमात्र यान है।
+
*[[विष्णु पुराण]]<balloon title="(2।14।9)" style=color:blue>*</balloon>  में कपिल को [[विष्णु]] का अंश कहा गया।
<poem>एकं हि यानं द्वितीयं न विद्यते
+
*[[भागवत पुराण|भागवत]]<balloon title="(1।3।10)" style=color:blue>*</balloon> में उन्हें विष्णु का अवतार  कहा गया।
तृतीयं हि नैवास्ति कदापि लोके।<balloon title="द्र.- सद्धर्मपुण्डरीकसूत्र, 2:54, पृ. 31 (दरभङ्गा-संस्करण 1960" style=color:blue>*</balloon> </poem>
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*इसके अतिरिक्त सांख्य सूत्र व कारिका के भाष्यकारों ने एकमतेन कपिल को सांख्य प्रवर्तक के रूप में ही स्वीकार किया।  
*द्वितीय उपायकौशल्यं परिवर्त में भगवान् ने शारिपुत्र के लिए व्याकरण किया कि वह अनागत काल में पद्मनाभ नाम के तथागत होंगे और सद्धर्म का प्रकाश करेंगे। शारिपुत्र के बारे में व्याकरण सुनकर जब वहाँ उपस्थित 12 हजार श्रावकों को विचिकित्सा उत्पन्न हुई तब उसे हटाते हुए भगवान ने तृतीय औपम्यपरिवर्त में एक उदाहरण देते हुए कहा कि किसी महाधनी पुरुष के कई बच्चे हैं, वे खिलौनों के शौकीन हैं। उसके घर में आग लग जाए, उसमें बच्चे घिर जाएं और निकलने का एक ही द्वार हो, तब पिता बच्चों को पुकार कर कहता है- आओ बच्चों, खिलौने ले लो, मेरे पास बहुत खिलौने हैं, जैसे- गोरथ, अश्वरथ, मृगरथ आदि। तब वे बच्चे खिलौन के लोभ में बाहर आ जाते हैं। तब शारिपुत्र, वह पुरुष उन सभी बच्चों को सर्वोत्कृष्ट गोरथ देता है। जो अश्वरथ और मृगरथ आदि हीन हैं, उन्हें नहीं देता। ऐसा क्यों? इसलिए कि वह महाधनी है और उसका कोष (खजाना) भरा हुआ है। भगवान कहते हैं कि उसी प्रकार ये सभी मेरे बच्चे हैं, मुझे चाहिए कि इन सबको समान मान कर उन्हें 'महायान' ही दूँ। क्या शारिपुत्र, उस पिता ने तीनों यानों को बताकर एक ही 'महायान' दिया, इसमें क्या उनका मृषावाद है? शारिपुत्र ने कहा नहीं भगवान तथागत महाकारुणिक हैं, वह सभी सत्वों के पिता हैं। वे दु:ख रूपी जलते हुए घर से बाहर लाने के लिए तीनों यानों की देशना करते हैं, किन्तु अन्त में सबकों बुद्धयान की ही देशना देते हैं।
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*स्वनिर्मित कसौटियों के आधार पर कुछ विद्वान भले ही कपिल की ऐतिहासिकता व्यक्त नहीं हैं- ऐसा उल्लेख किसी प्राचीन ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं है। जहाँ तक ब्रह्मसुत, [[अग्नि]] के अवतार, विष्णु के अवतार आदि रूपों में कपिल के उल्लेखों का प्रश्न है- इनसे कपिल की ऐतिहासिकता पर कोई विवाद उत्पन्न नहीं होता। इन उल्लेखों के आधार पर एक से अधिक कपिलों को माना जाने पर भी दो सांख्य प्रवर्तक कपिलों की कोई परम्परा न होने से सांख्य प्रवर्तक कपिल एक ही हैं- ऐसी प्राचीन मान्यता को प्रामाणिक ही कहा जा सकता है।  
*व्याकरणपरिवर्त नामक षष्ठ (छठवें) परिच्छेद में श्रावकयान के अनेक स्थविरों के बारे में, जो महायन में प्रविष्ट हो चुके थे, व्याकरण किया गया है। बुद्ध कहते हैं कि महास्थविर महाकाश्यप भविष्य में 'रश्मिप्रभास' तथागत होंगे। स्थविर सुभूति, 'शशिकेतु', महाकात्यायन 'जाम्बूनदप्रभास' तथा महामौदलयायन 'तमालपत्र चन्द्रनगन्ध' नाम के तथागत होंगे। *पञ्चभिक्षुशतव्याकरण परिवर्त में पूर्ण मैत्रायणी पुत्र आदि अनेक भिक्षुओं के बुद्धत्व-प्राप्ति का व्याकरण किया गया है।
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*सांख्य शास्त्र [[महाभारत]], [[रामायण]], [[भागवत पुराण|भागवत]] तथा [[उपनिषद|उपनिषदों]] से भी प्राचीन है, ऐसा उन ग्रन्थों में उपलब्ध [[सांख्य दर्शन]] से स्पष्ट होता है। महाभारत में सांख्य संबन्धी संवाद पुरातन इतिहास के रूप में उल्लिखित है। इससे सांख्य शास्त्र का हजारों वर्ष पूर्व स्थापित हो जाने का स्पष्ट संकेत मिलता है। परिणामत: यदि सांख्य प्रवर्तक देवहूति-कर्दम-पुत्र कपिल को भी हजारों वर्ष पूर्व का मानें तो अत्युक्ति न होगी।
*नवम परिवर्त में आयुष्मान आनन्द और राहुल आदि दो सहस्र श्रावकों के बारे में बुद्धत्व-प्राप्ति का व्याकरण है।
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*भारतीय ऐतिहासिक व्यक्तियों तथा घटनाक्रम के संबन्ध में पाश्चात्त्य विद्वानों की खोज प्रणाली (पुरातत्त्व तथा भाषा वैज्ञानिक) के साथ अतिप्राचीनता का सामञ्जस्य न होने तथा मानव की 'अति प्राचीनता' को भी 4-5 हजार वर्षों के भीतर ही बाँध देती है। दूसरी ओर भारतीय परम्परा में मान्य युग गणना भारतीय सभ्यता व संस्कृति को इससे कहीं अधिक प्राचीन घोषित करती हे। इतने लम्बे अन्तराल में कई भौगोलिक और भाषागत परिवर्तनों का हो जाना सहज है। अत: जब तक आधुनिक कही जाने वाली कसौटियाँ पूर्ण व स्पष्ट न हों, प्राचीन भारतीय साहित्य के साक्ष्य को अप्रामाणिक घोषित करना युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता।
*उस समय वहाँ महाप्रजापति गौतमी और भिक्षुणी राहुल माता यशोधरा आदि परिषद में दु:खी होकर इसलिए बैठी थीं कि भगवान ने हमारे बारे में बुद्धत्व का व्याकरण क्यों नहीं किया? भगवान् ने उनके चित्त का विचार जानकर कृपापूर्वक उनका भी व्याकरण किया।  
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या तो कपिल का समय अत्यन्त प्राचीन है या फिर रामायण, महाभारत के वर्णनों के आधार पर उन्हें इन युगों से बहुत पूर्व का मानें।
*सद्धर्मपुण्डरीक के इस संक्षिप्त पर्यालोचन से महायान बौद्ध-धर्म का हीनयान से सम्बन्ध स्पष्ट होता है। पालि-ग्रन्थों में दो प्रकार की धर्म देशना है। एक दानकथा, शीलकथा आदि उपाय धर्म देशना हैं ता दूसरी 'सामुक्कंसिका धम्मदेशना है', जिसमें चार आर्यसत्यों की देशना दी जाती है। इस सद्धर्मपुण्डरीक में चार आयसत्यों की देशना तथा सर्वज्ञताज्ञान पर्यवसायी दो देशनाएं हैं। यह सर्वज्ञताज्ञान प्राप्त कराने वाली देशना भगवान ने शारिपुत्र आदि को जो पहले नहीं दीं, यह उनका उपायकौशल्य है। यह द्वितीय देशना ही परमार्थ देशना है। इसमें शारिपुत्र आदि महास्थविरों और महाप्रजापति गौतमी आदि स्थविराओं को बुद्धत्व प्राप्ति का आश्वासन दिया गया है। हीनयान में उपदिष्ट धर्म भी बुद्ध का ही है। उसे एकान्तत: मिथ्या नहीं कहा गया है, किन्तु केवल उपायसत्य है, परमार्थसत्य तो बुद्धयान ही है।  
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*विष्णुपुराण में- कपिल को [[सत युग]] में अवतरित होकर लोककल्याणार्थ उत्कृष्ट ज्ञान का उपदेश दिया- कहकर कपिल के जन्म काल का संकेत किया गया।
*सद्धर्मपुण्डरीक में बुद्धयान एवं तथागत की महिमा का वर्णन है, तथापि इस ग्रन्थ के कुछ अध्यायों में अवलोकितेश्वर आदि बोधिसत्त्वों की महिमा का भी पुष्कल वर्णन है। अवलोकितेश्वर बोधिसत्त्व करुणा की मूर्ति हैं। अवलोकितेश्वर ने यद्यपि बोधि की प्राप्ति की है, तथापि जब तक संसार में एक भी सत्त्व दु:खी और बद्ध रहेगा, तब तक निर्वाण प्राप्त नहीं करने का उनका संकल्प है। वे निर्वाण में प्रवेश नहीं करेंगे। वे सदा बोधिसत्व की साधना में निरत रहते हैं। इससे उनकी महिमा कम नहीं होती। बोधिसत्त्व अवलोकितेश्वर के नाम मात्र के उच्चारण में अनेक दु:खों और आपदाओं से रक्षण की शक्ति है। हम बोधिसत्त्वों की श्रद्धा के साथ उपासना का प्रारम्भ इस ग्रन्थ में देखते हैं।
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*अहिर्बुध्न्यसंहिता में लिखा है- [[त्रेता युग]] के प्रांरभ में जब जगत मोहाकुल हो गया तब कुछ लोक कर्ता व्यक्तियों ने जगत को पूर्ववत लाने का प्रयास किया। उन लोककर्ताओं में एक व्यक्ति कपिल था<balloon title="सांख्यदर्शन का इतिहास पृ. 49" style=color:blue>*</balloon>। इस प्रकार कपिल का समय सत्य युग के अन्त में या त्रेतायुग के आदि में स्वीकार किया जा सकता है। ऐसा मानने पर कितने वर्ष की गणना की जाय यह कहना कठिन है। तथापि आचार्य उदयवीर शास्त्री के अनुमानानुसार कर्दम ऋषि भारत में उस समय रहा होगा जब सरस्वती नदी अपनी पूर्ण धारा में प्रवाहित होती थी। सरस्वती नदी के सूख जाने के समय की ऐतिहासिकों ने जो समीप से समीप कल्पना की है वह, अबसे लगभग 25 सहस्र वर्ष पूर्व है।<ref>वही.</ref> कितने पूर्व, यह निर्णय करना कठिन होगा।
 
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परमर्षि कपिल की कृति
==सुवर्णप्रभास==
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कपिल के समय की ही तरह कपिल की कृति के बारे में भी आधुनिक विद्वानों में मतभेद और अनिश्चय व्याप्त है। जिनके मत में कपिल की ऐतिहासिकता संदिग्ध है, उनके लिए कपिल की कृति की समस्या ही नहीं है।  
*महायान सूत्र साहित्य में सुवर्णप्रभास की महत्त्वपूर्ण सूत्रों में गणना की जाती है। चीन और जापान में इसके प्रति अतिशय श्रद्धा है। फलस्वरूप धर्मरक्ष ने 412-426 ईस्वी में, परमार्थ ने 548 ईस्वी में, यशोगुप्त ने 561-577 ईस्वी में, पाओक्की ने 597 ईस्वी में तथा इत्सिंग ने 703 ईस्वी में इसका चीनी भाषा में अनुवाद किया।
+
लेकिन जो लोग कपिल के ऐतिहासिक अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। उनके लिए यह एक समस्या है। उपलब्ध प्रमुख सांख्य-ग्रन्थ हैं-
*इसी तरह जापानी भाषा में भी तीन या चार अनुवाद हुए। तिब्बती भाषा में भी इसका अनुवाद उपलब्ध है। साथ ही उइगर (Uigur) और खोतन में भी इसका अनुवाद हुआ। इन अनुवादों से यह सिद्ध होता है कि इस सूत्र का आदर एवं लोकप्रियता व्यापक क्षेत्र में थी। इस सूत्र में दर्शन, नीति, तन्त्र एवं आचार का उपाख्यानों द्वारा सुस्पष्ट निरूपण किया गया है। इस तरह बौद्धों के महायान सिद्धान्तों का विस्तृत प्रतिपादन है। इसमें कुल 21 परिवर्त हैं।
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(1) तत्त्वसमाससूत्र
*प्रथम परिवर्त में सुवर्णप्रभास के श्रवण का माहात्म्य वर्णित है।  
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(2) पञ्चशिखसूत्र
*द्वितीय परिवर्त में जिस विषय की आलोचना की गई है, वह अत्यन्त महत्वपूर्ण है। बुद्ध ने दीर्षायु होने के दो कारण बताए हैं। प्रथम प्राणिवध से विरत होना तथा द्वितीय प्राणियों के अनुकूल भोजन प्रदान करना। बोधिसत्त्व रुचिरकेतु को सन्देह हुआ कि भगवान ने दीर्घायुष्कता के दोनों साधनों का आचरण किया, फिर भी अस्सी वर्ष में ही उनकी आयु समाप्त हो गई। अत: उनके वचन का कोई प्रामाण्य नहीं है।
+
(3) सांख्यकारिका
*इस शंका का समाधान करने के लिए चार बुद्ध अक्षोभ्य, रत्नकेतु, अमितायु और दुन्दुभिस्वर की कथा की तथा लिच्छिवि कुमार ब्राह्मण कोण्डिन्य की कथा की अवतारणा की गई। आशय यह है कि बुद्ध का शरीर पार्थिव नहीं है, अत: उसमें सर्षप (सरसों) के बराबर भी धातु नहीं है तथा उनका शरीर धर्ममय एवं नित्य है। अत: पूर्वोक्त शंका का कोई अवसर नहीं है।  
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(4) सांख्यप्रवचन सूत्र या सांख्यसूत्र
<poem>तथा हि: यदा शशविषाणेन नि:श्रेणी सुकृता भवेत्।
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सांख्यकारिका को तो सभी विद्वान् ईश्वरकृष्णकृत मानते हैं। पञ्चशिखसूत्र विभिन्न ग्रन्थों में, विशेषत: योगसूत्रों के व्यासभाष्य में उपलब्ध उदाहरणों का संकलन है। अब शेष रह जाती हैं दो रचनाएँ, जिन्हें कपिलकृत कहा जा सकता है। तत्त्वसमास तथा सांख्यसूत्र के व्याख्याकारों ने अलग-अलग इन्हें कपिल की ही कृति माना है। चूँकि ये रचनाएँ भाष्यों या व्याख्याकार के निर्देशों पर ही निर्भर करना पड़ता है। तत्त्वसमाससूत्र की प्राचीनतम व्याख्या क्रमदीपिका है जिसे आचार्य उदयवीर शास्त्री ने माठर वृत्ति से प्राचीन तथा ईश्वरकृष्णरचित कारिकाओं के पश्चात् माना है। तब तत्त्वसमाससूत्र की रचना और भी प्राचीन समय में मानी जा सकती है। भावागणेश के अनुसार उसने तत्त्वसमास की व्याख्या में 'समास' की पंचशिखकृत व्याख्या का अलम्बन लिया। इससे इतना तो कहा ही जा सकता है कि भावागणेश पंचशिखकृत व्याख्या के अस्तित्व को मानता था। क्रमदीपिका और भावागणेशकृत (तत्त्वसमाससूत्रों की भावागणेशकृत व्याख्या) को क्रमदीपिका के आधार पर लिखे जाने की संभावना को स्वीकार किया। साथ ही वे क्रमदीपिका को पंचशिख की रचना भी नहीं मानते, फिर, एक और संभावना शास्त्री जी ने व्यक्त की कि दोनों का आधार एक अन्य व्याख्या जिसे पंचशिखकृत समझा गया हो- के आधार पर लिखी गई हो। दोनों ही स्थितियों में यह बात स्पष्ट स्वीकार की जा सकती है कि क्रमदीपिका तत्त्वसमास की उपलब्ध प्राचीन व्याख्या है जो पंचशिखकृत नहीं है। साथ ही पंचशिखकृत 'समाससूत्र' व्याख्या भी अस्तित्ववान् थी। यदि महाभारत शांतिपर्व में उल्लिखित पंचशिख और भावागणेश द्वारा संकेतित पंचशिख दो भिन्न व्यक्ति नहीं हैं।<ref>आचार्य उ.वी. शास्त्री ने दोनों उल्लेख एक ही पंचशिख का माना है सां. द.इ.</ref> तो तत्त्वसमाससूत्र को भी महाभारत-रचनाकाल से अत्यन्त प्राचीन मानना होगा। या फिर डॉ0 ए.बी.कीथ की तरह दो पंचशिखों के अस्तित्व को स्वीकार करना होगा। लेकिन इसमें कोई स्पष्ट प्रमाण या परम्परा न होने से तत्त्वसंमास के व्याख्याकार पंचशिख को ही परम्परानुरूप महाभारत में उल्लिखित कपिल के प्रशिष्य के रूप में मानना उचित प्रतीत होता है। ऐसी स्थिति में कपिल को तत्त्वसमाससूत्र का रचयिता मानने की परम्परा के औचित्य को स्वीकार करना गलत नहीं होगा।<ref>एन्सा. में तत्त्वसमाससूत्र की प्राचीनता को मानते हुए भी इसका रचनाकाल 14 शताब्दी माना गया है। साथ ही इसे कपिल से सम्बन्धित करने को अनुचित कहा गया है।</ref>
स्वर्गस्यारोहणार्थाय तदा धातुर्भविष्यति॥
+
'तत्त्वसमाससूत्र' किसी बृहत ग्रन्थ की विषयसूची प्रतीत होता है जिसमें सांख्य दर्शन को 22 सूत्रों में प्रस्तुत किया गया है। अत्यन्त संक्षिप्त होने से ही संभवत: इसे समाससूत्र कहा गया है। इस सूत्ररचना की आवश्यकता के रूप में दो संभावनाएँ हो सकती है। या तो परमर्षि कपिल ने पहले इन सूत्रों की रचना की बाद में इनके विस्तार के रूप में सांख्यसूत्रों को रचा ताकि आख्यायिकाओं और परवाद-खण्डन के माध्यम से सांख्यदर्शन को अधिक सुग्राह्य और तुलनात्मक 'में प्रस्तुत किया जा सके या फिर पहले बृहत् सूत्रग्रन्थ की रचना हुई हो और फिर उसे संक्षिप्त सूत्रबद्ध किया गया हो। 'समास' शब्द से दूसरे विकल्प की अधिक सार्थकता सिद्ध होती है।
अनस्थिरुधिरे काये कुतो धातुर्भविष्यति।<balloon title="द्र.- सुवर्णप्रभाससूत्र, तथागतायु: प्रमाणनिर्देशपरिवर्त, पृ0 8 (दरभङ्गा-संस्करण 1967)" style=color:blue>*</balloon>
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उपलब्ध सांख्यग्रन्थों में 'सांख्यसूत्र' भी एक ऐसा ग्रन्थ है जिसके रचनाकार और रचनाकाल के विषय में आधुनिक विद्वानों में मतभेद है। पाश्चात्त्य विद्वान् तथा उनके अनुसार विचारशैली वाले भारतीय विद्वान् सांख्यसूत्रों को ईश्वरकृष्णकृत कारिकाओं के बाद की रचना मानते हैं। यद्यपि इस संभावना को स्वीकार किया जाता है कि कुछ सूत्र अत्यन्त प्राचीन रहे हों तथापि वर्तमान रूप में सूत्र अनिरुद्ध या उसके पूर्वसमकालिक व्यक्ति द्वारा ही अर्थात् पद्रहवीं शती में रचित या संकलित हैं। आचार्य उदयवीर शास्त्री, डॉ0 आद्याप्रसाद मिश्र, डॉ0 गजानन शास्त्री मुसलगांवकर आदि इसे कपिलप्रणीत और प्राचीन मानते हैं। सांख्यसूत्रों के सभी भाष्यकार टीकाकार भी इसे कपिलप्रणीत ही मानते हैं। इस विषय में दोनों पक्षों की युक्तियों का परिचय रोचक होगा।
अपि च, न बुद्ध: परिनिर्वाति न धर्म: परिहीयते।
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ईश्वरकृष्णविरचित सांख्यकारिका में 72वीं कारिका में कहा गया ''सप्तत्यां किल येऽर्थास्तेऽर्था: कृत्स्नस्य षष्टितंत्रस्य आख्यायिकाविरहिता: परवादविवर्जिताश्चेति''।  
सत्त्वानां परिपाकाय परिनिर्वाणं निदर्श्यते॥
+
अर्थात् इस सप्तति (सत्तर श्लोकयुक्त) में जो विषय निरूपित हुए हैं वे निश्चित ही समस्त पष्टितन्त्र के विषय में हैं। यहाँ ये आख्यायिका एवं परमतखण्डन को वर्जित करके कहे गये हैं।
अचिन्त्यो भगवान् बुद्धो नित्यकायस्तथागत:।
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अब, उपलब्ध षडध्यायी सूत्रों को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उसके प्रथम तीन अध्यायों में कारिकाओं का कथ्य लगभग पूर्णत: समाहित है। शेष तीन अध्यायों में आख्यायिकाएँ और परमतखण्डन है। ईश्वरकृष्ण की घोषणा ओर उपलब्ध सांख्यसूत्रों को सामने रखकर बड़ी सरलता से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ईश्वरकृष्ण का संकेत इसी ग्रन्थ की ओर होना चाहिए (कम से कम तब तक ऐसा माना जा सकता है कि जब तक आख्यायिका और परवादयुक्त कोई अन्य सांख्यग्रन्थ न मिल जाय) लेकिन इस सरल से लगने वाले निष्कर्ष में एक समस्या है 'षष्टितन्त्र' शब्द की। यह शब्द किसी ग्रन्थ का नाम है या साठ पदार्थों वाले शास्त्र का बोधक? षष्टितंत्र नामक कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है और ईश्वरकृष्ण के संकेत के अनुसार ग्रन्थ वर्तमान में उपलब्ध सांख्यसूत्र है। अत: षष्टितन्त्र और सांख्यसूत्र ये दो नाम एक ही ग्रन्थ के निरूपित हो जायें तब यह कहा जा सकता है कि कपिलप्रणीत षष्टितंत्र सांख्यसूत्र ही है।
देशेति विविधान व्यूहान् सत्त्वानां हितकारणात्।<balloon title="द्र.- सुवर्णप्रभाससूत्र, तथागतायु: प्रमाणनिर्देशपरिवर्त, पृ0 9 (दरभङ्गा-संस्करण 1967)" style=color:blue>*</balloon> </poem>
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आचार्य उदयवीर शास्त्री के अनुसार षष्टितंत्र शब्द कपिलप्रणीत ग्रन्थ का नाम हे। अपने मत की पुष्टि में शास्त्री जी ने सां. 2.5. द्वितीय अध्याय में कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये हैं जिनमें ''षष्टितंत्र'' शब्द का प्रयोग हुआ है।
*तृतीय परिवर्त में रुचिरकेतु बोधिसत्त्व स्वप्न में एक ब्राह्मण को दुन्दुभि बजाते देखता है और दुन्दुभि से धर्म गाथाएं निकल रही हैं। जागने पर भी बोधिसत्त्व को गाथाएं याद रहती हैं और वह उन्हें भगवान के सामने निवेदित करता है।  
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1. कल्पसूत्र में महावीर स्वामी को ''सट्ठितन्तविशारए'' (षष्टितन्त्रविशारद:) कहा गया है। इस वाक्य की व्याख्या में यशोविजय लिखता है- षष्टितंत्रं कपिलशास्त्रम्, तत्र विशारद:।  
*चतुर्थ परिवर्त में महायान के मौलिक सिद्धान्तों का गाथाओं द्वारा उपपादन किया गया है।  
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2. अहिर्बुध्न्यसंहिता- षष्टिभेदं स्मृतं तंत्रं सांख्यं नाम महामुने:।
*पञ्चम परिवर्त में बुद्ध के स्तव हैं, जिनका सामूहिक नाम कमलाकर है। इनमें बुद्ध की महिमा का वर्णन है।
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3. वेदान्तसूत्र पर आचार्य भास्करभाष्य- तत: कपिलप्रणीत- षष्टितन्त्राख्य...
*षष्ठ परिवर्त में वस्तुमात्र की शून्यता के परिशीलन का निर्देश है।
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4. शारीरक भाष्य (2/9/9) – स्मृतिश्च तन्त्राख्या परमर्षिप्रणीता
*सप्तम में सुवर्णप्रभास के माहात्म्य का वर्णन है।
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5. वाक्यपदीय के व्याख्याकार ऋषभदेव ने लिखा है- षष्टितन्त्रग्रन्थश्चायम्
*अष्टम परिवर्त में सरस्वती देवी बुद्ध के सम्मुख आविर्भूत हुई और सुवर्णप्रभास में प्रतिपादित धर्म का व्याख्यान करने वाले धर्मभाणक को बुद्ध की प्रतिभा से सम्पन्न करने की प्रतिज्ञा की। *नवम परिवर्त में महादेवी बुद्ध के सम्मुख प्रकट हुईं और घोषणा की कि मैं व्यावहारिक और आध्यात्मिक सम्पत्ति से धर्मभाणक को सम्पन्न करूँगी।
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6. जयमंगला- बहुधा कृतं तन्त्रं षष्टितन्त्राख्यं षष्टिखण्डं कृतमिति
*दशम परिवर्त में विभिन्न तथागतों एवं बोधिसत्त्वों के नामों का संकीर्तन किया गया है।
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7. विस्तरत्वात् षष्टितन्त्रस्य संक्षिप्तसूचिसत्त्वानुग्रहार्थसप्तातिकारम्भ:
*एकादश परिवर्त में दृढ़ा नामक पृथ्वी देवी भगवान के सम्मख उपस्थित हुईं और कहा कि धर्मभाणक के लिए जो उपवेशन-पीठ हे, वह यथासम्भव सुखप्रदायक होगा। साथ ही आग्रह किया कि धर्मभाणक के धर्मामृत से अपने को तृप्त करूँगी।
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उपर्युक्त उद्धरणों में क्रमांक 5 में तो षष्टितंत्र ग्रंथनाम प्रतीत होता है, यद्यपि षष्टितंत्र ग्रन्थ का अर्थ षष्टितंत्र का ग्रन्थ अर्थात् साठ पदार्थों वाले सिद्धान्त अथवा ज्ञान का ग्रन्थ – ऐसा भी किया जा सकता है। क्रमांक 6 में भी यदि सिद्धान्त या ज्ञान का संक्षिप्त ऐसा प्रचलित अर्थ न लिया जाय तो 'षष्टितंत्र' ग्रन्थ का- इस अर्थ में ग्रहण किया जा सकता है। उद्धरण क्रमांक 3 में भी 'षष्टितंत्र' नामक कपिलप्रणीत अर्थ लिया जा सकता है। लेकिन उपर्युक्त सभी उद्धरणों में 'तंत्र' शब्द ज्ञान या सिद्धान्त के अर्थ में लेने का आग्रह हो तो भी अर्थसंगति को उचित कहा जा सकता है। यद्यपि क्रमांक 3.4. स्पष्टत: ग्रन्थ नाम का संकेत देते हैं।
*द्वादश परिवर्त में यक्ष सेनापति अपने अट्ठाइस सेनापतियों के साथ भगवान के पास आये और सुवर्णप्रभास के प्रचार के लिए अपने सहयोग का वचन दिया। साथ ही धर्मभाणकों की रक्षा का आश्वासन भी दिया।
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अत: आचार्य उदयवीर शास्त्री के मत को स्वीकार करने में अनौचित्य नहीं है। तथापि ऐसी 'बाध्यता' का संकेत उद्धरणों में नहीं है। दूसरी ओर श्री रामशंकर भट्टाचार्य का विचार है कि षष्टितंत्र शब्द किसी ग्रन्थनाम का ज्ञापक शब्द नहीं बल्कि सांख्यशास्त्रपरक है जिसमें पदार्थों को साठ भागों में विभक्त कर विचार किया गया था।<ref>सांख्यतत्त्वकौमुदी ज्योतिष्मती व्याख्या 72वीं कारिका पर।</ref> इसमें उनकी युक्ति यह है कि जब पूर्वकारिका (69) में कारिकाकार ने कहा कि उन्होंन 'एतत्' (अर्थात् पुरुषार्थ ज्ञान जो परमर्षिभाषित था और जिसको मुनि ने आसुरी को दिया था) को-जो शिष्यपरम्परागत है- संक्षिप्त किया है, तब पुन: इस कथन का क्या स्वारस्य होता है। कि प्रस्तुत सांख्यकारिका नामक ग्रन्थ में जितने प्रतिपाद्य विषय हैं, वे 'कृत्स्नस्य षष्टितन्त्रनामग्रन्थविशेषस्य' है? जिस स्वारस्य की यहां जिज्ञासा की गई वह तो है। कारिका में कहा गया है कि ''यह संक्षिप्त आख्यायिका और परवादविवर्जित है। अब या तो कपिलासुरीपञ्चशिखपरम्परा में आख्यायिका और परमतखण्डन की प्रचुरता का कोई प्रमाण हो या फिर षष्टितंत्र का कोई ग्रन्थ हो जिसमें ये निहित हों। सांख्यशास्त्र के उपलब्ध ग्रन्थों में ऐसा एक ही ग्रन्थ है 'सांख्यसूत्र'। अत: 'कृत्स्नस्य' का स्वारस्य यह दर्शाने में है कि षष्टितंत्र में प्रस्तुत दर्शन का संक्षिप्त किया गया है न कि पूरे ग्रन्थ का (क्योंकि आख्यायिका-परवाद छोड़ दिया गया)।
*त्रयोदश परिवर्त में राजशास्त्र सम्बन्धी विषयों का प्रतिपादन है।  
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षष्टितंत्र सांख्यविद्यापरक शब्द हो या सांख्यग्रन्थनामपरक हो, इस बात के प्रबल प्रमाण हैं कि यह तन्त्र कपिल प्रोक्त, कृत या प्रणीत है। पञ्चशिख का प्रसिद्ध सूत्र ''आदिविद्वान निमार्णचित्तमधिष्ठाय कारुण्याद् भगवान् परमर्षिरासुरो जिज्ञासमानाय तंत्रं प्रोवाच'' युक्तिदीपिका के आरंभ में 14वें श्लोक में ''पारमर्धस्य तंत्र'' अनुयोगद्वारसूत्र  41 में कपिल-सट्ठियन्तं अहिर्बुध्न्यसंहिता के पूर्वोक्त उद्धरण आदि पर्याप्त प्रमाण हैं। षष्टितंत्र लिखित हो या मौखिक, कपिलप्रणीत तो है ही। अत: यदि ऐसा कोई संकलन उपलब्ध हो जिसे षष्टितन्त्र कहा जाता हो और जिसमें आख्यायिका एवं परवाद हों तो उसे कपिलप्रणीत कहने में कोई विसंगति नहीं है। ऐसा ग्रन्थ है सांख्यसूत्र। इस ग्रन्थ को अनिरुद्ध और विज्ञानभिक्षु कपिलसूत्र ही मानते हैं तथा आधुनिक विद्वानों में आचार्य उदयवीर शास्त्री, डॉ0 आद्याप्रसाद मिश्र तथा डॉ0 गजानन शास्त्री मुसलगांवकर आदि भी कपिलरचित मानते हैं। जबकि श्रीपुलिन बिहारी चक्रवर्ती, मैक्समूलर, लार्सन, कीथ आदि इसे एक अर्वाचीन कृति मानते हैं। सांख्यसूत्रों को अर्वाचीन घोषित करने के पीछे निम्नलिखित तर्क प्राय: दिए जाते हैं।
*चतुर्दश परिवर्त में सुसम्भव नामक राजा का वृत्तान्त है।
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1. 15वीं शती से पूर्व सूत्रों पर कोई भाष्य उपलब्ध नहीं है। वाचस्पति मिश्र, जिन्होंने अन्य दर्शन सम्प्रदाय के सूत्रग्रन्थों पर भाष्य लिखा है- ने भी कारिका पर भाष्य लिखा है। यदि सूत्र कपिलप्रणीत होते तो वाचस्पति मिश्र उस पर ही भाष्य लिखते।
*पंचदश परिवर्त में यक्षों और अन्य देवताओं ने सुवर्णप्रभास के श्रोताओं की रक्षा की प्रतिज्ञा की।
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2. दर्शन के प्राचीन ग्रन्थों में सांख्यकारिका के उद्धरण तो मिलते हैं। लेकिन सूत्रों को किसी में उद्धृत नहीं किया गया।
*षोडश परिवर्त में भगवान ने दश सहस्र देवपुत्रों के बुद्धत्व लाभ की भविष्यवाणी की।
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3. सूत्र में न्याय-वैशेषिक आदि का खण्डन है जबकि कपिल इनसे अन्यन्त प्राचीन माने जाते हैं।
*सप्तदश परिवर्त में व्याधियों के उपशमन करने का विवरण दिया गया है।  
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4. 'सूत्र' में अनेक सूत्र ब्रह्मसूत्र, योगसूत्र, सांख्यकारिका आदि को उद्धृत किया गया है।
*अष्टादश परिवर्त में जलवाहन द्वारा मत्स्यों को बौद्धधर्म में प्रवेश कराने के चर्चा है।  
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5. कुछ सूत्र इतने विस्तृत हैं कि वे सूत्र न होकर कारिका ही प्रतीत होते हैं। संभवत: वे कारिका से यथावत् लिए गए हैं।  
*उन्नीसवें परिवर्त में भगवान ने बोधिसत्त्व अवस्था में एक व्याघ्री की भूख मिटाने के लिए अपने शरीर का परित्याग किया था, उसकी चर्चा है।  
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ध्यान से देखने पर उपर्युक्त सभी युक्तियाँ तर्कसंगत न होकर केवल मान्यता मात्र प्रतीत होती हैं। किसी ग्रन्थ पर भाष्य का उपलब्ध होना उस ग्रन्थ की भाष्यकार के समय से पूर्ववर्तिता का प्रमाण तो हो सकता है लेकिन भाष्य का न होना ग्रन्थ के न होने में प्रमाण नहीं होता। उलटे यह ऐतिहासिक शोध का विषय होना चाहिए कि उक्त ग्रन्थ पर भाष्य क्यों नहीं लिखा गया होगा? भारतीय इतिहास के अवलोकन से ज्ञात होता है कि बौद्ध दर्शन की उत्पत्ति और विकास की अवस्था का वैदिक दर्शनों के प्रचार-प्रसार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। तब तक उस सांख्यदर्शन का जिसे महाभारत में सुप्रतिष्ठित माना गया था, अध्ययन-अध्यापन नगण्य हो चला था। इस अवस्था में सांख्यसूत्रों पर भाष्य की आवश्यकता अनुभूत न होना आश्चर्यजनक नहीं कहा जा सकता। यह भी संभव है कि ईश्वरकृष्ण द्वारा कारिकाओं की रचना के बाद सूत्रों की अपेक्षा सुग्राह्य होने से कारिकाएँ अधिक प्रचलित हो गई हों। फिर, ईश्वर या परमात्मा जैसे शब्दों के न होने से, दुखनिवृत्ति प्रमुख लक्ष्य होने से, बौद्धकाल और उसके बाद भारत में राजनैतिक उथल-पुथल विदेशी आक्रमण आदि से भग्नशान्ति समाज में पलायनवादी प्रवृत्ति की उत्पत्ति और प्रसार ने पलायनवादी दार्शनिक विचारों को प्रश्रय दिया हो। परिणामस्वरूप वेदान्त की विशिष्ट धारा का खण्डन अथवा मण्डन ही वैचारिक केन्द्र बन गए हों। ऐसी अवस्था में संसार को तुच्छ मानने और मनुष्य के अस्तित्व के बजाय परमात्मा पर पूर्णत: आश्रित रहने वाले दर्शनों का ही प्रचार-प्रसार का होना ह्रासोन्मुख समाज में स्वाभाविक है। सांख्यदर्शन में पुरुषबहुत्व और परमात्मा से उसकी पृथक् सत्तामान्य है। ऐसा दर्शन पलायनवादी परिस्थितियों में लुप्त होने लगा हो तो क्या आश्चर्य? संभवत: इसीलिए गत दो हजार वर्षों में बौद्ध और वेदान्त पर जितना लिखा गया उसकी तुलना में शुद्ध तर्कशास्त्रीय ग्रन्थों के अतिरिक्त शेष दर्शन सम्प्रदायों पर नगण्य लेख हुआ। इस अवधि में सांख्यकारिका के भी अंगुलियों पर गिने जाने योग्य भाष्य ही लिखे गये। ऐसे में संभव है सांख्यसूत्र अथवा उन पर भाष्य सर्वथा अप्रचलित हो गए हों। और भी कारण ढूँढ़े जा सकते हैं सारांश यह कि भाष्यों का उपलब्ध न होना किसी अवधि में किसी ग्रन्थ के अप्रचलन को तो निगमित कर सकता है, उसके अनस्तित्व को सिद्ध नहीं करता। फिर, अनिरुद्ध, महादेव वेदान्ती, विज्ञानभिक्षु आदि को सांख्यसूत्र के कपिलप्रणीत होने पर संदेह नहीं हुआ। हमारी जानकारी में पाश्चात्त्य प्राच्यविद्याविशारदों की स्थापनाओं से पूर्व तक की भारतीय परम्परा सांख्यसूत्रों को कपिल-प्रणीत ही मानती रही है। ऐसा उल्लेख नहीं है जिसमें कहा गया हो कि ये सूत्र कपिलप्रणीत नहीं हैं।
*बीसवें परिवर्त में सुवर्णरत्नाकरछत्रकूट नामक तथागत की बोधिसत्त्वों द्वारा की गई गाथामय स्तुति प्रतिपादित है।
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यही समाधान सांख्यसूत्रों के उद्धरणों की कथित अनुपलब्धि के विषय में भी हो सकता है। यह कहना ही गलत है कि प्राचीन ग्रन्थों में सांख्यसूत्रों के उद्धरण नहीं मिलते। आचार्य उदयवीर शास्त्री ने बड़े ही यत्न से कई उद्धरण प्राचीन तथा अर्वाचीन ग्रन्थों से ढूँढ़ कर प्रस्तुत किये हैं।<ref>सां. द.इ.</ref>
*इक्कीसवें परिवर्त में बोधिसत्त्वसमुच्चया नामक कुल-देवता द्वारा व्यक्त सर्वशून्यताविषयक गाथाएं उल्लिखित हैं।
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न्याय-वैशेषिक आदि के खण्डन का होना, ब्रह्मसूत्र आदि का उद्धृत होना सांख्यसूत्र के अर्वाचीन होने का प्रमाण नहीं है। इनके आधार पर इन्हें मूलग्रन्थ में प्रक्षिप्त ही माना जाना चाहिए। कारिकावत् सूत्रों के बारे में भी उल्टा निष्कर्ष निकाला गया है। कारिका को प्राचीन मान लेने के कारण ही सूत्र को कारिका के आधार पर रचित-माना जा सकता है। अन्यथा कारिकाएँ सूत्र के आधार पर रची गई- ऐसा क्यों न माना जाय जबकि कपिलसूत्र को प्राचीन मानने की सुदीर्ध परम्परा है।  
==तथागतगुह्यक==
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इस प्रकार सांख्य-सूत्रों को कारिका से अर्वाचीन मानना केवल 'मान्यता' है, प्रामाणिक नहीं। अत: जब तक ऐसा स्पष्ट प्रमाण कि उपलब्ध सांख्यसूत्र कपिलप्रणीत नही है, उपलब्ध न हो, प्रामाणिक परम्परा को अस्वीकार करने का कोई औचित्य नहीं है।  
*प्रारम्भिक तन्त्र महायानसूत्रों से बहुत मिलते-जुलते हैं। उदाहरणार्थ मञ्जुश्रीमूलकल्प अवतंसक के अन्तर्गत 'महावैपुल्यमहायानसूत्र', के रूप में प्रसिद्ध है।
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सांख्यसूत्रपरिचय
*विद्वानों की राय है कि तथागतगुह्य, गुह्यसमाजतन्त्र तथा अष्टादशपटल तीनों एक ही हैं। अर्थात ग्रन्थ में जो तथागतगुह्यसूत्र के उद्धरण मिलते हैं, वे गुह्यसमाज से भिन्न हैं। अत: तथागतगुह्यसूत्र एवं गुह्यसमाजतन्त्र का अभेद नहीं है अर्थात भिन्न-भिन्न हैं।
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सांख्यसूत्र का प्रचलित नाम 'सांख्यप्रवचनसूत्र' है। सूत्र सर्वप्रथम अनिरुद्ध 'वृत्ति' के रूप में प्राप्त है। स्वतंत्र रूप से सूत्रग्रंथ उपलब्ध न होने से सूत्रसंख्या, अधिकरण, अध्याय-विभाग आदि के बारे में वृत्तिकार अनिरुद्ध तथा तदनुरूप कृत भाष्यकार विज्ञानभिक्षु की कृति पर ही निर्भर करना पड़ता है। सांख्यप्रवचनसूत्र 6 अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय में 164 सूत्र हैं। इसे अनिरुद्ध विषयाध्याय कहते हैं। इस अध्याय में सांख्य की विषयवस्तु का परिचय दिया गया है। सूत्र 1-6 में दु:खत्रय, उनसे निवृत्ति के दृष्ट उपायों की अपर्याप्तता आदि का उल्लेख है। सूत्र 8-60 में बन्ध की समस्या पर विचार किया गया। पुरुष के असंग होने से उसका बन्धन नहीं कहा जा सकता। कर्म, भोग आदि बुद्धि के त्रिगुणात्मक विकारों के धर्म होने से इन्हें भी बन्ध का कारण नहीं कहा जा सकता। बन्ध का कारण प्रकृति, पुरुष में भेदविस्मृति का अविवेक है। शेष सूत्रों में प्रकृति, विकृति, आदि का नामोल्लेख, प्रमाणविचार, प्रत्यक्ष से ईश्वर की असिद्धि, सत्कार्यवाद- निरूपण आदि की चर्चा है। प्रकृति और पुरुष की अस्तित्वसिद्धि में हेतु की भी चर्चा है। द्वितीय अध्याय में मात्र 47 सूत्र हैं। इस अध्याय को प्रधानकार्याध्याय कहा जाता है। इन सूत्रों में प्रधान के कार्य महत्, अहंकार, इन्द्रियादि की चर्चा की गई। करणों की वृत्तियों का उल्लेख भी किया गया। तृतीय अध्याय में 84 सूत्र हैं। अनिरुद्ध इस अध्याय को वैराग्याध्याय कहते हैं। इस अध्याय में प्रकृति के स्थूल कार्य, सूक्ष्म-स्थूलादि शरीर, आत्मा की विभिन्न योनियों में गति तथा पर-अपर वैराग्य की चर्चा है। चतुर्थ अध्याय में 32 सूत्र हैं जिनमें आख्यायिकाओं के द्वारा विवेकज्ञान के साधनों को प्रदर्शित किया गया है। 130 सूत्रों के पांचवें अध्याय में परमतखण्डन है। यहाँ विभिन्न कारणों से ईश्वर के कर्मफलदातृत्व का निषेध किया गया है। साथ ही वेदों की (शब्दराशिरूप में) अनित्यता का, सत्ख्याति, असत्ख्याति, अन्यथाख्याति, अनिर्वचनीयख्याति आदि का खण्डन करते हुए सदसत्ख्याति को स्थापित किया गया। छठे अध्याय में 61 सूत्र हैं। इन सूत्रों में सांख्यमत जिसे पूर्वाध्यायों में विस्तार से प्रस्तुत किया गया हे- को संक्षेप में उपसंहृय किया गया।
*'अष्टादश' इस नाम से यह प्रकट होता है कि इस ग्रन्थ में अठारह अध्याय या परिच्छेद हैं।
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उपलब्ध सांख्यप्रवचनसूत्र के अध्यायों में विषयप्रस्तुति का क्रम ईश्वरकृष्ण की 62वीं कारिका के अनुरूप ही है। सांख्यसिद्धान्त की पूर्ण चर्चा तो प्रथम तीन अध्यायों में ही निहित है। अत: सांख्यकारिका में ईश्वरकृष्ण ने आख्यायिका और परमतखण्डन को छोड़ दिया है।  
*तथागतगुह्यसूत्र के अनुसार बोधिसत्त्व प्रणिधान करता है कि श्मशान में स्थित उसके मृत शरीर का तिर्यग योनि में उत्पन्न प्राणी यथेच्छ उपभोग करें और इस परिभोग की वजह से वे स्वर्ग से उत्पन्न हो। इतना ही नहीं, वह उनके परिनिर्वाण का भी हेतु हो।<ref>ये मे मृतस्य कालगतस्य मांसं परिभुञ्जीरन्, स एव तेषां हेतुर्भवेत् स्वर्गोपपत्तये यावत् परिनिर्वाणाय तस्य शीलवत:। द्र.- तथागतगुह्यसूत्र, शिक्षासमुच्चय में उद्धृत, पृ0 89 (दरभङ्गा संस्करण, 1996)</ref>
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आचार्य उदयवीर शात्री ने सूत्रों की अन्तरंग परीक्षा करके सांख्यसूत्र में प्रक्षेपों को संकलित किया। उनके अनुसार प्रथम अध्याय में 19वें सूत्र के बाद विषयवस्तु अथवा कथ्य की संगति 55वें सूत्र से है। 20-54 सूत्रों में अप्रासंगिक विषयान्तर होने से शास्त्री जी इन्हें प्रक्षिप्त मानते हैं। इन सूत्रों में ''न वयं षट्पदार्थवादिनो वैशेषिकादिवत्'' (1/25), न विज्ञानमात्रं बाह्यप्रतीते: (1/42), शून्यं तत्त्वं भावो (1/44) तथा 'पाटलिपुत्र' आदि को देखकर न केवल इसकी अप्रासंगिकता का बोध होता है अपितु कपिल के बहुत बाद में स्थापित मतों के खण्डन की उपस्थिति भी आश्चर्यजनक प्रतीत होती है। अनिरुद्ध और विज्ञानभिक्षु इन सूत्रों में बौद्धमत का खण्डन देखते हैं। उदयवीर शास्त्री का मत है कि इन सूत्रों का प्रक्षेप शंकराचार्य के प्रादुर्भाव के उपरांत हुआ होगा। इसी तरह पाँचवें अध्याय में मुक्ति के स्वरूप की चर्चा में सूत्र 84 से 115 तक 32 सूत्रों को शास्त्री जी ने प्रक्षिप्त घोषित किया है, जो कि उचित प्रतीत होता है।  
*पुरश्च, तदनुसार बोधिसत्त्व धर्मकाय से प्रभावित होता है, इसलिए वह अपने दर्शन, श्रवण और स्पर्श से भी सत्त्वों का हित करता है।<ref>स धरृमकायप्रभावितो दर्शनेनापि सत्त्वानामर्थ करोति, श्रवणेनापि स्पर्शनेनापि सत्त्वानामर्थ करोति। द्र.- तथागतगुह्सूत्र शिक्षासमुच्चय में उद्धृत, पृ. 89 (दरभङ्गा संस्करण 1960)</ref>
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सांख्यसूत्र और कारिका के दर्शन में सिद्धान्तरूप में विरोध या भेद नहीं है तथापि कतिपय साधारण भेद अवश्य प्रतीत होते हैं। पुरुष की अस्तित्वसिद्धि में सांख्यसूत्र में हेतु दो समूहो में या वर्गों में है। प्रथम वर्ग सूत्र 1/140-42 में और द्वितीय वर्ग सूत्र 1/143-44 में। संघातपरार्थत्वात्, त्रिगुणादिविपर्ययात्, अधिष्ठानाच्चेति 1/140-42) प्रथम समूह है। अनिरुद्ध विज्ञानभिक्षु सहित प्राय: टीकाकारों ने 'अधिष्ठानात् च इति' के भाष्य में हेतु समाप्ति को स्वीकार किया है। भोक्तृभावत्, कैवल्थार्थप्रवृत्तेश्च, ये 2 सूत्र पुन: हेतु निर्देश करते हैं। जबकि सांख्यकारिका में पाँचों हेतु एक साथ दिए गए हैं। एक अन्य भेद प्रमाणविषयक है। सूत्र में प्रत्यक्ष प्रमाण है जबकि कारिका में दृष्ट व्याख्याकारों ने दृष्ट को प्रत्यक्ष माना है। जिससे निश्चयात्मकता का भाव स्पष्ट होता है जबकि सूत्रगत प्रमा की परिभाषा को ध्यान में रखा जाये जहाँ 'असन्निकृष्टार्थपरिच्छिती प्रमा' कहा गया है तो प्रत्यक्ष में ही नहीं अनुमान और शब्द प्रमाणजन्य प्रमा भी निश्चयात्मक निरूपित होती है। सूत्र में अनुमान प्रमाण के भेदों का उल्लेख नहीं है किन्तु कारिका में 'त्रिविधमनुमानम्' स्वीकार किया गया है। कारिकाओं में त्रिगुण साम्य के रूप में प्रकृति को कहीं परिभाषित नहीं किया गया। इस विपरीत सूत्र में 1/61 में सत्त्वरजस्तमस् की साम्यावस्था का स्पष्ट उल्लेख है। सांख्यकारिकाएँ चूँकि संक्षिपत प्रस्तुति है इसलिए सूत्रों से अन्तर होना स्वाभाविक है।  
*उसी सूत्र में अन्यत्र उल्लिखित है कि जैसे शान्तमति, जो वृक्ष मूल से उखड़ गया हो, उसकी सभी शाखाएं डालियां और पत्ते सूख जाते हैं, उसी प्रकार सत्कायदृष्टि का नाश हो जाने से बोधिसत्त्व के सभी क्लेश शान्त हो जाते हैं।<ref>तद्यथापि नाम शान्तमते, वृक्षस्य मूलच्छिन्नस्य सर्वशाखापत्रपलाशा: शुष्यन्ति, एवमेव शान्तमते, सत्कायदृष्टयुपशमात् सर्वक्लेशा उपशाम्यन्तीति-द्र. तथागतगुह्य-सूत्र, शिक्षासमुच्चय में उद्धृत, पृ. 130 (दरभङ्गा संस्करण, 1960)</ref>
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आसुरि
*अपि च, महायान में प्रस्थित बोधिसत्त्व के ये चार धर्म विशेष गमन के और अपरिहाणि के हेतु होते हैं। कौन चार? श्रद्धा, गौरव, निर्मानता (अनहंकार) एवं वीर्य।<ref>चत्वार इमे महाराज, धर्मा महायानसंम्प्रतिस्थितानां विशेषगामितायै संवर्तन्तेऽपरिहाणाय च। कतमे चत्वार:? श्रद्धा महाराज, विशेषगामितायै संवर्ततेऽपरिहाणाय... गौरवं...निर्मानता...वीर्यं महाराज विशेषगामितायै संवर्ततेऽपरिहाणाय। द्र.- तथागतगुह्यसूत्र, शिक्षासमुच्चय में उद्धृत, पृ. 168 (दरभङ्गा संस्करण, 1960)</ref>
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आसुरि कपिल मुनि के शिष्य और सांख्याचार्य पचंशिख के गुरु थे। महाभारत के शांतिपर्व में पंचशिख को आसुरि का प्रथम शिष्य कहा गया है।<ref>शां. प.</ref> यहाँ आसुरि के बारे में कहा गया है कि उन्होंने तपोबल से दिव्य दृष्टि प्राप्त कर ली थी। ज्ञानसिद्धि के द्वारा उन्होंने क्षेत्र-क्षेत्रज्ञभेद को समझ लिया था। जो एकमात्र अक्षर और अविनाशी ब्रह्म नाना रूपों में दिखाई देता है उसका ज्ञान उन्होंने प्रतिपादित किया।<ref>वही</ref> शां.प. के ही 318वे अध्याय में उल्लिखित सांख्याचार्यों के नामों की सूची में भी आसुरि का नामोल्लेख है। पञ्चशिखसूत्र में भी 'परमर्षि ने जिज्ञासु आसुरि को ज्ञान दिया' कहकर आसुरि के कपिलशिष्य होने का स्पष्ट संकेत दिया।<ref>सां.द. में उ.वी. शास्त्री संकलित प्रथम सूत्र।</ref> ईश्वरकृष्णकृत 70वीं कारिका में ''एतत् पवित्रमग्यं मुनिरासुरये प्रददौ। आसुरिरपि पञ्चशिखाय तेन च बहुधा कृतं तन्त्रम्'' कहकर कपिल के शिष्य और पञ्चशिख के गुरु रूप में आसुरि का उल्लेख किया। सांख्यकारिका के भाष्यकारों ने भी इस गुरुशिष्य परम्परा को यथावत् स्वीकार किया। इतनी स्पष्ट परम्परा के आधार पर आसुरि की ऐतिहासिकता सिद्ध है। कतिपय पाश्चात्त्य विद्वानों के द्वारा आसुरि के अनैतिहासिक होने के अप्रामाणिक आग्रह का आद्याप्रसाद मिश्र ने निराकरण किया है।<ref>सां. द. ऐ.प.</ref> माठरवृत्ति के आरंभ में प्रस्तुत प्रसंग के अनुसार आसुरि गृहस्थ थे। फिर वे दु:खत्रय के अभिघात के कारण गृहस्थ आश्रम से विरत हो कपिल मुनि के शिष्य हो गये।<ref>माठरवृत्ति प्रथम कारिका पर। ऐसा ही प्रसंग 70वीं कारिका पर जयमंगला में।</ref>
*पुनश्च, बोधिसत्तत्त्व सर्वदा अप्रमादी होता है और अप्रमाद का अर्थ है 'इन्द्रियसंवर'। वह न निमित्त का ग्रहण करता है और न अनुव्यजंन का। वह सभी धर्मों के आस्वाद, आदीनव और नि:सरण को ठीक-ठीक जानता है।<ref>तत्र कतामोऽप्रमाद:? यदिन्द्रियसंवर:। स चक्षुषा रूपाणि दृष्ट्वा न निमित्तग्राही भवति नानुव्यंजन-ग्राही।...सर्वधर्मेष्वास्वादं चादीनवं च नि:सरणं च यथाभूतं प्रजानाति। द्र.- तथागतगुह्यसूत्र, शिक्षासमुच्चय में उद्धृत, पृ. 191।</ref>
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आसुरि की कोई कृति उपलब्ध नहीं है। हरिभद्रसूरिकृत षड्दर्शनसमुच्चय में आसुरि के नाम से उद्धृत एक श्लोक में पुरुष के भोग के विषय में उनका मत प्राप्त होता है। तदनुसार जिस प्रकर स्वच्छ जल में चन्द्र प्रतिबिम्बित होता है उसी प्रकार असंग पुरुष में बुद्धि का प्रतिबिम्बित होना उसका भोग कहलाता है। सांख्यसूत्र में 'चिदवसानो भोग:' कहकर ऐसा ही मत प्रस्तुत किया गया है।  
*अप्रमाद अपने चित्त का दमन करता है, दूसरों के चित्तों की रक्षा, क्लेश में अरति एवं धर्म में रति है।<ref>अप्रमादो यत् स्वचित्तस्य दमनम्, परचित्तस्य रक्षा, क्लेशरतेरपरकिर्मणा, धर्मरतेरनुवर्तनमृ, यावदयमुच्यतेऽप्रमाद। द्र.-तथागतगुह्यसूत्र, शिक्षासमुच्चय में उद्धृत, पृ. 191</ref>
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पंचशिख
*योनिश: प्रयुक्त बोधिसत्त्व 'जो है' उसे अस्ति के रूप में और 'जो नहीं है' उसे नास्ति के रूप में जानता है।<ref>योनिश: प्रयुक्तो हि गुह्यकाधिपते, बोधिसत्त्वो यदस्ति तदस्तीति प्रजानाति, यन्नास्ति तन्नास्तीति प्रजानीति। द्र.- तथागतगुह्यसूत्र शिक्षासमुच्चय में उद्ध्त पृ. 191 (दरभङ्गा संस्करण, 1960)</ref>
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ईश्वरकृष्ण ने सांख्यकारिका में कहा है ''एतत् पवित्रमग्यम् मुनिरासुरयेऽनुकम्पया प्रददौ। आसुरिरपि पंचशिखाय तेन च बहुधा कृतं तन्त्रम्''॥ आसुरि ने षष्टितन्त्र का ज्ञान पंचशिख को दिया और पंचशिख ने उसे बहुविध, व्यापक या विस्तत किया। माठरवृत्ति के अनुसार ''पंचशिखेन मुनिना... षष्टितंत्राख्य षष्टिखण्डं कृतमिति। तत्रैव हि ''षष्टिरर्था व्याख्याता:''। युक्तिदीपिका के अनुसार ''बहुभ्यो जनकवसिष्ठादिभ्य: समाख्यातम्<ref>70वीं कारिका पर माठरवृत्ति तथा युक्तिदीपिका</ref> साथ ही भावागणेश के अनुसार उनके तत्त्वसमाससूत्र का तत्त्वयाथार्थ्यदीपन पंचशिख की व्याख्या पर आधृत हे। इस तरह सांख्यशास्त्रीय परम्परा में सांख्याचार्य के रूप में तो पंचशिख विख्यात है ही, महाभारत में भी ऊहापोहप्रवीण, पंचरात्रविशारद, पंचज्ञ, अन्नादि पंच कोशों के शिखा स्वरूप ब्रह्म के ज्ञाता के रूप में पंचशिख का उल्लेख किया गया। शांतिपर्व में ही पंचशिख संवादों को प्राचीन इतिहास के रूप में स्मरण किया गया। इसका अर्थ है कि पंचशिख का समय 800 वर्ष ई.पू. के बहुत पहले, संभवत: हजारों वर्ष पूर्व रहा होगा। पंचशिख आसुरि के प्रथम शिष्य थे और आसुरि कपिल-शिष्य थे। अत: पंचशिख को कपिल के काल के उत्तरसमकालीन के रूप में अर्थात् त्रेतायुग के आरंभ में अथवा कृतयुग के अन्त में ही रखा जाना चाहिए। पंचशिख की माता कपिला नामक ब्राह्मणी थी। आचार्य पंचशिख ने एक हजार वर्ष तक यज्ञ किया, वे दीर्घायु थे। आचार्य पंचशिख के दर्शन का परिचय यहाँ महाभारत के शांतिपर्व के आधार पर प्रस्तुत किया जा रहा है।  
*तथागतगुह्यसूत्र के अनुसार जिस रात्रि में तथागत ने अभिसम्बोधि प्राप्त की तथा जिस रात्रि में परिनिर्वाण प्राप्त करेंगे, इस बीच में तथागत ने एक भी अक्षर न कहा और न कहेंगे। प्रश्न है कि तब समस्त सुर, असुर, मनुष्य, किन्नर, सिद्ध, विद्याधर, नाग आदि विनेयजनों को उन्होंने कैसे विविध प्रकार की देशना की? मात्र एक क्षण की ध्वनि के उच्चारण से वह विविधजनों के मानसिक अन्धकार का नाश करने वाली, उनके बुद्धिरूपी कमल को विकसित करने वाली, जरा, मरण आदि रूपी नदी और समुद्र का शोषण करने वाली तथा प्रलयकालानल को लज्जित करने वाली शरत्कालिक अरुण-प्रभा के समान थी। वस्तुत: जैसे तूरी नामक वाद्ययन्त्र वायु के झोकों से बजती है, वहां कोई बजाने वाला नहीं होता, फिर भी शब्द निकलते हैं, वैसे ही सत्त्वों की वासना से प्रेरित होकर बुद्ध की वाणी भी नि:सृत होती है, जबकि उनमें किसी भी प्रकार की कल्पना नहीं होती।<ref><poem>यां च शान्तमते, रात्रिं तथागतोऽनुत्तरां सम्यक्संबोधिमभिसंबुद्ध:, यां च रात्रिमुपादाय परिनिर्वास्यति, अस्मिन्नन्तरे तथागतेन एकाक्षरमपि नोदाहृतं न प्रवराहृतं न प्रवराहरिष्यति। कथं तर्हि भगवता........
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मिथिला में जनकवंशी राजा जनकदेव के समक्ष विभिन्न नास्तिक मतों का निराकरण करते हुए सांख्यशास्त्र को प्रस्तुत किया गया।<ref>शा.प. अध्याय के कुछ श्लोकों का अनुवाद।</ref>
विनेयजनेभ्यो विविधप्रकारेभ्यो धर्मदेशना देशिता? एकक्षणवागुदाहारेणैव तत्तज्जनमनस्तमोहरणी........
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आत्मा का न तो नाश होता है और न वह किसी विशेष आकार में ही परिणत होता है। यह जो प्रत्यक्ष दिखायी देने वाला संघात है; यह भी शरीर, इन्द्रिय और मन का समूह मात्र है। यद्यपि यह सब पृथक्-पृथक् हैं तो भी एक दूसरे का आश्रय लेकर कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। प्राणियों के शरीर में उपादान के रूप में आकाश, वायु, अग्नि, जल, और पृथ्वी ये पाँच धातु हैं। ये स्वभाव से ही एकत्र होते और विलग हो जाते हैं। आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन पाँच तत्त्वों के समाहार से ही अनेक प्रकार के शरीरों का निर्माण हुआ है। शरीर में ज्ञान (बुद्धि), ऊष्मा (जठरानल) तथा वायु (प्राण), इनका समुदाय समस्त कर्मों का संग्राहक गण है, क्योंकि इन्हीं से इन्द्रिय, इन्द्रियों के विषय, स्वभाव, चेतना, मन, प्राण, अपान, विकास और धातु प्रकट हुए हैं।
शरदरुणमहाप्रभेति।
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श्रोत्र आदि इन्द्रियों में उनके विषयों का विसर्जन (त्याग) करने से सम्पूर्ण तत्त्वों के यथार्थ निश्चय रूप मोक्ष की प्राप्ति होती है। उस तत्त्वनिश्चय को अत्यन्त निर्मल उत्तम ज्ञान और अविनाशी महान् ब्रह्मपाद कहते हैं। इसके विपरीत जिनकी दृष्टि में यह दृश्य प्रपंच अनात्मा सिद्ध हो चुका है, उनकी इसके प्रति न ममता होती है न अहंता, अत: इन्हें दुख नहीं प्राप्त होते हैं। जो लोग मुक्ति के लिए प्रयत्नशील हों उन सबको चाहिए कि सम्पूर्ण कर्मों में अहंता, ममता, आसक्ति और कामना का त्याग करें। जो इनका त्याग किये बिना ही विनीत (शम, दम आदि साधनों में तत्पर) होने का झूठा दावा करते हैं उन्हें अविद्या आदि दु:खदायी क्लेश प्राप्त होते हैं।
तदेव सूत्रे:
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ज्ञानेन्द्रियों की कार्यप्रणाली इस प्रकार है। एक ज्ञानेन्द्रिय विषय से संयुक्त होकर चित्त के साथ संयुक्त होती है। यहाँ चित्त अन्त:करण के अर्थ में प्रयुक्त है। विषय, ज्ञानेन्द्रिय और चित्त इन तीन के संयोग से विषयज्ञान होता है।
यथा यन्त्रकृतं तूर्यं वाद्यते पवनेरितम्।
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अध्यात्म तत्व का चिन्तन करने वाले विद्वान् इस शरीर और इन्द्रियों के संघात को क्षेत्र कहते हैं और मन में जो चेतनसत्ता स्थित है, वही क्षेत्रज्ञ कहलाता है। जिस तरह नदियाँ समुद्र में मिलकर अपनी वैयक्तिकता को त्याग देती हैं उसी प्रकार जीवात्मा परमात्मा में लीन हो जाता है। यही मोक्ष है। जिस प्रकार पक्षी वृक्ष को जल में गिरते देख उसमें आसक्ति छोड़कर वृक्ष का परित्याग करके उड़  जाता है, उसी प्रकार मुक्त पुरुष सुख और दु:ख का त्याग करके सूक्ष्म शरीर से रहित होकर उत्तम गति को प्राप्त होता है।  
न चात्र वादक: कश्चिनिरन्त्यथ च स्वरा:॥
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संक्षिप्त
एवं पूर्वसुशुद्धत्वात् सर्वसत्त्वाशयेरिता।
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1. एन्सा.— एन्सायक्लोपीडिया आफ इण्डियन फिलासफी भाग-4
वाग्निश्चरति बुद्धस्य न चास्यास्तीह कल्पना॥
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2. इ.सां.था. इवोल्युशन आफ सांख्य स्कूल आफ थॉट
द्र.- तथागतगुह्यसूत्र, प्रसन्नपदा में उद्धृत पृ. 155 नाना (दरभङ्गा संस्करण, 1960)</poem></ref>
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3. ओ.डे. सां.सि.- ओरिजिन एण्ड डेवलपमेंट आफ सांख्य सिस्टम आफ थाट
*नाना आशय वाले सत्त्व समझते हैं कि तथागत के मुख से वाणी निकल रही है। उन्हें ऐसा लगता है, मानों भगवान हमें धर्म की देशना कर रहे हैं और हम देशना सुन रहे हैं, किन्तु तथागत में कोई विकल्प नहीं होता, क्योंकि उन्होंने समस्त विकल्प जालों का प्रहाण कर दिया है।<ref><poem>अथ च चथाधिमुक्ता: सर्वसत्त्वा नानाधातवाशयास्तां तां विविधां तथागतवाचं निश्चरन्तीं संजानन्ति। तेषामिदं पृथक् भवति- अथ। भगवान अस्मभ्यमिमं धर्म देशयति, सयं च तथागतस्य धर्मदेशनां श्रुणुम:। तथागतो न कल्पयति न विकल्पयति सर्वविकल्पजालवासनाप्रपंचविगतो हि शान्तमते,  तथागत:। द्र.- तथागतगुह्यसूत्र, प्रसन्नपदा में उद्धृत, पृ. 236 (दरभङ्गा संस्करण, 1960)</poem></ref>
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4. भा.द. आ.अ.- भारतीय दर्शन : आलोचन और अनुशीलन
*इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य शान्तिदेव के शिक्षासमुच्चय और चन्द्रकीर्ति की प्रसन्नपदा मूल माध्यमिक कारिका टीका में अनेक स्थलों पर तथागतगुह्यसूत्र के उद्धरण उपलब्ध हैं, जिनका हमने भी यथासम्भव पादटिप्पणी में उल्लेख किया है। यदि ये उद्धरण प्रकाशित वर्तमान गुह्यसमाज में उपलब्ध नहीं होते है- तो समझा जाना चाहिए कि तथागतगुह्यसूत्र और गुह्यसमाज अभिन्न नहीं है, जैसे कि कुछ विद्वानों की धारणा है। आचार्य शान्तिदेव और चन्द्रकीर्ति के काल में ये दोनों अवश्य भिन्न-भिन्न थे।
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5. शा.प.- महाभारत शांति पर्व
==दशभूमीश्वर==
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6. सां. का.- सांख्यकारिका
*गण्डव्यूह की भाँति यह सूत्र भी अवतंसक का एक भाग माना जाता है। इसमें बोधिसत्त्व की दस आर्यभूमियों का विस्तृत वर्णन है, जिन भूमियों पर क्रमश: अधिरोहण करते हुए बुद्धत्व अवस्था तक साधक पहुँचता है। 'महावस्तु' में इस सिद्धान्त का पूर्वरूप उपलब्ध होता है। इस ग्रन्थ में उक्त सिद्धान्त का परिपाक हुआ है।
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7. सां.द.इ.- सांख्य दर्शन का इतिहास
*महायान में इस सूत्र का अत्युच्च स्थान है। इसे दशभूमिक, दशभूमीश्वर एवं दशभूमक नाम से भी जाना जाता है।
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8. सां.द.ऐ.प.- सांख्य दर्शन की ऐतिहासिक परम्परा
*आर्य असंग ने 'दशभूमक' शब्द का ही प्रयोग किया है। इसकी लोकप्रियता एवं प्रामाणिकता में यह प्रमाण है कि अत्यन्त प्राचीनकाल में ही इसके  तिब्बती, चीनी, जापानी एव मंगोलियन अनुवाद हो गये थे।
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9. सां.प्र.भा.- सांख्यप्रवचन भाष्य
*श्री धर्मरक्ष ने इसका चीनी अनुवाद ई. सन 297 में कर दिया था। इसके प्रतिपादन की शैली में लम्बे-लम्बे समस्त पद एवं रूपकों की भरमार है।  
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10. सां.सि.- सांख्य सिद्धान्त
*मिथिला विद्यापीठ ने डॉ0 जोनेस राठर के संस्करण के आधार पर इसका पुन: संस्करण किया है।
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11. सां.सू.- सांख्यसूत्र
*ज्ञात है कि महायान में दस आर्यभूमियाँ मानी जाती हैं, यथा- प्रमुदिता, विमला, प्रभाकरी, अर्चिष्मती, सुदर्जया, अभिमुखी, दूरङ्गमा, अचला, साधुमती एवं धर्ममेधा।
 
*आर्यावस्था से पूर्व जो पृथग्जन भूमि होती है, उसे 'अधिमुक्तिचर्याभूमि' कहते हैं। महायान में पाँच मार्ग होते हैं- सम्भारमार्ग, प्रयोगमार्ग, दर्शनमार्ग, भावनामार्ग एवं अशैक्षमार्ग। दर्शनमार्ग प्राप्त होने पर बोधिसत्त्व 'आर्य' कहलाने लगता है। उपर्युक्त दस भूमियाँ आर्य की भूमियाँ हैं। दर्शन मार्ग की प्राप्ति से पूर्व बोधिसत्व पृथग्जन होता है। सम्भारमार्ग एवं प्रयोगमार्ग पृथग्जनमार्ग हैं और उनकी भूमि अधिमुक्तिचर्याभूमि कहलाती है।
 
*महायान गोत्रीय व्यक्ति बोधिचित्त का उत्पाद कर महायान में प्रवेश करता है। पृथग्जन अवस्था में सम्भार मार्ग एवं प्रयोगमार्ग का अभ्यास कर दर्शन मार्ग प्राप्त करते ही आर्य होकर प्रथम प्रमुदिता भूमि को प्राप्त करता है।
 
*पारमिताएं भी दस होती हैं, यथा-दान, शील, क्षान्ति, वीर्य, ध्यान, प्रज्ञा, उपायकौशल, प्रणिधान, बल एवं ज्ञान पारमिता। बोधिसत्त्व प्रत्येक भूमि में सामान्यत: इन सभी पारमिताओं का अभ्यास करता है, किन्तु प्रत्येक भूमि में किसी एक पारमिता का प्राधान्य हुआ करता है। ग्रन्थ में इन भूमियों के वैशिष्ट्य का विस्तृत प्रतिपादन किया गया है-  
 
 
 
'''प्रमुदिता'''
 
 
 
संबोधि को तथा सत्त्वहित की सिद्धि को आसन्न देखकर इस भूमि में प्रकृष्ट (तीव्र) मोद (हर्ष) उत्पन्न होता है, अत: इसे 'प्रमुदिता' भूमि कहते हैं। इस अवस्था में बोधिसत्त्व पांच भयों से मुक्त हो जाता है, यथा- जीविकाभय, निन्दभय, मृत्युभय, दुर्गतिभय एवं परिषद्शारद्य (लज्जा का) भय। जो बोधिसत्त्व प्रमुदिता भूमि में अधिष्ठित हो जाता है, वह जम्बूद्वीप पर आधिपत्य करने में समर्थ हो जाता है। इस भूमि में बोधिसत्त्व सामान्यत: दान, प्रियवचन, परहितसम्पादन (अर्थचर्या) एवं समानार्थता (सर्वधर्मसमता)- इन कृत्यों का सम्पादन करता है। विशेषत: इस भूमि में उसकी दानपारमिता की पूर्ति होती है।
 
 
 
'''विमला'''
 
 
 
दौ:शील्य एवं आभोग आदि सभी मलो से व्यपगत (रहित) होने के कारण यह भूमि 'विमला' कही जाती है। इस भूमि में बोधिसत्त्व शील में प्रतिष्ठित होकर दस प्रकार के कुशलकर्मो  का सम्पादन करता है। इस भूमि में चार संग्रह वस्तुओं<ref>चार संग्रह ये हैं- दान, प्रियवादित्व, अर्थचर्या एवं समानार्थता।</ref> में प्रियवादिता एवं शीलपारमिता का प्राधान्य होता है।
 
 
 
'''प्रभाकरी'''
 
 
 
विशिष्ट (महान) धर्मों का अवभास कराने के कारण यह भूमि 'प्रभाकरी' कहलाती है। इस अवस्था में बोधिसत्त्व सभी संस्कार धर्मों को अनित्य, दु:ख, अनात्म एवं शून्य देखता है। सभी वस्तुएं उत्पन्न होकर विनष्ट हो जाती हैं। वे अतीत अवस्था में संक्रान्त नहीं होतीं, भविष्य में कहीं जाकर स्थित नहीं होतीं तथा वर्तमान में भी कहीं उनका अवस्थान नहीं होता। शरीर दु:खस्कन्धात्मक हैं- ऐसा बोधिसत्त्व अवधारण करता है। उसमें शान्ति, शम, औदार्य एवं प्रियवादिता आदि गुणों का उत्कर्ष होता है। इस भूमि में अवस्थित बोधिसत्त्व इन्द्र के समान बन जाते हैं। इस भूमि में सत्त्वहित चर्या बलवती होती है और शान्तिपरामिता का आधिक्य होता है तथा बोधिसत्व दूसरों में धर्म का अवभास करता है।
 
 
 
'''अर्चिष्मती'''
 
 
 
बोधिपाक्षिक प्रज्ञा इस भूमि में क्लेशावरण एवं ज्ञेयावरण का दहन करती है। बोधिपाक्षिक धर्म अर्चिष् (ज्वाला) के समान होते हैं। फलत: बोधिपाक्षिक धर्म और प्रज्ञा से युक्त होने के कारण यह भूमि 'अर्चिष्मती' कहलाती है। बोधिसत्त्व इस भूमि में दस प्रकार के धर्मालोक के साथ अधिरूढ होता है। बोधिपाक्षिक धर्म सैंतीस होते है।, यथा-चार स्मृत्युपस्थान, चार प्रधान, चार ऋद्धिपाद, पाँच इन्द्रिय, पाँच बल, सात बोध्यङ्य और आठ आर्यमार्ग (आर्यअष्टाङ्गिक मार्ग) बोधिसत्त्व इन बोधिपाक्षिक धर्मों का इस भूमि में विशेष लाभ करता है। अन्य पारिमताओं की अपेक्षा इस भूमि में वीर्यपारमिता की प्रधानता होती है तथा संग्रह वस्तुओं में समानार्थता अधिक उत्कर्ष को प्राप्त होती है।  
 
 
 
'''सुदुर्जया'''
 
 
 
बोधिसत्त्व इस भूमि में सत्त्वों का परिपाक और अपनी चित्त की विशेष रूप से रक्षा करता है। ये दोनों कार्य अत्यन्त दुष्कर हैं। इन पर जय प्राप्त करने के कारण यह भूमि 'सुदुर्जया' कहलाती है। बोधिसत्त्व इस भूमि में दस प्रकार की चित्तविशुद्धियों को प्राप्त करता है तथा चतुर्विध आर्यसत्व के यथार्थज्ञान का लाभ करता है। इस स्थिति में बोधिसत्त्व को यह उपलब्धि होती है कि सम्पूर्ण विश्व शून्य है। सभी प्राणियों के प्रति उसमें महाकरूणा का प्रादुर्भाव होता है तथा महामैत्री का आलोक उत्पन्न होता है। वह दान, प्रियवादिता एवं धर्मोपदेश आदि के द्वारा संसार में कल्याण के मार्ग का निर्देश करता है। इस भूमि में अन्य पारमिताओं की अपेक्षा ध्यानपारमिता की प्रधानता होती है।  
 
 
 
'''अभिमुखी'''
 
 
 
इस भूमि में प्रज्ञा का प्राधान्य होता है। प्रज्ञापारमिता की वजह से संसार और निर्वाण दोनों में प्रतिष्ठित नहीं होने के कारण यह भूमि संसार और निर्वाण दोनों के अभिमुख होती है। इसलिए 'अभिमुखी' कहलाती है। इस भूमि में बोधिसत्व बोध्यङ्गों की निष्पत्ति का विशेष प्रयास करते हैं। इस भूमि में प्रज्ञापारमिता अन्य पारमिताओं की अपेक्षा अधिक प्रधान होती है।
 
 
 
'''दूरङ्गमा'''
 
 
 
संबोधि को प्राप्त कराने वाले एकायन मार्ग से अन्वित होने के कारण यह भूमि उपाय और प्रज्ञा के क्षेत्र में दूर तक प्रविष्ट है, क्योंकि बोधिसत्त्व अभ्यास की सीमा को पार कर गया है, इसलिए यह भूमि 'दूरङ्गमा' कहलाती है। इस अवस्था में बोधिसत्त्व शून्यता, अनिमित्त और अप्रणिहित इन त्रिविधि विमोक्ष या समाधियों का लाभ करता है। इस भूमि में अन्य पारमिताओं की अपेक्षा 'उपायकौशल पारमिता' अधिक बलवती होती है।  
 
 
 
'''अचला'''
 
 
 
नाम से ही स्पष्ट है कि इस भूमि पर अधिरूढ होने पर बोधिसत्त्व की परावृत्ति (पीछे लौटने) की सम्भावना नहीं रहती। इस भूमि में वह अनुत्पत्तिक धर्मक्षान्ति से समन्वित होता है। निमित्ताभोगसंज्ञा और अनिमित्ताभोगसंज्ञा इन दोनों संज्ञाओं से विचलित नहीं होने के कारण यह भूमि 'अचला' कहलाती है। इस भूमि का लाभ करने पर बोधिसत्त्व निर्वाण की भी इच्छा नहीं करते, क्योंकि ऐसा करने पर सभी दु:खी प्राणियों का कल्याण करने की उनकी जो प्रतिज्ञा है, उसके भङ्ग होने की आंशका होती है। वे लोक में ही अवस्थान करते हैं। इनका पूर्व प्रणिधान इस अवस्था में बलवान् होता है। जो बोधिसत्त्व इस भूमि में अवस्थान करते हैं, उनमें आयुर्वशिता, चेतोवशिता, कर्मवशिता आदि दश वशिताएं तथा अशयबल, अध्याशय बल, महाकरुणा आदि दश बल सम्पन्न होते हैं। इस भूमि में अन्य पारमिताओं की अपेक्षा 'प्रणिधान पारमिता' का आधिक्य रहता है।  
 
 
 
'''साधुमती'''
 
 
 
चार प्रतिसंविद् (विशेष ज्ञान) होती हैं, यथा- धर्मप्रतिसंविद् अर्थप्रतिसंविद्, निरुक्तिप्रतिसंविद् एवं प्रतिभानप्रतिसंविद्। इस भूमि में बोधिसत्व इन चारों प्रतिसंविद् में प्रवीण (=साधु अर्थात कर्मण्य) हो जाता है, इसलिए यह भूमि 'साधुमती' कहलाती है। धर्मप्रतिसंविद् के द्वारा वह धर्मों के स्वलक्षण को जानता है। अर्थप्रतिसंविद् के द्वारा धर्मों के विभाग को जानता है। निरुक्तिप्रतिसंविद् के द्वारा धर्मों को अविभक्त देशना को जानता है तथा प्रतिभानप्रतिसंविद् के द्वारा धर्मों के अनुप्रबन्ध अर्थात् निरवच्छिन्नता को जानता है। इस अवस्थ् में बोधिसत्त्व कुशल और अकुशलों को निष्पत्ति के प्रकार को ठीक-ठीक जान लेता है। इस भूमि में पारमिताओं में 'बल पारमिता' का प्राधान्य होता है।
 
 
 
'''धर्ममेघा'''
 
 
 
धर्म रूपी आकाश विविध समाधि मुख और विविध धारणीमुख रूपी मेघों से इस भूमि में व्याप्त हो जाता है, अत: यह भूमि 'धर्ममेघा' कहलाती है। यह भूमि अभिषेक भूमि आदि नामों से भी परिचित है। इस भूमि में बोधिसत्त्व की 'सर्वज्ञानाभिषेक समाधि' निष्पन्न होती है। बोधिसत्तव जब इस समाधि का लाभ करते हैं तब वे 'महारत्नराजपद्म' नामक आसन पर उपविष्ट दिखलाई पड़ते हैं। वे अज्ञान से उत्पन्न क्लेश रूपी अग्नि का धर्ममेघ के वर्णन से उपशमन करते है। अर्थात् क्लेशरूपी अग्नि को बुझा देते हैं, इसलिए इस भूमि का नाम 'धर्ममेघा' है। इस भूमि में उनकी 'ज्ञानपारमिता' अन्य पारमिताओं की अपेक्षा प्राधान्य का लाभ करती है।  
 
==प्रज्ञापारमितासूत्र==
 
*प्रज्ञापारमितासूत्र प्रमुखत: भगवान बुद्ध द्वारा गृध्रकूट पर्वत पर द्वितीय धर्मचक्र के काल में उपदिष्ट देशनाएं हैं। कालान्तर में ये सूत्र जम्बूद्वीप में विलुप्त हो गये।
 
*आचार्य नागार्जुन ने नागलोक जाकर उन्हें प्राप्त किया और वे वहाँ से पुन: जम्बूद्वीप लाए। प्रज्ञापारमितासूत्रों के दो पक्ष हैं।
 
#एक दर्शनपक्ष है, जिसे प्रज्ञापक्ष या शून्यतापक्ष भी कहा जाता है।  
 
#दूसरा है साधनापक्ष, जिसे उपायपक्ष या करुणापक्ष भी कहा जाता है।  
 
*नागार्जुन ने प्रज्ञापारमितासूत्रों के दर्शन पक्ष को अपनी कृतियों द्वारा प्रकाशित किया। प्रज्ञापारमितासूत्रों के आधार पर उन्होंने प्रमुखत: मूलमाध्यमिककारिका आदि ग्रन्थों में शून्यता-दर्शन को युक्तियों द्वारा प्रतिष्ठापित किया, जिसे आगे चलकर उनके अनुयायियों ने और अधिक विकसित किया। प्रज्ञापारमितासूत्रों के साधनापक्ष को आर्य असंग ने अपनी कृतियों द्वारा प्रकाशित किया। तदनन्तर उनके अनुयायियों ने उसे और अधिक पल्लवित एवं पुष्पित किया। शून्यता, अनुत्पाद, अनिरोध आदि पर्यायवाची शब्द हैं। सभी धर्मों की नि:स्वभावता प्रज्ञापारमितासूत्रों का मुख्य प्रतिपाद्य है। प्रज्ञापारमितासूत्रों की संख्या अत्यधिक है। शतसाहस्रिका (एक लाख श्लोकात्मक) प्रज्ञापारमिता से लेकर एकाक्षरी प्रज्ञापारमिता तक ये सूत्र पाये जाते हैं। महायानी वैपुल्यसूत्रों के दो प्रकार हैं। एक प्रकार के वे सूत्र हैं, जिनमें बुद्ध, बोधिसत्त्व, बुद्धयान आदि की महत्ता प्रदर्शित की गई है। ललितविस्तर, सद्धर्मपुण्डरीक आदि सूत्र इसी प्रकार के हैं। दूसरे प्रकार में वे सूत्र आते हैं, जिनमें शून्यता और प्रज्ञा की महत्ता प्रदर्शित है, ये सूत्र प्रज्ञापारमितासूत्र ही हैं। शून्यता और महाकरुणा- इन दोनों का समन्वय प्रज्ञापारमितासूत्रों में दृष्टिगोचर होता है।
 
*महायान साहित्य में प्रज्ञापारमितासूत्रों का अत्यधिक महत्त्व है। अन्य सूत्रों में अधिकतर बुद्ध और बोधिसत्त्वों का संवाद दिखलाई देता है, जबकि प्रज्ञापारमितासूत्रों में बुद्ध सुभूति नामक स्थविर से प्रश्न करते हैं। सुभूति और शारिपुत्र इन दो स्थविरों का शून्यता के बारे में संवाद ही तात्त्विक एवं गम्भीर है। इन सूत्रों की प्राचीनता इसी से प्रमाणित है कि ई. सन 179 में प्रज्ञापारमितासूत्र का चीनी भाषा में रूपान्तर हो गया था। प्राय: सभी बौद्ध धर्मानुयायी देशों में इन सूत्रों का अत्यधिक समादर है।  
 
*नेपाली परम्परा के अनुसार मूल प्रज्ञापारमिता महायान सूत्र सवा लाख श्लोकात्मक है। पुन: एक लक्षात्मक, पच्चीस हजार, दस हजार और आठ हजार श्लोकात्मक प्रज्ञापारमितासूत्र भी प्रकाशित हैं। चीनी और तिब्बती परम्परा में इसके और भी अनेक प्रकार हैं।
 
*संस्कृत में निम्नलिखित सूत्र अंशत: या पूर्णरूपेण उपलब्ध होते हैं-  
 
#शतसाहस्रिकाप्रज्ञापारमिता,
 
#पञ्चविंशतिसाहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता,
 
#अष्टसाहस्त्रिकाप्रज्ञापारमिता,
 
#सार्धद्विसाहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता,
 
#सप्तशतिका प्रज्ञापारमिता,
 
#वज्रच्छेदिका (त्रिशतिका) प्रज्ञापारमिता,
 
#अल्पाक्षरा प्रज्ञापारमिता,
 
#भगवती प्रज्ञापारमितासूत्र आदि।
 
*प्रज्ञापारमितासूत्रों को जननी सूत्र भी कहते हैं। प्रज्ञापारमिता के बिना बुद्धत्व का लाभ सम्भव नहीं है, अत: यह बुद्धत्व को उत्पन्न करने वाली है। इसी अर्थ में इसे जननी, बुद्धमाता आदि शब्दों से भी अभिहित करते हैं। इन्हें 'भगवती' भी कहते हैं, जो इनके प्रति अत्यधिक आदर का सूचक है। जननी सूत्रों का तीन में विभाजन भी किया जाता है, यथा- विस्तृत, मध्यम एवं संक्षिप्त जिनजननीसूत्र।
 
*शतसाहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता विस्तृत जिनजननीसूत्र है, जिसका उपदेश भगवान ने मृदु-इन्द्रिय और विस्तृतरुचि विनेयजनों के लिए किया है। मध्येन्द्रिय और मध्यरुचि विनेयजनों के लिए मध्यम जिनजननी अर्थात पञ्चविंशति साहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता का तथा तीक्ष्णेन्द्रिय और संक्षिप्त रुचि विनेयजनों के लिए संक्षिप्त जिनजननी अर्थात अष्टसाहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता का भगवान ने उपदेश किया है। इन सभी में अष्टसाहस्त्रिका पूर्णत: उपलब्ध है, अत: उसका यहाँ निरुपण किया जा रहा है।
 
==अवदान साहित्य==
 
*इस शब्द की व्युत्पत्ति अज्ञात है। पालि में इसके समकक्ष 'अपदान' शब्द है। सम्भवत: इसका प्रारम्भिक अर्थ असाधारण या अद्भुत कार्य है।  
 
*अवदान कथाएं कर्म-प्राबल्य को सिद्ध करती हैं।
 
*आजकल अवदान का अर्थ कथामात्र रह गया है। महावस्तु को भी 'अवदान' कहते हैं।
 
*अवदान कथाओं का प्राचीनतम संग्रह 'अवदानशतक' है।
 
*तीसरी शताब्दी में इसका चीनी अनुवाद हो गया था। प्रत्येक कथा के अन्त में यह निष्कर्ष दिया जाता है कि शुक्ल कर्म का शुक्ल फल, कृष्ण कर्म का कृष्ण फल तथा व्यामिश्र का व्यामिश्र फल होता है। इनमें से अनेक में अतीत जन्म की कथा है। इसे हम जातक भी कह सकते हैं। क्योंकि जातक में बोधिसत्त्व के जन्म की कथा दी गयी है। किन्तु ऐसे भी अवदान हैं, जिनमें अतीत की कथा नहीं पाई जाती। कुछ अवदान 'व्याकरण' के रूप में हैं अर्थात इनमें प्रत्युत्पन्न कथा का वर्णन करके अनागत काल का व्याकरण किया गया है। तिब्बती भाषा में भी अवदान साहित्य अनूदित हुआ है।
 
==अवदानशतक==
 
*यह हीनयान का ग्रन्थ है- ऐसी मान्यता है। इसके चीनी अनुवादकों का ही नहीं, अपितु इसके अन्तरंग प्रमाण भी हैं।
 
*सर्वास्तिवादी आगम के परिनिर्वाणसूत्र तथा अन्य सूत्रों के उद्धरण अवदानशतक में पाये जाते हैं। यद्यपि इसकी कथाओं में बुद्ध पूजा की प्रधानता है, तथापि बोधिसत्त्व का उल्लेख नहीं मिलता। अवदानशतक की कई कथाएं अवदान के अन्य संग्रहों में और कुछ पालि-अपदानों में भी आती हैं।
 
 
==अश्वघोष साहित्य==
 
*1892 ई. में सिलवां लेवी द्वारा बुद्धचरित के प्रथम सर्ग के प्रकाशन से पूर्व यूरोप में कोई नहीं जानता था कि अश्वघोष एक महान कवि हुए हैं। तिब्बती और चीनी आम्नाय के अनुसार अश्वघोष महाराज कनिष्क के समकालीन थे। जो प्रमाण उपलब्ध हैं, उनके अनुसार वे अश्वघोष के समकालीन या उससे कुछ पूर्ववर्ती थे।  
 
*चीनी आम्नाय के अनुसार अश्वघोष का सम्बन्ध विभाषा से भी था, किन्तु विद्वानों को इसमें सन्देह है।  
 
*अश्वघोष की काव्यशैली सिद्ध करती है कि वह कालिदास से कई शताब्दी पूर्व थे।
 
*भास उनका अनुसरण करते हैं। शब्द प्रयोग से लगता है कि कौटिल्य के निकटवर्ती थे।
 
*अश्वघोष अपने को 'साकेतक' कहते हैं और माता का नाम 'सुवर्णाक्षी' बताते हैं।
 
*रामायण का उनके ग्रन्थों पर विशेष प्रभाव है। उनका कहना है कि शाक्य इक्ष्वाकुवंशीय थे। अश्वघोष ब्राह्मण थे, उसी प्रकार उनकी शिक्षा भी हुई थी। बाद में वे बौद्ध धर्म मे दीक्षित हुए। उनके ग्रन्थों से सिद्ध होता है कि वे बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में अत्यन्त व्यस्त थे। तिब्बती विवरण के अनुसार वे एक अच्छे संगीतज्ञ भी थे और गायकों की मण्डली के साथ भ्रमण करते थे तथा बौद्ध धर्म का प्रचार वे गानों के माध्यम से करते थे।
 
#बुद्धचरित,
 
#सौन्दरनन्द और  
 
#शारिपुत्र प्रकरण- ये तीनों ग्रन्थ उनकी रचनाएं हैं।  
 
 
 
'''बुद्धचरित''' में बुद्ध की कथा वर्णित है। इसमें 28 वर्ग हैं। बुद्ध कथा भगवान के जन्म से प्रारम्भ होती है औ संवेगोत्पत्ति, अभिनिष्क्रमण, मारविजय, संबोधि धर्मचक्रप्रवर्तन, परिनिर्वाण आदि घटनाओं का वर्णन कर प्रथम संगीति और अशोक के राज्यकाल पर समाप्त होती है।
 
 
 
'''सौन्दरनन्द''' में बुद्ध के भाई नन्द के बौद्ध धर्म में दीक्षित होने की कथा है। इस ग्रन्थ में 18 सर्ग हैं। समग्र ग्रन्थ सुरक्षित है।
 
 
 
'''शारिपुत्र प्रकरण''' यह नाटक ग्रन्थ है। इसमें 9 अंक हैं। इसमें शारिपुत्र औ मौद्गल्यायन के बौद्ध धर्म में दीक्षित होने की कथा वर्णित है। यह खण्डित रूप में प्राप्य है। इसका उद्धार प्रोफेसर लुडर्स ने किया है। ये तीनों ग्रन्थ एक रचयिता द्वारा रचे हुए प्रतीत होते हैं। श्री जान्सटन ने बुद्धचरित का सम्पादन किया है। पूरा अविकल ग्रन्थ संस्कृत में उपलब्ध नहीं है। प्रथम सर्ग और 14वें सर्ग का कुछ अंश खण्डित है। 2-13 सर्ग ठीक हैं। 15 सर्ग से आगे मूल संस्कृत में अनुपलब्ध है।
 
*तिब्बती और चीनीपरम्परा अश्वघोष को अन्य ग्रन्थों का भी रचयिता मानती है। टामस ने उनकी सूची प्रकाशित की है, किन्तु वे संस्कृत में अप्राप्य हैं, इसलिए उनके बारे में कुछ कहना सम्भव नहीं है। प्रोफेसर लुडर्स को शारिपुत्रप्रकरण के साथ दो और नाटकों के अंश मिले हैं। एक के मात्र तीन पत्र मिले हैं, जिनमें बुद्ध के ऋदिबल का प्रदर्शन है। दूसरे में एक नवयुवक की कथा है, जिसने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। किन्तु इनके अश्वघोष की रचना होने में विद्वानों में ऐकमत्य नहीं है।  
 
*तीन और ग्रन्थ अश्वघोष के बताये जाते हैं- वज्रसूची, गण्डीस्तोत्र एवं सूत्रालङ्कार। चीनी अनुवादक सूत्रालंकार को अश्वघोष की कृति मानते हैं। बाद में प्रोफेसर लुडर्स को मध्य एशिया में इस ग्रन्थ के मूल संस्कृत में कुछ अंश मिले हैं, उन्होंने सिद्ध किया है कि वहाँ ग्रन्थकार का नाम कुमारलात है और ग्रन्थ का नाम कल्पनामण्डितिका है। सामान्यत: विद्वान् इन्हें अश्वघोष की रचना नहीं मानते।
 
*अपनी रचनाओं में अश्वघोष ने श्रद्धा की महिमा का जोरदार वर्णन किया है।
 
<poem>श्रद्धाङ्कुरमिमं तस्मात् संवर्धयितुमर्हसि।
 
तद्वृद्धौ वर्धते धर्मों मूलवृद्धौ यथा द्रुम:॥  (सौन्दरनन्द 12:)</poem>
 
*विद्वानों का मानना है कि अश्वघोष बाहुश्रुतिक हैं। बाहुश्रुतिक महासांघिक की शाखा है। इसलिए ये महादेव की पांच वस्तुओं को स्वीकारते हैं। इनमें से चतुर्थ के अनुसार अर्हत परप्रत्यय से ज्ञान लाभ करते हैं। पर-प्रत्यय के लिए श्रद्धा आवश्यक है।
 
*जान्सटन के अनुसार अश्वघोष बाहुश्रुतिक या कौक्कुटिक या कौक्कुलिक हैं।
 
*तारानाथ के अनुसार मातृचेट अश्वघोष का दूसरा नाम है। मातृचेट का स्तोत्र अत्यन्त लोकप्रिय था।
 
*जातकमाला के रचयिता आर्यशूर अश्वघोष के ऋणी हैं। जातकमाला में 34 जातककथाओं का संग्रह है, लगभग सभी कथांए पालि जातक में पाई जाती हैं।
 
 
 
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१६:१८, ६ फ़रवरी २०१० के समय का अवतरण

आचार्य और सांख्यवाङमय

मानव सभ्यता का भारतीय इतिहास विश्व में प्राचीनतम जीवित इतिहास है। हजारों वर्षों के इस काल में अनेकानेक प्राकृतिक, राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन होते रहे हैं। परिवर्तन के इस कालचक्र में इतिहास का बहुत सा अंश लुप्त हो जाना स्वाभाविक है। महाभारत में सांख्य दर्शन का हमेशा ही प्राचीन इतिहास के रूप में कथन हुआ है। इससे एक बात तो स्पष्ट है कि महाभारत के रचनाकाल तक यह दर्शन सुप्रतिष्ठित हो चुका था। तत्त्वगणना और स्वरूप की विभिन्न प्रस्तुतियों के आधार पर कहा जा सकता है कि तब तक सांख्य दर्शन अनेक रूपों में स्थापित हो चुका था और उनका संकलन महाभारत में किया गया। महाभारत ग्रंथ के काल के विषय में अन्य भारतीय ऐतिहासिक तथ्यों की तरह ही मतभेद है। मतभेद मुख्यत: दो वर्गों (पाश्चात्य और भारतीय विद्वद्वर्गों) में माना जा सकता है। भारतीय विद्वदवर्ग भी दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। एक वर्ग पाश्चात्त्य मत का समर्थक और दूसरा विशुद्ध रूप से भारतीय वाङमय के आधार पर मत रखने वाले विद्वानों का।

  • पाश्चात्त्य मत के अनुसार महाभारत के मोक्षधर्म पर्व की रचना 200 वर्ष ई.पूर्व से 200 ई. के मध्य हुई<balloon title="एन्सा." style=color:blue>*</balloon>।
  • डॉ0 राजबलि पाण्डेय के अनुसार महाभारत ग्रन्थ का परिवर्तन ई.पू. 32 से ई.पू. 286 वर्ष की अवधि में तथा कुछ विद्वानों के अनुसार मोक्षधर्म पर्व परिवर्द्धन शुंग काल (ई.पू. 185 के आसपास) में हुआ<balloon title="प्राचीन भारत पृ. 191, 206" style=color:blue>*</balloon>।
  • डॉ0 आद्या प्रसाद मिश्र ने ए.बी. कीथ के मत (ई.पू. 200 से 200 ई.) की समीक्षा करते हुए अपना मत प्रस्तुत किया कि वर्तमान महाभारत भी 600 वर्ष ई. पू. से बहुत पहले का होना चाहिए<balloon title="सांख्य दर्शन की ऐतिहासिक परम्परा पृ. 23" style=color:blue>*</balloon>। यह ठीक है कि महाभारत ग्रन्थ अपने विकास क्रम में कई व्यक्तियों द्वारा लम्बे समय तक परिवर्द्धित होता हुआ वर्तमान स्थिति को प्राप्त हुआ है। लेकिन कब कितना और कौन सा अंश जोड़ा गया, इसके स्पष्ट प्रमाण के अभाव में भारतीय साक्ष्य को मान्य करते हुए वर्षगणना के बजाय इतना ही कहना पर्याप्त समझते हैं कि महाभारत ग्रन्थ में उपलब्ध सांख्य दर्शन अत्यन्त प्राचीन है और प्राचीन सांख्य दर्शन के विस्तृत परिचय के लिए महाभारत एक प्राचीनतम प्रामाणिक रचना है।

आचार्य-परम्परा

  • शांति पर्व अध्याय 318 के अनुसार कुछ सांख्याचार्यों के नाम इस प्रकार हैं-

जैगीषव्य, असितदेवल, पराशर, वार्षगण्य, भृगु, पञ्चशिख, कपिल, गौतम, आर्ष्टिषेण, गर्ग, नारद, आसुरि, पुलस्त्य, सनत्कुमार, शुक्र, कश्यप। इनके अतिरिक्त शांति पर्व में विभिन्न स्थलों पर याज्ञवल्क्य, व्यास, वसिष्ठ का भी उल्लेख है। युक्तिदीपिका में जनक-वसिष्ठ का उल्लेख है। *ईश्वरकृष्णकृत सांख्यकारिका के अनुसार कपिल, आसुरी और पञ्चशिख;

  • माठरवृत्ति के अनुसार भार्गव, उलूक, वाल्मीकि, हारीत, देवल आदि;
  • युक्तिदीपिका में जनक, वसिष्ठ के अतिरिक्त हारीत, वाद्वलि, कैरात, पौरिक, ऋषभेश्वर, पञ्चाधिकरण, पतञ्जलि, वार्षगण्य, कौण्डिन्य, मूक आदि नामों का उल्लेख है। *शांतिपर्व तथा सातवें सनातन को भी योगवेत्ता सांख्यविशारद कहा गया है। उपर्युक्त प्राचीन आचार्यों के अतिरिक्त सांख्य सूत्र, तत्त्वसमास व सांख्य कारिकाओं के व्याख्याकार भी सांख्याचार्य कहे जा सकते हैं। अत्यन्त प्राचीन आचार्यों का वर्णन करने से पूर्व सांख्य प्रणेता कपिल के बारे में उल्लेख करना आवश्यक होगा, क्योंकि कपिल एक हैं अथवा एक से अधिक, ऐतिहासिक व्यक्ति हैं या काल्पनिक, इस प्रकार के अनेक मत इनके विषय में प्रचलित हैं।

सांख्य प्रवर्तक कपिल

विद्यासहायवन्तं च आदित्यस्थं समाहितम्।
कपिलं प्राहुराचार्या: सांख्यनिश्चितनिश्चया:<balloon title="शांति पर्व 339/68" style=color:blue>*</balloon>॥
श्रृणु में त्वमिदं सूक्ष्मं सांख्यानां विदितात्मनाम्।
विहितं यतिभि: सर्वै: कपिलादिभिरीश्वरै:<balloon title="शांति पर्व 301/3" style=color:blue>*</balloon>॥
पंचम: कपिलो नाम सिद्धेश: कालविप्लुतम्।
प्रोवाचाऽऽसुरये सांख्यं तत्त्वग्रामविनिर्णयम्<balloon title="गरुडपुराण 1/18" style=color:blue>*</balloon>॥
श्रेय: किमत्र संसारे दु:खप्राये नृणामिति।
प्रष्टुं तं मोक्षधर्मज्ञं कपिलाख्यं महामुनिम्<balloon title="विष्णुपुराण 2/13/54" style=color:blue>*</balloon>॥

  • सांख्यप्रणेता या प्रवर्तक कपिल नामक मुनि हैं।
  • शांति पर्व में ही 349वें अध्याय में निर्विवाद शब्दों में कहा है कि 'सांख्यस्य वक्ता कपिल: परमर्षि: स उच्चते।'
  • प्राचीन वाङमय में प्राय: कपिल का उल्लेख परमर्षि, सिद्ध, मुनि आदि विशेषणों के साथ हुआ है।
  • गीता में 'सिद्धानां कपिलो मुनि:' कहकर उन्हें सिद्धों में श्रेष्ठ बताने का प्रयास किया गया।
  • विष्णु पुराण<balloon title="(2।14।9)" style=color:blue>*</balloon> में कपिल को विष्णु का अंश कहा गया।
  • भागवत<balloon title="(1।3।10)" style=color:blue>*</balloon> में उन्हें विष्णु का अवतार कहा गया।
  • इसके अतिरिक्त सांख्य सूत्र व कारिका के भाष्यकारों ने एकमतेन कपिल को सांख्य प्रवर्तक के रूप में ही स्वीकार किया।
  • स्वनिर्मित कसौटियों के आधार पर कुछ विद्वान भले ही कपिल की ऐतिहासिकता व्यक्त नहीं हैं- ऐसा उल्लेख किसी प्राचीन ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं है। जहाँ तक ब्रह्मसुत, अग्नि के अवतार, विष्णु के अवतार आदि रूपों में कपिल के उल्लेखों का प्रश्न है- इनसे कपिल की ऐतिहासिकता पर कोई विवाद उत्पन्न नहीं होता। इन उल्लेखों के आधार पर एक से अधिक कपिलों को माना जाने पर भी दो सांख्य प्रवर्तक कपिलों की कोई परम्परा न होने से सांख्य प्रवर्तक कपिल एक ही हैं- ऐसी प्राचीन मान्यता को प्रामाणिक ही कहा जा सकता है।
  • सांख्य शास्त्र महाभारत, रामायण, भागवत तथा उपनिषदों से भी प्राचीन है, ऐसा उन ग्रन्थों में उपलब्ध सांख्य दर्शन से स्पष्ट होता है। महाभारत में सांख्य संबन्धी संवाद पुरातन इतिहास के रूप में उल्लिखित है। इससे सांख्य शास्त्र का हजारों वर्ष पूर्व स्थापित हो जाने का स्पष्ट संकेत मिलता है। परिणामत: यदि सांख्य प्रवर्तक देवहूति-कर्दम-पुत्र कपिल को भी हजारों वर्ष पूर्व का मानें तो अत्युक्ति न होगी।
  • भारतीय ऐतिहासिक व्यक्तियों तथा घटनाक्रम के संबन्ध में पाश्चात्त्य विद्वानों की खोज प्रणाली (पुरातत्त्व तथा भाषा वैज्ञानिक) के साथ अतिप्राचीनता का सामञ्जस्य न होने तथा मानव की 'अति प्राचीनता' को भी 4-5 हजार वर्षों के भीतर ही बाँध देती है। दूसरी ओर भारतीय परम्परा में मान्य युग गणना भारतीय सभ्यता व संस्कृति को इससे कहीं अधिक प्राचीन घोषित करती हे। इतने लम्बे अन्तराल में कई भौगोलिक और भाषागत परिवर्तनों का हो जाना सहज है। अत: जब तक आधुनिक कही जाने वाली कसौटियाँ पूर्ण व स्पष्ट न हों, प्राचीन भारतीय साहित्य के साक्ष्य को अप्रामाणिक घोषित करना युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता।

या तो कपिल का समय अत्यन्त प्राचीन है या फिर रामायण, महाभारत के वर्णनों के आधार पर उन्हें इन युगों से बहुत पूर्व का मानें।

  • विष्णुपुराण में- कपिल को सत युग में अवतरित होकर लोककल्याणार्थ उत्कृष्ट ज्ञान का उपदेश दिया- कहकर कपिल के जन्म काल का संकेत किया गया।
  • अहिर्बुध्न्यसंहिता में लिखा है- त्रेता युग के प्रांरभ में जब जगत मोहाकुल हो गया तब कुछ लोक कर्ता व्यक्तियों ने जगत को पूर्ववत लाने का प्रयास किया। उन लोककर्ताओं में एक व्यक्ति कपिल था<balloon title="सांख्यदर्शन का इतिहास पृ. 49" style=color:blue>*</balloon>। इस प्रकार कपिल का समय सत्य युग के अन्त में या त्रेतायुग के आदि में स्वीकार किया जा सकता है। ऐसा मानने पर कितने वर्ष की गणना की जाय यह कहना कठिन है। तथापि आचार्य उदयवीर शास्त्री के अनुमानानुसार कर्दम ऋषि भारत में उस समय रहा होगा जब सरस्वती नदी अपनी पूर्ण धारा में प्रवाहित होती थी। सरस्वती नदी के सूख जाने के समय की ऐतिहासिकों ने जो समीप से समीप कल्पना की है वह, अबसे लगभग 25 सहस्र वर्ष पूर्व है।[१] कितने पूर्व, यह निर्णय करना कठिन होगा।

परमर्षि कपिल की कृति कपिल के समय की ही तरह कपिल की कृति के बारे में भी आधुनिक विद्वानों में मतभेद और अनिश्चय व्याप्त है। जिनके मत में कपिल की ऐतिहासिकता संदिग्ध है, उनके लिए कपिल की कृति की समस्या ही नहीं है। लेकिन जो लोग कपिल के ऐतिहासिक अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। उनके लिए यह एक समस्या है। उपलब्ध प्रमुख सांख्य-ग्रन्थ हैं- (1) तत्त्वसमाससूत्र (2) पञ्चशिखसूत्र (3) सांख्यकारिका (4) सांख्यप्रवचन सूत्र या सांख्यसूत्र सांख्यकारिका को तो सभी विद्वान् ईश्वरकृष्णकृत मानते हैं। पञ्चशिखसूत्र विभिन्न ग्रन्थों में, विशेषत: योगसूत्रों के व्यासभाष्य में उपलब्ध उदाहरणों का संकलन है। अब शेष रह जाती हैं दो रचनाएँ, जिन्हें कपिलकृत कहा जा सकता है। तत्त्वसमास तथा सांख्यसूत्र के व्याख्याकारों ने अलग-अलग इन्हें कपिल की ही कृति माना है। चूँकि ये रचनाएँ भाष्यों या व्याख्याकार के निर्देशों पर ही निर्भर करना पड़ता है। तत्त्वसमाससूत्र की प्राचीनतम व्याख्या क्रमदीपिका है जिसे आचार्य उदयवीर शास्त्री ने माठर वृत्ति से प्राचीन तथा ईश्वरकृष्णरचित कारिकाओं के पश्चात् माना है। तब तत्त्वसमाससूत्र की रचना और भी प्राचीन समय में मानी जा सकती है। भावागणेश के अनुसार उसने तत्त्वसमास की व्याख्या में 'समास' की पंचशिखकृत व्याख्या का अलम्बन लिया। इससे इतना तो कहा ही जा सकता है कि भावागणेश पंचशिखकृत व्याख्या के अस्तित्व को मानता था। क्रमदीपिका और भावागणेशकृत (तत्त्वसमाससूत्रों की भावागणेशकृत व्याख्या) को क्रमदीपिका के आधार पर लिखे जाने की संभावना को स्वीकार किया। साथ ही वे क्रमदीपिका को पंचशिख की रचना भी नहीं मानते, फिर, एक और संभावना शास्त्री जी ने व्यक्त की कि दोनों का आधार एक अन्य व्याख्या जिसे पंचशिखकृत समझा गया हो- के आधार पर लिखी गई हो। दोनों ही स्थितियों में यह बात स्पष्ट स्वीकार की जा सकती है कि क्रमदीपिका तत्त्वसमास की उपलब्ध प्राचीन व्याख्या है जो पंचशिखकृत नहीं है। साथ ही पंचशिखकृत 'समाससूत्र' व्याख्या भी अस्तित्ववान् थी। यदि महाभारत शांतिपर्व में उल्लिखित पंचशिख और भावागणेश द्वारा संकेतित पंचशिख दो भिन्न व्यक्ति नहीं हैं।[२] तो तत्त्वसमाससूत्र को भी महाभारत-रचनाकाल से अत्यन्त प्राचीन मानना होगा। या फिर डॉ0 ए.बी.कीथ की तरह दो पंचशिखों के अस्तित्व को स्वीकार करना होगा। लेकिन इसमें कोई स्पष्ट प्रमाण या परम्परा न होने से तत्त्वसंमास के व्याख्याकार पंचशिख को ही परम्परानुरूप महाभारत में उल्लिखित कपिल के प्रशिष्य के रूप में मानना उचित प्रतीत होता है। ऐसी स्थिति में कपिल को तत्त्वसमाससूत्र का रचयिता मानने की परम्परा के औचित्य को स्वीकार करना गलत नहीं होगा।[३] 'तत्त्वसमाससूत्र' किसी बृहत ग्रन्थ की विषयसूची प्रतीत होता है जिसमें सांख्य दर्शन को 22 सूत्रों में प्रस्तुत किया गया है। अत्यन्त संक्षिप्त होने से ही संभवत: इसे समाससूत्र कहा गया है। इस सूत्ररचना की आवश्यकता के रूप में दो संभावनाएँ हो सकती है। या तो परमर्षि कपिल ने पहले इन सूत्रों की रचना की बाद में इनके विस्तार के रूप में सांख्यसूत्रों को रचा ताकि आख्यायिकाओं और परवाद-खण्डन के माध्यम से सांख्यदर्शन को अधिक सुग्राह्य और तुलनात्मक 'प में प्रस्तुत किया जा सके या फिर पहले बृहत् सूत्रग्रन्थ की रचना हुई हो और फिर उसे संक्षिप्त सूत्रबद्ध किया गया हो। 'समास' शब्द से दूसरे विकल्प की अधिक सार्थकता सिद्ध होती है। उपलब्ध सांख्यग्रन्थों में 'सांख्यसूत्र' भी एक ऐसा ग्रन्थ है जिसके रचनाकार और रचनाकाल के विषय में आधुनिक विद्वानों में मतभेद है। पाश्चात्त्य विद्वान् तथा उनके अनुसार विचारशैली वाले भारतीय विद्वान् सांख्यसूत्रों को ईश्वरकृष्णकृत कारिकाओं के बाद की रचना मानते हैं। यद्यपि इस संभावना को स्वीकार किया जाता है कि कुछ सूत्र अत्यन्त प्राचीन रहे हों तथापि वर्तमान रूप में सूत्र अनिरुद्ध या उसके पूर्वसमकालिक व्यक्ति द्वारा ही अर्थात् पद्रहवीं शती में रचित या संकलित हैं। आचार्य उदयवीर शास्त्री, डॉ0 आद्याप्रसाद मिश्र, डॉ0 गजानन शास्त्री मुसलगांवकर आदि इसे कपिलप्रणीत और प्राचीन मानते हैं। सांख्यसूत्रों के सभी भाष्यकार टीकाकार भी इसे कपिलप्रणीत ही मानते हैं। इस विषय में दोनों पक्षों की युक्तियों का परिचय रोचक होगा। ईश्वरकृष्णविरचित सांख्यकारिका में 72वीं कारिका में कहा गया सप्तत्यां किल येऽर्थास्तेऽर्था: कृत्स्नस्य षष्टितंत्रस्य आख्यायिकाविरहिता: परवादविवर्जिताश्चेति। अर्थात् इस सप्तति (सत्तर श्लोकयुक्त) में जो विषय निरूपित हुए हैं वे निश्चित ही समस्त पष्टितन्त्र के विषय में हैं। यहाँ ये आख्यायिका एवं परमतखण्डन को वर्जित करके कहे गये हैं। अब, उपलब्ध षडध्यायी सूत्रों को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उसके प्रथम तीन अध्यायों में कारिकाओं का कथ्य लगभग पूर्णत: समाहित है। शेष तीन अध्यायों में आख्यायिकाएँ और परमतखण्डन है। ईश्वरकृष्ण की घोषणा ओर उपलब्ध सांख्यसूत्रों को सामने रखकर बड़ी सरलता से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ईश्वरकृष्ण का संकेत इसी ग्रन्थ की ओर होना चाहिए (कम से कम तब तक ऐसा माना जा सकता है कि जब तक आख्यायिका और परवादयुक्त कोई अन्य सांख्यग्रन्थ न मिल जाय) लेकिन इस सरल से लगने वाले निष्कर्ष में एक समस्या है 'षष्टितन्त्र' शब्द की। यह शब्द किसी ग्रन्थ का नाम है या साठ पदार्थों वाले शास्त्र का बोधक? षष्टितंत्र नामक कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है और ईश्वरकृष्ण के संकेत के अनुसार ग्रन्थ वर्तमान में उपलब्ध सांख्यसूत्र है। अत: षष्टितन्त्र और सांख्यसूत्र ये दो नाम एक ही ग्रन्थ के निरूपित हो जायें तब यह कहा जा सकता है कि कपिलप्रणीत षष्टितंत्र सांख्यसूत्र ही है। आचार्य उदयवीर शास्त्री के अनुसार षष्टितंत्र शब्द कपिलप्रणीत ग्रन्थ का नाम हे। अपने मत की पुष्टि में शास्त्री जी ने सां. 2.5. द्वितीय अध्याय में कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये हैं जिनमें षष्टितंत्र शब्द का प्रयोग हुआ है। 1. कल्पसूत्र में महावीर स्वामी को सट्ठितन्तविशारए (षष्टितन्त्रविशारद:) कहा गया है। इस वाक्य की व्याख्या में यशोविजय लिखता है- षष्टितंत्रं कपिलशास्त्रम्, तत्र विशारद:। 2. अहिर्बुध्न्यसंहिता- षष्टिभेदं स्मृतं तंत्रं सांख्यं नाम महामुने:। 3. वेदान्तसूत्र पर आचार्य भास्करभाष्य- तत: कपिलप्रणीत- षष्टितन्त्राख्य... 4. शारीरक भाष्य (2/9/9) – स्मृतिश्च तन्त्राख्या परमर्षिप्रणीता 5. वाक्यपदीय के व्याख्याकार ऋषभदेव ने लिखा है- षष्टितन्त्रग्रन्थश्चायम् 6. जयमंगला- बहुधा कृतं तन्त्रं षष्टितन्त्राख्यं षष्टिखण्डं कृतमिति 7. विस्तरत्वात् षष्टितन्त्रस्य संक्षिप्तसूचिसत्त्वानुग्रहार्थसप्तातिकारम्भ: उपर्युक्त उद्धरणों में क्रमांक 5 में तो षष्टितंत्र ग्रंथनाम प्रतीत होता है, यद्यपि षष्टितंत्र ग्रन्थ का अर्थ षष्टितंत्र का ग्रन्थ अर्थात् साठ पदार्थों वाले सिद्धान्त अथवा ज्ञान का ग्रन्थ – ऐसा भी किया जा सकता है। क्रमांक 6 में भी यदि सिद्धान्त या ज्ञान का संक्षिप्त ऐसा प्रचलित अर्थ न लिया जाय तो 'षष्टितंत्र' ग्रन्थ का- इस अर्थ में ग्रहण किया जा सकता है। उद्धरण क्रमांक 3 में भी 'षष्टितंत्र' नामक कपिलप्रणीत अर्थ लिया जा सकता है। लेकिन उपर्युक्त सभी उद्धरणों में 'तंत्र' शब्द ज्ञान या सिद्धान्त के अर्थ में लेने का आग्रह हो तो भी अर्थसंगति को उचित कहा जा सकता है। यद्यपि क्रमांक 3.4. स्पष्टत: ग्रन्थ नाम का संकेत देते हैं। अत: आचार्य उदयवीर शास्त्री के मत को स्वीकार करने में अनौचित्य नहीं है। तथापि ऐसी 'बाध्यता' का संकेत उद्धरणों में नहीं है। दूसरी ओर श्री रामशंकर भट्टाचार्य का विचार है कि षष्टितंत्र शब्द किसी ग्रन्थनाम का ज्ञापक शब्द नहीं बल्कि सांख्यशास्त्रपरक है जिसमें पदार्थों को साठ भागों में विभक्त कर विचार किया गया था।[४] इसमें उनकी युक्ति यह है कि जब पूर्वकारिका (69) में कारिकाकार ने कहा कि उन्होंन 'एतत्' (अर्थात् पुरुषार्थ ज्ञान जो परमर्षिभाषित था और जिसको मुनि ने आसुरी को दिया था) को-जो शिष्यपरम्परागत है- संक्षिप्त किया है, तब पुन: इस कथन का क्या स्वारस्य होता है। कि प्रस्तुत सांख्यकारिका नामक ग्रन्थ में जितने प्रतिपाद्य विषय हैं, वे 'कृत्स्नस्य षष्टितन्त्रनामग्रन्थविशेषस्य' है? जिस स्वारस्य की यहां जिज्ञासा की गई वह तो है। कारिका में कहा गया है कि यह संक्षिप्त आख्यायिका और परवादविवर्जित है। अब या तो कपिलासुरीपञ्चशिखपरम्परा में आख्यायिका और परमतखण्डन की प्रचुरता का कोई प्रमाण हो या फिर षष्टितंत्र का कोई ग्रन्थ हो जिसमें ये निहित हों। सांख्यशास्त्र के उपलब्ध ग्रन्थों में ऐसा एक ही ग्रन्थ है 'सांख्यसूत्र'। अत: 'कृत्स्नस्य' का स्वारस्य यह दर्शाने में है कि षष्टितंत्र में प्रस्तुत दर्शन का संक्षिप्त किया गया है न कि पूरे ग्रन्थ का (क्योंकि आख्यायिका-परवाद छोड़ दिया गया)। षष्टितंत्र सांख्यविद्यापरक शब्द हो या सांख्यग्रन्थनामपरक हो, इस बात के प्रबल प्रमाण हैं कि यह तन्त्र कपिल प्रोक्त, कृत या प्रणीत है। पञ्चशिख का प्रसिद्ध सूत्र आदिविद्वान निमार्णचित्तमधिष्ठाय कारुण्याद् भगवान् परमर्षिरासुरो जिज्ञासमानाय तंत्रं प्रोवाच युक्तिदीपिका के आरंभ में 14वें श्लोक में पारमर्धस्य तंत्र अनुयोगद्वारसूत्र 41 में कपिल-सट्ठियन्तं अहिर्बुध्न्यसंहिता के पूर्वोक्त उद्धरण आदि पर्याप्त प्रमाण हैं। षष्टितंत्र लिखित हो या मौखिक, कपिलप्रणीत तो है ही। अत: यदि ऐसा कोई संकलन उपलब्ध हो जिसे षष्टितन्त्र कहा जाता हो और जिसमें आख्यायिका एवं परवाद हों तो उसे कपिलप्रणीत कहने में कोई विसंगति नहीं है। ऐसा ग्रन्थ है सांख्यसूत्र। इस ग्रन्थ को अनिरुद्ध और विज्ञानभिक्षु कपिलसूत्र ही मानते हैं तथा आधुनिक विद्वानों में आचार्य उदयवीर शास्त्री, डॉ0 आद्याप्रसाद मिश्र तथा डॉ0 गजानन शास्त्री मुसलगांवकर आदि भी कपिलरचित मानते हैं। जबकि श्रीपुलिन बिहारी चक्रवर्ती, मैक्समूलर, लार्सन, कीथ आदि इसे एक अर्वाचीन कृति मानते हैं। सांख्यसूत्रों को अर्वाचीन घोषित करने के पीछे निम्नलिखित तर्क प्राय: दिए जाते हैं। 1. 15वीं शती से पूर्व सूत्रों पर कोई भाष्य उपलब्ध नहीं है। वाचस्पति मिश्र, जिन्होंने अन्य दर्शन सम्प्रदाय के सूत्रग्रन्थों पर भाष्य लिखा है- ने भी कारिका पर भाष्य लिखा है। यदि सूत्र कपिलप्रणीत होते तो वाचस्पति मिश्र उस पर ही भाष्य लिखते। 2. दर्शन के प्राचीन ग्रन्थों में सांख्यकारिका के उद्धरण तो मिलते हैं। लेकिन सूत्रों को किसी में उद्धृत नहीं किया गया। 3. सूत्र में न्याय-वैशेषिक आदि का खण्डन है जबकि कपिल इनसे अन्यन्त प्राचीन माने जाते हैं। 4. 'सूत्र' में अनेक सूत्र ब्रह्मसूत्र, योगसूत्र, सांख्यकारिका आदि को उद्धृत किया गया है। 5. कुछ सूत्र इतने विस्तृत हैं कि वे सूत्र न होकर कारिका ही प्रतीत होते हैं। संभवत: वे कारिका से यथावत् लिए गए हैं। ध्यान से देखने पर उपर्युक्त सभी युक्तियाँ तर्कसंगत न होकर केवल मान्यता मात्र प्रतीत होती हैं। किसी ग्रन्थ पर भाष्य का उपलब्ध होना उस ग्रन्थ की भाष्यकार के समय से पूर्ववर्तिता का प्रमाण तो हो सकता है लेकिन भाष्य का न होना ग्रन्थ के न होने में प्रमाण नहीं होता। उलटे यह ऐतिहासिक शोध का विषय होना चाहिए कि उक्त ग्रन्थ पर भाष्य क्यों नहीं लिखा गया होगा? भारतीय इतिहास के अवलोकन से ज्ञात होता है कि बौद्ध दर्शन की उत्पत्ति और विकास की अवस्था का वैदिक दर्शनों के प्रचार-प्रसार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। तब तक उस सांख्यदर्शन का जिसे महाभारत में सुप्रतिष्ठित माना गया था, अध्ययन-अध्यापन नगण्य हो चला था। इस अवस्था में सांख्यसूत्रों पर भाष्य की आवश्यकता अनुभूत न होना आश्चर्यजनक नहीं कहा जा सकता। यह भी संभव है कि ईश्वरकृष्ण द्वारा कारिकाओं की रचना के बाद सूत्रों की अपेक्षा सुग्राह्य होने से कारिकाएँ अधिक प्रचलित हो गई हों। फिर, ईश्वर या परमात्मा जैसे शब्दों के न होने से, दुखनिवृत्ति प्रमुख लक्ष्य होने से, बौद्धकाल और उसके बाद भारत में राजनैतिक उथल-पुथल विदेशी आक्रमण आदि से भग्नशान्ति समाज में पलायनवादी प्रवृत्ति की उत्पत्ति और प्रसार ने पलायनवादी दार्शनिक विचारों को प्रश्रय दिया हो। परिणामस्वरूप वेदान्त की विशिष्ट धारा का खण्डन अथवा मण्डन ही वैचारिक केन्द्र बन गए हों। ऐसी अवस्था में संसार को तुच्छ मानने और मनुष्य के अस्तित्व के बजाय परमात्मा पर पूर्णत: आश्रित रहने वाले दर्शनों का ही प्रचार-प्रसार का होना ह्रासोन्मुख समाज में स्वाभाविक है। सांख्यदर्शन में पुरुषबहुत्व और परमात्मा से उसकी पृथक् सत्तामान्य है। ऐसा दर्शन पलायनवादी परिस्थितियों में लुप्त होने लगा हो तो क्या आश्चर्य? संभवत: इसीलिए गत दो हजार वर्षों में बौद्ध और वेदान्त पर जितना लिखा गया उसकी तुलना में शुद्ध तर्कशास्त्रीय ग्रन्थों के अतिरिक्त शेष दर्शन सम्प्रदायों पर नगण्य लेख हुआ। इस अवधि में सांख्यकारिका के भी अंगुलियों पर गिने जाने योग्य भाष्य ही लिखे गये। ऐसे में संभव है सांख्यसूत्र अथवा उन पर भाष्य सर्वथा अप्रचलित हो गए हों। और भी कारण ढूँढ़े जा सकते हैं सारांश यह कि भाष्यों का उपलब्ध न होना किसी अवधि में किसी ग्रन्थ के अप्रचलन को तो निगमित कर सकता है, उसके अनस्तित्व को सिद्ध नहीं करता। फिर, अनिरुद्ध, महादेव वेदान्ती, विज्ञानभिक्षु आदि को सांख्यसूत्र के कपिलप्रणीत होने पर संदेह नहीं हुआ। हमारी जानकारी में पाश्चात्त्य प्राच्यविद्याविशारदों की स्थापनाओं से पूर्व तक की भारतीय परम्परा सांख्यसूत्रों को कपिल-प्रणीत ही मानती रही है। ऐसा उल्लेख नहीं है जिसमें कहा गया हो कि ये सूत्र कपिलप्रणीत नहीं हैं। यही समाधान सांख्यसूत्रों के उद्धरणों की कथित अनुपलब्धि के विषय में भी हो सकता है। यह कहना ही गलत है कि प्राचीन ग्रन्थों में सांख्यसूत्रों के उद्धरण नहीं मिलते। आचार्य उदयवीर शास्त्री ने बड़े ही यत्न से कई उद्धरण प्राचीन तथा अर्वाचीन ग्रन्थों से ढूँढ़ कर प्रस्तुत किये हैं।[५] न्याय-वैशेषिक आदि के खण्डन का होना, ब्रह्मसूत्र आदि का उद्धृत होना सांख्यसूत्र के अर्वाचीन होने का प्रमाण नहीं है। इनके आधार पर इन्हें मूलग्रन्थ में प्रक्षिप्त ही माना जाना चाहिए। कारिकावत् सूत्रों के बारे में भी उल्टा निष्कर्ष निकाला गया है। कारिका को प्राचीन मान लेने के कारण ही सूत्र को कारिका के आधार पर रचित-माना जा सकता है। अन्यथा कारिकाएँ सूत्र के आधार पर रची गई- ऐसा क्यों न माना जाय जबकि कपिलसूत्र को प्राचीन मानने की सुदीर्ध परम्परा है। इस प्रकार सांख्य-सूत्रों को कारिका से अर्वाचीन मानना केवल 'मान्यता' है, प्रामाणिक नहीं। अत: जब तक ऐसा स्पष्ट प्रमाण कि उपलब्ध सांख्यसूत्र कपिलप्रणीत नही है, उपलब्ध न हो, प्रामाणिक परम्परा को अस्वीकार करने का कोई औचित्य नहीं है। सांख्यसूत्रपरिचय सांख्यसूत्र का प्रचलित नाम 'सांख्यप्रवचनसूत्र' है। सूत्र सर्वप्रथम अनिरुद्ध 'वृत्ति' के रूप में प्राप्त है। स्वतंत्र रूप से सूत्रग्रंथ उपलब्ध न होने से सूत्रसंख्या, अधिकरण, अध्याय-विभाग आदि के बारे में वृत्तिकार अनिरुद्ध तथा तदनुरूप कृत भाष्यकार विज्ञानभिक्षु की कृति पर ही निर्भर करना पड़ता है। सांख्यप्रवचनसूत्र 6 अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय में 164 सूत्र हैं। इसे अनिरुद्ध विषयाध्याय कहते हैं। इस अध्याय में सांख्य की विषयवस्तु का परिचय दिया गया है। सूत्र 1-6 में दु:खत्रय, उनसे निवृत्ति के दृष्ट उपायों की अपर्याप्तता आदि का उल्लेख है। सूत्र 8-60 में बन्ध की समस्या पर विचार किया गया। पुरुष के असंग होने से उसका बन्धन नहीं कहा जा सकता। कर्म, भोग आदि बुद्धि के त्रिगुणात्मक विकारों के धर्म होने से इन्हें भी बन्ध का कारण नहीं कहा जा सकता। बन्ध का कारण प्रकृति, पुरुष में भेदविस्मृति का अविवेक है। शेष सूत्रों में प्रकृति, विकृति, आदि का नामोल्लेख, प्रमाणविचार, प्रत्यक्ष से ईश्वर की असिद्धि, सत्कार्यवाद- निरूपण आदि की चर्चा है। प्रकृति और पुरुष की अस्तित्वसिद्धि में हेतु की भी चर्चा है। द्वितीय अध्याय में मात्र 47 सूत्र हैं। इस अध्याय को प्रधानकार्याध्याय कहा जाता है। इन सूत्रों में प्रधान के कार्य महत्, अहंकार, इन्द्रियादि की चर्चा की गई। करणों की वृत्तियों का उल्लेख भी किया गया। तृतीय अध्याय में 84 सूत्र हैं। अनिरुद्ध इस अध्याय को वैराग्याध्याय कहते हैं। इस अध्याय में प्रकृति के स्थूल कार्य, सूक्ष्म-स्थूलादि शरीर, आत्मा की विभिन्न योनियों में गति तथा पर-अपर वैराग्य की चर्चा है। चतुर्थ अध्याय में 32 सूत्र हैं जिनमें आख्यायिकाओं के द्वारा विवेकज्ञान के साधनों को प्रदर्शित किया गया है। 130 सूत्रों के पांचवें अध्याय में परमतखण्डन है। यहाँ विभिन्न कारणों से ईश्वर के कर्मफलदातृत्व का निषेध किया गया है। साथ ही वेदों की (शब्दराशिरूप में) अनित्यता का, सत्ख्याति, असत्ख्याति, अन्यथाख्याति, अनिर्वचनीयख्याति आदि का खण्डन करते हुए सदसत्ख्याति को स्थापित किया गया। छठे अध्याय में 61 सूत्र हैं। इन सूत्रों में सांख्यमत जिसे पूर्वाध्यायों में विस्तार से प्रस्तुत किया गया हे- को संक्षेप में उपसंहृय किया गया। उपलब्ध सांख्यप्रवचनसूत्र के अध्यायों में विषयप्रस्तुति का क्रम ईश्वरकृष्ण की 62वीं कारिका के अनुरूप ही है। सांख्यसिद्धान्त की पूर्ण चर्चा तो प्रथम तीन अध्यायों में ही निहित है। अत: सांख्यकारिका में ईश्वरकृष्ण ने आख्यायिका और परमतखण्डन को छोड़ दिया है। आचार्य उदयवीर शात्री ने सूत्रों की अन्तरंग परीक्षा करके सांख्यसूत्र में प्रक्षेपों को संकलित किया। उनके अनुसार प्रथम अध्याय में 19वें सूत्र के बाद विषयवस्तु अथवा कथ्य की संगति 55वें सूत्र से है। 20-54 सूत्रों में अप्रासंगिक विषयान्तर होने से शास्त्री जी इन्हें प्रक्षिप्त मानते हैं। इन सूत्रों में न वयं षट्पदार्थवादिनो वैशेषिकादिवत् (1/25), न विज्ञानमात्रं बाह्यप्रतीते: (1/42), शून्यं तत्त्वं भावो (1/44) तथा 'पाटलिपुत्र' आदि को देखकर न केवल इसकी अप्रासंगिकता का बोध होता है अपितु कपिल के बहुत बाद में स्थापित मतों के खण्डन की उपस्थिति भी आश्चर्यजनक प्रतीत होती है। अनिरुद्ध और विज्ञानभिक्षु इन सूत्रों में बौद्धमत का खण्डन देखते हैं। उदयवीर शास्त्री का मत है कि इन सूत्रों का प्रक्षेप शंकराचार्य के प्रादुर्भाव के उपरांत हुआ होगा। इसी तरह पाँचवें अध्याय में मुक्ति के स्वरूप की चर्चा में सूत्र 84 से 115 तक 32 सूत्रों को शास्त्री जी ने प्रक्षिप्त घोषित किया है, जो कि उचित प्रतीत होता है। सांख्यसूत्र और कारिका के दर्शन में सिद्धान्तरूप में विरोध या भेद नहीं है तथापि कतिपय साधारण भेद अवश्य प्रतीत होते हैं। पुरुष की अस्तित्वसिद्धि में सांख्यसूत्र में हेतु दो समूहो में या वर्गों में है। प्रथम वर्ग सूत्र 1/140-42 में और द्वितीय वर्ग सूत्र 1/143-44 में। संघातपरार्थत्वात्, त्रिगुणादिविपर्ययात्, अधिष्ठानाच्चेति 1/140-42) प्रथम समूह है। अनिरुद्ध विज्ञानभिक्षु सहित प्राय: टीकाकारों ने 'अधिष्ठानात् च इति' के भाष्य में हेतु समाप्ति को स्वीकार किया है। भोक्तृभावत्, कैवल्थार्थप्रवृत्तेश्च, ये 2 सूत्र पुन: हेतु निर्देश करते हैं। जबकि सांख्यकारिका में पाँचों हेतु एक साथ दिए गए हैं। एक अन्य भेद प्रमाणविषयक है। सूत्र में प्रत्यक्ष प्रमाण है जबकि कारिका में दृष्ट व्याख्याकारों ने दृष्ट को प्रत्यक्ष माना है। जिससे निश्चयात्मकता का भाव स्पष्ट होता है जबकि सूत्रगत प्रमा की परिभाषा को ध्यान में रखा जाये जहाँ 'असन्निकृष्टार्थपरिच्छिती प्रमा' कहा गया है तो प्रत्यक्ष में ही नहीं अनुमान और शब्द प्रमाणजन्य प्रमा भी निश्चयात्मक निरूपित होती है। सूत्र में अनुमान प्रमाण के भेदों का उल्लेख नहीं है किन्तु कारिका में 'त्रिविधमनुमानम्' स्वीकार किया गया है। कारिकाओं में त्रिगुण साम्य के रूप में प्रकृति को कहीं परिभाषित नहीं किया गया। इस विपरीत सूत्र में 1/61 में सत्त्वरजस्तमस् की साम्यावस्था का स्पष्ट उल्लेख है। सांख्यकारिकाएँ चूँकि संक्षिपत प्रस्तुति है इसलिए सूत्रों से अन्तर होना स्वाभाविक है। आसुरि आसुरि कपिल मुनि के शिष्य और सांख्याचार्य पचंशिख के गुरु थे। महाभारत के शांतिपर्व में पंचशिख को आसुरि का प्रथम शिष्य कहा गया है।[६] यहाँ आसुरि के बारे में कहा गया है कि उन्होंने तपोबल से दिव्य दृष्टि प्राप्त कर ली थी। ज्ञानसिद्धि के द्वारा उन्होंने क्षेत्र-क्षेत्रज्ञभेद को समझ लिया था। जो एकमात्र अक्षर और अविनाशी ब्रह्म नाना रूपों में दिखाई देता है उसका ज्ञान उन्होंने प्रतिपादित किया।[७] शां.प. के ही 318वे अध्याय में उल्लिखित सांख्याचार्यों के नामों की सूची में भी आसुरि का नामोल्लेख है। पञ्चशिखसूत्र में भी 'परमर्षि ने जिज्ञासु आसुरि को ज्ञान दिया' कहकर आसुरि के कपिलशिष्य होने का स्पष्ट संकेत दिया।[८] ईश्वरकृष्णकृत 70वीं कारिका में एतत् पवित्रमग्यं मुनिरासुरये प्रददौ। आसुरिरपि पञ्चशिखाय तेन च बहुधा कृतं तन्त्रम् कहकर कपिल के शिष्य और पञ्चशिख के गुरु रूप में आसुरि का उल्लेख किया। सांख्यकारिका के भाष्यकारों ने भी इस गुरुशिष्य परम्परा को यथावत् स्वीकार किया। इतनी स्पष्ट परम्परा के आधार पर आसुरि की ऐतिहासिकता सिद्ध है। कतिपय पाश्चात्त्य विद्वानों के द्वारा आसुरि के अनैतिहासिक होने के अप्रामाणिक आग्रह का आद्याप्रसाद मिश्र ने निराकरण किया है।[९] माठरवृत्ति के आरंभ में प्रस्तुत प्रसंग के अनुसार आसुरि गृहस्थ थे। फिर वे दु:खत्रय के अभिघात के कारण गृहस्थ आश्रम से विरत हो कपिल मुनि के शिष्य हो गये।[१०] आसुरि की कोई कृति उपलब्ध नहीं है। हरिभद्रसूरिकृत षड्दर्शनसमुच्चय में आसुरि के नाम से उद्धृत एक श्लोक में पुरुष के भोग के विषय में उनका मत प्राप्त होता है। तदनुसार जिस प्रकर स्वच्छ जल में चन्द्र प्रतिबिम्बित होता है उसी प्रकार असंग पुरुष में बुद्धि का प्रतिबिम्बित होना उसका भोग कहलाता है। सांख्यसूत्र में 'चिदवसानो भोग:' कहकर ऐसा ही मत प्रस्तुत किया गया है। पंचशिख ईश्वरकृष्ण ने सांख्यकारिका में कहा है एतत् पवित्रमग्यम् मुनिरासुरयेऽनुकम्पया प्रददौ। आसुरिरपि पंचशिखाय तेन च बहुधा कृतं तन्त्रम्॥ आसुरि ने षष्टितन्त्र का ज्ञान पंचशिख को दिया और पंचशिख ने उसे बहुविध, व्यापक या विस्तत किया। माठरवृत्ति के अनुसार पंचशिखेन मुनिना... षष्टितंत्राख्य षष्टिखण्डं कृतमिति। तत्रैव हि षष्टिरर्था व्याख्याता:। युक्तिदीपिका के अनुसार बहुभ्यो जनकवसिष्ठादिभ्य: समाख्यातम्[११] साथ ही भावागणेश के अनुसार उनके तत्त्वसमाससूत्र का तत्त्वयाथार्थ्यदीपन पंचशिख की व्याख्या पर आधृत हे। इस तरह सांख्यशास्त्रीय परम्परा में सांख्याचार्य के रूप में तो पंचशिख विख्यात है ही, महाभारत में भी ऊहापोहप्रवीण, पंचरात्रविशारद, पंचज्ञ, अन्नादि पंच कोशों के शिखा स्वरूप ब्रह्म के ज्ञाता के रूप में पंचशिख का उल्लेख किया गया। शांतिपर्व में ही पंचशिख संवादों को प्राचीन इतिहास के रूप में स्मरण किया गया। इसका अर्थ है कि पंचशिख का समय 800 वर्ष ई.पू. के बहुत पहले, संभवत: हजारों वर्ष पूर्व रहा होगा। पंचशिख आसुरि के प्रथम शिष्य थे और आसुरि कपिल-शिष्य थे। अत: पंचशिख को कपिल के काल के उत्तरसमकालीन के रूप में अर्थात् त्रेतायुग के आरंभ में अथवा कृतयुग के अन्त में ही रखा जाना चाहिए। पंचशिख की माता कपिला नामक ब्राह्मणी थी। आचार्य पंचशिख ने एक हजार वर्ष तक यज्ञ किया, वे दीर्घायु थे। आचार्य पंचशिख के दर्शन का परिचय यहाँ महाभारत के शांतिपर्व के आधार पर प्रस्तुत किया जा रहा है। मिथिला में जनकवंशी राजा जनकदेव के समक्ष विभिन्न नास्तिक मतों का निराकरण करते हुए सांख्यशास्त्र को प्रस्तुत किया गया।[१२] आत्मा का न तो नाश होता है और न वह किसी विशेष आकार में ही परिणत होता है। यह जो प्रत्यक्ष दिखायी देने वाला संघात है; यह भी शरीर, इन्द्रिय और मन का समूह मात्र है। यद्यपि यह सब पृथक्-पृथक् हैं तो भी एक दूसरे का आश्रय लेकर कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। प्राणियों के शरीर में उपादान के रूप में आकाश, वायु, अग्नि, जल, और पृथ्वी ये पाँच धातु हैं। ये स्वभाव से ही एकत्र होते और विलग हो जाते हैं। आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन पाँच तत्त्वों के समाहार से ही अनेक प्रकार के शरीरों का निर्माण हुआ है। शरीर में ज्ञान (बुद्धि), ऊष्मा (जठरानल) तथा वायु (प्राण), इनका समुदाय समस्त कर्मों का संग्राहक गण है, क्योंकि इन्हीं से इन्द्रिय, इन्द्रियों के विषय, स्वभाव, चेतना, मन, प्राण, अपान, विकास और धातु प्रकट हुए हैं। श्रोत्र आदि इन्द्रियों में उनके विषयों का विसर्जन (त्याग) करने से सम्पूर्ण तत्त्वों के यथार्थ निश्चय रूप मोक्ष की प्राप्ति होती है। उस तत्त्वनिश्चय को अत्यन्त निर्मल उत्तम ज्ञान और अविनाशी महान् ब्रह्मपाद कहते हैं। इसके विपरीत जिनकी दृष्टि में यह दृश्य प्रपंच अनात्मा सिद्ध हो चुका है, उनकी इसके प्रति न ममता होती है न अहंता, अत: इन्हें दुख नहीं प्राप्त होते हैं। जो लोग मुक्ति के लिए प्रयत्नशील हों उन सबको चाहिए कि सम्पूर्ण कर्मों में अहंता, ममता, आसक्ति और कामना का त्याग करें। जो इनका त्याग किये बिना ही विनीत (शम, दम आदि साधनों में तत्पर) होने का झूठा दावा करते हैं उन्हें अविद्या आदि दु:खदायी क्लेश प्राप्त होते हैं। ज्ञानेन्द्रियों की कार्यप्रणाली इस प्रकार है। एक ज्ञानेन्द्रिय विषय से संयुक्त होकर चित्त के साथ संयुक्त होती है। यहाँ चित्त अन्त:करण के अर्थ में प्रयुक्त है। विषय, ज्ञानेन्द्रिय और चित्त इन तीन के संयोग से विषयज्ञान होता है। अध्यात्म तत्व का चिन्तन करने वाले विद्वान् इस शरीर और इन्द्रियों के संघात को क्षेत्र कहते हैं और मन में जो चेतनसत्ता स्थित है, वही क्षेत्रज्ञ कहलाता है। जिस तरह नदियाँ समुद्र में मिलकर अपनी वैयक्तिकता को त्याग देती हैं उसी प्रकार जीवात्मा परमात्मा में लीन हो जाता है। यही मोक्ष है। जिस प्रकार पक्षी वृक्ष को जल में गिरते देख उसमें आसक्ति छोड़कर वृक्ष का परित्याग करके उड़ जाता है, उसी प्रकार मुक्त पुरुष सुख और दु:ख का त्याग करके सूक्ष्म शरीर से रहित होकर उत्तम गति को प्राप्त होता है। संक्षिप्त 1. एन्सा.— एन्सायक्लोपीडिया आफ इण्डियन फिलासफी भाग-4 2. इ.सां.था. इवोल्युशन आफ सांख्य स्कूल आफ थॉट 3. ओ.डे. सां.सि.- ओरिजिन एण्ड डेवलपमेंट आफ सांख्य सिस्टम आफ थाट 4. भा.द. आ.अ.- भारतीय दर्शन : आलोचन और अनुशीलन 5. शा.प.- महाभारत शांति पर्व 6. सां. का.- सांख्यकारिका 7. सां.द.इ.- सांख्य दर्शन का इतिहास 8. सां.द.ऐ.प.- सांख्य दर्शन की ऐतिहासिक परम्परा 9. सां.प्र.भा.- सांख्यप्रवचन भाष्य 10. सां.सि.- सांख्य सिद्धान्त 11. सां.सू.- सांख्यसूत्र

  1. वही.
  2. आचार्य उ.वी. शास्त्री ने दोनों उल्लेख एक ही पंचशिख का माना है सां. द.इ.
  3. एन्सा. में तत्त्वसमाससूत्र की प्राचीनता को मानते हुए भी इसका रचनाकाल 14 शताब्दी माना गया है। साथ ही इसे कपिल से सम्बन्धित करने को अनुचित कहा गया है।
  4. सांख्यतत्त्वकौमुदी ज्योतिष्मती व्याख्या 72वीं कारिका पर।
  5. सां. द.इ.
  6. शां. प.
  7. वही
  8. सां.द. में उ.वी. शास्त्री संकलित प्रथम सूत्र।
  9. सां. द. ऐ.प.
  10. माठरवृत्ति प्रथम कारिका पर। ऐसा ही प्रसंग 70वीं कारिका पर जयमंगला में।
  11. 70वीं कारिका पर माठरवृत्ति तथा युक्तिदीपिका
  12. शा.प. अध्याय के कुछ श्लोकों का अनुवाद।