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सांख्य दर्शन
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प्रथम परिच्छेद
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{{सांख्य दर्शन}}
==प्राचीनता और परम्परा==
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==आचार्य और सांख्यवाङमय==
[[महाभारत]]<balloon title="महाभारत शांति पर्व, अध्याय 301" style=color:blue>*</balloon> में शान्तिपर्व के अन्तर्गत सृष्टि, उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय और मोक्ष विषयक अधिकांश मत सांख्य ज्ञान व शास्त्र के ही हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि उस काल तक (महाभारत की रचना तक) वह एक सुप्रतिष्ठित, सुव्यवस्थित और लोकप्रिय एकमात्र दर्शन के रूप में स्थापित हो चुका था। एक सुस्थापित दर्शन की ही अधिकाधिक विवेचनाएँ होती हैं, जिसके परिणामस्वरूप व्याख्या-निरूपण-भेद से उसके अलग-अलग भेद दिखाई पड़ने लगते हैं। इसीलिए महाभारत में तत्त्वगणना, स्वरूप वर्णन आदि पर मतों की विविधता दृष्टिगोचर होती है। यदि इस विविधता के प्रति सावधानी न बरती जाय तो कोई भी व्यक्ति प्रैंकलिन एडगर्टन की तरह यही मान लेगा कि महाकाव्य में सांख्य संज्ञा किसी दर्शन विशेष के लिए नहीं वरन मोक्ष हेतु 'ज्ञानमार्ग' मात्र के लिए ही प्रयुक्त हुआ है।<balloon title="एन्सा. पृष्ठ 5 पर उद्धृत" style=color:blue>*</balloon> इस प्रकार की भ्रान्ति से बचने के लिए सांख्य दर्शन की विवेचना से पूर्व 'सांख्य' संज्ञा के अर्ध पर विचार करना अपेक्षित है।
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मानव सभ्यता का भारतीय इतिहास विश्व में प्राचीनतम जीवित इतिहास है। हजारों वर्षों के इस काल में अनेकानेक प्राकृतिक, राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन होते रहे हैं। परिवर्तन के इस कालचक्र में इतिहास का बहुत सा अंश लुप्त हो जाना स्वाभाविक है। [[महाभारत]] में [[सांख्य दर्शन]] का हमेशा ही प्राचीन इतिहास के रूप में कथन हुआ है। इससे एक बात तो स्पष्ट है कि महाभारत के रचनाकाल तक यह दर्शन सुप्रतिष्ठित हो चुका था। तत्त्वगणना और स्वरूप की विभिन्न प्रस्तुतियों के आधार पर कहा जा सकता है कि तब तक सांख्य दर्शन अनेक रूपों में स्थापित हो चुका था और उनका संकलन महाभारत में किया गया। महाभारत ग्रंथ के काल के विषय में अन्य भारतीय ऐतिहासिक तथ्यों की तरह ही मतभेद है। मतभेद मुख्यत: दो वर्गों (पाश्चात्य और भारतीय विद्वद्वर्गों) में माना जा सकता है। भारतीय विद्वदवर्ग भी दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। एक वर्ग पाश्चात्त्य मत का समर्थक और दूसरा विशुद्ध रूप से भारतीय वाङमय के आधार पर मत रखने वाले विद्वानों का।
=='सांख्य' शब्द का अर्थ==
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*पाश्चात्त्य मत के अनुसार महाभारत के मोक्षधर्म पर्व की रचना 200 वर्ष ई.पूर्व से 200 ई. के मध्य हुई<balloon title="एन्सा." style=color:blue>*</balloon>
सांख्य शब्द की निष्पत्ति संख्या शब्द से हुई है। संख्या शब्द 'ख्या' धातु में सम् उपसर्ग लगाकर व्युत्पन्न किया गया है जिसका अर्थ है 'सम्यक् ख्याति'। संसार में प्राणिमात्र दु:ख से निवृत्ति चाहता है। दु:ख क्यों होता है, इसे किस तरह सदा के लिए दूर किया जा सकता है- ये ही मनुष्य के लिए शाश्वत ज्वलन्त प्रश्न हैं। इन प्रश्नों का उत्तर ढूँढ़ना ही ज्ञान प्राप्त करना है। 'कपिल दर्शन' में प्रकृति-पुरुष-विवेक-ख्याति (ज्ञान) 'सत्त्वपुरुषान्यथाख्याति' इस ज्ञान को ही कहा जाता है। यह ज्ञानवर्धक ख्याति ही 'संख्या' में निहित 'ज्ञान' रूप है। अत: संख्या शब्द 'सम्यक् ज्ञान' के अर्ध में भी गृहीत होता है। इस ज्ञान को प्रस्तुत करने या निरूपण करने वाले दर्शन को सांख्य दर्शन कहा जाता है।  
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*डॉ0 राजबलि पाण्डेय के अनुसार महाभारत ग्रन्थ का परिवर्तन ई.पू. 32 से ई.पू. 286 वर्ष की अवधि में तथा कुछ विद्वानों के अनुसार मोक्षधर्म पर्व परिवर्द्धन [[शुंग काल]] (ई.पू. 185 के आसपास) में हुआ<balloon title="प्राचीन भारत पृ. 191, 206" style=color:blue>*</balloon>।
*'सांख्य' शब्द की निष्पत्ति गणनार्थक 'संख्या' से भी मानी जाती है। ऐसा मानने में कोई विसंगति भी नहीं है।
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*डॉ0 आद्या प्रसाद मिश्र ने ए.बी. कीथ के मत (ई.पू. 200 से 200 ई.) की समीक्षा करते हुए अपना मत प्रस्तुत किया कि वर्तमान महाभारत भी 600 वर्ष ई. पू. से बहुत पहले का होना चाहिए<balloon title="सांख्य दर्शन की ऐतिहासिक परम्परा पृ. 23" style=color:blue>*</balloon>। यह ठीक है कि महाभारत ग्रन्थ अपने विकास क्रम में कई व्यक्तियों द्वारा लम्बे समय तक परिवर्द्धित होता हुआ वर्तमान स्थिति को प्राप्त हुआ है। लेकिन कब कितना और कौन सा अंश जोड़ा गया, इसके स्पष्ट प्रमाण के अभाव में भारतीय साक्ष्य को मान्य करते हुए वर्षगणना के बजाय इतना ही कहना पर्याप्त समझते हैं कि महाभारत ग्रन्थ में उपलब्ध सांख्य दर्शन अत्यन्त प्राचीन है और प्राचीन सांख्य दर्शन के विस्तृत परिचय के लिए महाभारत एक प्राचीनतम प्रामाणिक रचना है।  
*डॉ0 आद्याप्रसाद मिश्र लिखते हैं-'ऐसा प्रतीत होता है कि जब तत्त्वों की संख्या निश्चित नहीं हो पाई थी तब सांख्य ने सर्वप्रथम इस दृश्यमान भौतिक जगत की सूक्ष्म मीमांसा का प्रयास किया था जिसके फलस्वरूप उसके मूल में वर्तमान तत्त्वों की संख्या सामान्यत: चौबीस निर्धारित की गई।<balloon title="एन्सा. पृष्ठ 5 पर उद्धृत" style=color:blue>*</balloon>' लेकिन आचार्य 'उदयवीर शास्त्री' गणनार्थक निष्पत्ति को युक्तिसंगत नहीं मानते 'क्योंकि अन्य दर्शनों में भी पदार्थों की नियत गणना करके उनका विवेचन किया गया है। सांख्य पद का मूल ज्ञानार्थक 'संख्या' पद है गणनार्थक नहीं।<balloon title="सां. द.ऐ.प." style=color:blue>*</balloon>'हमारे विचार में गणनार्थक और ज्ञानार्थक- दोनो  रूपों में सांख्य की सार्थकता है। उद्देश्य-प्राप्ति में विविध रूप में 'गणना' के अर्थ में 'सांख्य' को स्वीकार किया जा सकता है। शान्तिपर्व में दोनों ही अर्थ एक साथ स्वीकार किये गये हैं।<balloon title="सां. सि. पृष्ठ 20" style=color:blue>*</balloon>
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==आचार्य-परम्परा==
<poem>संख्यां प्रकुर्वते चैव प्रकृतिं प्रचक्षते।
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*शांति पर्व अध्याय 318 के अनुसार कुछ सांख्याचार्यों के नाम इस प्रकार हैं-
तत्त्वानि च चतुर्विंशत् तेन सांख्या: प्रकीर्तिता:<balloon title="शांति पर्व 306/42-43" style=color:blue>*</balloon>  
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जैगीषव्य, असितदेवल, [[पराशर]], वार्षगण्य, [[भृगु]], पञ्चशिख, [[कपिल]], [[गौतम]], आर्ष्टिषेण, [[गर्ग]], [[नारद]], आसुरि, [[पुलस्त्य]], सनत्कुमार, [[शुक्र]], [[कश्यप]]। इनके अतिरिक्त शांति पर्व में विभिन्न स्थलों पर [[याज्ञवल्क्य]], [[व्यास]], [[वसिष्ठ]] का भी उल्लेख है। युक्तिदीपिका में [[जनक]]-[[वसिष्ठ]] का उल्लेख है। *ईश्वरकृष्णकृत सांख्यकारिका के अनुसार कपिल, आसुरी और पञ्चशिख;
*प्रकृति पुरुष के विवेक-ज्ञान का उपदेश देने, प्रकृति का प्रतिपादन करने तथा तत्त्वों की संख्या चौबीस निर्धारित करने के कारण ये दार्शनिक 'सांख्य' कहे गये हैं।
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*माठरवृत्ति के अनुसार [[भार्गव]], उलूक, [[वाल्मीकि]], हारीत, देवल आदि;
*'संख्या' का अर्थ समझाते हुए शांति पर्व में कहा गया है-
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*युक्तिदीपिका में [[जनक]], [[वसिष्ठ]] के अतिरिक्त हारीत, वाद्वलि, कैरात, पौरिक, ऋषभेश्वर, पञ्चाधिकरण, [[पतञ्जलि]], वार्षगण्य, कौण्डिन्य, मूक आदि नामों का उल्लेख है। *शांतिपर्व तथा सातवें सनातन को भी योगवेत्ता सांख्यविशारद कहा गया है। उपर्युक्त प्राचीन आचार्यों के अतिरिक्त सांख्य सूत्र, तत्त्वसमास व सांख्य कारिकाओं के व्याख्याकार भी सांख्याचार्य कहे जा सकते हैं। अत्यन्त प्राचीन आचार्यों का वर्णन करने से पूर्व सांख्य प्रणेता कपिल के बारे में उल्लेख करना आवश्यक होगा, क्योंकि कपिल एक हैं अथवा एक से अधिक, ऐतिहासिक व्यक्ति हैं या काल्पनिक, इस प्रकार के अनेक मत इनके विषय में प्रचलित हैं।
दोषाणां च गुणानां च प्रमाणं प्रविभागत:
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==सांख्य प्रवर्तक कपिल==
कंचिदर्धममिप्रेत्य सा संख्येत्युपाधार्यताम्॥<balloon title="शांति पर्व 306/42-43" style=color:blue>*</balloon></poem> अर्थात जहाँ किसी विशेष अर्थ को अभीष्ट मानकर उसके दोषों और गुणों का प्रमाणयुक्त विभाजन (गणना) किया जाता है, उसे संख्या समझना चाहिए। स्पष्ट है कि तत्त्व-विभाजन या गणना भी प्रमाणपूर्वक ही होती है। अत: 'सांख्य' को गणनार्थक भी माना जाय तो उसमें ज्ञानार्थक भाव ही प्रधान होता है। निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि 'सांख्य' शब्द में संख्या ज्ञानार्थक और गणनार्थक दोनों ही है। अब प्रश्न उठता है कि [[संस्कृत]] वाङमय में 'सांख्य' शब्द किसी भी प्रकार के मोक्षोन्मुख ज्ञान के लिए प्रयुक्त हुआ है या [[कपिल]] प्रणीत सांख्य दर्शन के लिए प्रयुक्त हुआ है? इसके उत्तर के लिए कतिपय प्रसंगों पर चर्चा अपेक्षित है।
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<poem>विद्यासहायवन्तं आदित्यस्थं समाहितम्।
*श्री पुलिन बिहारी चक्रवर्ती ने [[चरक संहिता]] के दो प्रसंगों को उद्धृत करते हुए उनके अर्थ के सम्बन्ध में अपना निष्कर्ष प्रस्तुत किया। वे उद्धरण हैं-
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कपिलं प्राहुराचार्या: सांख्यनिश्चितनिश्चया:<balloon title="शांति पर्व 339/68" style=color:blue>*</balloon>
<poem>*सांख्यै: संख्यात-संख्येयै: सहासीनं पुनर्वसुम्।
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श्रृणु में त्वमिदं सूक्ष्मं सांख्यानां विदितात्मनाम्।
जगद्वितार्थ पप्रच्छ वह्निवंश: स्वसंशयम्॥
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विहितं यतिभि: सर्वै: कपिलादिभिरीश्वरै:<balloon title="शांति पर्व 301/3" style=color:blue>*</balloon>॥
यथा वा आदित्यप्रकाशकस्तथा सांख्यवचनं प्रकाशमिति
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पंचम: कपिलो नाम सिद्धेश: कालविप्लुतम्।
*अयनं पुनराख्यातमेतद् योगस्ययोगिभि:।
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प्रोवाचाऽऽसुरये सांख्यं तत्त्वग्रामविनिर्णयम्<balloon title="गरुडपुराण 1/18" style=color:blue>*</balloon>॥
संख्यातधर्मै: सांख्यैश्च मुक्तौर्मोक्षस्य चायनम्॥
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श्रेय: किमत्र संसारे दु:खप्राये नृणामिति।
सर्वभावस्वभावज्ञो यथा भवति निस्पृह:।
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प्रष्टुं तं मोक्षधर्मज्ञं कपिलाख्यं महामुनिम्<balloon title="विष्णुपुराण 2/13/54" style=color:blue>*</balloon></poem>  
योगं यथा साधयते सांख्य सम्पद्यते यथा॥</poem>
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*सांख्यप्रणेता या प्रवर्तक कपिल नामक मुनि हैं।
*प्रथम प्रसंग में श्री चक्रवर्ती संख्या को सम्यक-ज्ञान व ज्ञाता के रूप में प्रयुक्त मानते हैं और
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*शांति पर्व में ही 349वें अध्याय में निर्विवाद शब्दों में कहा है कि 'सांख्यस्य वक्ता कपिल: परमर्षि: स उच्चते।'  
*द्वितीय प्रसंग में स्पष्टत: सांख्य दर्शनबोधक। यहाँ यह विचारणीय है कि चरक संहिताकार के समय तक एक व्यवस्थित दर्शन के रूप में कपिलोक्त दर्शन सांख्य के 'प में सुप्रतिष्ठित था और चरक संहिताकार इस तथ्य से परिचित थे। तब प्रथम प्रसंग में 'सांख्य' शब्द के उपयोग के समय एक दर्शन सम्प्रदाय का ध्यान रखते हुए ही उक्त शब्द का उपयोग किया गया होगा। संभव है कपिलप्रोक्त दर्शन मूल में चिकित्सकीय शास्त्र में भी अपनी भूमिका निभाता रहा हो और उस दृष्टि से चिकित्सकीय शास्त्र को भी सांख्य कहा गया हो।<balloon title="ओडे सां/सि." style=color:blue>*</balloon> इससे तो सांख्य दर्शन की व्यापकता का ही संकेत मिलता है<balloon title="ओडे सां/सि." style=color:blue>*</balloon> अत: दोनों प्रसंगों में विद्वान, ज्ञान आदि शब्द 'सांख्य ज्ञान' के रूप में ग्राह्य हो सकता है।
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*प्राचीन वाङमय में प्राय: कपिल का उल्लेख परमर्षि, सिद्ध, मुनि आदि विशेषणों के साथ हुआ है।
*अहिर्बुध्न्यसंहिता के बारहवें अध्याय में कहा गया है-
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*गीता में 'सिद्धानां कपिलो मुनि:' कहकर उन्हें सिद्धों में श्रेष्ठ बताने का प्रयास किया गया।
<poem>सांख्यरूपेण संकल्पो वैष्णव: कपिलादृषे:।
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*[[विष्णु पुराण]]<balloon title="(2।14।9)" style=color:blue>*</balloon>  में कपिल को [[विष्णु]] का अंश कहा गया।
उदितो यादृश: पूर्वं तादृशं श्रृणु मेऽधुना॥18॥
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*[[भागवत पुराण|भागवत]]<balloon title="(1।3।10)" style=color:blue>*</balloon> में उन्हें विष्णु का अवतार  कहा गया।
षष्टिभेदं स्मृतं तन्त्रं सांख्यं नाम महामुने:॥19॥</poem> यहाँ 'सांख्य' शब्द को सम्यक ज्ञान व कापिल दर्शन 'सांख्य' दोनों ही अर्थों में ग्रहण किया जा सकता है। सांख्य रूप में (सम्यक ज्ञान रूप में) पूर्व में कपिल द्वारा संकल्प जिस रूप में प्रस्तुत किया गया है- 'मुझसे सुनो। महामुनि का साठ पदार्थों के विवेचन से युक्त शास्त्र 'सांख्य' नाम से कहा जाता है। 'सांख्यरूपेण' उसको सम्यक ज्ञान व 'सांख्य दर्शन' दोनों ही अर्थों में समझा जा सकता है। यहाँ महाभारत शांतिपर्व का यह कथन कि 'अमूर्त परमात्मा का आकार सांख्य शास्त्र है'- से पर्याप्त साम्य स्मरण हो आता है।
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*इसके अतिरिक्त सांख्य सूत्र व कारिका के भाष्यकारों ने एकमतेन कपिल को सांख्य प्रवर्तक के रूप में ही स्वीकार किया।
*[[श्वेताश्वतरोपनिषद|श्वेताश्वतर उपनिषद]] में प्रयुक्त 'सांख्ययोगाधिगम्यम्<balloon title="श्वेताश्वतरोपनिषद (6/13)" style=color:blue>*</balloon>' की व्याख्या तत्स्थाने न कर शारीरक भाष्य<balloon title="(2/1/3)" style=color:blue>*</balloon> में शंकर ने 'सांख्य' शब्द को कपिलप्रोक्त शास्त्र से अन्यथा व्याख्यायित करने का प्रयास किया। शंकर कहते हैं- 'यत्तु दर्शनमुक्तं तत्कारणं सांख्य- योगाभिपन्नम् इति, वैदिकमेव तत्र ज्ञानम् ध्यानं च सांख्ययोगशब्दाभ्यामभिलप्यते' संभवत: यह स्वीकार कर लेने में कोई विसंगति नहीं होगी कि यहाँ सांख्य पद वैदिक ज्ञान के लिए प्रयुक्त हुआ है। लेकिन किस प्रकार के वैदिक ज्ञान का लक्ष्य किया गया है, यह विचारणीय है। श्वेताश्वतर उपनिषद में जिस दर्शन को प्रस्तुत किया गया है वह 'भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं' के त्रैत का दर्शन है। [[ऋग्वेद]] के 'द्वा सुपर्णा'- मंत्रांश से भी त्रिविध अज तत्त्वों का दर्शन प्राप्त होता ही है। महाभारत में उपलब्ध सांख्य दर्शन भी प्रायश: त्रैतवादी ही है।  
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*स्वनिर्मित कसौटियों के आधार पर कुछ विद्वान भले ही कपिल की ऐतिहासिकता व्यक्त नहीं हैं- ऐसा उल्लेख किसी प्राचीन ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं है। जहाँ तक ब्रह्मसुत, [[अग्नि]] के अवतार, विष्णु के अवतार आदि रूपों में कपिल के उल्लेखों का प्रश्न है- इनसे कपिल की ऐतिहासिकता पर कोई विवाद उत्पन्न नहीं होता। इन उल्लेखों के आधार पर एक से अधिक कपिलों को माना जाने पर भी दो सांख्य प्रवर्तक कपिलों की कोई परम्परा न होने से सांख्य प्रवर्तक कपिल एक ही हैं- ऐसी प्राचीन मान्यता को प्रामाणिक ही कहा जा सकता है।
*डॉ0 आद्याप्रसाद मिश्र ने ठीक ही कहा है- 'त्रैत मौलिक सांख्य की अपनी विशिष्टता थी, इससे स्पष्ट होता है कि मौलिक सांख्य दर्शन के इसी त्रैतवाद की पृष्ठभूमि में श्वेताश्वतर की रचना हुई।<balloon title="सां. द. ऐ. प." style=color:blue>*</balloon>' अत: इस अर्थ में सांख्य शब्द 'वैदिकज्ञान' के अर्थ में ग्रहण किया जाये तब भी निष्कर्ष में इसका लक्ष्यार्थ कपिलोक्त दर्शन ही गृहीत होता है।  
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*सांख्य शास्त्र [[महाभारत]], [[रामायण]], [[भागवत पुराण|भागवत]] तथा [[उपनिषद|उपनिषदों]] से भी प्राचीन है, ऐसा उन ग्रन्थों में उपलब्ध [[सांख्य दर्शन]] से स्पष्ट होता है। महाभारत में सांख्य संबन्धी संवाद पुरातन इतिहास के रूप में उल्लिखित है। इससे सांख्य शास्त्र का हजारों वर्ष पूर्व स्थापित हो जाने का स्पष्ट संकेत मिलता है। परिणामत: यदि सांख्य प्रवर्तक देवहूति-कर्दम-पुत्र कपिल को भी हजारों वर्ष पूर्व का मानें तो अत्युक्ति न होगी।
*[[गीता|भगवद्गीता]] में सांख्य-योग शब्दों का प्रयोग भी विचारणीय है क्योंकि विद्वानों में यहाँ भी कुछ मतभेद है। द्वितीय अध्याय के उन्चालीसवें श्लोक में कहा गया है- 'एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु'
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*भारतीय ऐतिहासिक व्यक्तियों तथा घटनाक्रम के संबन्ध में पाश्चात्त्य विद्वानों की खोज प्रणाली (पुरातत्त्व तथा भाषा वैज्ञानिक) के साथ अतिप्राचीनता का सामञ्जस्य न होने तथा मानव की 'अति प्राचीनता' को भी 4-5 हजार वर्षों के भीतर ही बाँध देती है। दूसरी ओर भारतीय परम्परा में मान्य युग गणना भारतीय सभ्यता व संस्कृति को इससे कहीं अधिक प्राचीन घोषित करती हे। इतने लम्बे अन्तराल में कई भौगोलिक और भाषागत परिवर्तनों का हो जाना सहज है। अत: जब तक आधुनिक कही जाने वाली कसौटियाँ पूर्ण व स्पष्ट न हों, प्राचीन भारतीय साहित्य के साक्ष्य को अप्रामाणिक घोषित करना युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता।
*अणिमा सेनगुप्ता का मत है कि यहाँ यह 'सांख्य' सत्य ज्ञान की प्राप्ति के अतिरिक्त अन्य किसी रूप में व्याख्यायित नहीं किया जा सकता।<balloon title="इ.सा.धा." style=color:blue>*</balloon> जबकि आचार्य उदयवीर शास्त्री ने बड़े विस्तार से इसे कपिलप्रोक्त 'सांख्य' के अर्थ में निरूपित किया। उक्त श्लोक में श्री[[कृष्ण]] कह रहे हैं कि यह सब सांख्य बुद्धि (ज्ञान) कहा है अब योग बुद्धि (ज्ञान) सुनो। यहाँ विचारणीय यह है कि यदि 'सांख्य' शब्द ज्ञानर्थक है, सम्प्रदाय-विशेष नहीं, तव सांख्य 'बुद्धि' कहकर पुनरूक्ति की आवश्यकता क्या थी? बुद्धि शब्द से कथनीय 'ज्ञान' का भाव तो सांख्य के 'ख्याति' में ही जाता है। 'सांख्य' बुद्धि में यह ध्वनित होता है कि 'सांख्य' मानो कोई प्रणाली या मार्ग है, उसकी बुद्धि या 'ज्ञान' की बात कही गई है। वह चिन्तन की प्रणाली या मार्ग गीता में प्रस्तुत में ज्ञान या दर्शन ही होगा। गीता में जिस मुक्त भाव से सांख्य दर्शन के पारिभाषिक शब्दों या अवधारणाओं का प्रयोग किया गया है उससे यही स्पष्ट होता है कि वह 'सांख्य' ज्ञान ही है। अत: सांख्य शब्द को गीता का एक पारिभाषिक शब्द मान लेने पर भी उसका लक्ष्यार्थ कपिल का सांख्य शास्त्र ही निरूपित होता है।
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या तो कपिल का समय अत्यन्त प्राचीन है या फिर रामायण, महाभारत के वर्णनों के आधार पर उन्हें इन युगों से बहुत पूर्व का मानें।
*भगवद्गीता के ही तीसरे अध्याय के तीसरे श्लोक में 'सांख्य' शब्द का प्रयोग हुआ है। कहा गया है-
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*विष्णुपुराण में- कपिल को [[सत युग]] में अवतरित होकर लोककल्याणार्थ उत्कृष्ट ज्ञान का उपदेश दिया- कहकर कपिल के जन्म काल का संकेत किया गया।
<poem>लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
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*अहिर्बुध्न्यसंहिता में लिखा है- [[त्रेता युग]] के प्रांरभ में जब जगत मोहाकुल हो गया तब कुछ लोक कर्ता व्यक्तियों ने जगत को पूर्ववत लाने का प्रयास किया। उन लोककर्ताओं में एक व्यक्ति कपिल था<balloon title="सांख्यदर्शन का इतिहास पृ. 49" style=color:blue>*</balloon>। इस प्रकार कपिल का समय सत्य युग के अन्त में या त्रेतायुग के आदि में स्वीकार किया जा सकता है। ऐसा मानने पर कितने वर्ष की गणना की जाय यह कहना कठिन है। तथापि आचार्य उदयवीर शास्त्री के अनुमानानुसार कर्दम ऋषि भारत में उस समय रहा होगा जब सरस्वती नदी अपनी पूर्ण धारा में प्रवाहित होती थी। सरस्वती नदी के सूख जाने के समय की ऐतिहासिकों ने जो समीप से समीप कल्पना की है वह, अबसे लगभग 25 सहस्र वर्ष पूर्व है।<ref>वही.</ref> कितने पूर्व, यह निर्णय करना कठिन होगा।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्॥ गीता 3।3॥</poem> यहाँ भी दो प्रकार के मार्गों या निष्ठा की चर्चा की गई हैं-  
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परमर्षि कपिल की कृति
#ज्ञानमार्ग
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कपिल के समय की ही तरह कपिल की कृति के बारे में भी आधुनिक विद्वानों में मतभेद और अनिश्चय व्याप्त है। जिनके मत में कपिल की ऐतिहासिकता संदिग्ध है, उनके लिए कपिल की कृति की समस्या ही नहीं है।  
#कर्म-मार्ग। विचारणीय यह है कि जब 'कर्मयोगेन योगिनां' कहा जा सकता है तब 'ज्ञानयोगेन ज्ञानिना' न कहकर 'सांख्यानां' क्यों कहा गया? निश्चय ही 'ज्ञानयोगियों' के 'ज्ञान' के विशेष स्वरूप का उल्लेख अभीष्ट था। वह विशेष ज्ञान कपिलोक्त शास्त्र ही है, यह गीता तथा महाभारत के शान्ति पर्व से स्पष्ट हो जाता है। 'यदेव योगा: पश्यन्ति सांख्यैस्तदनुगम्यते<balloon title="महाभारत शांति पर्व, गीता" style=color:blue>*</balloon>' इसीलिए शान्ति पर्व में [[वसिष्ठ]] की ही तरह गीता में श्रीकृष्ण भी कहते हैं- 'सांख्ययोगौ पृथग्बाला: प्रवदन्ति न पण्डिता:।<balloon title="गीता" style=color:blue>*</balloon>'
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लेकिन जो लोग कपिल के ऐतिहासिक अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। उनके लिए यह एक समस्या है। उपलब्ध प्रमुख सांख्य-ग्रन्थ हैं-
*शांतिपर्व तथा गीता में तो समान वाक्य से एक ही बात कही गई है- 'एकं साख्यं च योगं च य: पश्यति स पश्यति।<balloon title="शान्ति पर्व में 'सपश्यति' के स्थान पर 'स बुद्धिमान' है।" style=color:blue>*</balloon>'
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(1) तत्त्वसमाससूत्र
*गीता महाभारत का ही अंश है। अत: प्रचलित शब्दावली को समान रूप में ही ग्रहण किया जाना उचित है। गीता में प्रयुक्त 'सांख्य' शब्द भी चाहे वह ज्ञानार्थक मात्र क्यों न प्रतीत होता हो, कपिलप्रोक्त शास्त्र के रूप में ग्रहण करना चाहिए।
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(2) पञ्चशिखसूत्र
*महाभारत के शांतिपर्व में प्रयुक्त 'सांख्य' शब्द का लक्ष्यार्थ तो इतना स्पष्ट है कि उस पर कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं। इतना ही उल्लेखनीय है कि कपिल और सांख्य का सम्बन्ध, और सांख्य दर्शन की शब्दावली का पुरातन व्यापक प्रचार-प्रसार इस बात का द्योतक है कि यह एक अत्यन्त युक्तिसंगत दर्शन रहा है। ऐसे दर्शन की ओर विद्वानों का आकृष्ट होना, उस पर विचार करना और अपने विचारों को उक्त दर्शन से समर्थित या संयुक्त बताना बहुत स्वाभाविक है। जिस तरह वेदान्त दर्शन की प्रस्थानत्रयी में गीता का इतना महत्त्व है कि प्राय: सभी आचार्यों ने इस पर भाष्य रचे और अपने मत को गीतानुसार बताने का प्रयास किया। इसी तरह ज्ञान के विभिन्न पक्षों में रुचि रखने वाले विद्वानों ने अपने विचारों को सांख्य रूप ही दे दिया हो तो क्या आश्चर्य? ऐसे विकास की प्रक्रिया में मूल दर्शन के व्याख्या-भेद से अनेक सम्प्रदायों का जन्म भी हो जाना स्वाभाविक है। अपनी रुचि, उद्देश्य और आवश्यकता के अनुसार विद्वान विभिन्न पक्षों में से किसी को गौण, किसी को महत्त्वपूर्ण मानते हैं और तदनुरूप ग्रन्थ रचना भी करते हैं। अत: किसी एक मत को मूल कहकर शेष को अन्यथा घोषित कर देना उचित प्रतीत  नहीं होता। समस्त वैदिक साहित्य [[वेद|वेदों]] की महत्ता, उपयोगिता और आवश्यकतानुसार विभिन्न कालों में प्रस्तुति ही है। कभी कर्म यज्ञ आदि को महत्त्वपूर्ण मानकर तो कभी जीवन्त जिज्ञासा को महत्त्वपूर्ण मानकर वेदों की मूल भावना को प्रस्तुत किया गया। इससे किसी एक पक्ष को अवैदिक कहने का तो कोई औचित्य नहीं। परमर्षि कपिल ने भी वेदों को दार्शनिक ज्ञान को तर्क बुद्धि पर आधारित करके प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया। इसमें तर्कबुद्धि की पहुँच से परे किसी विषय को छोड़ दिया 'प्रतीत' हो तो इतने मात्र से कपिल दर्शन को अवैदिक नहीं कहा जा सकता।
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(3) सांख्यकारिका
==सांख्य दर्शन की वेदमूलकता==
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(4) सांख्यप्रवचन सूत्र या सांख्यसूत्र
*सांख्य दर्शन की वैदिकता पर विचार करने से पूर्व वैदिक का अभिप्राय स्पष्ट करना अभीष्ट है। एक अर्ध वैदिक कहने का तो यह है कि जो दर्शन वेदों में है वही सांख्य दर्शन में भी हो। वेदों में बताये गये मानवादर्श को स्वीकार करके उसे प्राप्त करने के लिए स्वतंत्र रूप से विचार किया गया हो, तो यह भी वैदिक ही कहा जायेगा। अब वेदों में किस प्रकार का दर्शन है, इस विषय में मतभेद तो संभव है लेकिन परस्पर विरोधी मतवैभिन्न्य हो, तो निश्चय ही उनमें से अवैदिक दर्शन की खोज की जा सकती है। वेदों में सृष्टिकर्ता परमात्मा की स्वरूप चर्चा में, जगत जीव के साथ परमात्मा के सम्बन्धों के बारे में मतभेद है। तब भी ये सभी दर्शन वैदिक कहे जा सकते हैं, यदि वे वेदों को अपना दर्शन-मूल स्वीकार करते हों। लेकिन यदि कोई दर्शन परमात्मा की सत्ता को ही अस्वीकार करे तो उसे परमात्मा की सत्ता को न मानने वाले दर्शन के रूप में स्वीकार करके ही किया जाता है। इस मत में कितनी सत्यता या प्रामाणिकता है यह सांख्य दर्शन के स्वरूप को स्पष्ट करने पर स्वत: स्पष्ट हो जावेगा।
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सांख्यकारिका को तो सभी विद्वान् ईश्वरकृष्णकृत मानते हैं। पञ्चशिखसूत्र विभिन्न ग्रन्थों में, विशेषत: योगसूत्रों के व्यासभाष्य में उपलब्ध उदाहरणों का संकलन है। अब शेष रह जाती हैं दो रचनाएँ, जिन्हें कपिलकृत कहा जा सकता है। तत्त्वसमास तथा सांख्यसूत्र के व्याख्याकारों ने अलग-अलग इन्हें कपिल की ही कृति माना है। चूँकि ये रचनाएँ भाष्यों या व्याख्याकार के निर्देशों पर ही निर्भर करना पड़ता है। तत्त्वसमाससूत्र की प्राचीनतम व्याख्या क्रमदीपिका है जिसे आचार्य उदयवीर शास्त्री ने माठर वृत्ति से प्राचीन तथा ईश्वरकृष्णरचित कारिकाओं के पश्चात् माना है। तब तत्त्वसमाससूत्र की रचना और भी प्राचीन समय में मानी जा सकती है। भावागणेश के अनुसार उसने तत्त्वसमास की व्याख्या में 'समास' की पंचशिखकृत व्याख्या का अलम्बन लिया। इससे इतना तो कहा ही जा सकता है कि भावागणेश पंचशिखकृत व्याख्या के अस्तित्व को मानता था। क्रमदीपिका और भावागणेशकृत (तत्त्वसमाससूत्रों की भावागणेशकृत व्याख्या) को क्रमदीपिका के आधार पर लिखे जाने की संभावना को स्वीकार किया। साथ ही वे क्रमदीपिका को पंचशिख की रचना भी नहीं मानते, फिर, एक और संभावना शास्त्री जी ने व्यक्त की कि दोनों का आधार एक अन्य व्याख्या जिसे पंचशिखकृत समझा गया हो- के आधार पर लिखी गई हो। दोनों ही स्थितियों में यह बात स्पष्ट स्वीकार की जा सकती है कि क्रमदीपिका तत्त्वसमास की उपलब्ध प्राचीन व्याख्या है जो पंचशिखकृत नहीं है। साथ ही पंचशिखकृत 'समाससूत्र' व्याख्या भी अस्तित्ववान् थी। यदि महाभारत शांतिपर्व में उल्लिखित पंचशिख और भावागणेश द्वारा संकेतित पंचशिख दो भिन्न व्यक्ति नहीं हैं।<ref>आचार्य उ.वी. शास्त्री ने दोनों उल्लेख एक ही पंचशिख का माना है सां. द.इ.</ref> तो तत्त्वसमाससूत्र को भी महाभारत-रचनाकाल से अत्यन्त प्राचीन मानना होगा। या फिर डॉ0 ए.बी.कीथ की तरह दो पंचशिखों के अस्तित्व को स्वीकार करना होगा। लेकिन इसमें कोई स्पष्ट प्रमाण या परम्परा न होने से तत्त्वसंमास के व्याख्याकार पंचशिख को ही परम्परानुरूप महाभारत में उल्लिखित कपिल के प्रशिष्य के रूप में मानना उचित प्रतीत होता है। ऐसी स्थिति में कपिल को तत्त्वसमाससूत्र का रचयिता मानने की परम्परा के औचित्य को स्वीकार करना गलत नहीं होगा।<ref>एन्सा. में तत्त्वसमाससूत्र की प्राचीनता को मानते हुए भी इसका रचनाकाल 14 शताब्दी माना गया है। साथ ही इसे कपिल से सम्बन्धित करने को अनुचित कहा गया है।</ref>
*महाभारत शान्तिपर्व में कहा गया है कि वेदों में, सांख्य में तथा योग शास्त्र में जो कुछ भी ज्ञान इस लोक में है वह सब सांख्य से ही आगत है। इसे अतिरंजित कथन भी माना जाये तो भी, इतना तो स्पष्ट है कि महाभारत के रचनाकार के अनुसार तब तक वेदों के अतिरिक्त सांख्य शास्त्र और योग शास्त्र भी प्रतिष्ठित हो चुके थे और उनमें विचार साम्य भी है। अत: इससे यह स्वीकार करने में सहायता तो मिलती ही है कि वेद और सांख्य परस्पर विरोधी नहीं हैं।
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'तत्त्वसमाससूत्र' किसी बृहत ग्रन्थ की विषयसूची प्रतीत होता है जिसमें सांख्य दर्शन को 22 सूत्रों में प्रस्तुत किया गया है। अत्यन्त संक्षिप्त होने से ही संभवत: इसे समाससूत्र कहा गया है। इस सूत्ररचना की आवश्यकता के रूप में दो संभावनाएँ हो सकती है। या तो परमर्षि कपिल ने पहले इन सूत्रों की रचना की बाद में इनके विस्तार के रूप में सांख्यसूत्रों को रचा ताकि आख्यायिकाओं और परवाद-खण्डन के माध्यम से सांख्यदर्शन को अधिक सुग्राह्य और तुलनात्मक 'प में प्रस्तुत किया जा सके या फिर पहले बृहत् सूत्रग्रन्थ की रचना हुई हो और फिर उसे संक्षिप्त सूत्रबद्ध किया गया हो। 'समास' शब्द से दूसरे विकल्प की अधिक सार्थकता सिद्ध होती है।
*शान्ति पर्व में ही कपिल-स्यूमरश्मि का संवाद<balloon title="(अध्याय 268-270)" style=color:blue>*</balloon> प्राचीन इतिहास के रूप में [[भीष्म]] ने प्रस्तुत किया। इसमें कपिल को सत्त्वगुण में स्थित ज्ञानवान कहकर परिचित कराया गया। महाभारतकार ने कपिल का सांख्य-प्रवर्तक के रूप में उल्लेख किया, सांख्याचार्यों की सूची में भी एक ही कपिल का उल्लेख किया और 'स्यूमरश्मि-संवाद' में उल्लिखित कपिल का सांख्य-प्रणेता कपिल से पार्थक्य दिखाने का कोई संकेत नहीं दिया, तब यह मानने में कोई अनौचित्य नहीं है कि यह कपिल सांख्य-प्रणेता कपिल ही हैं।<ref>श्री पुलिन बिहारी चक्रवर्ती इस प्रसंग में कपिल को सांख्य-प्रणेता कपिल माने जाने की संभावना को तो स्वीकार करते हैं लेकिन वेदों तथा अन्य स्थानों पर कपिल के उल्लेख तथा सांख्य-प्रणेता कपिल से उनके सम्बन्ध के विषय पर स्पष्ट प्रमाणों के अभाव में इसे प्रामाणिक नहीं मानते। (ओ.डे.सां.सि. पृष्ठ)</ref>
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उपलब्ध सांख्यग्रन्थों में 'सांख्यसूत्र' भी एक ऐसा ग्रन्थ है जिसके रचनाकार और रचनाकाल के विषय में आधुनिक विद्वानों में मतभेद है। पाश्चात्त्य विद्वान् तथा उनके अनुसार विचारशैली वाले भारतीय विद्वान् सांख्यसूत्रों को ईश्वरकृष्णकृत कारिकाओं के बाद की रचना मानते हैं। यद्यपि इस संभावना को स्वीकार किया जाता है कि कुछ सूत्र अत्यन्त प्राचीन रहे हों तथापि वर्तमान रूप में सूत्र अनिरुद्ध या उसके पूर्वसमकालिक व्यक्ति द्वारा ही अर्थात् पद्रहवीं शती में रचित या संकलित हैं। आचार्य उदयवीर शास्त्री, डॉ0 आद्याप्रसाद मिश्र, डॉ0 गजानन शास्त्री मुसलगांवकर आदि इसे कपिलप्रणीत और प्राचीन मानते हैं। सांख्यसूत्रों के सभी भाष्यकार टीकाकार भी इसे कपिलप्रणीत ही मानते हैं। इस विषय में दोनों पक्षों की युक्तियों का परिचय रोचक होगा।
*उपर्युक्त संवाद में स्यूमरश्मि द्वारा कपिल पर वेदों की प्रामाणिकता पर संदेह का आक्षेप लगाने पर कपिल कहते हैं- 'नाहं वेदान् विनिन्दामि<balloon title="शान्ति पर्व. 268।12" style=color:blue>*</balloon>' 
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ईश्वरकृष्णविरचित सांख्यकारिका में 72वीं कारिका में कहा गया ''सप्तत्यां किल येऽर्थास्तेऽर्था: कृत्स्नस्य षष्टितंत्रस्य आख्यायिकाविरहिता: परवादविवर्जिताश्चेति''
*इसी संवाद क्रम में कपिल पुन: कहते हैं 'वेदा: प्रमाणं लोकानां वेदा: पृष्ठत: कृता:<balloon title="शान्ति पर्व अध्याय 268-70" style=color:blue>*</balloon>' फिर वेदों की महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं।<balloon title="शान्ति पर्व अध्याय 268-70" style=color:blue>*</balloon>
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अर्थात् इस सप्तति (सत्तर श्लोकयुक्त) में जो विषय निरूपित हुए हैं वे निश्चित ही समस्त पष्टितन्त्र के विषय में हैं। यहाँ ये आख्यायिका एवं परमतखण्डन को वर्जित करके कहे गये हैं।
<poem>वेदांश्च वेदितव्यं च विदित्वा च यथास्थितिम्।
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अब, उपलब्ध षडध्यायी सूत्रों को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उसके प्रथम तीन अध्यायों में कारिकाओं का कथ्य लगभग पूर्णत: समाहित है। शेष तीन अध्यायों में आख्यायिकाएँ और परमतखण्डन है। ईश्वरकृष्ण की घोषणा ओर उपलब्ध सांख्यसूत्रों को सामने रखकर बड़ी सरलता से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ईश्वरकृष्ण का संकेत इसी ग्रन्थ की ओर होना चाहिए (कम से कम तब तक ऐसा माना जा सकता है कि जब तक आख्यायिका और परवादयुक्त कोई अन्य सांख्यग्रन्थ न मिल जाय) लेकिन इस सरल से लगने वाले निष्कर्ष में एक समस्या है 'षष्टितन्त्र' शब्द की। यह शब्द किसी ग्रन्थ का नाम है या साठ पदार्थों वाले शास्त्र का बोधक? षष्टितंत्र नामक कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है और ईश्वरकृष्ण के संकेत के अनुसार ग्रन्थ वर्तमान में उपलब्ध सांख्यसूत्र है। अत: षष्टितन्त्र और सांख्यसूत्र ये दो नाम एक ही ग्रन्थ के निरूपित हो जायें तब यह कहा जा सकता है कि कपिलप्रणीत षष्टितंत्र सांख्यसूत्र ही है।
एवं वेद विदित्याहुरतोऽन्य वातरेचक:॥
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आचार्य उदयवीर शास्त्री के अनुसार षष्टितंत्र शब्द कपिलप्रणीत ग्रन्थ का नाम हे। अपने मत की पुष्टि में शास्त्री जी ने सां. 2.5. द्वितीय अध्याय में कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये हैं जिनमें ''षष्टितंत्र'' शब्द का प्रयोग हुआ है।  
सर्वे विदुर्वेदविदो वेदे सर्वं प्रतिष्ठितम्।
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1. कल्पसूत्र में महावीर स्वामी को ''सट्ठितन्तविशारए'' (षष्टितन्त्रविशारद:) कहा गया है। इस वाक्य की व्याख्या में यशोविजय लिखता है- षष्टितंत्रं कपिलशास्त्रम्, तत्र विशारद:
वेदे हि निष्ठा सर्वस्य यद् यदस्ति च नास्ति च॥</poem>
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2. अहिर्बुध्न्यसंहिता- षष्टिभेदं स्मृतं तंत्रं सांख्यं नाम महामुने:।
*उक्त विचारयुक्त कपिल को अवैदिक कहना कदापि उचित प्रतीत नहीं होता। फिर, कपिल प्रणीत सूत्र द्वारा [[वेद]] के स्वत:प्रामाण्य को स्वीकार किया गया है- 'निजशक्यभिव्यक्ते स्वत:प्रमाण्यम्<balloon title="(5/51)" style=color:blue>*</balloon>'  इस सूत्र में अनिरुद्ध, विज्ञानभिक्षु आदि भाष्यकारों ने स्वत:प्रामाण्य को स्पष्ट किया है। *सांख्यकारिका में 'आप्तश्रुतिराप्तवचनम्<balloon title="(कारिका 5)" style=color:blue>*</balloon>'  कहकर वेद प्रामाण्य को स्वीकार किया गया है। 5वीं कारिका के भाष्य में वाचस्पति मिश्र कहते हैं- 'तच्च स्वत:प्रामाण्यम्, अपौरुषेयवेदवाक्यजनितत्वेन सकलदोषाशंकाविनिर्मुत्वेन युक्तं भवति।' इतना ही नहीं, 'वेदमूलस्मृतीतिहासपुराणवाक्यजनितमपि ज्ञानं युक्तं भवति' कहा है।
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3. वेदान्तसूत्र पर आचार्य भास्करभाष्य- तत: कपिलप्रणीत- षष्टितन्त्राख्य...
*वेदाश्रित स्मृति, इतिहास, [[पुराण]] वाक्य से उत्पन्न ज्ञान भी जब निर्दोष माना जाता है, तब [[वेद]] की तो बात ही क्या? इसी कारिका की वृत्ति में माठर कहते है- 'अत: ब्रह्मादय: आचार्या:, श्रुतिर्वेदस्तदेतदुभयमाप्तवचनम्।' इस तरह सांख्य शास्त्र के ग्रन्थों में वेदों का स्वत: प्रामाण्य स्वीकार करके उसे भी 'प्रमाण' रूप में स्वीकार करते हैं। तब सांख्य शास्त्र को अवैदिक या वेद विरुद्ध कहना कथमपि समीचीन नहीं जान पड़ता।
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4. शारीरक भाष्य (2/9/9) – स्मृतिश्च तन्त्राख्या परमर्षिप्रणीता
*सांख्य दर्शन में प्रचलित पारिभाषिक शब्दावली भी इसे वैदिक निरूपित करने में एक महत्त्वपूर्ण साक्ष्य है। 'पुरुष' शब्द का उपयोग मनुष्य, आत्मा, चेतना आदि के अर्ध में वैदिक वाङमय में अनेक स्थलों पर उपलब्ध है। लेकिन 'पुरुष' शब्द का दर्शन शास्त्रीय प्रयोग करते ही जिस दर्शन का स्मरण तत्काल हो उठता है वह सांख्य दर्शन है। इसी तरह अव्यक्त, महत, तन्मात्र, त्रिगुण, सत्त्व, रजस्, तमस आदि शब्द भी सांख्य दर्शन में दर्शन की संरचना इन्हीं शब्दों में प्रस्तुत किया गया है। अत: चाहे वैदिक साहित्य से ये शब्द सांख्य में आए हों या सांख्य परम्परा से इनमें गए हों, इतना निष्कर्ष तो निकाला ही जा सकता है कि सांख्य दर्शन वैदिक है। षड्दर्शन में सांख्य दर्शन को रखना और भारतीय दर्शन की सुदीर्ध परम्परा में इसे आस्तिक दर्शन मानना भी सांख्य की वैदिकता का स्पष्ट उद्घोष ही है।
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5. वाक्यपदीय के व्याख्याकार ऋषभदेव ने लिखा है- षष्टितन्त्रग्रन्थश्चायम्
[[Category:कोश]][[Category:दर्शन]]
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6. जयमंगला- बहुधा कृतं तन्त्रं षष्टितन्त्राख्यं षष्टिखण्डं कृतमिति
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7. विस्तरत्वात् षष्टितन्त्रस्य संक्षिप्तसूचिसत्त्वानुग्रहार्थसप्तातिकारम्भ:
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उपर्युक्त उद्धरणों में क्रमांक 5 में तो षष्टितंत्र ग्रंथनाम प्रतीत होता है, यद्यपि षष्टितंत्र ग्रन्थ का अर्थ षष्टितंत्र का ग्रन्थ अर्थात् साठ पदार्थों वाले सिद्धान्त अथवा ज्ञान का ग्रन्थ – ऐसा भी किया जा सकता है। क्रमांक 6 में भी यदि सिद्धान्त या ज्ञान का संक्षिप्त ऐसा प्रचलित अर्थ न लिया जाय तो 'षष्टितंत्र' ग्रन्थ का- इस अर्थ में ग्रहण किया जा सकता है। उद्धरण क्रमांक 3 में भी 'षष्टितंत्र' नामक कपिलप्रणीत अर्थ लिया जा सकता है। लेकिन उपर्युक्त सभी उद्धरणों में 'तंत्र' शब्द ज्ञान या सिद्धान्त के अर्थ में लेने का आग्रह हो तो भी अर्थसंगति को उचित कहा जा सकता है। यद्यपि क्रमांक 3.4. स्पष्टत: ग्रन्थ नाम का संकेत देते हैं।
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अत: आचार्य उदयवीर शास्त्री के मत को स्वीकार करने में अनौचित्य नहीं है। तथापि ऐसी 'बाध्यता' का संकेत उद्धरणों में नहीं है। दूसरी ओर श्री रामशंकर भट्टाचार्य का विचार है कि षष्टितंत्र शब्द किसी ग्रन्थनाम का ज्ञापक शब्द नहीं बल्कि सांख्यशास्त्रपरक है जिसमें पदार्थों को साठ भागों में विभक्त कर विचार किया गया था।<ref>सांख्यतत्त्वकौमुदी ज्योतिष्मती व्याख्या 72वीं कारिका पर।</ref> इसमें उनकी युक्ति यह है कि जब पूर्वकारिका (69) में कारिकाकार ने कहा कि उन्होंन 'एतत्' (अर्थात् पुरुषार्थ ज्ञान जो परमर्षिभाषित था और जिसको मुनि ने आसुरी को दिया था) को-जो शिष्यपरम्परागत है- संक्षिप्त किया है, तब पुन: इस कथन का क्या स्वारस्य होता है। कि प्रस्तुत सांख्यकारिका नामक ग्रन्थ में जितने प्रतिपाद्य विषय हैं, वे 'कृत्स्नस्य षष्टितन्त्रनामग्रन्थविशेषस्य' है? जिस स्वारस्य की यहां जिज्ञासा की गई वह तो है। कारिका में कहा गया है कि ''यह संक्षिप्त आख्यायिका और परवादविवर्जित है। अब या तो कपिलासुरीपञ्चशिखपरम्परा में आख्यायिका और परमतखण्डन की प्रचुरता का कोई प्रमाण हो या फिर षष्टितंत्र का कोई ग्रन्थ हो जिसमें ये निहित हों। सांख्यशास्त्र के उपलब्ध ग्रन्थों में ऐसा एक ही ग्रन्थ है 'सांख्यसूत्र'। अत: 'कृत्स्नस्य' का स्वारस्य यह दर्शाने में है कि षष्टितंत्र में प्रस्तुत दर्शन का संक्षिप्त किया गया है कि पूरे ग्रन्थ का (क्योंकि आख्यायिका-परवाद छोड़ दिया गया)।
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षष्टितंत्र सांख्यविद्यापरक शब्द हो या सांख्यग्रन्थनामपरक हो, इस बात के प्रबल प्रमाण हैं कि यह तन्त्र कपिल प्रोक्त, कृत या प्रणीत है। पञ्चशिख का प्रसिद्ध सूत्र ''आदिविद्वान निमार्णचित्तमधिष्ठाय कारुण्याद् भगवान् परमर्षिरासुरो जिज्ञासमानाय तंत्रं प्रोवाच'' युक्तिदीपिका के आरंभ में 14वें श्लोक में ''पारमर्धस्य तंत्र'' अनुयोगद्वारसूत्र  41 में कपिल-सट्ठियन्तं अहिर्बुध्न्यसंहिता के पूर्वोक्त उद्धरण आदि पर्याप्त प्रमाण हैं। षष्टितंत्र लिखित हो या मौखिक, कपिलप्रणीत तो है ही। अत: यदि ऐसा कोई संकलन उपलब्ध हो जिसे षष्टितन्त्र कहा जाता हो और जिसमें आख्यायिका एवं परवाद हों तो उसे कपिलप्रणीत कहने में कोई विसंगति नहीं है। ऐसा ग्रन्थ है सांख्यसूत्र। इस ग्रन्थ को अनिरुद्ध और विज्ञानभिक्षु कपिलसूत्र ही मानते हैं तथा आधुनिक विद्वानों में आचार्य उदयवीर शास्त्री, डॉ0 आद्याप्रसाद मिश्र तथा डॉ0 गजानन शास्त्री मुसलगांवकर आदि भी कपिलरचित मानते हैं। जबकि श्रीपुलिन बिहारी चक्रवर्ती, मैक्समूलर, लार्सन, कीथ आदि इसे एक अर्वाचीन कृति मानते हैं। सांख्यसूत्रों को अर्वाचीन घोषित करने के पीछे निम्नलिखित तर्क प्राय: दिए जाते हैं।
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1. 15वीं शती से पूर्व सूत्रों पर कोई भाष्य उपलब्ध नहीं है। वाचस्पति मिश्र, जिन्होंने अन्य दर्शन सम्प्रदाय के सूत्रग्रन्थों पर भाष्य लिखा है- ने भी कारिका पर भाष्य लिखा है। यदि सूत्र कपिलप्रणीत होते तो वाचस्पति मिश्र उस पर ही भाष्य लिखते।
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2. दर्शन के प्राचीन ग्रन्थों में सांख्यकारिका के उद्धरण तो मिलते हैं। लेकिन सूत्रों को किसी में उद्धृत नहीं किया गया।
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3. सूत्र में न्याय-वैशेषिक आदि का खण्डन है जबकि कपिल इनसे अन्यन्त प्राचीन माने जाते हैं।
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4. 'सूत्र' में अनेक सूत्र ब्रह्मसूत्र, योगसूत्र, सांख्यकारिका आदि को उद्धृत किया गया है।
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5. कुछ सूत्र इतने विस्तृत हैं कि वे सूत्र न होकर कारिका ही प्रतीत होते हैं। संभवत: वे कारिका से यथावत् लिए गए हैं।
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ध्यान से देखने पर उपर्युक्त सभी युक्तियाँ तर्कसंगत न होकर केवल मान्यता मात्र प्रतीत होती हैं। किसी ग्रन्थ पर भाष्य का उपलब्ध होना उस ग्रन्थ की भाष्यकार के समय से पूर्ववर्तिता का प्रमाण तो हो सकता है लेकिन भाष्य का न होना ग्रन्थ के न होने में प्रमाण नहीं होता। उलटे यह ऐतिहासिक शोध का विषय होना चाहिए कि उक्त ग्रन्थ पर भाष्य क्यों नहीं लिखा गया होगा? भारतीय इतिहास के अवलोकन से ज्ञात होता है कि बौद्ध दर्शन की उत्पत्ति और विकास की अवस्था का वैदिक दर्शनों के प्रचार-प्रसार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। तब तक उस सांख्यदर्शन का जिसे महाभारत में सुप्रतिष्ठित माना गया था, अध्ययन-अध्यापन नगण्य हो चला था। इस अवस्था में सांख्यसूत्रों पर भाष्य की आवश्यकता अनुभूत होना आश्चर्यजनक नहीं कहा जा सकता। यह भी संभव है कि ईश्वरकृष्ण द्वारा कारिकाओं की रचना के बाद सूत्रों की अपेक्षा सुग्राह्य होने से कारिकाएँ अधिक प्रचलित हो गई हों। फिर, ईश्वर या परमात्मा जैसे शब्दों के न होने से, दुखनिवृत्ति प्रमुख लक्ष्य होने से, बौद्धकाल और उसके बाद भारत में राजनैतिक उथल-पुथल विदेशी आक्रमण आदि से भग्नशान्ति समाज में पलायनवादी प्रवृत्ति की उत्पत्ति और प्रसार ने पलायनवादी दार्शनिक विचारों को प्रश्रय दिया हो। परिणामस्वरूप वेदान्त की विशिष्ट धारा का खण्डन अथवा मण्डन ही वैचारिक केन्द्र बन गए हों। ऐसी अवस्था में संसार को तुच्छ मानने और मनुष्य के अस्तित्व के बजाय परमात्मा पर पूर्णत: आश्रित रहने वाले दर्शनों का ही प्रचार-प्रसार का होना ह्रासोन्मुख समाज में स्वाभाविक है। सांख्यदर्शन में पुरुषबहुत्व और परमात्मा से उसकी पृथक् सत्तामान्य है। ऐसा दर्शन पलायनवादी परिस्थितियों में लुप्त होने लगा हो तो क्या आश्चर्य? संभवत: इसीलिए गत दो हजार वर्षों में बौद्ध और वेदान्त पर जितना लिखा गया उसकी तुलना में शुद्ध तर्कशास्त्रीय ग्रन्थों के अतिरिक्त शेष दर्शन सम्प्रदायों पर नगण्य लेख हुआ। इस अवधि में सांख्यकारिका के भी अंगुलियों पर गिने जाने योग्य भाष्य ही लिखे गये। ऐसे में संभव है सांख्यसूत्र अथवा उन पर भाष्य सर्वथा अप्रचलित हो गए हों। और भी कारण ढूँढ़े जा सकते हैं सारांश यह कि भाष्यों का उपलब्ध न होना किसी अवधि में किसी ग्रन्थ के अप्रचलन को तो निगमित कर सकता है, उसके अनस्तित्व को सिद्ध नहीं करता। फिर, अनिरुद्ध, महादेव वेदान्ती, विज्ञानभिक्षु आदि को सांख्यसूत्र के कपिलप्रणीत होने पर संदेह नहीं हुआ। हमारी जानकारी में पाश्चात्त्य प्राच्यविद्याविशारदों की स्थापनाओं से पूर्व तक की भारतीय परम्परा सांख्यसूत्रों को कपिल-प्रणीत ही मानती रही है। ऐसा उल्लेख नहीं है जिसमें कहा गया हो कि ये सूत्र कपिलप्रणीत नहीं हैं।
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यही समाधान सांख्यसूत्रों के उद्धरणों की कथित अनुपलब्धि के विषय में भी हो सकता है। यह कहना ही गलत है कि प्राचीन ग्रन्थों में सांख्यसूत्रों के उद्धरण नहीं मिलते। आचार्य उदयवीर शास्त्री ने बड़े ही यत्न से कई उद्धरण प्राचीन तथा अर्वाचीन ग्रन्थों से ढूँढ़ कर प्रस्तुत किये हैं।<ref>सां. द.इ.</ref>
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न्याय-वैशेषिक आदि के खण्डन का होना, ब्रह्मसूत्र आदि का उद्धृत होना सांख्यसूत्र के अर्वाचीन होने का प्रमाण नहीं है। इनके आधार पर इन्हें मूलग्रन्थ में प्रक्षिप्त ही माना जाना चाहिए। कारिकावत् सूत्रों के बारे में भी उल्टा निष्कर्ष निकाला गया है। कारिका को प्राचीन मान लेने के कारण ही सूत्र को कारिका के आधार पर रचित-माना जा सकता है। अन्यथा कारिकाएँ सूत्र के आधार पर रची गई- ऐसा क्यों न माना जाय जबकि कपिलसूत्र को प्राचीन मानने की सुदीर्ध परम्परा है।  
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इस प्रकार सांख्य-सूत्रों को कारिका से अर्वाचीन मानना केवल 'मान्यता' है, प्रामाणिक नहीं। अत: जब तक ऐसा स्पष्ट प्रमाण कि उपलब्ध सांख्यसूत्र कपिलप्रणीत नही है, उपलब्ध न हो, प्रामाणिक परम्परा को अस्वीकार करने का कोई औचित्य नहीं है।  
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सांख्यसूत्रपरिचय
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सांख्यसूत्र का प्रचलित नाम 'सांख्यप्रवचनसूत्र' है। सूत्र सर्वप्रथम अनिरुद्ध 'वृत्ति' के रूप में प्राप्त है। स्वतंत्र रूप से सूत्रग्रंथ उपलब्ध न होने से सूत्रसंख्या, अधिकरण, अध्याय-विभाग आदि के बारे में वृत्तिकार अनिरुद्ध तथा तदनुरूप कृत भाष्यकार विज्ञानभिक्षु की कृति पर ही निर्भर करना पड़ता है। सांख्यप्रवचनसूत्र 6 अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय में 164 सूत्र हैं। इसे अनिरुद्ध विषयाध्याय कहते हैं। इस अध्याय में सांख्य की विषयवस्तु का परिचय दिया गया है। सूत्र 1-6 में दु:खत्रय, उनसे निवृत्ति के दृष्ट उपायों की अपर्याप्तता आदि का उल्लेख है। सूत्र 8-60 में बन्ध की समस्या पर विचार किया गया। पुरुष के असंग होने से उसका बन्धन नहीं कहा जा सकता। कर्म, भोग आदि बुद्धि के त्रिगुणात्मक विकारों के धर्म होने से इन्हें भी बन्ध का कारण नहीं कहा जा सकता। बन्ध का कारण प्रकृति, पुरुष में भेदविस्मृति का अविवेक है। शेष सूत्रों में प्रकृति, विकृति, आदि का  नामोल्लेख, प्रमाणविचार, प्रत्यक्ष से ईश्वर की असिद्धि, सत्कार्यवाद- निरूपण आदि की चर्चा है। प्रकृति और पुरुष की अस्तित्वसिद्धि में हेतु की भी चर्चा है। द्वितीय अध्याय में मात्र 47 सूत्र हैं। इस अध्याय को प्रधानकार्याध्याय कहा जाता है। इन सूत्रों में प्रधान के कार्य महत्, अहंकार, इन्द्रियादि की चर्चा की गई। करणों की वृत्तियों का उल्लेख भी किया गया। तृतीय अध्याय में 84 सूत्र हैं। अनिरुद्ध इस अध्याय को वैराग्याध्याय कहते हैं। इस अध्याय में प्रकृति के स्थूल कार्य, सूक्ष्म-स्थूलादि शरीर, आत्मा की विभिन्न योनियों में गति तथा पर-अपर वैराग्य की चर्चा है। चतुर्थ अध्याय में 32 सूत्र हैं जिनमें आख्यायिकाओं के द्वारा विवेकज्ञान के साधनों को प्रदर्शित किया गया है। 130 सूत्रों के पांचवें अध्याय में परमतखण्डन है। यहाँ विभिन्न कारणों से ईश्वर के कर्मफलदातृत्व का निषेध किया गया है। साथ ही वेदों की (शब्दराशिरूप में) अनित्यता का, सत्ख्याति, असत्ख्याति, अन्यथाख्याति, अनिर्वचनीयख्याति आदि का खण्डन करते हुए सदसत्ख्याति को स्थापित किया गया। छठे अध्याय में 61 सूत्र हैं। इन सूत्रों में सांख्यमत जिसे पूर्वाध्यायों में विस्तार से प्रस्तुत किया गया हे- को संक्षेप में उपसंहृय किया गया।
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उपलब्ध सांख्यप्रवचनसूत्र के अध्यायों में विषयप्रस्तुति का क्रम ईश्वरकृष्ण की 62वीं कारिका के अनुरूप ही है। सांख्यसिद्धान्त की पूर्ण चर्चा तो प्रथम तीन अध्यायों में ही निहित है। अत: सांख्यकारिका में ईश्वरकृष्ण ने आख्यायिका और परमतखण्डन को छोड़ दिया है।
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आचार्य उदयवीर शात्री ने सूत्रों की अन्तरंग परीक्षा करके सांख्यसूत्र में प्रक्षेपों को संकलित किया। उनके अनुसार प्रथम अध्याय में 19वें सूत्र के बाद विषयवस्तु अथवा कथ्य की संगति 55वें सूत्र से है। 20-54 सूत्रों में अप्रासंगिक विषयान्तर होने से शास्त्री जी इन्हें प्रक्षिप्त मानते हैं। इन सूत्रों में ''न वयं षट्पदार्थवादिनो वैशेषिकादिवत्'' (1/25), न विज्ञानमात्रं बाह्यप्रतीते: (1/42), शून्यं तत्त्वं भावो (1/44) तथा 'पाटलिपुत्र' आदि को देखकर न केवल इसकी अप्रासंगिकता का बोध होता है अपितु कपिल के बहुत बाद में स्थापित मतों के खण्डन की उपस्थिति भी आश्चर्यजनक प्रतीत होती है। अनिरुद्ध और विज्ञानभिक्षु इन सूत्रों में बौद्धमत का खण्डन देखते हैं। उदयवीर शास्त्री का मत है कि इन सूत्रों का प्रक्षेप शंकराचार्य के प्रादुर्भाव के उपरांत हुआ होगा। इसी तरह पाँचवें अध्याय में मुक्ति के स्वरूप की चर्चा में सूत्र 84 से 115 तक 32 सूत्रों को शास्त्री जी ने प्रक्षिप्त घोषित किया है, जो कि उचित प्रतीत होता है।
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सांख्यसूत्र और कारिका के दर्शन में सिद्धान्तरूप में विरोध या भेद नहीं है तथापि कतिपय साधारण भेद अवश्य प्रतीत होते हैं। पुरुष की अस्तित्वसिद्धि में सांख्यसूत्र में हेतु दो समूहो में या वर्गों में है। प्रथम वर्ग सूत्र 1/140-42 में और द्वितीय वर्ग सूत्र 1/143-44 में। संघातपरार्थत्वात्, त्रिगुणादिविपर्ययात्, अधिष्ठानाच्चेति 1/140-42) प्रथम समूह है। अनिरुद्ध विज्ञानभिक्षु सहित प्राय: टीकाकारों ने 'अधिष्ठानात् च इति' के भाष्य में हेतु समाप्ति को स्वीकार किया है। भोक्तृभावत्, कैवल्थार्थप्रवृत्तेश्च, ये 2 सूत्र पुन: हेतु निर्देश करते हैं। जबकि सांख्यकारिका में पाँचों हेतु एक साथ दिए गए हैं। एक अन्य भेद प्रमाणविषयक है। सूत्र में प्रत्यक्ष प्रमाण है जबकि कारिका में दृष्ट व्याख्याकारों ने दृष्ट को प्रत्यक्ष माना है। जिससे निश्चयात्मकता का भाव स्पष्ट होता है जबकि सूत्रगत प्रमा की परिभाषा को ध्यान में रखा जाये जहाँ 'असन्निकृष्टार्थपरिच्छिती प्रमा' कहा गया है तो प्रत्यक्ष में ही नहीं अनुमान और शब्द प्रमाणजन्य प्रमा भी निश्चयात्मक निरूपित होती है। सूत्र में अनुमान प्रमाण के भेदों का उल्लेख नहीं है किन्तु कारिका में 'त्रिविधमनुमानम्' स्वीकार किया गया है। कारिकाओं में त्रिगुण साम्य के रूप में प्रकृति को कहीं परिभाषित नहीं किया गया। इस विपरीत सूत्र में 1/61 में सत्त्वरजस्तमस् की साम्यावस्था का स्पष्ट उल्लेख है। सांख्यकारिकाएँ चूँकि संक्षिपत प्रस्तुति है इसलिए सूत्रों से अन्तर होना स्वाभाविक है।
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आसुरि
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आसुरि कपिल मुनि के शिष्य और सांख्याचार्य पचंशिख के गुरु थे। महाभारत के शांतिपर्व में पंचशिख को आसुरि का प्रथम शिष्य कहा गया है।<ref>शां. प.</ref> यहाँ आसुरि के बारे में कहा गया है कि उन्होंने तपोबल से दिव्य दृष्टि प्राप्त कर ली थी। ज्ञानसिद्धि के द्वारा उन्होंने क्षेत्र-क्षेत्रज्ञभेद को समझ लिया था। जो एकमात्र अक्षर और अविनाशी ब्रह्म नाना रूपों में दिखाई देता है उसका ज्ञान उन्होंने प्रतिपादित किया।<ref>वही</ref> शां.प. के ही 318वे अध्याय में उल्लिखित सांख्याचार्यों के नामों की सूची में भी आसुरि का नामोल्लेख है। पञ्चशिखसूत्र में भी 'परमर्षि ने जिज्ञासु आसुरि को ज्ञान दिया' कहकर आसुरि के कपिलशिष्य होने का स्पष्ट संकेत दिया।<ref>सां.द. में उ.वी. शास्त्री संकलित प्रथम सूत्र।</ref> ईश्वरकृष्णकृत 70वीं कारिका में ''एतत् पवित्रमग्यं मुनिरासुरये प्रददौ। आसुरिरपि पञ्चशिखाय तेन च बहुधा कृतं तन्त्रम्'' कहकर कपिल के शिष्य और पञ्चशिख के गुरु रूप में आसुरि का उल्लेख किया। सांख्यकारिका के भाष्यकारों ने भी इस गुरुशिष्य परम्परा को यथावत् स्वीकार किया। इतनी स्पष्ट परम्परा के आधार पर आसुरि की ऐतिहासिकता सिद्ध है। कतिपय पाश्चात्त्य विद्वानों के द्वारा आसुरि के अनैतिहासिक होने के अप्रामाणिक आग्रह का आद्याप्रसाद मिश्र ने निराकरण किया है।<ref>सां. द. ऐ.प.</ref> माठरवृत्ति के आरंभ में प्रस्तुत प्रसंग के अनुसार आसुरि गृहस्थ थे। फिर वे दु:खत्रय के अभिघात के कारण गृहस्थ आश्रम से विरत हो कपिल मुनि के शिष्य हो गये।<ref>माठरवृत्ति प्रथम कारिका पर। ऐसा ही प्रसंग 70वीं कारिका पर जयमंगला में।</ref>
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आसुरि की कोई कृति उपलब्ध नहीं है। हरिभद्रसूरिकृत षड्दर्शनसमुच्चय में आसुरि के नाम से उद्धृत एक श्लोक में पुरुष के भोग के विषय में उनका मत प्राप्त होता है। तदनुसार जिस प्रकर स्वच्छ जल में चन्द्र प्रतिबिम्बित होता है उसी प्रकार असंग पुरुष में बुद्धि का प्रतिबिम्बित होना उसका भोग कहलाता है। सांख्यसूत्र में 'चिदवसानो भोग:' कहकर ऐसा ही मत प्रस्तुत किया गया है।
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पंचशिख
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ईश्वरकृष्ण ने सांख्यकारिका में कहा है ''एतत् पवित्रमग्यम् मुनिरासुरयेऽनुकम्पया प्रददौ। आसुरिरपि पंचशिखाय तेन च बहुधा कृतं तन्त्रम्''॥ आसुरि ने षष्टितन्त्र का ज्ञान पंचशिख को दिया और पंचशिख ने उसे बहुविध, व्यापक या विस्तत किया। माठरवृत्ति के अनुसार ''पंचशिखेन मुनिना... षष्टितंत्राख्य षष्टिखण्डं कृतमिति। तत्रैव हि ''षष्टिरर्था व्याख्याता:''। युक्तिदीपिका के अनुसार ''बहुभ्यो जनकवसिष्ठादिभ्य: समाख्यातम्<ref>70वीं कारिका पर माठरवृत्ति तथा युक्तिदीपिका</ref> साथ ही भावागणेश के अनुसार उनके तत्त्वसमाससूत्र का तत्त्वयाथार्थ्यदीपन पंचशिख की व्याख्या पर आधृत हे। इस तरह सांख्यशास्त्रीय परम्परा में सांख्याचार्य के रूप में तो पंचशिख विख्यात है ही, महाभारत में भी ऊहापोहप्रवीण, पंचरात्रविशारद, पंचज्ञ, अन्नादि पंच कोशों के शिखा स्वरूप ब्रह्म के ज्ञाता के रूप में पंचशिख का उल्लेख किया गया। शांतिपर्व में ही पंचशिख संवादों को प्राचीन इतिहास के रूप में स्मरण किया गया। इसका अर्थ है कि पंचशिख का समय 800 वर्ष ई.पू. के बहुत पहले, संभवत: हजारों वर्ष पूर्व रहा होगा। पंचशिख आसुरि के प्रथम शिष्य थे और आसुरि कपिल-शिष्य थे। अत: पंचशिख को कपिल के काल के उत्तरसमकालीन के रूप में अर्थात् त्रेतायुग के आरंभ में अथवा कृतयुग के अन्त में ही रखा जाना चाहिए। पंचशिख की माता कपिला नामक ब्राह्मणी थी। आचार्य पंचशिख ने एक हजार वर्ष तक यज्ञ किया, वे दीर्घायु थे। आचार्य पंचशिख के दर्शन का परिचय यहाँ महाभारत के शांतिपर्व के आधार पर प्रस्तुत किया जा रहा है।
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मिथिला में जनकवंशी राजा जनकदेव के समक्ष विभिन्न नास्तिक मतों का निराकरण करते हुए सांख्यशास्त्र को प्रस्तुत किया गया।<ref>शा.प. अध्याय के कुछ श्लोकों का अनुवाद।</ref>
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आत्मा का न तो नाश होता है और न वह किसी विशेष आकार में ही परिणत होता है। यह जो प्रत्यक्ष दिखायी देने वाला संघात है; यह भी शरीर, इन्द्रिय और मन का समूह मात्र है। यद्यपि यह सब पृथक्-पृथक् हैं तो भी एक दूसरे का आश्रय लेकर कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। प्राणियों के शरीर में उपादान के रूप में आकाश, वायु, अग्नि, जल, और पृथ्वी ये पाँच धातु हैं। ये स्वभाव से ही एकत्र होते और विलग हो जाते हैं। आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन पाँच तत्त्वों के समाहार से ही अनेक प्रकार के शरीरों का निर्माण हुआ है। शरीर में ज्ञान (बुद्धि), ऊष्मा (जठरानल) तथा वायु (प्राण), इनका समुदाय समस्त कर्मों का संग्राहक गण है, क्योंकि इन्हीं से इन्द्रिय, इन्द्रियों के विषय, स्वभाव, चेतना, मन, प्राण, अपान, विकास और धातु प्रकट हुए हैं।
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श्रोत्र आदि इन्द्रियों में उनके विषयों का विसर्जन (त्याग) करने से सम्पूर्ण तत्त्वों के यथार्थ निश्चय रूप मोक्ष की प्राप्ति होती है। उस तत्त्वनिश्चय को अत्यन्त निर्मल उत्तम ज्ञान और अविनाशी महान् ब्रह्मपाद कहते हैं। इसके विपरीत जिनकी दृष्टि में यह दृश्य प्रपंच अनात्मा सिद्ध हो चुका है, उनकी इसके प्रति न ममता होती है न अहंता, अत: इन्हें दुख नहीं प्राप्त होते हैं। जो लोग मुक्ति के लिए प्रयत्नशील हों उन सबको चाहिए कि सम्पूर्ण कर्मों में अहंता, ममता, आसक्ति और कामना का त्याग करें। जो इनका त्याग किये बिना ही विनीत (शम, दम आदि साधनों में तत्पर) होने का झूठा दावा करते हैं उन्हें अविद्या आदि दु:खदायी क्लेश प्राप्त होते हैं।
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ज्ञानेन्द्रियों की कार्यप्रणाली इस प्रकार है। एक ज्ञानेन्द्रिय विषय से संयुक्त होकर चित्त के साथ संयुक्त होती है। यहाँ चित्त अन्त:करण के अर्थ में प्रयुक्त है। विषय, ज्ञानेन्द्रिय और चित्त इन तीन के संयोग से विषयज्ञान होता है।
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अध्यात्म तत्व का चिन्तन करने वाले विद्वान् इस शरीर और इन्द्रियों के संघात को क्षेत्र कहते हैं और मन में जो चेतनसत्ता स्थित है, वही क्षेत्रज्ञ कहलाता है। जिस तरह नदियाँ समुद्र में मिलकर अपनी वैयक्तिकता को त्याग देती हैं उसी प्रकार जीवात्मा परमात्मा में लीन हो जाता है। यही मोक्ष है। जिस प्रकार पक्षी वृक्ष को जल में गिरते देख उसमें आसक्ति छोड़कर वृक्ष का परित्याग करके उड़  जाता है, उसी प्रकार मुक्त पुरुष सुख और दु:ख का त्याग करके सूक्ष्म शरीर से रहित होकर उत्तम गति को प्राप्त होता है।
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संक्षिप्त
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1. एन्सा.— एन्सायक्लोपीडिया आफ इण्डियन फिलासफी भाग-4
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2. इ.सां.था. इवोल्युशन आफ सांख्य स्कूल आफ थॉट
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3. ओ.डे. सां.सि.- ओरिजिन एण्ड डेवलपमेंट आफ सांख्य सिस्टम आफ थाट
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4. भा.द. आ.अ.- भारतीय दर्शन : आलोचन और अनुशीलन
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5. शा.प.- महाभारत शांति पर्व
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6. सां. का.- सांख्यकारिका
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7. सां.द.इ.- सांख्य दर्शन का इतिहास
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8. सां.द.ऐ.प.- सांख्य दर्शन की ऐतिहासिक परम्परा
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9. सां.प्र.भा.- सांख्यप्रवचन भाष्य
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10. सां.सि.- सांख्य सिद्धान्त
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11. सां.सू.- सांख्यसूत्र

१६:१८, ६ फ़रवरी २०१० के समय का अवतरण

आचार्य और सांख्यवाङमय

मानव सभ्यता का भारतीय इतिहास विश्व में प्राचीनतम जीवित इतिहास है। हजारों वर्षों के इस काल में अनेकानेक प्राकृतिक, राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन होते रहे हैं। परिवर्तन के इस कालचक्र में इतिहास का बहुत सा अंश लुप्त हो जाना स्वाभाविक है। महाभारत में सांख्य दर्शन का हमेशा ही प्राचीन इतिहास के रूप में कथन हुआ है। इससे एक बात तो स्पष्ट है कि महाभारत के रचनाकाल तक यह दर्शन सुप्रतिष्ठित हो चुका था। तत्त्वगणना और स्वरूप की विभिन्न प्रस्तुतियों के आधार पर कहा जा सकता है कि तब तक सांख्य दर्शन अनेक रूपों में स्थापित हो चुका था और उनका संकलन महाभारत में किया गया। महाभारत ग्रंथ के काल के विषय में अन्य भारतीय ऐतिहासिक तथ्यों की तरह ही मतभेद है। मतभेद मुख्यत: दो वर्गों (पाश्चात्य और भारतीय विद्वद्वर्गों) में माना जा सकता है। भारतीय विद्वदवर्ग भी दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। एक वर्ग पाश्चात्त्य मत का समर्थक और दूसरा विशुद्ध रूप से भारतीय वाङमय के आधार पर मत रखने वाले विद्वानों का।

  • पाश्चात्त्य मत के अनुसार महाभारत के मोक्षधर्म पर्व की रचना 200 वर्ष ई.पूर्व से 200 ई. के मध्य हुई<balloon title="एन्सा." style=color:blue>*</balloon>।
  • डॉ0 राजबलि पाण्डेय के अनुसार महाभारत ग्रन्थ का परिवर्तन ई.पू. 32 से ई.पू. 286 वर्ष की अवधि में तथा कुछ विद्वानों के अनुसार मोक्षधर्म पर्व परिवर्द्धन शुंग काल (ई.पू. 185 के आसपास) में हुआ<balloon title="प्राचीन भारत पृ. 191, 206" style=color:blue>*</balloon>।
  • डॉ0 आद्या प्रसाद मिश्र ने ए.बी. कीथ के मत (ई.पू. 200 से 200 ई.) की समीक्षा करते हुए अपना मत प्रस्तुत किया कि वर्तमान महाभारत भी 600 वर्ष ई. पू. से बहुत पहले का होना चाहिए<balloon title="सांख्य दर्शन की ऐतिहासिक परम्परा पृ. 23" style=color:blue>*</balloon>। यह ठीक है कि महाभारत ग्रन्थ अपने विकास क्रम में कई व्यक्तियों द्वारा लम्बे समय तक परिवर्द्धित होता हुआ वर्तमान स्थिति को प्राप्त हुआ है। लेकिन कब कितना और कौन सा अंश जोड़ा गया, इसके स्पष्ट प्रमाण के अभाव में भारतीय साक्ष्य को मान्य करते हुए वर्षगणना के बजाय इतना ही कहना पर्याप्त समझते हैं कि महाभारत ग्रन्थ में उपलब्ध सांख्य दर्शन अत्यन्त प्राचीन है और प्राचीन सांख्य दर्शन के विस्तृत परिचय के लिए महाभारत एक प्राचीनतम प्रामाणिक रचना है।

आचार्य-परम्परा

  • शांति पर्व अध्याय 318 के अनुसार कुछ सांख्याचार्यों के नाम इस प्रकार हैं-

जैगीषव्य, असितदेवल, पराशर, वार्षगण्य, भृगु, पञ्चशिख, कपिल, गौतम, आर्ष्टिषेण, गर्ग, नारद, आसुरि, पुलस्त्य, सनत्कुमार, शुक्र, कश्यप। इनके अतिरिक्त शांति पर्व में विभिन्न स्थलों पर याज्ञवल्क्य, व्यास, वसिष्ठ का भी उल्लेख है। युक्तिदीपिका में जनक-वसिष्ठ का उल्लेख है। *ईश्वरकृष्णकृत सांख्यकारिका के अनुसार कपिल, आसुरी और पञ्चशिख;

  • माठरवृत्ति के अनुसार भार्गव, उलूक, वाल्मीकि, हारीत, देवल आदि;
  • युक्तिदीपिका में जनक, वसिष्ठ के अतिरिक्त हारीत, वाद्वलि, कैरात, पौरिक, ऋषभेश्वर, पञ्चाधिकरण, पतञ्जलि, वार्षगण्य, कौण्डिन्य, मूक आदि नामों का उल्लेख है। *शांतिपर्व तथा सातवें सनातन को भी योगवेत्ता सांख्यविशारद कहा गया है। उपर्युक्त प्राचीन आचार्यों के अतिरिक्त सांख्य सूत्र, तत्त्वसमास व सांख्य कारिकाओं के व्याख्याकार भी सांख्याचार्य कहे जा सकते हैं। अत्यन्त प्राचीन आचार्यों का वर्णन करने से पूर्व सांख्य प्रणेता कपिल के बारे में उल्लेख करना आवश्यक होगा, क्योंकि कपिल एक हैं अथवा एक से अधिक, ऐतिहासिक व्यक्ति हैं या काल्पनिक, इस प्रकार के अनेक मत इनके विषय में प्रचलित हैं।

सांख्य प्रवर्तक कपिल

विद्यासहायवन्तं च आदित्यस्थं समाहितम्।
कपिलं प्राहुराचार्या: सांख्यनिश्चितनिश्चया:<balloon title="शांति पर्व 339/68" style=color:blue>*</balloon>॥
श्रृणु में त्वमिदं सूक्ष्मं सांख्यानां विदितात्मनाम्।
विहितं यतिभि: सर्वै: कपिलादिभिरीश्वरै:<balloon title="शांति पर्व 301/3" style=color:blue>*</balloon>॥
पंचम: कपिलो नाम सिद्धेश: कालविप्लुतम्।
प्रोवाचाऽऽसुरये सांख्यं तत्त्वग्रामविनिर्णयम्<balloon title="गरुडपुराण 1/18" style=color:blue>*</balloon>॥
श्रेय: किमत्र संसारे दु:खप्राये नृणामिति।
प्रष्टुं तं मोक्षधर्मज्ञं कपिलाख्यं महामुनिम्<balloon title="विष्णुपुराण 2/13/54" style=color:blue>*</balloon>॥

  • सांख्यप्रणेता या प्रवर्तक कपिल नामक मुनि हैं।
  • शांति पर्व में ही 349वें अध्याय में निर्विवाद शब्दों में कहा है कि 'सांख्यस्य वक्ता कपिल: परमर्षि: स उच्चते।'
  • प्राचीन वाङमय में प्राय: कपिल का उल्लेख परमर्षि, सिद्ध, मुनि आदि विशेषणों के साथ हुआ है।
  • गीता में 'सिद्धानां कपिलो मुनि:' कहकर उन्हें सिद्धों में श्रेष्ठ बताने का प्रयास किया गया।
  • विष्णु पुराण<balloon title="(2।14।9)" style=color:blue>*</balloon> में कपिल को विष्णु का अंश कहा गया।
  • भागवत<balloon title="(1।3।10)" style=color:blue>*</balloon> में उन्हें विष्णु का अवतार कहा गया।
  • इसके अतिरिक्त सांख्य सूत्र व कारिका के भाष्यकारों ने एकमतेन कपिल को सांख्य प्रवर्तक के रूप में ही स्वीकार किया।
  • स्वनिर्मित कसौटियों के आधार पर कुछ विद्वान भले ही कपिल की ऐतिहासिकता व्यक्त नहीं हैं- ऐसा उल्लेख किसी प्राचीन ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं है। जहाँ तक ब्रह्मसुत, अग्नि के अवतार, विष्णु के अवतार आदि रूपों में कपिल के उल्लेखों का प्रश्न है- इनसे कपिल की ऐतिहासिकता पर कोई विवाद उत्पन्न नहीं होता। इन उल्लेखों के आधार पर एक से अधिक कपिलों को माना जाने पर भी दो सांख्य प्रवर्तक कपिलों की कोई परम्परा न होने से सांख्य प्रवर्तक कपिल एक ही हैं- ऐसी प्राचीन मान्यता को प्रामाणिक ही कहा जा सकता है।
  • सांख्य शास्त्र महाभारत, रामायण, भागवत तथा उपनिषदों से भी प्राचीन है, ऐसा उन ग्रन्थों में उपलब्ध सांख्य दर्शन से स्पष्ट होता है। महाभारत में सांख्य संबन्धी संवाद पुरातन इतिहास के रूप में उल्लिखित है। इससे सांख्य शास्त्र का हजारों वर्ष पूर्व स्थापित हो जाने का स्पष्ट संकेत मिलता है। परिणामत: यदि सांख्य प्रवर्तक देवहूति-कर्दम-पुत्र कपिल को भी हजारों वर्ष पूर्व का मानें तो अत्युक्ति न होगी।
  • भारतीय ऐतिहासिक व्यक्तियों तथा घटनाक्रम के संबन्ध में पाश्चात्त्य विद्वानों की खोज प्रणाली (पुरातत्त्व तथा भाषा वैज्ञानिक) के साथ अतिप्राचीनता का सामञ्जस्य न होने तथा मानव की 'अति प्राचीनता' को भी 4-5 हजार वर्षों के भीतर ही बाँध देती है। दूसरी ओर भारतीय परम्परा में मान्य युग गणना भारतीय सभ्यता व संस्कृति को इससे कहीं अधिक प्राचीन घोषित करती हे। इतने लम्बे अन्तराल में कई भौगोलिक और भाषागत परिवर्तनों का हो जाना सहज है। अत: जब तक आधुनिक कही जाने वाली कसौटियाँ पूर्ण व स्पष्ट न हों, प्राचीन भारतीय साहित्य के साक्ष्य को अप्रामाणिक घोषित करना युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता।

या तो कपिल का समय अत्यन्त प्राचीन है या फिर रामायण, महाभारत के वर्णनों के आधार पर उन्हें इन युगों से बहुत पूर्व का मानें।

  • विष्णुपुराण में- कपिल को सत युग में अवतरित होकर लोककल्याणार्थ उत्कृष्ट ज्ञान का उपदेश दिया- कहकर कपिल के जन्म काल का संकेत किया गया।
  • अहिर्बुध्न्यसंहिता में लिखा है- त्रेता युग के प्रांरभ में जब जगत मोहाकुल हो गया तब कुछ लोक कर्ता व्यक्तियों ने जगत को पूर्ववत लाने का प्रयास किया। उन लोककर्ताओं में एक व्यक्ति कपिल था<balloon title="सांख्यदर्शन का इतिहास पृ. 49" style=color:blue>*</balloon>। इस प्रकार कपिल का समय सत्य युग के अन्त में या त्रेतायुग के आदि में स्वीकार किया जा सकता है। ऐसा मानने पर कितने वर्ष की गणना की जाय यह कहना कठिन है। तथापि आचार्य उदयवीर शास्त्री के अनुमानानुसार कर्दम ऋषि भारत में उस समय रहा होगा जब सरस्वती नदी अपनी पूर्ण धारा में प्रवाहित होती थी। सरस्वती नदी के सूख जाने के समय की ऐतिहासिकों ने जो समीप से समीप कल्पना की है वह, अबसे लगभग 25 सहस्र वर्ष पूर्व है।[१] कितने पूर्व, यह निर्णय करना कठिन होगा।

परमर्षि कपिल की कृति कपिल के समय की ही तरह कपिल की कृति के बारे में भी आधुनिक विद्वानों में मतभेद और अनिश्चय व्याप्त है। जिनके मत में कपिल की ऐतिहासिकता संदिग्ध है, उनके लिए कपिल की कृति की समस्या ही नहीं है। लेकिन जो लोग कपिल के ऐतिहासिक अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। उनके लिए यह एक समस्या है। उपलब्ध प्रमुख सांख्य-ग्रन्थ हैं- (1) तत्त्वसमाससूत्र (2) पञ्चशिखसूत्र (3) सांख्यकारिका (4) सांख्यप्रवचन सूत्र या सांख्यसूत्र सांख्यकारिका को तो सभी विद्वान् ईश्वरकृष्णकृत मानते हैं। पञ्चशिखसूत्र विभिन्न ग्रन्थों में, विशेषत: योगसूत्रों के व्यासभाष्य में उपलब्ध उदाहरणों का संकलन है। अब शेष रह जाती हैं दो रचनाएँ, जिन्हें कपिलकृत कहा जा सकता है। तत्त्वसमास तथा सांख्यसूत्र के व्याख्याकारों ने अलग-अलग इन्हें कपिल की ही कृति माना है। चूँकि ये रचनाएँ भाष्यों या व्याख्याकार के निर्देशों पर ही निर्भर करना पड़ता है। तत्त्वसमाससूत्र की प्राचीनतम व्याख्या क्रमदीपिका है जिसे आचार्य उदयवीर शास्त्री ने माठर वृत्ति से प्राचीन तथा ईश्वरकृष्णरचित कारिकाओं के पश्चात् माना है। तब तत्त्वसमाससूत्र की रचना और भी प्राचीन समय में मानी जा सकती है। भावागणेश के अनुसार उसने तत्त्वसमास की व्याख्या में 'समास' की पंचशिखकृत व्याख्या का अलम्बन लिया। इससे इतना तो कहा ही जा सकता है कि भावागणेश पंचशिखकृत व्याख्या के अस्तित्व को मानता था। क्रमदीपिका और भावागणेशकृत (तत्त्वसमाससूत्रों की भावागणेशकृत व्याख्या) को क्रमदीपिका के आधार पर लिखे जाने की संभावना को स्वीकार किया। साथ ही वे क्रमदीपिका को पंचशिख की रचना भी नहीं मानते, फिर, एक और संभावना शास्त्री जी ने व्यक्त की कि दोनों का आधार एक अन्य व्याख्या जिसे पंचशिखकृत समझा गया हो- के आधार पर लिखी गई हो। दोनों ही स्थितियों में यह बात स्पष्ट स्वीकार की जा सकती है कि क्रमदीपिका तत्त्वसमास की उपलब्ध प्राचीन व्याख्या है जो पंचशिखकृत नहीं है। साथ ही पंचशिखकृत 'समाससूत्र' व्याख्या भी अस्तित्ववान् थी। यदि महाभारत शांतिपर्व में उल्लिखित पंचशिख और भावागणेश द्वारा संकेतित पंचशिख दो भिन्न व्यक्ति नहीं हैं।[२] तो तत्त्वसमाससूत्र को भी महाभारत-रचनाकाल से अत्यन्त प्राचीन मानना होगा। या फिर डॉ0 ए.बी.कीथ की तरह दो पंचशिखों के अस्तित्व को स्वीकार करना होगा। लेकिन इसमें कोई स्पष्ट प्रमाण या परम्परा न होने से तत्त्वसंमास के व्याख्याकार पंचशिख को ही परम्परानुरूप महाभारत में उल्लिखित कपिल के प्रशिष्य के रूप में मानना उचित प्रतीत होता है। ऐसी स्थिति में कपिल को तत्त्वसमाससूत्र का रचयिता मानने की परम्परा के औचित्य को स्वीकार करना गलत नहीं होगा।[३] 'तत्त्वसमाससूत्र' किसी बृहत ग्रन्थ की विषयसूची प्रतीत होता है जिसमें सांख्य दर्शन को 22 सूत्रों में प्रस्तुत किया गया है। अत्यन्त संक्षिप्त होने से ही संभवत: इसे समाससूत्र कहा गया है। इस सूत्ररचना की आवश्यकता के रूप में दो संभावनाएँ हो सकती है। या तो परमर्षि कपिल ने पहले इन सूत्रों की रचना की बाद में इनके विस्तार के रूप में सांख्यसूत्रों को रचा ताकि आख्यायिकाओं और परवाद-खण्डन के माध्यम से सांख्यदर्शन को अधिक सुग्राह्य और तुलनात्मक 'प में प्रस्तुत किया जा सके या फिर पहले बृहत् सूत्रग्रन्थ की रचना हुई हो और फिर उसे संक्षिप्त सूत्रबद्ध किया गया हो। 'समास' शब्द से दूसरे विकल्प की अधिक सार्थकता सिद्ध होती है। उपलब्ध सांख्यग्रन्थों में 'सांख्यसूत्र' भी एक ऐसा ग्रन्थ है जिसके रचनाकार और रचनाकाल के विषय में आधुनिक विद्वानों में मतभेद है। पाश्चात्त्य विद्वान् तथा उनके अनुसार विचारशैली वाले भारतीय विद्वान् सांख्यसूत्रों को ईश्वरकृष्णकृत कारिकाओं के बाद की रचना मानते हैं। यद्यपि इस संभावना को स्वीकार किया जाता है कि कुछ सूत्र अत्यन्त प्राचीन रहे हों तथापि वर्तमान रूप में सूत्र अनिरुद्ध या उसके पूर्वसमकालिक व्यक्ति द्वारा ही अर्थात् पद्रहवीं शती में रचित या संकलित हैं। आचार्य उदयवीर शास्त्री, डॉ0 आद्याप्रसाद मिश्र, डॉ0 गजानन शास्त्री मुसलगांवकर आदि इसे कपिलप्रणीत और प्राचीन मानते हैं। सांख्यसूत्रों के सभी भाष्यकार टीकाकार भी इसे कपिलप्रणीत ही मानते हैं। इस विषय में दोनों पक्षों की युक्तियों का परिचय रोचक होगा। ईश्वरकृष्णविरचित सांख्यकारिका में 72वीं कारिका में कहा गया सप्तत्यां किल येऽर्थास्तेऽर्था: कृत्स्नस्य षष्टितंत्रस्य आख्यायिकाविरहिता: परवादविवर्जिताश्चेति। अर्थात् इस सप्तति (सत्तर श्लोकयुक्त) में जो विषय निरूपित हुए हैं वे निश्चित ही समस्त पष्टितन्त्र के विषय में हैं। यहाँ ये आख्यायिका एवं परमतखण्डन को वर्जित करके कहे गये हैं। अब, उपलब्ध षडध्यायी सूत्रों को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उसके प्रथम तीन अध्यायों में कारिकाओं का कथ्य लगभग पूर्णत: समाहित है। शेष तीन अध्यायों में आख्यायिकाएँ और परमतखण्डन है। ईश्वरकृष्ण की घोषणा ओर उपलब्ध सांख्यसूत्रों को सामने रखकर बड़ी सरलता से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ईश्वरकृष्ण का संकेत इसी ग्रन्थ की ओर होना चाहिए (कम से कम तब तक ऐसा माना जा सकता है कि जब तक आख्यायिका और परवादयुक्त कोई अन्य सांख्यग्रन्थ न मिल जाय) लेकिन इस सरल से लगने वाले निष्कर्ष में एक समस्या है 'षष्टितन्त्र' शब्द की। यह शब्द किसी ग्रन्थ का नाम है या साठ पदार्थों वाले शास्त्र का बोधक? षष्टितंत्र नामक कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है और ईश्वरकृष्ण के संकेत के अनुसार ग्रन्थ वर्तमान में उपलब्ध सांख्यसूत्र है। अत: षष्टितन्त्र और सांख्यसूत्र ये दो नाम एक ही ग्रन्थ के निरूपित हो जायें तब यह कहा जा सकता है कि कपिलप्रणीत षष्टितंत्र सांख्यसूत्र ही है। आचार्य उदयवीर शास्त्री के अनुसार षष्टितंत्र शब्द कपिलप्रणीत ग्रन्थ का नाम हे। अपने मत की पुष्टि में शास्त्री जी ने सां. 2.5. द्वितीय अध्याय में कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये हैं जिनमें षष्टितंत्र शब्द का प्रयोग हुआ है। 1. कल्पसूत्र में महावीर स्वामी को सट्ठितन्तविशारए (षष्टितन्त्रविशारद:) कहा गया है। इस वाक्य की व्याख्या में यशोविजय लिखता है- षष्टितंत्रं कपिलशास्त्रम्, तत्र विशारद:। 2. अहिर्बुध्न्यसंहिता- षष्टिभेदं स्मृतं तंत्रं सांख्यं नाम महामुने:। 3. वेदान्तसूत्र पर आचार्य भास्करभाष्य- तत: कपिलप्रणीत- षष्टितन्त्राख्य... 4. शारीरक भाष्य (2/9/9) – स्मृतिश्च तन्त्राख्या परमर्षिप्रणीता 5. वाक्यपदीय के व्याख्याकार ऋषभदेव ने लिखा है- षष्टितन्त्रग्रन्थश्चायम् 6. जयमंगला- बहुधा कृतं तन्त्रं षष्टितन्त्राख्यं षष्टिखण्डं कृतमिति 7. विस्तरत्वात् षष्टितन्त्रस्य संक्षिप्तसूचिसत्त्वानुग्रहार्थसप्तातिकारम्भ: उपर्युक्त उद्धरणों में क्रमांक 5 में तो षष्टितंत्र ग्रंथनाम प्रतीत होता है, यद्यपि षष्टितंत्र ग्रन्थ का अर्थ षष्टितंत्र का ग्रन्थ अर्थात् साठ पदार्थों वाले सिद्धान्त अथवा ज्ञान का ग्रन्थ – ऐसा भी किया जा सकता है। क्रमांक 6 में भी यदि सिद्धान्त या ज्ञान का संक्षिप्त ऐसा प्रचलित अर्थ न लिया जाय तो 'षष्टितंत्र' ग्रन्थ का- इस अर्थ में ग्रहण किया जा सकता है। उद्धरण क्रमांक 3 में भी 'षष्टितंत्र' नामक कपिलप्रणीत अर्थ लिया जा सकता है। लेकिन उपर्युक्त सभी उद्धरणों में 'तंत्र' शब्द ज्ञान या सिद्धान्त के अर्थ में लेने का आग्रह हो तो भी अर्थसंगति को उचित कहा जा सकता है। यद्यपि क्रमांक 3.4. स्पष्टत: ग्रन्थ नाम का संकेत देते हैं। अत: आचार्य उदयवीर शास्त्री के मत को स्वीकार करने में अनौचित्य नहीं है। तथापि ऐसी 'बाध्यता' का संकेत उद्धरणों में नहीं है। दूसरी ओर श्री रामशंकर भट्टाचार्य का विचार है कि षष्टितंत्र शब्द किसी ग्रन्थनाम का ज्ञापक शब्द नहीं बल्कि सांख्यशास्त्रपरक है जिसमें पदार्थों को साठ भागों में विभक्त कर विचार किया गया था।[४] इसमें उनकी युक्ति यह है कि जब पूर्वकारिका (69) में कारिकाकार ने कहा कि उन्होंन 'एतत्' (अर्थात् पुरुषार्थ ज्ञान जो परमर्षिभाषित था और जिसको मुनि ने आसुरी को दिया था) को-जो शिष्यपरम्परागत है- संक्षिप्त किया है, तब पुन: इस कथन का क्या स्वारस्य होता है। कि प्रस्तुत सांख्यकारिका नामक ग्रन्थ में जितने प्रतिपाद्य विषय हैं, वे 'कृत्स्नस्य षष्टितन्त्रनामग्रन्थविशेषस्य' है? जिस स्वारस्य की यहां जिज्ञासा की गई वह तो है। कारिका में कहा गया है कि यह संक्षिप्त आख्यायिका और परवादविवर्जित है। अब या तो कपिलासुरीपञ्चशिखपरम्परा में आख्यायिका और परमतखण्डन की प्रचुरता का कोई प्रमाण हो या फिर षष्टितंत्र का कोई ग्रन्थ हो जिसमें ये निहित हों। सांख्यशास्त्र के उपलब्ध ग्रन्थों में ऐसा एक ही ग्रन्थ है 'सांख्यसूत्र'। अत: 'कृत्स्नस्य' का स्वारस्य यह दर्शाने में है कि षष्टितंत्र में प्रस्तुत दर्शन का संक्षिप्त किया गया है न कि पूरे ग्रन्थ का (क्योंकि आख्यायिका-परवाद छोड़ दिया गया)। षष्टितंत्र सांख्यविद्यापरक शब्द हो या सांख्यग्रन्थनामपरक हो, इस बात के प्रबल प्रमाण हैं कि यह तन्त्र कपिल प्रोक्त, कृत या प्रणीत है। पञ्चशिख का प्रसिद्ध सूत्र आदिविद्वान निमार्णचित्तमधिष्ठाय कारुण्याद् भगवान् परमर्षिरासुरो जिज्ञासमानाय तंत्रं प्रोवाच युक्तिदीपिका के आरंभ में 14वें श्लोक में पारमर्धस्य तंत्र अनुयोगद्वारसूत्र 41 में कपिल-सट्ठियन्तं अहिर्बुध्न्यसंहिता के पूर्वोक्त उद्धरण आदि पर्याप्त प्रमाण हैं। षष्टितंत्र लिखित हो या मौखिक, कपिलप्रणीत तो है ही। अत: यदि ऐसा कोई संकलन उपलब्ध हो जिसे षष्टितन्त्र कहा जाता हो और जिसमें आख्यायिका एवं परवाद हों तो उसे कपिलप्रणीत कहने में कोई विसंगति नहीं है। ऐसा ग्रन्थ है सांख्यसूत्र। इस ग्रन्थ को अनिरुद्ध और विज्ञानभिक्षु कपिलसूत्र ही मानते हैं तथा आधुनिक विद्वानों में आचार्य उदयवीर शास्त्री, डॉ0 आद्याप्रसाद मिश्र तथा डॉ0 गजानन शास्त्री मुसलगांवकर आदि भी कपिलरचित मानते हैं। जबकि श्रीपुलिन बिहारी चक्रवर्ती, मैक्समूलर, लार्सन, कीथ आदि इसे एक अर्वाचीन कृति मानते हैं। सांख्यसूत्रों को अर्वाचीन घोषित करने के पीछे निम्नलिखित तर्क प्राय: दिए जाते हैं। 1. 15वीं शती से पूर्व सूत्रों पर कोई भाष्य उपलब्ध नहीं है। वाचस्पति मिश्र, जिन्होंने अन्य दर्शन सम्प्रदाय के सूत्रग्रन्थों पर भाष्य लिखा है- ने भी कारिका पर भाष्य लिखा है। यदि सूत्र कपिलप्रणीत होते तो वाचस्पति मिश्र उस पर ही भाष्य लिखते। 2. दर्शन के प्राचीन ग्रन्थों में सांख्यकारिका के उद्धरण तो मिलते हैं। लेकिन सूत्रों को किसी में उद्धृत नहीं किया गया। 3. सूत्र में न्याय-वैशेषिक आदि का खण्डन है जबकि कपिल इनसे अन्यन्त प्राचीन माने जाते हैं। 4. 'सूत्र' में अनेक सूत्र ब्रह्मसूत्र, योगसूत्र, सांख्यकारिका आदि को उद्धृत किया गया है। 5. कुछ सूत्र इतने विस्तृत हैं कि वे सूत्र न होकर कारिका ही प्रतीत होते हैं। संभवत: वे कारिका से यथावत् लिए गए हैं। ध्यान से देखने पर उपर्युक्त सभी युक्तियाँ तर्कसंगत न होकर केवल मान्यता मात्र प्रतीत होती हैं। किसी ग्रन्थ पर भाष्य का उपलब्ध होना उस ग्रन्थ की भाष्यकार के समय से पूर्ववर्तिता का प्रमाण तो हो सकता है लेकिन भाष्य का न होना ग्रन्थ के न होने में प्रमाण नहीं होता। उलटे यह ऐतिहासिक शोध का विषय होना चाहिए कि उक्त ग्रन्थ पर भाष्य क्यों नहीं लिखा गया होगा? भारतीय इतिहास के अवलोकन से ज्ञात होता है कि बौद्ध दर्शन की उत्पत्ति और विकास की अवस्था का वैदिक दर्शनों के प्रचार-प्रसार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। तब तक उस सांख्यदर्शन का जिसे महाभारत में सुप्रतिष्ठित माना गया था, अध्ययन-अध्यापन नगण्य हो चला था। इस अवस्था में सांख्यसूत्रों पर भाष्य की आवश्यकता अनुभूत न होना आश्चर्यजनक नहीं कहा जा सकता। यह भी संभव है कि ईश्वरकृष्ण द्वारा कारिकाओं की रचना के बाद सूत्रों की अपेक्षा सुग्राह्य होने से कारिकाएँ अधिक प्रचलित हो गई हों। फिर, ईश्वर या परमात्मा जैसे शब्दों के न होने से, दुखनिवृत्ति प्रमुख लक्ष्य होने से, बौद्धकाल और उसके बाद भारत में राजनैतिक उथल-पुथल विदेशी आक्रमण आदि से भग्नशान्ति समाज में पलायनवादी प्रवृत्ति की उत्पत्ति और प्रसार ने पलायनवादी दार्शनिक विचारों को प्रश्रय दिया हो। परिणामस्वरूप वेदान्त की विशिष्ट धारा का खण्डन अथवा मण्डन ही वैचारिक केन्द्र बन गए हों। ऐसी अवस्था में संसार को तुच्छ मानने और मनुष्य के अस्तित्व के बजाय परमात्मा पर पूर्णत: आश्रित रहने वाले दर्शनों का ही प्रचार-प्रसार का होना ह्रासोन्मुख समाज में स्वाभाविक है। सांख्यदर्शन में पुरुषबहुत्व और परमात्मा से उसकी पृथक् सत्तामान्य है। ऐसा दर्शन पलायनवादी परिस्थितियों में लुप्त होने लगा हो तो क्या आश्चर्य? संभवत: इसीलिए गत दो हजार वर्षों में बौद्ध और वेदान्त पर जितना लिखा गया उसकी तुलना में शुद्ध तर्कशास्त्रीय ग्रन्थों के अतिरिक्त शेष दर्शन सम्प्रदायों पर नगण्य लेख हुआ। इस अवधि में सांख्यकारिका के भी अंगुलियों पर गिने जाने योग्य भाष्य ही लिखे गये। ऐसे में संभव है सांख्यसूत्र अथवा उन पर भाष्य सर्वथा अप्रचलित हो गए हों। और भी कारण ढूँढ़े जा सकते हैं सारांश यह कि भाष्यों का उपलब्ध न होना किसी अवधि में किसी ग्रन्थ के अप्रचलन को तो निगमित कर सकता है, उसके अनस्तित्व को सिद्ध नहीं करता। फिर, अनिरुद्ध, महादेव वेदान्ती, विज्ञानभिक्षु आदि को सांख्यसूत्र के कपिलप्रणीत होने पर संदेह नहीं हुआ। हमारी जानकारी में पाश्चात्त्य प्राच्यविद्याविशारदों की स्थापनाओं से पूर्व तक की भारतीय परम्परा सांख्यसूत्रों को कपिल-प्रणीत ही मानती रही है। ऐसा उल्लेख नहीं है जिसमें कहा गया हो कि ये सूत्र कपिलप्रणीत नहीं हैं। यही समाधान सांख्यसूत्रों के उद्धरणों की कथित अनुपलब्धि के विषय में भी हो सकता है। यह कहना ही गलत है कि प्राचीन ग्रन्थों में सांख्यसूत्रों के उद्धरण नहीं मिलते। आचार्य उदयवीर शास्त्री ने बड़े ही यत्न से कई उद्धरण प्राचीन तथा अर्वाचीन ग्रन्थों से ढूँढ़ कर प्रस्तुत किये हैं।[५] न्याय-वैशेषिक आदि के खण्डन का होना, ब्रह्मसूत्र आदि का उद्धृत होना सांख्यसूत्र के अर्वाचीन होने का प्रमाण नहीं है। इनके आधार पर इन्हें मूलग्रन्थ में प्रक्षिप्त ही माना जाना चाहिए। कारिकावत् सूत्रों के बारे में भी उल्टा निष्कर्ष निकाला गया है। कारिका को प्राचीन मान लेने के कारण ही सूत्र को कारिका के आधार पर रचित-माना जा सकता है। अन्यथा कारिकाएँ सूत्र के आधार पर रची गई- ऐसा क्यों न माना जाय जबकि कपिलसूत्र को प्राचीन मानने की सुदीर्ध परम्परा है। इस प्रकार सांख्य-सूत्रों को कारिका से अर्वाचीन मानना केवल 'मान्यता' है, प्रामाणिक नहीं। अत: जब तक ऐसा स्पष्ट प्रमाण कि उपलब्ध सांख्यसूत्र कपिलप्रणीत नही है, उपलब्ध न हो, प्रामाणिक परम्परा को अस्वीकार करने का कोई औचित्य नहीं है। सांख्यसूत्रपरिचय सांख्यसूत्र का प्रचलित नाम 'सांख्यप्रवचनसूत्र' है। सूत्र सर्वप्रथम अनिरुद्ध 'वृत्ति' के रूप में प्राप्त है। स्वतंत्र रूप से सूत्रग्रंथ उपलब्ध न होने से सूत्रसंख्या, अधिकरण, अध्याय-विभाग आदि के बारे में वृत्तिकार अनिरुद्ध तथा तदनुरूप कृत भाष्यकार विज्ञानभिक्षु की कृति पर ही निर्भर करना पड़ता है। सांख्यप्रवचनसूत्र 6 अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय में 164 सूत्र हैं। इसे अनिरुद्ध विषयाध्याय कहते हैं। इस अध्याय में सांख्य की विषयवस्तु का परिचय दिया गया है। सूत्र 1-6 में दु:खत्रय, उनसे निवृत्ति के दृष्ट उपायों की अपर्याप्तता आदि का उल्लेख है। सूत्र 8-60 में बन्ध की समस्या पर विचार किया गया। पुरुष के असंग होने से उसका बन्धन नहीं कहा जा सकता। कर्म, भोग आदि बुद्धि के त्रिगुणात्मक विकारों के धर्म होने से इन्हें भी बन्ध का कारण नहीं कहा जा सकता। बन्ध का कारण प्रकृति, पुरुष में भेदविस्मृति का अविवेक है। शेष सूत्रों में प्रकृति, विकृति, आदि का नामोल्लेख, प्रमाणविचार, प्रत्यक्ष से ईश्वर की असिद्धि, सत्कार्यवाद- निरूपण आदि की चर्चा है। प्रकृति और पुरुष की अस्तित्वसिद्धि में हेतु की भी चर्चा है। द्वितीय अध्याय में मात्र 47 सूत्र हैं। इस अध्याय को प्रधानकार्याध्याय कहा जाता है। इन सूत्रों में प्रधान के कार्य महत्, अहंकार, इन्द्रियादि की चर्चा की गई। करणों की वृत्तियों का उल्लेख भी किया गया। तृतीय अध्याय में 84 सूत्र हैं। अनिरुद्ध इस अध्याय को वैराग्याध्याय कहते हैं। इस अध्याय में प्रकृति के स्थूल कार्य, सूक्ष्म-स्थूलादि शरीर, आत्मा की विभिन्न योनियों में गति तथा पर-अपर वैराग्य की चर्चा है। चतुर्थ अध्याय में 32 सूत्र हैं जिनमें आख्यायिकाओं के द्वारा विवेकज्ञान के साधनों को प्रदर्शित किया गया है। 130 सूत्रों के पांचवें अध्याय में परमतखण्डन है। यहाँ विभिन्न कारणों से ईश्वर के कर्मफलदातृत्व का निषेध किया गया है। साथ ही वेदों की (शब्दराशिरूप में) अनित्यता का, सत्ख्याति, असत्ख्याति, अन्यथाख्याति, अनिर्वचनीयख्याति आदि का खण्डन करते हुए सदसत्ख्याति को स्थापित किया गया। छठे अध्याय में 61 सूत्र हैं। इन सूत्रों में सांख्यमत जिसे पूर्वाध्यायों में विस्तार से प्रस्तुत किया गया हे- को संक्षेप में उपसंहृय किया गया। उपलब्ध सांख्यप्रवचनसूत्र के अध्यायों में विषयप्रस्तुति का क्रम ईश्वरकृष्ण की 62वीं कारिका के अनुरूप ही है। सांख्यसिद्धान्त की पूर्ण चर्चा तो प्रथम तीन अध्यायों में ही निहित है। अत: सांख्यकारिका में ईश्वरकृष्ण ने आख्यायिका और परमतखण्डन को छोड़ दिया है। आचार्य उदयवीर शात्री ने सूत्रों की अन्तरंग परीक्षा करके सांख्यसूत्र में प्रक्षेपों को संकलित किया। उनके अनुसार प्रथम अध्याय में 19वें सूत्र के बाद विषयवस्तु अथवा कथ्य की संगति 55वें सूत्र से है। 20-54 सूत्रों में अप्रासंगिक विषयान्तर होने से शास्त्री जी इन्हें प्रक्षिप्त मानते हैं। इन सूत्रों में न वयं षट्पदार्थवादिनो वैशेषिकादिवत् (1/25), न विज्ञानमात्रं बाह्यप्रतीते: (1/42), शून्यं तत्त्वं भावो (1/44) तथा 'पाटलिपुत्र' आदि को देखकर न केवल इसकी अप्रासंगिकता का बोध होता है अपितु कपिल के बहुत बाद में स्थापित मतों के खण्डन की उपस्थिति भी आश्चर्यजनक प्रतीत होती है। अनिरुद्ध और विज्ञानभिक्षु इन सूत्रों में बौद्धमत का खण्डन देखते हैं। उदयवीर शास्त्री का मत है कि इन सूत्रों का प्रक्षेप शंकराचार्य के प्रादुर्भाव के उपरांत हुआ होगा। इसी तरह पाँचवें अध्याय में मुक्ति के स्वरूप की चर्चा में सूत्र 84 से 115 तक 32 सूत्रों को शास्त्री जी ने प्रक्षिप्त घोषित किया है, जो कि उचित प्रतीत होता है। सांख्यसूत्र और कारिका के दर्शन में सिद्धान्तरूप में विरोध या भेद नहीं है तथापि कतिपय साधारण भेद अवश्य प्रतीत होते हैं। पुरुष की अस्तित्वसिद्धि में सांख्यसूत्र में हेतु दो समूहो में या वर्गों में है। प्रथम वर्ग सूत्र 1/140-42 में और द्वितीय वर्ग सूत्र 1/143-44 में। संघातपरार्थत्वात्, त्रिगुणादिविपर्ययात्, अधिष्ठानाच्चेति 1/140-42) प्रथम समूह है। अनिरुद्ध विज्ञानभिक्षु सहित प्राय: टीकाकारों ने 'अधिष्ठानात् च इति' के भाष्य में हेतु समाप्ति को स्वीकार किया है। भोक्तृभावत्, कैवल्थार्थप्रवृत्तेश्च, ये 2 सूत्र पुन: हेतु निर्देश करते हैं। जबकि सांख्यकारिका में पाँचों हेतु एक साथ दिए गए हैं। एक अन्य भेद प्रमाणविषयक है। सूत्र में प्रत्यक्ष प्रमाण है जबकि कारिका में दृष्ट व्याख्याकारों ने दृष्ट को प्रत्यक्ष माना है। जिससे निश्चयात्मकता का भाव स्पष्ट होता है जबकि सूत्रगत प्रमा की परिभाषा को ध्यान में रखा जाये जहाँ 'असन्निकृष्टार्थपरिच्छिती प्रमा' कहा गया है तो प्रत्यक्ष में ही नहीं अनुमान और शब्द प्रमाणजन्य प्रमा भी निश्चयात्मक निरूपित होती है। सूत्र में अनुमान प्रमाण के भेदों का उल्लेख नहीं है किन्तु कारिका में 'त्रिविधमनुमानम्' स्वीकार किया गया है। कारिकाओं में त्रिगुण साम्य के रूप में प्रकृति को कहीं परिभाषित नहीं किया गया। इस विपरीत सूत्र में 1/61 में सत्त्वरजस्तमस् की साम्यावस्था का स्पष्ट उल्लेख है। सांख्यकारिकाएँ चूँकि संक्षिपत प्रस्तुति है इसलिए सूत्रों से अन्तर होना स्वाभाविक है। आसुरि आसुरि कपिल मुनि के शिष्य और सांख्याचार्य पचंशिख के गुरु थे। महाभारत के शांतिपर्व में पंचशिख को आसुरि का प्रथम शिष्य कहा गया है।[६] यहाँ आसुरि के बारे में कहा गया है कि उन्होंने तपोबल से दिव्य दृष्टि प्राप्त कर ली थी। ज्ञानसिद्धि के द्वारा उन्होंने क्षेत्र-क्षेत्रज्ञभेद को समझ लिया था। जो एकमात्र अक्षर और अविनाशी ब्रह्म नाना रूपों में दिखाई देता है उसका ज्ञान उन्होंने प्रतिपादित किया।[७] शां.प. के ही 318वे अध्याय में उल्लिखित सांख्याचार्यों के नामों की सूची में भी आसुरि का नामोल्लेख है। पञ्चशिखसूत्र में भी 'परमर्षि ने जिज्ञासु आसुरि को ज्ञान दिया' कहकर आसुरि के कपिलशिष्य होने का स्पष्ट संकेत दिया।[८] ईश्वरकृष्णकृत 70वीं कारिका में एतत् पवित्रमग्यं मुनिरासुरये प्रददौ। आसुरिरपि पञ्चशिखाय तेन च बहुधा कृतं तन्त्रम् कहकर कपिल के शिष्य और पञ्चशिख के गुरु रूप में आसुरि का उल्लेख किया। सांख्यकारिका के भाष्यकारों ने भी इस गुरुशिष्य परम्परा को यथावत् स्वीकार किया। इतनी स्पष्ट परम्परा के आधार पर आसुरि की ऐतिहासिकता सिद्ध है। कतिपय पाश्चात्त्य विद्वानों के द्वारा आसुरि के अनैतिहासिक होने के अप्रामाणिक आग्रह का आद्याप्रसाद मिश्र ने निराकरण किया है।[९] माठरवृत्ति के आरंभ में प्रस्तुत प्रसंग के अनुसार आसुरि गृहस्थ थे। फिर वे दु:खत्रय के अभिघात के कारण गृहस्थ आश्रम से विरत हो कपिल मुनि के शिष्य हो गये।[१०] आसुरि की कोई कृति उपलब्ध नहीं है। हरिभद्रसूरिकृत षड्दर्शनसमुच्चय में आसुरि के नाम से उद्धृत एक श्लोक में पुरुष के भोग के विषय में उनका मत प्राप्त होता है। तदनुसार जिस प्रकर स्वच्छ जल में चन्द्र प्रतिबिम्बित होता है उसी प्रकार असंग पुरुष में बुद्धि का प्रतिबिम्बित होना उसका भोग कहलाता है। सांख्यसूत्र में 'चिदवसानो भोग:' कहकर ऐसा ही मत प्रस्तुत किया गया है। पंचशिख ईश्वरकृष्ण ने सांख्यकारिका में कहा है एतत् पवित्रमग्यम् मुनिरासुरयेऽनुकम्पया प्रददौ। आसुरिरपि पंचशिखाय तेन च बहुधा कृतं तन्त्रम्॥ आसुरि ने षष्टितन्त्र का ज्ञान पंचशिख को दिया और पंचशिख ने उसे बहुविध, व्यापक या विस्तत किया। माठरवृत्ति के अनुसार पंचशिखेन मुनिना... षष्टितंत्राख्य षष्टिखण्डं कृतमिति। तत्रैव हि षष्टिरर्था व्याख्याता:। युक्तिदीपिका के अनुसार बहुभ्यो जनकवसिष्ठादिभ्य: समाख्यातम्[११] साथ ही भावागणेश के अनुसार उनके तत्त्वसमाससूत्र का तत्त्वयाथार्थ्यदीपन पंचशिख की व्याख्या पर आधृत हे। इस तरह सांख्यशास्त्रीय परम्परा में सांख्याचार्य के रूप में तो पंचशिख विख्यात है ही, महाभारत में भी ऊहापोहप्रवीण, पंचरात्रविशारद, पंचज्ञ, अन्नादि पंच कोशों के शिखा स्वरूप ब्रह्म के ज्ञाता के रूप में पंचशिख का उल्लेख किया गया। शांतिपर्व में ही पंचशिख संवादों को प्राचीन इतिहास के रूप में स्मरण किया गया। इसका अर्थ है कि पंचशिख का समय 800 वर्ष ई.पू. के बहुत पहले, संभवत: हजारों वर्ष पूर्व रहा होगा। पंचशिख आसुरि के प्रथम शिष्य थे और आसुरि कपिल-शिष्य थे। अत: पंचशिख को कपिल के काल के उत्तरसमकालीन के रूप में अर्थात् त्रेतायुग के आरंभ में अथवा कृतयुग के अन्त में ही रखा जाना चाहिए। पंचशिख की माता कपिला नामक ब्राह्मणी थी। आचार्य पंचशिख ने एक हजार वर्ष तक यज्ञ किया, वे दीर्घायु थे। आचार्य पंचशिख के दर्शन का परिचय यहाँ महाभारत के शांतिपर्व के आधार पर प्रस्तुत किया जा रहा है। मिथिला में जनकवंशी राजा जनकदेव के समक्ष विभिन्न नास्तिक मतों का निराकरण करते हुए सांख्यशास्त्र को प्रस्तुत किया गया।[१२] आत्मा का न तो नाश होता है और न वह किसी विशेष आकार में ही परिणत होता है। यह जो प्रत्यक्ष दिखायी देने वाला संघात है; यह भी शरीर, इन्द्रिय और मन का समूह मात्र है। यद्यपि यह सब पृथक्-पृथक् हैं तो भी एक दूसरे का आश्रय लेकर कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। प्राणियों के शरीर में उपादान के रूप में आकाश, वायु, अग्नि, जल, और पृथ्वी ये पाँच धातु हैं। ये स्वभाव से ही एकत्र होते और विलग हो जाते हैं। आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन पाँच तत्त्वों के समाहार से ही अनेक प्रकार के शरीरों का निर्माण हुआ है। शरीर में ज्ञान (बुद्धि), ऊष्मा (जठरानल) तथा वायु (प्राण), इनका समुदाय समस्त कर्मों का संग्राहक गण है, क्योंकि इन्हीं से इन्द्रिय, इन्द्रियों के विषय, स्वभाव, चेतना, मन, प्राण, अपान, विकास और धातु प्रकट हुए हैं। श्रोत्र आदि इन्द्रियों में उनके विषयों का विसर्जन (त्याग) करने से सम्पूर्ण तत्त्वों के यथार्थ निश्चय रूप मोक्ष की प्राप्ति होती है। उस तत्त्वनिश्चय को अत्यन्त निर्मल उत्तम ज्ञान और अविनाशी महान् ब्रह्मपाद कहते हैं। इसके विपरीत जिनकी दृष्टि में यह दृश्य प्रपंच अनात्मा सिद्ध हो चुका है, उनकी इसके प्रति न ममता होती है न अहंता, अत: इन्हें दुख नहीं प्राप्त होते हैं। जो लोग मुक्ति के लिए प्रयत्नशील हों उन सबको चाहिए कि सम्पूर्ण कर्मों में अहंता, ममता, आसक्ति और कामना का त्याग करें। जो इनका त्याग किये बिना ही विनीत (शम, दम आदि साधनों में तत्पर) होने का झूठा दावा करते हैं उन्हें अविद्या आदि दु:खदायी क्लेश प्राप्त होते हैं। ज्ञानेन्द्रियों की कार्यप्रणाली इस प्रकार है। एक ज्ञानेन्द्रिय विषय से संयुक्त होकर चित्त के साथ संयुक्त होती है। यहाँ चित्त अन्त:करण के अर्थ में प्रयुक्त है। विषय, ज्ञानेन्द्रिय और चित्त इन तीन के संयोग से विषयज्ञान होता है। अध्यात्म तत्व का चिन्तन करने वाले विद्वान् इस शरीर और इन्द्रियों के संघात को क्षेत्र कहते हैं और मन में जो चेतनसत्ता स्थित है, वही क्षेत्रज्ञ कहलाता है। जिस तरह नदियाँ समुद्र में मिलकर अपनी वैयक्तिकता को त्याग देती हैं उसी प्रकार जीवात्मा परमात्मा में लीन हो जाता है। यही मोक्ष है। जिस प्रकार पक्षी वृक्ष को जल में गिरते देख उसमें आसक्ति छोड़कर वृक्ष का परित्याग करके उड़ जाता है, उसी प्रकार मुक्त पुरुष सुख और दु:ख का त्याग करके सूक्ष्म शरीर से रहित होकर उत्तम गति को प्राप्त होता है। संक्षिप्त 1. एन्सा.— एन्सायक्लोपीडिया आफ इण्डियन फिलासफी भाग-4 2. इ.सां.था. इवोल्युशन आफ सांख्य स्कूल आफ थॉट 3. ओ.डे. सां.सि.- ओरिजिन एण्ड डेवलपमेंट आफ सांख्य सिस्टम आफ थाट 4. भा.द. आ.अ.- भारतीय दर्शन : आलोचन और अनुशीलन 5. शा.प.- महाभारत शांति पर्व 6. सां. का.- सांख्यकारिका 7. सां.द.इ.- सांख्य दर्शन का इतिहास 8. सां.द.ऐ.प.- सांख्य दर्शन की ऐतिहासिक परम्परा 9. सां.प्र.भा.- सांख्यप्रवचन भाष्य 10. सां.सि.- सांख्य सिद्धान्त 11. सां.सू.- सांख्यसूत्र

  1. वही.
  2. आचार्य उ.वी. शास्त्री ने दोनों उल्लेख एक ही पंचशिख का माना है सां. द.इ.
  3. एन्सा. में तत्त्वसमाससूत्र की प्राचीनता को मानते हुए भी इसका रचनाकाल 14 शताब्दी माना गया है। साथ ही इसे कपिल से सम्बन्धित करने को अनुचित कहा गया है।
  4. सांख्यतत्त्वकौमुदी ज्योतिष्मती व्याख्या 72वीं कारिका पर।
  5. सां. द.इ.
  6. शां. प.
  7. वही
  8. सां.द. में उ.वी. शास्त्री संकलित प्रथम सूत्र।
  9. सां. द. ऐ.प.
  10. माठरवृत्ति प्रथम कारिका पर। ऐसा ही प्रसंग 70वीं कारिका पर जयमंगला में।
  11. 70वीं कारिका पर माठरवृत्ति तथा युक्तिदीपिका
  12. शा.प. अध्याय के कुछ श्लोकों का अनुवाद।