"देवता" के अवतरणों में अंतर
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'देव' शब्द में 'तल्' प्रत्यय लगाकर 'देवता' शब्द की व्युत्पत्ति होती है। अत: दोनों में अर्थ-साम्य है। निरूक्तकार ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा, 'जो कुछ देता है वही देवता है अर्थात देव स्वयं द्युतिमान हैं- शक्तिसंपन्न हैं- किंतु अपने गुण वे स्वयं अपने में समाहित किये रहते हैं जबकि देवता अपनी शक्ति, द्युति आदि संपर्क में आये व्यक्तियों को भी प्रदान करते हैं। देवता देवों से अधिक विराट हैं क्योंकि उनकी प्रवृत्ति अपनी शक्ति, द्युति, गुण आदि का वितरण करने की होती है। जब कोई देव दूसरे को अपना सहभागी बना लेता है, वह देवता कहलाने लगता है। | 'देव' शब्द में 'तल्' प्रत्यय लगाकर 'देवता' शब्द की व्युत्पत्ति होती है। अत: दोनों में अर्थ-साम्य है। निरूक्तकार ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा, 'जो कुछ देता है वही देवता है अर्थात देव स्वयं द्युतिमान हैं- शक्तिसंपन्न हैं- किंतु अपने गुण वे स्वयं अपने में समाहित किये रहते हैं जबकि देवता अपनी शक्ति, द्युति आदि संपर्क में आये व्यक्तियों को भी प्रदान करते हैं। देवता देवों से अधिक विराट हैं क्योंकि उनकी प्रवृत्ति अपनी शक्ति, द्युति, गुण आदि का वितरण करने की होती है। जब कोई देव दूसरे को अपना सहभागी बना लेता है, वह देवता कहलाने लगता है। | ||
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*पाणिनि दोनों शब्दों को पर्यायवाची मानते हैं: | *पाणिनि दोनों शब्दों को पर्यायवाची मानते हैं: | ||
देवो दानाद्वा दीपनाद्वा द्योतनाद्वा द्युस्थानो भवतीति वा।<br /> | देवो दानाद्वा दीपनाद्वा द्योतनाद्वा द्युस्थानो भवतीति वा।<br /> | ||
यो देव: सा देवता इति।<balloon title="निरूक्त 7-15" style=color:blue>*</balloon> | यो देव: सा देवता इति।<balloon title="निरूक्त 7-15" style=color:blue>*</balloon> | ||
− | जब देव [[वेद]]- | + | जब देव [[वेद]]-मन्त्र का विषय बन जाता है, तब वह देवता कहलाने लगता है जिससे किसी शक्ति अथवा पदार्थ को प्राप्त करने की प्रार्थना की जाय और वह जी खोलकर देना आंरभ करे, तब वह देवता कहलाता है।<balloon title="ऋग्वेद 9.1.23" style=color:blue>*</balloon> वेदमन्त्र विशेष में, जिसके प्रति याचना है, उस मन्त्र का वही देवता माना जाता है |
− | *यजुर्वेद के अनुसार मुख्य देवताओं की संख्या बारह हैं। अग्निदेवता वातो देवता सूर्यो देवता चन्द्रमा देवता<br /> | + | *[[यजुर्वेद]] के अनुसार मुख्य देवताओं की संख्या बारह हैं। <br /> |
+ | अग्निदेवता वातो देवता सूर्यो देवता चन्द्रमा देवता<br /> | ||
वसवो देवता, रुद्रा देवता, आदित्या देवता मरुतो देवता।<br /> | वसवो देवता, रुद्रा देवता, आदित्या देवता मरुतो देवता।<br /> | ||
− | विश्वेदेवा देवता बृहस्पतिर्दैवतेन्द्रो देवता वारुणों देवता।< | + | विश्वेदेवा देवता बृहस्पतिर्दैवतेन्द्रो देवता वारुणों देवता।<br /> |
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#[[अग्नि]]- स्वयं अग्रसर होता है, दूसरों को भी करता है। | #[[अग्नि]]- स्वयं अग्रसर होता है, दूसरों को भी करता है। | ||
#[[सूर्य]]- उत्पादन करने वाला तथा उत्पादन हेतु सबको प्रेरित करने वाला। | #[[सूर्य]]- उत्पादन करने वाला तथा उत्पादन हेतु सबको प्रेरित करने वाला। | ||
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#वात- गतिमय- दूसरों को गति प्रदान करने वाला। | #वात- गतिमय- दूसरों को गति प्रदान करने वाला। | ||
#वसव- स्वयं स्थिरता से रहता है- दूसरी को आवास प्रदान करता है। | #वसव- स्वयं स्थिरता से रहता है- दूसरी को आवास प्रदान करता है। | ||
− | #[[ | + | #[[रुद्र]]- उपदेश, सुख, कर्मानुसार दंड देकर रूला देता है, स्वयं वैसी ही परिस्थिति में विचलित नहीं होता। |
#[[आदित्य]]- प्राकृतिक अवयवों को ग्रहण तथा वितरण करने में समर्थ। | #[[आदित्य]]- प्राकृतिक अवयवों को ग्रहण तथा वितरण करने में समर्थ। | ||
#मरूत- प्रिय के निमित्त आत्मोत्सर्ग के लिए तत्पर तथा वैसे ही मित्रों से घिरा हुआ। | #मरूत- प्रिय के निमित्त आत्मोत्सर्ग के लिए तत्पर तथा वैसे ही मित्रों से घिरा हुआ। | ||
#विश्वदेव- दानशील तथा प्रकाशित करने वाला। | #विश्वदेव- दानशील तथा प्रकाशित करने वाला। | ||
− | #[[ | + | #[[इन्द्र]]- ऐश्वर्यशाली देवताओं का अधिपति। |
#[[बृहस्पति]]- विराट विचारों का अधिपति तथा वितरक। | #[[बृहस्पति]]- विराट विचारों का अधिपति तथा वितरक। | ||
#[[वरुण]]- शुभ तथा सत्य को ग्रहण कर असत्य अशुभ को त्याग करने वाला तथा दूसरे लोगों से भी वैसा ही व्यवहार करवाने वाला। | #[[वरुण]]- शुभ तथा सत्य को ग्रहण कर असत्य अशुभ को त्याग करने वाला तथा दूसरे लोगों से भी वैसा ही व्यवहार करवाने वाला। | ||
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*ब्रह्मा सृष्टि का निर्माण करते हैं, | *ब्रह्मा सृष्टि का निर्माण करते हैं, | ||
*विष्णु पालन तथा | *विष्णु पालन तथा | ||
− | *शिव संहार करते हैं। तीनों देवताओं के साथ शक्तिरूपा नारी का अंकन भी मिलता है। पराशक्ति ने ब्रह्मा, विष्णु, महेश को क्रमश: [[सरस्वती]], [[लक्ष्मी]] तथा [[गौरी]] प्रदान कीं तभी वे सृष्टि-कार्य-निर्वाह में समर्थ हुए। जब हलाहल नामक दैत्यों ने त्रैलोक्य को घेर लिया था, विष्णु और महेश ने युद्ध में अपनी शक्तियों से उनका हनन किया था। विजय के उपरांत आदिदेवत्रय आत्मस्तुति करने लगे तो उनका मिथ्याभिमान नष्ट करने के लिए उनकी शक्तियां अंतर्धान हो गयीं, फलत: वे विक्षिप्त हो, कार्य करने में असमर्थ हो गये। [[मनु]] तथा [[सनकादि]] के तप से प्रसन्न होकर पराशक्ति ने उन्हें स्वास्थ्य तथा शक्तिरूपा लक्ष्मी तथा गौरी पुन: प्रदान की उनके जीवन फलक पर दृष्टि डालना परम आवश्यक जान पड़ता है। | + | *शिव संहार करते हैं। तीनों देवताओं के साथ शक्तिरूपा नारी का अंकन भी मिलता है। पराशक्ति ने ब्रह्मा, विष्णु, महेश को क्रमश: [[सरस्वती देवी|सरस्वती]], [[लक्ष्मी]] तथा [[गौरी]] प्रदान कीं तभी वे सृष्टि-कार्य-निर्वाह में समर्थ हुए। जब हलाहल नामक दैत्यों ने त्रैलोक्य को घेर लिया था, विष्णु और महेश ने युद्ध में अपनी शक्तियों से उनका हनन किया था। विजय के उपरांत आदिदेवत्रय आत्मस्तुति करने लगे तो उनका मिथ्याभिमान नष्ट करने के लिए उनकी शक्तियां अंतर्धान हो गयीं, फलत: वे विक्षिप्त हो, कार्य करने में असमर्थ हो गये। [[मनु]] तथा [[सनकादि]] के तप से प्रसन्न होकर पराशक्ति ने उन्हें स्वास्थ्य तथा शक्तिरूपा लक्ष्मी तथा गौरी पुन: प्रदान की उनके जीवन फलक पर दृष्टि डालना परम आवश्यक जान पड़ता है। |
+ | __TOC__ | ||
+ | ==देवताओं के स्वरूपात्मक प्रतीक== | ||
+ | *सांस्कृतिक दृष्टि से प्राय: हर देश के मान्य देवताओं का स्वरूप प्रतीकात्मक होता है- इस ओर ध्यान दें तो जान पड़ता है कि 'देवता' की स्थिति मनुष्य और परमात्मा के मध्यवर्ती हैं। मनुष्य संघर्षमय जीवन से जूझते हुए निराशा के क्षणों में जब किसी का अनपेक्षित सहारा प्राप्त करता है तब अपने कार्य की सिद्धि के लिए उसे देवता अथवा अवतार मानने लगता है। ऐसे सहयोग उसे जीवन के हर मोड़ पर मिलते हैं और धीरे-धीरे देश की संस्कृति में अनेक देवताओं की प्रतिष्ठा हो जाती है। देवताओं का कार्य-क्षेत्र एक-दूसरे से अलग मानते हुए भक्तगण उनके स्वरूप में अलग-अलग प्रकार की शक्ति तथा गुणों की स्थिति के दर्शन करते हैं जो प्रत्येक देवता के स्वरूप के प्रतीकों को दूसरे देवताओं से अलग रूप प्रदान करते हैं। इस प्रकार उनके स्वरूप भिन्न-भिन्न प्रकार की शक्ति, स्वभाव, कार्य-क्षेत्र के लिए रूढ़ हो जाते हैं। विचित्र बात तो यह है कि प्रत्येक देवता का वाहन तक दूसरे देवता से भिन्न है तथा वाहन भी किसी-न-किसी भावना का प्रतीक बनकर प्रकट होता है। | ||
+ | ==गणेश== | ||
+ | [[गणेश]] सबकी बाधाओं को हरने वाले देवता माने गये हैं। उनका स्वरूप अद्भुत है। हाथी का मुख, छोटी-छोटी आंखें, सूंड़ और बड़े-बड़े कानों से युक्त होने के कारण ही वे '''गजानन''' माना जाता है। इसी से दोनों के स्वरूप में समानता है। | ||
+ | *चौड़ा मस्तक गणेश की बुद्धिमत्ता का प्रतीक है। | ||
+ | *हाथी के समान बड़े-बड़े कान इस बात की ओर संकेत करते हैं कि गणेश छोटी से छोटी पुकार को, जरा-सी आहट को सुनने-समझने में समर्थ हैं। | ||
+ | *हाथी की आंखें बहुत दूर तक देख सकती है, सो गणेश भी दूरदर्शी हैं। | ||
+ | *हाथी की सूंड की यह विशेषता प्रसिद्ध है कि जिस सहजता से वह बड़ी-बड़ी चीजें उखाड़ती है, उतनी ही सरलता से वह सुई उठाने में समर्थ रहती है। साधारणत: एक सशक्त पहलवान छोटी वस्तु को उठाने की सूक्ष्मकर्मी वृत्ति से वंचित हो जाता हैं। सूंड़-लंबी नाक-बुद्धि का प्रतीक है। साथ ही वह 'नाद ब्रह्म' का प्रतीक भी है। | ||
+ | *गणेश की चार बांहें उनकी चारों दिशाओं की पहुंच की ओर संकेत करती हैं। | ||
+ | *देह का दाहिना भाग बुद्धि तथा अहम से युक्त रहता है | ||
+ | *जबकि बायीं ओर हृदयपक्ष की स्थिति मानी गयी है। | ||
+ | *गणेश के दाहिने ऊपर के हाथ का अंकुश इस बात का प्रतीक है कि वे सांसारिक विघ्नों का नाश करने वाले देवता है। | ||
+ | *दाहिनी ओर का दूसरा हाथ सबको आशीर्वाद देता दिखायी पड़ता है। | ||
+ | *बायीं ओर एक हाथ में रस्सी है जो कि प्रेम (राग) का पाश है जिसमें बंधकर गणेश भक्तों को सिद्धि के आनंद तक पहुंचा देते हैं। | ||
+ | *आनंद का प्रतीक मोदक (लड्डू) है जो कि उनके दूसरे बायें हाथ में रहता है। | ||
+ | *रस्सी को इच्छा और अंकुश को ज्ञान का प्रतीक भी माना गया है। | ||
+ | *उनका बड़ा पेट इस बात का प्रतीक है कि वे सबके रहस्य पचा लेते हैं उनकी इधर-से-उधर बात करने की प्रवृत्ति नहीं है। | ||
+ | *उनका एक ही दांत है। वही हाथी के दांत जैसा दांत समस्त विघ्न-बाधाओं को नष्ट करने में समर्थ है। मुख में एक ही दांत का रह जाने का कारण इस प्रकार विख्यात है: एक बार [[शिव]]-[[पार्वती]] कंदरा में सो रहे थे। गणेश द्वार-रक्षा का कार्य कर रहे थे। [[परशुराम]] शिव से मिलने वहां पहुंचे। गणेश के मना करने पर उन्होंने प्रहार कर उनका एक दांत तोड़ दिया; किंतु वे गुफ़ा में फिर भी नहीं जा पाये। गणेश प्रहार का उत्तर देना अनुचित समझते थे क्योंकि प्रहार करने वाले वृद्ध ब्राह्मण थे। यह इस तथ्य का प्रतीक है कि वे सिद्धांत और कर्त्तव्य की सिद्धि के लिए हर प्रकार का कष्ट उठाने के लिए तैयार रहते हैं। | ||
+ | *उनका श्वेत वर्ण सात्त्विक भाव का प्रतीक है। | ||
+ | इसी प्रकार अन्य सभी देवताओं की स्वरूपगत प्रतीकात्मकता मिथक साहित्य की अभूतपूर्व निधि है। उन सबका सविस्तार वर्णन यहाँ संभव नहीं है। | ||
+ | ==ब्रह्मा== | ||
+ | बहुत संक्षेप में कहा जा सकता है कि [[ब्रह्मा]] के चारों सिर चार [[वेद|वेदों]] के उद्भव स्थल हैं तो पांचवां गधे का सिर उन्होंने मात्र झूठ बोलने के लिए धारण किया था। इस प्रकार मोटे तौर पर उनका स्वरूप '''जगत जनक''' का प्रतीक भी है और अनैतिकता का अंश भी अभिव्यक्त करता है। | ||
+ | ==विष्णु== | ||
+ | शेष शय्या (अमित काल) पर आसीन विष्णु की चार बांहें धर्म, अर्थ, काम और मोक्षस्वरूप हैं। उनके स्वरूप की विस्तृत व्याख्या न करें तो भी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में समस्त सांसारिकता व्याप्त है। विष्णु इन हाथों से इस सांसारिकता का पालन करते हैं। | ||
+ | ==शिव== | ||
+ | शिव का कार्य ध्वंस करना है। उनके स्वरूप में सर्प, तृतीय नेत्र, कंठ में स्थित विष, त्रिशूल तथा ध्वंसात्मक नृत्य, तांडव, की मुद्रा इसी ओर संकेत करते है। | ||
+ | ==लक्ष्मी== | ||
+ | *लक्ष्मी का स्वरूप ऐश्वर्य की ओर इंगित करता है तो | ||
+ | *वीणा और पुस्तकधारिणी सरस्वती कला और विद्या की देवी हैं। | ||
+ | *दुर्गा रक्षा करती हैं तो | ||
+ | *महाकाली नरमुंड की माला पहने काल की प्रतीक हैं। मिथक कथाओं में देवता और देवियों की क्रियाकलापगत प्रतीकात्मकता भी विचारणीय है। | ||
+ | *ब्रह्मा सृष्टि को जन्म देने वाले देवता हैं- | ||
+ | *उनके साथ उनकी शक्ति के रूप में पुत्री सरस्वती रहती हैं। सरस्वती कला और विद्या की देवी हैं जो सृष्टि के जन्म के साथ जुड़ी हुई वस्तुएं हैं। | ||
+ | *विष्णु पालन करने वाले देवता हैं तो | ||
+ | *उनकी शक्ति लक्ष्मी (धन और ऐश्वर्य) पालन में सहायता प्रदान करती हैं। | ||
+ | *शिव के ध्वंसात्मक रूप के साथ | ||
+ | *महाकाली का ध्वंसात्मक रूप बना रहता है। इस प्रकार प्रत्येक देवता का स्वरूप किसी-न-किसी भाव के प्रतीक रूप में दर्शनीय है। देवी-देवताओं की संख्या अनंत है- स्वरूप और गुण भी अनंत हैं। | ||
+ | ==आसुरी शक्ति== | ||
+ | मिथक साहित्य में हीन प्रवृत्तियों को प्रस्तुत करने के निमित्त राक्षस-चरित्रों की योजना की गयी है। दैवीय शक्ति मनुष्य की रक्षा और पालन करती है तो आसुरी शक्तियां उसके मार्ग की बाधा बनती हैं। वे शक्तियां काम, क्रोध, लोभ और मोह से प्रेरित हीन भावनाओं का प्रतिनिधित्व करती दिखायी गयी है। राक्षसों के स्वरूप भय, क्रूरता, अनैतिकता और दंभ के प्रतीक हैं। अच्छाई और बुराई का समावेश तो सभी में रहता है- चाहे वह देव हो या दानव। अंतर केवल अनुपात का है- देवताओं में अच्छाई अधिक रहती हे, राक्षसों में बुराई। राक्षसों में सर्वाधिक प्रसिद्ध चरित [[रावण]] का है। दस सिरों से युक्त होने के कारण लंकेश रावण '''दशानन''' नाम से विख्यात हुआ। रावण का जीवन सुंदर ढंग से प्रारंभ हुआ। पिता विश्रवा से उसने चार [[वेद]] तथा छह [[वेदांग|वेदांगों]] की शिक्षा ली। जितनी निपुणता एक व्यक्ति एक मस्तक से एक जीवन में प्राप्त करता है।, उससे दसगुनी निपुणता दसों ग्रंथों में रावण को प्राप्त थी; अत: उसके दस सिर उसकी दस गुना बुद्धि और ज्ञान के प्रतीक हैं। केवल बुद्धि का विकास व्यक्तित्व का अधूरा विकास होता है- वह हृदयपक्ष से अछूता ही रहने के कारण आत्मकेंद्रित हो जाता है। अत: रावण के दस सर दसों दिशाओं में फैले उसके आतंक के प्रतीक भी माने गये हैं। उस आतंक के मूल में आत्मसुख केंद्रित राक्षसी वृत्ति थी जो दस रूपों में विकसित हुई: | ||
+ | #सुख | ||
+ | #संपत्ति, | ||
+ | #सुत, | ||
+ | #सैन्य, | ||
+ | #सहाय (प्रभुत्व के लिए संगठन), | ||
+ | #जय, | ||
+ | #प्रताप, | ||
+ | #शक्ति, | ||
+ | #बुद्धि, | ||
+ | #बड़ाई- इन सबके प्रतीक दशमुखी रावण (दशानन) के दस सिर थे। [[राम]] ने उसकी प्रत्येक वृत्ति को एक-एक सिर के रूप में नष्ट किया। | ||
+ | दशानन ने अनेक सफल तप किये थें वह योग सिद्ध था। रावण के स्वरूप में योग सिद्धियों का प्रतीक उसकी अमृत कुण्डी नाभि है। नाभि शरीर का केंद्र मानी जाती है। [[वाल्मीकि रामायण]] का प्रत्येक पात्र किसी-न-किसी भाव का प्रतिनिधित्व कर रहा है। रामकथा संबंधी प्रतीकात्मकता इस प्रकार है: | ||
+ | <table border="1" cellspacing="0" cellpadding="5"> | ||
+ | <tr> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p align="center"><strong>कथा के पात्र</strong><strong> </strong></p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p align="center"><strong>प्रतीक</strong><strong> </strong></p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p align="center"><strong>कथा के पात्र</strong><strong> </strong></p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p align="center"><strong>प्रतीक</strong><strong> </strong></p></td> | ||
+ | </tr> | ||
+ | <tr> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>राम </p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>शुद्ध ब्रह्मांश (आत्मा),(माया से असंपृक्त) </p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>रावण </p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>अहंकार </p></td> | ||
+ | </tr> | ||
+ | <tr> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p> </p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p></p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>सुमित्रा </p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>शील </p></td> | ||
+ | </tr> | ||
+ | <tr> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>अयोध्या </p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>देह </p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>जनक </p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>वेद </p></td> | ||
+ | </tr> | ||
+ | <tr> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>दशरथ </p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>कर्म </p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>जनकपत्नी </p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>उपनिषद </p></td> | ||
+ | </tr> | ||
+ | <tr> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>कौशल्या </p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>प्रारब्ध </p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>वैदेही (सीता) </p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>आत्म विद्या </p></td> | ||
+ | </tr> | ||
+ | <tr> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>लक्ष्मण </p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>यतीत्व </p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>अग्नि परीक्षा </p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>ज्ञानाग्नि </p></td> | ||
+ | </tr> | ||
+ | <tr> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>भरत </p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>संयम </p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>[[अहल्या]] </p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>जड़ वृत्ति </p></td> | ||
+ | </tr> | ||
+ | <tr> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>शत्रुघ्न</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>नियम</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>गौतम </p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>स्थिरता</p></td> | ||
+ | </tr> | ||
+ | <tr> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>विश्वामित्र</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>तप</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>सुग्रीव</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>विवेक</p></td> | ||
+ | </tr> | ||
+ | <tr> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>यज्ञ</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>एकाग्रता</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>हनुमान</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>प्रेम</p></td> | ||
+ | </tr> | ||
+ | <tr> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>मरीच</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>कपट</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>जामवंत </p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>विचार</p></td> | ||
+ | </tr> | ||
+ | <tr> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>सुबाहु</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>क्रोध</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>[[अंगद]]</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>धैर्य</p></td> | ||
+ | </tr> | ||
+ | <tr> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>ताड़का</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>कलह</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>नल-नील</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>सम-दम</p></td> | ||
+ | </tr> | ||
+ | <tr> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>मिथिला</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>सत्संग</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>बाली</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>प्रमाद</p></td> | ||
+ | </tr> | ||
+ | <tr> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>परशुराम</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>चित्त</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>[[सम्पाती|संपाती]] </p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>निष्काम</p></td> | ||
+ | </tr> | ||
+ | <tr> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>कैकेयी</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>द्वैत भाव</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>मेघनाद</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>काम</p></td> | ||
+ | </tr> | ||
+ | <tr> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>मंदोदरी</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>चातुर्य</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>वसिष्ठ</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>विज्ञान</p></td> | ||
+ | </tr> | ||
+ | <tr> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>राक्षसी सेना</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>आसुरी वृत्ति</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>सुतीक्ष्ण</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>धारणा</p></td> | ||
+ | </tr> | ||
+ | <tr> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>वानर सेना</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>दैवी वृत्ति</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>अगस्त्य</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>योग</p></td> | ||
+ | </tr> | ||
+ | <tr> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>वन</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>वैराग्य</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>शूर्पणखा</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>ईर्ष्या</p></td> | ||
+ | </tr> | ||
+ | <tr> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>खरदूषण</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>लोभ</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>कुंभकर्ण</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>मोह</p></td> | ||
+ | </tr> | ||
+ | <tr> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>जटायु</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>उपकार</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>अंगद का पांव</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>दृढ़ता</p></td> | ||
+ | </tr> | ||
+ | <tr> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>विभीषण</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>शुद्धाचार</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>नारद</p></td> | ||
+ | <td width="160" valign="top"><p>भजनानंद</p></td> | ||
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+ | *डॉ॰ मनमोहन सहगल ने हरिसिंहकृत आत्मरामायण में प्रतीकात्मकता की खोज की है, उनमें से कुछ तथ्य समस्त राम-साहित्य में ज्यों-के-त्यों मिलते हैं। | ||
+ | मिथक साहित्य में स्वभाव की विशेषताओं के आधार पर पशु-पक्षियों को भी विभिन्न वृत्तियों का प्रतीक माना गया है। उदाहरण के लिए कुछ पशु-पक्षियों का उल्लेख निम्नलिखित है: | ||
+ | ==हंस== | ||
+ | श्वेत वर्ण का निष्कलंक पक्षी 'हंस नीर-क्षीर-विवेकी कहलाता है। उसमें दूध और पानी अलग करने की क्षमता है अर्थात वह सार तत्त्व ग्रहण करके नि:सार वस्तु छोड़ने में समर्थ है। इस दृष्टि से उसका नाम 'हंस' भी सार्थक है। आध्यात्मिक दृष्टि मनुष्य के नि:श्वास में 'हं' और श्वास में 'स' ध्वनि सुनायी पड़ती है। मनुष्य का जीवन क्रम ही 'हंस' है क्योंकि उसमें ज्ञान का अर्जन संभव है। अत: हंस 'ज्ञान' विवेक, कला को देवी सरस्वती का वाहन है। | ||
+ | ==बैल== | ||
+ | [[शिव]] का वाहन नंदी नामक बैल है। बैल की विशेषता शक्ति-संपन्नता के साथ-साथ कर्मठता मानी गयी है। उन दोनों तत्त्वों का प्रतीक नंदी है। ऐसी अनेक कथाएं हैं जो इन गुणों पर प्रकाश डालती हैं। एक बार नंदी पहरेदार का काम कर रहा था। शिव [[पार्वती]] के साथ विहार कर रहे थे। [[भृगु]] उनके दर्शन करने आये- किंतु नंदी ने उन्हें गुफ़ा के अंदर नहीं जाने दिया। भृगु ने शाप दिये, पर नंदी निर्विकार रूप से मार्ग रोके रहा। ऐसी ही शिव-पार्वती की आज्ञा थी। एक बार [[रावण]] ने अपने हाथ पर कैलास पर्वत उठा लिया था। नंदी ने क्रुद्ध होकर अपने पांव से ऐसा दबाव डाला कि रावण का हाथ ही दब गया। जब तक उसने शिव की आराधना नहीं की तथा नंदी से क्षमा नहीं मांगी, नंदी ने उसे छोड़ा ही नहीं। शिव कल्याणकारी भावों के प्रतीक हैं तो नंदी कर्मठता और शक्ति का। इन दोनों के माध्यम से ही कल्याण का फैलाव संभव है। | ||
+ | ==नाग== | ||
+ | मिथक साहित्य में सर्प अनेक तत्त्वों का प्रतिनिधित्व करता है। मणि से सुसज्जित होने के कारण वह धन का प्रतीक है। 'जहां सर्प कुण्डली मारकर बैठा हो, वहां पृथ्वी में धन गड़ा है'- ऐसा माना जाता है। सर्प की टेढ़ी-तिरछी चाल उसे राजनीतिक निपुणता का प्रतीक भी बना देती है- किंतु सर्वाधिक मान्य रूप 'काल' के प्रतीक में मिलता है। सर्प की गति जल, स्थल, [[वायु]] सभी स्थानों में है। उड़नेवाले सर्प, [[पृथ्वी]] में बिल बनाकर रहनेवाले सर्प तथा जल में निवास करनेवाले नाग इस बात के प्रतीक हैं कि 'काल' सर्वव्यापी है। जगत की उत्पत्ति से पूर्व केवल जल में नाग शेष था- इसी से '''शेषनाग''' कहा गया। उसकी कुण्डली की शय्या पर [[विष्णु]] ने निवास किया तथा उसके एक सहस्त्र फन विष्णु के मस्तक पर छत्र की भांति विद्यमान थे। इस चित्र के माध्यम से स्पष्ट हुआ कि राजनीतिक निपुणता पर आसीन विष्णु 'काल-रक्षित' थे, अर्थात उसको घेरकर काल शत्रुओं से उन्हें पूर्ण सुरक्षा प्रदान कर रहा था। | ||
− | [[en:]] | + | ==कुत्ता== |
− | [[ | + | वफादारी का सर्वस्वीकृत प्रतीक है। 'सरमा' की कथा इस तथ्य की साक्षी है। |
− | [[ | + | ==कबूतर== |
− | [[ | + | केतु का वाहन होने के नाते अशुभ विनाश का द्योतन करता है तो |
+ | ==सिंह== | ||
+ | सिंह शक्ति का प्रतीक है। | ||
+ | ==कोकिल== | ||
+ | कोकिल संगीत का बिंब है। | ||
+ | ==मृग== | ||
+ | मृग संगीत प्रेमियों का प्रतीक है। | ||
+ | ==कौए== | ||
+ | अतिथि-आगमन के सूचक हैं और | ||
+ | ==गाय== | ||
+ | माता स्वरूपिणी हैं- सब इच्छाएं पूर्ण करने वाली। सबका पालन करने वाली '''कामधेनु''' है। | ||
+ | ==देवताओं के नाम== | ||
+ | *देवताओं के 26 नाम हैं- | ||
+ | (अमरकोश के अनुसार) | ||
+ | #अमर | ||
+ | #निर्जर | ||
+ | #देव | ||
+ | #त्रिदश | ||
+ | #विबुध | ||
+ | #सुर | ||
+ | #सुपर्वन | ||
+ | #सुमनस | ||
+ | #त्रिदिवेश | ||
+ | #दिवौकस | ||
+ | #आदितेय | ||
+ | #दिविषद | ||
+ | #लेख | ||
+ | #अदितिनन्दन | ||
+ | #आदित्य | ||
+ | #ॠभु | ||
+ | #अस्वप्न | ||
+ | #अमर्त्य | ||
+ | #अमृतान्धस | ||
+ | #बर्हिर्मुख | ||
+ | #क्रतुभुज | ||
+ | #गीर्वाण | ||
+ | #दानवारि | ||
+ | #वृन्दारक | ||
+ | #दैवत | ||
+ | #देवता। | ||
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+ | [[en:Devata]] | ||
+ | [[Category: कोश]] | ||
+ | [[Category:भगवान-अवतार]] | ||
+ | [[Category:पौराणिक]] | ||
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१०:२९, ११ मई २०१० के समय का अवतरण
देवता / Devata
'देव' शब्द में 'तल्' प्रत्यय लगाकर 'देवता' शब्द की व्युत्पत्ति होती है। अत: दोनों में अर्थ-साम्य है। निरूक्तकार ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा, 'जो कुछ देता है वही देवता है अर्थात देव स्वयं द्युतिमान हैं- शक्तिसंपन्न हैं- किंतु अपने गुण वे स्वयं अपने में समाहित किये रहते हैं जबकि देवता अपनी शक्ति, द्युति आदि संपर्क में आये व्यक्तियों को भी प्रदान करते हैं। देवता देवों से अधिक विराट हैं क्योंकि उनकी प्रवृत्ति अपनी शक्ति, द्युति, गुण आदि का वितरण करने की होती है। जब कोई देव दूसरे को अपना सहभागी बना लेता है, वह देवता कहलाने लगता है।
- पाणिनि दोनों शब्दों को पर्यायवाची मानते हैं:
देवो दानाद्वा दीपनाद्वा द्योतनाद्वा द्युस्थानो भवतीति वा।
यो देव: सा देवता इति।<balloon title="निरूक्त 7-15" style=color:blue>*</balloon>
जब देव वेद-मन्त्र का विषय बन जाता है, तब वह देवता कहलाने लगता है जिससे किसी शक्ति अथवा पदार्थ को प्राप्त करने की प्रार्थना की जाय और वह जी खोलकर देना आंरभ करे, तब वह देवता कहलाता है।<balloon title="ऋग्वेद 9.1.23" style=color:blue>*</balloon> वेदमन्त्र विशेष में, जिसके प्रति याचना है, उस मन्त्र का वही देवता माना जाता है
- यजुर्वेद के अनुसार मुख्य देवताओं की संख्या बारह हैं।
अग्निदेवता वातो देवता सूर्यो देवता चन्द्रमा देवता
वसवो देवता, रुद्रा देवता, आदित्या देवता मरुतो देवता।
विश्वेदेवा देवता बृहस्पतिर्दैवतेन्द्रो देवता वारुणों देवता।
- अग्नि- स्वयं अग्रसर होता है, दूसरों को भी करता है।
- सूर्य- उत्पादन करने वाला तथा उत्पादन हेतु सबको प्रेरित करने वाला।
- चंद्र- आह्लादमय- दूसरों में आह्लाद का वितरण करने वाला।
- वात- गतिमय- दूसरों को गति प्रदान करने वाला।
- वसव- स्वयं स्थिरता से रहता है- दूसरी को आवास प्रदान करता है।
- रुद्र- उपदेश, सुख, कर्मानुसार दंड देकर रूला देता है, स्वयं वैसी ही परिस्थिति में विचलित नहीं होता।
- आदित्य- प्राकृतिक अवयवों को ग्रहण तथा वितरण करने में समर्थ।
- मरूत- प्रिय के निमित्त आत्मोत्सर्ग के लिए तत्पर तथा वैसे ही मित्रों से घिरा हुआ।
- विश्वदेव- दानशील तथा प्रकाशित करने वाला।
- इन्द्र- ऐश्वर्यशाली देवताओं का अधिपति।
- बृहस्पति- विराट विचारों का अधिपति तथा वितरक।
- वरुण- शुभ तथा सत्य को ग्रहण कर असत्य अशुभ को त्याग करने वाला तथा दूसरे लोगों से भी वैसा ही व्यवहार करवाने वाला।
- श्रुति, अनुश्रुति, पुराण आदि ग्रंथों के पारायण से स्पष्ट है कि मूलत: देवत्रय की कल्पना सर्वाधिक मान्य रही है। वे ब्रह्मा, विष्णु, महेश नाम से विख्यात हैं।
- ब्रह्मा सृष्टि का निर्माण करते हैं,
- विष्णु पालन तथा
- शिव संहार करते हैं। तीनों देवताओं के साथ शक्तिरूपा नारी का अंकन भी मिलता है। पराशक्ति ने ब्रह्मा, विष्णु, महेश को क्रमश: सरस्वती, लक्ष्मी तथा गौरी प्रदान कीं तभी वे सृष्टि-कार्य-निर्वाह में समर्थ हुए। जब हलाहल नामक दैत्यों ने त्रैलोक्य को घेर लिया था, विष्णु और महेश ने युद्ध में अपनी शक्तियों से उनका हनन किया था। विजय के उपरांत आदिदेवत्रय आत्मस्तुति करने लगे तो उनका मिथ्याभिमान नष्ट करने के लिए उनकी शक्तियां अंतर्धान हो गयीं, फलत: वे विक्षिप्त हो, कार्य करने में असमर्थ हो गये। मनु तथा सनकादि के तप से प्रसन्न होकर पराशक्ति ने उन्हें स्वास्थ्य तथा शक्तिरूपा लक्ष्मी तथा गौरी पुन: प्रदान की उनके जीवन फलक पर दृष्टि डालना परम आवश्यक जान पड़ता है।
देवताओं के स्वरूपात्मक प्रतीक
- सांस्कृतिक दृष्टि से प्राय: हर देश के मान्य देवताओं का स्वरूप प्रतीकात्मक होता है- इस ओर ध्यान दें तो जान पड़ता है कि 'देवता' की स्थिति मनुष्य और परमात्मा के मध्यवर्ती हैं। मनुष्य संघर्षमय जीवन से जूझते हुए निराशा के क्षणों में जब किसी का अनपेक्षित सहारा प्राप्त करता है तब अपने कार्य की सिद्धि के लिए उसे देवता अथवा अवतार मानने लगता है। ऐसे सहयोग उसे जीवन के हर मोड़ पर मिलते हैं और धीरे-धीरे देश की संस्कृति में अनेक देवताओं की प्रतिष्ठा हो जाती है। देवताओं का कार्य-क्षेत्र एक-दूसरे से अलग मानते हुए भक्तगण उनके स्वरूप में अलग-अलग प्रकार की शक्ति तथा गुणों की स्थिति के दर्शन करते हैं जो प्रत्येक देवता के स्वरूप के प्रतीकों को दूसरे देवताओं से अलग रूप प्रदान करते हैं। इस प्रकार उनके स्वरूप भिन्न-भिन्न प्रकार की शक्ति, स्वभाव, कार्य-क्षेत्र के लिए रूढ़ हो जाते हैं। विचित्र बात तो यह है कि प्रत्येक देवता का वाहन तक दूसरे देवता से भिन्न है तथा वाहन भी किसी-न-किसी भावना का प्रतीक बनकर प्रकट होता है।
गणेश
गणेश सबकी बाधाओं को हरने वाले देवता माने गये हैं। उनका स्वरूप अद्भुत है। हाथी का मुख, छोटी-छोटी आंखें, सूंड़ और बड़े-बड़े कानों से युक्त होने के कारण ही वे गजानन माना जाता है। इसी से दोनों के स्वरूप में समानता है।
- चौड़ा मस्तक गणेश की बुद्धिमत्ता का प्रतीक है।
- हाथी के समान बड़े-बड़े कान इस बात की ओर संकेत करते हैं कि गणेश छोटी से छोटी पुकार को, जरा-सी आहट को सुनने-समझने में समर्थ हैं।
- हाथी की आंखें बहुत दूर तक देख सकती है, सो गणेश भी दूरदर्शी हैं।
- हाथी की सूंड की यह विशेषता प्रसिद्ध है कि जिस सहजता से वह बड़ी-बड़ी चीजें उखाड़ती है, उतनी ही सरलता से वह सुई उठाने में समर्थ रहती है। साधारणत: एक सशक्त पहलवान छोटी वस्तु को उठाने की सूक्ष्मकर्मी वृत्ति से वंचित हो जाता हैं। सूंड़-लंबी नाक-बुद्धि का प्रतीक है। साथ ही वह 'नाद ब्रह्म' का प्रतीक भी है।
- गणेश की चार बांहें उनकी चारों दिशाओं की पहुंच की ओर संकेत करती हैं।
- देह का दाहिना भाग बुद्धि तथा अहम से युक्त रहता है
- जबकि बायीं ओर हृदयपक्ष की स्थिति मानी गयी है।
- गणेश के दाहिने ऊपर के हाथ का अंकुश इस बात का प्रतीक है कि वे सांसारिक विघ्नों का नाश करने वाले देवता है।
- दाहिनी ओर का दूसरा हाथ सबको आशीर्वाद देता दिखायी पड़ता है।
- बायीं ओर एक हाथ में रस्सी है जो कि प्रेम (राग) का पाश है जिसमें बंधकर गणेश भक्तों को सिद्धि के आनंद तक पहुंचा देते हैं।
- आनंद का प्रतीक मोदक (लड्डू) है जो कि उनके दूसरे बायें हाथ में रहता है।
- रस्सी को इच्छा और अंकुश को ज्ञान का प्रतीक भी माना गया है।
- उनका बड़ा पेट इस बात का प्रतीक है कि वे सबके रहस्य पचा लेते हैं उनकी इधर-से-उधर बात करने की प्रवृत्ति नहीं है।
- उनका एक ही दांत है। वही हाथी के दांत जैसा दांत समस्त विघ्न-बाधाओं को नष्ट करने में समर्थ है। मुख में एक ही दांत का रह जाने का कारण इस प्रकार विख्यात है: एक बार शिव-पार्वती कंदरा में सो रहे थे। गणेश द्वार-रक्षा का कार्य कर रहे थे। परशुराम शिव से मिलने वहां पहुंचे। गणेश के मना करने पर उन्होंने प्रहार कर उनका एक दांत तोड़ दिया; किंतु वे गुफ़ा में फिर भी नहीं जा पाये। गणेश प्रहार का उत्तर देना अनुचित समझते थे क्योंकि प्रहार करने वाले वृद्ध ब्राह्मण थे। यह इस तथ्य का प्रतीक है कि वे सिद्धांत और कर्त्तव्य की सिद्धि के लिए हर प्रकार का कष्ट उठाने के लिए तैयार रहते हैं।
- उनका श्वेत वर्ण सात्त्विक भाव का प्रतीक है।
इसी प्रकार अन्य सभी देवताओं की स्वरूपगत प्रतीकात्मकता मिथक साहित्य की अभूतपूर्व निधि है। उन सबका सविस्तार वर्णन यहाँ संभव नहीं है।
ब्रह्मा
बहुत संक्षेप में कहा जा सकता है कि ब्रह्मा के चारों सिर चार वेदों के उद्भव स्थल हैं तो पांचवां गधे का सिर उन्होंने मात्र झूठ बोलने के लिए धारण किया था। इस प्रकार मोटे तौर पर उनका स्वरूप जगत जनक का प्रतीक भी है और अनैतिकता का अंश भी अभिव्यक्त करता है।
विष्णु
शेष शय्या (अमित काल) पर आसीन विष्णु की चार बांहें धर्म, अर्थ, काम और मोक्षस्वरूप हैं। उनके स्वरूप की विस्तृत व्याख्या न करें तो भी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में समस्त सांसारिकता व्याप्त है। विष्णु इन हाथों से इस सांसारिकता का पालन करते हैं।
शिव
शिव का कार्य ध्वंस करना है। उनके स्वरूप में सर्प, तृतीय नेत्र, कंठ में स्थित विष, त्रिशूल तथा ध्वंसात्मक नृत्य, तांडव, की मुद्रा इसी ओर संकेत करते है।
लक्ष्मी
- लक्ष्मी का स्वरूप ऐश्वर्य की ओर इंगित करता है तो
- वीणा और पुस्तकधारिणी सरस्वती कला और विद्या की देवी हैं।
- दुर्गा रक्षा करती हैं तो
- महाकाली नरमुंड की माला पहने काल की प्रतीक हैं। मिथक कथाओं में देवता और देवियों की क्रियाकलापगत प्रतीकात्मकता भी विचारणीय है।
- ब्रह्मा सृष्टि को जन्म देने वाले देवता हैं-
- उनके साथ उनकी शक्ति के रूप में पुत्री सरस्वती रहती हैं। सरस्वती कला और विद्या की देवी हैं जो सृष्टि के जन्म के साथ जुड़ी हुई वस्तुएं हैं।
- विष्णु पालन करने वाले देवता हैं तो
- उनकी शक्ति लक्ष्मी (धन और ऐश्वर्य) पालन में सहायता प्रदान करती हैं।
- शिव के ध्वंसात्मक रूप के साथ
- महाकाली का ध्वंसात्मक रूप बना रहता है। इस प्रकार प्रत्येक देवता का स्वरूप किसी-न-किसी भाव के प्रतीक रूप में दर्शनीय है। देवी-देवताओं की संख्या अनंत है- स्वरूप और गुण भी अनंत हैं।
आसुरी शक्ति
मिथक साहित्य में हीन प्रवृत्तियों को प्रस्तुत करने के निमित्त राक्षस-चरित्रों की योजना की गयी है। दैवीय शक्ति मनुष्य की रक्षा और पालन करती है तो आसुरी शक्तियां उसके मार्ग की बाधा बनती हैं। वे शक्तियां काम, क्रोध, लोभ और मोह से प्रेरित हीन भावनाओं का प्रतिनिधित्व करती दिखायी गयी है। राक्षसों के स्वरूप भय, क्रूरता, अनैतिकता और दंभ के प्रतीक हैं। अच्छाई और बुराई का समावेश तो सभी में रहता है- चाहे वह देव हो या दानव। अंतर केवल अनुपात का है- देवताओं में अच्छाई अधिक रहती हे, राक्षसों में बुराई। राक्षसों में सर्वाधिक प्रसिद्ध चरित रावण का है। दस सिरों से युक्त होने के कारण लंकेश रावण दशानन नाम से विख्यात हुआ। रावण का जीवन सुंदर ढंग से प्रारंभ हुआ। पिता विश्रवा से उसने चार वेद तथा छह वेदांगों की शिक्षा ली। जितनी निपुणता एक व्यक्ति एक मस्तक से एक जीवन में प्राप्त करता है।, उससे दसगुनी निपुणता दसों ग्रंथों में रावण को प्राप्त थी; अत: उसके दस सिर उसकी दस गुना बुद्धि और ज्ञान के प्रतीक हैं। केवल बुद्धि का विकास व्यक्तित्व का अधूरा विकास होता है- वह हृदयपक्ष से अछूता ही रहने के कारण आत्मकेंद्रित हो जाता है। अत: रावण के दस सर दसों दिशाओं में फैले उसके आतंक के प्रतीक भी माने गये हैं। उस आतंक के मूल में आत्मसुख केंद्रित राक्षसी वृत्ति थी जो दस रूपों में विकसित हुई:
- सुख
- संपत्ति,
- सुत,
- सैन्य,
- सहाय (प्रभुत्व के लिए संगठन),
- जय,
- प्रताप,
- शक्ति,
- बुद्धि,
- बड़ाई- इन सबके प्रतीक दशमुखी रावण (दशानन) के दस सिर थे। राम ने उसकी प्रत्येक वृत्ति को एक-एक सिर के रूप में नष्ट किया।
दशानन ने अनेक सफल तप किये थें वह योग सिद्ध था। रावण के स्वरूप में योग सिद्धियों का प्रतीक उसकी अमृत कुण्डी नाभि है। नाभि शरीर का केंद्र मानी जाती है। वाल्मीकि रामायण का प्रत्येक पात्र किसी-न-किसी भाव का प्रतिनिधित्व कर रहा है। रामकथा संबंधी प्रतीकात्मकता इस प्रकार है:
कथा के पात्र |
प्रतीक |
कथा के पात्र |
प्रतीक |
राम |
शुद्ध ब्रह्मांश (आत्मा),(माया से असंपृक्त) |
रावण |
अहंकार |
|
सुमित्रा |
शील |
|
अयोध्या |
देह |
जनक |
वेद |
दशरथ |
कर्म |
जनकपत्नी |
उपनिषद |
कौशल्या |
प्रारब्ध |
वैदेही (सीता) |
आत्म विद्या |
लक्ष्मण |
यतीत्व |
अग्नि परीक्षा |
ज्ञानाग्नि |
भरत |
संयम |
जड़ वृत्ति |
|
शत्रुघ्न |
नियम |
गौतम |
स्थिरता |
विश्वामित्र |
तप |
सुग्रीव |
विवेक |
यज्ञ |
एकाग्रता |
हनुमान |
प्रेम |
मरीच |
कपट |
जामवंत |
विचार |
सुबाहु |
क्रोध |
धैर्य |
|
ताड़का |
कलह |
नल-नील |
सम-दम |
मिथिला |
सत्संग |
बाली |
प्रमाद |
परशुराम |
चित्त |
निष्काम |
|
कैकेयी |
द्वैत भाव |
मेघनाद |
काम |
मंदोदरी |
चातुर्य |
वसिष्ठ |
विज्ञान |
राक्षसी सेना |
आसुरी वृत्ति |
सुतीक्ष्ण |
धारणा |
वानर सेना |
दैवी वृत्ति |
अगस्त्य |
योग |
वन |
वैराग्य |
शूर्पणखा |
ईर्ष्या |
खरदूषण |
लोभ |
कुंभकर्ण |
मोह |
जटायु |
उपकार |
अंगद का पांव |
दृढ़ता |
विभीषण |
शुद्धाचार |
नारद |
भजनानंद |
- डॉ॰ मनमोहन सहगल ने हरिसिंहकृत आत्मरामायण में प्रतीकात्मकता की खोज की है, उनमें से कुछ तथ्य समस्त राम-साहित्य में ज्यों-के-त्यों मिलते हैं।
मिथक साहित्य में स्वभाव की विशेषताओं के आधार पर पशु-पक्षियों को भी विभिन्न वृत्तियों का प्रतीक माना गया है। उदाहरण के लिए कुछ पशु-पक्षियों का उल्लेख निम्नलिखित है:
हंस
श्वेत वर्ण का निष्कलंक पक्षी 'हंस नीर-क्षीर-विवेकी कहलाता है। उसमें दूध और पानी अलग करने की क्षमता है अर्थात वह सार तत्त्व ग्रहण करके नि:सार वस्तु छोड़ने में समर्थ है। इस दृष्टि से उसका नाम 'हंस' भी सार्थक है। आध्यात्मिक दृष्टि मनुष्य के नि:श्वास में 'हं' और श्वास में 'स' ध्वनि सुनायी पड़ती है। मनुष्य का जीवन क्रम ही 'हंस' है क्योंकि उसमें ज्ञान का अर्जन संभव है। अत: हंस 'ज्ञान' विवेक, कला को देवी सरस्वती का वाहन है।
बैल
शिव का वाहन नंदी नामक बैल है। बैल की विशेषता शक्ति-संपन्नता के साथ-साथ कर्मठता मानी गयी है। उन दोनों तत्त्वों का प्रतीक नंदी है। ऐसी अनेक कथाएं हैं जो इन गुणों पर प्रकाश डालती हैं। एक बार नंदी पहरेदार का काम कर रहा था। शिव पार्वती के साथ विहार कर रहे थे। भृगु उनके दर्शन करने आये- किंतु नंदी ने उन्हें गुफ़ा के अंदर नहीं जाने दिया। भृगु ने शाप दिये, पर नंदी निर्विकार रूप से मार्ग रोके रहा। ऐसी ही शिव-पार्वती की आज्ञा थी। एक बार रावण ने अपने हाथ पर कैलास पर्वत उठा लिया था। नंदी ने क्रुद्ध होकर अपने पांव से ऐसा दबाव डाला कि रावण का हाथ ही दब गया। जब तक उसने शिव की आराधना नहीं की तथा नंदी से क्षमा नहीं मांगी, नंदी ने उसे छोड़ा ही नहीं। शिव कल्याणकारी भावों के प्रतीक हैं तो नंदी कर्मठता और शक्ति का। इन दोनों के माध्यम से ही कल्याण का फैलाव संभव है।
नाग
मिथक साहित्य में सर्प अनेक तत्त्वों का प्रतिनिधित्व करता है। मणि से सुसज्जित होने के कारण वह धन का प्रतीक है। 'जहां सर्प कुण्डली मारकर बैठा हो, वहां पृथ्वी में धन गड़ा है'- ऐसा माना जाता है। सर्प की टेढ़ी-तिरछी चाल उसे राजनीतिक निपुणता का प्रतीक भी बना देती है- किंतु सर्वाधिक मान्य रूप 'काल' के प्रतीक में मिलता है। सर्प की गति जल, स्थल, वायु सभी स्थानों में है। उड़नेवाले सर्प, पृथ्वी में बिल बनाकर रहनेवाले सर्प तथा जल में निवास करनेवाले नाग इस बात के प्रतीक हैं कि 'काल' सर्वव्यापी है। जगत की उत्पत्ति से पूर्व केवल जल में नाग शेष था- इसी से शेषनाग कहा गया। उसकी कुण्डली की शय्या पर विष्णु ने निवास किया तथा उसके एक सहस्त्र फन विष्णु के मस्तक पर छत्र की भांति विद्यमान थे। इस चित्र के माध्यम से स्पष्ट हुआ कि राजनीतिक निपुणता पर आसीन विष्णु 'काल-रक्षित' थे, अर्थात उसको घेरकर काल शत्रुओं से उन्हें पूर्ण सुरक्षा प्रदान कर रहा था।
कुत्ता
वफादारी का सर्वस्वीकृत प्रतीक है। 'सरमा' की कथा इस तथ्य की साक्षी है।
कबूतर
केतु का वाहन होने के नाते अशुभ विनाश का द्योतन करता है तो
सिंह
सिंह शक्ति का प्रतीक है।
कोकिल
कोकिल संगीत का बिंब है।
मृग
मृग संगीत प्रेमियों का प्रतीक है।
कौए
अतिथि-आगमन के सूचक हैं और
गाय
माता स्वरूपिणी हैं- सब इच्छाएं पूर्ण करने वाली। सबका पालन करने वाली कामधेनु है।
देवताओं के नाम
- देवताओं के 26 नाम हैं-
(अमरकोश के अनुसार)
- अमर
- निर्जर
- देव
- त्रिदश
- विबुध
- सुर
- सुपर्वन
- सुमनस
- त्रिदिवेश
- दिवौकस
- आदितेय
- दिविषद
- लेख
- अदितिनन्दन
- आदित्य
- ॠभु
- अस्वप्न
- अमर्त्य
- अमृतान्धस
- बर्हिर्मुख
- क्रतुभुज
- गीर्वाण
- दानवारि
- वृन्दारक
- दैवत
- देवता।