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− | हे पार्थ ! दुष्ट बुद्धिवाला मनुष्य जिस धारणशक्ति के द्वारा निद्रा, भय, चिन्ता और दु:ख को तथा उन्मत्तता को भी नहीं छोड़ता अर्थात् धारण किये रहता है, वह धारणशक्ति तामसी है ।।35।। | + | हे <balloon title="पार्थ, भारत, धनंजय, पृथापुत्र, परन्तप, गुडाकेश, निष्पाप, महाबाहो सभी अर्जुन के सम्बोधन है।" style="color:green">पार्थ</balloon> ! दुष्ट बुद्धिवाला मनुष्य जिस धारणशक्ति के द्वारा निद्रा, भय, चिन्ता और दु:ख को तथा उन्मत्तता को भी नहीं छोड़ता अर्थात् धारण किये रहता है, वह धारणशक्ति तामसी है ।।35।। |
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− | यत् = जो (कुछ) ; कर्म = कर्म है ; (तत्) = वह (सब) ; एव = ही ; दु:खम् = दु:खरूप है ; इति = ऐसे (समझकर) ; कायक्लेशभयात् = शारीरिक क्लेश के भय से कर्मों का) ; त्यजेत् = त्याग कर दे ; स: = वह | + | यत् = जो (कुछ) ; कर्म = कर्म है ; (तत्) = वह (सब) ; एव = ही ; दु:खम् = दु:खरूप है ; इति = ऐसे (समझकर) ; कायक्लेशभयात् = शारीरिक क्लेश के भय से कर्मों का) ; त्यजेत् = त्याग कर दे ; स: = वह पुरुष (उस) ; राजसम् = राजस ; त्यागम् = त्याग को ; कृत्वा = करके ; एव = भी ; त्यागफलम् = त्याग के फलको ; न लभेत् = प्राप्त नहीं होता है ; |
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१२:२९, २१ मार्च २०१० के समय का अवतरण
गीता अध्याय-18 श्लोक-35 / Gita Chapter-18 Verse-35
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