"जय केशव 22" के अवतरणों में अंतर
व्यवस्थापन (चर्चा | योगदान) छो (Text replace - "खास" to "ख़ास") |
व्यवस्थापन (चर्चा | योगदान) छो (Text replace - "काफी" to "काफ़ी") |
||
पंक्ति ४४: | पंक्ति ४४: | ||
"जैसी आज्ञा । इतना सुन हंसा हाथ में तलवार लिये गुप्त द्वार में प्रविष्ट हो गई । | "जैसी आज्ञा । इतना सुन हंसा हाथ में तलवार लिये गुप्त द्वार में प्रविष्ट हो गई । | ||
"हाँ ! तुम्हारे जाने के बाद गुफा को बन्द करते जाना । कह राज गुरू ने द्वार बन्द कर दिया । और केशव के चरणों से लिपट गये । उनकी आँखों से आँसू थम नही रहे थे । हंसा के जाते ही इन्दुमती ने दिव्या की ओर तलवार बढ़ाई तो वीरासन में बैठ तलवार अपने हाथ में ले वह नतमस्तक हो बोली−"रानी माँ आज्ञा दें । | "हाँ ! तुम्हारे जाने के बाद गुफा को बन्द करते जाना । कह राज गुरू ने द्वार बन्द कर दिया । और केशव के चरणों से लिपट गये । उनकी आँखों से आँसू थम नही रहे थे । हंसा के जाते ही इन्दुमती ने दिव्या की ओर तलवार बढ़ाई तो वीरासन में बैठ तलवार अपने हाथ में ले वह नतमस्तक हो बोली−"रानी माँ आज्ञा दें । | ||
− | "तुम यहीं द्वार पर ठहरो ।" इतना कह वह कुलचन्द्र के साथ नीचे चबूतरे के पास बढ़ने लगी । सूर्य का प्रकाश ज्यों−ज्यों फैलने लगा महालय युद्ध रक्त में रंगने लगी । बाह्य कोट में हजारों हिन्दू वीर बाणों से बिंधे पड़े थे । प्राचीरों पर चढ़े यवन तलवारें और भाले लिये दौड़ रहे थे । ऐसा लगता था मानो उसके पास तीर नहीं रहे । इन्दुमती ने देखा तो अपनी वीरांगनाओं को प्राचीरों पर पहुँचाया और धर्नुधर वीरांगनाओं ने प्राचीरों पर खड़े यवनों पर बाण बरसाना प्रारम्भ कर दिया । सैंकड़ो यवन खेत रहे ! लेकिन पूर्वी द्वार की ओर लम्बे−लम्बे भाले और तलवार लिये भेड़ों के झुण्ड की तरह यवन महालय में घुसने लगे । उनके पास इतना भी स्थान न था कि वे शस्त्र चला सकें । महमूद स्वयं सेना को सीढ़ियों को ओर हूल रहा था । इन्दुमती ने ज्यों ही तलवार ऊँची की कि हजारों अल्लाह हो अकबर की चीखें उठने लगी । यवन चारों तरफ भागने लगा । इतने में राजा कुलचन्द्र बाज की तरह झपटे । वे जिधर भी हाथ चलाते हाहाकार मच जाता । वे युद्ध करते−करते | + | "तुम यहीं द्वार पर ठहरो ।" इतना कह वह कुलचन्द्र के साथ नीचे चबूतरे के पास बढ़ने लगी । सूर्य का प्रकाश ज्यों−ज्यों फैलने लगा महालय युद्ध रक्त में रंगने लगी । बाह्य कोट में हजारों हिन्दू वीर बाणों से बिंधे पड़े थे । प्राचीरों पर चढ़े यवन तलवारें और भाले लिये दौड़ रहे थे । ऐसा लगता था मानो उसके पास तीर नहीं रहे । इन्दुमती ने देखा तो अपनी वीरांगनाओं को प्राचीरों पर पहुँचाया और धर्नुधर वीरांगनाओं ने प्राचीरों पर खड़े यवनों पर बाण बरसाना प्रारम्भ कर दिया । सैंकड़ो यवन खेत रहे ! लेकिन पूर्वी द्वार की ओर लम्बे−लम्बे भाले और तलवार लिये भेड़ों के झुण्ड की तरह यवन महालय में घुसने लगे । उनके पास इतना भी स्थान न था कि वे शस्त्र चला सकें । महमूद स्वयं सेना को सीढ़ियों को ओर हूल रहा था । इन्दुमती ने ज्यों ही तलवार ऊँची की कि हजारों अल्लाह हो अकबर की चीखें उठने लगी । यवन चारों तरफ भागने लगा । इतने में राजा कुलचन्द्र बाज की तरह झपटे । वे जिधर भी हाथ चलाते हाहाकार मच जाता । वे युद्ध करते−करते काफ़ी दूर निकल गये । इन्दुमती ने देखा तो उसे समझते देर न लगी कि शत्रु श्री महाराज को घेरना चाह रहा है वह तुरन्त शत्रु संहारिणी बन यवनों पर टूट पड़ी । |
महमूद दोनों की वीरता देख आश्चर्यचकित हो रहा था । उसे वे दोनों जीवित चाहिए थे । अत: वह युद्धरत रख दोनों को ही थका लेना चाहता था परन्तु इन्दुमती को समझते देर न लगी और राजा कुलचन्द्र को राह बनाते हुई महालय से मुख्य द्वार कि ओर ले जाने लगी । | महमूद दोनों की वीरता देख आश्चर्यचकित हो रहा था । उसे वे दोनों जीवित चाहिए थे । अत: वह युद्धरत रख दोनों को ही थका लेना चाहता था परन्तु इन्दुमती को समझते देर न लगी और राजा कुलचन्द्र को राह बनाते हुई महालय से मुख्य द्वार कि ओर ले जाने लगी । | ||
महमूद ने जब ये देख लिया कि मथुरा पर फतह हो चुकी है तो उसने लड़ाई रोकर मसऊद और अब्बास को अपने पास बुलाया और महालय की सीढ़ियों पर ही खड़े हो कर बोला−"मेरे बहादुरों अमीर की मंजिल सामने है इसको जिंदा पकड़कर गजनी के महलों में ले चलना ही महमूद की जीत होगी । मैं हुक्म देता हूँ इनको जिंदा पकड़ा जाये ।" | महमूद ने जब ये देख लिया कि मथुरा पर फतह हो चुकी है तो उसने लड़ाई रोकर मसऊद और अब्बास को अपने पास बुलाया और महालय की सीढ़ियों पर ही खड़े हो कर बोला−"मेरे बहादुरों अमीर की मंजिल सामने है इसको जिंदा पकड़कर गजनी के महलों में ले चलना ही महमूद की जीत होगी । मैं हुक्म देता हूँ इनको जिंदा पकड़ा जाये ।" | ||
पंक्ति ५३: | पंक्ति ५३: | ||
"तुम्हारा निर्णय ही तुम्हारा आदर्श है । तुम्हारा त्याग महान है, देवी । इतना कह राजा कुलचन्द्र खड़ग उठाकर इन्दुमती की ओर बढ़े ही थे, कि रस्से के फन्दे में महमूद ने इन्दुमती को कस लिया । इन्दुमती एकदम चीख पड़ी −"महाराज आपको केशव की आन जल्दी कीजिए नहीं तो मैं आत्मबलिदान करती हूँ ।"इन्दुमती का वाक्य पूरा भी न हो पाया कि राणा कतीरा ने एक ही बार में रस्सा काट डाला दूसरा वार महारानी की गर्दन पर पड़ा और महारानी का सिर उछट कर महालय के द्वार पर लगा । | "तुम्हारा निर्णय ही तुम्हारा आदर्श है । तुम्हारा त्याग महान है, देवी । इतना कह राजा कुलचन्द्र खड़ग उठाकर इन्दुमती की ओर बढ़े ही थे, कि रस्से के फन्दे में महमूद ने इन्दुमती को कस लिया । इन्दुमती एकदम चीख पड़ी −"महाराज आपको केशव की आन जल्दी कीजिए नहीं तो मैं आत्मबलिदान करती हूँ ।"इन्दुमती का वाक्य पूरा भी न हो पाया कि राणा कतीरा ने एक ही बार में रस्सा काट डाला दूसरा वार महारानी की गर्दन पर पड़ा और महारानी का सिर उछट कर महालय के द्वार पर लगा । | ||
महमूद ने आँखे मीच ली और बोला−"या−अल्लाह" लेकिन तभी राजा कुलचन्द्र सिंह की तरह दहाड़ उठे−"अरे ओ नीच लुटेरे महमूद यदि तूने दूध पिया है तो मेरा सामना कर । तुझ जैसे लुटेरों के पास दया और धर्म का क्या काम । अगर तेरी भुजाओं में बल है तो जीते जी यहाँ हाथ लगाकर देख । कहते−कहते कुलचन्द्र काँप उठे । दिव्या बिना एक पल गवायें महालय में प्रविष्ट हो गई तुरन्त द्वार बन्द हो गये । | महमूद ने आँखे मीच ली और बोला−"या−अल्लाह" लेकिन तभी राजा कुलचन्द्र सिंह की तरह दहाड़ उठे−"अरे ओ नीच लुटेरे महमूद यदि तूने दूध पिया है तो मेरा सामना कर । तुझ जैसे लुटेरों के पास दया और धर्म का क्या काम । अगर तेरी भुजाओं में बल है तो जीते जी यहाँ हाथ लगाकर देख । कहते−कहते कुलचन्द्र काँप उठे । दिव्या बिना एक पल गवायें महालय में प्रविष्ट हो गई तुरन्त द्वार बन्द हो गये । | ||
− | महमूद के शरीर पर भी | + | महमूद के शरीर पर भी काफ़ी घाव थे लेकिन कुलचन्द्र की दहाड़ सुन उसका रोम−रोम सिहर उठा और उसने हमला करने का हुक्म दे दिया और स्वंय आगे बढ़ कर बोला−"अय बहादुर मुल्क के बहादुर कुलचन्द्र अमीर तुझे दोस्ती की दावत देता है ।" |
"और कुलचन्द्र से दोस्ती के बदले भीख माँगता है ।" | "और कुलचन्द्र से दोस्ती के बदले भीख माँगता है ।" | ||
"अमीर का कहा मान ले कुलचन्द्र । अब न तू भाग सकता है और ना ही मुझसे युद्ध को बचा सकता है । न तेरे पास किला है ना फौज । अब तेरे पास इस्लाम कुबूल करने के अलावा कोई रास्ता नहीं है ।" महमूद कहते हुए तलवार लेकर कुलचन्द्र के ऊपर झपटा कि कुलचन्द्र ने खड़ग का भीषण प्रहार किया । महमूद के हाथ से तलवार छूट कर गिर गई । कुलचन्द्र दूसरा वार करें कि उसने ढाल पर रोका । कुलचन्द्र के साथी अंगरक्षक अपने स्वामी के लिए प्राणों की आहुति दे रहे थे और "राणा कतीरा की जय हो । ""महारानी इन्दुमती की जय हो !" "भगवान केशव की जय हो" के घोष जब कम होने लगे तो राणा कतीरा ने देखा उनके साथ अब कुल गिनती के योद्धा ही रह गये हैं तो उनके क्रोध का पारावार न रहा । शत्रु ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया । कुलचन्द्र का हर वार महमूद को घायल किये बिना न छोड़ता । लगभग एक घन्टे तक दो शासकों का युद्ध चलता रहा । भगवान श्रीकृष्ण के जन्मस्थान पर विशाल महालय के ऊपर खड़े राजगुरू देखते रहे । देखते−देखते हवायें चलने लगी । बादल घिरने लगे । यवन लुटेरे आकाश पर देखते तभी मसऊद बोला−आलमपनाह हुक्म दीजिये । मौसम बदल रहा है । मसऊद की बात सुन महमूद लड़ते−लड़ते बोला−हुक्म....तामील हो ।" | "अमीर का कहा मान ले कुलचन्द्र । अब न तू भाग सकता है और ना ही मुझसे युद्ध को बचा सकता है । न तेरे पास किला है ना फौज । अब तेरे पास इस्लाम कुबूल करने के अलावा कोई रास्ता नहीं है ।" महमूद कहते हुए तलवार लेकर कुलचन्द्र के ऊपर झपटा कि कुलचन्द्र ने खड़ग का भीषण प्रहार किया । महमूद के हाथ से तलवार छूट कर गिर गई । कुलचन्द्र दूसरा वार करें कि उसने ढाल पर रोका । कुलचन्द्र के साथी अंगरक्षक अपने स्वामी के लिए प्राणों की आहुति दे रहे थे और "राणा कतीरा की जय हो । ""महारानी इन्दुमती की जय हो !" "भगवान केशव की जय हो" के घोष जब कम होने लगे तो राणा कतीरा ने देखा उनके साथ अब कुल गिनती के योद्धा ही रह गये हैं तो उनके क्रोध का पारावार न रहा । शत्रु ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया । कुलचन्द्र का हर वार महमूद को घायल किये बिना न छोड़ता । लगभग एक घन्टे तक दो शासकों का युद्ध चलता रहा । भगवान श्रीकृष्ण के जन्मस्थान पर विशाल महालय के ऊपर खड़े राजगुरू देखते रहे । देखते−देखते हवायें चलने लगी । बादल घिरने लगे । यवन लुटेरे आकाश पर देखते तभी मसऊद बोला−आलमपनाह हुक्म दीजिये । मौसम बदल रहा है । मसऊद की बात सुन महमूद लड़ते−लड़ते बोला−हुक्म....तामील हो ।" |
०९:५७, २५ दिसम्बर २०११ का अवतरण
जय केशव ऐतिहासिक उपन्यास-लेखक, श्री सत्येन्दु याज्ञवल्क्य
एक ओर युद्ध की अग्नि में सम्पूर्ण ब्रज जल रहा था तो दूसरी ओर अपने प्रिय सोमदेव के बलिदान से आहत दिव्या पोतरा कुण्ड के जल में उतरती चली जा रही थी । रात्रि का अन्धकार अपनी बाहें फैलाये महालय को अपने अंक में समेटता चला जा रहा था । परन्तु नगर की बहुत बड़ी अट्टलिकाओं से आग को देख महालय में घुसने में सफलता नहीं मिली तो उसने भूखी−प्यासी सेना को युद्ध रोकने का आदेश दिया । रात्रि विश्राम का आदेश दे महमूद जब अपने तम्बू में चला गया तो नवासाशाह अपने स्थान से उठकर जानकी शाही के पास आया और बोला−"जानकी लगता है जैसे भगवान ने अपना माया जाल फेंक रखा है । मुझे तो स्वप्न में भी आशा न थी कि मथुरा में ऐसा युद्ध होगा ।"
"और यदि हम उसे अन्दर न पहुँचा सके तो हमारे सिर काट लिये जायेंगे । बच्चों का क्या होगा कहा नहीं जा सकता । हमें कुछ न कुछ तो सोचना होगा ।" वे कुछ और बात करते कि उन्हें कुछ सैनिक अपनी ओर आते दिखाई दिये । तो नवासाशाह बोला−"लगता है सैनिक अपना मनोबल खो चुके हैं और वे हमसे कुछ कहने आ रहे हैं ।" इतना कह वे आने वालों को देखने लगे कुछ देर बाद सैनिकों को साधुओं के साथ देखा । सैनिक आगे बढ़कर आया और बोला−"अन्नदाता ये बाबा लोग मथुरा से आये है । हमें लगता है जासूस हैं सो आपके पास ले आए ।"
सैनिक की बात सुन कर जानकी ने साधुओं को ध्यान से देखा और फिर नवासाशाह की ओर देखते बोला−"मित्र इसमें कोई चाल न हो ।"
"जानकी ! अवसर से लाभ न उठाने वाला मूर्ख होता हैं । ये साधु हों या जासूस, अमीर के पास ले चलो । जब वह मन्दिर के भगवान को जान सकता है तो आदमी क्या बेचता है ।"
"तब ठीक है तुम जैसा कहो ।"इतना कह वे दोनों पकड़े हुये साधु्ओं को साथ लेकर अमीर के पास पहुँचे ! अमीर को जब जानकी और नवासाशाह को साधुओं के साथ आने की बात पता लगी तो उसने गुलाम अब्बास को हकीकत पता लगाने के लिये कहा और हुक्म दिया कि यदि काम निकलता है तो जिन्दा रखो नहीं तो तलवार से साफ कर दो । महमूद की मंशा समझ गुलाम अब्बास ने साधुओं को मशालों की रोशनी में बुलाया और सामने आते ही कड़क कर बोला−"कौन हो तुम ?"
"हुजूर हम भैरविये है ! प्राण बचाकर भागे है ।"
"हूँ !" कह गुलाम अब्बास साधुओं की वेशभूषा देखने लगा और पुन: बोला−"सुनो, नमक हरामों....तुम लोगों ने हमारे साथ दगा किया है और मौत के अलावा मेरे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं है !"
"अन्नदाता, हमें प्राणदान दें । हम भगवान महाकाल की सौगन्ध खा कहते हैं आप जो कहेंगे हम वहीं करेंगे ।"
"अच्छा तो कान खोलकर सुनो−अगर तुम हमें अन्दर जाने का कोई ख़ास रास्ता दिखा सकते हो तो बोलो वरना मैं सर कलम करने का हुक्म दूँ ।"
"अब्बास की बात सुन सभी साधु एक दूसरे की ओर देखने लगे फिर एक बूढ़ा बाबाजी आगे आया ओर बोला−"बच्चा, जीवन और मृत्यु तो उपर वाले के हाथ है लेकिन यहाँ के राजा ने हमारा सर्वनाश कर दिया है इस लिये हम स्वयं बदले की आग से जल रहे है । हम अमीर की मदद करने को यहाँ आये हैं । तुम्हें विश्वास नहीं होता तो उठाओ तलवार और हमें काट डालो । लेकिन सोच लो अमीर का भला किस में है !" वृद्ध की बात सुन अब्बास की आँखों में चमक आई ! उसने वृद्ध को अपने पास बुलाया और एकान्त में सारी बातें सुनी और जब उसने साधु से पूछा−"तो बताओ वह रास्ता कौन−सा है ?"
"हुजूर, वह पक्का तालाब रतन कुण्ड के नाम से जाना जाता है जिसे आप पीछे छोड़ आये हैं । रास्ता उसी से होकर है लेकिन सँकरा होने के कारण हजारों आदमी तो एक साथ नहीं जा सकते इसलिये अच्छा होगा आप अपने चुनींदा योद्धाओं को लेकर हमारे साथ चलें ।"
"क्या तुम्हारा यकीन किया जा सकता है ?" कह अब्बास ने जानकी और नवासाशाह की ओर देखा तो उन्होंने भी अपनी स्वीकृति दे दी ! गुलाम अब्बास फिर भी सन्तुष्ट नहीं आ तो वह अमीर के पास पहुँचा और सारी बातें विस्तार से बताकर हुक्म पाने को खड़ा हो गया । गजनी के अमीर को साधुओं की बात पर विश्वास हो गया परन्तु यवन सेना के स्थान पर उसने जानकी और नवासाशाह को अपनी सेना के साथ जाने का हुक्म दिया । गुलाम अब्बास ने अमीर का हुक्म सुना दिया । हुक्म सुनते ही नवासाशाह ने तुरन्त अपने सैनिकों को आज्ञा दी और जानकी के साथ लेकर वह रतन कुण्ड की और बढ़ दिया ।
आधी रात बीत चली थी परन्तु नवासाशाह के साथ चलते−चलते जानकी का माथा ठनका वह मन ही मन सोचने लगा−"भैरवियों के साथ हम दोनों को भेजने में अमीर का क्या मकसद हो सकता है । अमीर की अधीनता स्वीकार करना राजनीति हो सकती है । उसके साथ युद्ध करना मजबूरी हो सकती है लेकिन.....।" वह आगे कुछ न सोच सका और भयभीत हुआ बाबाओं के बीच पहुँच कर बोला−"बाबा अपने धर्म की रक्षा के लिये आपका त्याग अमर रहेगा ।"
"बच्चा ! हमारा धर्म हम जानते है लेकिन इस समय तो बदले की आग में हमारा एकमात्र उद्देश्य कुलचन्द्र को हराना है और यही कारण है कि हमें आपकी सरन में जाना पड़ा ।"
"तुम्हारी यह कूटनीति अमीर को धोखा नहीं दे सकती । जानते हो उसने क्या सोचा ?"
"क्या ?"
"यहीं कि अमीर इतना मूर्ख नहीं है जितना तुम समझते हो, अन्यथा वह तुम्हारे साथ हम हिन्दुओं को ही न भेजता ।"
"आप श्रीमान अपने आपको हिन्दू समझते हैं क्या ?" एक साधू बोला तो जानकी की आवाज भर्रा गई । वह कहने लगा − बाबा तुम जो भी हो परन्तु हमारी जगह तुम होते तो समझते कि हम जैसे गद्दार को कैसे जीना पड़ता है । हम अपनों में आये....."जानकी कुछ और कह पाता कि रतन कुण्ड आ गया ।
इधर राजा कुलचन्द्र की योजना को साधु बने ब्रजवासी प्राणों को हथेली पर रख पूरा करने में लगे थे । उधर राजगुरू ने कुहासे का लाभ उठाकर सोम के क्षतविक्षत शव को एकत्रित कराया और रात्रि में ही उसकी चिता सजाना प्रारम्भ कर दिया । राजा कुलचन्द्र और महारानी इन्दुमती चिता के पास ही खड़े थे । चिता पर ज्यों ही शव रखा गया राजगुरू को दिव्या दिखाई दी । उसने सोलह श्रृंगार किये हुए थे । आँखों में अथाह वेदना का सागर सूख गया था ।
अनन्त रूप की राशि दिव्या के अन्त: में कालिन्दी की लहरें स्थिर हो चुकी भी । अपने प्राण का यह स्वरूप देख वह शव के पास आई और झुक कर चरणों में बैठ गई । कुलचन्द्र और इन्दुमती ने एक अपरिचिता को इस प्रकार देखा तो वे कुछ न समझ सके और राजगुरू की ओर देखने लगे ! राजगुरू जिनकी आँखों में आँसू उमड़ रहे थे, हृदय दिव्या को देख फटा जा रहा था । अपने आपकों संयमित कर राज परिवार को शान्त रहने का संकेत कर दिव्या की ओर बढ़े । दिव्या ने सोम के चरणरज लेकर अपनी माँग में भरी और वह कुछ और कर पाये कि राजगुरू उसके सिर पर हाथ रखते हुए बोले−
"बेटी दिव्या । तुम्हारा प्रेम अमर है । आज तुझे इस रूप में देख मुझसे कुछ नहीं बन रहा । तेरा सोम तो परलोक में भी माननीय होगा । वह कुछ और कहते कि दिव्या फूटफूट कर रो पड़ी ।" बाबा−हमने सब कुछ खो दिया । मेरी प्रतिज्ञा का फल इस तरह मिलेगा मैं जानती भी नहीं थी ।"
"बेटी तू तो सेनापति की आत्मा है, तू इसलिये अपने अन्त: में उठते विवाद का परित्याग कर भावी कर्त्तव्य की ओर ध्यान दे ।"
"नही बाबा....नहीं, मैं अपने सेनापति के साथ ही जाऊँगी ।"
"दिव्या तू समय को देख । एक ओर तेरा प्रिय है तो दूसरी ओर वह मातृतुल्य आवाज है जिसने उसे विजय और गोविन्द की तरह पाला । वे महाराज हैं तो क्या हुआ दोनों भाईयों को पुत्र करके ही इस योग्य बनाया और तेरे महान त्याग की परिणिति भौतिक प्रेम न हो कर राष्ट्र प्रेम बन गया ।"
"बा...बा । वह कुछ और कहती कि ब्रह्मदेव ने उसे एक ओर खड़े होने को कहा । दिव्या आज्ञापालक−सी एक ओर हाथ जोड़कर खड़ी हो गई । शव को चिता पर रखा गया । चन्दन कपूर और गौ घृत के मध्य वेदोक्त मंत्रों के साथ अग्नि लिये महाराज कुलचन्द्र आगे बढ़े । क्षण भर में चिता से अग्निशिखायें उर्द्धगामी हो आकाश छूने लगी । राजा कुलचन्द्र इन्दुमती के काँधे पर हाथ रख देखने लगे । राजगुरू ने दिव्या की ओर देखा और पुन: सभी लोग महालय में चले गये।
महमूद रात भर जागता रहा लेकिन रतनकुण्ड से जाने वालों का समाचार न मिला तो वह खीझ उठा । उसने सुबह के समय ही हमले का ऐलान किया और मसऊद और महदूद को नसैनियाँ, रस्सों आदि के सहारे फौज को अन्दर पहुँचाने का काम सौंपा । गुलाम अब्बास को घुड़सवारों का जिम्मा सौंपा । अरसला जजीब को हत्या लूटपाट तोड़फोड़ का कार्य सौंप दिया ।
चारों ओर यवन सैनिक फैल गये । महमूद ने पकड़े हुये लोगों से, स्त्रियों से आस−पास के नगरों का ब्यौरा लिया और चारों ओर नारकीय हाहाकार मचाने का हुक्म देकर वजू करने बैठ गया । उधर महालय से मंत्रोच्चार और शंख घड़यालों की गूँज से सारा ब्रज गूँज उठा । रानी इन्दुमती को दिव्या ने सब कुछ बताया तो इन्दुमती एक दीर्घ नि:श्वास छोड़ती बोली−
"सोम ने मुझे कभी कहा तो था लेकिन यही काल चक्र है, भगवान केशव की इच्छा....। एक वीरागंना को क्या करना चाहिए अब बताने का समय नहीं रहा ।" वे कुछ और बात करती कि महालय में रणवाद्य बज उठे ।
महमूद का हुक्म पाते ही मसऊद और महदूद दोनों ही सैनिकों को लेकर महालय की दीवार से जा टिके । नसैनियाँ और रस्से डालकर यवन ऊपर चढ़ गये और उन्होंने तीर बरसाना शुरू कर दिया । महालय में इन वाद्यों को सुनते ही सारे महालय पर शस्त्र ही शस्त्र दिखाई देने लगे ।
भगवान के पट बन्द कर दिये गये । महाराजा कुलचन्द्र भगवान केशव के चरणों में नतमस्तक हो कहने लगे−"हे केशव, हमारा तो सर्वस्व ही आप है यदि अपराध भी हुए हों तो क्षमा करना । इतना कह मुड़े कि सामने राजगुरू को साष्टाँग प्रणाम कर खड्ग हाथ में ले खड़े हुए तो राजगुरू उन्हें अपने साथ लेकर इन्दुमती के पास चल दिये । चलते−चलते कुलचन्द्र बोले−
"गुरूदेव, यवन का अन्दर आना चिन्ता का विषय है । पश्चिमी द्वार टूट चुका है।"
"श्री महाराज जो कुछ हो रहा है और जो कुछ होगा इसकी चिन्ता छोड़ अपना धर्म पालन करो । वह देखो शत्रु निकट आता जा रहा है ।"
"परन्तु हमारे वीर । नंगे पाँव अपने प्राणों की आहुति दे रहे हैं । महालय के प्रांगण में शत्रु ने लोहे की नुकीली कीलें बिखेर रखी है ।"
"भगवान श्रीकृष्ण की जन्मस्थली में मैं धर्म संसद का राजगुरू अपने आसन से एक आज्ञा देना चाहता हूँ ।"
"आप आज्ञा करें गुरूदेव ।" राजगुरू के शब्द सुनकर इन्दुमती गोविन्द को गोद में लिये प्रणाम करती हुई बोली।
"महारानी, वर्तमान तो हम भोग ही रहे हैं । ब्रज के भविष्य को गोविन्द की आवश्यकता अवश्य पड़ेगी। अत: युवराज को तुरन्त श्रीपथ भिजवा दिया जाय । यह मेरी आज्ञा है।"
"आपकी आज्ञा शिरोधार्य है पूज्यवर ।"
"तब इसको सुरक्षित पहुँचाने का दायित्व कौन उठायेगा ?"
"मैं उठाऊँगी अन्नदाता" हंसा ने आगे बढ़कर कहा और उसने अपने दोनों हाथ आगे कर दिये । इन्दुमती ने गोविन्द का माथा चूमा और राजा कुलचन्द्र की ओर बढ़ाते हुये बोली−"गोविन्द आपसे आशीष माँगता है ।"
"भगवान करे यह.....आगे कुछ और ना कह पाये और हंसा की ओर गोविन्द को देते हुये बोले−आज से तू ही इसकी माँ है ।"
राजगुरू ने हंसा को महालय के अन्दर लिया और गुप्त पाषाणी द्वार पर दस्तक दी । द्वार खुलते ही आवाज आई−"आज्ञा गुरूदेव ।"
"वत्स हंसा युवराज को लेकर आ गई है । इसे अपने साथ श्री पथ तक सकुशल पहुँचाना है । केतकीवन में तुम्हें बढ़िया अश्व और कुशल योद्धओं की टुकड़ी मिल जायेगी ।"
"जैसी आज्ञा । इतना सुन हंसा हाथ में तलवार लिये गुप्त द्वार में प्रविष्ट हो गई ।
"हाँ ! तुम्हारे जाने के बाद गुफा को बन्द करते जाना । कह राज गुरू ने द्वार बन्द कर दिया । और केशव के चरणों से लिपट गये । उनकी आँखों से आँसू थम नही रहे थे । हंसा के जाते ही इन्दुमती ने दिव्या की ओर तलवार बढ़ाई तो वीरासन में बैठ तलवार अपने हाथ में ले वह नतमस्तक हो बोली−"रानी माँ आज्ञा दें ।
"तुम यहीं द्वार पर ठहरो ।" इतना कह वह कुलचन्द्र के साथ नीचे चबूतरे के पास बढ़ने लगी । सूर्य का प्रकाश ज्यों−ज्यों फैलने लगा महालय युद्ध रक्त में रंगने लगी । बाह्य कोट में हजारों हिन्दू वीर बाणों से बिंधे पड़े थे । प्राचीरों पर चढ़े यवन तलवारें और भाले लिये दौड़ रहे थे । ऐसा लगता था मानो उसके पास तीर नहीं रहे । इन्दुमती ने देखा तो अपनी वीरांगनाओं को प्राचीरों पर पहुँचाया और धर्नुधर वीरांगनाओं ने प्राचीरों पर खड़े यवनों पर बाण बरसाना प्रारम्भ कर दिया । सैंकड़ो यवन खेत रहे ! लेकिन पूर्वी द्वार की ओर लम्बे−लम्बे भाले और तलवार लिये भेड़ों के झुण्ड की तरह यवन महालय में घुसने लगे । उनके पास इतना भी स्थान न था कि वे शस्त्र चला सकें । महमूद स्वयं सेना को सीढ़ियों को ओर हूल रहा था । इन्दुमती ने ज्यों ही तलवार ऊँची की कि हजारों अल्लाह हो अकबर की चीखें उठने लगी । यवन चारों तरफ भागने लगा । इतने में राजा कुलचन्द्र बाज की तरह झपटे । वे जिधर भी हाथ चलाते हाहाकार मच जाता । वे युद्ध करते−करते काफ़ी दूर निकल गये । इन्दुमती ने देखा तो उसे समझते देर न लगी कि शत्रु श्री महाराज को घेरना चाह रहा है वह तुरन्त शत्रु संहारिणी बन यवनों पर टूट पड़ी ।
महमूद दोनों की वीरता देख आश्चर्यचकित हो रहा था । उसे वे दोनों जीवित चाहिए थे । अत: वह युद्धरत रख दोनों को ही थका लेना चाहता था परन्तु इन्दुमती को समझते देर न लगी और राजा कुलचन्द्र को राह बनाते हुई महालय से मुख्य द्वार कि ओर ले जाने लगी ।
महमूद ने जब ये देख लिया कि मथुरा पर फतह हो चुकी है तो उसने लड़ाई रोकर मसऊद और अब्बास को अपने पास बुलाया और महालय की सीढ़ियों पर ही खड़े हो कर बोला−"मेरे बहादुरों अमीर की मंजिल सामने है इसको जिंदा पकड़कर गजनी के महलों में ले चलना ही महमूद की जीत होगी । मैं हुक्म देता हूँ इनको जिंदा पकड़ा जाये ।"
वह इतना कह मुख्य द्वार की ओर देखने लगा अल्बरूनी और उत्वी सब कुछ देख रहे थे ।
स्वर्ण मण्डित विशाल द्वार के समक्ष खून से लथपथ राजा कुलचन्द्र का रूप शिकार किये सिंह के समान लग रहा था । जो वीर बचे उन्होंने जहाँ−जहाँ घाव थे पट्टियाँ बांधी और महारानी के मुख से निकल पड़ा−"इन्दुमती यही प्रार्थना करती है अपने ही हाथों खड़ग उठाकर मुझे सदैव के लिये भगवान के चरणों में समर्पित कर दीजिये ।"
"महारानी....अभी मैं मरा नहीं हूँ । फिर"
"महाराज, प्रश्न जीवन और मृत्यु का नहीं, ये मेरा नारीत्व पुकार रहा है । यवन हमें घेरता हुआ आगे बढ़ रहा है । हे क्षत्रीय वीर अपने इष्ट का ध्यान कीजिये और कर्त्तव्य का पालन कीजिए ।"
"तुम्हारा निर्णय ही तुम्हारा आदर्श है । तुम्हारा त्याग महान है, देवी । इतना कह राजा कुलचन्द्र खड़ग उठाकर इन्दुमती की ओर बढ़े ही थे, कि रस्से के फन्दे में महमूद ने इन्दुमती को कस लिया । इन्दुमती एकदम चीख पड़ी −"महाराज आपको केशव की आन जल्दी कीजिए नहीं तो मैं आत्मबलिदान करती हूँ ।"इन्दुमती का वाक्य पूरा भी न हो पाया कि राणा कतीरा ने एक ही बार में रस्सा काट डाला दूसरा वार महारानी की गर्दन पर पड़ा और महारानी का सिर उछट कर महालय के द्वार पर लगा ।
महमूद ने आँखे मीच ली और बोला−"या−अल्लाह" लेकिन तभी राजा कुलचन्द्र सिंह की तरह दहाड़ उठे−"अरे ओ नीच लुटेरे महमूद यदि तूने दूध पिया है तो मेरा सामना कर । तुझ जैसे लुटेरों के पास दया और धर्म का क्या काम । अगर तेरी भुजाओं में बल है तो जीते जी यहाँ हाथ लगाकर देख । कहते−कहते कुलचन्द्र काँप उठे । दिव्या बिना एक पल गवायें महालय में प्रविष्ट हो गई तुरन्त द्वार बन्द हो गये ।
महमूद के शरीर पर भी काफ़ी घाव थे लेकिन कुलचन्द्र की दहाड़ सुन उसका रोम−रोम सिहर उठा और उसने हमला करने का हुक्म दे दिया और स्वंय आगे बढ़ कर बोला−"अय बहादुर मुल्क के बहादुर कुलचन्द्र अमीर तुझे दोस्ती की दावत देता है ।"
"और कुलचन्द्र से दोस्ती के बदले भीख माँगता है ।"
"अमीर का कहा मान ले कुलचन्द्र । अब न तू भाग सकता है और ना ही मुझसे युद्ध को बचा सकता है । न तेरे पास किला है ना फौज । अब तेरे पास इस्लाम कुबूल करने के अलावा कोई रास्ता नहीं है ।" महमूद कहते हुए तलवार लेकर कुलचन्द्र के ऊपर झपटा कि कुलचन्द्र ने खड़ग का भीषण प्रहार किया । महमूद के हाथ से तलवार छूट कर गिर गई । कुलचन्द्र दूसरा वार करें कि उसने ढाल पर रोका । कुलचन्द्र के साथी अंगरक्षक अपने स्वामी के लिए प्राणों की आहुति दे रहे थे और "राणा कतीरा की जय हो । ""महारानी इन्दुमती की जय हो !" "भगवान केशव की जय हो" के घोष जब कम होने लगे तो राणा कतीरा ने देखा उनके साथ अब कुल गिनती के योद्धा ही रह गये हैं तो उनके क्रोध का पारावार न रहा । शत्रु ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया । कुलचन्द्र का हर वार महमूद को घायल किये बिना न छोड़ता । लगभग एक घन्टे तक दो शासकों का युद्ध चलता रहा । भगवान श्रीकृष्ण के जन्मस्थान पर विशाल महालय के ऊपर खड़े राजगुरू देखते रहे । देखते−देखते हवायें चलने लगी । बादल घिरने लगे । यवन लुटेरे आकाश पर देखते तभी मसऊद बोला−आलमपनाह हुक्म दीजिये । मौसम बदल रहा है । मसऊद की बात सुन महमूद लड़ते−लड़ते बोला−हुक्म....तामील हो ।"
मसऊद की आवाज के साथ ही "अल्लाह हो अकबर" की आवाजें गूँज उठी । हजारों यवन सैनिक राजा कुलचन्द्र की ओर दौड़े । परन्तु राजा कुलचन्द्र का दाहिना हाथ हवा में लहरा उठा और "ज...य....केशव" के उच्चारण के साथ ही राजा कुलचन्द्र का रत्नजडित राजमुकुट को धारण करने वाला सिर भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित हो गया और कटा हुआ धड़ इन्दुमती के पास गिर पड़ा । यवन महमूद स्तब्ध रह गया । "बहादुर कुलचन्द्र अमीर तेरी बहादुरी और वतनपरस्ती की कद्र करता है ।"
मथुरा की वह सांझ इतिहास बन गई। महमूद ने तुरन्त फौजों को हटाने का हुक्म दिया । अमीर को उसके वजीरों ने घेर लिया । तो वह एक ऊँचे स्थान पर खड़ा हो गया और बोला−"आज की फतह गजनी के शेरों की फतह है मगर मैं अमीरे गजनी महमूद सुल्तान जब भी कहूँगा सच कहूँगा । सच के अलावा कुछ नहीं कहूँगा । हम बहादुरों की तरह आये थे और हमारी बहादुरी का नतीजा हमारे सामने है । आगे बढ़ने के लिये दरवाजे पर ही एक नहीं दो−दो बहादुरों की लाशों ने मेरा रास्ता रोक रखा है । मैं उस आदमी को तीन बार आवाज देता हूँ कि अगर कोई इन्सान जिन्दा हो तो सामने आये और मथुरा के राजा कुलचन्द्र और मलिका की लाशों को बाइज्जत ले जायें ।"
यवनों में सन्नाटा छा गया । महमूद की दूसरी आवाज पर स्वर्ण मण्डित द्वार खुला और राजगुरू ब्रह्मदेव बाहर निकले । उनके चेहरे पर वही तेज वहीं शान्त गम्भीर मुद्रा । काँधों पर ऊनी उत्तरीय और गले में तुलसी की माला डाले वे शवों के पास आये । महमूद ने ऊपर की ओर नजर उठाई तो राजगुरू बोले−"मैं राज्य की समस्त भक्त प्रजा का राजगुरू ब्रह्मदेव ही ऐसे वीरों का सम्मान सहित क्रिया का एक−मात्र अधिकारी बचा हूँ ।"
"महमूद ने सुना तो वह वापस लौट दिया । उसके घावों से खून रिस रहा था । आँखे मुँदी जा रही थीं । उसने अरसलॉ जजीब के कान में कुछ कहा और बढ़ दिया । वह जल्दी ही महदूद को देखना चाहता था । जो घायल हुआ बेहोश पड़ा था।
धीरे−धीरे यवन महालय से दूर होने लगा । राजगुरू ने सेवकों से शवों के स्नान हेतु गंगाजल और यमुनाजल मँगवाया । दोनों के धड़ों को सीधा कर राजगुरू स्वयं उनके कटे हुये सिरों को रखने लगे । बहुमूल्य रत्नों के आभूषणों सहित दोनों के शव रख महालय के आचार्य और ब्रह्मचारी महावन की ओर चल दिये । राजगुरू के जाते ही महालय के सेवकों ने द्वार बन्द कर लिये ।
महावन में योगमाया की गोद में वीरों की चिता को अग्नि दे राजगुरू रात्रि को ही महालय लौट आये । महालय में पुन: स्नान कर वे जगमोहन में पहुँचे जहाँ हजारों सन्त विद्वान वेदज्ञ, आचार्य और भागवदाचार्य बैठे हुये थे । राजगुरू के आते ही सब ने शान्त भाव से प्रणाम किया और यथा स्थान बैठ गये । राजगुरू अपने आसन पर जाकर खड़े हो गये और भगवान को नमन कर बोले−
"बन्धुओं । जो कुछ हुआ और जो होना है वह आप से छिपा नहीं है । आप अच्छी तरह जानते है कि परब्रह्म परमेश्वर और उनकी महाशक्ति जिन्होंने मथुरा में जन्म लेकर राक्षसों का संहार किया था, जीवन को नया जीवन दर्शन दिया था । आज उन्हीं भगवान श्री राधा कृष्ण की जन्मस्थली पर विनाश का आधिपत्य हो चुका है । वृन्दावन ,नन्दगाँव, लूटे जा रहे हैं । देवालय जलाये जा रहे हैं । स्त्रियों को बन्दी बनाया जा रहा है । हमारी कला और संस्कृति नष्ट की जा रही है । रत्न और स्वर्ण भण्डारों को लूटा जा रहा है । ऐसा क्यों हुआ है ? यही सभी के लिए विचारणीय है । धर्म का शाश्वत स्वरूप एक लोभी लालची, लुटेरे ओर अज्ञानी व्यक्ति के लिए स्वार्थपूर्ति के अतिरिक्त कुछ नहीं होता अत: आज मैं अन्तिम बार आप लोगों से निवेदन करता हूँ कि आपसे जो भी बने जिसको भी आप महत्वपूर्ण समझते हैं उन हस्तलिखित वेदों, उपनिषदों आदि प्राचीन धर्म, विज्ञान और कला ग्रन्थों को लेकर पश्चिम मार्ग से दो घड़ी में प्रस्थान कर जाँए । यही समय है जब यवन सेना मद्यपान कर मदहोश पड़ी है । आपका धर्म है कि इस नीच के चले जाने के बाद इस धर्म के उत्सर्ग स्थल पर पुन: मानव कल्याणी संस्कृति को बनाये रखें । राजगुरू कुछ और कहते कि एक आचार्य क्षमा माँगते खड़े हुए बोले −
"और....आप ।"
"आप राजगुरू का धर्म जानते हैं । यवन महमूद को जो आघात लगे हैं । वे उसे अब महालय की ओर आने के लिये अवश्य बाध्य करेंगे और वह हमारे बीच हमारे साकार ब्रह्म के विग्रह को कुछ भी करने की चेष्टा करेगा । शीघ्रता करें ।"
"तब हमें आर्शीवाद दें ।" कह हजारों आचार्य भगवान श्रीकृष्ण को नमन करने लगे ।
"आयुष्मान भव, यशस्वी भव, धर्मरक्षक भव, ओम नमो भगवते वासुदेवाय ।" कह राजगुरू ने तुरन्त ग्रन्थागार कोषागार और शस्त्रागार मन्दिर की चाबियाँ आचार्यों को सौंप दी । सभी ने जो हाथ लगा वहीं बाँध लिया और हाथों में शस्त्र लिये केतनी वन की ओर निकल गये । जब सभी चले गये तो राजगुरू उठे और उन्होंने दिव्या को पुकारा । राजगुरू की आवाज सुन दिव्या ऊपरी खण्ड से उतर कर नीचे आई और हाथ जोड़ कर बोली −"पूज्यवर आज्ञा करें ।"
"बेटी शक्ति पीठों का कुछ समाचार मिला ?"
"जी गुरूदेव । वे सभी सुरक्षित और गुप्त रूप से यथा स्थान विद्यमान है ।"
"ठीक है बेटी, जा, तू कुछ फूल मालायें एकत्रित कर । भगवान की मंगला की समय हो रहा है ।" कह ब्रह्मदेव स्नान करने चल दिये ।
स्नान कर उन्होंने पट खोले तो उनका हृदय उमड़ पड़ा और भगवान के चरणों से लिपट फूट−फूट कर रोने लगे । वे रोते जाते और देव प्रतिमाओं को स्नान कराते जाते । स्नान कराकर उन्होंने वस्त्र धारण कराये । चन्दन लगाया और बहुमूल्य रत्नों से श्रृंगार किया । इतमें में दिव्या भाँति−भाँति के सुगन्धित पुष्प लेकर आ गई । उसे देख राजगुरू ने आँखे पोंछ ली । और पुष्प चढ़ाने लगे ।
श्वेत परिधानों में लिपटी दिव्या के मुख पर अनोखा तेज फैल रहा था । राजगुरू ने आरती प्रारम्भ की । महालय के विशाल काँस्य घन्टें घनघना उठे । शंख की ध्वनि गूँज उठी । अरसलाँ जजीब ने सुना तो उसके होश उड़ गये उसने तुरन्त अमीर को सूचित कराया और अगले हुक्म की प्रतीक्षा करने लगा । उधर मंगला के समाप्त होते ही राजगुरू ने दिव्या को अज्ञात स्थान के लिये विदा करना चाहा तो वह बोली−
"पूज्यवर आपकी आज्ञा शिरोधार्य है । परन्तु धैर्य समाप्त होने पर ब्रज की हजारों ब्राह्मण कन्याओं ने अन्य नारियों के साथ जौहर कर लिया है ।"
हे केशव । यह क्या सुन रहा हूँ ।"
"यह सत्य है गुरूदेव ।"
"लेकिन मैंने तो उन्हें राज्य छोड़ने के लिये कहा था ।"
"मैं जानती हूँ पूज्यवर परन्तु आश्रमवासिनी नारियों ने मथुरा छोड़ने से स्पष्ट मना कर दिया ।"
"और....तू । तुझे तो योग की सारी सिद्धियाँ प्राप्त है । अब मेरी ओर से तू स्वतंत्र है ।" इतना कह राजगुरू ने अन्दर घुस कर द्वार बन्द कर लिये ।" अरसलॉ जजीब के सैनिकों का समाचार ज्यों ही महमूद के खेमे में मसऊद के पास पहुँचा । मसऊद ने सुनकर तुरन्त गुलाम अब्बास से सलाह की तो उसने मीर मुंशी अलबरूनी को बुला लिया । सबको सामने देख मसऊद बोला−"अभी−अभी सैनिक खबर लाया है कि मथुरा के बुतघर में इबादत का सिलसिला जारी है । हमारे बीच अलबरूनी के अलावा और कोई इतना काबिल नहीं जो ठीक सलाह दे । अमीर की हालत अभी भी नाजुक है । उनकी पसली कट गयी है और महदूद की बेहोशी देख कर वे जार−जार हैं ।"
"वजीरे आजम, इस बुरे वक्त का इल्हाम तो बादशाह सलामत को भी था मगर महदूद ने हमारी एक न चलने दी । अब अमीर के हुक्म के बिना तो हम भी कुछ नहीं कर सकते ।"
"अगर बुरा न मानें तो हमें हकीम की राय लेनी चाहिये और अमीर से ही हुक्म लेना चाहिये । अलउत्वी ने बीच में टोका तो सभी ने उसकी बात पर सहमति जताई और हकीम को साथ लेकर अमीर के पास पहुँचे ।"
"अमीर का चेहरा सूख रहा था । रेशमी तकियों के सहारे वह आकाश की ओर देख रहा था । उसकी आँखे भीतर घुसी जा रही थीं तभी मसऊद ने मिलने के लिये समाचार भिजवाया । अमीर ने गर्दन घुमाकर द्वार की ओर देखा मसऊद को अन्दर बुलवाया । "आलम−पनाह अब दर्द कैसा है ?"
"अल्लाह का करम है जो जिन्दा तुम्हारे सामने हूँ । कहो सुबह ही सुबह कैसे आना हुआ और साथ में कौन−कौन है ?"
"हुजूरे अनवर ! गुलाम अब्बास, अलउत्वी, अलबरूनी, और शाही हकीम साहब आपकी खैरियत जानने आये है ।"
"उन्हें अन्दर आने दिया जाये । और कहो कोई नया खतरा तो नहीं ।" महमूद के बात करने से ऐसा लगा जैसे उसे साँस लेने में भी कठिनाई हो रही हो । अमीरों के अमीर गजनी एक ओर लड़ाई जीतने के बाद भी बड़े बुतघर में अभी भी घन्टे ओर शंख की आवाजें आ रही हैं और दूसरी ओर हमारी फौज की हालत बद से बदतर होती जा रही है । चारों ओर कड़ाके की सर्दी, लाशों के ढेर हैं तो बेपनाह बदबू से लोग परेशान हैं । जिन्हें जख्म लगे हैं उनकी तीमारदारी नहीं हो पा रही । बहुत से अपाहिज हो चुके है । जो कुछ करने के काबिल है वे शहर और गाँवों को लूटने जलाने और मिटाने में लगे है । जो बुत ले जाने लायक नहीं उन्हें मिट्टी में मिलाया जा रहा है । बाहर के ज्यादा से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया है । खजानों और हथियारों को शाही सेना के हवाले कर दिया गया है और हमारा नुकसान....।"
"आलम पनाह हमारी फतह के बावजूद भी हमने अपने आधे से जियादा बहादुरों को खो दिया है । लड़ाकू सरदार और सैनिक अमीर की खातिर शहीद हो चुके है ।"
"और दुश्मन...।"
"लगभग पूरी लड़ाई में एक लाख से ज्यारा काफिरों को मौत के घाट उतार दिया है और इससे भी ज्यादा उन लोगों को मार दिया गया है जिन्होंने भागने और सिर उठाने की कोशिश की है ।"
"मीर मुंशी अलउत्वी ।" अमीर ने आवाज दी तो उत्वी समाने आकर खड़ा हो गया । और कोशिश करते हुए बोला−"हुक्म मेरे आका ।"
" शाही हकीम की हिदायत के मुताबिक हमें अभी दस दिन तक और आराम करने को कहा गया है । मगर जिन्दगी ओर मौत अल्लाह के हाथ में है । मैं महमूद सुल्तान अमीरे गजनी जो भी कहूँगा सच कहूँगा और सच के अलावा कुछ न कहुँगा मथुरा की तवारीख लिखते समय अल्फाजों की कमी न आने दें । यहाँ से लूटी हुई हर चीज की कीमत लिख ली जाय । यहाँ के तमाम बुतघरों पर कामकारों को लगा दिया जाय । दीवारों के भीतर और बाहर जो भी हीरे जवाहरात हो उन्हें उखाड़ लिया जाय । और बड़े बुतघर को हम खुद इसी हाल में चलकर देखना चाहेंगे । हाँ मियाँ अल्बरूनी आप भी कुछ इस बारे में कहना चाहेंगे ।" अलबरूनी जो अभी तक सिर झुकायें हाथ बाँधे खड़ा था कोशिश करते हुए बोला−
"अमीरे गजनी ! गुस्ताखी मुआफ हो तो कुछ अर्ज करूँ ।"
" हम जानते है कि आप हकीकत पसन्द इन्सान है और आपने पंजाब में रहकर इल्म भी हासिल किया है आप बेखौफ कहिये क्या कहना चाहते है ?" कह महमूद अल्बरूनी की ओर देखने लगा ।
"हुजूरे अनवर दुनियाँ में मथुरा को ही वह जगह बताया जाता है जहाँ खुदा के नेक बन्दे परवरदिगार के नाम पर अपने अपने ढंग से उसका नाम लेते हैं । ये नेक रूहें भी जो दिनों−रात अल्लाह के ख्याल में डूबी रहती हैं । यहाँ सिजदा करने आती है । हजारों साल पहिले व्यास नाम के इन्सान ने यहीं बैठ कर वेद ,भागवत ,गीता वगैरहा को इन्सानी तहजीब को बचाने के लिये लिखा । यहाँ का आदमी किसी से दुश्मनी नहीं रखता । मेहनतकशी और फाकामस्ती के साथ ये भी उसी की किताब का नाम लेते है जो सारी दुनियाँ को बनाता है । शायरी गायिकी मुसब्बिरी वगैरह जो कुछ भी वह जीता है उसमें उसी खुदा को साथ लेकर जीता है ।
"मगर बुतपरस्ती......?"
"बुत तो बुत हैं, वह पत्थर का हो या किसी और चीज का । मगर बेजानदार में भी जाने डालने का इल्म ये लोग जानते हैं । लेकिन जो इन्सान बुतपरस्त बनकर खुद भी बुत बन जाता है । वह लाजिम है एक न एक दिन बर्बादी के दरवाजे खटखटाने लगता है । हमारे मजहब में इसीलिये बुतपरस्ती कुफ्र है ।"
"तुम ठीक कहते हो । हम आज ही वहाँ जाँयेगे । हमारे लिये घोड़े का नहीं पालकी का इन्तजाम किया जाय । पाँच हजार जाँनिसार बहादुरों के साथ कुम्हारों, कामगारों, बढ़ई, सुनारों और मजदूरों को साथ ले लिया जाय । हमें मालूम है कि हमें क्या करना है । महदूद के होश में आने से पहिले हमें यहाँ से कूच कर देना होगा ।"
−"जो हुक्म आलमपनाह ।" इतना कर मसऊद बाहर निकल गया और सब भी उसी के साथ बाहर आ गये । मसऊद ने तुरन्त गुलाम अब्बास से सलाह−मशविरा किया और तैयारी में जुट गया ।
मथुरा और आसपास के इलाके से पकड़ी औरतों को एक खुले मैदान में बैठा रखा था । उनके शरीर के कपड़े फाड़ दिये गये । कोमल अंगों पर बहिशी निशानों से खून बह रहा था । भूख और पानी की जगह उन पर कोड़े, लाठियाँ और ठोकरें बरसाई जा रही थीं । असह्य, वेदना में भी यदि किसी के मुँह से भगवान का शब्द फूट पड़ता तो वह तलवार से कत्ल कर दिया जाता । आदमियों को लाशें ढ़ोने पर लगा दिया गया था । दोपहर की नमाज पढ़कर महमूद ने चलने को कहा । उसे बड़ी मुश्किल से पालकी में बैठाया गया ।
महालय की ओर यवनों को आते देख सेवक ने दौड़कर राजगुरू को सूचित किया और सभी द्वार बन्द कर लिये गये । महमूद ने मुख्य द्वार का खोलने का हुक्म दिया मगर जब उसे बन्द पाया तो वह बौखला उठा और बोला मसऊद दरवाजा तोड़ डाला जाये और उससे सोना हीरा जवाहरात निकाल लिया जाये । हुक्म होते ही बड़े−बड़े हथौड़े घन और छैनियों की चोटें दरवाजे पर पड़ने लगी । इधर दरवाजे पर चोटें पड़ रही थी और उधर राजगुरू ध्यान लगाये भगवन की ओर देखने लगे−"हे प्रभु आपकी यह लीला तो समझ से परे है ।"
"वत्स ब्रह्मदेव जीवात्मा के लिये कर्म ही प्रधान है । सृजन और विनाश का कारण तो मैं ही हूँ ।"
"फिर मेरे अन्दर यह मोह क्यों ? मेरी इस आसक्ति को समाप्त कर अपनी शरण लीजिये ।" ब्रह्मदेव कुछ और कह पाते कि द्वार पर उन्हें यवनों का स्वर सुनाई दिया महमूद पालकी के पर्दे हटा चारों तरफ −आँखे−फाड़−फाड़ कर देख रहा था । मन्दिर की स्थापत्य कला देखने के लिये उसने चारों ओर चक्कर लगाया और फिर दरवाजे पर आकर बोला−"मीर मुंशी अलउत्वी ।"
"हुक्म ! आलम पनाह !"
"हमने दुनियाँ में इस तरह की इमारत नहीं देखी । करोड़ों दिरहम खर्च करके भी अगर इसे बनवाया जाये तो दो सौ साल कम से कम में न बनेगी । मीर मुंशी ये बेमिसाल इमारत इन्सान नहीं बना सकते यकीनन यह जिन्दों ने बनाई होगी। महमूद बात करता जा रहा था और मन ही मन अपार सम्पत्ति का आकलन भी करता जा रहा था । मसऊद को जब द्वार खुलता दिखाई न दिया तो उसने ठोकर दी और लुहारों को दरवाजा तोड़ने का हुक्म दिया । द्वार टूटते ही श्री कृष्ण का विग्रह देख महमूद ने आँखे मूँद ली । मसऊद ने आव देखा न ताव । उसने भीतर जो भी पुजारी थे उन्हें मौत के घाट उतार दिया । राजगुरू जो भगवान के चरण पकड़े बैठे थे उनकी बाँह पकड़ कर मसऊद ने जैसे ही अपनी ओर खींचा तो वे वहीं लुढ़क कर रह गये ।"
"बस मसऊद बस ! मथुरा में इतना सब कुछ होगा हमें उम्मीद न थीं ।"
"हुजूर का हुक्म होते ही बुत को मिट्टी में मिला दिया जाय ।"
"नहीं । ऐसे सारे बुतों को गजनी ले जाकर वहाँ की सड़कों पर नुमाइश की जाय ।"
"हुजूर का हुक्म सर आँखों पर ।"
"और मेरा हुक्म है कि मथुरा में कहीं कोई बुतघर न छोड़ा जाय ! जहाँ पर बुत मिलें वहाँ की जमीन पोली कर दी जाय । गुलामों के साथ कोई रहम न किया जाय । काम पूरा होने के साथ−साथ लदान का पूरा इन्तजाम कल से किया जाय । यहाँ जो भी बचा हो उसे मुसलमान बना डालो । औरतों को सिपाहियों के हवाले कर दो ।"इतना कह महमूद वापस अपने खेमें की ओर चल दिया ।
मथुरा में हथोड़े और टाँकियों की ध्वनियाँ चलते−चलते कई दिन बीत गए परन्तु महालय की दो मंजिल भी न टूट पाई तो उसने मन्दिरों को आग के हवाले कर दिया । शिखर तोड़ दिया गया । भवन खण्डित कर दिये गये । इधर सेना में तरह तरह की बीमारियाँ फैलने लगी तो महमूद ने कूँच का ऐलान किया ।
सैकड़ो−हजारों हाथी−घोड़ो और गाड़ियों पर लूट का सामान लाद दिया गया । महदूद अभी भी बेहोश था । महमूद को हाथी पर बैठाया गया। सिपाहियों की जान में जान आ रही थी । गुलाम औरतों और आदमियों को घुड़ सवारों के बीच रखा गया । और जब एक−एक कर सभी सरदार और सेना नायक इकट्ठे हो गये तो कूँच का डंका बज उठा ।
मथुरा बीस दिन लूटी जाती रही । निरीह जनता कहराती रही । परन्तु पड़ौसी राज्यों के राजा लोग कंगन पहिन कर रनिवासों में छिप रहे ।
अपनी ही मातृभूमि के भूखण्डों का स्वामित्व मिलने पर उन्होंने अपनों से ही शत्रुता न की होती तो महमूद जैसे लुटेरों का इतिहास न होता । मथुरा से चलते समय उसने पुन: महालय की ओर देखा । अलबरूनी ने मन ही मन ब्रज को नमन किया और लूट−हत्या, तोड़−फोड़ और उत्पीड़न का पाप लादे यवनों का कारवाँ मथुरा छोड़कर आगे बढ़ दिया ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ