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− | हे मधुसूदन ! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिये भी मै। इन सबको मारना नहीं चाहता; फिर पृथ्वी के लिये तो कहना ही क्या है ? ।।35।। | + | हे मधुसूदन ! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिये भी मै इन सबको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिये तो कहना ही क्या है ? ।।35।। |
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०९:२३, १२ नवम्बर २००९ का अवतरण
गीता अध्याय-1 श्लोक-35 / Gita Chapter-1 Verse-35
प्रसंग-
यहाँ यदि यह पूछा जाय कि आप त्रिलोकी के राज्य के लिये भी उनको मारना क्यों नही चाहते, तो इस पर अर्जुन अपने सम्बन्धियों को मारने में लाभ का अभाव और पाप की संभावना बतलाकर अपनी बात को पुष्ट करते हैं-
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोडपि मधुसूदन ।
अपि त्रलो क्यराज्यस्य हेतो: किं नु महीकृते ।।35।।
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हे मधुसूदन ! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिये भी मै इन सबको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिये तो कहना ही क्या है ? ।।35।।
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To slayer of madhu, I do not want to kill them, though they should slay me, even for the throne of the three worlds, how much the less form eathly lordship ! (35)
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ध्रत: = मारने पर; त्रैलोक्यराज्यस्य = तीन लोक के राज्य के; हेतो: = लिये; एतान् =इन सबको; हन्तुम् =मारना; इच्छामि = चाहता (फिर); महीकृते = पृथिवी के लिये (तो ); नु किम् = कहना ही क्या है
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