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श्रीरामवतार-वर्णन के प्रसंग में रामायण बालकाण्ड की संक्षिप्त कथा
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'''अग्निदेव कहते हैं'''- वसिष्ठ! अब मैं ठीक उसी प्रकार रामायण का वर्णन करूँगा, जैसे पूर्वकाल में नारद जी ने महर्षि [[वाल्मीकि]] जी को सुनाया था। इसका पाठ भोग और मोक्ष-दोनों को देनेवाला है|
 
'''अग्निदेव कहते हैं'''- वसिष्ठ! अब मैं ठीक उसी प्रकार रामायण का वर्णन करूँगा, जैसे पूर्वकाल में नारद जी ने महर्षि [[वाल्मीकि]] जी को सुनाया था। इसका पाठ भोग और मोक्ष-दोनों को देनेवाला है|

०८:००, २१ सितम्बर २००९ का अवतरण



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रामायण (वाल्मीकि रामायण) ( Ramayana )

Valmiki Ramayana / Balmiki Ramayana / बाल्मीकि रामायण रामायण कवि वाल्मीकि द्वारा लिखा गया संस्कृत का एक अनुपम महाकाव्य है । इसके 24,000 श्लोक हिन्दू स्मृति का वह अंग हैं जिसके माध्यम से रघुवंश के राजा राम की गाथा कही गयी । रामायण के सात अध्याय हैं जो काण्ड के नाम से जाने जाते हैं।

बालकाण्ड
अयोध्याकाण्ड
अरण्यकाण्ड
किष्किन्धाकाण्ड
सुंदरकाण्ड
लंकाकाण्ड (युद्धकाण्ड)
उत्तरकाण्ड

अग्निपुराण

रामायण— (पेज नं0- 7 से 19 तक देखें)

श्रीरामवतार-वर्णन के प्रसंग में रामायण बालकाण्ड की संक्षिप्त कथा

अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ! अब मैं ठीक उसी प्रकार रामायण का वर्णन करूँगा, जैसे पूर्वकाल में नारद जी ने महर्षि वाल्मीकि जी को सुनाया था। इसका पाठ भोग और मोक्ष-दोनों को देनेवाला है|

देवर्षि नारद कहते हैं- वाल्मीकि जी! भगवान् विष्णु के नाभिकमल से ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए हैं। ब्रह्माजी के पुत्र हैं मरीचि। मरीचि से कश्यप, कश्यप से सूर्य और सूर्य से वैवस्वतमनु का जन्म हुआ। उसके बाद वैवस्वतमनु से इक्ष्वाकु की उत्पत्ति हुई। इक्ष्वाकु के वंश में ककुत्स्थ नामक राजा हुए। ककुत्स्थ के रघु, रघु के अज और अज के पुत्र दशरथ हुए। उन राजा दशरथ से रावण आदि राक्षसों का वध करने के लिये साक्षात् भगवान् विष्णु चार रूपों में प्रकट हुए। उनकी बड़ी रानी कौसल्या के गर्भ से श्रीरामचन्द्रजी का प्रादुर्भाव हुआ। कैकेयी से भरत और सुमित्रा से लक्ष्मण एवं शत्रुघ्न का जन्म हुआ। महर्षि ऋष्यश्रृंग ने उन तीनों रानियों को यज्ञसिद्ध चरू दिये थे, जिन्हें खाने से इन चारों कुमारों का आविर्भाव हुआ। श्रीराम आदि सभी भाई अपने पिता के ही समान पराक्रमी थे। एक समय मुनिवर विश्वामित्र ने अपने यज्ञ में विघ्न डालने वाले निशाचरों का नाश करने के लिये राजा दशरथ से प्रार्थना की (कि आप अपने पुत्र श्रीराम को मेरे साथ भेज दें)। तब राजा ने मुनि के साथ श्रीराम और लक्ष्मण को भेज दिया। श्रीरामचन्द्रजी ने वहाँ जाकर मुनि से अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा पायी और ताड़का नामवाली निशाचरी का वध किया। फिर उन बलवान् वीर ने मारीच नामक राक्षस को मानवास्त्र से मोहित करके दूर फेंक दिया और यज्ञविघातक राक्षस सुबाहु को दल-बलसहित मार डाला। इसके बाद वे कुछ काल तक मुनि के सिद्धाश्रम में ही रहे। तत्पश्चात् विश्वामित्र आदि महर्षियों के साथ लक्ष्मणसहित श्रीराम मिथिला नरेश का धनुष-यज्ञ देखने के लिये गये|

अपनी माता अहल्या के उद्धार की वार्ता सुनकर संतुष्ट हुए) शतानन्दजी ने निमित्त-कारण बनकर श्रीराम से विश्वामित्र मुनि के प्रभाव का [१] वर्णन किया। राजा जनक ने अपने यज्ञ में मुनियों सहित श्रीरामचन्द्र जी का पूजन किया। श्रीराम ने धनुष को चढ़ा दिया और उसे अनायास ही तोड़ डाला। तदनन्तर महाराज जनक ने अपनी अयोनिजा कन्या सीता को, जिस के विवाह के लिये पराक्रम ही शुल्क निश्चित किया गया था, श्रीरामचन्द्रजी को समर्पित किया। श्रीराम ने भी अपने पिता राजा दशरथ आदि गुरूजनों के मिथिला में पधारने पर सबके सामने सीता का विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया। उस समय लक्ष्मण ने भी मिथिलेश-कन्या उर्मिला को अपनी पत्नी बनाया। राजा जनक के छोटे भाई कुशध्वज थे। उनकी दो कन्याएँ थीं- श्रुतकीर्ति और माण्डवी। इनमें माण्डवी के साथ भरत ने और श्रुतकीर्ति के साथ शत्रुघ्न ने विवाह किया। तदनन्तर राजा जनक से भलीभाँति पूजित हो श्रीरामचन्द्र जी ने वसिष्ठ आदि महर्षियों के साथ वहाँ से प्रस्थान किया। मार्ग में जमदग्निनन्दन परशुराम को जीत कर वे अयोध्या पहुँचे। वहाँ जाने पर भरत और शत्रुघ्न अपने मामा राजा युधाजित् की राजधानी को चले गये|

अयोध्याकाण्ड की संक्षिप्त कथा

नारद जी कहते हैं- भरत के ननिहाल चले जाने पर (लक्ष्मण सहित) श्रीरामचन्द्र जी ही पिता-माता आदि के सेवा-सत्कार में रहने लगे। एक दिन राजा दशरथ ने श्रीरामचन्द्र जी से कहा 'रघुनन्दन! मेरी बात सुनो। तुम्हारे गुणों पर अनुरक्त हो प्रजाजनों ने मन-ही-मन तुम्हें राज-सिंहासन पर अभिषिक्त कर दिया है- प्रजा की यह हार्दिक इच्छा है कि तुम युवराज बनो; अत: कल प्रात: काल मैं तुम्हें युवराज पद प्रदान कर दूँगां आज रात में तुम सीता-सहित उत्तम व्रत का पालन करते हुए संयमपूर्वक रहो।' राजा के आठ मन्त्रियों तथा वसिष्ठजी ने भी उनकी इस बात का अनुमोदन किया। उन आठ मन्त्रियों के नाम इस प्रकार हैं- दृष्टि, जयन्त, विजय, सिद्धार्थ, राज्यवर्धन, अशोक, धर्मपाल तथा सुमन्त्र [२]। इनके अतिरिक्त वसिष्ठ जी भी (मन्त्रणा देते थे)। पिता और मन्त्रियों की बातें सुनकर श्रीरघुनाथ जी ने 'तथास्तु' कहकर उनकी आज्ञा शिरोधार्य की और माता कौसल्या को यह शुभ समाचार बताकर देवताओं की पूजा करके वे संयम में स्थित हो गये। उधर महाराज दशरथ वसिष्ठ आदि मन्त्रियों को यह कहकर कि 'आपलोग श्रीरामचन्द्र के राज्याभिषेक की सामग्री जुटायें', कैकेयी के भवन में चले गये। कैकेयी के मन्थरा नामक एक दासी थी, जो बड़ी दुष्टा थी। उसने अयोध्या की सजावट होती देख, श्रीरामचन्द्र जी के राज्याभिषेक की बात जान कर रानी कैकेयी से सारा हाल कह सुनाया। एक बार किसी अपराध के कारण श्रीरामचन्द्रजी ने मन्थरा को उसके पैर पकड़कर घसीटा था। उसी वैर के कारण वह सदा यही चाहती थी कि राम का वनवास हो जाय|

मन्थरा बोली- कैकेयी! तुम उठो, राम का राज्याभिषेक होने जा रहा है। यह तुम्हारे पुत्र के लिये, मेरे लिये और तुम्हारे लिये भी मृत्यु के समान भयंकर वृत्तान्त है- इसमें कोई संदेह नहीं है| मन्थरा कुबड़ी थी। उसकी बात सुनकर रानी कैकेयी को प्रसन्नता हुई। उन्होंने कुब्जा को एक आभूषण उतार कर दिया और कहा-'मेरे लिये तो जैसे राम हैं, वैसे ही मेरे पुत्र भरत भी हैं। मुझे ऐसा कोई उपाय नहीं दिखायी देता, जिससे भरत को राज्य मिल सके।' मन्थरा ने उस हार को फेंक दिया और कुपित होकर कैकेयी से कहा|

मन्थरा बोली- ओ नादान! तू भरत को, अपने को और मुझे भी राम से बचा। कल राम राजा होंगे। फिर राम के पुत्रों को राज्य मिलेगा। कैकेयी! अब राजवंश भरत से दूर हो जायगा। (मैं भरत को राज्य दिलाने का एक उपाय बताती हूँ।) पहले की बात है। देवासुर-संग्राम में शम्बरासुरने देवताओं को मार भगाया था। तेरे स्वामी भी उस युद्ध में गये थे। उस समय तूने अपनी विद्या से रात में स्वामी की रक्षा की थी। इसके लिये महाराज ने तुझे दो वर देने की प्रतिज्ञा की थीं इस समय उन्हीं दोनों वरों को उनसे माँग। एक वर के द्वारा राम का चौदह वर्षों के लिये वनवास और दूसरे के द्वारा भरत का युवराज-पद पर अभिषेक माँग ले। राजा इस समय वे दोनों वर दे देंगे|

इस प्रकार मन्थरा के प्रोत्साहन देने पर कैकेयी अनर्थ में ही अर्थ की सिद्धि देखने लगी और बोली-'कुब्जे! तूने बड़ा अच्छा उपाय बताया है। राजा मेरा मनोरथ अवश्य पूर्ण करेंगे।' ऐसा कहकर वह कोपभवन में चली गयी और पृथ्वी पर अचेत-सी होकर पड़ रही। उधर महाराज दशरथ ब्राह्मण आदि का पूजन करके जब कैकेयी के भवन में आये तो उसे रोष में भरी हुई देख। तब राजा ने पूछा-'सुन्दरी! तुम्हारी ऐसी दशा क्यों हो रही है? तुम्हें कोई रोग तो नहीं सता रहा है? अथवा किसी भय से व्याकुल तो नहीं हो? बताओ, क्या चाहती हो? मैं अभी तुम्हारी इच्छा पूर्ण करता हूँ। जिन श्रीराम के बिना मैं क्षणभर भी जीवित नहीं रह सकता, उन्हीं की शपथ खाकर कहता हूँ, तुम्हारा मनोरथ अवश्य पूर्ण करूँगा। सच-सच बताओ, क्या चाहती हो?'

कैकेयी बोली-'राजन्! यदि आप मुझे कुछ देना चाहते हों, तो अपने सत्य की रक्षा के लिये पहले के दिये हुए दो वरदान देने की कृपा करें। मैं चाहती हूँ, राम चौदह वर्षों तक संयमपूर्वक वन में निवास करें और इन सामग्रियों के द्वारा आज ही भरत का युवराज पद पर अभिषेक हो जाय। महाराज! यदि ये दोनों वरदान आप मुझे नहीं देंगे तो मैं विष पीकर मर जाऊँगी।' यह सुनकर राजा दशरथ वज्र से आहत हुए की भाँति मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़े। फिर थोड़ी देर में चेत होने पर उन्होंने कैकेयी से कहा|

दशरथ बोले- पाप पूर्ण विचार रखने वाली कैकेयी! तू समस्त संसार का अप्रिय करने वालीहै। अरी! मैंने या राम ने तेरा क्या बिगाड़ा है, जो तू मुझसे ऐसी बात कहती है? केवल तुझे प्रिय लगने वाला यह कार्य करके मैं संसार में भलीभाँति निन्दित हो जाऊँगा। तू मेरी स्त्री नहीं , कालरात्रि है। मेरा पुत्र भरत ऐसा नहीं है। पापिनी! मेरे पुत्र के चले जाने पर जब मैं मर जाऊँगा तो तू विधवा होकर राज्य करना|

राजा दशरथ सत्य के बन्धन में बँधे थे। उन्होंने श्रीरामचन्द्रजी को बुलाकर कहा-'बेटा! कैकेयी ने मुझे ठग लिया। तुम मुझे कैद करके राज्य को अपने अधिकार में कर लो। अन्यथा तुम्हें वन में निवास करना होगा और कैकेयी का पुत्र भरत राजा बनेगा।' श्रीराम चन्द्र जी ने पिता और कैकेयी को प्रणामकरके उनकी प्रदक्षिणा की और कौसल्या के चरणों में मस्तक झुकाकर उन्हें सान्त्वना दी। फिर लक्ष्मण और पत्नी सीता को साथ ले, ब्राह्मणों, दीनों और अनाथों को दान देकर, सुमन्त्रसहित रथ पर बैठकर वे नगर से बाहर निकले। उस समय माता-पिता आदि शोक से आतुर हो रहे थे। उस रात में श्रीरामचन्द्र जी ने तमसा नदी के तट पर निवास किया। उनके साथ बहुत-से पुरवासी भी गये थे। उन सबको सोते छोड़कर वे आगे बढ़ गये। प्रात: काल होने पर जब श्रीरामचन्द्र जी नहीं दिखायी दिये तो नगरनिवासी निराश होकर पुन: अयोध्या लौट आये। श्रीरामचन्द्रजी के चले जाने से राजा दशरथ बहुत दु:खी हुए। वे रोते-रोते कैकेयी का महल छोड़कर कौसल्या के भवन में चले आये। उस समय नगर के समस्त स्त्री-पुरूष और रनिवास की स्त्रियाँ फूट-फूटकर रो रही थीं। श्रीरामचन्द्र जी ने चीरवस्त्र धारण कर रखा था। वे रथ पर बैठे-बैठे श्रृंगवेरपुर जा पहुँचे। वहाँ निषादराज गुहने उनका पूजन, स्वागत-सत्कार किया। श्रीरघुनाथ जी ने इंगुदी-वृक्ष की जड़ के निकट विश्राम किया। लक्ष्मण और गुह दोनों रात भर जागकर पहरा देते रहे|

प्रात:काल श्रीराम ने रथसहित सुमन्त्र को विदा कर दिया तथा स्वयं लक्ष्मण और सीता के साथ नाव से गंगा-पार हो वे प्रयाग में गये। वहाँ उन्होंने महर्षि भरद्वाज को प्रणाम किया और उनकी आज्ञा ले वहाँ से चित्रकूट पर्वत को प्रस्थान किया। चित्रकूट पहुँच कर उन्होंने वास्तुपूजा करने के अनन्तर (पर्णकुटी बनाकर) मन्दाकिनी के तटपर निवास किया। रघुनाथ जी ने सीता को चित्रकूट पर्वत का रमणीय दृश्य दिखलाया। इसी समय एक कौएने सीताजी के कोमल श्रीअंग में रखों से प्रहार किया। यह देख श्रीराम ने उसके ऊपर सींक के अस्त्र का प्रयोग किया। जब वह कौआ देवताओं का आश्रय छोड़कर श्रीरामचन्द्रजी की शरण में आया, तब उन्होंने उसकी केवल एक आँख नष्ट करके उसे जीवित छोड़ दिया। श्रीरामचन्द्रजी के वनगमन के पश्चात् छठे दिन की रात में राजा दशरथ ने कौसल्या से पहले की एक घटना सुनायी, जिसमें उनके द्वारा कुमारावस्था में सरयू के तटपर अनजान में यज्ञदत्त-पुत्र श्रवणकुमार के मारे जाने का वृत्तान्त था। "श्रवणकुमार के मारे जाने का वृत्तान्त था। "श्रवणकुमार पानी लेने के लिये आया था। उस समय उसके घड़े के भरने से जो शब्द हो रहा था, उसकी आहट पाकर मैंने उसे कोई जंगली जन्तु समझा और शब्दवेधी बाण से उसका वध कर डाला। यह समाचार पाकर उसके पिता और माता को बड़ा शोक हुआ। वे बांरबार विलाप करने लगे। उस समय श्रवणकुमार के पिता ने मुझे शाप देते हुए कहा- 'राजन्! हम दोनों पति-पत्नी पुत्र के बिना शोकातुर होकर प्राणत्याग कर रहे हैं; तुम भी हमारी ही तरह पुत्रवियोग के शोक से मरोगे; (तुम्हारे पुत्र मरेंगे तो नहीं, किंतु) उस समय तुम्हारे पास कोई पुत्र मौजूद न होगा।' कौसल्ये! आज उस शाप का मुझे स्मरण हो रहा है। जान पड़ता है, अब इसी शोक से मेरी मृत्यु होगी।" इतनी कथा कहने के पश्चात् राजा ने 'हा राम!' कह कर स्वर्ग लोक को प्रयाण किया। कौसल्या ने समझा, महाराज शोक से आतुर हैं; इस समय नींद आ गयी होगी। ऐसा विचार करके वे सो गयीं। प्रात:काल जगाने वाले सूत, मागध और बन्दीजन सोते हुए महाराज को जगाने लगे; किंतु वे न जगे|

तब उन्हें मरा हुआ जान रानी कौसल्या 'हाय! मैं मारी गयी' कहकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं। फिर तो समस्त नर-नारी फूट-फूटकर रोने लगे। तत्पश्चात् महर्षि वसिष्ठ ने राजा के शव को तैलभरी नौका में रखवाकर भरत को उनके ननिहाल से तत्काल बुलवाया। भरत औ शत्रुघ्न अपने मामा के राजमहल से निकलकर सुमन्त्र आदि के साथ शीघ्र ही अयोध्यापुरी में आये। यहाँ का समाचार जानकर भरत को बड़ा दु:ख हुआ। कैकेयी को शोक करती देख उसकी कठोर शब्दों में निन्दा करते हुए बोले-'अरी! तूने मेरे माथे कलंक का टीका लगा दिया- मेरे सिर पर अपयश का भारी बोझ लाद दिया।' फिर उन्होंने कौसल्या की प्रशंसा करके तैलपूर्ण नौका में रखे हुए पिता के शव का सरयूतट पर अन्त्येष्टि-संस्कार किया। तदनन्तर वसिष्ठ आदि गुरूजनों ने कहा- 'भरत! अब राज्य ग्रहण करो।'

भरत बोले- 'मैं तो श्रीरामचन्द्रजी को ही राजा मानता हूँ। अब उन्हें यहाँ लाने के लिये वन में जाता हूँ।' ऐसा कहकर वे वहाँ से दल-बलसहित चल दिये और श्रृंगवेरपुर होते हुए प्रयाग पहुँचे। वहाँ महर्षि भरद्वाज को नमस्कार करके वे प्रयाग से चले और चित्रकूट में श्रीराम एवं लक्ष्मण के समीप आ पहुँचे। वहाँ भरत ने श्रीराम से कहा-' रघुनाथ जी! हमारे पिता महाराज दशरथ स्वर्गवासी हो गये। अब आप अयोध्या में चलकर राज्य ग्रहण करें। मैं आपकी आज्ञा का पालन करते हुए वन में जाऊँगा।' यह सुनकर श्रीराम ने पिता का तर्पण किया और भरत से कहा-' तुम मेरी चरणपादु का लेकर अयोध्या लौट जाओ। मैं राज्य करने के लिये नहीं चलूँगा। पिता के सत्य की रक्षा के लिये चीर एवं जटा धारण करके वन में ही रहूँगा।' श्रीराम के ऐसा कहने पर सदल-बल भरत लौट गये और अयोध्या छोड़कर नन्दिग्राम में रहने लगे। वहाँ भगवान् की चरण-पादुकाओं की पूजा करते हुए वे राज्य का भली-भाँति पालन करने लगे|

अरण्यकाड की संक्षिप्त कथा

नारद जी कहते हैं- मुने! श्रीरामचन्द्र जी ने महर्षि वसिष्ठ तथा माताओं को प्रणाम करके उन सबको भरत के साथ विदा कर दिया। तत्पश्चात् महर्षि अत्रि तथा उनकी पत्नी अनसूया को, शरभंगमुनि को, सुतीक्ष्ण को तथा अगस्त्यजी के भ्राता अग्निजिह्व मुनि को प्रणाम करते हुए श्रीरामचन्द्र जी ने अगस्त्यमुनि के आश्रम पर जा उनके चरणों में मस्तक झुकाया और मुनि की कृपा से दिव्य धनुष एवं दिव्य खड्ग प्राप्त करके वे दण्डकारण्य में आये। वहाँ जनस्थान के भीतर पंचवटी नामक स्थान में गोदावरी के तट पर रहने लगे। एक दिन शूर्पणखा नाम वाली भयंकर राक्षसी राम, लक्ष्मण और सीता को खा जाने के लिये पंचवटी में आयी; किंतु श्रीरामचन्द्र जी का अत्यन्त मनोहर रूप देखकर वह काम के अधीन हो गयी और बोली|

शूर्पणखा ने कहा- तुम कौन हो? कहाँ से आये हो? मेरी प्रार्थना से अब तुम मेरे पति हो जाओ। यदि मेरे साथ तुम्हारा सम्बन्ध होने में (ये दोनों सीता और लक्ष्मण बाधक हैं तो) मैं इन दोनों को अभी खाये लेती हूँ|ऐसा कहकर वह उन्हें खा जाने को तैयार हो गयी। तब श्रीरामचन्द्र जी के कहने से लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक और दोनों कान भी काट लिये। कटे हुए अंगों से रक्त की धारा बहाती हुए शूर्पणखा अपने भाई खर के पास गयी और इस प्रकार बोली-'खर! मेरी नाक कट गयी। इस अपमान के बाद मैं जीवित नहीं रह सकती। अब तो मेरा जीवन तभी रह सकता है, जब कि तुम मुझे राम का, उनकी पत्नी सीता का तथा उनके छोटे भाई लक्ष्मण का गरम-गरम रक्त पिलाओ।' खर ने उसको 'बहुत अच्छा' कहकर शान्त किया और दूषण तथा त्रिशिरा के साथ चौदह हजार राक्षसों की सेना ले श्रीरामचन्द्र जी पर चढ़ाई की। श्रीराम ने भी उन सबका सामना किया और अपने बाणों से राक्षसों को बींधना आरम्भ किया। शत्रुओं की हाथी, घोड़े, रथ और पैदलसहित समस्त चतुरंगिणी सेना को उन्होंने यमलोक पहुँचा दिया तथा अपने साथ युद्ध करने वाले भयंकर राक्षस खर, दूषण एवं त्रिशिरा को भी मौत के घाट उतार दिया। अब शूर्पणखा लंका में गयी और रावण के सामने जा पृथ्वी पर गिर पड़ी। उसने क्रोध में भरकर रावण से कहा-'अरे! तू राजा और रक्षक कहलाने योग्य नहीं है। खर आदि समस्त राक्षसों को संहार करने वाले राम की पत्नी सीता को हर ले। मैं राम और लक्ष्मण का रक्त पीकर ही जीवित रहूँगी; अन्यथा नहीं'|

शूर्पणखा की बात सुनकर रावण ने कहा- 'अच्छा, ऐसा ही होगा।' फिर उसने मारीच से कहा-' तुम स्वर्णमय विचित्र मृग का रूप धारण करके सीता के सामने जाओ और राम तथा लक्ष्मण को अपने पीछे आश्रम से दूर हटा ले जाओ। मैं सीता का हरण करूँगा। यदि मेरी बात न मानोगे, तो तुम्हारी मृत्यु निश्चित है।'

मारीच ने रावण से कहा-'रावण! धनुर्धन राम साक्षात् मृत्यु हैं।' फिर उसने मन-ही-मन सोचा-'यदि नहीं जाऊँगा, तो रावण के हाथ से। इस प्रकार यदि मरना अनिवार्य है तो इसके लिये श्रीराम ही श्रेष्ठ हैं, रावण नहीं; (क्योंकि श्रीराम के हाथ से मृत्यु होने पर मेरी मुक्ति हो जायगी) ऐसा विचार कर वह मृगरूप धारण करके सीता के सामने बारंबार आने-जाने लगा। तब सीता जी की प्रेरणा से श्रीराम ने (दूर तक उसका पीछा करके) उसे अपने बाण से मार डाला। मरते समय उस मृग ने 'हा सीते! हा लक्ष्मण!' कहकर पुकार लगायी। उस समय सीता के कहने से लक्ष्मण अपनी इच्छा के विरूद्ध श्रीरामचन्द्र जी के स गये। इसी बीच में रावण ने भी मौका पाकर सीता को हर लिया। मार्ग में जाते समय उसने गृध्रराज जटायु का वध किया। जटायु ने भी उसके रथ को नष्ट कर डाला था। रथ न रहने पर रावण ने सीता को कंधे पर बिठा लिया और उन्हें लंका में ले जाकर अशोकवाटिका में रखा। वहाँ सीता से बोला-'तुम मेरी पटरानी बन जाओ।' फिर राक्षसियों की ओर देखकर कहा-'निशाचरियो! इसकी रखवाली करो'|

उधर श्रीरामचन्द्र जी जब मारीच को मारकर लौटे, तो लक्ष्मण को आते देख बोले- 'सुमित्रानन्दन! वह मृग तो मायामय था- वास्तव में वह एक राक्षस था; किंतु तुम जो इस समय यहाँ आ गये, इससे जान पड़ता है, निश्चय ही कोई सीता को हर ले गया।' श्रीरामचन्द्र जी आश्रम पर गये; किंतु वहाँ सीता नहीं दिखायी दीं। उस समय वे आर्त होकर शोक और विलाप करने लगे- 'हा प्रिये जानकी! तू मुझे छोड़कर कहाँ चली गयी?' लक्ष्मण ने श्रीराम को सान्त्वना दी। तब वे वन में घूम-घूम सीता की खोज करने लगे। इसी समय इनकी जटायु से भेंट हुई। जटायु ने यह कहकर कि 'सीता को रावण हर ले गया है' प्राण त्याग दिया। तब श्रीरघुनाथ जी ने अपने हाथ से जटायु का दाह-संस्कार किया। इसके बाद इन्होंने कबन्ध का वध किया। कबन्ध ने शापमुक्त होने पर श्रीरामचन्द्र जी से कहा-'आप सुग्रीव से मिलिये'|

किष्किन्धाकाण्ड की संक्षिप्त कथा

नारदजी कहते हैं- श्रीरामचन्द्र जी पम्पासरोवर पर जाकर सीता के लिये शोक करने लगे। वहाँ वे शबरी से मिले। फिर हनुमान् जी से उनकी भेंट हुई। हनुमान जी उन्हें सुग्रीव के पास ले गये और सुग्रीव के साथ उनकी मित्रता करायी। श्रीरामचन्द्र जी ने सबके देखते-देखते ताड़ के सात वृक्षों को एक ही बाण से बींध डाला और दुन्दुभि नामक दानव के विशाल शरीर को पैर की ठोकर से दस योजन दूर फेंक दिया। इसके बाद सुग्रीव के शत्रु वाली को, जो भाई होते हुए भी उनके साथ वैर रखता था, मार डाला और किष्किन्धापुरी, वानरों का साम्राज्य, रूमा एवं तारा-इन सबको ऋष्यमूक पर्वतपर वानरराज सुग्रीव के अधीन कर दिया। तदनन्तर किष्किन्धापुरी के स्वामी सुग्रीव ने कहा-'श्रीराम! आपको सीताजी की प्राप्ति जिस प्रकार भी हो सके, ऐसा उपाय मैं कर रहा हूँ।' यह सुनने के बाद श्रीरामचन्द्र जी ने माल्यवान् पर्वत के शिखरपर वर्षा के चार महीने व्यतीत किये और सुग्रीव किष्किन्धा में रहने लगे। चौमासे के बाद भी जब सुग्रीव दिखायी नहीं दिये, तब श्रीरामचन्द्र जी की आज्ञा से लक्ष्मण ने किष्किन्धा में जाकर कहा- 'सुग्रीव! तुम श्रीरामचन्द्र जी के पास चलो। अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रहो, नहीं तो वाली मरकर जिस मार्ग से गया है, वह मार्ग अभी बंद नहीं हुआ है। अतएव वाली के पथ का अनुसरण न करो।' सुग्रीव ने कहा-'सुमित्रानन्दन! विषयभोग में आसक्त हो जाने के कारण मुझे बीते हुए समय का भान न रहां (अत: मेरे अपराध को क्षमा कीजिये)'|

ऐसा कहकर वानरराज सुग्रीव श्रीरामचन्द्रजी के पास गये और उन्हें नमस्कार करके बोले- 'भगवान्! मैंने सब वानरों को बुला लिया है। अब आपकी इच्छा के अनुसार सीता जी की खोज करने के लिये उन्हें भेजूँगा। वे पूर्वादि दिशाओं में जाकर एक महीने तक सीताजी की खोज करें। जो एक महीने के बाद लौटेगा, उसे मैं मार डालूँगा।' यह सुनकर बहुत-से वानर पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशाओं के मार्ग पर चल पड़े तथा वहाँ जनक कुमारी सीता को न पाकर नियत समय के भीतर श्रीराम और सुग्रीव के पास लौट आये। हनुमान् जी श्रीरामचन्द्रजी की दी हुई अँगूठी लेकर अन्य वानरों के साथ दक्षिण दिशा में जानकी जी की खोज कर रहे थे। वे लोग सुप्रभा की गुफा के निकट विन्ध्यपर्वत पर ही एक मास से अधिक काल तक ढूँढ़ते फिरे; किंतु उन्हें सीता जी का दर्शन नहीं हुआ। अन्त में निराश होकर आपस में कहने लगे- 'हम लोगों को व्यर्थ ही प्राण देने पड़ेंगे। धन्य है वह जटायु, जिसने सीता के लिये रावण के द्वारा मारा जाकर युद्ध में प्राण त्याग दिया था'|

उनकी ये बातें सम्पाति नामक गृध्र के कानों में पड़ीं। वह वानरों के (प्राण त्याग की चर्चा से उनके) खाने की ताक में लगा था। किंतु जटायु की चर्चा सुनकर रूक गया और बोला-'वानरो! जटायु मेरा भाई था। वह मेरे ही साथ सूर्यमण्डल की ओर उड़ा चला जा रहा था। मैंने अपनी पाँखों की ओट में रखकर सूर्य की प्रखर किरणों के ताप से उसे बचाया। अत: वह तो सकुशल बच गया; किंन्तु मेरी पाँखें चल गयीं, इसलिये मैं यहीं गिर पड़ा। आज श्रीरामचन्द्र जी की वार्ता सुनने से फिर मेरे पंख निकल आये। अब मैं जानकी को देखता हूँ; वे लंका में अशोक-वाटिका के भीतर हैं। लवण समुद्र के द्वीप में त्रिकूट पर्वत पर लंका बसी हुई है। यहाँ से वहाँ तक का समुद्र सौ योजन विस्तृत है। यह जान कर सब वानर श्रीराम और सुग्रीव के पास जायँ और उन्हें सब समाचार बता दें|

सुन्दरकाण्ड की संक्षिप्त कथा

नारद जी कहते हैं- सम्पाति की बात सुनकर हनुमान् और अंगद आदि वानरों ने समुद्र की ओर देखा। फिर वे कहने लगे-'कौन समुद्र को लाँघकर समस्त वानरों को जीवन-दान देगा?' वानरों की जीवन-रक्षा और श्रीरामचन्द्र जी के कार्य की प्रकृष्ट सिद्धि के लिये पवन कुमार हनुमान् जी सौ योजन विस्तृत समुद्र को लाँघ गये। लाँघते समय अवलम्बन देने के लिये समुद्र से मैनाक पर्वत उठा। हनुमान् जी ने दृष्टिमात्र से उसका सत्कार किया। फिर (छायाग्राहिणी) सिंहिका ने सिर उठाया। (वह उन्हें अपना ग्रास बनाना चाहती थी, इसलिये) हनुमान् जी ने उसे मार गिराया। समुद्र के पार जाकर उन्होंने लंकापुरी देखी। राक्षसों के घरों में खोज की; रावण के अन्त:पुर में तथा कुम्भ, कुम्भकर्ण, विभीषण, इन्द्रजित् तथा अन्य राक्षसों के गृहों में जा-जाकर तलाश की; मद्यपान के स्थानों आदि में भी चक्कर लगाया; किंतु कहीं भी सीता उनकी दृष्टि में नहीं पड़ीं। अब वे बड़ी चिन्ता में पड़े। अन्त में जब अशोकवाटिका की ओर गये तो वहाँ शिंशपा-वृक्ष के नीचे सीता जी उन्हें बैठी दिखायी दीं। वहाँ राक्षसियाँ उनकी रखवाली कर रही थीं। हनुमान् जी ने शिंशपा-वृक्ष पर चढ़कर देखा। रावण सीता जी से कह रहा था-'तू मेरी स्त्री हो जा'; किंतु वे स्पष्ट शब्दों में 'ना' कर रही थीं। वहाँ बैठी हुई राक्षसियाँ भी यही कहती थीं-'तू रावण की स्त्री हो जा।' जब रावण चला गया तो हनुमान् जी ने इस प्रकार कहना आरम्भ किया-" अयोध्या में दशरथ नाम वाले एक राजा थे। उनके दो पुत्र राम और लक्ष्मण वनवास के लिये गये। वे दोनों भाई श्रेष्ठ पुरूष हैं। उनमें श्रीरामचन्द्र जी की पत्नी जनककुमारी सीता तुम्हीं हो। रावण तुम्हें बलपूर्वक हर ले आया है। श्रीरामचन्द्र जी इस समय वानरराज सुग्रीव के मित्र हो गये हैं। उन्होंने तुम्हारी खोज करने के लिये ही मुझे भेजा है। पहचान के लिये गूढ़ संदेश के साथ श्रीरामचन्द्र जी ने अँगूठी दी है। उनकी दी हुई यह अँगूठी ले लो'|

सीता जी ने अँगूठी ले ली। उन्होंने वृक्ष पर बैठे हुए हनुमान् जी को देखा। फिर हनुमान जी वृक्ष से उतर कर उनके सामने आ बैठे, तब सीता ने उनसे हा-'यदि श्रीरघुनाथजी जीवित हैं तो वे मुझे यहाँ से ले क्यों नहीं जाते?' इस प्रकार शंका करती हुई सीता जी से हनुमान जी ने इस प्रकार कहा-'देवि सीते! तुम यहाँ हो, यह बात श्रीरामचन्द्र जी नहीं जानते। मुझसे यह समाचार जान लेने के पश्चात् सेनासहित राक्षस रावण को मार कर वे तुम्हें अवश्य ले जायँगे। तुम चिन्ता न करो। मुझे कोई अपनी पहचान दो।' तब सीताजी ने हनुमान जी को अपनी चूड़ामणि उतार कर दे दी और कहा-'भैया! अब ऐसा उपाय करो, जिससे श्रीरघुनाथजी शीघ्र आकर मुझे यहाँ से ले चलें। उन्हें कौए की आँख नष्ट कर देने वाली घटना का स्मरण दिलाना; (आज यहीं रहो) कल सबेरे चले जाना; तुम मेरा शोक दूर करने वाले हो। तुम्हारे आने से मेरा दु:ख बहुत कम हो गया है।' चूड़ामणि और काकवाली कथा को पहचान के रूप में लेकर हनुमान जी ने कहा-'कल्याणि! तुम्हारे पतिदेव अब तुम्हें शीघ्र ही ले जायँगे। अथवा यदि तुम्हें चलने की जल्दी हो, तो मेरी पीठ पर बैठ जाओ। मैं आज ही तुम्हें श्रीराम और सुग्रीव के दर्शन कराऊँगा।' सीता बोलीं-'नहीं, श्रीरघुनाथ जी ही आकर मुझे ले जायँ|

तदनन्तर हनुमान् जी ने रावण से मिलने की युक्ति सोच निकाली। उन्होंने रक्षकों को मार कर उस वाटिका को उजाड़ डाला। फिर दाँत और नख आदि आयुधों से वहाँ आये हुए रावण के समस्त सेवकों को मारकर सात मन्त्रिकुमारों तथा रावणपुत्र अक्षय कुमार को भी यमलोक पहुँचा दिया। तत्पश्चात् इन्द्रजित् ने आकर उन्हें नागपाश से बाँध लिया और उन वानरवीर को रावण के पास ले जाकर उससे मिलाया। उस समय रावण ने पूछा-'तू कौन है?' तब हनुमान जी ने रावण को उत्तर दिया- 'मैं श्रीरामचन्द्र जी का दूत हूँ। तुम श्रीसीताजी को श्रीरघुनाथजी की सेवा में लौटा दो; अन्यथा लंकानिवासी समस्त राक्षसों के साथ तुम्हें श्रीराम के बाणों से घायल होकर निश्चय ही मरना पड़ेगा।' यह सुनकर रावण हनुमान जी को मारने के लिये उद्यत हो गया; किंतु विभीषण ने उसे रोक दिया। तब रावण ने उनकी पूँछ में आग लगा दी। पूँछ जल उठी। यह देख पवनपुत्र हनुमान जी ने राक्षसों की पुरी लंका को जला डाला और सीता जी का पुन: दर्शन करके उन्हें प्रणाम किया। फिर समुद्र के पार आकर अंगद आदि से कहा-'मैंने सीता जी का दर्शन कर लिया है।' तत्पश्चात् अंगद आदि के साथ सुग्रीव के मधुवन में आकर, दधिमुख आदि रक्षकों को परास्त करके, मधुपान करने के अनन्तर वे सब लोग श्रीरामचन्द्र जी के पास आये और बोले- 'सीताजी का दर्शन हो गया।' श्रीरामचन्द्र जी ने भी अत्यन्त प्रसन्न होकर हनुमान जी से पूछा-|

श्रीरामचन्द्र जी बोले- कपिवर! तुम्हें सीता का दर्शन कैसे हुआ? उसने मेरे लिये क्या संदेश दिया है? मैं विरह की आग में जल रहा हूँ। तुम सीता की अमृतमयी कथा सुनाकर मेरा संताप शान्त करो|

नारदजी कहते हैं- यह सुनकर हनुमान जी ने रघुनाथ जी से कहा-'भगवान्! मैं समुद्र लाँघकर लंका में गया था! वहाँ सीता जी का दर्शन करके, लंकापुरी को जलाकर यहाँ आ रहा हूँ। यह सीताजी की दी हुई चूड़ामणि लीजिये। आप शोक न करें; रावण का वध करने के पश्चात् निश्चय ही आपको सीता जी की प्राप्ति होगी।' श्रीरामचन्द्र जी उस मणि को हाथ में ले, विरह से व्याकुल होकर रोने लगे और बोले- 'इस मणि को देखकर ऐसा जान पड़ता है, मानो मैंने सीता को ही देख लिया। अब मुझे सीता के पास ले चलो; मैं उसके बिना जीवित नहीं रह सकता।' उस समय सुग्रीव आदि ने श्रीरामचन्द्र जी को समझा-बुझाकर शान्त किया। तदनन्तर श्रीरघुनाथ जी समुद्र के तट पर गये। वहाँ उनसे विभीषण आकर मिले। विभीषण के भाई दुरात्मा रावण ने उनका तिरस्कार किया था। विभीषण ने इतना ही कहा था कि 'भैया! आप सीता को श्रीरामचन्द्र जी की सेवा में समर्पित कर दीजिये।' इसी अपराध के कारण उसने इन्हें ठुकरा दिया था। अब वे असहाय थे। श्रीरामचन्द्र जी ने विभीषण को अपना मित्र बनाया और लंका के राजपद पर अभिषिक्त कर दिया। इसके बाद श्रीराम ने समुद्र से लंका जाने के लिये रास्ता माँगा। जब उसने मार्ग नहीं दिया तो उन्होंने बाणों से उसे बींध डाला। अब समुद्र भयभीत होकर श्रीरामचन्द्र जी के पास आकर बोला-"भगवन्! नल के द्वारा मेरे नल के द्वारा मेरे ऊपर पुल बँधाकर आप लंका में जाइये। पूर्वकाल में आपही ने मुझे गहरा बनाया था।' यह सुनकर श्रीरामचन्द्र जी ने नल के द्वारा वृक्ष और शिलाखण्डों से एक पुल बँधवाया और उसी से वे वानरों सहित समुद्र के पार गये। वहाँ सुवेल पर्वत पर पड़ाव डाल कर वहीं से उन्होंने लंका पुरी का निरीक्षण किया|

युद्धकाण्ड की संक्षिप्त कथा

नारद जी कहते हैं- तदनन्तर श्रीरामचन्द्र जी के आदेश से अंगद रावण के पास गये और बोले- 'रावण! तुम जनक कुमारी सीता को ले जाकर शीघ्र ही श्रीरामचन्द्रजी को सौंप दो। अन्यथा मारे जाओगे।' यह सुनकर रावण उन्हें मारने को तैयार हो गया। अंगद राक्षसों को मार-पीटकर नौट आये और श्रीरामचन्द्र जी से बोले-'भगवन्! रावण केवल युद्ध करना चाहता है।' अंगद की बात सुनकर श्रीराम ने वानरों की सेना साथ ले युद्ध के लिये लंका में प्रवेश किया। हनुमान, मैन्द, द्विविद, जाम्बवान, नल, नील, तार, अंगद, धूम्र, सुषेण, केसरी, गज, पनस, विनत, रम्भ, शरभ, महाबली कम्पन, [[गवाक्ष], दधिमुख, गवय और गन्धमादन- ये सब तो वहाँ आये ही, अन्य भी बहुत-से वानर आ पहुँचे। इन असंख्य वानरों सहित (कपिराज) सुग्रीव भी युद्ध के लिये उपस्थित थे। फिर तो राक्षसों और वानरों में घमासान युद्ध छिड़ गया। राक्षस वानरों को बाण, शक्ति और गदा आदि के द्वारा मारने लगे और वानर रख, दाँत, एवं शिला आदि के द्वारा राक्षसों का संहार करने लगे। राक्षसों की हाथी, घोड़े, रथ और पैदलों से युक्त चतुरंगिणी सेना नष्ट-भ्रष्ट हो गयी। हनुमान ने पर्वतशिखर से अपने वैरी धूम्राक्ष का वध कर डाला। नील ने भी युद्ध के लिये सामने आये हुए अकम्पन और प्रहस्त को मौत के घाट उतार दिया|

श्रीराम और लक्ष्मण यद्यपि इन्द्रजित् के नागास्त्र से बंध गये थे, तथापि गरूड़ की दृष्टि पड़ते ही उससे मुक्त हो गये। तत्पश्चात् उन दोनों भाइयों ने बाणों से राक्षसी सेना का संहार आरम्भ किया। श्रीराम ने रावण को युद्ध में अपने बाणों की मार से जर्जरित कर डाला। इससे दु:खित होकर रावण ने कुम्भकर्ण को सोते से जगायां जागने पर कुम्भकर्ण ने हजार घड़े मदिरा पीकर कितने ही भेंस आदि पशुओं का भक्षण किया। फिर रावण से

कुम्भकर्ण बोला- 'सीता का हरण करके तुमने पाप किया है। तुम मेरे बड़े भाई हो, इसीलिये तुम्हारे कहने से युद्ध करने जाता हूँ। मैं वानरों सहित राम को मार डालूँगा'|

ऐसा कहकर कुम्भकर्ण ने समस्त वानरों को कुचलना आरम्भ किया। एक बार उसने सुग्रीव को पकड़ लिया, तब सुग्रीव ने उसकी नाक और कान काट लिये। नाक और कान से रहित होकर वह वानरों का भक्षण करने लगा। यह देख श्रीरामचन्द्र जी ने अपने बाणों से कुम्भकर्ण की दोनों भुजाएँ काट डालीं। इसके बाद उसके दोनों पैर तथा मस्तक काट कर उसे पृथ्वी पर गिरा दिया। तदनन्तर कुम्भ, निकुम्भ, राक्षस मकराक्ष, महोदर, महापार्श्व, देवान्तक, नरान्तक, त्रिशिरा और अतिकाय युद्ध में कूद पड़े। तब इनको तथा और भी बहुत-से युद्ध परायण राक्षसों को श्रीराम, लक्ष्मण, विभीषण एवं वानरों ने पृथ्वी पर सुला दिया। तत्पश्चात् इन्द्रजित् (मेघनाद)-ने माया से युद्ध करते हुए वरदान में प्राप्त हुए नागपाश द्वारा श्रीराम और लक्ष्मण को बाँध लिया। उस समय हनुमान् जी के द्वारा लाये हुए पर्वत पर उगी हुई 'विशल्या' नाम की ओषधि से श्रीराम और लक्ष्मण के घाव अच्छे हुए। उनके शरीर से बाण निकाल दिये गये। हनुमान जी पर्वत को जहाँ से लाये थे, वहीं उसे पुन: रख आये। इधर मेघनाद निकुम्भिलादेवी के मन्दिर में होम आदि करने लगा। उस समय लक्ष्मण ने अपने बाणों से इन्द्र को भी परास्त कर देने वाले उस वीर को युद्ध में मार गिराया। पुत्र की मृत्यु का समाचार पाकर रावण शोक से संतप्त हो उठा और सीता को मार डालने के लिये उद्यत हो उठा; किंतु अविन्ध्य के मना करने से वह मान गया और रथ पर बैठकर सेनासहित युद्धभूमि में गया। तब इन्द्र के आदेश से मातलि ने आकर श्रीरघुनाथ जी को भी देवराज इन्द्र के रथ पर बिठाया|

श्रीराम और रावण का युद्ध श्रीराम और रावण के युद्ध के ही समान था- उसकी कहीं भी दूसरी कोई उपमा नहीं थी। रावण वानरों पर प्रहार करता था और हनुमान आदि वानर रावण को चोट पहुँचाते थे। जैसे मेघ पानी बरसाता है, उसी प्रकार श्रीरघुनाथ जी ने रावण के ऊपर अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा आरम्भ कर दी। उन्होंने रावण के रथ, ध्वज, अश्व, सारथि, धनुष, बाहु और मस्तक काट डाले। काटे हुए मस्तकों के स्थान पर दूसरे नये मस्तक उत्पन्न हो जाते थे। यह देखकर श्रीरामचन्द्र जी ने ब्रह्मास्त्र के द्वारा रावण का वक्ष;स्थल विदीर्ण करके उसे रणभूमि में गिरा दिया। उस समय (मरने से बचे हुए सब) राक्षसों के साथ रावण की अनाथा स्त्रियाँ विलाप करने लगीं। तब श्रीरामचन्द्र जी की आज्ञा से विभीषण ने उन सबको सान्त्वना दे, रावण के शव का दाह-संस्कार किया। तदनन्तर श्रीरामचन्द्र जी ने हनुमान जी के द्वारा सीता जी को बुलवाया। यद्यपि वे स्वरूप से ही नित्य शुद्ध थीं, तो भी उन्होंने अग्नि में प्रवेश करके अपनी विशुद्धता का परिचय दिया। तत्पश्चात् रघुनाथ जी ने उन्हें स्वीकार किया। इसके बाद इन्द्रादि देवताओं ने उनका स्तवन किया। फिर ब्रह्मा जी तथा स्वर्गवासी महाराज दशरथ ने आकर स्तुति करते हुए कहा-'श्रीराम! तुम राक्षसों का संहार करने वाले साक्षात् श्रीविष्णु हो।' फिर श्रीराम के अनुरोध से इन्द्र ने अमृत बरसाकर मरे हुए वानरों को जीवित कर दिया। समस्त देवता युद्ध देखकर, श्रीरामचन्द्र जी के द्वारा पूजित हो, स्वर्गलोक में चले गये। श्रीरामचन्द्र जी ने लंका का राज्य विभीषण को दे दिया और वानरों का विशेष सम्मान किया|

फिर सबको साथ ले, सीता सहित पुष्पक विमान पर बैठकर श्रीराम जिस मार्ग से आये थे, उसी से लौट चले। मार्ग में वे सीता को प्रसन्नचित्त होकर वनों और दुर्गम स्थानों को दिखाते जा रहे थे। प्रयाग में महर्षि भरद्वाज को प्रणाम करके वे अयोध्या के पास नन्दिग्राम में आये। वहाँ भरत ने उनके चरणों में प्रणाम किया। फिर वे अयोध्या में आकर वहीं रहने लगे। सबसे पहले उन्होंने महर्षि वसिष्ठ आदि को नमस्कार करके क्रमश: कौसल्या, कैकेयी और सुमित्रा के चरणों में मस्तक झुकाया। फिर राज्य-ग्रहण करके ब्राह्मणों आदि का पूजन किया। अश्वमेध-यज्ञ करके उन्होंने अपने आत्मस्वरूप श्रीवासुदेव का यजन किया, सब प्रकार के दान दिये और प्रजाजनों का पुत्रवत् पालन करने लगे। उन्होंने धर्म और कामादिका भी सेवन किया तथा वे दुष्टों को सदा दण्ड देते रहे। उनके राज्य में सब लोग धर्मपरायण थे तथा पृथ्वी पर सब प्रकार की खेती फली-फूली रहती थी। श्रीरघुनाथजी के शासनकाल में किसी की अकालमृत्यु भी नहीं होती थी|

उत्तरकाण्ड की संक्षिप्त कथा

नारद जी कहते हैं- जब रघुनाथ जी अयोध्या के राजसिंहासन पर आसीन हो गये, तब अगस्त्य आदि महर्षि उनका दर्शन करने के लिये गये। वहाँ उनका भलीभाँति स्वागत-सत्कार हुआ। तदनन्तर उन ऋषियों ने कहा-'भगवन्! आप धन्य हैं, जो लंका में विजयी हुए और इन्द्रजित् जैसे राक्षस को मार गिराया। (अब हम उनकी उत्पत्ति कथा बतलाते हैं, सुनिये-) ब्रह्माजी के पुत्र मुनिवर पुलस्त्य हुए और पुलस्त्य से महर्षि विश्रवा का जन्म हुआ। उनकी दो पत्नियाँ थीं- पुण्योत्कटा और कैकसी। उनमें पुण्योत्कटा ज्येष्ठ थी। उसके गर्भ से धनाध्यक्ष कुबेर का जन्म हुआ। कैकसी के गर्भ से पहले रावण का जन्म हुआ, जिसके दस मुख और बीस भुजाएँ थीं। रावण ने तपस्या की और ब्रह्माजी ने उसे वरदान दिया, जिससे उसने समस्त देवताओं को जीत लिया। कैकसी के दूसरे पुत्र का नाम कुम्भकर्ण और तीसरे का विभीषण था। कुम्भकर्ण सदा नींद में ही पड़ा रहता था; किंतु विभीषण बड़े धर्मात्मा हुए। इन तीनों की बहन शूर्पणखा हुई। रावण से मेघनाद का जन्म हुआ। उसने इन्द्र को जीत लिया था, इसलिये 'इन्द्रजित' के नाम से उसकी प्रसिद्ध हुई। वह रावण से भी अधिक बलवान था। परंतु देवताओं आदि के कल्याण की इच्छा रखने वाले आपने लक्ष्मण के द्वारा उसका वध करा दिया।' ऐसा कहकर वे अगस्त्य आदि ब्रह्मर्षि श्रीरघुनाथ जी के द्वारा अभिनन्दित हो अपने-अपने आश्रम को चले गये। तदनन्तर देवताओं की प्रार्थना से प्रभावित श्रीरामचन्द्र जी के आदेश से शत्रुघ्न ने लवणासुर को मार कर एक पुरी बसायी, जो 'मथुरा' नाम से प्रसिद्ध हुई। तत्पश्चात् भरत ने श्रीराम की आज्ञा पाकर सिन्धु-तीर-निवासी शैलूष नामक बलोन्मत्त गन्धर्व का तथा उसके तीन करोड़ वंशजों का अपने तीखे बाणों से संहार किया। फिर उस देश के (गान्धार और मद्र) दो विभाग करके, उनमें अपने पुत्र तक्ष और पुष्कर को स्थापित कर दिया|

इसके बाद भरत और शत्रुघ्न अयोध्या में चले आये और वहाँ श्रीरघुनाथ जी की आराधना करते हुए रहने लगे। श्रीरामचन्द्र जी ने दुष्ट पुरूषों का युद्ध में संहार किया और शिष्ट पुरूषों का दान आदि के द्वारा भलीभाँति पालन किया। उन्होंने लोकापवाद के भय से अपनी धर्मपत्नी सीता को वन में छोड़ दिया था। वहाँ वाल्मीकि मुनि के आश्रम में उनके गर्भ से दो श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न हुए, जिनके नाम कुश और लव थे। उनके उत्तम चरित्रों को सुनकर श्रीरामचन्द्र जी को भलीभाँति निश्चय हो गया कि ये मेरे ही पुत्र हैं। तत्पश्चात् उन दोनों को कोसल के दो राज्यों पर अभिषिक्त करके, 'मैं ब्रह्म हूँ' इसकी भावनापूर्वक प्रार्थना से भाइयों और पुरवासियों सहित अपने परमधाम में प्रवेश किया। अयोध्या में ग्यारह हजार वर्षों तक राज्य करके वे अनेक यज्ञों का अनुष्ठान कर चुके थे। उनके बाद सीता के पुत्र कोसल जनपद के राजा हुए|

अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठजी! देवर्षि नारद से यह कथा सुनकर महर्षि वाल्मीकि ने विस्तार पूर्वक रामायण नामक महाकाव्य की रचना की। जो इस प्रसंग को सुनता है, वह स्वर्गलोक को जाता है|

टीका-टिप्पणी

  1. यहाँ मूल में, 'प्रभावत:' पद 'प्रभाव:' के अर्थ में है। यहाँ 'तसि' प्रत्यय पञ्चम्यन्त का बोधक नहीं है। सार्वविभक्तिक 'तसि' के नियमानुसार प्रथमान्त पद से यहाँ 'तसि' प्रत्यय हुआ है, ऐसा मानना चाहिये।
  2. (2) वाल्मीकीय रामायण, बालकाण्ड 7/3 में इन मन्त्रियों के नाम इस प्रकार आये हैं- धृष्टि, जयन्त, विजय, सुराष्ट्र, राष्ट्रवर्धन, अकोप, धर्मपाल तथा सुमन्त्र।