"लक्ष्मण" के अवतरणों में अंतर

ब्रज डिस्कवरी, एक मुक्त ज्ञानकोष से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
(नया पृष्ठ: {{menu}}<br /> ==श्री लक्ष्मण / Laxman== लक्ष्मण जी शेषावतार थे। किसी भी अवस्था म...)
 
पंक्ति १३: पंक्ति १३:
 
<br />
 
<br />
 
{{रामायण}}
 
{{रामायण}}
 +
__INDEX__

०७:५७, १३ नवम्बर २००९ का अवतरण


श्री लक्ष्मण / Laxman

लक्ष्मण जी शेषावतार थे। किसी भी अवस्था में भगवान श्री राम का वियोग इन्हें सह्य नहीं था। इसलिये ये सदैव छाया की भाँति श्री राम का ही अनुगमन करते थे। श्री राम के चरणों की सेवा ही इनके जीवन का मुख्य व्रत था। श्री राम की तुलना में संसार के सभी सम्बन्ध इनके लिये गौण थे। इनके लिये श्री राम ही माता-पिता, गुरू, भाई सब कुछ थे और उनकी आज्ञा का पालन ही इनका मुख्य धर्म था। इसलिये जब भगवान श्री राम विश्वामित्र की यज्ञ-रक्षा के लिये गये तो लक्ष्मण जी भी उनके साथ गये। भगवान श्री राम जब सोने जाते थे तो ये उनका पैर दबाते और भगवान के बार-बार आग्रह करने पर ही स्वयं सोते तथा भगवान के जागने के पूर्व ही जग जाते थे। अबोध शिशु की भाँति इन्होंने भगवान श्री राम के चरणों को ही दृढ़तापूर्वक पकड़ लिया और भगवान ही इनकी अनन्य गति बन गये। भगवान श्री राम के प्रति किसी के भी अपमान सूचक शब्द को ये कभी बरदाश्त नहीं करते थे। जब महाराज जनक ने धनुष के न टूटने के क्षोभ में धरती को वीर-विहीन कह दिया, तब भगवान के उपस्थित रहते हुए जनक जी का यह कथन श्री लक्ष्मण जी को बाण-जैसा लगा। ये तत्काल कठोर शब्दों में जनक जी का प्रतिकार करते हुए बोले- भगवान श्री राम के विद्यमान रहते हुए जनक ने जिस अनुचित वाणी का प्रयोग किया है, वह मेरे हृदय में शूल की भाँति चुभ रही है। जिस सभा में रघुवंश का कोई भी वीर मौजूद हो, वहाँ इस प्रकार की बातें सुनना और कहना उनकी वीरता का अपमान है। यदि श्री राम आदेश दें तो मैं सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को गेंद की भाँति उठा सकता हूँ, फिर जनक के इस सड़े धनुष की गिनती ही क्या है।' इसी प्रकार जब श्री परशुरामजी ने धनुष तोड़ने वाले को ललकारा तो ये उनसे भी भिड़ गये। भगवान श्री राम के प्रति श्री लक्ष्मण की अनन्य निष्ठा का उदाहरण भगवान के वनगमन के समय मिलता है। ये उस समय देह-गेह, सगे-सम्बन्धी, माता और नव-विवाहिता पत्नी सबसे सम्बन्ध तोड़कर भगवान के साथ वन जाने के लिये तैयार हो जाते हैं। वन में ये निद्रा और शरीर के समस्त सुखों का परित्याग करके श्री राम-जानकी की जी-जान से सेवा करते हैं। ये भगवान की सेवा में इतने मग्न हो जाते हैं कि माता-पिता, पत्नी, भाई तथा घर की तनिक भी सुधि नहीं करते।


श्री लक्ष्मण जी ने अपने चौदह वर्ष के अखण्ड ब्रह्मचर्य और अद्भुत चरित्र-बल पर लंका में मेघनाद- जैसे शक्तिशाली योद्धा पर विजय प्राप्त किया। ये भगवान की कठोर–से–कठोर आज्ञा का पालन करने में भी कभी नहीं हिचकते। भगवान की आज्ञा होने पर आँसुओं को भीतर-ही-भीतर पीकर इन्होंने श्री जानकी जी को वन में छोड़ने में भी संकोच नहीं किया। इनका आत्मत्याग भी अनुपम है। जिस समय तापस वेशधारी काल की श्री राम से वार्ता चल रही थी तो द्वारपाल के रूप में उस समय श्री लक्ष्मण ही उपस्थित थे। किसी को भीतर जाने की अनुमति नहीं थी। उसी समय दुर्वासा ऋषि का आगमन होता है और वे श्री राम का तत्काल दर्शन करने की इच्छा प्रकट करते हैं। दर्शन न होने पर वे शाप देकर सम्पूर्ण परिवार को भस्म करने की बात करते हैं। श्री लक्ष्मण जी ने अपने प्राणों की परवाह न करके उस समय दुर्वासा को श्री राम से मिलाया और बदलें में भगवान से परित्याग का दण्ड प्राप्त कर अद्भुत आत्मत्याग किया। श्री राम के अनन्य सेवक श्रीलक्ष्मण धन्य हैं।