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०५:३६, २९ नवम्बर २००९ का अवतरण
गीता अध्याय-18 श्लोक-57 / Gita Chapter-18 Verse-57
प्रसंग-
इस प्रकार भक्ति प्रधान कर्मयोगी की महिमा का वर्णन करके अब अर्जुन को वैसा बनने के लिये आज्ञा देते हैं-
चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्पर: ।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित: सततं भव ।।57।।
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सब कर्मों को मन से मुझमें अर्पण करके तथा समबुद्धि रूप योग को अवलम्बन करके मेरे परायण और निरन्तर मुझमें चित्त वाला हो ।।57।।
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Mentally resigning all your duties to Me, and taking recourse to Yoga. in the form of even-mindedness, be solely devoted to Me and constantly give your mind to Me. (57)
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सर्वकर्माणि = सब कर्मो को ; चेतसा = मनसे ; मयि = मेरे में ; संन्यस्य = अर्पण करके ; मत्पर: = मेरे परायण हुआ ; बुद्धियोगम् = समत्वबृद्धिरूप निष्काम कर्मयोग को ; उपाश्रित्य = अवलम्बन करके = सततम् = निरन्तर ; मच्चित्त: = मेरे में चित्तवाला ; भव = हो
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