कृष्ण और महाभारत

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महाभारत- द्रोणाभिषेकपर्व, आश्वमेधिकपर्व

श्रीकृष्ण मंझले भाई थे। उनके बड़े भाई का नाम बलराम था जो अपनी भक्ति में ही मस्त रहते थे। उनसे छोटे का नाम 'गद' था। वे अत्यंत सुकुमार होने के कारण श्रम से दूर भागते थे। श्रीकृष्ण के बेटे प्रद्युम्न अपने दैहिक सौंदर्य से मदासक्त थे। कृष्ण अपने राज्य का आधा धन ही लेते थे, शेष यादववंशी उसका उपभोग करते थे। श्रीकृष्ण के जीवन में भी ऐसे क्षण आये जब उन्होंने अपने जीवन का असंतोष नारद के सम्मुख कह सुनाया और पूछा कि यादववंशी लोगों के परस्पर द्वेष तथा अलगाव के विषय में उन्हें क्या करना चाहिए। नारद ने उन्हें सहनशीलता का उपदेश देकर एकता बनाये रखने को कहा।
(म0भा0, द्रोणाभिषेकपर्व, 11, श्लोक 10-11, शांतिपर्व 81, आश्व मेधिकपर्व,52)

महाभारत- मौसलपर्व / ब्रह्म पुराण

महाभारत युद्ध में भीष्म कृष्ण की प्रतिज्ञा भंग करवाते हुए

महाभारत युद्ध में कौरवों के संहार के उपरांत गांधारी ने श्रीकृष्ण को समस्त वंश सहित नष्ट होने का शाप दिया था।

युद्ध के 36 वर्ष उपरांत यादववंशियों में अन्याय और कलह अपने चरम पर पहुंच गया। श्रीकृष्ण को बार-बार गांधारी के शाप का स्मरण हो आता। तभी मौसल युद्ध में समस्त यादव, वृष्णि तथा अंधकवंशी लोगों का नाश हो गया। श्रीकृष्ण तपस्या में लगे भाई बलराम के पास तपस्या करने के लिए चले गये। बलराम योगयुक्त समाधिस्थ बैठे थे। कृष्ण ने देखा कि उनके मुंह से एक श्वेत वर्ण का विशालकाय सर्प निकला जिसके एक सहस्त्र फन थे। वह महासागर की ओर बढ़ गया। सागर में से तक्षक, अरुण, कुंजर इत्यादि सब ने भगवान अनंत की भांति उसका स्वागत किया। इस प्रकार बलराम का शरीर-त्याग देखकर कृष्ण पुन: गांधारी के शाप तथा दुर्वासा के शरीर पर जूठी खीर पुतवाने की बात स्मरण करते रहे, फिर मन, वाणी और इन्द्रियों का निरोध करके पृथ्वी पर लेट गये। उसी समय जरा नामक एक भंयकर व्याध मृगों को मारता हुआ वहां पहुंचा। लेटे हुए कृष्ण को मृग समझकर उसने बाण से प्रहार किया जो श्रीकृष्ण को पांव के तलवों में लगा। पास जाकर उसने कृष्ण को पहचाना तथा क्षमा-याचना की कृष्ण उसे आश्वस्त कर ऊर्ध्वलोक में चले गये।

(म0भा0, मौसलपर्व, अध्याय 04, ब्र0पु0 , 210 से 211 तक)

महाभारत- उद्योगपर्व

अभिमन्यु तथा उत्तरा के विवाह के उपरांत उपस्थित मित्र तथा संबंधियों ने मन्त्रणा की कि तेरह वर्ष पूर्ण होने पर भी कौरव आधा राज्य दे देंगे, ऐसा नहीं प्रतीत होता, अत: एक दूत दुर्योधन के पास भेजना चाहिए ताकि उसके विचार पता चले और दूसरी ओर सेना-संचय प्रारंभ करना चाहिए। निश्चय के अनुसार अर्जुन कृष्ण के पास युद्ध में सहायता मांगने के लिए पहुंचा। इससे पूर्व वहां दुर्योधन पहुंच चुका था। कृष्ण सो रहे थे। दुर्योधन सिरहाने की ओर के आसन पर बैठा था- अर्जुन पांव की ओर खड़ा रहा। कृष्ण ने उठकर पहले अर्जुन को देखा फिर दुर्योधन को दोनों सहायता के लिए आये थे। एक पहले आया था, दूसरा पहले देखा गया था। अत: कृष्ण ने एक को सेना देने का तथा दूसरे को स्वयं बिना हथियार उठाए सहायता करने का निश्चय किया। अर्जुन कृष्ण को पाकर तथा दुर्योंधन सेना पाकर प्रसन्न हो गये।
(म0भा0, उद्योगपर्व , अध्याय 1 से 7)

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