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− | हे पार्थ ! जिस अव्यभिचारिणी धारण शक्ति से मनुष्य ध्यान योग के द्वारा मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को धारण करता है, वह धृति सात्त्विकी है ।।33।। | + | हे <balloon title="पार्थ, भारत, धनंजय, पृथापुत्र, परन्तप, गुडाकेश, निष्पाप, महाबाहो सभी अर्जुन के सम्बोधन है।" style="color:green">पार्थ</balloon> ! जिस अव्यभिचारिणी धारण शक्ति से मनुष्य ध्यान योग के द्वारा मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को धारण करता है, वह धृति सात्त्विकी है ।।33।। |
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०८:२७, ६ दिसम्बर २००९ का अवतरण
गीता अध्याय-18 श्लोक-33 / Gita Chapter-18 Verse-33
प्रसंग-
अब सात्त्विकी धृति के लक्षण बतलाते हैं-
धृत्या यया रधारयते मन:प्राणेन्द्रियक्रिया: ।
योगेनाव्यभिचारिण्या धृति: सा पार्थ सात्त्विकी ।।33।।
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हे <balloon title="पार्थ, भारत, धनंजय, पृथापुत्र, परन्तप, गुडाकेश, निष्पाप, महाबाहो सभी अर्जुन के सम्बोधन है।" style="color:green">पार्थ</balloon> ! जिस अव्यभिचारिणी धारण शक्ति से मनुष्य ध्यान योग के द्वारा मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को धारण करता है, वह धृति सात्त्विकी है ।।33।।
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The unwavering firmness by which man controls through the Yoga of meditation the functions of the mind, the vital airs and the senses—that firmness, Arjuna, is Goodness (Sattvika). (33)
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पार्थ = हे पार्थ ; योगेन = ध्यानयोग के द्वारा ; यया = जिस ; धृत्या = धारणा से (मनु ष्य) ; मन:प्राणेन्द्रिय क्रिया: = मन प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को ; अव्यभिचारिण्या = अव्यभिचारिणी ; धारयते = धारण करता है ; सा = वह ; धृति: = धारणा (तो) ; सात्त्विकी = सात्त्तिकी है ;
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