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०९:५५, २९ जुलाई २०११ का अवतरण

जय केशव ऐतिहासिक उपन्यास-लेखक, श्री सत्येन्दु याज्ञवल्क्य

"महावन में उस समय कुलचंद नाम का राजा था । उसका बहुत बड़ा किला था । (संभवतः इस समय मथुरा प्रदेश का राजनैतिक केंद्र महावन ही था ।) कुलचंद बड़ा शक्तिशाली राजा था, उससे युध्द में कोई जीत नहीं सका था । वह विशाल राज्य का शासक था । उसके पास अपार धन था और वह एक बहुत बड़ी सेना का स्वामी था और उसके सुदृढ किले को कोई भी दुश्मन नहीं ढहा सकता था । जब उसने सुल्तान (महमूद) की चढ़ाई की बाबत सुना तो अपनी फौज इकट्ठी करके मुकाबले के लिए तैयार हो गया । परन्तु उसकी सेना शत्रु को हटाने में असफल रही और सैनिक मैदान छोड़ कर भाग गये, जिससे नदी पार निकल जायें । जब कुलचंद्र के लगभग 50,000 आदमी मारे गये या नदी में डूब गये, तब राजा ने एक खंजर लेकर अपनी स्त्री को समाप्त कर दिया और फिर उसी के द्वारा अपना भी अंत कर लिया । सुल्तान को इस विजय में 185 गाड़ियाँ, हाथी तथा अन्य माल हाथ लगा । " इसके बाद सुल्तान महमूद की फौज मथुरा पहुँची । यहाँ का वर्णन करते हुए उत्वी लिखता है - "इस शहर में सुल्तान ने निहायत उम्दा ढंग की बनी हुई एक इमारत देखी, जिसे स्थानीय लोगों ने मनुष्यों की रचना न बता कर देवताओं की कृति बताई । नगर का परकोटा पत्थर का बना हुआ था, उसमें नदी के ओर ऊँचे तथा मजबूत आधार-स्तंभों पर बने हुए दो दरवाजे स्थित है । शहर के दोनों ओर हजारों मकान बने हुए थे जिनमे लगे हुए देवमंदिर थे । ये सब पत्थर के बने थे, और लोहे की छड़ों द्वारा मजबूत कर दिये गये थे । उनके सामने दूसरी इमारतें बनी थी, जो सुदृढ़ लकड़ी के खम्भों पर आधारित थी । शहर के बीच में सभी मंदिरों से ऊँचा एवं सुन्दर एक मन्दिर था,जिसका पूरा वर्णन न तो चित्र-रचना द्वारा और न लेखनी द्वारा किया जा सकता है । सुल्तान महसूद ने स्वयं उस मन्दिर के बारे में लिखा है कि 'यदि कोई व्यक्ति इस प्रकार की इमारत बनवाना चाहे तो उसे दस करोड़ दीनार (स्वर्ण-मुद्रा) से कम न खर्च करने पड़ेगें और उस निर्माण में 200 वर्ष लगेंगें, चाहे उसमें बहुत ही योग्य तथा अनुभवी कारीगरों को ही क्यों न लगा दिया जाये ।' सुल्तान ने आज्ञा दी कि सभी मंदिरों को जला कर उन्हें धराशायी कर दिया जाय । बीस दिनों तक बराबर शहर की लूट होती रही । इस लूट में महसूद के हाथ खालिस सोने की पाँच बड़ी मूर्तियाँ लगीं जिनकी आँखे बहुमूल्य मणिक्यों से जड़ी हुई थी । इनका मूल्य पचास हजार दीनार था । केवल एक सोने की मूर्ति का ही वजन चौदह मन था । इन मूर्तियों तथा चाँदी की बहुसंख्यक प्रतिमाओं को सौ ऊँटो की पीठ पर लाद कर गजनी ले जाया गया ।"

महावन के राजा कुलचन्द्र (कूलचन्द) की अमर गाथा पर उपन्यास

भगवान श्रीकृष्ण की जन्म स्थली स्थित केशव महालय पर संध्या होते ही भीड़ बढ़ने लगी थी । लेकिन मथुरा का सेनापति सोमदेव, राजा कुलचन्द्र की प्रतीक्षा में बार बार महावन की ओर देखने लगता । महावन में नन्द–दुर्ग से नित्य ही राजा कुलचन्द्र भगवान के दर्शन करने मथुरा आते और अपना कुछ समय धर्म चर्चा में व्यतीत कर लौट जाते । कुछ क्षण बाद अश्व पर सवार राजा को आते देख सेनापति आगे बढ़ा । राजा कुलचन्द्र का अभिवादन कर वह साथ–साथ हाथ बाँधें प्रांगण की ओर बढ़ने लगा । चारों ओर से चांदनी धूप और अगर की गंध आ रही थी । प्रांगण में प्रज्वलित दीपों का प्रकाश रत्नजड़ित स्तंभों में झिलमिला रहा था । विशाल गर्भगृह के मध्य एक बृहदाकार षोडश कलियों का कमल बना हुआ था, जिसमें पराग के स्थान पर पुखराज जड़ा था । कलियों को बांधते हुए एक स्वर्ण वृत्त था । प्रांगण की प्राचीरों पर रंग–बिरगें पाषाणी टुकड़ों से भगवान की बाल लीलाओं को उत्कीर्ण किया गया था । रत्नजड़ित सिंहासन पर भगवान श्रीकृष्ण की भव्य स्वर्ण प्रतिमा विराजमान थी । जिसकी कटि में पीताम्बर, कांधे पर पटका, गले में बहुमूल्य रत्नों की मालाएं सुशोभित हो रही थी । मालाओं के मध्य विशाल नीलम सुशोभित हो रहा था । मणियुक्त आंखे और अनमोल कुण्डलों के अलावा रत्नजड़ित मुकुट सभी का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर रहा था । पास ही खड़ी महाशक्ति राधा की प्रतिमा थी । रत्नजड़ित द्वार पर वेशकीमती पर्दा पड़ा था । भगवान के समक्ष बैठे संगीतकार संगीत सुना रहे थे । राजा कुलचन्द्र एक तरफ खड़े कुछ सोच रहे थे । मथुरा के निवासी, यात्री और परदेशी टोली दर टोली बनाये शीघ्रता से बढ़े चले आ रहे थे । भक्त राजा के मुख से राधा और कृष्ण का निरंतर स्मरण उच्चरित होने से वातावरण और भी मनोहारी बन रहा था । इसी वातावरण को शोभायमान बना रहा था कालिन्दी का नीला शांत जल । अभी कुछ ही पल बीते कि तभी भगवान की सांध्य आरती आरंभ हुई और चारों ओर से शंख, घड़ावल की ध्वनियां गूंज उठी । इधर केशव महालय था तो नगर के मध्य अनेकों शक्ति पीठ थे । महालय की दाईं तरफ माता कंकाली थी । बाईं तरफ चामुण्डा महाविद्या, विघ्न विनाशक गणेश का सिद्ध स्थान था । वृन्दावन में कात्यायनी पीठ था । पश्चिम–दक्षिण में जैन–धर्म के सुंदर देव स्थानों के उच्च शिखरों पर ध्वजाएं फहरा रही थी । जमुना के घाटों पर बने हजारों मंदिरों से सच्चिदानन्द भगवान श्री कृष्ण के भजन के साथ–साथ शंख घड़ावल और अन्य वाद्यों की ध्वनियों से वातावरण भक्ति रसामृत का पान करा रहा था । आरती समाप्त होते ही महाराज कुलचन्द्र ने आरती ग्रहण की और प्रजा को भी अपने भगवान के चरणों में समर्पण का अवसर प्रदान करते हुए सोम को साथ ले एक ओर चल दिए । सोमदेव से बातें करते–करते वे एकांत में आए और बोले–"तुम जाओ सोम" और जो भी समाचार हो वह राजगुरू तक अवश्य पहुँचा देना । "जो आज्ञा श्री महाराज।" इतना कह सेनापति सोमदेव शीघ्रता से सीढ़ियां उतर कर अश्व पर सवार हो चल दिया । राजा कुलचन्द्र वहां से हटकर एक विशेष कक्ष में बैठ राजगुरू ब्रह्मदेव की प्रतीक्षा करने लगे । भगवान की सेवा से निवृत्त हो राजगुरू अपने कक्ष में आये । कुलचन्द्र ने साष्टांग दण्डवत की तो राजगुरू आशीष देते हुए बोले–"यशस्वी हो राजन दीर्घायु हो । कहो कोई विशेष समाचार तो नहीं !" "नहीं गुरूदेव ! और समाचार हुआ भी तो सेनापति सोम आप तक अवश्य पहुँचा देगा । मुझे आज्ञा दे तो चलूं ।" "हां ! जाओ वत्स ।" राजगुरू के इतना कहते ही राजा कुलचन्द्र उठ बैठे और अपने अंगरक्षकों के साथ चल दिए। इधर राजा कुलचन्द्र का अश्व महावन की ओर दौड़ रहा था तो उधर सेनापति सोम अपनी प्रेयसी दिव्या से मिलने को आतुर हो रहा था, परंतु राजाज्ञा और कर्त्तव्य के समक्ष वह अपनी भावनाओं का दमन करता हुआ किसी विशेष कार्य में लगा था । केशव महालय के उत्तर में जमुना पार महर्षि दुर्वासा का आश्रम था । बौद्ध धर्मावलम्वी कलाओं से सुसज्जित, यह स्थान रिषिपुर कहलाता था । सघन वनों में भिक्षु लोग पिटकों का अध्ययन करते तो यत्र–तत्र बने आवासों के मध्य मूर्तिकार मूर्ति निर्माण में संलग्न रहते । वनों के मध्य सुन्दर सरोवर के घाट और बुर्जों पर इन मूर्तिकारों की कलाकृतियाँ सुशोभित हो रही थी । रिषिपुर मूर्तिकला का केन्द्र बना हुआ था । दिव्या का आवास भी सरोवर के पास ही था । जब रात्रि का प्रथम प्रहर भी समाप्त होने को आया और सोमदेव नहीं आया तो वह आवास से निकल सरोवर के बुर्ज पर जा बैठी और खीझती हुई स्वयं से कहने लगी– "ठीक है सोम । तुम्हारा दोष भी क्या है । राज्य की सेवा ही तुम्हारे लिए सर्वोपरि है । उसके समक्ष प्रणय और प्रेयसी को स्थान ही कहां ?" वह मन ही मन कहती जा रही थी और सरोवर में खिलती कुमोदिनी के फूलों को देखती जा रही थी । अचानक सरोवर पर आकर सेनापति सोम का अश्व रूका और सोमदेव उतरते हुए बोला–"क्षमा करना प्रिये, मुझे आने में विलम्ब हुआ ।" और हंसते हुए उसके पास बैठ गया । "किसी आवश्यक कार्य से गये होंगे ?" दिव्या धीरे से बोलते हुए सोम की ओर देखने लगी तो सोम देखता ही रह गया फिर नि:श्वास छोड़ते हुए बोला–"तुम्हें कैसे समझाऊं कि सारा दिन तो राज्य के कार्यों में ही बीत जाता है । यदि शेष रह जाती है तो यह रात्रि बेला । इसमें भी यदि सम्भव हो पाता है तो तुम्हारे पास चला आता हूं । तुम बुरा मान गईं ?" "नहीं आर्य । इसमें बुरा मानने की क्या बात है और दिव्या को बुरा भी लगे तो राजपुरूषों के लिए सामान्य नागरिक का महत्व ही कहां होता है?" "तुम तो छोटी–से–छोटी बात का भी बुरा मान जाती हो।" "बुरा ? वह भी आपकी बात का ऐसा तो सोचना भी पाप होगा। मैं अच्छी तरह जानती हूं कि एक सेनापति का दायित्व क्या होता है?" "क्या?" "आर्य जिसके जीवन का सर्वस्व ही धर्म में निबद्ध हो। जिसका अत:मानस निरंतर राधा–कृष्ण में ही खोया रहता हो उसके लिए अभाव कहां । खैर छोड़िये आप अपनी सुनायें राज्य में सब कुशल से तो चल रहा है?" "इतने बड़े राज्य की भक्त प्रजा में कुशलता और सम्पन्नता का संतुलन बनाये रखना ही श्री महाराज का लक्ष्य है । फिर भी कभी जैन तो कभी बौद्ध, कभी शैव तो कभी शाक्त मतावलम्बियों के मतभेद उभर आते हैं । अब.....।" "उसमें राजा क्या करें ? धर्म तो व्यक्ति की अपनी आस्था अपना विश्वास है और को तो जाने दीजिए मथुरा को ही ले लें । यहां बौद्ध धर्म चरम सीमा पर पहुंचा लेकिन राजनीति के हस्तक्षेप और साम्प्रदायिक स्वार्थ ने उसके मूल स्वरूप को प्रजा से दूर कर दिया । परिणाम यह हुआ कि प्रजा की अज्ञानता ने मूल धर्म को छोड़ उसके व्यावहारिक रूप पर ही विश्वास कर लिया । प्रजा की यही अज्ञानता बौद्ध धर्म के पतन का कारण बन गई ।" "तुम्हारा कहना सत्य है प्रिय ।" "यहीं तक नहीं, आज विहारों और संघारामों में व्याभिचार और षड़यंत्र होने लगे हैं ।" कह दिव्या उठकर खड़ी हो गई । सोम भी खड़ा हो गया और बोला–"धन्य हो देवी।" "आ...र्य । देवी न कहें ।" "हां प्रिये, यदि तुम्हारा मार्ग दर्शन इसी प्रकार मिलता रहा तो सबकुछ सही हो जायेगा।" सोम कुछ और कुछ कहता कि तभी दो घुड़सवार बड़ी तीव्र गति से वहां होकर निकले । उसने तुरंत तलवार निकाल ली । वह कुछ कर पाता कि दिव्या उसे रोकते हुए बोली–"आर्य जब तक मित्र है या शत्रु यह ज्ञात न हो जाय शस्त्र उठाना उचित नहीं होगा । " "लेकिन, अवश्य ही ये लोग भैरविये होंगे । जानती हो इन्होंने कितना पाखंड, फैला रखा है ? आज भी ये अवश्य राज्य के विरूद्ध षडयन्त्र करके लौट रहे होंगे । "मैं जानती हूं आर्य । अब जब दिव्या को अपना बना लिया है तो उस पर विश्वास भी कीजिये । वास्तविकता तो यही है कि महाकाल भैरव का प्रधान भृगुदत्त अति ही कर रहा है । अबलाओं का अपहरण कर उनके ऊपर जोगिनी और भैरवी साधना के नाम पर होने वाले अत्याचार असह्य हो उठे हैं ।" "तब आओ मेरे साथ ।" इतना कह सोम दिव्या को साथ ले महाकाल भैरव के मंदिर की ओर चल दिया ।

टीका टिप्पणी और संदर्भ