जय केशव 13

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जय केशव ऐतिहासिक उपन्यास-लेखक, श्री सत्येन्दु याज्ञवल्क्य

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सिन्ध नद उफन रहा था। कगारों से टकरा−टकरा कर विशाल सिन्ध नद की उत्ताल तरंगें ऐसे हुँकार रही थीं। मानो यवनों का स्पर्श पाते ही वह क्रोधित हो उठा हो। महमूद ही सेनायें सिन्ध को पार कर एकत्रित हो रही थीं। वह बार−बार सेना को व्यवस्थित कर रहा था। महमूद के पार उतरते ही सिन्ध के राजा सुखपाल अस्तु नवासाशाह ने महमूद के घोड़े की रकाब चूमकर स्वागत किया और स्वयं ने ही सारी व्यवस्था की। लेकिन उसकी प्रजा का हृदय मन ही मन काँपने लगा। महमूद की आँखे मथुरा और कन्नौज पर लगी थीं। उसने बिना समय खोये प्रात: ही कूच का डंका बजबा दिया। डंके के साथ की सारा सामान ऊटों और छकड़ो पर लादा जाने लगा। महमूद ने सिन्ध से नवासाशाह और उसकी सेना को भी साथ ले लिया।

भू−माँ का आँचल रोंदता हुआ वह बिना किसी रूकावट के आगे बढ़ता आ रहा था। महमूद की जानी पहिचानी राहें सुनसान पड़ी थीं। शासक लोग दौड़−दौड़कर अमीर की रकाब चूमकर अपनी−अपनी सेना लेकर उसके साथ चलने लगे।
        हिन्दू सैनिकों से महमूद भेद मालूम करता और उनसे अपने कामकारों का काम करवाता आगे बढ़ रहा था। वह जानता था कि अन्ततोगत्वा ये हिन्दू हैं कहीं विश्वासघात कर दें ,क्या पता ? परन्तु इन गुलाम हिन्दू यवनों की आत्मायें मर चुकीं थीं। नदी, नगर और बीहड़ दुर्गम मार्गो को पार करता, पौरूष को ललकारता बिना किसी अवरोध के वह आगे बढ़ता आ रहा था।
        संध्या डूब चुकी थी परन्तु फिर भी महमूद की सेना पश्चिमी पंजाब की माटी रोंदती हुई आगे बढ़ रही थी। अपनी विशाल सेना को लिये अमीर एक हरे−भरे मैदान में जाकर रूका।
        अमीर के रूकते ही मसऊद अपने घोड़े की रास खींचते हुए बोला−हुक्म आलीजाह...।"
        "मसऊद, यह जगह कुछ खुली है। मैदान भी है। पड़ाव का डंका बजवा दिया जाय।"
        "हजूर का हुक्म सिर आखों पर। परन्तु अमीर−नत्र की बातों का ख्याल...।"
        "तुम्हारा मकसद त्रिलोचन पाल से है ?"
        "जी आलीजाह।"
        "कोई बात नहीं, फौजों को यही रोक दिया जाय। हम देखना चाहते है आखिर त्रिलोचन पाल चाहता क्या है ?" कह महमूद आगे बढ़ गया !
        महमूद थोड़ा पीछे हटकर मुड़ा और सरदार अब्दुलाताय और मुहम्मद अरसला जजीब को सूचित करने के बाद ही पड़ाव का डंका बजवा दिया गया। बेदम हुए सिपाहियों ने चैन की साँस ली। पलक झपकते ही चारों और मशालें जल उठीं। घोड़े, हाथी, ऊँट आदि जानवरों को बाँध दिया गया। कामगार अपने−अपने कामों में लग गये। उधर खाने−पीने की व्यवस्था होने लगी। इधर श्वेत चर्म का एक विशाल तम्बू ताना जा रहा था। उसमें लाल रंग की मखमल पर सुनहरी जरी की कसीदाकारी हो रही थी। जमीन पर लाल रंग की मखमल बिछी हुई थी। मध्य में एक बहुमूल्य सिंहासन रखा गया था।
        गजनी का अमीर अपने सरदारों के साथ इंशा की नमाज पढ़ उसी खेमे की ओर आ रहा था। खेमे में पहुँच, महमूद सिंहासन पर बैठा फिर मसऊद व अन्य लोगों ने अपना−अपना आसन ग्रहण किया तथा उनके पश्चात् हिन्दू राजाओं ने स्थान ग्रहण किया जिनमें जानकी शाही भी था।
        जानकी, शाही साम्राज्य से सम्बिन्धत था और काश्मीर के दक्षिणी दर्रों पर उसका पूर्ण अधिकार था। भारत की भौगोलिक स्थिति का उसे अच्छा ज्ञान था। इसलिये महमूद उससे सैदव प्रसन्न रहता था। आगे चलकर यही जानकीशाह जो कि बहमी या भीमपाल शाही का नाती था, महमूद का मार्गदर्शक बन गया। महमूद ने एक−बार सभी की ओर गम्भीर दृष्टि से देखा, पुन: अमीर नस्त्र की ओर देखते हुए बोला−
        "मैं अमीरे गजनी महमूद सुल्तान जो भी कहूँगा, सच कहूँगा। सच के अलावा कुछ न कहूँगा। हमारा रास्ता अब साफ है, मगर फिर भी हमें हर वक्त होशियार और चौकन्ना रहना है। अब यह बात भी जाहिर है कि हमारा मुहिम हमारे सामने है। मुझे यकीन है कि हमारे अजीज नवासाशाह और जानकी दोनों ही हमें फतह का रास्ता दिखलायेंगे।"
        "हुजूर का हुक्म सर आँखों पर। अगर गुस्ताखी मुआफ हो तो कुछ अर्ज करूँ। नवासाशाह ने अपने स्थान पर खड़े हो सिर को घुटनों तक झुका कर कहा तो महमूद के चेहरे पर एक अजीब घृणा का भाव उभरा और वह दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए बोला−"बेशक.....बेशक, हम आपकी हर तजबीज और बात को दिली तवज्जों के साथ सुनेंगे।"
        तो हुजूरे अनवर त्रिलोचनपाल तो मालवा की ओर भाग ही गया है। उसकी तमाम ताकत आज हुजूर के कदमों में है। वही एक बड़ा काँटा था जो निकल गया है। अब हमारे सामने दो ही रास्ते बचते हैं−एक तो यह कि दिल्ली होकर हरियाणा के तोमर राजा को परास्त कर मथुरा पर हमला बोला जाय। लेकिन यह बात काबिले गौर है कि दिल्ली का राजा विजयपाल आन का पक्का है। अमीरे गजनी खुद उसकी ताकत से बखूबी वाकिफ हैं। मैं....।" नवासाशाह को बीच में ही रोककर जानकी बोला−
        "गुस्ताखी मुआफ हो तो हमारा भी यही खयाल है कि हमें दिल्ली होकर नहीं जाना चाहिये। मैं यह जानता हूँ कि विजयपाल कितना भी बहादुर क्यों न हो, लेकिन हमारा मुकाबला करना उसके वश की बात नहीं है, फिर भी हमें अपना मकसद हासिल करना है सो बरन होकर ही जमुना नदी को पार करना है, अपनी ताकत बचाये हुए आगे बढ़ना है। दोनों ही बातों को साथ लेकर चलने से ही आने वाली मुहिम आसान होगी।" भीमपाल के नाती जनकी शाह का तर्क सुनकर महमूद का चेहरा गम्भीर हो गया। कुछ देर तक इस तरह सलाह मशविरा चला और कुछ ख़ास हिदायतें देकर महमूद से सबको विदा किया।
        सभी के जाने से पहिले महमूद ने मसऊद को बुलाया और अपने चन्द विश्वस्त साथियों के साथ मंत्रणा कर तत्काल चारों ओर जासूस छुड़वा दिये। कुछ ऐसे दूतों को चुना जिनके हाथों मीर मुंशी से सुलहनामें लिखा कर दिल्ली, बरन व मथुरा की ओर भेज दिये। मथुरा के लिये उसने अपने बेटे महदूद और संस्कृत भाषा के विद्वान यवन ऐतिहासकार अलबरूनी को चुना।
        आधी रात्रि से अधिक इसी तरह बीत गई। लेकिन गजनी का अमीर अभी भी करवटें बदल रहा था। उसकी आँखे बरन की ओर लगी थीं।

टीका टिप्पणी और संदर्भ