जय केशव 10

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जय केशव ऐतिहासिक उपन्यास-लेखक, श्री सत्येन्दु याज्ञवल्क्य

सारे राज्य की अमूल्य निधियों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया जाने लगा । लेकिन उस शाश्वत सम्पत्ति को कहां छुपाया जाता जिसके कारण ब्रज रेणुकांए आज भी मोक्ष और मुक्ति का धाम बनी हुई है । इसलिए केशव महालय से एक भी प्रतिमा न हटाई गई । "एक दिन जब प्रभाकर की रश्मियों में प्रकृति की नवकोपलें इठला रही थीं । महारानी इन्दुमती पूजा से निवृत्त होकर बैठी ही थीं कि तभी समाचार आया कि द्वार पर सेनापति सोमदेव, अनुज विजयपाल व दिवाकर आये हुए है ।" इन्दुमती यह सुन मन ही मन हंसी पुन: उन्हें आने के लिए कह सुखदा की ओर देखने लगीं । सुखदा ने तुरंत दासी के द्वारा आसन बिछवा दिये । इतने में ही वह तीनों अंदर आये और तीनों ने प्रणिपात होकर इन्दुमती को प्रणाम किया तो उसका दाहिना हाथ आशीष के लिए उठ गया । परंतु महारानी के मुख पर अजीब वात्सल्यमयी गरिमा थिरक उठी वह हास्य बिखेरती हुई बोली – "आज कलाकार कैसे फंस गये ?" "नहीं रानी मां, मैं स्वयं ही आपके चरण स्पर्श को आतुर था । इन मित्रों ने कृपा की है ।" "अच्छी ही बात तो है । बैठो, बोलो, क्या लोगों छाछ या दूध ?" "रानी मां, हम इतने दिनों में तो आये हैं आपके हाथ....का ।" "मक्खन चाहिए । मैं जानती हूं बचपन की आदत जायेगी थोड़े ही ।" कहते हुए इंदुमती हंस पड़ी तो सभी हंस पड़े । विजय बोला– "रानी मां । ममता और बालपन की भी कहीं उम्र होती है, आप तो जल्दी....।" विजय कुछ और कहता कि इन्दुमती सुखदा से बोली– "सुखदा, देखो न दासियां क्या कर रही है ? माखन–मिश्री ही न लायें लड्डू भी लायें ।" "जी, रानी मां ।" कह सुखदा शीघ्रता से अंदर गई और कुछ देर बाद स्वर्ण थालों में लड्डू और तीन स्वर्ण कटोरों में माखन लाकर तीनों के समक्ष रख दिया तो इन्दुमती ने कहा–"लो, भरपेट खाना ।" लेकिन सोम और विजय को यूं ही बैठा देख वह कुछ आगे सरकी और थाल से लड्डू उठाकर बोली –"सोम, बेटे हम क्या करें ? बहुत चाहते है कि अपने बच्चों को कभी भी अपनी ममता से वंचित न करें परंतु समय बलवान है ।" और दोनों भाईयों को अपने हाथ से खिलाने लगीं । दिवाकर को भी इन्दुमती ने अपने हाथ से खिलाना चाहा तो उसने अपने दोनों हाथ फैला दिए– "बस रानी मां....बस । आप साक्षात मां हैं । यह शरीर दूषित हो चुका है इसे प्रायश्चित कर शुद्ध होने तक हाथ न लगाएं ।" कहते–कहते उसकी आंख भर आई । "अरे, क्या कहते हो, वत्स ? आत्मा तो सदैव ही पवित्र है । ऐसा कहकर अपने आपको हीनता के विचारों से ग्रस्त न करो ।" वह कुछ और कहती कि तभी सोम विषय बदलता हुआ बोला– "रानी मां । जाने क्यूं आज छोटी भौजी को देखने का मन कर रहा है । "सोम, नारी को पहिचानना बड़ा कठिन है । आजकल सारा राज्य उसी सती साध्वी पर संदेह कर रहा है । दूसरी ओर वह स्वयं भी घुटने लगी है ।" "लेकिन रानी मां जरीना का सम्बन्ध हंसा से कैसे जोड़ा जा सकता है ?" "क्यूं नहीं जोड़ा जा सकता ? रूपाम्बरा ने कभी कोई ताबीज चम्पा के गले में नहीं देखा और हंसा जाती–आती रही है ।" "अपराध क्षमा हो तो मैं इस विषय में कुछ कहूं रानी मां ? दिवाकर बीच में बोला । "कहो वत्स, अपराध कैसा ?" "यही कि वास्तविक अपराधी को पकड़ने से पूर्व सन्देहास्पद को ही अपराधी मान बन्दिनी बना लेने में प्रशासन का आचरण तक मनोवैज्ञानिक सत्य है । जिससे इंकार नहीं किया जा सकता परंतु यही समय रहा होगा मूल अपराधिनी के निकल भागने का । हम सप्रमाण हंसा को जरीना भी तो नहीं मान पाये ।" अंतिम वाक्य पर दिवाकर कुछ लज्जित हो उठा । वह पुन: सिर झुकाकर कहने लगा – "मैं तो स्वयं यह कहते हुए लज्जित हूं कि मैं दिवाकर से अहमद बना था लेकिन मैंने अनुभव किया कि मनुष्य कुछ भी बन जाये परंतु अपने पैतृक संस्कारों से मुक्त नहीं हो पाता । मैं लाख यवन बन गया था किन्तु जब कोई मेरे धर्म और मातृभूमि को बुरा–भला कहता तो मेरा खून खौले बिना न रहता । फिर जरीना तो यवन थी । ऐसी महिला जो तनिक से भय से चीख उठे । बात–बात पर आसमान की ओर हाथ उठा ले । बैठे तो या तो दोनों घुटने डालकर बैठे या दोनों उठाकर ही।" दिवाकर कहता जा रहा था औ सोम, सुखदा की ओर देखता तो वह उसे उसी की ओर देखते दिखायी देती । समय का ध्यान कर इन्दुमती ने बात को समाप्त करते हुए कहा– "तुम्हारा कहना ठीक है वत्स । हम कभी भी अन्याय को स्वीकार नहीं करते । हम हंसा के साथ भी न्याय करेंगे और सोम, तुम वत्स रूपमहल चले आना । रूपा से कहना समय निकालकर मुझसे अवश्य मिल जाये ।" "फिर आज्ञा दें, रानी मां ।" कह तीनों हाथ जोड़ उठ खड़े हुए । इन्दुमती ने इन तीनों को विदा किया । पुन: कुछ देर सुखदा के साथ विचार करते हुए उसने सुखदा को सब कुछ समझाकर हंसा के पास भेज दिया । नन्द दुर्ग के महिला करावास की कोठरी में एक हतभागिनी दीवार की ओर मुंह किए बैठी थी । सुखदा ने कोठरी के बाहर के प्रहरी को एक ओर होने का संकेत दिया और लोहे की सलाखों को पकड़ धीरे से पुकारा – हंसा ।"" अपना नाम सुन हंसा ने गर्दन घुमायी तो सुखदा को देख द्वार की ओर दौड़ पड़ी । "राजकुमारी जी ।" "हां हंसा ।" "कुमारी जी । रानी मां से कहो हंसा कलंकिनी हो गयी । उसे शीघ्र मृत्युदण्ड दें । "कैसी बात करती हो ?" "क्या कहूं ? क्या न कहूं ? न उस कलमुंही चम्पा को किला दिखाती और न वह ताबीज मुझे मिलता । कुमारी जी, मुझे स्वप्न में भी आशा न थी कि वह जरा सा पत्थर यह दिन दिखायेगा ।" "हंसा, मैं तुमसे कुछ विशेष बात कहने के लिए ही यहां जैसे–तैसे आयी हूं ।" "आज्ञा कीजिये ।" "यह तो तू भी मानती है कि यवन आक्रमण होगा ।" "हां ।" "और विजय प्राप्ति हेतु हम भी बलिदान को तैयार है ।" "अपने प्राणों की बाजी लगाने में हंसा कभी पीछे नहीं रहेगी ।" "तो फिर तू जरीना ही बनी रह ।" "नहीं । यह नहीं हो सकता ।" हंसा कहते हुए गम्भीर हो गई । "तो फिर यहीं पड़ी सड़ती रहना और तड़प–तड़प कर मर जाना ।" "देवी । जीने और मरने की बात अब नहीं सुहाती । रानी मां की प्रसन्नता के लिए हंसा को यहां की मौत भी उस भीषण विश्वासघाती नरक से सुखद होगी ।" कह हंसा पुन: अंदर की ओर लौट दी । सुखदा ने भी अधिक देर ठहरना उचित न समझा और महल को लौट दी । सुखदा महल में पहुंची तो उसने रानी रूपाम्बरा और महारानी के मध्य वार्तालाप होते पाया । रूपाम्बरा कह रही थी–"वे सम्राट जिनकी सीमाएं सरहिन्द से लमगान तक और मुल्तान से कश्मीर तक फैली हुई हैं । विजय प्राप्त करने में असमर्थ रहे ।" "नहीं बहन। पराजय का एकमात्र कारण रहा है तो यही कि लक्ष्य हेतु समग्र समर्पण की सामाजिक चेतना का अभाव । अब तुम ही देख लो । क्या मात्र जीवन ही सब कुछ है जो दस लाख स्वर्ण मुद्रा और पचास हाथी भेंट कर प्राप्त कर लिया । जयपाल ने स्वयं को सब कुछ समझ कर अपने आपको स्वतंत्र घोषित कर दिया । परिणाम यह हुआ कि यवनों ने पुन: आक्रमण कर दिया और पराजय के बाद स्वयं ने आत्महत्या कर ली ।" इन्दुमती कहकर चुप हुई तो रूपाम्बरा आनंदपाल की पराजय पर दु:ख प्रकट करते हुए कहने लगी– "आनंदपाल भी हार गए । मुल्तान का शासक अभय के लिए याचना कर बैठा । सिन्ध का राजा सुखपाल आज नवासाशाह बन गया है।" "अब यह सब इतिहास बन गया है, बहन ।" इन्दुमती कुछ और कहती कि सुखदा ने अंदर आने की आज्ञा मांगी और आज्ञा पाकर वह भी उनके पास आ बैठी । इन्दुमती कहती जा रही थी । "तुमने जब बातें छेड़ ही दी हैं तो मुझे महाराज के साथ घटी एक घटना का स्मरण हो आता है । परंतु उस घटना का महत्व इस संदर्भ में बहुत महत्वपूर्ण है कि हम किस तरह छोटी–छोटी बातों को लेकर ही एक–दूसरे से शत्रुता के भाव पाल लेते है । श्री महाराज हमारे पिताजी के साथ नडोल स्वयंवर में गए हुए थे । वहीं पर गुजरात के राजा चामुण्डराज के पुत्र दुर्लभराज भी आये हुए थे । नडोल के राजा महेन्द्र राज की बहन ने स्वयंवर में दुर्लभराज को जयमाला पहना दी तो मालवराज ने रास्ते में युद्ध कर उस कन्या का हरण करना चाहा । लेकिन सफलता न मिली । श्री महाराज को उनकी यह पराजय स्वीकार न हुई तो अनुमति लेकर व स्वंय गुजरात पर चढ़ाई कर बैठे और विजित होकर वहां के घंटाघर में कोड़ियां जड़वा दी । लेकिन ऐसी छोटी–छोटी घटनाओं को भी अपने जीवन का आत्मसम्मान बना लेना व्यक्तिगत रूप में भले ही महत्वपूर्ण हो परंतु आज के समय में समस्त आर्यावर्त को एक होकर विदेशी आक्रांताओं को समूल नष्ट करने का ही संकल्प लेना चाहिए ।" ब्रज में जहां भी जाओ वहां इसी प्रकार की बातें सुनने को मिल रही थी । रूपाम्बरा लाख दिवाकर की प्रेयसी थी परंतु भाव और प्रेरणा तक ही सीमित थी । वह कभी भी प्रेम को राष्ट्र के साथ जोड़ने को तैयार न थी । दूसरी ओर जहां आचार्य व्याकरण, साहित्य और कलाओं का वैज्ञानिक ज्ञान दिया करते थे वहीं अब वह अपने शिष्यों को जनमानस में अखण्डता और एकता का भाव पहुंचाने का पाठ पढ़ाने लगे थे तथा शस्त्र संचालन और युद्ध कौशल प्रमुख विषय बना दिए गये थे । "काल का गति चक्र इसी तरह घूम रहा था । चारों ओर घने बादल छा रहे थे । तेज वायु के थपेड़ों में प्रकृति कम्पित होने लगी थी । किसान कभी अपने खेतों को तो कभी आकाश को देखने लगते । सघन वनों की हरीतिमा पर काले–काले मेघों का वितान अनोखा भय उत्पन्न कर रहा था । उस बेला में भी देवालयों के शिखरों पर रंग–बिरंगी ध्वाजाएं अपना सीना ताने फहरा रही थीं । ग्वाले शीघ्र अपने पशुओं को घरों की ओर लौटाने को आतुर हो रहे थे । उन्होंने पशुओं को हांकना शुरू कर दिया परंतु तभी मूसलाधार वर्षा प्रारम्भ हो गई । संध्या तक वर्षा की यही गति रही । चारों ओर पानी–ही–पानी भर गया । हवाऐं थम गयी । मेघ छितरा गए । ब्रजवासी पुन: अपने–अपने घरों से जमुना के घाटों की ओर चल पड़े । जमुना की उत्ताल तरंगों पर सहस्त्रों नौकाओं के श्वेत पाल झूम उठे और जमुना की गोद में राजहंस की भांति इधर से उधर तैरने लगे । पूर्णिमा का चन्द्र धीरे–धीरे ऊपर उठ रहा था । वह कभी बादलों में छुपता तो कभी नई नवेली की भांति घूंघट की ओट से झांक उठता । दिव्या किन्हीं विचारों में डूबी एक भग्नावशेष के शिला खण्ड पर बैठी लोक गीत गुनगुना रही थी कि तभी सोमदेव को आता देख वह भाव–विभोर हो उठी–'तुम्हें ...जन्म...जन्म तक यह संसार कभी मुझसे दूर नहीं ले जा सकता ।" मन की बात मन से ही कर हाथ जोड़ नतमस्तक हो गयी । सोम ने एक पल को देखा और देखता ही रह गया । दिव्या नतमस्तक होकर बोली–"आर्य आज कोई विशेष बात हो गयी ।" "नहीं देवी नहीं । तुम्हें इस रूप में देख सोच रहा था काश तुम्हारा प्रिय मूर्तिकार भी होता इस मुद्रा...." "बस कीजिये । अति की प्रशंसा भी अच्छी नहीं होती ।" "चलो, तुम्हारी बात मान लेते है । परंतु इतना सम्मान देना भी तो अति है । कहो कुशल तो है ?" कह सोम बिल्कुल उसके पास आ आया । दिव्या ने एक पल उसकी ओर देखा और संकेत कर अपने साथ ले निर्जन एकांत की ओर चल दी । सोम हंसता हुआ साथ–साथ चलने लगा । दिव्या बार–बार चांद की ओर निहारती लेकिन सोम को कुछ भी न कहते देख बोली–"आर्य, पूर्णिमा की यह चांदनी कैसी लग रही है ।" "बिल्कुल तुम्हारी तरह । एक ओर प्रेम है तो दूसरी ओर उसका बलिदान । एक ओर संयोग का शीतल स्निग्ध प्रकाश है तो दूसरी ओर वियोग का अंधकार और....।" "और भविष्य, आर्य...?" "भविष्य किसने देखा है प्रिय ? परंतु मेरा मन वियोग और बिछोह की कल्पना मात्र से कांप उठता है ।" "परंतु प्रेम तो वियोग में ही पल्लवित होता है आर्य । संयोग तो उसका सौभाग्य ही होता है । मुझे ऐसा लगता है जैसे ज्यों–ज्यों युद्ध निकट आ रहा हैं आप अपनी दिव्या को अपने से दूर कर रहे हैं ।" "नहीं, देवी नहीं । ऐसा कभी मत सोचो। मैं समझता हूं कि तुम्हारी प्रेमाभिव्यक्ति भी आसक्ति से परे है । लेकिन रूपबद्ध होकर रूप से परे भी तो नही हो सकता । जानती हो, तुम जब गीत गुनगुना रही थीं तब भी ऐसा लगता था जैसे तुम अवश्य ही कहीं मेरी श्रवणन्द्रियों के पास ही हो । प्रिय...।" "विश्वास ही प्रेम का दूसरा नाम है, आर्य । आपकी दिव्या आपसे कभी दूर नहीं होगी । अंतिम क्षण तक नहीं ।" "परंतु वियोग...।" "वियोग तो भूखी वासना का ही दूसरा नाम है ।" "और वासना ही जीव का अस्तिस्व ।" सोम की बात पर दिव्या हंस पड़ी–"तब भी प्राण वासना की सीमाओं में अपने प्रणय को सीमित कर प्रणय की पवित्रता को कलुषित न होने दे । भाव की अभिव्यंजना ही कला है और अभिव्यक्ति का अभिप्राय उसका भाव । अभिव्यंजना की इस आनन्दानुभूति को क्या हर कोई समझ सकेगा ?" "मैं बहुत चाहता हूं परंतु अंतर्मन अब भाषा की परिभाषा में बंधा है, न जाने क्यूं तुम कर्त्तव्य का उपदेश देकर अपने में इतनी पीड़ा सहा करती हो ?" "क्योंकि झोंपड़ों को महलों के स्वप्न संजोना नहीं आता । आपकी दिव्या सदैव आपके साथ रहेगी । वैसे ही जैसे प्रकृति के साथ कलाकार की कला रहती है ।" दो प्रेमी मन इसी तरह बातें करते रहे । संयोग के इन पलों में यह भी आभास न हो पाया कि निशाकर ने अपनी आधी यात्रा भी पूरी कर ली है । परंतु अंतर्मन में चल रहा द्वन्द्व यहां भी सोम का पीछा न छोड़ रहा था । एक ओर व्यक्ति का अन्त:मनस था तो सामने भगवान श्रीकृष्ण की जन्मभूमि पर आक्रान्ता महमूद की कुदृष्टि । वह कभी–कभी तो सोचने लगता कर्त्तव्य के समक्ष भावना का भी कोई महत्व होता है । राष्ट्र धर्म से महान् भी कोई धर्म होता है ?" वह सोचना–सोचता दिव्या से विदा हो महलों की ओर चल दिया ।


टीका टिप्पणी और संदर्भ