"जय केशव 15" के अवतरणों में अंतर

ब्रज डिस्कवरी, एक मुक्त ज्ञानकोष से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
(नया पन्ना: {{जय केशव}} उधर बरन की सीमाओं में गजनी की फौज आगे बढ़ रही थीं तो मथुर…)
 
छो (Text replace - "खरीद" to "ख़रीद")
पंक्ति ८: पंक्ति ८:
 
         "तो....क्या ? शहजादों का काम ही यही है । आइये खाँ साहब ।"
 
         "तो....क्या ? शहजादों का काम ही यही है । आइये खाँ साहब ।"
 
         "ये बात नजरअन्दाज न हो कि हम यहाँ दूत की हैसियत से आये हैं ।  
 
         "ये बात नजरअन्दाज न हो कि हम यहाँ दूत की हैसियत से आये हैं ।  
   "क्या मतलब ?" महदूद चौंका । वह यह भूल चुका था कि वह एक दूत है । अमीरे गजनी महदूद सुलतान का बड़ा बेटा था । शहजादा नहीं । यूँ महदूद, महमूद का बड़ा बेटा था लेकिन उसके आचरण सदैव विपरीत थे । वह हंसमुख, कलाप्रिय, रूप पिपासु था । नारी उसकी कमजोरी थी । असम्भावना उसमें अहं जाग्रत करते न चूकती और जो वह एक बार निश्चित कर लेता उसे करके ही छोड़ता था । अलबरूनी महदूद की इस कमजोरी से अनजान था । क्योंकि जबसे महमूद  गजनबी उसे अपने राज्य में लेकर आया वह तभी से राज्य की ओर से इतिहास लेखन का कार्य कर रहा था । अलबरूनी न केवल अपने युग का विद्वान था, अपितु वह संस्कृत का भी पंडित था । वह अमीर के साथ−साथ रहता । अमीर जहाँ भी जाता उसे साथ रखता । वह जहाँ भी जाता विद्वानों से मिलता । उनसे ज्ञान लेता तथा हिन्दू ग्रंन्थों का अध्ययन करता । मथुरा के बारे में वह पहिले ही बहुत कुछ पढ़ चुका था । श्री मद्भागवत और गीता का अध्ययन करने के पश्चात उसका ज्ञानी मस्तिष्क भी हिन्दू दर्शन का प्रशंसक था । इसलिए वह दुराचरण का पक्ष−पाती न था । उसके हाथ महमूद सुल्तान ने खरीद लिये थे । उसे वही सब लिखना पड़ता जो अमीर का हुक्म होता । ये दोनों ही व्यक्ति महमूद ने एक विशेष कार्य के लिये भेजे थे ।  
+
   "क्या मतलब ?" महदूद चौंका । वह यह भूल चुका था कि वह एक दूत है । अमीरे गजनी महदूद सुलतान का बड़ा बेटा था । शहजादा नहीं । यूँ महदूद, महमूद का बड़ा बेटा था लेकिन उसके आचरण सदैव विपरीत थे । वह हंसमुख, कलाप्रिय, रूप पिपासु था । नारी उसकी कमजोरी थी । असम्भावना उसमें अहं जाग्रत करते न चूकती और जो वह एक बार निश्चित कर लेता उसे करके ही छोड़ता था । अलबरूनी महदूद की इस कमजोरी से अनजान था । क्योंकि जबसे महमूद  गजनबी उसे अपने राज्य में लेकर आया वह तभी से राज्य की ओर से इतिहास लेखन का कार्य कर रहा था । अलबरूनी न केवल अपने युग का विद्वान था, अपितु वह संस्कृत का भी पंडित था । वह अमीर के साथ−साथ रहता । अमीर जहाँ भी जाता उसे साथ रखता । वह जहाँ भी जाता विद्वानों से मिलता । उनसे ज्ञान लेता तथा हिन्दू ग्रंन्थों का अध्ययन करता । मथुरा के बारे में वह पहिले ही बहुत कुछ पढ़ चुका था । श्री मद्भागवत और गीता का अध्ययन करने के पश्चात उसका ज्ञानी मस्तिष्क भी हिन्दू दर्शन का प्रशंसक था । इसलिए वह दुराचरण का पक्ष−पाती न था । उसके हाथ महमूद सुल्तान ने ख़रीद लिये थे । उसे वही सब लिखना पड़ता जो अमीर का हुक्म होता । ये दोनों ही व्यक्ति महमूद ने एक विशेष कार्य के लिये भेजे थे ।  
 
         गेरूआ वस्त्र धारण किये वे दोनों राह काट−कर आगे पहुँचे । अश्वारोही अभी भी आपस में बातें करते जा रहे थे । न जाने किस बात पर महारानी इन्दुमती जोर से हंस पड़ी । हँसी का मधुर स्वर वातावरण में गूँज उठा । विलासी महमूद अपनी भावनाओं पर काबू न कर सका । और उसके मुँह से अचानक 'वाह' की ध्वनि निकल पड़ी और आगे बढ़ने वाले अश्वरोही का अश्व हिनहिना कर दो पैरों पर खड़ा हो गया और एक ललकार भरा स्वर उभरा−
 
         गेरूआ वस्त्र धारण किये वे दोनों राह काट−कर आगे पहुँचे । अश्वारोही अभी भी आपस में बातें करते जा रहे थे । न जाने किस बात पर महारानी इन्दुमती जोर से हंस पड़ी । हँसी का मधुर स्वर वातावरण में गूँज उठा । विलासी महमूद अपनी भावनाओं पर काबू न कर सका । और उसके मुँह से अचानक 'वाह' की ध्वनि निकल पड़ी और आगे बढ़ने वाले अश्वरोही का अश्व हिनहिना कर दो पैरों पर खड़ा हो गया और एक ललकार भरा स्वर उभरा−
 
         "यह अनार्य कौन है ? सामने आए ।" कहते ही इन्दुमती के दाहिने हाथ में तलवार उठ गई । जो सैनिक वेश में साथ चल रही थीं । वह रूपाम्बरा और हंसा थी । साथ ही कुछ अंगरक्षिकायें भी थीं । सभी एक क्षण में पट्टमहिषी को घेर का खड़ी हो गई । सबके हाथों में तलवारें थीं । इन्दुमती की भवें तन गई थी । उसने एक बार सबके ऊपर दृष्टि डाली और हंसा को देखते ही बोली−
 
         "यह अनार्य कौन है ? सामने आए ।" कहते ही इन्दुमती के दाहिने हाथ में तलवार उठ गई । जो सैनिक वेश में साथ चल रही थीं । वह रूपाम्बरा और हंसा थी । साथ ही कुछ अंगरक्षिकायें भी थीं । सभी एक क्षण में पट्टमहिषी को घेर का खड़ी हो गई । सबके हाथों में तलवारें थीं । इन्दुमती की भवें तन गई थी । उसने एक बार सबके ऊपर दृष्टि डाली और हंसा को देखते ही बोली−

०८:४१, १५ दिसम्बर २०११ का अवतरण

जय केशव ऐतिहासिक उपन्यास-लेखक, श्री सत्येन्दु याज्ञवल्क्य

उधर बरन की सीमाओं में गजनी की फौज आगे बढ़ रही थीं तो मथुरा में वृन्दावन की कुँजों, गुफाओं और सघन वनों में अनेक सिद्ध पुरूष आध्यात्म भाव में अपने आपको समर्पित किए हुए थे । उनका जीवन एकाकी था, उनमें भगवान के अतिरिक्त किसी अन्य की कामना न थी । वे कभी−कभी ही बोलते थे । यद्यपि हजारों के संख्या में जन−साधारण व राज−पुरूष उनके दर्शनों और वचनों को सुनने के लिये सेवा में लगे रहते थे । संध्या की फूलती सतरंगी किरणें वृक्षों और लताओं को छू रही थीं । कुहासा तेजी से बढ़ता चला आ रहा था । एक सघन कुँज के अन्दर एक महापुरूष के समक्ष बहुत से लोग बैठे−बैठे प्रतीक्षा कर रहे थे । दो पुरूष देखने में जो बहुत सुन्दर तेजस्वी तो नहीं कहे जा सकते, परन्तु उनमें से एक जो वृद्ध था वह सुशिक्षित प्रतीत होता था । वह स्पष्ट रूप से शुद्ध संस्कृत में बातें कर रहा था उसका साथी जो काफी हृष्ट−पुष्ट था कुछ स्वाभिमानी−सा प्रतीत हो रहा था । जब बहुत देर तक भी वे सिद्ध पुरूष से बातें न कर पाये तो बाहर निकल आये । दोनों ही कुछ दूर तक दिखाई पड़े और फिर सघन वृक्षों में ओझल हो गये ।

थोड़ी देर पश्चात् सघन वनों के बीच से तीन−चार घुड़सवार निकले । उनकी आवाज सुन वृद्ध चौंका तो युवक ने धीमे स्वर में पूछा−"अलबरूनी क्या बात है ? तुम इतने चौंके क्यो ?"
        "शहजादे महदूद । ये आवाजें सुन रहे हो, अलबरूनी के कान और आँख कभी धोखा नहीं खा सकते । ये यहाँ की औरतें हैं ।"
        "तब तो हम उन्हें देखना चाहेंगे ।"
        "और तुमने कोई गुस्ताखी कर दी तो.....?"
        "तो....क्या ? शहजादों का काम ही यही है । आइये खाँ साहब ।"
        "ये बात नजरअन्दाज न हो कि हम यहाँ दूत की हैसियत से आये हैं ।
  "क्या मतलब ?" महदूद चौंका । वह यह भूल चुका था कि वह एक दूत है । अमीरे गजनी महदूद सुलतान का बड़ा बेटा था । शहजादा नहीं । यूँ महदूद, महमूद का बड़ा बेटा था लेकिन उसके आचरण सदैव विपरीत थे । वह हंसमुख, कलाप्रिय, रूप पिपासु था । नारी उसकी कमजोरी थी । असम्भावना उसमें अहं जाग्रत करते न चूकती और जो वह एक बार निश्चित कर लेता उसे करके ही छोड़ता था । अलबरूनी महदूद की इस कमजोरी से अनजान था । क्योंकि जबसे महमूद गजनबी उसे अपने राज्य में लेकर आया वह तभी से राज्य की ओर से इतिहास लेखन का कार्य कर रहा था । अलबरूनी न केवल अपने युग का विद्वान था, अपितु वह संस्कृत का भी पंडित था । वह अमीर के साथ−साथ रहता । अमीर जहाँ भी जाता उसे साथ रखता । वह जहाँ भी जाता विद्वानों से मिलता । उनसे ज्ञान लेता तथा हिन्दू ग्रंन्थों का अध्ययन करता । मथुरा के बारे में वह पहिले ही बहुत कुछ पढ़ चुका था । श्री मद्भागवत और गीता का अध्ययन करने के पश्चात उसका ज्ञानी मस्तिष्क भी हिन्दू दर्शन का प्रशंसक था । इसलिए वह दुराचरण का पक्ष−पाती न था । उसके हाथ महमूद सुल्तान ने ख़रीद लिये थे । उसे वही सब लिखना पड़ता जो अमीर का हुक्म होता । ये दोनों ही व्यक्ति महमूद ने एक विशेष कार्य के लिये भेजे थे ।
        गेरूआ वस्त्र धारण किये वे दोनों राह काट−कर आगे पहुँचे । अश्वारोही अभी भी आपस में बातें करते जा रहे थे । न जाने किस बात पर महारानी इन्दुमती जोर से हंस पड़ी । हँसी का मधुर स्वर वातावरण में गूँज उठा । विलासी महमूद अपनी भावनाओं पर काबू न कर सका । और उसके मुँह से अचानक 'वाह' की ध्वनि निकल पड़ी और आगे बढ़ने वाले अश्वरोही का अश्व हिनहिना कर दो पैरों पर खड़ा हो गया और एक ललकार भरा स्वर उभरा−
        "यह अनार्य कौन है ? सामने आए ।" कहते ही इन्दुमती के दाहिने हाथ में तलवार उठ गई । जो सैनिक वेश में साथ चल रही थीं । वह रूपाम्बरा और हंसा थी । साथ ही कुछ अंगरक्षिकायें भी थीं । सभी एक क्षण में पट्टमहिषी को घेर का खड़ी हो गई । सबके हाथों में तलवारें थीं । इन्दुमती की भवें तन गई थी । उसने एक बार सबके ऊपर दृष्टि डाली और हंसा को देखते ही बोली−
        "हंसा जा । और देख तो यह नीच कौन है ?"
        "जी रानी माँ ।" कहते ही हंसा ने अपना घोड़ा मोड़ दिया । वह आगे बढ़ पाती कि तभी वह दोनों साधु एक झाड़ी में से बाहर निकले । अलबरूनी हाथ जोड़ सिर झुकाकर बोला−
        "अपराध क्षमा हो राजेश्वरी । अनायास ही साथी के मुँह से "वाह" निकल गया ।"
        "तुम साधु नहीं हो । सच बोलो, कौन हो ? और नारी का अपमान करने का साहस कैसे हुआ ?" वह क्रोध से चीख पड़ी । रूपाम्बरा एक टक इन्दुमती को देख रही थी ।
        "क्या तुम यवन हो ?"
        "जी.......।"
        "बन्दी बना लो इन्हें ।" इन्दुमती का इतना कहना ही था कि महदूद चौंक−कर पीछे हटा । लेकिन तब तक पास खड़ी हंसा ने तुरन्त धनुष की ड़ोरी में उसकी गर्दन को फांस अपनी ओर खींच लिया । महदूद तड़प उठा । अलबरूनी यूँ ही शान्त खड़ा रहा । पुन: हाथ जोड़ कर बोला−
        "हम बन्दी हुये महारानी जी । परन्तु अपराधी की एक बात अवश्य सुन लीजिये ।"
        इन्दुमती ने यवन के मुख से शुद्ध भाषा के उच्चारण पर ध्यान दिया । उसे कुछ सन्देह हुआ । उसने घोड़ा आगे बढ़ाया और बोली−
        "कहो । क्या कहना चाहते हैं ।"
        "हम दूत हैं ।"
        "किसके ?"
        "अमीरों के अमीर, अमीरे गज़नी महमूद सुल्तान के ।"
"कहाँ जा रहे थे ।"
"मथुराधिपति महाराणा के पास ।"
"तुम हमारे यहाँ की भाषा कैसे सीखे ?"
"क्योंकि बचपन से ही मेरा सम्बन्ध बुखारा से रहा था । वहाँ मैं पढ़ा । हिन्दुस्तान भी कई बार आया । यहाँ अमीर ने बुखारा को जीत कर मुझे बन्दी बना लिया । संस्कृत मैने पंजाब में पढ़ी । भगवतगीता आदि का भी अध्ययन किया ।"
        "क्या ? तुमने हमारा दर्शन और साहित्य पढ़ा है ?"
        "जी महारानी जी ।"
        "तुम्हें उनमें सबसे अच्छी बात क्या लगी ?"
        "भगवतगीता में व्यास जी ने कहा कि पहिले पच्चीस तत्वों को पहचान लो फिर जो चाहों उस मत को स्वीकार करो । परिणामस्वरूप तुम्हें मुक्ति ही प्राप्त होगी । यह विचार मेरे मन से कभी नहीं उतरता ।"
        "तुम विद्वान हो । निष्पक्ष यवन । क्या नाम है तुम्हारा ?"
        "अलबरूनी, महारानी जी । सुल्तान का इतिहासकार ।" अलबरूनी ने गर्दन ऊँची करते हुये कहा ।
        "और यह चरित्रहीन ?"
        "मेरा साथी है ।"
        "तुम संकोच कर रहे हो यवन, यह अवश्य ही कोई राजपुरूष है ।"
        "जी । आप अमीरे गज़नी महमूद सुल्तान के वली अहद है ।"
"ओह । ठीक है, इनसे कह दो अपना मुँह उधर करके खड़े हों ।"
इन्दुमती ने महदूद की ओर देखा और महदूद इन्दुमती की ओर देख रहा था । वह सुनते ही पीछे की ओर मुँह कर खड़ा हो गया । महदूद खून के घूँट पीकर रह गया । यदि अलबरूनी ने उसे रास्ते में यह बता दिया होता कि कुछ भी करने से पहिले यह सोच लो कि हम दोनों ही जिन्दे नहीं बचेंगे। तो अवश्य बात बढ़ जाती । महदूद हर बात सुनकर चला आ रहा था ।
        शीत ऋतु का प्रकोप बढ़ रहा था । सूरज डूब चुका था । केवल निशा का आभास मात्र था । इन्दुमती ने सभी की ओर देखकर अलबरूनी से पूछा। "तुम्हें श्री महाराज से मिलने के लिये यह भेष बदलने की क्या आवश्यकता पड़ी ? जबकि हमारे यहाँ दूत का वध निषेध है । हमारी संस्कृति के प्रतिकूल है ।"
        "महारानी छोड़ें या मारें मैंने ब्रज का बहुत महत्व पढ़ा था । सोचा सुल्तान ने यहाँ के इतिहास को भी लिखने की मेरी सिफारिश मान ही ली है तो दूत बनकर जाऊँगा ।" कहते−कहते वह रूका जैसे महदूद कुछ कहने को मना कर रहा हो । इसलिए उसने उधर देखा और अपना कहने का क्रम जारी रखा ।......तो उस सुकून को कैसे पाऊँगा ? जो यहाँ के लोगों को मिल जाता है । मैंने सीमा पर अपने दूत होने का परिचय देकर यह बाना पहन लिया ।"
        "उसके बाद फिर तुमसे किसी ने कुछ नहीं कहा ?"
        "हम तहेदिल से कह रहे हैं, महारानी । इतने वर्षों से मैं हमेशा अमीर गजनी महमूद सुल्तान की फौजों के साथ रह रहा हूँ । मुल्क देखे, लोग देखे । यहाँ एक−एक कदम भी बढ़ाना मुश्किल हो गया । हार कर हम वृन्दावन पहुँचे और वहाँ जो चाहता था वह अपनी आँखों से देखा ।"
        "क्या ?" इन्दुमती ने कहा ।
        "एक वृक्ष के नीचे एक साघु की सभा हो रही थी । साधु उपदेश दे रहा था । मुझे हिन्दु के निराकार और इस्लाम के खुदा में कोई भेद नहीं लगा ।"
        "और मूर्ति पूजा ?"
"मूर्ति माध्यम है उस तक पहुँचने का ।" अलबरूनी ने गर्दन ऊँची करके कहा । इन्दुमती यवन का उत्तर सुन कुछ उत्तेजित होती हुई बोली−"माध्यम उनके लिये हैं जो स्वयं की मूर्ति की पूजा से पूर्व मूर्ति की भांति माया से मुक्त मूर्ति नहीं बन पाते । यदि मूर्ति की साधना मूर्ति बनकर की जा सके तो तुम देखोगे मूर्ति साक्षात् साकार ब्रह्म है । परन्तु यवन तुम दूत बनकर आये हो इसलिये तुम्हें क्षमा किया जाता है । इतना अवश्य कि श्री महाराज के पास पहुँचने तक तुम हमारे संरक्षण में रहोगे ।" इतना कह इन्दुमती ने अंगरक्षिकाओं की ओर संकेत किया और उन्हें दो अश्व दे दिये । फिर वह क्रोध से बोली−"तुम इन्हें रिषिपुर के अतिथि गृह ले जाओ और वहाँ कह देना कि इन्हें कोई कष्ट न हो ।"
        कह वे सभी चल दीं । हंसा कुछ अंगरक्षिकाओं के साथ रिषीपुर तक गईं और इन्दुमती के साथ रूपाम्बरा द्रुतगति से आगे बढ़ गई ।
        अलबरूनी इन्दुमती से बातें करने के पश्चात् मन ही मन कह उठा−"इस राज्य का इतिहास कभी नहीं लिखा जा सकता । यहाँ की हर बात, हर तहजीब में कितनी इन्सानियत है ? अय खुदा । मुझे ताकत दे कि मैं कुछ लिख सकूँ ।" वह कुछ और सोचता यदि अतिथि गृह न आ गया होता । हंसा अतिथि गृह के संरक्षक को सब कुछ समझा कर वहाँ से महावन लौट दी ।
        महलों तक पहुँचने में इन्दुमती और रूपाम्बरा को काफी समय लग गया । दीप जल चुके थे । देव गृहों से शंख, घड़ावल की ध्वनियाँ सुनाई पड़ रहीं थी । किले में पहुँचते ही इन्दुमती रूपाम्बरा को साथ लिये अपने महल में पहुँची ।
        कई दासियाँ पालने को घेरे खड़ी थीं । महाराज कुलचन्द्र महामात्य और दिवाकर तीनों ही खड़े थे । इन्दुमती पुत्र के समीप इतनी भीड़ देखकर तीव्र गति से उधर बढ़ी । तभी कुलचन्द्र ने आगे बढ़कर कहा "महारानी, इतना विलम्ब कर दिया । देखो, गोविन्द कब से रो रहा है । गोबिन्द अभी तीन माह का भी न होगा । उसे छोड़ कर वन−विहार को चली गई ।" सुनकर वह शीघ्र ही पालने की ओर गयी और युवराज को उठाकर अपने वक्ष से लगा लिया । बालक माँ के वक्ष से चिपट गया । रूपाम्बरा जिसका मुख एकदम गम्भीर बना हुआ था उसकी गम्भीरता को दूर खड़ा दिवाकर देख रहा था । लेकिन उसके अधरों पर एक अनोखा हास्य बिखर रहा था ।
        कुलचन्द्र ने रूपाम्बरा को सम्बोधित करत हुये कहा−"तुम्हारे मुख पर गम्भीरता देखकर हृदय को दु:ख होता है । गम्भीरता का कारण ?"
        "कुछ नहीं, श्री महाराज बस यूँ ही ।" रूपाम्बरा ने चाहा कि दूत वाली घटना सुना दे लेकिन इन्दुमी से बिना पूछे उसका कहने का साहस न हुआ । महामात्य शीलभद्र को भी रानी के मुख पर आते परिवर्तन को देखकर हँसी सी आई । तभी कुलचन्द्र बोल पड़े−"क्या यवन को देख रानी भयभीत हो उठी हैं ?"
        "श्री महारज आ.....प को ?" वह वाक्य पूरा भी न कर पाई कि महाराज कुलचन्द्र अपनी हँसी न रोक पाये ।
        "क्या तुम सोचती हो हमें नहीं मालूम । यह बात नहीं । शत्रु कहाँ आ गया ­? कहाँ चल रहा है ? तथा उसकी कौन सी चाल कब होगी, आदि का पता राजा को न चले तो फिर उसे राजा कहलाने का अधिकार ही कहाँ ? यह भेद बतलाने वाला और देने वाला हमारा प्रिय कलाकार दिवाकर ही है ।" इतना कह वे मौन हुये कि तभी महामात्य ने प्रात: दरबार में दोनों के आने की बात कहीं । कुछ नये निर्णय लिये और कुछ गुप्त बातें कर शीलभद्र दिवाकर को साथ ले चल दिये ।
        दिवाकर को साथ लिये वह एकाकी स्थान में आये और करीब पहुँचते हुये बोले −
        "दिवाकर आज अंधियारी रात्रि है । कुहासा जमता चला आ रहा है । हो सकता है रिषीपुर का अतिथि गृह कोई नया खेल खेले ।"
        "तुम इतना ही करो कि महाकाल भैरव के मन्दिर पर नजर रखो और अपने साथियों में से किसी को चुन लो । महदूद लालची है और लालच मनुष्य से नीति विरूद्ध कार्य कराता है । मेरा मतलब समझे ?"
        "जी, समझ गया । मैं स्वयं अतिथिगृह पर अपनी दृष्टि रखूँगा ।"
        सारी रात यूँ ही निकल गयी पर कोई घटना न घटी । महदूद अलबरूनी से बार−बार काल भैरव के पुजारी से मिलने की बात कहता लेकिन वह मना कर देता । अंधकार और कुहासे में हाथ न सूझता । महदूद धीरे से बाहर झाँका । तभी द्वार से आवाज सुनाई दी−"अभी बहुत रात है सो जाओं ।" सुन महदूद पीछे सरक गया । वह सोने का बहाना कर लेट गया । कहने वाला दिवाकर ही था । वह द्वार पर पहुँचा तो प्रहरी नशे में पड़ा था । उसके स्थान पर अपने साथियों में एक को वहाँ छोड़ अन्य सिपाहियों के साथ उसे बन्दी बनाकर चल दिया ।
        लेकिन बिना कारण जैसे कार्य नहीं होता । उसी तरह बिना किसी घटना के राष्ट्रीय भावना नहीं जागती । ऐसी घटनायें दो तरह से होती है, एक तो शत्रु जब अपनी किसी गहरी चाल में असफल हो जाये दूसरे देशद्रोही अपने स्वार्थ के लिये ऐसी भूल कर देता है, तब ।
        प्रभाकर की रश्मियाँ अभी कुहासे को चीर बढ़ भी न पाई थीं कि सारे रिषीपुर में हा−हाकार मच उठा । सभी लोग क्रोध से पागल हो रहे थे । अतिथिगृह के पास ही एक गाय को किसी ने बेरहमी से काट डाला था । अलबरूनी महदूद पर मन ही मन बहुत ही क्रोधित था परन्तु महदूद का सेवक होने के नाते वह कुछ न कह पा रहा था । वह यह जानता था कि यह कार्य देशद्रोही भृगुदत्त का ही हो सकता है । भृगुदत्त को जब सारी रात हो गयी और फिर भी महदूद से भेंट न हुई तो वह खीझ उठा । वह बुरी तरह से शीलभद्र पर क्रोधित हो उठा । उसने यह सोच कर कि ऐसा करने से प्रजा राजा के विरूद्ध हो जायेगी और आन्तरिक द्वन्द्व में डूबा राजा महदूद द्वारा शीध्र विजयी होगा । लेकिन वह यह भूल गया कि ऐसा उसने वहाँ किया जहाँ दो यवन पहिले से ही रह रहे थे । अपितु सारी प्रजा में यवनों के प्रति प्रतिशोध की अग्नि भड़क उठी ।
        समस्त राज्य परिवार चिन्तित था । कुलचन्द्र ने महामात्य को शीघ्र कुछ निर्देश दिये । राजगुरू को बुलाया । प्रजा को तब शान्त किया जा सका । तब कुलचन्द्र ने प्रतिज्ञा की कि वह स्वयं इसका बदला सहस्त्रों यवनों से लेगा । कुलचन्द्र की प्रतिज्ञा पर प्रजा जय−जयकार करती हुई चल दी । लेकिन राजा कुलचन्द्र ने दरबार में दोनों के आने की व्यवस्था की । क्योंकि वह यह जानकर भी कि यवनों ने ही ऐसा किया है, दूत होने के नाते उनसे कुछ न कह सकते थे । अत: वह उन्हें शीघ्र विदा कर देना चाहते थे ।
        दो बांस सूरज चढ़ चुका था । महावन के प्रसिद्ध नन्द दुर्ग में अनेकों आमात्य एकत्रित होने लगे थे । ब्रज में उपस्थित सभी सरदार और सामन्त भिन्न−भिन्न पोशाकें पहने सिर पर पाग बाँधे कमर में दोहरी तलवारें लटकाये हुए आपस में दरबार की बातें कर रहे थे । सभी की आँखें क्रोध से जल रहीं थी । बाहर प्रजा उन गाय हत्यारों को देखने के लिये उत्सुक हो रही थी । एक से एक गठीले, तरूण, वृद्ध सभी लोग थे । महामात्य शीलभद्र, सेनापति सोमदेव व राजगुरू ब्रह्मदेव आदि महाराज कुलचन्द्र के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे ।
        अभी कुछ क्षण बीते कि द्वार पर महाराज के आने की सूचना प्रहरी ने दी । शीलभद्र ने आगे बढ़कर महाराज का अभिवादन किया । कुलचन्द्र की मुद्रा विचित्र हो रही थी । उनकी आँखे लाल अँगारों की तरह जल रही थीं । उनकी गति में गम्भीरता आ गयी थी । महाराज के बैठते ही सभी ने अपना−अपना स्थान ग्रहण किया ।
        अलबरूनी और महदूद दोनों ही को सैन्य संरक्षण रिषीपुर से महावन लाया गया । अलबरूनी ने जब से यह सुना कि गो−हत्या को लेकर सारा समाज यवनों को हेय दृष्टि से देख रहा हैं तो शर्म से उसकी गर्दन नीची हो रही थी । महदूद का मस्तिष्क इन्दुमती के शब्दों−"इस चरित्रहीन को कह दो−मुँह फेर कर खड़ा हो" को बार−बार दोहरा रहा था । अपमान का भाव प्रतिशोध की जड़े सबल बनाता जा रहा था । वह किसी न किसी प्रकार इन्दुमती को पाने के षडयन्त्र में डूब गया । जब रिषीपुर से लोहवन तक वह कुछ न बोला तो अलबरूनी जिसके हाथ में श्वेत ध्वजा फहरा रही थी महदूद की ओर मुँहकर बोला−"वह दरिया के पार जो पहाड़ी चोटी सी दिखाई दे रही है न, वहीं मथुरा का मन्दिर है ।"
        "कौन ? वह मूर्ति ­? हाँ, उस जैसी मूर्ति देखने को नहीं मिलेगी । न वैसी मुसब्बरी......।"
        "हाँ, ये तो तुम्हारा कहना वाजिब है । ऐसा लगता है कि खुदा ने खुद ही उसे बनाया है ।"
        "लेकिन काफिर उसे ही खुदा मानता है ।"
        वे अभी कुछ और बात करते कि तब तक दुर्ग की प्राचीरों के सामने सैनिकों ने घोड़े रोक दिये ।
        महदूद ने एक नजर दुर्ग पर डाली तो वह अवाक रह गया जब दुर्ग के ऊपर उसे हजारों धनुर्धर धनुष की प्रत्यंचा को कान तक खींचे खड़े दिखाई दिये । अलबरूनी उसे साथ ले घोड़े से उतर पैदल दुर्ग के अन्दर घुसा ।
        राजदरबार में प्रवेश करते ही दोनों ने झुककर महाराज के प्रणाम किया । गम्भीर वाणी में कुलचन्द्र बोले−
        "कहो । क्या कहना चाहते हो ?"
        "हम दोनों को अमीरों के अमीर, अमीरे गज़नी महमूद सुल्तान ने ये निवेदन करने भेजा है कि श्री महारज से कहें कि महमूद के मार्ग में रूकावट न डाल उन्हें कन्नौज जाने दें ।"−
        "और यह शर्त न मानी जाये तब ?"
        "श्री महाराज वीर है, विद्वान है, कला कुल के रत्न हैं । अपनी प्रजा की सुखशान्ति के ही लिये सब कुछ किया जाता है । श्री महाराज सुल्तान के गुस्से से वाकिफ हैं ।"
        "तो जाओ, अपने अमीर से कहना कि ब्रज अभी मरा नहीं । ब्रज की वीर धरा बन्ध्या नहीं है, वहीं वह रक्त प्रवाहिनी भी हो सकती है ।"
        "श्री महाराज रिषीपुर की घटना पर इतना क्रोधित न हो । अलबरूनी खुदा का वास्ता देकर कहता है कि − "खुदा जाने क्यों इस माटी में सुकून है । मेरी दिली तमन्ना है कि यहाँ खून−खराबा न हो ।" अलबरूनी कहते हुये महाराज की ओर देख चुप हो गया ।
"तुम यह जानते हो कि यहाँ का राजा प्रजा के साथ विश्वासघात नहीं कर सकता ।"
        "जी ।"
        "तब क्या तुम्हारा अमीर हमसे बदले में कुछ नहीं चाहेगा ? क्या वह इस बात से सहमत होगा कि वह इस बार दिल्ली से कन्नौज तक के देव गृहों को नष्ट नहीं करेगा ? क्या वह ब्रज की सीमाओं में प्रवेश न कर अपना कोई और रास्ता चुन सकेगा ? वह हमसे मार्ग चाहता है और फिर वही अत्याचार, विध्वंस, अनैतिकता सभी प्रकार की क्रूरता कर अपना अधिकार पाने की चेष्टा करता है । ब्रज आकर भगवान केशव से साक्षात करे । सन्धि, बातों से नहीं तलवारों से होगी। तुम जा सकते हो ।" राजा कुलचन्द्र कह कर खड़े हो गये । दरबार पुन: जय−जयकार से गूँज उठा और उसी गूँज में महदूद के मुँह से निकला−"सुलह का और भी रास्ता को सकता है ।"लेकिन उसकी आवाज उसी तक रह गई । दरबार उठ गया । सभी लोग महाराज के निर्णय से प्रसन्न थे ।


टीका टिप्पणी और संदर्भ