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− | शरद रितु की चाँदनी केशव महालय पर विहँस रही | + | शरद रितु की चाँदनी केशव महालय पर विहँस रही थी। उसी चंन्द्र ज्योत्स्ना में श्वेत वस्त्र−धारी आकृति महालय की ओर बढ़ी आ रही थी। महालय पर पहुँच कर वह चारों ओर इस तरह देखती मानो किसी को ढूँढ रही हो। वह आँचल फैला कर कहने लगी−"हे केशव, दिव्या का प्रेम दो आत्माओं की एकात्मा है, प्रभु, इसे नष्ट न होने देना। कभी कलंक न लगने देना।" कहते−कहते कभी वह सिसक उठती और कभी मौन होकर सीढ़ियों चढ़ने लगती। चलते−चलते वह महालय के प्राँगण में जाकर रूक गई। उसने एक बार राजगुरु ब्रह्मदेव की ओर देखा और पुन: दूसरी ओर चल दी। |
− | <poem>राज्य की परिस्थितियाँ पल−पल बदल रही | + | <poem>राज्य की परिस्थितियाँ पल−पल बदल रही थीं। युद्ध अनिवार्य है। यह जानकर भी दिव्या मूर्त से अमूर्त हो उठती। उसे ज्ञात हो चुका था कि अमीर की सेना हास्यवन की ओर बढ़ चुकी है और यह सब भी राजा से छिपा नहीं है। हास्य वन में कोइला की गढ़ी का सरदार रामचन्द्र यादव था। वह अजेय पौरूष का धनी था। अदम्य साहस और शक्ति के बल पर उसने अपने क्षेत्र में सुरक्षित गढ़ी और दुर्ग बनवाकर पूरी तरह सुरक्षित कर लिया। राज्य के प्रति उसकी निष्ठा ने उसे स्वामिभक्त बना दिया। वह राजा कुलचन्द्र का विश्वासपात्र था। उसकी आयु पचास वर्ष से भी अधिक थी।"श्री महाराज ! हास्य वन में अकेले काका जी पर ही विश्वास कर लेना भारी भूल है। यवन चालाक है। यदि उसने पूर्व में बढ़कर आक्रमण कर दिया तो वह कछ न कर सकेंगे।" |
− | "हमारे रहते हुए ऐसा कुछ नहीं हो | + | "हमारे रहते हुए ऐसा कुछ नहीं हो सकेगा। सोमदेव तुम ही अपनी रानी माँ को समझाओ।" कह राजा कुलचन्द्र चुप हो गये। सोमदेव का चेहरा गम्भीर हो उठा और वह नि:श्वास छोड़ते हुये बोला−"रानी माँ ! अब समय बहुत कम है।" |
− | "लेकिन सोम, हमें हर हालत में यवन को वन में घुसने के लिये बाध्य करना | + | "लेकिन सोम, हमें हर हालत में यवन को वन में घुसने के लिये बाध्य करना चाहिये।" |
− | "आपका कहना उचित है परन्तु काका जी के साथ दस हजार घुड़सवार योद्धाओं को लिये विजयपाल लोहे की दीवार बनाकर खड़ा | + | "आपका कहना उचित है परन्तु काका जी के साथ दस हजार घुड़सवार योद्धाओं को लिये विजयपाल लोहे की दीवार बनाकर खड़ा है।" वे अभी कुछ और बात करते कि दासी ने महामात्य शीलभद्र की आने की सूचना दी तो राजा कुलचन्द्र और सेनापति सोम उठकर दूसरे कक्ष की और चल दिये। |
− | हास्यवन में चारों ओर राज्य के रण बाँकुरे, अमीर की सेना को मिटाने के लिये तैयार खड़े | + | हास्यवन में चारों ओर राज्य के रण बाँकुरे, अमीर की सेना को मिटाने के लिये तैयार खड़े थे। कोला गढ़ के बुर्ज पर खड़ा विजयपाल डूबते हुए सूरज की ओर देख रहा था। आकाश पर सुदूर धूल के बादल उठ रहे थे। इधर महामात्य ने कुछ आवश्यक आज्ञा लीं और विचार−विमर्श के पश्चात सोम को साथ ले मथुरा की ओर चल दिये। |
− | महालय पर सन्नाटा छा रहा | + | महालय पर सन्नाटा छा रहा था। ब्रह्म देव जब अपनी पूजा−अर्चना कर चुके तो उन्होंने दिव्या को अपने पास बुलवाया। दिव्या ने आकर प्रणाम किया और एक ओर बैठते हुये बोली− |
− | "आज्ञा | + | "आज्ञा गुरुदेव।" |
− | "बेटी, अब समय नहीं | + | "बेटी, अब समय नहीं रहा। ऐसे कब तक घुलती रहोगी !" |
− | "कुछ तो है | + | "कुछ तो है ही।" |
"क्या ?" | "क्या ?" | ||
− | "पूज्यवर, मैं सेनापति जी के बिना नहीं जी | + | "पूज्यवर, मैं सेनापति जी के बिना नहीं जी सकती।" |
− | "तब राजभवन में जाकर | + | "तब राजभवन में जाकर रहो।" |
− | "वहाँ रानी माँ | + | "वहाँ रानी माँ है।" |
− | "मैं तेरी व्यथा समझते हुए भी यही कहूँगा कि भगवान केशव तुझ पर अवश्य कृपा | + | "मैं तेरी व्यथा समझते हुए भी यही कहूँगा कि भगवान केशव तुझ पर अवश्य कृपा करेंगे। आ मेरे साथ तू स्वयं देख ले कि भावना से कर्त्तव्य महान होता है।" कह ब्रह्म देव अपने कक्ष की ओर चल दिये। कक्ष के बाहर ही सोमदेव खड़ा था। राजगुरु को आते देख उसने साष्टांग प्रणाम किया। साथ में दिव्या को देखा तो उसके अधरों पर शब्द आकर ठहर गये। राजगुरु ने ध्यान भंग करते हुये पूछा−"सोम भृगृदत्त का कोई समाचार मिला ?" |
− | "जी गुरुदेव ! उसने समाधि ले ली | + | "जी गुरुदेव ! उसने समाधि ले ली है। लोग भयभीत हो रहे हैं। संघाराम ख़ाली पड़े हैं। फिर श्री महाराज की आज्ञा से मुझे भी हास्यवन पहुँचना है।" |
− | "वत्स, यह तुम्हारी की सामर्थ्य का फल है अन्यथा सामान्य प्रजा का क्या हाल था सब जानते | + | "वत्स, यह तुम्हारी की सामर्थ्य का फल है अन्यथा सामान्य प्रजा का क्या हाल था सब जानते हैं। तुम्हे जाना ही होगा। अत: अधिक तो नहीं कहूँगा − इस बेचारी को भी समझाते जाना, मैं चलता हूँ।" इतना कह राजगुरु आशीर्वाद देते हुए अपने कक्ष में चले गये। |
− | सोमदेव दिव्या की ओर देख बोला−"प्राण तुम ही कहती थीं−कर्त्तव्य के समक्ष भावनाओं को महत्व न | + | सोमदेव दिव्या की ओर देख बोला−"प्राण तुम ही कहती थीं−कर्त्तव्य के समक्ष भावनाओं को महत्व न देना। आज तुम्हें इतना अधीर देख कर तो मेरा मन.....।" |
− | "नहीं | + | "नहीं आर्य। आपकी दिव्या सदैव वैसी ही रहेगी।" |
− | "फिर मेरे लिये आज्ञा करो | + | "फिर मेरे लिये आज्ञा करो देवी।" |
− | "आर्य ! नारी हृदय को काश समझा | + | "आर्य ! नारी हृदय को काश समझा होता। सच तो यह है कि एक पल को भी दूर नहीं हुआ जाता।" |
− | "चाहता तो मैं भी यही हूँ लेकिन अमीर.....वह | + | "चाहता तो मैं भी यही हूँ लेकिन अमीर.....वह नीच।" |
− | "आर्य, अपनी दिव्या को भी साथ ले | + | "आर्य, अपनी दिव्या को भी साथ ले चलिये।" |
− | "देवी ! आज एक दिव्या का प्रश्न नहीं है, नारी समाज के अस्तित्व का प्रश्न उठ खड़ा हुआ | + | "देवी ! आज एक दिव्या का प्रश्न नहीं है, नारी समाज के अस्तित्व का प्रश्न उठ खड़ा हुआ है। हाँ तुम्हें रानी माँ की विशेष चिन्ता करनी होगी। तुम उनके आस−पास की रहना और मेरे लौटने की प्रतीक्षा करना।" |
− | "ऐसा ही होगा | + | "ऐसा ही होगा आर्य।" कह दिव्या ने सोमदेव को विदा कर दिया और स्वयं रिषीपुर की राह पर चल दी। |
− | सोमदेव अपनी टुकड़ी के साथ हास्यवन की ओर बढ़ | + | सोमदेव अपनी टुकड़ी के साथ हास्यवन की ओर बढ़ दिया। संकट की घड़ी में दिन और रात का कोई पता नहीं रहता। अभी सूरज सिर पर भी न आया था कि कोलागढ़ के द्वार पर सोमदेव ने अपना अश्व रोक दिया। द्वार−पाल ने तुरन्त सेनापति का अभिवादन कर द्वार खोला और सभी को अन्दर लिया। |
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− | रामचन्द्र को देखते ही दोनों में रामा कृष्णा हुई फिर बैठकर युद्ध पर गम्भीरता से बातें | + | रामचन्द्र को देखते ही दोनों में रामा कृष्णा हुई फिर बैठकर युद्ध पर गम्भीरता से बातें हुईं। विजयपाल ने विस्तार से सब कुछ बताया। योजना के अनुसार सोमदेव ने शास्त्री और दिवाकर को गुप्त सूचनायें एकत्रित कर जेवर की गढ़ी के ढ़लानों पर फैला दिया। उधर विजयपाल की सेना खादरों में मोर्चा लगाये खड़ी थी। पश्चिम की ओर हरियाणा के तोमर राजा की सेना लड़ने को उतावली हो रही थी। लेकिन प्रकृति का रथ−चक्र अपने विधान कब बदलता है। रात घिरती चली आ रही थी। |
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== |
१२:५०, २ नवम्बर २०१३ के समय का अवतरण
जय केशव ऐतिहासिक उपन्यास-लेखक, श्री सत्येन्दु याज्ञवल्क्य
शरद रितु की चाँदनी केशव महालय पर विहँस रही थी। उसी चंन्द्र ज्योत्स्ना में श्वेत वस्त्र−धारी आकृति महालय की ओर बढ़ी आ रही थी। महालय पर पहुँच कर वह चारों ओर इस तरह देखती मानो किसी को ढूँढ रही हो। वह आँचल फैला कर कहने लगी−"हे केशव, दिव्या का प्रेम दो आत्माओं की एकात्मा है, प्रभु, इसे नष्ट न होने देना। कभी कलंक न लगने देना।" कहते−कहते कभी वह सिसक उठती और कभी मौन होकर सीढ़ियों चढ़ने लगती। चलते−चलते वह महालय के प्राँगण में जाकर रूक गई। उसने एक बार राजगुरु ब्रह्मदेव की ओर देखा और पुन: दूसरी ओर चल दी।
राज्य की परिस्थितियाँ पल−पल बदल रही थीं। युद्ध अनिवार्य है। यह जानकर भी दिव्या मूर्त से अमूर्त हो उठती। उसे ज्ञात हो चुका था कि अमीर की सेना हास्यवन की ओर बढ़ चुकी है और यह सब भी राजा से छिपा नहीं है। हास्य वन में कोइला की गढ़ी का सरदार रामचन्द्र यादव था। वह अजेय पौरूष का धनी था। अदम्य साहस और शक्ति के बल पर उसने अपने क्षेत्र में सुरक्षित गढ़ी और दुर्ग बनवाकर पूरी तरह सुरक्षित कर लिया। राज्य के प्रति उसकी निष्ठा ने उसे स्वामिभक्त बना दिया। वह राजा कुलचन्द्र का विश्वासपात्र था। उसकी आयु पचास वर्ष से भी अधिक थी।"श्री महाराज ! हास्य वन में अकेले काका जी पर ही विश्वास कर लेना भारी भूल है। यवन चालाक है। यदि उसने पूर्व में बढ़कर आक्रमण कर दिया तो वह कछ न कर सकेंगे।"
"हमारे रहते हुए ऐसा कुछ नहीं हो सकेगा। सोमदेव तुम ही अपनी रानी माँ को समझाओ।" कह राजा कुलचन्द्र चुप हो गये। सोमदेव का चेहरा गम्भीर हो उठा और वह नि:श्वास छोड़ते हुये बोला−"रानी माँ ! अब समय बहुत कम है।"
"लेकिन सोम, हमें हर हालत में यवन को वन में घुसने के लिये बाध्य करना चाहिये।"
"आपका कहना उचित है परन्तु काका जी के साथ दस हजार घुड़सवार योद्धाओं को लिये विजयपाल लोहे की दीवार बनाकर खड़ा है।" वे अभी कुछ और बात करते कि दासी ने महामात्य शीलभद्र की आने की सूचना दी तो राजा कुलचन्द्र और सेनापति सोम उठकर दूसरे कक्ष की और चल दिये।
हास्यवन में चारों ओर राज्य के रण बाँकुरे, अमीर की सेना को मिटाने के लिये तैयार खड़े थे। कोला गढ़ के बुर्ज पर खड़ा विजयपाल डूबते हुए सूरज की ओर देख रहा था। आकाश पर सुदूर धूल के बादल उठ रहे थे। इधर महामात्य ने कुछ आवश्यक आज्ञा लीं और विचार−विमर्श के पश्चात सोम को साथ ले मथुरा की ओर चल दिये।
महालय पर सन्नाटा छा रहा था। ब्रह्म देव जब अपनी पूजा−अर्चना कर चुके तो उन्होंने दिव्या को अपने पास बुलवाया। दिव्या ने आकर प्रणाम किया और एक ओर बैठते हुये बोली−
"आज्ञा गुरुदेव।"
"बेटी, अब समय नहीं रहा। ऐसे कब तक घुलती रहोगी !"
"कुछ तो है ही।"
"क्या ?"
"पूज्यवर, मैं सेनापति जी के बिना नहीं जी सकती।"
"तब राजभवन में जाकर रहो।"
"वहाँ रानी माँ है।"
"मैं तेरी व्यथा समझते हुए भी यही कहूँगा कि भगवान केशव तुझ पर अवश्य कृपा करेंगे। आ मेरे साथ तू स्वयं देख ले कि भावना से कर्त्तव्य महान होता है।" कह ब्रह्म देव अपने कक्ष की ओर चल दिये। कक्ष के बाहर ही सोमदेव खड़ा था। राजगुरु को आते देख उसने साष्टांग प्रणाम किया। साथ में दिव्या को देखा तो उसके अधरों पर शब्द आकर ठहर गये। राजगुरु ने ध्यान भंग करते हुये पूछा−"सोम भृगृदत्त का कोई समाचार मिला ?"
"जी गुरुदेव ! उसने समाधि ले ली है। लोग भयभीत हो रहे हैं। संघाराम ख़ाली पड़े हैं। फिर श्री महाराज की आज्ञा से मुझे भी हास्यवन पहुँचना है।"
"वत्स, यह तुम्हारी की सामर्थ्य का फल है अन्यथा सामान्य प्रजा का क्या हाल था सब जानते हैं। तुम्हे जाना ही होगा। अत: अधिक तो नहीं कहूँगा − इस बेचारी को भी समझाते जाना, मैं चलता हूँ।" इतना कह राजगुरु आशीर्वाद देते हुए अपने कक्ष में चले गये।
सोमदेव दिव्या की ओर देख बोला−"प्राण तुम ही कहती थीं−कर्त्तव्य के समक्ष भावनाओं को महत्व न देना। आज तुम्हें इतना अधीर देख कर तो मेरा मन.....।"
"नहीं आर्य। आपकी दिव्या सदैव वैसी ही रहेगी।"
"फिर मेरे लिये आज्ञा करो देवी।"
"आर्य ! नारी हृदय को काश समझा होता। सच तो यह है कि एक पल को भी दूर नहीं हुआ जाता।"
"चाहता तो मैं भी यही हूँ लेकिन अमीर.....वह नीच।"
"आर्य, अपनी दिव्या को भी साथ ले चलिये।"
"देवी ! आज एक दिव्या का प्रश्न नहीं है, नारी समाज के अस्तित्व का प्रश्न उठ खड़ा हुआ है। हाँ तुम्हें रानी माँ की विशेष चिन्ता करनी होगी। तुम उनके आस−पास की रहना और मेरे लौटने की प्रतीक्षा करना।"
"ऐसा ही होगा आर्य।" कह दिव्या ने सोमदेव को विदा कर दिया और स्वयं रिषीपुर की राह पर चल दी।
सोमदेव अपनी टुकड़ी के साथ हास्यवन की ओर बढ़ दिया। संकट की घड़ी में दिन और रात का कोई पता नहीं रहता। अभी सूरज सिर पर भी न आया था कि कोलागढ़ के द्वार पर सोमदेव ने अपना अश्व रोक दिया। द्वार−पाल ने तुरन्त सेनापति का अभिवादन कर द्वार खोला और सभी को अन्दर लिया।
रामचन्द्र को देखते ही दोनों में रामा कृष्णा हुई फिर बैठकर युद्ध पर गम्भीरता से बातें हुईं। विजयपाल ने विस्तार से सब कुछ बताया। योजना के अनुसार सोमदेव ने शास्त्री और दिवाकर को गुप्त सूचनायें एकत्रित कर जेवर की गढ़ी के ढ़लानों पर फैला दिया। उधर विजयपाल की सेना खादरों में मोर्चा लगाये खड़ी थी। पश्चिम की ओर हरियाणा के तोमर राजा की सेना लड़ने को उतावली हो रही थी। लेकिन प्रकृति का रथ−चक्र अपने विधान कब बदलता है। रात घिरती चली आ रही थी।
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