जय केशव 3

ब्रज डिस्कवरी, एक मुक्त ज्ञानकोष से
Govind (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित १०:००, २९ जुलाई २०११ का अवतरण (नया पन्ना: {{जय केशव}} ब्रज का महत्व तो रामायण काल से ही विश्व विख्यात हो गया था…)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

जय केशव ऐतिहासिक उपन्यास-लेखक, श्री सत्येन्दु याज्ञवल्क्य

ब्रज का महत्व तो रामायण काल से ही विश्व विख्यात हो गया था । मधु दैत्य के राज्य काल में ब्रज को भगवान श्रीराम के अनुज भ्राता श्री शत्रुध्न ने लवणासुर पर आक्रमण कर फिर से बसाया । नये निर्माण कराये और बाहर वर्ष तक राज्य किया । इस बीच आस–पास के उन नगरों का जिन्हें लंकापति रावण ने लूट लिया था पुन: बसाया । राम–राज्य समाप्त हुआ और राजाओं के अत्याचारों से ब्रज को अपने अधीन रखा । परंतु कंस के अत्याचारों से जब ब्रज त्रस्त हो उठा तो भगवान श्रीकृष्ण का जन्म मथुरा में हुआ और साक्षात् विष्णु के अवतार भगवान श्रीकृष्ण ने ध्वस्त मानवता के लिए नया जीवन दर्शन दिया । श्रीमद् भागवत, भगवद्गीता, महाभारत, वेद और पुराणों के लिए अन्यान्य लीलाएं प्रदर्शित कर नया दर्शन दिया । उनके प्रभाव से आस–पास के नगर नन्द ग्राम, गोकुल, बरसाना, वृन्दावन, कोसी बसे तो बाल्यकाल और पारिवारिक दैनिक जीवन और क्रिया कलापों से जुड़कर समस्त विश्व के लिए वन्दनीय हो गए । पूर्णब्रह्म के प्रभाव स्वरूप आस्थाएं, भक्ति, प्रेम और कर्त्तव्य के शाश्वत स्तम्भ अजेय हो गए । गोवर्द्धन से लेकर द्वारिका तक और हिमालय से लेकर समुद्र पर्यन्त भगवान श्री कृष्ण और उनकी शक्ति को समस्त भू–मंडल अपने हृदयस्थ कर बैठा । ईसा पूर्व से लेकर दसवीं शताब्दी के अंत तक भगवान श्री राधाकृष्ण के अनुयायी राजाओं ने यहां की ललित कलाओं का सम्वर्द्धन किया । विराट मंदिर का निर्माण कराया तथा भगवान की जन्म स्थली को अथाह सम्पत्तिशाली बना डाला । आज अपने पूर्वजों की उसी श्रृंखला को सुरक्षित रखने का दायित्व राजा कुलचन्द्र के ऊपर था । यदुवंशी कुलचन्द्र ने भी मथुरा का यथावत स्वरूप प्रदान करने में कोई कसर न छोड़ी थी । प्रभाकर की रश्मियां केशव महालय के शिखर का स्पर्श भी न कर पाती कि तब तक भक्त जन जमुना स्नान कर देवालय पर एकत्रित होने लगते । मथुरा में चारों ओर देवालयों में मंगला के प्रारम्भ होते ही घंटा–घड़ावल, झाँझ–मृदंग आदि के स्वर गूँज उठते और ब्रजवासियों की दिनचर्या श्रृद्धानुगत भगवान के दर्शनों से आरम्भ होने लगती । मथुरा में यमुना के घाटों के हटकर एक चौड़ा मार्ग केशव महालय तक सीधा चला गया था । मार्ग के सहारे नगर में सुन्दर आवासों की श्रृंखलाऐं अपने आप में अनूठा सौंदर्य प्रस्तुत करती थीं । इन आवासों का स्थापत्य शिल्प देखते ही बनता था । महिलाएं स्वर्णाभूषणों से सुसज्जित भांति–भांति की केश सज्जाओं से सजी प्रात: काल से ही रंगोली सजाती, भजन–कीर्तन करती हुई दिखाई देती ।" सूर्योदय के साथ ही भिक्षु–भिक्षुणियां, साधु–सन्त भिक्षाटन के लिए निकल पड़ते । नगर के प्रमुख बाजारों में चहल–पहल और कोलाहल बढ़ जाता । नगर के व्यापारी सिर पर पगड़ी बांधे धोती काँछे अपने छकड़ो पर लदे माल के साथ दिखाई देने लगते । विशेष रूप से अन्य अवसरों की तुलना में बंसतोत्सव का महत्व ब्रज में सर्वोपरि रहता था और आजकल उसका समय निकट होने के कारण बाजारों और मण्डियों में व्यापारियों का आवागमन और भी बढ़ गया था । बसन्तोत्सव पर ब्रज राज्य की ओर से भी अनेक आयोजन आयोजित किए जाते । इनमें भाग लेने के लिए पहले से ही प्रत्याशी अपनी–अपनी तैयारी में लग जाते । कहीं संगीत और वाद्यों का आनंद होता, तो कहीं नृत्य, तीर, तलवार का अभ्यास । ब्रजवासी और बाह्य देश के यात्री रितुराज बसंत के स्वागत को आतुर से दिखाई पड़ते । इसी तरह पतझड़ बीत गया और अमराइयों में कोयल का कंठ गुनगुनाने लगे । समय बीतने देर नहीं लगती और एक दिन बसन्तोत्सव आ गया । पाषाणी नगर कोट के मध्य लगभग काफी विशाल क्षेत्र में उत्सव की व्यवस्था की गईं थी । एक ओर अतिथि राजाओं के रंग–बिरंगे रेशमी आवास थे, तो दूसरी ओर प्रतियोगिताओं में भाग लेने वालों के ठहरने की व्यवस्था को अन्तिम रूप दिया जा चुका था। नगर के सभी आवासों को नागरिकों द्वारा सजाया गया था। चारों ओर बंसती धरा के मध्य आवासों और देवालयों के शिखरों पर फहराती ध्वजायें अनोखा आनंद दे रही थीं । सभी की आंखे आगत बसंत की ओर लगी थीं । कोट के अंदर ही केशव महालय से दक्षिण पश्चिम में माता कंकाली का देवगृह था । इसी से लगा हुआ था केशव उद्यान जहाँ अनगिनत पुष्प वाटिकाएं थी । जिसके पुष्पों की गंध से सारा वातावरण हर समय महकता ही रहता । बड़ी–बड़ी झाड़ियों और लताओं के मध्य एक भिक्षुणी पुष्पों को चुनती जा रही रही थी और साथ चल रहे भिक्षु से बातें करती जा रही थी । उसने साथी भिक्षु को कुहनी मारते हुए कहा– "समस्त मथुरा सज रही है । घर-घर रास लीलायें हो रही हैं । उनसे भी परे मथुरियों को तो जैसे भोले की बूटी क्या मिल जाती है स्वर्ग मिल जाता है ।" "यह तो और भी अच्छी बात है, इससे तो अपना कार्य और भी आसान हो जायेगा और मैं सोचता हूं तुम्हारी अनुमति मिले तो मैं इसी समय चल दूं ।" भिक्षु ने कहते हुए भिक्षुणी की ओर देखा । भिक्षुणी को जैसे साथी का व्यवहार अच्छा न लगा । वह अपने हाथों के फूल फेंकती हुई बोली क्योंकि तुम अभी शीलभद्र को नहीं जानते ?" "तुम्हारा मतलब महामात्य से है न ?" "हां । उसे चाणक्य से कम न समझना । तुम्हारा यहां होना उससे छिपा नहीं रह सकता ।" "नहीं मुझे यहां आते किसी ने नहीं देखा ।" "यह तुम्हारी अंतिम भूल है ।" इतना कह भिक्षुणी स्वयं उसे लता कुंजो में छिपाती हुई सरोवर के पास ले आयी । यह स्थान उसे अधिक सुरक्षित लगा । वहां आते ही भिक्षु एक कक्ष की ओट में बैठते हुए बोला–"क्या तू मुझे यहां के अन्त:पुर के बारे में भी बतायेगी या यूं ही अनुरागिनी बन मेरा समय नष्ट करती रहेगी ।" "कुछ क्या ? बहुत कुछ बताऊंगी । यहां की महिषी हैं जिनकी सेवा में अनगिनत दासियां हैं । दूसरी मुख्य रानी रूपाम्बरा हैं परंतु राजा कुलचन्द्र उनके अत्यधिक आत्मीय समझे जाते हैं ।" कहते हुए भिक्षुणी ने भिक्षु के कांधे पर सिर टिका दिया । भिक्षु बिना किसी आपत्ति के बोला–"राजमहिषी बहुत सुंदर होगी ?" "हां यह तो सच है, उन्हें देख यही लगता है कि जैसे कोई दैवी शक्ति धरती पर स्वयं उतर आयी हो ।" "और रूपाम्बरा ?" "वे रूपवती तो हैं ही साथ–ही–साथ वे श्रेष्ठ कला–पारखी भी हैं । उनसे तो कई बार मिलना भी हुआ हैं । वे भगवान तथागत की अनन्य भक्त हैं ।" "क्या वह बौद्ध धर्मिणी हैं ?" "निश्चित ही...परंतु इन सब बातों से तुम्हें क्या करना है ?" भिक्षुणी ने कहते हुए भिक्षु पर अपनी आंखें टिका दीं । परन्तु उसे भिक्षु में कहीं भी कुछ अप्रिय दिखायी न दिया तो आगे बताते हुए बोली–"रानी रूपाम्बरा के लिए श्री महाराज ने ब्रह्माण्ड घाट पर नया महल बनवा दिया है । वे वहीं रहती है । भिक्षु कितने दु:ख की बात है कि जहां बौद्ध धर्म का ही बोलवाला था । वहाँ आज हजारों भिक्षु कारागार की कोठरियों में बंद पड़े सड़ रहे हैं ।" "तुम ठीक ही कहती हो ।" इतना कह भिक्षु ने अपने पिटकों की गठरी संभाली और चलने के लिए उद्यत होता हुआ बोला–"अच्छा प्रिय, अब चलूँ । अन्यथा संध्या होने पर तो राह ढूंढ़ना भी कठिन हो जायेगा ।" इतना कह उसने भिक्षुणी से विदा ली । भिक्षु तीव्रगति से सुनसान रास्तों को पार करते हुए गोकुल घाट की ओर बढ़ रहा था । उसका मन कहता मथुरा का कोषामात्य अवश्य उसकी राह देख रहा होगा । वह विचारों के तर्कजाल में उलझा गोकुल घाट पहुँचा । घाट पर खड़े साधु वेशधारी शंकर स्वामी ने भिक्षु को तुरंत पहचान लिया और बोला–'वत्स, शीघ्रता करो । नौका में सवार होकर अपना ये भेष भी बदल डालो । सन्यासी भेष धारण कर लो । क्यूंकि इस तरह तो शीघ्र पकड़े जायेंगे ।" कोषामात्य की बातों का भिक्षु ने कोई विरोध नहीं किया और उसके आदेशों का पालन कर वह निश्चिन्त हो नौका में बैठ रूप महल की ओर देखने लगा । संध्या की लालिमा गेरू के समान गाढ़ी हो चली थी और भिक्षु को शंकर स्वामी बताता जा रहा था–"रानी रूपाम्बरा की व्यथा ना ही कुरेदो वही अच्छा है । प्रणय की आहुति देकर न जाने लोग कैसे जी लेते हैं । रूपम्बरा का प्रेमी कलाकार जाने कहां अपनी तूलिका और रंगो से मनवांछित रेखाओं में रंग भरने में व्यस्त होगा ? उसे पता भी न होगा कि उसकी प्रेयसी आज भी उसकी प्रतीक्षा में पलकें बिछायें बैठी होगी और वह कलाकार...।" "क्या हुआ उसे ?" भिक्षु चौंककर बोला । लेकिन शंकर स्वामी अपनी ही तरंग में था सो बिना किसी संदेह के कहता गया–"मित्र, मथुरा का राज्य पलटना इतना ही सरल होता तो अब तक जाने क्या–क्या हो गया होता । महामात्य शीलभद्र की घ्राण शक्ति सौ योजन तक शत्रु का पीछा नहीं छोड़ती । वह देखने में सौम्य व बोलने में मृदुभाषी है । परंतु राजनीति का महापंडित है । वे बातें ही करते रहते यदि मल्लाह ने नाव ब्रह्माण्ड घाट पर न रोक दी होती । शंकर स्वामी अपने साथी को लेकर नाव से उतर एक ओर चल दिए । चलते–चलते वे रूप–महल पर जा पहुंचे । रूपमहल में सांध्य दीप जगमगा रहे थे । रानी रूपाम्बरा अपनी क्षीण काया पर नीला परिधान पहने बैठी थी । उसे देख ऐसा लगता मानों पूर्णिमा का चांद आकाश पर उदित हो गया हो । वह गुमसुम–सी कक्ष में लगे चित्रों में खोई हुई थी । वह कृति के माध्यम से कर्ता तक पहुंचने का प्रयास कर रही थी कि तभी दासी चम्पा ने प्रवेश किया । चम्पा को आया देख रूपाम्बरा ने कारण जानना चाहा तो वह बोली–"क्या कहूं ? द्वार पर दो सन्यासी खड़े है, जाने को कहती हूं तो जाते नहीं, भिक्षा के लिए कहा तो मना कर दिया ।" "फिर क्या चाहते है ?" "कहते हैं–रानी जी से कहो कि वे उनके जन्मस्थान से आये हैं और वे उन्हीं को आशीष देना चाहते हैं ।" कह चम्पा अगले आदेश की प्रतीक्षा करने लगी । रूपाम्बरा सुनकर पहले तो कुछ सोचती रही फिर बोली–"ठीक है । जब वे नहीं मानते तो उनके अभिवादन का उचित प्रबंध करो ।" "जो आज्ञा ।" कह चम्पा चली गई । कुछ देर पश्चात् जब वह दोनों सन्यासियों को लेकर आई तो अतिथि सत्कार को रूपाम्बरा स्वयं उठी ओर उनका स्वागत कर आसन ग्रहण करने की प्रार्थना करने लगी । उसकी समय शंकर स्वामी के अंदर संकोच को देख रूपाम्बरा ने क्षण भर को ध्यान से देखा तो धीरे से बोली–"आसन ग्रहण करें । कहिये, आज इस अभागिनी पर कैसे कृपा की ?" शंकर स्वामी अपने पहचाने जाने के भय से घबराया पुन: हाथ जोड़कर बोला–"आप तो जानती ही हैं कि शीलभद्र का संदेह बढ़ता ही जा रहा है, यहां तक कि वह अब मुझे भी संदेह की दृष्टि से देखने लगा है, फिर भी मैं अपने विश्वास पर अडिग हूं । आज आप और आपके महल पर भी गुप्तचरों का जाल फैला दिया है तो आपको सावधान करना अपना कर्त्तव्य समझ चला आया । आप साथ पधारे सन्यासी पर पूर्ण विश्वास करें ।" "धन्यवाद । कोषामात्य ।" कह रूपाम्बरा साथ आये सन्यासी की ओर तीक्ष्ण दृष्टि से देखते हुए बोली–"मैं इन सब बातों पर विश्वास नहीं करती तथागत जो भी करेंगे अच्छा ही करेंगे । आप अपने साथी का परिचय दें और अपने आने का प्रयोजन स्पष्ट करें ।" "आप जैसी विदुषी से क्या छिपा है, परंतु इसके लिए एकांत आवश्यक है । आप बातें करें और मुझे जाने की आज्ञा प्रदान करें ।" कह कोषामात्य ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और चल दिया । रूपाम्बरा ने अपने पास खड़ी सभी दासियों को चले जाने का संकेत किया तो वे सब चली गईं । उधर सन्यासी ने भी विलंब करना उचित न समझा और बोला –"देवी क्षमा करें, आपकी भाग्य रेखाएं स्पष्ट कह रही हैं कि आपको यहां की महारानी होना चाहिए ।" "और ?" "आपका हृदय वैराग्य और विरक्ति की ओर अग्रसित हो चुका है । आपके भीतर अतीत का संकल्प अलाव की तरह धधक रहा है । मैं आपको यही कहने आया हूं कि जिसने आपकी दुनिया उजाड़ी है, जिसने आपके सपनों को टुकडे़– टुकडे़ कर डाला है, आप उससे संघर्ष करें । अपने अस्तित्व को पहचानें । अपने दिए हुए वचनों का....।" "बस कीजिये ।" रूपाम्बरा ने उसे रोकना चाहा परंतु अतिथि सन्यासी कहता ही गया–"क्षमा करें, मैं वैष्णव नहीं हूं ।" "फिर यह भेष बदलने की क्या आवश्यकता आ गई ?" "इसके अलावा आप तक पहुंचने का और कोई विकल्प भी न था । अपराध क्षमा हो, सुना है श्री महाराज आपके पास आते तक नहीं ?" "मैं स्वयं नहीं चाहती कि वे यहां आयें । वे धन्य हैं, जिस दिन वे मुझे यहां लाए थे उस दिन से आज तक वे बिना बुलायें यहां कभी ना तो आये ही, न ही मेरे सम्मान को कभी ठेस ही पहुंचाई । परंतु इन सब बातों से आपको क्या मलतब ?" रूपाम्बरा की बातें सुन सन्यासी ने अपनी जटा–जूट उतार दी और बोला–"मतलब है रूपा...।" अपना आधा नाम सुन रूपाम्बरा चौंक पड़ी । उसने देखा तो उसकी चीख–सी निकल गई ।" "दिवाकर तुम ?" "हां प्राण । तुम्हारा दिवाकर, जो अब अहमद के नाम से जाना जाता है ।" "नहीं । ऐसा मत कहो । कह दो, यह झूठ है ।" रूपाम्बरा आगे कुछ न कह सकी उसकी वाणी अवरूद्ध हो गई । उसने चाहा कि उठकर अपने दिवाकर को गले लगा ले परंतु वह उठ न सकी । उसकी इस दशा को देख दिवाकर भी द्रवित हो उठा और बोला–"अब यही सच है । मुझे मेरे ही नाम रूपात्मक भेद ने हिन्दू से यवन बनने पर बाध्य कर दिया और मैंने भी तुम्हें पाने के लिए सब कुछ स्वीकार कर लिया ।" "प्राण तुम हो, मेरे लिए इससे बढ़कर क्या हो सकता है । मेरे कलाकार यदि इस यवन का धर्म अपने पीछे अत्याचार और बलात्कार के ही उपदेश छोड़ना हो तो तुम उसे स्वीकार करोगे ?" "रूपा, तुमने मुझे अनगिनत चित्रों के भाव और रंग दिए है । मेरी कला को प्राण दिए हैं, परंतु तुम्हारा वह कलाकार कब का मर चुका है । अब उस कलाकार में प्रतिशोध का भाव है क्योंकि वह तुम्हारे बिना जीवित न रह पायेगा और इस कारण ही उसने यवन की हर शर्त स्वीकार कर ली । आज यवनों की फौज मुझे इज्जत देती है । मेरा हुक्म मानती है । "छि:, आर्य होकर ये बातें तुम्हें शोभा भी नहीं देती । तुम अहमद हो गए तो क्या अपनी रूपा को भूल पाये ?" कहते–कहते रूपाम्बरा सिसक उठी । दिवाकर ने उठकर उसका सर अपने वक्ष से लगा लिया । एक विस्मृत अंतराल के बाद रूपा का मन पुन: पुरानी स्मृतियों में डूब गया । परंतु महलों की बन्दिनी को इतनी स्वतंत्रता कहां कि वह अपने प्रिय के साथ दो क्षण भी बिता सके । वह वक्ष से हटकर आंखे पोंछते हुए संयत हो उठी और बोली– "ठीक है प्रिय । आज तुम्हारी रूपा के लिए यही सब कुछ है, मैं इसी में सुखी हूं कि तुम हो । कितने बदल गए हो दिवा...।" "नहीं रूपा नहीं । राजा कुलचन्द्र ने मेरे साथ विश्वासघात किया है । मुझसे तुम्हें छीन लिया और मुझे दर–दर का भिखारी बना दिया ।" "इसके लिये तुम अकेले कुछ नहीं कर सकोंगे । तुम स्वयं से ही पूछो कि इस आर्यावर्त के प्रति जो तुम्हारा अपनत्व है, वह कभी मिट सका है । तुम यह भी नहीं समझ रहे कि शत्रु के हाथ सबल बनाकर तुम मातृभूमि के साथ महापाप कर रहे हो ।" "तुम इसे पाप कहती हो ?" "और नहीं तो क्या ? तुम उस लुटेरे यवन के गुप्तचर बनकर आये हो और यही चाहते हो न दिवाकर की प्रेयसी उसे यहां की सारी गुप्त सूचनाएं दे दे ?" "हाँ ।" "धिक्कार है तुम्हे प्रिय । अपनी रूपा से ऐसी आशा न करो ।" "लेकिन मैंने प्रतिज्ञा की है कि मथुरा का विध्वंस कराकर ही रहूंगा ।" कहते हुए दिवाकर का चेहरा क्रोध से तमतमा उठा । वे कुछ और बातें करते कि चम्पा ने क्षमा मांगते हुए प्रवेश किया । उसने धीरे से रूपाम्बरा को बताया कि सेनापति सोमदेव कुछ घुड़सवारों को लिए इधर आ रहे हैं तो रूपाम्बरा घबड़ा उठी और तेजी से उठकर बोली" आओ दिवाकर, शीध्रता करो । अवश्य महामात्य तक तुम्हारे यहां होने का समाचार पहुंच चुका है । तुम्हें यह स्थान शीघ्र छोड़ देना चाहिए । मैं एक ऐसे मार्ग पर तुम्हे छुड़वा देती हूं जहां से तुम इस राज्य की सीमा से बाहर होंगे ।" इतना कह रूपाम्बरा ने दिवाकर को साथ लिया और गुप्तद्वार की ओर बढ़ दी । जाते–जाते दिवाकर बोला–"अच्छा प्रिय, जा रहा हूं । परंतु एक दिन तुम्हे लेने अवश्य आऊंगा ।" रूपाम्बरा ने तुरंत द्वार को बंद कर दिया और अपने कक्ष में आकर सारी व्यवस्था ठीक कर सोमदेव की आने की प्रतिक्षा करने लगी । उधर महामात्य शीलभद्र कुछ और ही सोच रहे थे ।


टीका टिप्पणी और संदर्भ