जय केशव 4

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जय केशव ऐतिहासिक उपन्यास-लेखक, श्री सत्येन्दु याज्ञवल्क्य

महामात्य शीलभद्र जो भगवान श्रीकृष्ण का अनन्य भक्त था । वह निष्काम, निस्वार्थ राज भक्त होने के साथ–साथ अपने उत्तरदायित्व के निर्वाह में सदैव सजग रहने वाला व्यक्ति था। वह एक ओर राजनीति पर नियंत्रण रखता था, तो दूसरी ओर भगवान केशव की जन्म–स्थली की महानता को बनाये रखता था । महाराज कुलचन्द्र के दोनों छोटे भाईयों सेनापति सोमदेव और विजयपाल को स्वयं उसी ने ही युवावस्था तक इस योग्य बना दिया कि वे दोनों अपने–अपने कार्यक्षेत्र में सानी नहीं रखते थे । क्या युद्ध, क्या राजनीति वे हर पल सतर्क रहते । राजा ने स्वयं सोमदेव को सेना का सारा भार सौंप रखा था । और महामात्य की विजय पर अटूट विश्वास था । वह ब्रज के राजनीतिज्ञ थे । महामात्य अपने आवास में बड़ी देर से विचारमग्न घूम रहे थे । ग्रीवा तक घुंघराले बाल, घनी काली भवों से झांकती नीली आंखे वे उत्तरीय संभालते जाते और मन–ही–मन विजय के आने में विलम्ब के लिये चिन्तित हो उठते । परंतु कुछ क्षण ही बीते होंगे कि द्वारपाल ने विजयपाल के आने की सूचना दी । महामात्य को सुनकर एक आत्म संतोष–सा प्राप्त हुआ । विजयपाल ने आकर महामात्य का अभिवादन किया और उनके संकेत पर उन्हीं के पास बैठ गया । दीपस्तम्भ पर जल रहे दीप का प्रकाश महामात्य के भावों को, उनकी व्यग्रता को व्यक्त करने में पर्याप्त था । कुछ क्षण मौन बीतने पर भी जब महामात्य कुछ न बोले तो विजय ने चिन्ता व्यक्त करते हुए पूछा–"आज आप कुछ अनमने लग रहे हैं ? क्या कोई विशेष बात हुई है ?" "नहीं वत्स,ऐसी तो कोई बात नहीं और यहां तो नित्य ही घटनांए घटने लगी हैं । कभी–कभी तो ऐसा लगता है जैसे ब्रज से शांति कहीं दूर चली गयी हो ।" महामात्य की भाव–भंगिमा से विजय चिन्तित हो उठा । वह पिछले कुछ दिनों से राज्य की सीमाओं से लगे अंचलों का निरीक्षण कर लौट रहा था । मथुरा में पीछे क्या हुआ ? अभी उसके जानने का अवसर ही न मिला था । वह व्यग्रता से महामात्य के निकट आते हुए बोला"आप अपने विजय पर विश्वास करें । मुझे ऐसा लग रहा है जैसे आप जानबूझ कर मुझसे कुछ छिपा रहे हैं ।" "तुम सुनना ही चाहते हो तो सुनो– ' विगत युद्ध के समय महाराज जिस रूपाम्बरा का हरण करके लाए थे और जिन्हें आज रानी रूपाम्बरा का गौरव प्राप्त है उनके एक–मात्र प्रेमी कलाकार दिवाकर का नाम तो तुमने सुना ही होगा ।" "हां–हां । वही न जो प्रसिद्ध चित्रकार था । जिसे महमूद गजनबी अपने साथ गजनबी ले गया था ।" "हाँ, वही चित्रकार आज धर्म परिवर्तन कर अहमद बन गया है और यवन का गुप्तचर बनकर रानी रूपाम्बरा के यहां के गुप्त भेद लेने आया हुआ है ।" "क्या कह रहे हैं, आप ?" "यह सत्य है, वत्स...।" "परंतु भौजी से राजद्रोह की आशा नहीं की जा सकती ।" "तुम्हारा कहना सत्य ही हो, परंतु दिवाकर मुझसे छिप न सका । प्रेमी जो ठहरा । कलाकार को अपनी और यवन की सारी योजना स्पष्ट करनी ही पड़ गयी और आज उसी योजना के अनुसार अर्जुनसिंह को अहमद बनाकर यवन के पास भेज दिया है । "और दिवाकर ।" विजय सुनकर अवाक रह गया । "दिवाकर बंदीग्रह में बंद है ।" "आप धन्य हैं महामात्य । वास्तव में आप महान हैं ।" "वत्स । शीलभद्र के पास इतनी भी शक्ति न हो तो उसे पूछे ही कौन । मनुष्य का धर्म है प्रयास करना । खैर, तुम अपनी सुनाओ, सीमांचलों में कोई विशेष बात तो नहीं ?" महामात्य ने वाक्य समाप्त कर विजय की ओर देखा । विजय ने अपनी यात्रा की सारी बातें महामात्य को क्रमबद्ध बतायीं । उसने सभी जगह प्रजा को शांति से जीवन जीते हुए पाया । क्या कृषक, क्या शिल्पी, कवि और संगीतज्ञ सभी को अपने कार्यों में व्यस्त पाया । विजय की बातों से आश्वस्त हो महामात्य ने उसे विश्राम हेतु विदा कर दिया । महामात्य द्वार तक आये पुन: लौटकर वे अपने शयन कक्ष की ओर बढ़ गये । सारा आर्यावर्त विदेशी पदाक्रांताओ से छिन्न–भिन्न हो उठा था । पंजाब का राजा जयपाल अमीर की अधीनता स्वीकार कर चुका था । भटनेर का राजा सिन्ध के कछारों में जा छिपा था। सुल्तान के हाकिम अबुलफतह तक को इस यवन महमूद ने आजन्म करावास में डाल दिया था और उसकी सहायता को आये विजयपाल के बेटे आनंदपाल को शत्रुता मोल लेनी पड़ गयी, उसी वीर ने यवन को समाप्त करने की प्रतिज्ञा ली थी । लेकिन युद्ध में विजयी होते–होते ही पासा पलट गया । आनंदपाल का हाथी रण से भाग उठा । यवन बौखला उठा उसके अत्याचार और कत्लेआम से नगरकोट चीख उठा । लेकिन यवन कभी भी काश्मीर पर विजय नहीं पा सका । राज्यतंत्र का घिनौनापन अपनी चरम सीमा पर था । राज्यों में अधिकांश को अपने राज्यों की चिन्ता थी न कि समूचे राष्ट्र की और यही कारण था कि जब एक राजा युद्ध ग्रस्त होता था तो दूसरा दूर खड़ा देखता रहता ये अपने–अपने क्षेत्रीय स्वाभिमान में इतने डूबे हुए थे कि एक होकर शत्रु के सामने नहीं लड़ते सकते थे । मथुरा तीन लोक से न्यारी थी । राजा कुलचन्द्र तो योद्धा होते हुए भी युद्ध प्रिय न थे । परंतु यवन के आक्रमण पर वे चिन्तित न हो ऐसी बात न थी । वे मध्य देश गुजरात, कन्नौज, हरियाणा के मित्र राजाओं पर पूरा विश्वास करते थे और यही कहा करते–"यदुवंशियों से टकराने पर ही यवन को पता चलेगा कि युद्ध किसे कहते हैं ।" महामात्य अपने मन से एक विचार को हटाते तो दूसरा आ घेरता । वे सोने का प्रयास करते किन्तु नींद जैसे उनसे कोसों दूर हो गयी थी । पलक मूंदते तो कभी रूपाम्बरा तो कभी सुखदा की आकृति आ खड़ी होती । इसी प्रकार सारी रात्रि व्यतीत हो चली । अन्तत: वे शैया त्याग कर नित्य नियम में व्यस्त हो गये । इस प्रकार होते–होते ब्रज–बसुन्धरा बासंती परिधान पहनकर ब्रज भक्तों को आंमत्रित करने लगी । बसन्तोत्सव आते ही नगर और ग्रामवासी मथुरा में एकत्रित होने लगे । चारों ओर रजत और स्वर्ण दण्डों के आधारों पर पंडाल तान दिए गये थे । पंडालों के नीचे भांति–भाति की रंगीन पताकाएं वायु के झकोरों से सुशोभित हो रही थी । पश्चिम की ओर एक विशाल मंच बनाया गया था । मंच पर रेशमी रत्नजडि़त कालीन बिछाया गया था । सभी के बैठने के लिये सुन्दर व्यवस्था की गईं थी । एक ओर घुड़सवार प्रतियोगी खड़े थे तो दूसरी ओर हाथियों की कतार थी । उत्सव में भाग लेने वाले अपने–अपने दलों के राजकीय ध्वजों और चिन्हों को लगाये हुए थे । जगह–जगह लोग आपस में बातें कर रहे थे । कोई संगीत प्रिय था तो कोई घुड़सवारी को महत्व दे रहा था । किसी को अपनी जीत दिखाई देती तो कोई मायूस हो सुनकर आगे बढ़ जाता । रंग–बिरंगी पोशाकों में नर–नारियों की ओर से राज–गज पर सवार महाराज कुलाचन्द्र और महारानी इन्दुमती को आते देख जनमानस जय–जयकार कर उठा । वाद्य बजने लगे । राजा ने पीताम्बर पर बंसती अंगरखा धारण किया हुआ था । तो महारानी ने वेश कीमती लंहगा और ओढ़नी धारण किए हुए थे । प्रजा अपने प्रिय राजा का स्वागत कर रही थी तो मार्ग में बने भवनों के गवाक्षों से महिलायें पुष्प वर्षा कर रही थी । राजा कुलचन्द्र के साथ अनेकों अतिथि राजा भी चल रहे थे । अंततोगत्वा सभी लोगों ने व्यवस्था के अनुसार अपने–अपने स्थान गृहण कर लिये । राजगुरू ने सभी को आशीष दिया और कोलाहल को शांत करते हुए बसंतोत्सव के प्रारम्भ करने की घोषणा करते हुए संचालन हेतु महामात्य शीलभद्र को आमंत्रित किया । महामात्य ने नतमस्तक हो राजगुरू व श्री महाराज कुलचन्द्र तथा उपस्थित अतिथियों का अभिवादन किया और ब्रज के महाकवियों ने ब्रज वंदन एवं भगवान राधा–कृष्ण की वंदना प्रारम्भ की । संस्कृत की ध्वनियों से मन मुग्ध हो उठता । वंदना के पश्चात् महामात्य ने धनुर्धरों को प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया । प्रत्येक प्रत्याशी के मैदान में आते ही उसकी आँखों से पट्टी बांध दी जाती और शब्द नाद के साथ ही उसे सरसंधान करना होता । प्रत्याशी ही सफलता पर बधाइयों से आकाश गूंज उठता तो असफलता पर हंसी की लहर दौड़ जाती । प्रतियोगियों में मथुरा विश्वविद्यालय के छात्र सर्वाधिक प्रशंसा लूट रहे थे । अंत में प्रजा के विशेष आग्रह पर विजयपाल को विशिष्ट व्यक्ति के रूप में अपनी धर्नुविद्या का प्रदर्शन करने हेतु बुलाया गया । मैदान में आकर उसने सभी को प्रणाम किया । आयोजकों ने उसकी आंखों पर पट्टी बांध दी । संकेत पाते ही जैसे ही ध्वनि हुई कि पलक झपकते ही सघन वृक्ष में छिपा घड़ियाल टूक–टूक होकर पृथ्वी पर आ गिरा । साधुवाद से सारा वातावरण गूंज उठा । शब्द भेदी सरसंधान के बाद राज्य के अनेक विद्यालयों, गुरूद्वारों तथा जन प्रत्याशियों में तलवार, तेगा, खड़ग आदि की प्रतियोगिताएं चलीं । जो विजयी होता उसे एक विशेष मंडप में बैठाया जाता । सुखदा इस सब में विशेष रूचि ले रही थी । महारानी इन्दुमती और रूपाम्बरा की बातों में उसे रस नहीं मिल रहा था । वह जब कभी अवसर मिलता सोमदेव की ओर देखने लगती । उसके चेहरे पर अनेको भाव आते परंतु प्रकट न होने देती । वह कहीं अपने विचारों में खो रही थी कि तभी भीड़ में कोलाहाल हुआ । लोग मल्ल विद्या की प्रतियोगिताओं को देखने के लिये उमड़ रहे थे । संध्या होने में समय शेष था । महामात्य शेष बचे समय में इस प्रतियोगिता को भी करा लेना चाहते थे। बलिष्ट शरीरधारी मल्लों ने अपने गुरूओं के साथ अखाड़े के पास आकर स्थान ग्रहण किया । अखाड़े पर निर्णायक के उपस्थित होते ही प्रतियोगिता के लिए नाम पुकारे जाने लगे । मथुरा का नवोदित मल्ल धरती मां को प्रणाम कर गुरू चरणों का स्पर्श कर ज्योंही अखाड़े पर पहुंचता कि उसका शरीर सौष्ठव देखते ही बनता । मल्ल कला के दाव-पेंच और उनकी सूक्ष्म बारीकियों को देख–देख प्रजा आल्हादित हो उठती । अतिथिगण भी साधुवाद दिये बिना न रहते । प्रजा में शीघ्र बड़ी कुश्ती देखने के लिये आवाजें उठने लगी । तो आयोजकों ने राज्य के सर्वश्रेष्ठ मल्ल चिरौंटा को अखाडे़ में उतारा । चिरौंटा के अखाड़े में खड़े होते ही तालियों की गड़गड़ाहट से सारा वातावरण गूंज उठा । निर्णायक चिरौंटा का हाथ पकड़ चुनौती लिये अखाड़े के चक्कर लगाने लगा लेकिन उससे लड़ने का साहस कोई न कर पा रहा था । अखाड़े के नीचे बैठा एक वृद्ध मधुबन के धूरिया से कह रहा था– "धूरिया उठ, जाये क्यों न ।" "अरे दादा की बात जा भीम ते भिड़कें मरनों ऐ का ?" धूरिया सकुचायों तो वृद्ध बोला– "अरे बेटा देखत कोई ऐ मधुवन कौ नाम च्यों डुबाबै ।" अंततोगत्वा वृद्ध ने धूरिया को तैयार कर ही लिया । धूरिया ने तुरतं जांघिया कसा और कपड़े उतार वहीं उसने दस–पंद्रह बैठक मारी और शरीर झटककर एक ही छलांग में अखाड़े पर चढ़ गया । चारों ओर करतल ध्वनि होने लगी । पहले तो धूरिया ने अखाड़े को प्रणाम किया फिर मिट्टी लेकर भालपर लगायी पुन: चिरौंटा से हाथ मिलाया । कुछ ही पल बाद दोनों पहलवान एक–दूसरे से भिड़ गये । दाव बचाकर चिरौंटा ने एक ही धूम दी कि धूरिया ने बैठक लेकर मुज्जा पकड़ लिया और चिरौंटा को नीचे लेकर टंगड़ी डाल ली । दोनों ही कम नहीं पड़ रहे थे । आधा घंटा बीत गया, परंत धूरिया ने दाहिनी बाजू के नीचे होकर चिरौंटा की कलाई पकड़ ली, और एक पलटा दिया परंतु चिरौंटा उछल कर खड़ा हो गया । कोई निर्णय नहीं हो पा रहा था । यूं चिरौंटा की दम पस्त हो गयी थीं । वह दम साधकर पूरी शक्ति से धूरिया पर टूटा तो कलाजंग के दांव से धूरिया ने उसे ऐसा फेंका कि चिरौंटा चारों कोने चित्त गिरा । अब तो प्रवासियों ने धूरिया को कंधों पर उठा लिया । इस तरह संध्या से पहले ही बसंतोत्सव समाप्त हो गया । इसके पश्चात् पुरस्कार वितरण हुआ । योग्य व्यक्तियों को सेना में स्थान दिया गया । इधर संध्या को केशव महालय पर रात्रि काव्य पाठ का सरस कार्यक्रम रखा गया । राज्य की ओर से केसरिया ठण्डाई और भांग बांटी गई । सारी रात्रि ब्रज के गांव–गांव और नगरों में गीत संगीत, और हास–परिहास के कार्य क्रम चलते रहे । एक सप्ताह तक ये कार्यक्रम चलते रहे और फिर एक दिन राजगुरू के आदेशानुसार सभी अतिथि राजाओं को एकात्रित कर सभा का आयोजन किया गया । सभा में विदेशी आक्रान्ता और ब्रज पर विचार विमर्श किया गया । बसन्तोत्सव का आनंद गंभीर हो उठा । सभी ने मथुरा में भगवान श्रीकृष्ण की जन्मस्थली की सुरक्षा की प्रतिज्ञा की । सभी ने तलवारें उठाकर संकल्प लिया । आधी रात तक यह सभा चलती रही और फिर समापन के साथ सभी अतिथि अपने आवास को विदा हो गये । प्रात: से सभी राज्यों के राजा अपने–अपने लाव-लश्कर के साथ अपने राज्यों की ओर चल दिये ।


टीका टिप्पणी और संदर्भ