जय केशव 6

ब्रज डिस्कवरी, एक मुक्त ज्ञानकोष से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.

जय केशव ऐतिहासिक उपन्यास-लेखक, श्री सत्येन्दु याज्ञवल्क्य

ब्रज में भक्ति–भावना के साथ–साथ भावी युद्ध की आशंका अब जन मानस को भी कचोटने लगी थी। राजा नित्य ही अपने आमात्यों और महामात्यों से परामर्श करने लगे थे। ऐसे ही आज भी आधी रात हो चली थी। लेकिन राजगुरु के आवास में राजा कुलचन्द्र बैठे हुए उनसे कोई गंभीर विचार–विमर्श कर रहे थे। उनका विचार था कि ब्रज की प्रजा भक्ति मार्गी है, वह युद्धमार्ग को अपनाने में सक्षम नहीं अस्तु अन्य कोई युक्ति निकालना श्रेयस्कर होगा और राजगुरु का कहना था कि ऐसी कोई युक्ति सम्भव नहीं है जो हमारे गौरव के अनुकूल हो। इस पर राजा कुलचन्द्र बोले–"क्या किसी व्यक्ति को यवन के पास भेजा जाय ?" "किसलिये ? क्या यह भीख मांगने के लिए कि वह हमारे ऊपर दया कर दे और हमें छोड़ दे ? यह असंभव है राजन्। विचारवान बनो और चुनौती का सामना करने के लिये पूर्वजों की भांति युद्ध स्वीकार करो। यह माना कि सांसारिकता में व्यक्ति मोह से मुक्त नहीं होता परंतु क्षत्रिय कुल ही युद्ध से भागने लगा तो फिर हमारे धर्म और संस्कृति की रक्षा कौन करेगा ?" "लेकिन गुरुदेव। आपसे राज्य की स्थिति छिपी नहीं है ,यहां दिन–प्रतिदिन जो लोग षड्यंत्र कर रहे हैं। वे अवश्य ही अपने क्षुद्र स्वार्थ हेतु शत्रु को सहायता पहुंचायेंगे।" "यह सच है। राजतंत्र में यह कोई नवीन बात भी नहीं है। धैर्य और साहस के साथ उठो और फिर तुम्हारे साथ तो साक्षात् शक्तिरूपा राजमहिषी है। उनको सारी प्रजा रानी मां कहकर सम्मान देती है। वे चाहें तो क्या नहीं कर सकती। मेरे विचार से हताशा को त्याग भगवान केशव से ही प्रार्थना करो कि वे तुम्हें धर्मरक्षण हेतु साहस–बल और साधन उपलब्ध करायें।" "आपकी आज्ञा ही मेरे लिये सब कुछ है।" राजा कुलचन्द्र और राजगुरु दोनों इसी तरह बातें कर रहे थे। उधर आकाश पर निशाकर पश्चिम दिशा की ओर बढ़ा चला जा रहा था। यमुना के शांत जल में उस पार घाट किनारे खड़ी एक नौका पर वीणा के स्वर लहरों के साथ बह–बहकर वातावरण को और ही मनोहारी बना रहे थे। वीणा वादक की उंगलियां इस गति से चल रही थीं कि कब कौन–सी किस तार को छू रही है कहना दूभर था। सामने बैठी महिला सुनते–सुनते द्रवित हो उठी थी। लेकिन वह किसी भी प्रकार से वीणा वादक का ध्यान भंग नहीं करना चाहती थी। परंतु अंतर्मन की पीर अधरों से अपने आप ही फूट पड़ी। उसके मुंह से आह निकल ही गयी और आह के निकलते ही वीणा–वादक रूक गया–"दिव्या क्या हुआ ? तुम्हारी आंखों में आँसू ?" उसने उठकर आंसू पोंछना चाहा तो दिव्या रोकते हुए बोली– "नहीं आर्य नहीं। मुझे मत छुओ। मुझ मत छुओ ?" कहते–कहते दिव्या सिसक उठी। "दिव्या। कभी–कभी तो तुम्हें देख ऐसा मन कर उठता है कि इस राज्य को छोड़ कहीं दूर चला जाऊं।" कहते हुए सेनापति सोमदेव ने उंगली से मिजराव उतारकर अपनी वीणा एक ओर सरका दी। उसकी बात सुनकर दिव्या ने आंसू पोंछ डाले और संयत होकर सोम की ओर देखने लगी। "आर्य। सचमुच तुम्हारे स्वरों में दिव्यता है।" "कला की नित्यता ही तो दिव्या है।" "यह अपनी महानता है, प्रिय।" "मुझ पर विश्वास करो, प्रिय। मुझे अपना समझो, मैं वचन देता हूं तुम जैसा कहोगी मैं वैसा ही करूंगा।" "आर्य,ऐसी तो कोई बात नहीं है। प्रेम तो भावनाओं की साम्यता ही खोजता है और जब उसे वह सत्यता अपने प्रिय में प्राप्त हो जाती है तो फिर उसे युग–युगों तक का अतीत आभासित हो उठता है। बस उस सुख का बिछोह हृदय को भावुक बना देता है।" "तुम बुरा न मानो तो तुम मेरे साथ महलों में चलकर ही रहो।" "नहीं प्राण, ऐसा न कहो। जब से क्षत्रियों ने कंगन पहन लिये है। मथुरा की झोंपड़ी की बात तो जाने दीजिये महल भी सुरक्षित नहीं रहे। नारी का अस्तित्व क्षत–विक्षत होता जा रहा है।" "मैं समझा नहीं ?" दिव्या की बात पर सोम कुछ उत्तेजित हुआ तो दिव्या जमुना में प्रतिबिम्बित निशाकर की ओर देख कहने लगी। "आप समझ भी कैसे पायेंगे। रात दिन अनुरागी भावनाओं में डूबा मन उस ओर ध्यान भी कैसे दे सकता है। श्री महाराज युद्ध नहीं चाहते। रानी मां को क्षत्राणी का गौरव प्राप्त होते हुए भी मार्ग–दर्शन करने का अवसर नहीं । आर्य उत्तेजित न हो परंतु वह यवन अवश्य ही युद्ध करेगा।" "यह तो तुम सत्य कह रही हो।" "केवल सेना के बल पर विजय प्राप्त करना असम्भव है और फिर वह सेना जिसने पिछले कई वर्षों से युद्ध का अभ्यास तक नहीं किया है। जिसके पास बल तो है अनुभव नहीं है। जबकि यह युद्ध केवल सैनिकों तक सीमित न रहकर एक संस्कृति द्वारा दूसरी संस्कृति के विनाश तक होगा।" कहते–कहते उसकी श्वास तीव्र हो उठी। सोम चाहकर भी बोलने का साहस तक न कर पा रहा था। वह कुछ क्षण् मौन रहा, पुन: साहस कर बोला– "तुम्हारा कहना अकाट्य सत्य है। तुम्हारा एक–एक शब्द मेरे अंतराल में आत्मसात हो उठा है। मैं तुम्हें वचन देता हूं कि यदि उस लुटेरे ने हमारी संस्कृति को नष्ट करने की चेष्टा की, यदि उसने हमारी कला–धर्म और दर्शन का स्वरूप बदलने का विचार किया तो तुम्हारा सेनापति सोम उससे पूर्व यवन को सदा–सदा के लिये नष्ट कर देगा। लेकिन तुम वचन दो कि तुम कभी भी मुझसे दूर नहीं रहोगी।" "दिव्या जिसे जन्म–जन्म से प्रेम करती आ रही हो उससे दूर होना तो दूर इस प्रकार की कल्पना तक नहीं कर सकती। मैं वचन देती हूँ।" इतना कह दिव्या उठकर खड़ी हो गयी। कुछ ही पल में नाव घाट किनारे जा लगी और दो प्रिय हृदय एक–दूसरे से विदा हो गए। प्रात: सोमदेव रानी मां से जाकर मिला तो इन्दुमती ने उसके मनोभावों में परिवर्तन का कारण जानना चाहा और उस समय सोमदेव कुछ भी छिपा न पाया। अत: उसने सारी बातें महारानी इन्दुमती को विस्तार सहित बता डाली। इन्दुमती ने सारी बातें गम्भीरता से सुनीं और सुनकर बोली–"वत्स प्रजा ही राजा की सच्ची मार्गदर्शक होती है। प्रजा कभी भी सुख–विहीन नहीं होती। तुम्हारी बातें सुन–सुन कर तो मुझे भी दिव्या से स्नेह हो चला है। मैं उसकी भावनाओं को समझ रही हूं। हम सभी को उस यवन की अभिलाषा को सदैव के लिए समाप्त करने का प्रयास करना होगा।" इतना कह महारानी ने सोम को विदा किया और स्वयं योगमाया के मंदिर की ओर चल दी।

टीका टिप्पणी और संदर्भ