जय केशव 7

ब्रज डिस्कवरी, एक मुक्त ज्ञानकोष से
Govind (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित १०:०३, २९ जुलाई २०११ का अवतरण (नया पन्ना: {{जय केशव}} समय बीतते देर नहीं लगती । समस्त राजपरिवार कुटुम्बी और र…)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

जय केशव ऐतिहासिक उपन्यास-लेखक, श्री सत्येन्दु याज्ञवल्क्य

समय बीतते देर नहीं लगती । समस्त राजपरिवार कुटुम्बी और राजकर्मचारियों में एक विशेष प्रकार की चहल-पहल दिखाई देने लगी । हर व्यक्ति के मुख पर एक ओर उदासी भय और आशंका की झलक दिखाई पड़ती थी तो दूसरी ओर उनमें युद्ध के प्रति उत्साह भी । इनमें विशेष कर आने वाली पूर्णिमा को भीष्म प्रतिज्ञा, महाभारत आदि नाटकों की तैयारियां तथा निकट भविष्य में दूर–दूर से आने वाले राजाओं को लेकर राजदरबार की चर्चा विशेष थी । महारानी इन्दुमती ने नारी जगत में नई चेतना जगाने का भार अपने ऊपर लिया । उन्होंने अपनी समस्त सेविकाओं और इच्छित ब्रजांगनाओं को घुड़सवारी तथा युद्धास्त्रों के संचालन आदि का प्रशिक्षण प्रारम्भ कर दिया । जिन ललनाओं के कंगन नृत्य आयोजनों पर मुद्राएं बनाते समय ढ़ोल मृदंगों की थाप के अभ्यासी थे, आज वही हाथ धीरे–धीरे तलवारों के करारे घात प्रत्याघातों में दक्षता पाने लगे थे । वे ललनायें जो बिना शिविका के घर से बाहर एक पग भी नहीं धरती थीं अब आंचल को कटि से लपेट कोसों दूर घोड़ों की पीठ पर बैठी ऊंचे–ऊंचे टीलों व नालों को पार करने लगी थीं । कृषक बालाएं जो गऊओं की टोली को साथ लिए चारागाहों में विचरण करती राधा और कृष्ण की प्रेम लीलाएं गाती न थकती थीं । वे सब हैबासियों की स्त्रियों से सर–संधान सीख रही थी । अचानक इस तरह का परिर्वतन देख पूजापाठी ब्राह्मणों ने बहुत से आक्षेप लगाना आरम्भ कर दिया । बौद्धों ने विहारों से बाहर निकलना बंद कर दिया । उधर यह सब आरम्भ हो चुका था । इधर शीलभद्र ने शंकर स्वामी को हरियाणा के तोमर राजा के पास निमंत्रण लेकर भेजा और अर्जुनसिंह को साथ कर दिया । शीलभद्र अर्जुनसिंह को सारी योजना से अवगत करा चुका था । अस्तु जैसे ही शनीचरा के घने जंगलो में होकर शंकर स्वामी निकला कि अर्जुन सिंह ने उस देशद्रोही को सदा के लिए तलवार के घाट उतार दिया । अर्जुनसिंह तोमर नरेश से मिलकर विजयपाल से पहले बरन के राजा हरदत्त से जा मिला । फिर विजयपाल और वे दोनों ही विश्वासी सफलता प्राप्त कर पश्चिम की ओर मुड़ गए । मथुरा की पश्चिमी सीमाओं पर चौहानों का राज्य था । अस्तु विजयपाल और अर्जुन सिंह बिना किसी विश्राम के सीधे अजमेर की ओर लम्बे रास्ते पर चल दिए । इधर सोमदेव दक्षिण की ओर गया और उसने चंदेल राजाओं को ब्रजभूमि पर आये संकट से अवगत कराया व महाराज का पत्र देकर उन्हें ब्रज में एकत्रित होने के लिए आमंत्रित किया । राजगुरू ब्रह्मदेव ने अपने कई शिष्यों को सुदूर तक्षशिला, पाटण और भरूकक्ष की ओर भेजा । दक्षिणवर्ती चन्देलों का प्रमुख वीर राजा गण्डदेव ब्रह्मदेव के शिष्यों में से बहुत ही विद्वान और रणबाँकुरा था । सभी ओर से सफलता के आसार दिखाई पड़ रहे थे । परंतु नन्द दुर्ग में अभी भी तक उदासी–सी छाई हुई थी । मंत्रणागृह में बैठे थे राजगुरू, महामात्य, राजा कुलचन्द्र और उन्हीं के मध्य एक आसन खाली पड़ा था । वह किसके लिए खाली था ? कहा नहीं जा सकता । परंतु तभी महामात्य ने आग्रह किया–"क्या यह संभव नहीं कि मैं स्वयं कन्नौज जाऊं और राज्यपाल को सारी स्थिति से अवगत कराऊँ ?" "नहीं, यह नहीं होगा । आपको भेजकर हम निहत्थे हो जायेंगे ।" ये शब्द द्वार से सुनाई दिए जो महारानी इन्दुमती के थे । वह हंसा और सुखदा के कंधों पर हाथ रखकर आ रही थी । राजगुरू को देखकर इन्दुमती ने दोनों हाथ जोड़ने का प्रयास किया । परंतु वह नित्य की भांति प्रसन्न दिखाई नहीं दे ही थी । उनका मन कुछ खिन्न था । वृद्ध पुरूष ने एक बार इन्दुमती की ओर देखा और झट से उठ बैठे–ये क्या....?' वे कुछ और कहते कि इन्दुमी हंसने का प्रयास करती हुई बोलीं–"नहीं पूज्यवर, अस्वस्थता कहां है ? मैं पूर्ण–रूपेण स्वस्थ हूं ।" कहने को तो उसने कह दिया परंतु उसकी रूग्णता छिपी न रही । साथ ही महाराज कुलचन्द्र भी उठ आये । मौसम बदल रहा था । चारों ओर घटाएं उमड़ रही थीं । शीत वायु के थपेड़ों से गवाक्षों की झालरें बुरी तरह कांप रही थी । सेवक को आज्ञा देकर महाराज ने सभी गवाक्ष बंद करा दिए और स्वयं रानी के पास पहुँच–कर हंसा से बोले –"हंसा तू जा और जाकर राज–बैद्य को बुलाकर ला..।" "श्री महारा....ज....?" "आज्ञा पालन हो ।" हंसा कुछ कहना चाहती थी । परंतु कुछ न कह सकी । दासी जो थी परंतु वह हंस रही थी और बाहर आकर एक सेवक को रथ लेकर राजवैद्य को तुरंत बुलाकर लाने की कहकर वह चली आयी । सुखदा अब भी इन्दुमती के साथ थी । उसने अंगूरी परिधान शरीर पर धारण कर रखे थे । उसके केशों की लटें उसके दाहिने कपोल को छू रही थीं । उन्नत ललाट, धनुषाकार पतली भोंहें, शुक नासिका, कनीनिकाओं में रक्तिम डोरिया देख शीलभद्र रूप की प्रशंसा में नतमस्तक हो गया । थोड़ी देर को उसकी आंखे बंद हो गई और वह पुन: किन्ही विचारों में डूबा परंतु तभी उसके मुंह से निकला–"नहीं ऐसा नहीं हो सकता ।" यह शब्द शीलभद्र के मुंह से क्यों निकले ? क्या उसने सुखदा के प्रति कोई सम्बन्ध स्थापित करना चाहा ? या उस पर कोई संदेह ? यह वह स्वयं जाने, परंतु अब तक सभी लोग महारानी इन्दुमती के शयनकक्ष के समक्ष खड़े वैद्यराज की प्रतीक्षा कर रहे थे । वैद्य वाचस्पति को गुणी पुरूष गुणी जी कहकर पुकारा करते थे । वास्तविकता तो यह थी कि माता में वैद्यराज की आंख जाती रही थी । फिर काला रंग उस पर बड़ी माता के रन से मुखाकृति अजीब–सी हो रही थी । उन्हें दरबार के सभी सभासद गुणी जी कहकर सम्मानित करते थे । वैद्यजी को इस पर कोई आपत्ति भी नहीं थी । अस्तु एक रेशमी बगलबंदी ऊपर से शाल कंधे पर डाले गुणी जी रथ पर सवार हो । अंत:पुर पहुंचे । रथ पहुंचते ही सेवक उन्हें शिविका में बैठा उधर ले चले जिधर इन्दुमती लेटी हुई थी । वैद्यराज ने सभी को नमस्कार किया तभी राजगुरू बोले– "गुणी जी । महारानी का नाड़ी परीक्षण कीजिए । वे कुछ अस्वस्थ हैं ।" "जी गुरूदेव, अभी लीजिए ।" कह वैद्यराज ने अंदर जाकर नाड़ी परीक्षण किया । गुणी ने कई बार नाड़ी को पकड़ा और देखा । हंसा पास ही खड़ी अपने आंचल से मुंह दबाए मुस्कुरा रही थी । राजवैद्य खुशी के मारे उछल पड़े ।" महाराज बधाई हो । महाराज बधाई हो ।" "क्या बात है ? वैद्यराज ।" "महाराज भगवान केशव ने रानी मां को वरदान दिया है । वे मां बनने वाली हैं । सुनकर सभी में हंसी की लहर दौड़ गई । महाराज कुलचन्द्र के सुख का तो पारावार ही न था । उन्होंने शीघ्र ही महामात्य को स्वर्णदान और वस्त्रादिदान करने की आज्ञा दी । अपने कंठ से मोतियों का हार उतारकर राजवैद्य को दिया । थोड़ी–सी देर में यह समाचार चारों ओर फैल गया । नन्द दुर्ग में संगीत के स्वर गूंज उठे । आज विवाह के पंद्रह वर्ष पश्चात् मथुरा राज्य के उत्तराधिकारी की आशा बंधी थी । लेकिन राजगुरू का हृदय एक बार कांप उठा, यह भविष्यवाणी का परिणाम तो नही ?" यह सोचकर ब्रह्मदेव ने गुणी को अपनी ओर बुलाया और धीरे से बोले– "वैद्य जी, परिणाम के लिए अभी कितने दिन और प्रतिक्षा करनी पड़ेगी ?" "गुरूदेव, अभी लगभग सात माह और....।" कहते हुए गुणी मुस्कुरा उठे । पुन: अपने थैले में से कुछ जड़ी–बूटी निकाल–कर घोटने लगे । घोटते– घोटते स्वत: ही जोर से बोले–"महाराज" अब महारानी जी को विश्राम बहुत आवश्यक है । इन्हें अधिक घूमना–फिरना और चढ़ने–उतरने न दिया जाय ।" "ऐसा ही होगा, वैद्यराज ।" कह पुन: कुलचन्द्र ने महामात्य की ओर मुंह कर धीरे से कहा–"कन्नौज के बारे में आप विचार–विमर्श कर लें, फिर जो उचित समझे वैसा परामर्श दें या स्वयं ही करें ।" "ठीक है, श्री महाराज । हम एक–दो दिन में अवश्य कोई–न–कोई उपाय सोच ही लेंगे । हां आपसे एक विशेष बात कहनी थी ।"अंतिम वाक्य शीलभद्र ने धीमे और गम्भीर स्वरों में कहा । "कहो, महामात्य ।" "श्री महाराज । कन्नौज की समस्या को सुलझाने में सुखदा हमें बहुत कुछ सहायता कर सकेंगी, यदि महारानी जी एक बार उनसे मिलने की आज्ञा दे सकें तो यह उचित होगा ।" शीलभद्र कुछ कहता कि तभी सुखदा आई उसने एक दृष्टि शीलभद्र की ओर डाली फिर सिर झुकाते हुए बोली–"श्री महाराज, रानी मां ने आपको बुलाया है । इतना कह तीन पग पीछे हटकर खड़ी हो गई । राजा कुलचन्द्र ने अतिथियों से विदा ली । शीलभद्र ने जाते–जाते पुन: एक बार सुखदा की ओर देखा और चल दिया । शीलभद्र के अधरों पर आया हास्य अंधकार के अतिरिक्त और कोई न देख सका । राजगुरू और महामात्य के जाने से पूर्व ही वैद्यराज जा चुके थे । परंतु अभी भी कक्ष में हंसा और सुखदा खड़ी थी । महाराज कुलचन्द्र ज्यों ही पलंग के पास पहुंचे इन्दुमती ने उठने का प्रयास किया । परंतु पति ने पत्नी को वही विश्राम करने का अनुरोध किया–"रहने दो, तुम्हें विश्राम चाहिए । यूं ही लेटी रहो ।" "स्वामी....।" कहते हुए इन्दुमती ने अपना मुंह आँचल से ढक लिया । कुलचन्द्र ने दोनों हाथों में उसका मुंह अपनी ओर घुमाते हुए कहा–"प्रिय, आज मैं कितना प्रसन्न हूं यह कह नहीं सकता । परंतु तुमने यह सुखद समाचार दिया क्यूं नहीं ।" "अपराध क्षमा हो प्राण । लज्जावश न दे सकी ।" "यह अपराध अक्षम्य है महारानी । जिस राज्य की आंखे दिन–रात राज्य के उत्तराधिकारी की ओर लगी रहती है । जो आंखे राजकुमार को देखने के लिए व्याकुल हो रही हैं उसको तुमने पुन: जीवनदान दिया हैं । मन करता है ब्रज में जब तक शिशु का जन्म हो खुशियां मनवाऊं ।" "लेकिन यही क्या निश्चय है कि....।" "कि होने वाला राजकुमार ही हो । पर सुनो, मुझे पूरा विश्वास है कि भावी युद्ध का निर्णायक, विजय का प्रतीक अवश्य ही विजय दीप बनकर आयेगा ।" "लेकिन स्वामी, उस एक पुत्र के सुख में लाखों पुत्रों के प्रति जो कर्त्तव्य है वह...।" "आज तुमने मेरी सोयी भावनाओं में पुन: ये प्राण फूंक दिये हैं । मेरी धारणाओं को नयी शक्ति प्रदान की है । मैं आज बहुत प्रसन्न हूं । आज तुम जो मांगो वहीं दूंगा ।" "सच ?" "हां ।" "महाराज सोच लीजिए आप वचन दे रहे हैं ।" "हाँ, रानी । आज तुम जो मांगोगी वहीं दूंगा । मैं वचन देता हूं ।" "तो महाराज पहला वचन तो यह दीजिए कि हमारा राज्य छोटा होते हुए भी आपके युद्ध संचालन में विजयी हो ।" "मैं वचन देता हूँ, रानी । युद्ध का संचालन तो मेरे ही द्वारा होगा परंतु मेरे द्वारा किसी की हिंसा न होगी ।" "वाह महाराज । जब आप रणक्षेत्र में होंगे और शत्रु आप पर वार करेंगे तो क्या आप उन्हें सहते ही रहेंगे ? नहीं प्राण, अब युद्ध ने दूसरा रूप ले लिया है । अब हमें न केवल धर्म और राज्य के लिए ही युद्ध करना है । अपितु भावी सन्तति के उज्जवल भविष्य के लिए भी सोचना है ।" "तुम ठीक कहती हो । तुम जैसा कहोगी वैसा ही करूंगा और कुछ ।" "हाँ महाराजा । मेरी अंतिम प्रार्थना है कि जिस प्रकार नारी पुरूष की अर्द्धांगनी हैं । उसी प्रकार उसे युद्ध काल में भी समान अधिकार दें ।" "इन्दुमती । क्या हमारा पौरूष इतना गिर गया है। जो हमारी माता, बहनें शत्रु से जाकर टकरायें ।" "नहीं, महाराज । रणक्षेत्र में सभी पक्ष अपनी विजय की पूरी कामना लेकर चलते हैं, उस दशा में शत्रु को किसी तरह शक्तिहीन नहीं समझना चाहिए । अतीत साक्षी है कि अब तक के आक्रमणों में यवन के हाथों अबलाओं की बहुत दुर्दशा हुई है ।" "राजगुरू ठीक ही कहते थे ।" "क्या महाराज ?" "यही कि महारानी नारी नहीं वरन् साक्षात् शक्ति का अवतार है ।" वे और बात करते कि तभी इन्दुमती को पुन: पीड़ा अनुभव हुई । महाराज ने तुरंत हंसा को पुकारा । हंसा द्वार से भागकर एक–दम महारानी के पास पहुंची फिर वह एक अजीब–सा भाव लेकर हाथ जोड़कर खड़ी हो गई । कुलचन्द्र भाव समझकर वहां से चल दिए और जाते–जाते कहने लगे– "हंसा यदि मेरी आवश्यकता पड़े या कोई विशेष आवश्यकता हो तो तुम सेवक भेज देना ।" "जो आज्ञा ।" कह हंसा ने पुन: औषधि लेकर महारानी को दी । फिर महारानी के निकट बैठकर हाथ पैर दबाने लगी । धीरे–धीरे रात्रि बढ़ती गई । इन्दुमती को नींद आ गई । हंसा वहीं पंलग के सहारे बैठी–बैठी चरण दबाती रही ।


टीका टिप्पणी और संदर्भ