"सौत्रान्तिक आचार्य और कृतियाँ" के अवतरणों में अंतर

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==युक्त्यनुयायी सौत्रान्तिक==
 
==युक्त्यनुयायी सौत्रान्तिक==
 
* आचार्य दिङ्नाग के प्राय: सभी ग्रन्थ विशुद्ध प्रमाणमीमांसा से सम्बद्ध तथा स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्थ हैं। इसीलिए वे भारतीय तर्कशास्त्र के प्रवर्तक महान तार्किक माने जाते हैं। इन ग्रन्थों में जिन विषयों को आचार्य ने प्रतिपादित किया है, वे सौत्रान्तिक दर्शन सम्मत ही हैं। बाह्यार्थ की सत्ता एवं ज्ञान की साकारता को मानते हुए उन्होंने विषय का निरूपण किया है। प्रमाणसमुच्चय के अवलोकन से यह निश्चित होता है कि केवल प्रमाणफल के निरूपण के अवसर पर ही उन्होंने विज्ञानवादी दृष्टिकोण अपनाया है। प्रमाण और प्रमेयों की स्थापना उन्होंने विशेषत: सौत्रान्तिक दर्शन के अनुरूप ही की है। दिङ्नाग के इन विचारों ने सौत्रान्तिक निकाय के चिन्तन की एक अपूर्व दिशा उद्धाटित की है, जिससे उक्त निकाय के चिन्तन में नूतन परिवर्तन परिलक्षित होता है। दिङ्नाग के इस प्रयास से तत्त्वचिन्तन के क्षेत्र में तर्क विद्या की महती प्रतिष्ठा हुई और ज्ञान की परीक्षा के नए नियम विकसित हुए तथा वे नियम सभी शास्त्रीय परम्पराओं और सम्प्रदायों में मान्य हुए। वास्तव में दिङ्नाग से ही विशुद्ध तर्कशास्त्र प्रारम्भ हुआ। फलत: सौत्रान्तिक निकाय ने आगम की परिधि से बाहर निकल कर अभ्युदय और नि:श्रेयस के साधक दार्शनिक क्षेत्र में पदार्पण किया।  
 
* आचार्य दिङ्नाग के प्राय: सभी ग्रन्थ विशुद्ध प्रमाणमीमांसा से सम्बद्ध तथा स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्थ हैं। इसीलिए वे भारतीय तर्कशास्त्र के प्रवर्तक महान तार्किक माने जाते हैं। इन ग्रन्थों में जिन विषयों को आचार्य ने प्रतिपादित किया है, वे सौत्रान्तिक दर्शन सम्मत ही हैं। बाह्यार्थ की सत्ता एवं ज्ञान की साकारता को मानते हुए उन्होंने विषय का निरूपण किया है। प्रमाणसमुच्चय के अवलोकन से यह निश्चित होता है कि केवल प्रमाणफल के निरूपण के अवसर पर ही उन्होंने विज्ञानवादी दृष्टिकोण अपनाया है। प्रमाण और प्रमेयों की स्थापना उन्होंने विशेषत: सौत्रान्तिक दर्शन के अनुरूप ही की है। दिङ्नाग के इन विचारों ने सौत्रान्तिक निकाय के चिन्तन की एक अपूर्व दिशा उद्धाटित की है, जिससे उक्त निकाय के चिन्तन में नूतन परिवर्तन परिलक्षित होता है। दिङ्नाग के इस प्रयास से तत्त्वचिन्तन के क्षेत्र में तर्क विद्या की महती प्रतिष्ठा हुई और ज्ञान की परीक्षा के नए नियम विकसित हुए तथा वे नियम सभी शास्त्रीय परम्पराओं और सम्प्रदायों में मान्य हुए। वास्तव में दिङ्नाग से ही विशुद्ध तर्कशास्त्र प्रारम्भ हुआ। फलत: सौत्रान्तिक निकाय ने आगम की परिधि से बाहर निकल कर अभ्युदय और नि:श्रेयस के साधक दार्शनिक क्षेत्र में पदार्पण किया।  
*दिङ्नाग के बाद आचार्य धर्मकीर्ति ने दिङ्नाग के ग्रन्थों में छिपे हुए गूढ़ तथ्यों का प्रकाशन करते हुए सात ग्रन्थों (सप्त प्रमाणशास्त्र) की रचना की। उन ग्रन्थों में न्यायपरमेश्वर धर्मकीर्ति ने बुद्धवचनों की नेयार्थता और नीतार्थता का विवेचन करते हुए शतसाहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता आदि प्रज्ञापारमिता सूत्रों को बुद्धवचन के रूप में प्रमाणित किया। आचार्य धर्मकीर्ति के इस सत्प्रयास से दिङ्नाग के बारे में जो मिथ्या दृष्टियाँ और भ्रम उत्पन्न हो गये थे, उनका निरास हुआ। लोग कहते थे कि दिङ्नाग ने केवल वाद-विवाद एव जय-पराजय मूलक तर्कशास्त्रों की रचना की है। उनमें मार्ग और फल का निरूपण नहीं है और ऐसे शास्त्रों की रचना करना अध्यात्म प्रधान बौद्ध धर्म के अनुयायी एक भिक्षु को शोभा नहीं देता। धर्मकीर्ति की व्याख्या की वजह से दिङ्नाग समस्त बुद्ध वचनों के उत्कृष्ट व्याख्याता और महान रथी सिद्ध हुए। साथ ही, सौत्रान्तिकों की दार्शनिक परम्परा का नया आयाम प्रकाशित हुआ। फलत: इन दोनों के बाद सौत्रान्तिक दर्शन के जो भी आचार्य उत्पन्न हुए, वे सब 'युक्ति-अनुयायी सौत्रान्तिक' कहलाए। इसी परम्परा में आगे चलकर प्रसिद्ध सौत्रान्तिक आचार्य शुभगुप्त भी उत्पन्न हुए।  
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*दिङ्नाग के बाद आचार्य [[धर्मकीर्ति बौद्धाचार्य|धर्मकीर्ति]] ने दिङ्नाग के ग्रन्थों में छिपे हुए गूढ़ तथ्यों का प्रकाशन करते हुए सात ग्रन्थों (सप्त प्रमाणशास्त्र) की रचना की। उन ग्रन्थों में न्यायपरमेश्वर धर्मकीर्ति ने बुद्धवचनों की नेयार्थता और नीतार्थता का विवेचन करते हुए शतसाहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता आदि प्रज्ञापारमिता सूत्रों को बुद्धवचन के रूप में प्रमाणित किया। आचार्य धर्मकीर्ति के इस सत्प्रयास से दिङ्नाग के बारे में जो मिथ्या दृष्टियाँ और भ्रम उत्पन्न हो गये थे, उनका निरास हुआ। लोग कहते थे कि दिङ्नाग ने केवल वाद-विवाद एव जय-पराजय मूलक तर्कशास्त्रों की रचना की है। उनमें मार्ग और फल का निरूपण नहीं है और ऐसे शास्त्रों की रचना करना अध्यात्म प्रधान बौद्ध धर्म के अनुयायी एक भिक्षु को शोभा नहीं देता। धर्मकीर्ति की व्याख्या की वजह से दिङ्नाग समस्त बुद्ध वचनों के उत्कृष्ट व्याख्याता और महान रथी सिद्ध हुए। साथ ही, सौत्रान्तिकों की दार्शनिक परम्परा का नया आयाम प्रकाशित हुआ। फलत: इन दोनों के बाद सौत्रान्तिक दर्शन के जो भी आचार्य उत्पन्न हुए, वे सब 'युक्ति-अनुयायी सौत्रान्तिक' कहलाए। इसी परम्परा में आगे चलकर प्रसिद्ध सौत्रान्तिक आचार्य शुभगुप्त भी उत्पन्न हुए।  
 
*युक्ति-अनुयायी सौत्रान्तिक दर्शन-प्रस्थान के विकास में नि:सन्देह आचार्य धर्मकीर्ति का योगदान रहा है, किन्तु इसका प्राथमिक श्रेय आचार्य दिङ्नाग को जाता है। यह सही है कि प्रमाणशास्त्र और न्यायप्रक्रिया के विकास में आचार्य धर्मकीर्ति के विशिष्ट मत और मौलिक उद्भावनाएं रही हैं, किन्तु सभी पारवर्ती आचार्य और विद्वान् उन्हें दिङ्नाग के व्याख्याकार ही मानते हैं। धर्मकीर्ति द्वारा प्रणीत सभी ग्रन्थों के विषय वे ही रहे हैं, जो दिङ्नाग के प्रमाणसमुच्चय के हैं। यद्यपि धर्मकीर्ति ने प्रमाणवार्तिक के प्रथम परिच्छेद में प्रमेयव्यवस्था और प्रमाणफल की स्थापना के सन्दर्भ में विज्ञप्तिमात्रता की चर्चा की है और इस तरह विज्ञानवाद की प्रतिष्ठा की है, किन्तु इन थोड़े स्थानों को छोड़कर शेष सम्पूर्ण ग्रन्थ में सौत्रान्तिक दृष्टि से ही विषय की स्थापना की है। इसलिए आचार्य दिङ्नाग और धर्मकीर्ति यद्यपि महायान के अनुयायी हैं, फिर भी यह कहा जा सकता है कि ये दोनों सौत्रान्तिक आचार्य थे। युक्ति-अनुयायी सौत्रान्तिक दर्शनपरम्परा का स्वरूप उसके दर्शन के स्वरूप का निरूपण करते समय आगे विवेचित है।  
 
*युक्ति-अनुयायी सौत्रान्तिक दर्शन-प्रस्थान के विकास में नि:सन्देह आचार्य धर्मकीर्ति का योगदान रहा है, किन्तु इसका प्राथमिक श्रेय आचार्य दिङ्नाग को जाता है। यह सही है कि प्रमाणशास्त्र और न्यायप्रक्रिया के विकास में आचार्य धर्मकीर्ति के विशिष्ट मत और मौलिक उद्भावनाएं रही हैं, किन्तु सभी पारवर्ती आचार्य और विद्वान् उन्हें दिङ्नाग के व्याख्याकार ही मानते हैं। धर्मकीर्ति द्वारा प्रणीत सभी ग्रन्थों के विषय वे ही रहे हैं, जो दिङ्नाग के प्रमाणसमुच्चय के हैं। यद्यपि धर्मकीर्ति ने प्रमाणवार्तिक के प्रथम परिच्छेद में प्रमेयव्यवस्था और प्रमाणफल की स्थापना के सन्दर्भ में विज्ञप्तिमात्रता की चर्चा की है और इस तरह विज्ञानवाद की प्रतिष्ठा की है, किन्तु इन थोड़े स्थानों को छोड़कर शेष सम्पूर्ण ग्रन्थ में सौत्रान्तिक दृष्टि से ही विषय की स्थापना की है। इसलिए आचार्य दिङ्नाग और धर्मकीर्ति यद्यपि महायान के अनुयायी हैं, फिर भी यह कहा जा सकता है कि ये दोनों सौत्रान्तिक आचार्य थे। युक्ति-अनुयायी सौत्रान्तिक दर्शनपरम्परा का स्वरूप उसके दर्शन के स्वरूप का निरूपण करते समय आगे विवेचित है।  
 
*आचार्य धर्मकीर्ति के प्रमेय सम्बन्धी विचार आचार्य दिङ्नाग के समान ही हैं। धर्मकीर्ति द्वारा प्रणीत प्रमाणवार्तिक, प्रमाणविनिश्चय, न्यायबिन्दु, हेतुबिन्दु, सम्बन्धपरीक्षा, सन्तानन्तरसिद्धि और वादन्याय सातों प्रसिद्ध ग्रन्थ प्रमाणसमुच्चय की टीका के रूप में उपनिबद्ध हैं। यद्यपि इन ग्रन्थों में प्रमेयव्यवस्था के अवसर पर युक्ति-अनुयायी सौत्रान्तिक और युक्ति-अनुयायी विज्ञानवादियों की विचारधारा के अनुरूप तत्त्वमीमांसा की विशेष रूप से चर्चा की गई है, तथापि ये ग्रन्थ मुख्य रूप से प्रमाणमीमांसा के प्रतिपादक ही हैं।  
 
*आचार्य धर्मकीर्ति के प्रमेय सम्बन्धी विचार आचार्य दिङ्नाग के समान ही हैं। धर्मकीर्ति द्वारा प्रणीत प्रमाणवार्तिक, प्रमाणविनिश्चय, न्यायबिन्दु, हेतुबिन्दु, सम्बन्धपरीक्षा, सन्तानन्तरसिद्धि और वादन्याय सातों प्रसिद्ध ग्रन्थ प्रमाणसमुच्चय की टीका के रूप में उपनिबद्ध हैं। यद्यपि इन ग्रन्थों में प्रमेयव्यवस्था के अवसर पर युक्ति-अनुयायी सौत्रान्तिक और युक्ति-अनुयायी विज्ञानवादियों की विचारधारा के अनुरूप तत्त्वमीमांसा की विशेष रूप से चर्चा की गई है, तथापि ये ग्रन्थ मुख्य रूप से प्रमाणमीमांसा के प्रतिपादक ही हैं।  
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#दृष्टान्तपरीक्षा,  
 
#दृष्टान्तपरीक्षा,  
 
#अपोहपरीक्षा एवं  
 
#अपोहपरीक्षा एवं  
#जात्युत्तर परीक्षा। इन परिच्छेदों के विषय उनके नाम से ही प्रकट है। इनमें स्वसंवेदन प्रत्यक्ष की सुस्पष्ट स्थापना, प्रमाणद्वय का स्पष्ट निर्धारण, ज्ञान की ही प्रमाणता, साधन और दूषण का विवेचन, शब्दार्थ-विषयक चिन्तन (अपोहविचार), प्रमाण और प्रमाणफल की एकात्मकता एवं प्रसंग के स्वरूप का निर्धारण आदि विषय विशेष रूप से चर्चित हुए हैं।  
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#जात्युत्तर परीक्षा। इन परिच्छेदों के विषय उनके नाम से ही प्रकट है। इनमें स्वसंवेदन प्रत्यक्ष की सुस्पष्ट स्थापना, प्रमाणद्वय का स्पष्ट निर्धारण, ज्ञान की ही प्रमाणता, साधन और दूषण का विवेचन, शब्दार्थ-विषयक चिन्तन (अपोहविचार), प्रमाण और प्रमाणफल की एकात्मकता एवं प्रसंग के स्वरूप का निर्धारण आदि विषय विशेष रूप से चर्चित हुए हैं।
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==आचार्य शुभगुप्त==
 
==आचार्य शुभगुप्त==
 
इतिहास में इनके नाम की बहुत कम चर्चा हुई। 'कल्याणरक्षित' नाम भी ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। वस्तुत: भोट भाषा में इनके नाम का अनुवाद 'दगे-सुङ्' हुआ है। 'शुभ' शब्द का अर्थ 'कल्याण' तथा 'गुप्त' शब्द का अर्थ 'रक्षित' भी होता है। अत: नाम के ये दो पर्याय उपलब्ध होते हैं। शान्तरक्षित के तत्त्वसंग्रह की 'पंजिका' टीका में कमलशील ने 'शुभगुप्त' इस नाम का अनेकधा व्यवहार किया है। अत: यही नाम प्रामाणिक प्रतीत होता है, फिर भी इस विषय में विद्वान ही प्रमाण हैं। शुभगुप्त कहाँ उत्पन्न हुए थे, इसकी प्रामाणिक सूचना नहीं है, फिर भी इनका कश्मीर-निवासी होना अधिक संभावित है। भोटदेशीय परम्परा इस सम्भावना की पुष्टि करती है। धर्मोत्तर इनके साक्षात शिष्य थे, अत: [[तक्षशिला]] इनकी विद्याभूमि रही है। आचार्य धर्मोत्तर की कर्मभूमि कश्मीर-प्रदेश थी, ऐसा डॉ0 विद्याभूषण का मत है।  
 
इतिहास में इनके नाम की बहुत कम चर्चा हुई। 'कल्याणरक्षित' नाम भी ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। वस्तुत: भोट भाषा में इनके नाम का अनुवाद 'दगे-सुङ्' हुआ है। 'शुभ' शब्द का अर्थ 'कल्याण' तथा 'गुप्त' शब्द का अर्थ 'रक्षित' भी होता है। अत: नाम के ये दो पर्याय उपलब्ध होते हैं। शान्तरक्षित के तत्त्वसंग्रह की 'पंजिका' टीका में कमलशील ने 'शुभगुप्त' इस नाम का अनेकधा व्यवहार किया है। अत: यही नाम प्रामाणिक प्रतीत होता है, फिर भी इस विषय में विद्वान ही प्रमाण हैं। शुभगुप्त कहाँ उत्पन्न हुए थे, इसकी प्रामाणिक सूचना नहीं है, फिर भी इनका कश्मीर-निवासी होना अधिक संभावित है। भोटदेशीय परम्परा इस सम्भावना की पुष्टि करती है। धर्मोत्तर इनके साक्षात शिष्य थे, अत: [[तक्षशिला]] इनकी विद्याभूमि रही है। आचार्य धर्मोत्तर की कर्मभूमि कश्मीर-प्रदेश थी, ऐसा डॉ0 विद्याभूषण का मत है।  

१०:१०, १० फ़रवरी २०१० का अवतरण

साँचा:बौध्द दर्शन

सौत्रान्तिक आचार्य और कृतियाँ

सभी बौद्ध दार्शनिक प्रस्थान बुद्ध वचनों को ही अपने-अपने प्रस्थान के आरम्भ का मूल मानते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि विश्व के चिन्तन क्षेत्र में बुद्ध के विचारों का अपूर्व और मौलिक योगदान है। बुद्ध की परम्परा के पोषक, उन-उन दर्शन-सम्प्रदायों के प्रवर्तक आचार्यों और परवर्ती उनके अनुयायियों का महत्व भी विद्वानों से छिपा नहीं है। सौत्रान्तिक दर्शन के प्रवर्तक और प्रमुख आचार्यों का परिचय इस प्रकार हैं- बुद्ध ने अपने अनुयायियों को जो विचारों की स्वतन्त्रता प्रदान की, स्वानुभव की प्रामाणिकता पर बल दिया और किसी भी शास्त्र, शास्त्रों के वचनों को बिना परीक्षा किये ग्रहण न करने का जो उपदेश दिया, उसकी वजह से उनका शासन उनके निर्वाण के कुछ ही वर्षों के भीतर अनेक धाराओं में विकसित हो गया। अनेक प्रकार की हीनयानी और महायानी संगीतियों का आयोजन इसका प्रमाण है। दो सौ वर्षों के भीतर 18 निकाय विकसित हो गये। इस क्रम में यद्यपि सूत्रवादियों का मत प्रभावशाली और व्यापक रहा है, फिर भी जब उन्होंने देखा कि दूसरे नैकायिकों के मत बुद्ध के द्वारा साक्षात उपदेशों से दूर होते जा रहे हैं तो उन्होंने शास्त्र प्रामाण्य का निराकरण करते हुए बुद्ध के द्वारा साक्षात उपदिष्ट सूत्रों के आधार पर स्वतन्त्र निकाय के रूप में अपने मत की स्थापना की। इस प्रकार उन्होंने सूत्रों में अनेक प्रकार के प्रक्षेपों से बुद्धवचनों की रक्षा की और लोगों का ध्यान मूल बुद्ध वचनों की ओर आकृष्ट किया। प्रथम और तृतीय संगीतियों के मध्यवर्ती काल में रचित 'धम्मसंगणि', 'कथावस्थु', 'ज्ञानप्रस्थान' आदि ग्रन्थों की बुद्ध वचन के रूप में प्रामाणिकता का उन्होंने जम कर खण्डन किया। उन्होंने कहा कि ये ग्रन्थ आचार्यों द्वारा रचित शास्त्र हैं, न कि बुद्ध वचन। जबकि सर्वास्तिवादी और स्थविरवादी उन्हें बुद्धवचन मानने के पक्ष में थे।

आचार्य परम्परा

  • सामान्य रूप से आचार्य कुमारलात सौत्रान्तिक दर्शन के प्रवर्तक माने जाते हैं। तिब्बती और चीनी स्त्रोतों से भी इसकी पुष्टि होती है। किन्तु सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर प्रतीत होता है कि कुमारलात से पहले भी अनेक सौत्रान्तिक आचार्य हुए हैं। यह ज्ञात ही है कि सौत्रान्तिक मत अशोक के काल में पूर्णरूप से विद्यमान था। वसुमित्र आदि आचार्यों ने यद्यपि सौत्रान्तिक, धर्मोत्तरीय, संक्रान्तिवाद आदि का उद्गवकाल बुद्ध की तीसरी-चौथी शताब्दी माना था, किन्तु गणना पद्धति कैसी थी, यह सोचने की बात है। पालि परम्परा और सर्वास्तिवादियों के क्षुद्रक वर्ग से ज्ञात होता है कि धर्माशोक के समय सभी 18 निकाय विद्यमान थे। उन्होंने तृतीय संगीति मं प्रविष्ट अन्य मतावलम्बियों का निष्कासन सबसे पहले किया, उसके बाद संगीति आरम्भ हुई। महान अशोक सभी 18 बौद्ध निकायों के प्रति समान श्रद्धा रखता था और उनका दान-दक्षिणा आदि से सत्कार करता था। इस विवरण से यह सिद्ध होता है कि अशोक के समय सौत्रान्तिक मत सुपुष्ट था और आचार्य कुमारलात निश्चय ही अशोक से परवर्ती हैं, इसलिए अनेक आचार्य निश्चय ही कुमारलात से पहले हुए होंगे, अत: कुमारलात को ही सर्वप्रथम प्रवर्तक आचार्य मानना सन्हेह से परे नहीं है। इसमें कहीं कुछ विसंगति प्रतीत होती है।
  • सौत्रान्तिकों में दो परम्पराएं मानी जाती हैं –
  1. आगमानुयायी और
  2. युक्ति-अनुयायी।
  • आगमानुयायियों की भी दो शाखाओं का उल्लेख आचार्य भव्य के प्रज्ञाप्रदीप के भाष्यकार आवलोकितेश्वर ने अपने ग्रन्थों में किया है, यथा-क्षणभङ्गवादी और द्रव्यस्थिरवादी। किन्तु इस द्रव्यस्थिरवाद के नाममात्र को छोड़कर उनके सिद्धान्त आदि का उल्लेख वहाँ नहीं है। इस शाखा के आचार्यों का भी कहीं उल्लेख नहीं मिलता। संक्रान्तिवादी निकाय का काल ही इसका उद्गव काल है।
  • ऐसा संकेत मिलता है कि बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद तीन चार सौ वर्षों तक निकाय के साथ आचार्यों के नामों के संयोजन की प्रथा प्रचलित नहीं थी। संघनायक ही प्रमुख आचार्य हुआ करता था। संघ शासन ही प्रचलित था। आज भी स्थविरवादी और सर्वास्तिवादी परम्परा में संघ प्रमुख की प्रधानता दिखलाई पड़ती है। ऐसा ही अन्य निकायों में भी रहा होगा। सौत्रान्तिकों में भी यही परम्परा रही होगी, ऐसा अनुमान किया जा सकता है।
  • सौत्रान्तिक प्राय: सर्वास्तिवादी मण्डल में परिगणित होते हैं, क्योंकि वे उन्हीं से निकले हैं। सर्वास्तिवादियों के आचार्यों की परम्परा शास्त्रों में उपलब्ध होती है। और भी अनेक आचार्य सूचियाँ उपलब्ध होती हैं। उनमें मतभेद और विसंगतियाँ भी हैं, किन्तु इतना निश्चित है कि बुद्ध से लेकर अश्वघोष या नागार्जुन तक के आचार्य पूरे बौद्ध शासन के प्रति निष्ठावान हुआ करते थे।

आचार्य भदन्त

साक्ष्यों के आधार पर ज्ञात होता है कि सौत्रान्तिक दर्शक के आचार्यों की लम्बी परम्परा रही है। भोटदेशीय साक्ष्य के अनुसार सौत्रान्तिकों के प्रथम आचार्य कश्मीर निवासी महापण्डित महास्थविर भदन्त थे। ये कनिष्क के समकालीन थे। उस समय कश्मीर में 'सिंह' नामक राजा राज्य कर रहे थे। बौद्ध धर्म के प्रति अत्यधिक श्रद्धा के कारण वे संघ में प्रव्रजित हो गये। संघ ने उन्हें 'सुदर्शन' नाम प्रदान किया। स्मृतिमान एवं सम्प्रजन्य के साथ भावना करते हुए उन्होंने शीघ्र ही अर्हत्त्व प्राप्त कर लिया। उनके विश्रुत यश को सुनकर महाराज कनिष्क भी उनके दर्शनार्थ पहुँचा व उनसे धर्मोपदेश ग्रहण किया। उस समय कश्मीर में शूद्र या सूत्र नामक एक अत्यन्त धनाढय ब्राह्मण रहता था। उसने दीर्घकाल तक सौत्रान्तिक आचार्य भदन्त प्रमुख पाँच हजार भिक्षुओं की सत्कारपूर्वक सेवा की। यद्यपि आचार्य भदन्त कनिष्क कालीन थे, फिर भी यह घटना कनिष्क के प्रारम्भिक काल की है। बहुत समय के बाद कनिष्क के अन्तिम काल में उनकी संरक्षता में जालन्धर या कश्मीर में तृतीय संगीति (सर्वास्तिवादी सम्मत) आयोजित की गई। उसी संगीति में 'महाविभाषा' नामक बुद्धवचनों की प्रसिद्ध टीका का निर्माण हुआ। महाविभाषा शास्त्र में सौत्रान्तिक सिद्धान्तों की चर्चा के अवसर पर अनेक स्थानों पर स्थविर भदन्त के नाम का उल्लेख भी उपलब्ध होता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि स्थविर भदन्त सौत्रान्तिक दर्शन के महान आचार्य थे और कनिष्क कालीन संगीति के पूर्व विद्यमान थे।

श्रीलात

सौत्रान्तिक आचार्य परम्परा में स्थविर भदन्त के बाद काल की दृष्टि से दूसरे आचार्य श्रीलात प्रतीत होते हैं। ग्रन्थों में उनके श्रीलात, श्रीलाभ, श्रीलब्ध, श्रीरत आदि अनेक नाम उपलब्ध होते हैं। इनमें से उनका कौन नाम वास्तविक हैं, इसका निश्चय करना कठिन है। भोट-अनुवाद के अनुसार श्रीलात नाम ठीक प्रतीत होता है। 'अभिधर्म कोश भाष्य' में अनेक जगह यही नाम प्रयुक्त हुआ है। स्थविर श्रीलात से सम्बद्ध उनके जीवनवृत्त का व्यवस्थित और पर्याप्त विवरण कहीं उपलब्ध नहीं होता। बौद्ध धर्म के इतिहास ग्रन्थों में और ह्रेनसांग की भारत यात्रा के विवरण में प्रसंगवश उनके नाम का उल्लेख हुआ है। अभिधर्म कोश भाष्य और उसकी टीकाओं में सिद्धान्तों के खण्डन या मण्डन के अवसरों पर श्रीलात या श्रीलाभ के सिद्धान्तों के उद्धरण दिखलाई पड़ते हैं। इसी तरह माध्यमिक आचार्यों ने अपने ग्रन्थों मे आचार्य के नाम का उल्लेख किया है। इन सब आधारों पर स्थविर श्रीलात का जीवन वृत्तान्त संक्षेप में निम्नलिखित है:

  • आचार्य श्रीलात कश्मीर के निवासी थे। सम्भवत: तक्षशिला में आचार्य पद पर प्रतिष्ठत थे। इनके शिष्य परिवार में बहुसंख्यक श्रामणेर और भिक्षु विद्यमान थे। इन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की थी। इससे विपरीत चीनी यात्री ह्रेनसांग इनका निवास स्थान अयोध्या बतलाते हैं। उस समय अयोध्या प्रसिद्ध विद्या केन्द्र था। हो सकता है कि श्रीलात जैसे प्रसिद्ध विद्वान वहाँ भी आये हों और निवास किया हो। यह असंगत भी नहीं है, क्योंकि गान्धार देश में जन्मे आचार्य असंग और वसुबन्धु का भी विद्या क्षेत्र अयोध्या ही रहा है। अयोध्या उस समय बौद्ध और अबौद्ध सभी प्रकार के विद्वानों की समवाय-स्थली थी। ह्नेनसांग अपने यात्रा विवरण में आगे लिखते हैं कि अयोध्या से कुछ दूरी पर सम्राट अशोक द्वारा निर्मित एक संघाराम है, उसमें लगभग 200 फुट ऊँचा एक स्तूप है। उस स्तूप के समीप एक दूसरा भी भग्न (खण्डहर के रूप में) संघाराम है, जिसमें बैठकर श्रीलब्ध शास्त्री ने सौत्रान्तिक सम्प्रदाय के अनुरूप एक 'विभाषाशास्त्र' की रचना की थी। इस वृत्तान्त से बुद्ध शासन से सम्बद्ध श्रीलात के कार्यों की सूचना मिलती है। अन्य ग्रन्थों में उनके जन्मस्थान की चर्चा नहीं मिलती, किन्तु अयोध्या या मध्यप्रदेश का सर्वत्र चारिका करने वाले बौद्ध भिक्षु का विद्या क्षेत्र अयोध्या होना आश्चर्यकर नहीं है।
  • स्थविर भदन्त और श्रीलात के काल में अधिक अन्तर नहीं है। भदन्त के कुछ ही वर्षों बाद आचार्य श्रीलात का समय निर्धारित किया जा सकता है। कनिष्क के निधन के बाद उनका पुत्र सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। उसी समय नागार्जुन के गुरु विद्वन्मूर्धन्य सरहपाद, सरोरुवज्र अथवा राहुलभद्र भी विद्यमान थे। उसी समय वाराणसी में वैभाषिक आचार्य बुद्धदेव भी हजारों भिक्षुओं के साथ विराजमान थे। ये सभी आचार्य समकालिक हैं। यह वह समय था, जब सौत्रान्तिक चिन्तन पराकष्ठा को प्राप्त था। इस तरह आचार्य श्रीलात का समय हम बुद्धाब्द चतुर्थ शतक के अन्तिम भाग अथवा ईसा-पूर्व प्रथम शताब्दी में या इसके आसपास निश्चित कर सकते हैं, क्योंकि सम्राट कनिष्क के अवसान के समय इनके अस्तित्व का साक्ष्य उपलब्ध है। यही आचार्य नागार्जुन के जीवन का आदिम काल भी है।

कृतियाँ

आचार्य श्रीलात ने सौत्रान्तिक सम्मत विभाषा शास्त्र की रचना की थी। इनके अतिरिक्त भी उनकी रचनाएं सम्भावित हैं, किन्तु यह मात्र कल्पना ही है। इस समय विभाषा शास्त्र नहीं उपलब्ध है। आचार्य के कुछ विशिष्ट सिद्धान्त तथा दार्शनिक विशेषताएं 'अभिधर्म कोश भाष्य' और उसकी यशोमित्रकृत 'स्फुटार्था टीका' में उद्धरण के रूप में मिलते हैं किन्तु इतने मात्र से उनके सम्पूर्ण दर्शन का आकलन सम्भव नहीं है।

कुमारलात

बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद चौथे-पाँचवें शतक में प्राय: सभी निकाय विभिन्न स्थानों में वृद्धिंगत एवं पुष्ट होते हुए बुद्ध शासन का प्रचार-प्रसार करते दृष्टिगोचर होते हैं। दक्षिण भारत में प्राय: स्थविरों का बाहुल्य और प्राबल्य था। मथुरा से लेकर मगध पर्यन्त मध्यप्रदेश में सर्वास्तिवादियों का अधिक प्रचार था। भारत के पश्चिमी भाग में जालन्धर से लेकर कश्मीर और गन्धार पर्यन्त सर्वास्तिवादी और सौत्रान्तिकों का विशेष प्रभाव था। इसी समय आचार्य कुमारलात का जन्म हुआ। विविध ग्रन्थों में कुमारलात के नाम में कुछ-कुछ परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं, यथा- कुमारलात, कुमारलाभ, कुमारलब्ध, कुमाररत आदि। भोटदेशीय परम्परा कुमारलात का जन्मस्थान पश्चिम भारत निर्दिष्ट करती है। चीनी यात्री फाहियान और ह्रेनसांग दोनों का कहना है कि आचार्य का जन्मस्थान तक्षशिला था। ह्नेनसांग कुमारलात के बारे में निम्न विवरण प्रस्तुत करते हैं :'तक्षशिला से लगभग 12-13 'ली' की दूरी पर महाराज अशोक ने एक स्तूप का निर्माण कराया था। यह वही स्थान है, जहाँ पर बोधिसत्त्व चन्द्रप्रभ ने अपने शरीर का दान किया था। स्तूप के समीप एक संघाराम है, जो भग्नावस्था में दिखाई देता है, उसी संघाराम में कुछ भिक्षु निवास करते हैं। इसी स्थान पर बैठकर (निवास करते हुए) सौत्रान्तिक दर्शन सम्प्रदाय के अनुयायी कुमारलब्ध शास्त्री ने प्राचीन काल में कुछ ग्रन्थों की रचना की थी। अन्य इतिहासज्ञ भी तक्षशिला को आचार्य का जन्मस्थान कहते हैं'। ह्रेनसांग पुन: कहते हैं :'कुमारलात ने तक्षशिला में निवास किया। बचपन से ही वे विलक्षण प्रतिभा से सम्पन्न थे। कम उम्र में ही वे विरक्त होकर प्रव्रजित हो गये थे। उनका सारा समय पवित्र ग्रन्थों के अवलोकन में तथा अध्यात्म चिन्तन में व्यतीत होता था। वे प्रतिदिन 32000 शब्दों का स्वाध्याय और उतने ही का लेखन करते थे। अपने साथियों और सहाध्यायियों में उनकी विलक्षण योग्यता की प्राय: चर्चा होती थी। उनक कीर्ति सर्वत्र व्याप्त हो गई थी। सद्धर्म के सिद्धान्तों को उन्होंने लोक में निर्दोष निरूपित किया और अनेक विधर्मी तैर्थिकों को शास्त्रार्थ में पराजित किया। शास्त्रार्थ कला में उनके विलक्षण चातुर्य की लोक में चर्चा होती थी। शास्त्र सम्बन्धी ऐसी कोई कठिनाई नहीं थी, जिसका उचित समाधान करने में वे सक्षम न हों। सारे भारत के विभिन्न भागों से जिज्ञासु लोग उनके दर्शनार्थ आते रहते थे और उनका सम्मान करते थे। उन्होंने लगभग 20 ग्रन्थों की रचना की। ये ही सौत्रान्तिक दर्शन प्रस्थान के प्रतिष्ठापक थे'। इन विवरणों से ज्ञात होता है कि आचार्य कुमारलात पश्चिम भारत में तक्षशिला महाविहार में पण्डित पद पर प्रतिष्ठत थे। उनके अध्ययन-अध्यापन की कीर्ति विस्तृत रूप से फैली हुई थी। भोटदेशीय परम्परा भी इस मत की समर्थक है। सौत्रान्तिक दर्शन के प्रथम या प्रमुख आचार्य कौन थे? इस विषय का हमने पहले विवेचन किया है। चीनी यात्री ह्नेनसांग के मत का अनुसरण करते हुए प्राय: इतिहास-विशेषज्ञ स्थविर कुमारलात को ही सौत्रान्तिक दर्शन का प्रवर्तक निरूपित करते हैं।

कुमारलात का समय

आचार्य कुमारलात के काल के बारे में प्राय: सभी ऐतिहासिक स्त्रोत, सामग्री एवं विद्वान एक मत है कि उनका समय ईसा की प्रथम शताब्दी का पूर्वार्द्ध है। ह्नेनसांग का कहना है: पूर्व दिशा में अश्वघोष, दक्षिण में आर्यदेव, पश्चिम में नागार्जुन तथा उत्तर में कुमारलात समकालीन थे। ये चारों महापण्डित संसार-मण्डल को प्रकाशित करने वाले चार सूर्यों के समान थे कश्य-अन्टो (?) देश के राजा ने उनके गुणों और पण्डित्य से आकृष्ट होकर उनका (कुमारलात का) अपहरण कर लिया था और उनके लिए वहाँ एक संघाराम का निर्माण किया था'। इस विवरण से यह स्पष्ट है कि कुमारलात नागार्जुन के समकालिक थे। नागार्जुन के काल के बारे में भी विद्वानों में बहुत विवाद है। इस विषय की चर्चा यहाँ प्रासंगिक नहीं है, फिर भी उनका काल ईसा की प्रथम शताब्दी का पूर्वार्द्ध समीचीन प्रतीत होता है। यही कुमारलात का भी काल है और आर्यदेव का भी, क्योंकि आर्यदेव नागार्जुन के साक्षात शिष्य थे। यद्यपि कुमारलात का नाम अभिधर्मकोश से सम्बद्ध भाष्य और टीकाओं मे प्रचुर रूप से उपलब्ध होता है, महाविभाषा, जो अभिधर्मपिटक की प्राचीनतम व्याख्या है, उसमें उनके नाम की चर्चा नहीं है। उसमें स्थविर भदन्त और उनके दार्ष्टान्तिक सिद्धान्तों की चर्चा है। यदि कुमारलात महाविभाषा की रचना के पूर्व विद्यमान होते तो यह सम्भव नहीं था कि इतने महान और लोकविश्रुत महापण्डित के नाम का उल्लेख उसमें न होता। इसलिए यह निश्चय होता है कि कुमारलात महाविभाषा शास्त्र की रचना से परवर्ती हैं। कुमारलात सौत्रान्तिक दर्शन के प्रथम प्रवर्तक आचार्य नहीं थे, अपितु आचार्य परम्परा के क्रम में उनका स्थान तृतीय है। शास्त्र नैपुण्य और गम्भीर ज्ञान की दृष्टि से उनका स्थान प्रथम हो सकता है, किन्तु काल की दृष्टि से वे प्रथम थे- विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर ऐसा नहीं माना जा सकता हैं।

कृतियाँ

आचार्य कुमारलात ने 20 ग्रन्थों की रचना की थी, किन्तु उनमें से आज कोई भी उपलब्ध नहीं होते हैं। परवर्ती शास्त्रों में उनके ग्रन्थों में से कुछ संकेत अवश्य उपलब्ध होते हैं। चीनीस्त्रोत के आधार पर 'दृष्टान्तपंक्ति' नामक ग्रन्थ उनके द्वारा प्रणीत है, ऐसा उल्लेख मिलता है, किन्तु यह ग्रन्थ कुमारलात से पूर्व स्थिर भदन्त के समय विद्यमान था, इसकी भी सूचना प्राप्त होती है। 'कल्पनामण्डितिका' आचार्य की ही कृति है, इसका संकेत और स्त्रोत उपलब्ध है। भोटदेशीय विद्वान छिम-जम-पई-यंग महोदय ने आचार्य कुमारलात के मतों का निरूपण करते हुए उनके 'दु:खसप्तति' नामक एक ग्रन्थ से एक पद्य उद्धृत किया है। इससे ज्ञात होता है कि यह ग्रन्थ भी उनकी रचना है। इनके अलावा अन्य ग्रन्थों के साथ कुमारलात के सम्बन्ध की सूचना उपलब्ध नहीं है।

अन्य प्राचीन आचार्य

किसी जीवित निकाय का यही लक्षण है कि उसकी अविच्छिन्न आचार्य परम्परा विद्यमान रहे। यदि वह बीच में टूट जाती है तो वह निकाय समाप्त हो जाता है। यही स्थिति प्राय: सौत्रान्तिक निकाय की है। भदन्त कुमारलात के अनन्तर उस निकाय में कौन आचार्य हुए, यह अत्यन्त स्पष्ट नहीं है। यद्यपि छिटपुट रूप में कुछ आचार्यों के नाम ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं, यथा-भदन्त रत (लात), राम, वसुवर्मा आदि, किन्तु इतने मात्र से कोई अविच्छिन्न परम्परा सिद्ध नहीं होती और न तो उनके काल और कृतियों के बारे में ही कोई स्पष्ट संकेत उपलब्ध होते हैं। ये सभी सौत्रान्तिक निकाय के प्राचीन आचार्य 'आगमानुयायी सौत्रान्तिक' थे, वह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है, क्योंकि नागार्जुन कालीन ग्रन्थों में इनके नाम की चर्चा नहीं है। यद्यपि अभिधर्मकोश आदि वैभाषिक या सर्वास्तिवादी ग्रन्थों में इनके नाम यत्र तत्र यदा कदा दिखलाई पड़ते हैं। वसुबन्धु के बाद यशोमित्र भी आगमानुयायी सौत्रान्तिक परम्परा के आचार्य माने जाते हैं। उन्होंने अपनी स्फुटार्था टीका में अपनी सैत्रान्तिकप्रियता प्रकट की है, यह अन्त:साक्ष्य के आधार पर विज्ञ विद्वानों द्वारा स्वीकार किया जाता है।

वसुबन्धु

बौद्ध जगत् में आचार्य वसुबन्धु के प्रकाण्ड पाण्डित्य और शास्त्रार्थ-पटुता की बड़ी प्रतिष्ठा है। अपनी अनेक कृतियों द्वारा उन्होंने बुद्ध के मन्तव्य का लोक में प्रसार करके लोक का महान कल्याण सिद्ध किया है। उनके इस परहित कृत्य को देखकर विद्वानों ने उन्हें 'द्वितीय बुद्ध' की उपाधि से विभूषित किया। आचार्य वसुबन्धु शास्त्रार्थ में अत्यन्त निपुण थे। उन्होंने महावैयाकरण वसुरात को शास्त्रार्थ में पराजित किया था। सुना जाता है कि सांख्याचार्य विन्ध्यवासी ने उनके गुरु बुद्धमित्र को पराजित कर दिया था। इस पराजय का बदला लेने वसुबन्धु विन्ध्यवासी के पास शास्त्रार्थ करने पहुँचे, किन्तु तब तक विन्ध्यवासी का निधन हो गया था। फलत: उन्होंने विन्ध्यवासी के 'सांख्यसप्तति' ग्रन्थ के खण्डन में 'परमार्थसप्तति' नामक ग्रन्थ की रचना की। गान्धार प्रदेश के पुरुषपुर (पेशावार) में आचार्य का जन्म हुआ था। ये कौशिक गोत्रीय ब्राह्मण थे। ये तीन भाई थे। बड़े भाई का नाम असंग, छोटे का विरित्र्चिवत्स था और ये उन दोनों के मध्य में थे। भोटदेशीय इतिहासकार लामा तारानाथ और बुदोन के अनुसार इन्होंने संघभद्र से विद्याध्ययन किया था। आचार्य परमार्थ के अनुसार इनके गुरु बुद्धमित्र थे। ह्नेनसांग के मतानुसार परमार्थ इनके गुरु थे। सम्भव है कि इन्होंने विभिन्न गुरुओं के समीप बैठकर ज्ञानार्जन किया हो। उस काल में अयोध्या प्रधान विद्याकेन्द्र के रूप प्रतिष्ठित थी। यहीं निवास करते हुए उन्होंने गम्भीर दर्शनों का तलस्पर्शी अध्ययन-अध्यापन और अभिधर्मकोश आदि प्रसिद्ध ग्रन्थों का प्रणयन किया था। तारानाथ के मतानुसार नालन्दा में प्रव्रजित होकर वहीं उन्होंने सम्पूर्ण श्रावकपिटक का अध्ययन किया था और उसके बाद विशेष अध्ययन के लिए ये आचार्य संघभद्र के समीप गये थे। इनकी विद्वत्ता की कीर्ति सर्वत्र व्याप्त थी। इनकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर अयोध्या के सम्राट चन्द्रगुप्त सांख्य मत को छोड़कर बौद्ध मत के अनुयायी हो गये थे। उन्होंने अपने पुत्र बालादित्य को और अपनी पत्नी महारानी ध्रुवा को अध्ययन के लिए इनके समीप भेजा था। तत्त्व संग्रह नामक ग्रन्थ की पञ्जिका के रचयिता आचार्य कमलशील ने अपने ग्रन्थ में इनके वैदुष्य की बड़ी प्रशंसा की है। अस्सी वर्ष की आयु में अयोध्या में ही इनका देहावसान हुआ। तारानाथ के मतानुसार नेपाल में और महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के मतानुसार गान्धार में इनका निधन हुआ।


जीवन के प्रारम्भिक काल में ये सर्वास्तिवादी थे। आचार्य संघभद्र के प्रभाव से ये 'कश्मीर-वैभाषिक' हो गए और उसी समय इन्होंने अभिधर्मकोश का प्रणयन किया। इस ग्रन्थ का विद्वत्समाज में बड़ा आदर था। महाकवि बाणभट्ट ने अपने हर्षचरित ग्रन्थ में अभिधर्मकोश का उल्लेख किया है। सिंहलद्वीप के महाकवि श्रीराहुल संघराज ने 15वीं विक्रम शताब्दी में प्रणीत अपने ग्रन्थ मोग्गलानपंचिकाप्रदीप में अभिधर्मकोश के वचन का उद्धरण दिया है। आचार्य वसुबन्धु सभी अठारह निकाय के तथा महायान के दार्शनिक सिद्धान्तों के अद्वितीय ज्ञाता थे, यह बात उनकी कृतियों से स्पष्ट होती है। सर्वप्रथम वे सर्वास्तिवादी निकाय में प्रव्रजित हुए। तदनन्तर उन्होंने कश्मीर में वैभाषिक शास्त्रों का अध्ययन किया। उस समय कश्मीर में सौत्रान्तिकों का प्रभाव क्षेत्र विस्तृत एवं धनीभूत हो रहा था। सौत्रान्तिकों का दार्शनिक परिवेश निश्चय ही वैभाषिकों की अपेक्षा सूक्ष्म भी था और युक्तिसंगत भी। फलत: आचार्य ने अपने अभिधर्मकोश और उसके स्वभाष्य में यत्र तत्र वैभाषिकों की विसंगतियां की ओर इंगित भी किया और उनकी आलोचना भी की है। उनकी रचनाओं के अध्ययन से एक बात निश्चय ही स्पष्ट होती है कि वे एक स्वतन्त्र विचारक एवं प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति थे। सौत्रान्तिक विचारों की ओर उनकी विशेष अभिरुचि थी। यह बात इस घटना से भी पुष्टि होती है कि वैभाषिक आचार्य संघभद्र ने वसुबन्धु के अभिधर्मकोश के खण्डन में 'न्यायानुसार' नामक ग्रन्थ लिखा। जिन-जिन स्थलों पर वसुबन्धु वैभाषिक विचारों से दूर होते दृष्टिगोचर हुए, उन स्थलों पर संघभद्र उनकी समालोचना करते हैं। भोटदेशीय आचार्यों का कहना है कि वसुबन्धु अपने जीवन के पूर्वार्द्ध में सौत्रान्तिक दर्शन से सम्बद्ध थे। वहाँ के तक्-छङ् लोचावा शेरब-रिन्छेन का तो यहाँ तक कहना है कि वे सौत्रान्तिक दर्शन के प्रथम आचार्य थे। किन्तु उनके इस कथन में आंशिक ही सत्यता है। क्योंकि चतुर्थ-पंचम शताब्दी के आचार्य वसुबन्धु से बहुत पहले ही सौत्रान्तिकों की दार्शनिक विचारधारा पर्याप्त विकसित हो चुकी थी। इसमें सन्देह नहीं कि आचार्य वसुबन्धु असाधारण विद्वान थे, किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं कि वे प्रथम आचार्य थें। सौत्रान्तिकदर्शन से सम्बद्ध उनका कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं है। इतना ही नहीं, 'विंशतिका विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि' में उन्होंने सौत्रान्तिकों का जमकर खण्डन भी किया है। निश्चय ही वसुबन्धु सौत्रान्तिक दर्शन के मर्मज्ञ, सर्वतन्त्रस्वतन्त्र एवं प्रामाणिक विद्वान थे। वे केवल सौत्रान्तिक दर्शन के ही आचार्य नहीं थे।

समय

  • वसुबन्धु के काल के विषय में बहुत विवाद है।
  • ताकाकुसू के अनुसार 420-500 ईस्वीय वर्ष उनका काल है।
  • वोगिहारा महोदय के मतानुसार आचार्य 390 से 470 ईस्वीय वर्षों में विद्यमान थे।
  • सिलवां लेवी उनका समय पाँचवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध मानते हैं।
  • एन. पेरी महोदय उनका समय 350 ईस्वीय वर्ष सिद्ध करते हैं।
  • फ्राउ वाल्नर महोदय इसी मत का समर्थन करते हैं। इन सब विवादों के समाधान के लिए कुछ विद्वान दो वसुबन्धुओं का अस्तित्व मानते हैं। उनमें एक वसुबन्धु तो आचार्य असङ्ग के छोटे भाई थे, जो महायानशास्त्रों के प्रणेता हुए तथा दूसरे वसुबन्धु सौत्रान्तिक थे, जिन्होंने अभिधर्मकोश की रचना की।
  • विन्टरनित्ज, मैकडोनल, डॉ0 विद्याभूषण, डॉ0 विनयतोष भट्टचार्य आदि विद्वान आचार्य को ईस्वीय चतुर्थ शताब्दी का मानते हैं।
  • परमार्थ ने आचार्य वसुबन्धु की जीवनी लिखी है। परमार्थ का जन्म उज्जैन में हुआ था और उनका समय 499 से 569 ईस्वीय वर्षों के मध्य माना जाता है। 569 में चीन के कैन्टन नगर में उनका देहावसान हुआ था। ताकाकुसू ने परमार्थ की इस वसुबन्धु की जीवनी का न केवल अनुवाद ही किया है, अपितु उसका समीक्षात्मक विशिष्ट अध्ययन भी प्रस्तुत किया है। उनके विवरण के अनुसार वसुबन्धु का जन्म बुद्ध के परिनिर्वाण के एक हजार वर्ष के अनन्तर हुआ। इस गणना के अनुसार ईस्वीय पंचम शताब्दी उनका समय निश्चित होता है। इससे विक्रमादित्य-बालादित्य की समकालीनता भी समर्थित हो जाती है। महाकवि वामन ने अपने 'काव्यालंकार' में भी यह बात कहीं है।
  • आचार्य कुमारजीव ने वसुबन्धु के अनेक ग्रन्थों का चीनी भाषा में अनुवाद किया है। वे 344 से 413 ईस्वीय वर्ष में विद्यमान थे। सुना जाता है कि कुमारजीव ने अपने गुरु सूर्यसोम से वसुबन्धु के 'सद्धर्मपुण्डरीकोपदेश शास्त्र' का अध्ययन किया था। आर्यदेवविरचित शतशास्त्र की वसुबन्धरचित व्याख्या का चीनी भाषा में अनुवाद 404वें ईस्वीय वर्ष में तथा वसुबन्धुप्रणीत बोधिचित्तोत्पाद शास्त्र का 405वें वर्ष में चीनी भाषा में अनुवाद हुआ था। बोधिरुचि ने वसुबन्धु वज्रच्छेदिकाप्रज्ञापारमिताशास्त्र की वज्रर्षिकृत व्याख्या का अनुवाद 535 ईस्वीय वर्ष में सम्पन्न किया था। इन प्रमाणों के आधार पर महायान-ग्रन्थों के रचयिता वसुबन्धु अभिधर्मकोशकार वसुबन्धु से भिन्न प्रतीत होते हैं। अभिधर्मकोश के व्याख्याकार यशोमित्र अपनी व्याख्या में वसुबन्धु नामक एक अन्य आचार्य की सूचना देते हैं। वे उन्हें 'वृद्धाचार्य वसुबन्धु' कहते हैं। तिब्बती परम्परा आचार्य को बुद्ध के नवम शतक में विद्यमान मानती है। बीसवीं शताब्दी में भोटदेशीय इतिहासकार गे-दुन-छोस-फेल महोदय का कहना है कि भोटदेशीय सम्राट स्रोड्-चन्-गम्पो, भारतीय सम्राट श्रीहर्ष, आचार्य दिङ्नाग, कवि कालिदास, आचार्य दण्डी, इस्लाम धर्मप्रवर्तक मोहम्मद साहब ये सब महापुरुष कुछ काल के अन्तर से प्राय: समान कालिक थे। परमार्थ, ह्रेनसांग, तारानाथ, ताकाकुसू आदि इतिहासवेत्ताओं का कहना है दो वसुबन्धुओं की कल्पना निरर्थक है, वसुबन्धु एक ही थे और वे 420 से 500 ईसवीय वर्षों के मध्य विद्यमान थे। आधुनिक इतिहासकार भी इसी मत का समर्थन करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। आचार्य वसुबन्धु की अनेक कृतियाँ है।

परवर्ती परम्परा

आचार्य वसुबन्धु के बाद सभी अठारह बौद्ध निकायों में तत्त्वमीमांसा की प्रणाली में कुछ नया परिवर्तन दिखाई देता है। तत्त्वचिन्तन के विषय में यद्यपि इसके पहले भी तर्क प्रधान विचारपद्धति सौत्रान्तिकों द्वारा आरम्भ की गई थी और आचार्य नागार्जुन ने इसी तर्कपद्धति का आश्रय लेकर महायान दर्शन प्रस्थान को प्रतिष्ठित किया था, स्वयं आचार्य वसुबन्धु भी प्रमाणमीमांसा, ज्ञानमीमांसा और वादविधि के प्रकाण्ड पण्डित थे, फिर भी वसुबन्धु के बाद ज्ञानमीमांसा के क्षेत्र में कुछ इस प्रकार का विकास दृष्टिगोचर होता है, जिससे सौत्रान्तिकों की वह प्राचीन प्रणाली अपने स्थान से किंचित परिवर्तित सी दिखाई देती है। उनके सिद्धान्तों और पूर्व मान्यताओं में भी परिवर्तन दिखलाई पड़ता है। अपनी तर्कप्रियता, विकासोन्मुख प्रकृति एवं मुक्तचिन्तन की पक्षपातिनी दृष्टि के कारण वे अन्य दर्शनों की समकक्षता मे आ गये। ज्ञात है कि प्राचीन सौत्रान्तिक 'आगमानुयायी' कहलाते थे। उनका साम्प्रदायिक परिवेश अब बदलने लगा। यह परिवर्तन सौत्रान्तिकों में विचारों की दृष्टि से संक्रमण काल कहा जा सकता है। इसी काल में आचार्य दिङ्नाग का प्रादुर्भाव होता है। उन्होंने प्रमाणमीमांसा के आधार पर सौत्रान्तिक दर्शन की पुन: परीक्षा की और उसे नए तरीके से प्रतिष्ठापित किया। दिङ्नाग के बाद सौत्रान्तिकों को प्राचीन आगमानुयायी परम्परा प्राय: नामशेष हो गई। उस परम्परा में कोई प्रतिभासम्पन्न आचार्य उत्पन्न होते दिखलाई नहीं देता।

आचार्य दिङ्नाग

आचार्य दिङ्नाग का जन्म दक्षिण भारत के काञ्चीनगर के समीप सिंहवक्त्र नामक स्थान पर विद्या-विनयसम्पन्न ब्राह्मण कुल में हुआ था। उन्होंने अपने आरम्भिक जीवन में परम्परागत सभी तैर्थिकों शास्त्रों का विधिवत अध्ययन किया था और उनमें पूर्ण पारंगत पण्डित हो गये थे। इसके बाद वे वात्सीपुत्रीय निकाय के महास्थविर नागदत्त से प्रव्रज्या ग्रहण कर बौद्ध भिक्षु हो गये। 'दिङ्नाग' यह नाम प्रव्रज्या के अवसर पर दिया हुआ उनका नाम है। महास्थविर नागदत्त से ही उन्होंने समस्त श्रावक पिटकों एवं शास्त्रों का अध्ययन किया था और उनमें परम निष्णात हो गये थे। एक दिन महास्थविर नागदत्त ने उन्हें शमथ और विपश्यना विषय को समझाते हुए अनिर्वचनीय पुद्गल की देशना की। दिङ्नाग अत्यन्त तीक्ष्ण बुद्धि के स्वतन्त्र विचारक पण्डित थे। उन्हें अनिर्वचनीय पुद्गल का सिद्धान्त रुचिकर प्रतीत नहीं हुआ। गुरु के उपदेश की परीक्षा के लिए अपने निवास-स्थान पर आकर उन्होंने दिन में सारे दरवाजों-खिड़कियों को खोलकर तथा रात में चारों ओर दीपक जलाकर कपड़ों को उतार कर सिर से पैर तक सारे अंगों को बाहर-भीतर सूक्ष्म रूप में निरीक्षण करते हुए अनिर्वचनीय पुद्गल को देखना शुरु किया। अपने साथ अध्ययन करने वाले साथियों के यह पूछने पर कि 'यह आप क्या कर रहे हैं'? दिङ्नाग ने कहा- 'पुद्गल की खोज कर रहा हूँ'। सूक्ष्मतया निरीक्षण करने पर भी उन्होंने कहीं पुद्गल की प्राप्ति नहीं की। शिष्यपरम्परा से यह बात महास्थविर गुरु नागदत्त तक पहुँच गई। नागदत्त को लगा कि दिङ्नाग हमारा अपमान कर रहा है और अपने निकाय के सिद्धान्तों के प्रति उसे अविश्वास है। गुरु ने दिङ्नाग पर कुपित होकर उन्हें संघ से बाहर निकाल दिया। निकाल दिये जाने के बाद क्रमश: चारिका करते हुए वे आचार्य वसुबन्धु के समीप पहुँचे। इस अनुश्रुति से यह निष्कर्ष निकलता है कि दिङ्नाग पहले वात्सीपुत्रीय निकाय में प्रव्रजित हुए थे, किन्तु उस निकाय के दार्शनिक सिद्धान्त उन्हें रुचिकर प्रतीत नहीं हुए। इसके बाद आचार्य वसुबन्धु के समीप रहकर उन्होंने समस्त श्रावक और महायान पिटक, सम्पूर्ण बौद्ध शास्त्र और विशेषत: प्रमाणशास्त्र का गम्भीर अध्ययन किया। कहा जाता है कि आचार्य वसुबन्धु के चार शिष्य अपने-अपने विषयों में वसुबन्धु से भी अधिक विद्वान् थे। जैसे-

  1. आचार्य गुणप्रभ विनय-शास्त्रों में,
  2. आचार्य स्थिरमति अभिधर्म विषय में,
  3. आचार्य विमुक्तिसेन प्रज्ञापारमिताशास्त्र में तथा
  4. आचार्य दिङ्नाग प्रमाणशास्त्र में। कुछ विद्वानों की राय है कि आचार्य विमुक्तिसेन दिङ्नाग के शिष्य थे, वसुबन्धु के नहीं। भोटदेशीय विद्वत्परम्परा तो उन्हें वसुबन्धु का शिष्य ही निर्धारित करती है। भारतीय इतिहास के मर्मज्ञ भोटविज्ञान लामा तारानाथ का कहना है कि त्रिरत्न दास और संघदास भी वसुबन्धु के शिष्य थे।

समय

  • आचार्य दिङ्नाग के समय को लेकर विद्वानों में विवाद अधिक है।
  • डॉ0 सतीशचन्द्र विद्याभूषण उनका काल ईस्वीय सन 450 से 520 के बीच निर्धारित करते हैं।
  • डॉ0 एस. एन. दास गुप्त उन्हें ईस्वीय पाँचवीं शताब्दी के अन्त में उत्पन्न मानते हैं।
  • डॉ0 विनयघोष भट्टाचार्य मानते हैं कि वे 345 से 425 ईस्वीय वर्षों में विद्यमान थे।
  • पण्डित दलसुखभाई मालवणियाँ इस मत का समर्थन करते हैं।
  • न्यायसूत्रों के भाष्यकार वात्स्यायन और प्रशस्तपाद के मतों की दिङ्नाग ने युक्तिपूर्वक समालोचना की है तथा न्यायवार्तिकार उद्योतकर ने दिङ्नाग के मत की समालोचना दिङ्नाग की रचनाओं का अनुवाद चीनी भाषा में 557 से 569 ईस्वीय वर्षों में सम्पन्न हो गया था। इन सब साक्ष्यों के आधार पर आचार्य दिङ्नाग का काल ईस्वीय पाँचवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध मानना समीचीन मालूम होता है।
  • महापण्डित राहुल सांकृत्यायन भी उन्हें 425 ईस्वीय वर्ष में विद्यमान मानते हैं। आचार्य दिङ्नाग की अनेक रचनाएं हैं। उन्होंने विभिन्न विषयों पर ग्रन्थों का प्रणयन किया है।

युक्त्यनुयायी सौत्रान्तिक

  • आचार्य दिङ्नाग के प्राय: सभी ग्रन्थ विशुद्ध प्रमाणमीमांसा से सम्बद्ध तथा स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्थ हैं। इसीलिए वे भारतीय तर्कशास्त्र के प्रवर्तक महान तार्किक माने जाते हैं। इन ग्रन्थों में जिन विषयों को आचार्य ने प्रतिपादित किया है, वे सौत्रान्तिक दर्शन सम्मत ही हैं। बाह्यार्थ की सत्ता एवं ज्ञान की साकारता को मानते हुए उन्होंने विषय का निरूपण किया है। प्रमाणसमुच्चय के अवलोकन से यह निश्चित होता है कि केवल प्रमाणफल के निरूपण के अवसर पर ही उन्होंने विज्ञानवादी दृष्टिकोण अपनाया है। प्रमाण और प्रमेयों की स्थापना उन्होंने विशेषत: सौत्रान्तिक दर्शन के अनुरूप ही की है। दिङ्नाग के इन विचारों ने सौत्रान्तिक निकाय के चिन्तन की एक अपूर्व दिशा उद्धाटित की है, जिससे उक्त निकाय के चिन्तन में नूतन परिवर्तन परिलक्षित होता है। दिङ्नाग के इस प्रयास से तत्त्वचिन्तन के क्षेत्र में तर्क विद्या की महती प्रतिष्ठा हुई और ज्ञान की परीक्षा के नए नियम विकसित हुए तथा वे नियम सभी शास्त्रीय परम्पराओं और सम्प्रदायों में मान्य हुए। वास्तव में दिङ्नाग से ही विशुद्ध तर्कशास्त्र प्रारम्भ हुआ। फलत: सौत्रान्तिक निकाय ने आगम की परिधि से बाहर निकल कर अभ्युदय और नि:श्रेयस के साधक दार्शनिक क्षेत्र में पदार्पण किया।
  • दिङ्नाग के बाद आचार्य धर्मकीर्ति ने दिङ्नाग के ग्रन्थों में छिपे हुए गूढ़ तथ्यों का प्रकाशन करते हुए सात ग्रन्थों (सप्त प्रमाणशास्त्र) की रचना की। उन ग्रन्थों में न्यायपरमेश्वर धर्मकीर्ति ने बुद्धवचनों की नेयार्थता और नीतार्थता का विवेचन करते हुए शतसाहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता आदि प्रज्ञापारमिता सूत्रों को बुद्धवचन के रूप में प्रमाणित किया। आचार्य धर्मकीर्ति के इस सत्प्रयास से दिङ्नाग के बारे में जो मिथ्या दृष्टियाँ और भ्रम उत्पन्न हो गये थे, उनका निरास हुआ। लोग कहते थे कि दिङ्नाग ने केवल वाद-विवाद एव जय-पराजय मूलक तर्कशास्त्रों की रचना की है। उनमें मार्ग और फल का निरूपण नहीं है और ऐसे शास्त्रों की रचना करना अध्यात्म प्रधान बौद्ध धर्म के अनुयायी एक भिक्षु को शोभा नहीं देता। धर्मकीर्ति की व्याख्या की वजह से दिङ्नाग समस्त बुद्ध वचनों के उत्कृष्ट व्याख्याता और महान रथी सिद्ध हुए। साथ ही, सौत्रान्तिकों की दार्शनिक परम्परा का नया आयाम प्रकाशित हुआ। फलत: इन दोनों के बाद सौत्रान्तिक दर्शन के जो भी आचार्य उत्पन्न हुए, वे सब 'युक्ति-अनुयायी सौत्रान्तिक' कहलाए। इसी परम्परा में आगे चलकर प्रसिद्ध सौत्रान्तिक आचार्य शुभगुप्त भी उत्पन्न हुए।
  • युक्ति-अनुयायी सौत्रान्तिक दर्शन-प्रस्थान के विकास में नि:सन्देह आचार्य धर्मकीर्ति का योगदान रहा है, किन्तु इसका प्राथमिक श्रेय आचार्य दिङ्नाग को जाता है। यह सही है कि प्रमाणशास्त्र और न्यायप्रक्रिया के विकास में आचार्य धर्मकीर्ति के विशिष्ट मत और मौलिक उद्भावनाएं रही हैं, किन्तु सभी पारवर्ती आचार्य और विद्वान् उन्हें दिङ्नाग के व्याख्याकार ही मानते हैं। धर्मकीर्ति द्वारा प्रणीत सभी ग्रन्थों के विषय वे ही रहे हैं, जो दिङ्नाग के प्रमाणसमुच्चय के हैं। यद्यपि धर्मकीर्ति ने प्रमाणवार्तिक के प्रथम परिच्छेद में प्रमेयव्यवस्था और प्रमाणफल की स्थापना के सन्दर्भ में विज्ञप्तिमात्रता की चर्चा की है और इस तरह विज्ञानवाद की प्रतिष्ठा की है, किन्तु इन थोड़े स्थानों को छोड़कर शेष सम्पूर्ण ग्रन्थ में सौत्रान्तिक दृष्टि से ही विषय की स्थापना की है। इसलिए आचार्य दिङ्नाग और धर्मकीर्ति यद्यपि महायान के अनुयायी हैं, फिर भी यह कहा जा सकता है कि ये दोनों सौत्रान्तिक आचार्य थे। युक्ति-अनुयायी सौत्रान्तिक दर्शनपरम्परा का स्वरूप उसके दर्शन के स्वरूप का निरूपण करते समय आगे विवेचित है।
  • आचार्य धर्मकीर्ति के प्रमेय सम्बन्धी विचार आचार्य दिङ्नाग के समान ही हैं। धर्मकीर्ति द्वारा प्रणीत प्रमाणवार्तिक, प्रमाणविनिश्चय, न्यायबिन्दु, हेतुबिन्दु, सम्बन्धपरीक्षा, सन्तानन्तरसिद्धि और वादन्याय सातों प्रसिद्ध ग्रन्थ प्रमाणसमुच्चय की टीका के रूप में उपनिबद्ध हैं। यद्यपि इन ग्रन्थों में प्रमेयव्यवस्था के अवसर पर युक्ति-अनुयायी सौत्रान्तिक और युक्ति-अनुयायी विज्ञानवादियों की विचारधारा के अनुरूप तत्त्वमीमांसा की विशेष रूप से चर्चा की गई है, तथापि ये ग्रन्थ मुख्य रूप से प्रमाणमीमांसा के प्रतिपादक ही हैं।

प्रमाणसमुच्चय

यह ग्रन्थ आचार्य दिङ्नाग की कृति है। यह आचार्य की अनेक छिटपुट रचनाओं का समुच्चय है और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यह महनीय भावी बौद्ध न्याय के विकास का आधार और बौद्ध विचारों में नई उत्क्रान्ति का वाहक रहा है। इस ग्रन्थ के प्रभाव से भारतीय दार्शनिक चिन्तनधारा में नए एवं विशिष्ट परिवर्तन का सूत्रपात हुआ। ज्ञान के सम्यक्त्व की परीक्षा, पूर्वाग्रहमुक्त तत्त्वचिन्तन, प्रमाण के प्रामाण्य आदि का निर्धारण आदि वे विशेषताएं हैं, जिनका विश्लेषण दिङ्नाग के बाद प्राय: सभी भारतीय दर्शनों में बहुलता से प्रारम्भ होता है। इस प्रकार हम विशुद्ध ज्ञानमीमांसा और निरपेक्ष प्रमाणमीमांसा का प्रादुर्भाव दिङ्नाग के बाद घटित होते हुए देखते हैं। इस ग्रन्थ में छह परिच्छेद हैं, यथा-

  1. प्रत्यक्ष परिच्छेद,
  2. स्वार्थनुमान परिच्छेद,
  3. परार्थनुमान परिच्छेद,
  4. दृष्टान्तपरीक्षा,
  5. अपोहपरीक्षा एवं
  6. जात्युत्तर परीक्षा। इन परिच्छेदों के विषय उनके नाम से ही प्रकट है। इनमें स्वसंवेदन प्रत्यक्ष की सुस्पष्ट स्थापना, प्रमाणद्वय का स्पष्ट निर्धारण, ज्ञान की ही प्रमाणता, साधन और दूषण का विवेचन, शब्दार्थ-विषयक चिन्तन (अपोहविचार), प्रमाण और प्रमाणफल की एकात्मकता एवं प्रसंग के स्वरूप का निर्धारण आदि विषय विशेष रूप से चर्चित हुए हैं।

आचार्य शुभगुप्त

इतिहास में इनके नाम की बहुत कम चर्चा हुई। 'कल्याणरक्षित' नाम भी ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। वस्तुत: भोट भाषा में इनके नाम का अनुवाद 'दगे-सुङ्' हुआ है। 'शुभ' शब्द का अर्थ 'कल्याण' तथा 'गुप्त' शब्द का अर्थ 'रक्षित' भी होता है। अत: नाम के ये दो पर्याय उपलब्ध होते हैं। शान्तरक्षित के तत्त्वसंग्रह की 'पंजिका' टीका में कमलशील ने 'शुभगुप्त' इस नाम का अनेकधा व्यवहार किया है। अत: यही नाम प्रामाणिक प्रतीत होता है, फिर भी इस विषय में विद्वान ही प्रमाण हैं। शुभगुप्त कहाँ उत्पन्न हुए थे, इसकी प्रामाणिक सूचना नहीं है, फिर भी इनका कश्मीर-निवासी होना अधिक संभावित है। भोटदेशीय परम्परा इस सम्भावना की पुष्टि करती है। धर्मोत्तर इनके साक्षात शिष्य थे, अत: तक्षशिला इनकी विद्याभूमि रही है। आचार्य धर्मोत्तर की कर्मभूमि कश्मीर-प्रदेश थी, ऐसा डॉ0 विद्याभूषण का मत है।

समय

  • इनके काल के बारे में भी विद्वानों मे विवाद है, फिर भी इतना निश्चित है कि आचार्य शान्तरक्षित और आचार्य धर्मोत्तर से ये पूर्ववर्ती थे। आचार्य धर्माकरदत्त और शुभगुप्त दोनों धर्मोत्तर के गुरु थे। भोटदेश के सभी इतिहासज्ञ इस विषय में एकमत हैं। परवर्ती भारतीय विद्वान भी इस मत का समर्थन करते हैं। आचार्य शुभगुप्त शान्तरक्षित से पूर्ववर्ती थे, इस विषय में शान्तरक्षित का ग्रन्थ 'मध्यमकालंकार' ही प्रमाण है। सौत्रान्तिक मतों का खण्डन करते समय ग्रन्थकार ने शुभगुप्त की कारिका का उद्धरण दिया है।
  • पण्डित सुखलाल संघवी का कथन है कि आचार्य धर्माकरदत्त 725 ईस्वीय वर्ष से पूर्ववर्ती थे।
  • जैन दार्शनिक आचार्य अकलङ्क ने धर्मोत्तर के मत की समीक्षा की है।
  • पण्डित महेन्द्रमार के मतानुसार अकलङ्क का समय ईस्वीय वर्ष 720-780 है। इसके अनुसार धर्मोत्तर का समय सातवीं शताब्दी का उत्तरार्ध निश्चित होता है। धर्मोत्तर शुभगुप्त के शिष्य थे, अत: उनके गुरु शुभगुप्त का काल ईस्वीय सप्तम शतक निर्धारित करने में कोई बाधा नहीं दिखती।
  • डॉ0 एस.एन. गुप्त धर्मोत्तर का समय 847 ईस्वीय वर्ष निर्धारित करते हैं तथा डॉ0 विद्याभूषण उनके गुरु शुभगुप्त का काल ईस्वीय 829 वर्ष स्वीकार करते हैं। डॉ0 विद्याभूषण के काल निर्धारण का आधार महाराज धर्मपाल का समय है। किन्तु ये कौन धर्मपाल थे, इसका निश्चय नहीं है। दूसरी ओर आचार्य शान्तरक्षित जिस शुभगुप्त की कारिका उद्धृत करके उसका खण्डन करते हैं, उनका भोटदेश में 790 ईस्वीय वर्ष में निधन हुआ था। 792 ईस्वीय वर्ष में भोटदेश में शान्तरक्षित के शिष्य आचार्य कमलशील का 'सम्या छिम्बु' नामक महाविहार में चीन देश के प्रसिद्ध विद्वान 'ह्शंग' के साथ माध्यमिक दर्शन पर शास्त्रार्थ हुआ था। इस शास्त्रार्थ में ह्रशंग' की पराजय हुई थी, इसका उल्लेख चीन और जापान के प्राय: सभी इतिहासवेता करते है। इन विवरणों से आचार्य शान्तरक्षित का काल सुनिश्चित होता है। फलत: डॉ0 विद्याभूषण का मत उचित एवं तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता, क्योंकि जिनके सिद्धान्तों का खण्डन शान्तरक्षित ने किया हो और जिनका निधन 790 ईस्वीय वर्ष में हो गया हो, उनसे पूर्ववर्ती आचार्य शुभगुप्त का काल 829 ईस्वीय वर्ष कैसे हो सकता है?
  • महापण्डित राहुल सांकृत्यायन आचार्य धर्मकीर्ति का काल 600 ईस्वीय वर्ष निश्चित करते हैं। उनकी शिष्य-परम्परा का वर्णन उन्होंने इस प्रकार किया है, यथा-देवेन्द्रबुद्धि, शाक्यबुद्धि, प्रज्ञाकर गुप्त तथा धर्मोत्तर। आचार्य देवेन्द्रबुद्धि का काल उनके मतानुसार 650 ईस्वीय वर्ष है। गुरु-शिष्य के काल में 25 वर्षों का अन्तर सभी इतिहासवेत्ताओं द्वारा मान्य है। किन्तु यह नियम सभी के बारे में लागू नहीं होता। ऐसा सुना जाता है कि देवेन्द्रबुद्धि आचार्य धर्मकीर्ति से भी उम्र में बड़े थे। और उन्होंने आचार्य दिङ्नाग से भी न्याय शास्त्र का अध्ययन किया था। धर्मोत्तर के दोनों गुरु धर्माकरदत्त और शुभगुप्त प्रज्ञाकरगुप्त के समसामयिक थे। ऐसी स्थिति में शुभगुप्त का समय ईसवीय सप्तम शताब्दी निश्चित किया जा सकता है। महापण्डित राहुत सांकृत्यायन की भी इस तिथि में विमति नहीं है।

कृतियाँ

भदन्त शुभगुप्त युक्ति-अनुयायी सौत्रान्तिकों के अन्तिम और लब्धप्रतिष्ठ आचार्य थे। उनके बाद ऐसा कोई आचार्य ज्ञात नहीं है, जिसने सौत्रान्तिक दर्शन पर स्वतन्त्र और मौलिक रचना की हो। यद्यपि धर्मोत्तर आदि भारतीय तथा जमयङ्-जद्-पई, तक्-छङ्-पा आदि भोट आचार्यों ने बहुत कुछ लिखा है, किन्तु वह पूर्व आचार्यों की व्याख्यामात्र है, नूतन और मौलिक नहीं है। आज भी दिङ्नागीय परम्परा के सौत्रान्तिक दर्शन के विद्वान् थोड़े-बहुत हो सकते हैं, किन्तु मौलिक शास्त्रों के रचयिता नहीं हैं। आचार्य शुभगुप्त ने कुल कितने ग्रन्थों की रचना की, इसकी प्रामाणिक जानकारी नही है। उनका कोई भी ग्रन्थ मूल संस्कृत में उपलब्ध नहीं है। भोट भाषा और चीनी भाषा में उनके पाँच ग्रन्थों के अनुवाद सुरक्षित हैं, यथा

  1. सर्वज्ञसिद्धिकारिका,
  2. वाह्यार्थसिद्धिकारिका,
  3. श्रुतिपरीक्षा,
  4. अपोहविचारकारिका एवं
  5. ईश्वरभङ्गकारिका।

ये सभी ग्रन्थ लघुकाय हैं, किन्तु अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इनका प्रतिपाद्य विषय इनके नाम से ही स्पष्ट है, यथा-

  • सर्वज्ञसिद्धिकारिका में विशेषत: जैमिनीय दर्शन का खण्डन है, क्योंकि वे सर्वज्ञ नही मानते। ग्रन्थ में युक्तूपर्वक सर्वज्ञ की सिद्धि की गई है।
  • बाह्यार्थसिद्धि कारिका में जो विज्ञानवादी बाह्यार्थ नहीं मानते, उनका खण्डन करके सप्रमाण बाह्यार्थ की सत्ता सिद्ध की गई है।
  • श्रुतिपरीक्षा में शब्दनित्यता, शब्दार्थ सम्बन्ध की नित्यता और शब्द की विधिवृत्ति का खण्डन किया गया है। 'श्रुति' का अर्थ वेद है। वेद की अपौरुषेयता का सिद्धान्त मीमांसकों का प्रमुख सिद्धान्त है, उसका ग्रन्थ में युक्तिपूर्वक निराकरण प्रतिपादित है।
  • अपोहविचारकारिका में शब्द और कल्पना की विधिवृत्तिता का खण्डन करके उन्हें अपोहविषयक सिद्ध किया गया है। अपोह ही शब्दार्थ है, यह बौद्धों की प्रसिद्ध सिद्धान्त है, इसका इसमें मण्डन किया है। वैशिषिक सामान्य को शब्दार्थ है, यह बौद्धों की प्रसिद्ध है, इसका इसमें मण्डन किया है। वैशिषिक सामान्य को शब्दार्थ स्वीकार करते हैं, ग्रन्थ में सामान्य का विस्तार के साथ खण्डन किया गया है।
  • ईश्वरभङ्गकारिका में इस बात का खण्डन किया गया है, कि ईश्वर जो नित्य है, वह जगत का कारण है। ग्रन्थ में नित्य को कारण मानने पर अनेक दोष दर्शाए गये हैं। इन ग्रन्थों से सौत्रान्तिक दर्शन की विलुप्त परम्परा का पर्याप्त परिचय प्राप्त होता है।