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− | ==होली / Holi== | + | {{भारतकोश पर बने लेख}} |
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==फाग उत्सव== | ==फाग उत्सव== | ||
[[चित्र:Holi Phalen Mathura.jpg|250px|right|thumb|फालैन गांव में तेज जलती हुई होली में से नंगे बदन और नंगे पांव निकलता पण्डा]] | [[चित्र:Holi Phalen Mathura.jpg|250px|right|thumb|फालैन गांव में तेज जलती हुई होली में से नंगे बदन और नंगे पांव निकलता पण्डा]] | ||
− | फाल्गुन के माह रंगभरनी एकादशी से सभी मन्दिरों में फाग उत्सव प्रारम्भ होते हैं जो दौज तक चलते हैं। दौज को [[बलदेव मन्दिर|बल्देव (दाऊजी)]] में हुरंगा होता है। [[बरसाना]], [[नन्दगाँव|नन्दगांव]], [[जावट ग्राम|जाव]], | + | [[फाल्गुन]] के माह [[रंगभरनी एकादशी]] से सभी मन्दिरों में फाग उत्सव प्रारम्भ होते हैं जो दौज तक चलते हैं। दौज को [[बलदेव मन्दिर|बल्देव (दाऊजी)]] में हुरंगा होता है। [[बरसाना]], [[नन्दगाँव|नन्दगांव]], [[जावट ग्राम|जाव]], बठैन, [[जतीपुरा]], [[आन्यौर]] आदि में भी होली खेली जाती है। यह [[ब्रज]] विशेष त्योहार है यों तो [[पुराण|पुराणों]] के अनुसार इसका सम्बन्ध पुराणकथाओं से है और ब्रज में भी होली इसी दिन जलाई जाती है। इसमें [[यज्ञ]] रूप में नवीन अन्न की बालें भूनी जाती है। [[प्रह्लाद]] की कथा की प्रेरणा इससे मिलती हैं। होली दहन के दिन [[कोसी]] के निकट [[फालैन]] गांव में [[प्रह्लाद कुण्ड]] के पास भक्त प्रह्लाद का मेला लगता है। यहाँ तेज जलती हुई होली में से नंगे बदन और नंगे पांव पण्डा निकलता है। |
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− | [[चित्र: | + | [[चित्र:Holi Barsana Mathura 1.jpg|[[होली बरसाना विडियो 1|लट्ठामार होली]], [[बरसाना]] <br /> Lathmar Holi, Barsana|thumb|250px|left]] |
− | [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] [[राधा]] और | + | [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] [[राधा]] और [[गोपि|गोपियों]]–ग्वालों के बीच की होली के रूप में [[गुलाल]], रंग [[केसर]] की [[पिचकारी]] से ख़ूब खेलते हैं। होली का आरम्भ फाल्गुन [[शुक्ल]] 9 [[बरसाना]] से होता है। वहां की [[होली बरसाना विडियो 1|लठामार होली]] जग प्रसिद्ध है। दसवीं को ऐसी ही होली [[नन्दगांव]] में होती है। इसी के साथ पूरे ब्रज में होली की धूम मचती है। [[धूलेंड़ी]] को प्राय: होली पूर्ण हो जाती है, इसके बाद [[हुरंगे]] चलते हैं, जिनमें महिलायें रंगों के साथ [[लाठियों]], [[कोड़ों]] आदि से पुरुषों को घेरती हैं। यह सब धार्मिक वातावरण होता है। |
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− | होली या होलिका आनन्द एवं उल्लास का ऐसा उत्सव है जो सम्पूर्ण देश में मनाया जाता है। उत्सव मनाने के ढंग में कहीं-कहीं अन्तर पाया जाता है। बंगाल को छोड़कर होलिका | + | होली या होलिका आनन्द एवं उल्लास का ऐसा उत्सव है जो सम्पूर्ण देश में मनाया जाता है। उत्सव मनाने के ढंग में कहीं-कहीं अन्तर पाया जाता है। बंगाल को छोड़कर [[होलिका दहन]] सर्वत्र देखा जाता है। बंगाल में फाल्गुन [[पूर्णिमा]] पर कृष्ण-प्रतिमा का [[झूला]] प्रचलित है किन्तु यह [[bk:भारत|भारत]] के अधिकांश स्थानों में नहीं दिखाई पड़ता। इस उत्सव की अवधि विभिन्न प्रान्तों में विभिन्न है। इस अवसर पर लोग बाँस या धातु की पिचकारी से रंगीन जल छोड़ते हैं या अबीर-गुलाल लगाते हैं। कहीं-कहीं अश्लील गाने गाये जाते हैं। इसमें जो धार्मिक तत्त्व है वह है बंगाल में कृष्ण-पूजा करना तथा कुछ प्रदेशों में पुरोहित द्वारा होलिका की पूजा करवाना। लोग होलिका दहन के समय परिक्रमा करते हैं, अग्नि में नारियल फेंकते हैं, गेहूँ, [[जौ]] आदि के डंठल फेंकते हैं और इनके अधजले अंश का प्रसाद बनाते हैं। कहीं-कहीं लोग हथेली से मुख-स्वर उत्पन्न करते हैं। |
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− | ==आरम्भिक शब्दरूप== | + | ==इतिहास== |
− | यह बहुत प्राचीन उत्सव है। इसका आरम्भिक शब्दरूप होलाका था।< | + | प्रचलित मान्यता के अनुसार यह त्योहार [[हिरण्यकशिपु]] की बहन होलिका के मारे जाने की स्मृति में भी मनाया जाता है। [[पुराण|पुराणों]] में वर्णित है कि हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन होलिका वरदान के प्रभाव से नित्य अग्निस्नान करती और जलती नहीं थी हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन होलिका से [[प्रह्लाद]] को गोद में लेकर अग्निस्नान करने को कहा। उसने समझा कि ऐसा करने से प्रह्लाद अग्नि में जल जाएगा तथा होलिका बच जाएगी। होलिका ने ऐसा ही किया, किंतु होलिका जल गयी, प्रह्लाद बच गये। होलिका को यह स्मरण ही नहीं रहा कि अग्नि स्नान वह अकेले ही कर सकती है। तभी से इस त्योहार के मनाने की प्रथा चल पड़ी। |
− | + | ====आरम्भिक शब्दरूप==== | |
− | ==होलिका== | + | यह बहुत प्राचीन उत्सव है। इसका आरम्भिक शब्दरूप होलाका था।<ref>जैमिनि, 1।3।15-16)</ref> भारत में पूर्वी भागों में यह शब्द प्रचलित था। [[जैमिनि]] एवं शबर का कथन है कि होला का सभी [[आर्य|आर्यो]] द्वारा सम्पादित होना चाहिए। [[काठकगृह्य]]<ref>73,1</ref> में एक सूत्र है 'राका होला के', जिसकी व्याख्या टीकाकार देवपाल ने यों की है-'होला एक कर्म-विशेष है जो स्त्रियों के सौभाग्य के लिए सम्पादित होता है, उस कृत्य में राका (पूर्णचन्द्र) देवता है।'<ref>राका होलाके। काठकगृह्य (73।1)। इस पर देवपाल की टीकायों है: 'होला कर्मविशेष: सौभाग्याय स्त्रीणां प्रातरनुष्ठीयते। तत्र होला के राका देवता। यास्ते राके सुभतय इत्यादि।'</ref> अन्य टीकाकारों ने इसकी व्याख्या अन्य रूपों में की है। होला का उन बीस क्रीड़ाओं में एक है जो सम्पूर्ण भारत में प्रचलित हैं। इसका उल्लेख वात्स्यायन के कामसूत्र<ref>कामसूत्र, 1।4।42</ref> में भी हुआ है जिसका अर्थ टीकाकार जयमंगल ने किया है। फाल्गुन की पूर्णिमा पर लोग श्रृंग से एक-दूसरे पर रंगीन जल छोड़ते हैं और सुगंधित चूर्ण बिखेरते हैं। हेमाद्रि<ref>काल, पृ. 106</ref> ने बृहद्यम का एक श्लोक उद्भृत किया है। जिसमें होलिका-पूर्णिमा को हुताशनी (आलकज की भाँति) कहा गया है। [[लिंग पुराण]] में आया है- 'फाल्गुन पूर्णिमा को 'फाल्गुनिका' कहा जाता है, यह बाल-क्रीड़ाओं से पूर्ण है और लोगों को विभूति (ऐश्वर्य) देने वाली है।' [[वराह पुराण]] में आया है कि यह 'पटवास-विलासिनी' (चूर्ण से युक्त क्रीड़ाओं वाली) है। <ref>लिंगपुराणे। फाल्गुने पौर्णमासी च सदा बालविकासिनी। ज्ञेया फाल्गुनिका सा च ज्ञेया लोकर्विभूतये।। वाराहपुराणे। फाल्गुने पौर्णिमास्यां तु पटवासविलासिनी। ज्ञेया सा फाल्गुनी लोके कार्या लोकसमृद्धये॥ हे. (काल, पृ. 642)। इसमें प्रथम का.वि. (पृ. 352) में भी आया है जिसका अर्थ इस प्रकार है-बालवज्जनविलासिन्यामित्यर्थ: </ref> |
− | हेमाद्रि< | + | ====शताब्दियों पूर्व से होलिका उत्सव==== |
+ | [[चित्र:Holi-Pichkari.jpg|thumb|रंग और पिचकारियाँ]] | ||
+ | [[जैमिनि]] एवं काठकगृह्य में वर्णित होने के कारण यह कहा जा सकता है कि ईसा की कई शताब्दियों पूर्व से होलाका का उत्सव प्रचलित था। कामसूत्र एवं [[भविष्य पुराण|भविष्योत्तर पुराण]] इसे वसन्त से संयुक्त करते हैं, अत: यह उत्सव पूर्णिमान्त गणना के अनुसार वर्ष के अन्त में होता था। अत: होलिका हेमन्त या पतझड़ के अन्त की सूचक है और वसन्त की कामप्रेममय लीलाओं की द्योतक है। मस्तीभरे गाने, नृत्य एवं संगीत वसन्तागमन के उल्लासपूर्ण क्षणों के परिचायक हैं। वसन्त की आनन्दाभिव्यक्ति रंगीन जल एवं लाल रंग, अबीर-गुलाल के पारस्परिक आदान-प्रदान से प्रकट होती है। कुछ प्रदेशों में यह रंग युक्त वातावरण होलिका के दिन ही होता है, किन्तु दक्षिण में यह होलिका के पाँचवें दिन (रंग-पंचमी) मनायी जाती है। कहीं-कहीं रंगों के खेल पहले से आरम्भ कर दिये जाते हैं और बहुत दिनों तक चलते रहते हैं; होलिका के पूर्व ही 'पहुनई' में आये हुए लोग एक-दूसरे पर पंक (कीचड़) भी फेंकते हैं। <ref>वर्षकृत्यदीपक (पृ0 301) में निम्न श्लोक आये हैं- <br /> | ||
+ | 'प्रभाते बिमले जाते ह्यंगे भस्म च कारयेत्। सर्वागे च ललाटे च क्रीडितव्यं पिशाचवत्॥<br /> | ||
+ | सिन्दरै: कुंकुमैश्चैव धूलिभिर्धूसरो भवेत्। गीतं वाद्यं च नृत्यं च कृर्याद्रथ्योपसर्पणम् ॥ <br /> | ||
+ | ब्राह्मणै: क्षत्रियैर्वैश्यै: शूद्रैश्चान्यैश्च जातिभि:। एकीभूय प्रकर्तव्या क्रीडा या फाल्गुने सदा। बालकै: वह गन्तव्यं फाल्गुन्यां च युधिष्ठिर ॥'</ref> कही-कहीं दो-तीन दिनों तक मिट्टी, पंक, रंग, गान आदि से लोग मतवाले होकर दल बना कर होली का हुड़दंग मचाते हैं, सड़कें लाल हो जाती हैं। कहीं-कहीं लोग भद्दे मजाकों, अश्लील गानों से अपनी कामेच्छाओं की बाह्य तृप्ति करते हैं। वास्तव में यह उत्सव प्रेम करने से सम्बन्धित है, किन्तु शिष्ट जनों की नारियाँ इन दिनों बाहर नहीं निकल पातीं, क्योंकि उन्हें भय रहता है कि लोग भद्दी गालियाँ न दे बैठें। श्री गुप्ते ने अपने लेख<ref>हिन्दू हालीडेज एवं सेरीमनीज'(पृ. 92)</ref> में प्रकट किया है कि यह उत्सव ईजिप्ट (मिस्र) या ग्रीस (यूनान) से लिया गया है। किन्तु यह भ्रामक दृष्टिकोण है। लगता है, उन्होंने भारतीय प्राचीन ग्रन्थों का अवलोकन नहीं किया है, दूसरे, वे इस विषय में भी निश्चित नहीं हैं कि इस उत्सव का उद्गम मिस्त्र से है या यूनान से। उनकी धारणा को गम्भीरता से नहीं लेना चाहिए। | ||
+ | ====होलिका==== | ||
+ | हेमाद्रि<ref>(व्रत, भाग 2, पृ0 174-190)</ref> ने भविष्योत्तर<ref>भविष्योत्तर, 132।1।51</ref> से उद्धरण देकर एक कथा दी है। [[युधिष्ठिर]] ने [[कृष्ण]] से पूछा कि फाल्गुन-पूर्णिमा को प्रत्येक गाँव एवं नगर में एक उत्सव क्यों होता है, प्रत्येक घर में बच्चे क्यों क्रीड़ामय हो जाते हैं और होलाका क्यों जलाते हैं, उसमें किस [[देवता]] की पूजा होती है, किसने इस उत्सव का प्रचार किया, इसमें क्या होता है और यह 'अडाडा' क्यों कही जाती है। [[चित्र:Holika-Prahlad-1.jpg|thumb|[[प्रह्लाद]] को गोद में बिठाकर बैठी होलिका|220px|left]] कृष्ण ने युधिष्ठिर से राजा रघु के विषय में एक किंवदन्ती कही। राजा रघु के पास लोग यह कहने के लिए गये कि 'ढोण्ढा' नामक एक राक्षसी है जिसे [[शिव]] ने वरदान दिया है कि उसे देव, मानव आदि नहीं मार सकते हैं और न वह [[अस्त्र शस्त्र]] या जाड़ा या गर्मी या वर्षा से मर सकती है, किन्तु शिव ने इतना कह दिया है कि वह क्रीड़ायुक्त बच्चों से भय खा सकती है। पुरोहित ने यह भी बताया कि फाल्गुन की पूर्णिमा को जाड़े की ऋतु समाप्त होती है और ग्रीष्म ऋतु का आगमन होता है, तब लोग हँसें एवं आनन्द मनायें, बच्चे लकड़ी के टुकड़े लेकर बाहर प्रसन्नतापूर्वक निकल पड़ें, लकड़ियाँ एवं घास एकत्र करें, रक्षोघ्न मन्त्रों के साथ उसमें आग लगायें, तालियाँ बजायें, अग्नि की तीन बार प्रदक्षिणा करें, हँसें और प्रचलित भाषा में भद्दे एवं अश्लील गाने गायें, इसी शोरगुल एवं अट्टहास से तथा होम से वह राक्षसी मरेगी। जब राजा ने यह सब किया तो राक्षसी मर गयी और वह दिन अडाडा या होलिका कहा गया। आगे आया है कि दूसरे दिन [[चैत्र]] की [[प्रतिपदा]] पर लोगों को होलिकाभस्म को प्रणाम करना चाहिए, मन्त्रोच्चारण करना चाहिए, घर के प्रांगण में वर्गाकार स्थल के मध्य में काम-पूजा करनी चाहिए। काम-प्रतिमा पर सुन्दर नारी द्वारा चन्दन-लेप लगाना चाहिए और पूजा करने वाले को चन्दन-लेप से मिश्रित आम्र-बौर खाना चाहिए। इसके उपरान्त यथाशक्ति ब्राह्मणों, भाटों आदि को दान देना चाहिए और 'काम देवता मुझ पर प्रसन्न हों' ऐसा कहना चाहिए। इसके आगे [[पुराण]] में आया है- 'जब शुक्ल पक्ष की 15वीं तिथि पर पतझड़ समाप्त हो जाता है और वसन्त ऋतु का प्रात: आगमन होता है तो जो व्यक्ति चन्दन-लेप के साथ आम्र-मंजरी खाता है वह आनन्द से रहता है।' | ||
+ | ====होलिका दहन==== | ||
+ | [[चित्र:Holi-Holika-Dahan-Mathura.jpg|[[होलिका दहन]], [[मथुरा]]|thumb|180px]] | ||
+ | {{Main|होलिका दहन}} | ||
+ | पूर्ण चंद्रमा (फाल्गुनपूर्णिमा) के दिन ही प्रारंभ होता है। इस दिन सायंकाल को होली जलाई जाती है। इसके एक माह पूर्व अर्थात् माघ पूर्णिमा को 'एरंड' या गूलर वृक्ष की टहनी को गाँव के बाहर किसी स्थान पर गाड़ दिया जाता है, और उस पर लकड़ियाँ, सूखे उपले, खर-पतवार आदि चारों से एकत्र किया जाता है और फाल्गुन पूर्णिमा की रात या सायंकाल इसे जलाया जाता है। परंपरा के अनुसार सभी लोग अलाव के चारों ओर एकत्रित होते हैं। इसी अलाव को होली कहा जाता है। होली की अग्नि में सूखी पत्तियाँ, टहनियाँ, व सूखी लकड़ियाँ डाली जाती हैं, तथा लोग इसी अग्नि के चारों ओर नृत्य व [[संगीत]] का आनन्द लेते हैं। | ||
+ | ==होली की प्राचीन कथाएँ== | ||
+ | *एक कहानी यह भी है कि [[कंस]] के निर्देश पर जब राक्षसी पूतना [[श्रीकृष्ण]] को मारने के लिए उनको विषपूर्ण दुग्धपान कराना शुरू किया लेकिन श्रीकृष्ण ने [[दूध]] पीते-पीते उसे ही मार डाला। कहते हैं कि उसका शरीर भी लुप्त हो गया तो गाँव वालों ने पूतना का पुतला बना कर दहन किया और खुशियाँ मनायी। तभी से [[मथुरा]] मे होली मनाने की परंपरा है।<ref name="hmi">{{cite web |url=http://www.hindimedia.in/index.php?option=com_content&task=view&id=1508&Itemid=32#13 |title=होली की प्राचीन कथाएं |accessmonthday=10 मार्च |accessyear=2011 |last= |first= |authorlink= |format=पी.एच.पी |publisher=हिन्दी मीडिया डॉट इन |language=हिन्दी }}</ref> | ||
+ | [[चित्र:Radha-Krishna-Holi-Barsana-Mathura-12.jpg|thumb|250px|[[राधा]]-[[कृष्ण]] की छवि में ब्रजवासी, [[बरसाना]]]] | ||
+ | *एक अन्य मुख्य धारणा है कि हिमालय पुत्री [[पार्वती]] भगवान [[शंकर]] से विवाह करना चाहती थी। चूँकि शंकर जी तपस्या में लीन थे इसलिए [[कामदेव]] पार्वती की मदद के लिए आए। कामदेव ने अपना प्रेमवाण चलाया जिससे भगवान शिव की तपस्या भंग हो गई। शिवशंकर ने क्रोध में आकर अपनी तीसरा नेत्र खोल दिया। जिससे भगवान शिव की क्रोधाग्नि में जलकर कामदेव भस्म हो गए। फिर शंकर जी की नज़र पार्वतीजी पर गई। शिवजी ने पार्वती जी को अपनी पत्नी बना लिया और शिव जी को पति के रूप में पाने की पार्वती जी की अराधना सफल हो गई। होली के अग्नि में वासनात्मक आकर्षण को प्रतीकात्मक रूप से जलाकर सच्चे प्रेम के विजय के रूप में यह त्यौहार विजयोत्सव के रूप मे मनाया जाता है।<ref name="hmi"></ref> | ||
+ | *[[मनुस्मृति]] में इसी दिन मनु के जन्म का उल्लेख है। कहा जाता है मनु ही इस [[पृथ्वी]] पर आने वाले सर्वप्रथम मानव थे। इसी दिन नर-नारायणके जन्म का भी वर्णन है जिन्हें भगवान [[विष्णु]] का चौथा अवतार माना जाता है।<ref name="hmi"></ref> | ||
+ | *[[सतयुग]] में भविष्योतरापूरन नगर में छोटे से लेकर बड़ों को सर्दी-जुकाम जैसी बीमारियाँ लग गई। वहाँ के लोग द्युँधा नाम की राक्षसी का प्रभाव मान रहे थे। इससे रक्षा के लिए वे लोग आग के पास रहते थे। सामान्यतौर पर मौसम परिवर्तन के समय लोगों को इस तरह की बीमारीयाँ हो जाती हैं, जिसमे अग्नि राहत पहुँचाती है। ‘शामी’ का पेड़ जिसे अग्नि-शक्ति का प्रतीक माना गया था, उसे जलाया गया और अगले दिन सत्ययुगीन राजा [[रघु]] ने होली मनायी।<ref name="hmi"></ref> | ||
+ | इस तरह देखते हैं कि होली विभिन्न युगों में तरह-तरह से और अनेक नामों से मनायी गयी और आज भी मनाई जा रही है। इस तरह कह सकते हैं कि असत्य पर सत्य की या बुराई पर अच्छाई पर जीत की खुशी के रूप मे होली मनायी जाती है। इसके रंगो मे रंग कर हम तमाम खुशियों को आत्मसात कर लेते हैं। | ||
+ | ==साहित्य में होली की झलक== | ||
+ | [[संस्कृत]] शब्द होलक्का से होली शब्द का जन्म हुआ है। वैदिक युग में (होलक्का) को ऐसा अन्न माना जाता था, जो देवों का मुख्य रूप से खाद्य-पदार्थ था। बंगाल मे होली को डोल यात्रा या झूलन पर्व, दक्षिण भारत में कामथनम, [[bk:मध्य प्रदेश|मध्य प्रदेश]] के [[bk:छत्तीसगढ़|छत्तीसगढ़]] में ’गोल बढ़ेदो’ नाम से उत्सव मनाया जाता है और [[bk:उत्तरांचल|उत्तरांचल]] में लोक संगीत व शास्त्रीय संगीत की प्रधानता है। 'प्रियदर्शिका', 'रत्नावली', 'कुमार सम्भव' सभी में रंग का वर्णन आया है। [[कालिदास]] रचित 'ऋतुसंहार' में पूरा एक सर्ग ही 'वसन्तोत्सव' को अर्पित है। 'भारवि', 'माघ' जैसे संस्कृत कवियों ने भी वसन्त और होली पर्व का उल्लेख अपनी रचनाओं में किया है। 'पृथ्वीराज रासो' में होली का वर्णन है। महाकवि [[सूरदास]] ने वसन्त एवं होली पर 78 पद लिखे हैं। पद्माकर ने भी होली को लेकर कई मस्ती भरे पद लिखे हैं जिनमें प्रकृति और धरती माता के होली खेलने के भावों को प्रकट किया गया है। <ref>{{cite web |url=http://www.hindimedia.in/index.php?option=com_content&task=view&id=1508&Itemid=32#10 |title=भारतीय साहित्य, संस्कृति और परंपरा में होली |accessmonthday=10 मार्च |accessyear=2011 |last= |first= |authorlink= |format=पी.एच.पी |publisher=हिन्दी मीडिया डॉट इन |language=हिन्दी }}</ref> | ||
+ | ====उर्दू साहित्य में होली==== | ||
+ | {| class=brajtable border=1 style="margin:2px; float:right; text-align:center" | ||
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+ | | [[चित्र:Krishna Janm Bhumi Holi Mathura 1.jpg|180px|होली, [[कृष्ण जन्मभूमि]], [[मथुरा]]]] | ||
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+ | | <small>होली, [[कृष्ण जन्मभूमि]], [[मथुरा]]</small> | ||
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+ | | [[चित्र:Krishna Janm Bhumi Holi Mathura 3.jpg|180px|होली, [[कृष्ण जन्मभूमि]], [[मथुरा]]]] | ||
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+ | | <small>होली, [[कृष्ण जन्मभूमि]], [[मथुरा]]</small> | ||
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+ | | [[चित्र:Holi-Radha-Krishna.jpg|180px|कृष्ण होली लीला]] | ||
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+ | | <small>कृष्ण होली लीला</small> | ||
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+ | | [[चित्र:Holi Ramanreti Mathura 1.jpg|180px| होली, रमण रेती, महावन]] | ||
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+ | | <small>होली, रमण रेती, [[महावन]]</small> | ||
+ | |} | ||
+ | [[मुग़ल काल]] में रचे गए उर्दू साहित्य में फायज देहलवी, हातिम, मीर, कुली कुतुबशाह, महज़ूर, [[बहादुर शाह ज़फ़र]], नज़ीर, आतिश, ख्वाजा हैदर अली 'आतिश', इंशा और तांबा जैसे कई नामी शायरों ने होली की मस्ती और राधा कृष्ण के निश्छल प्यार को अपनी शायरी में बहुत खूबसूरती से पिरोया है। [[उर्दू]] के जाने माने शायर नजीर अकबराबादी पर उर्दू अदब के भारत की संस्कृति और परंपराओ का ज़बर्दस्त असर था। 150 साल पहले लिखी गई उनकी रचनाएं नजीर की बानी के नाम से प्रसिद्ध है उन्होंने जिस मस्ती के साथ होली का वर्णन किया है उसको पढ़कर ही उस दौर में खेली जाने वाली होली की मस्ती की महक मदमस्त कर देती है।<br /> | ||
+ | *[[उर्दू]] के जाने माने शायर '''नजीर अकबराबादी''' की एक कविता<br /> | ||
+ | <blockquote><poem>जब ठहरी लपधप होरी की और चलने लगी पिचकारी भी। | ||
+ | कुछ सुर्खी रंग गुलालों की, कुछ केसर की जरकारी भी।। | ||
+ | होरी खेलें हँस हँस मनमोहन और उनसे राधा प्यारी भी। | ||
+ | यह भीगी सर से पाँव तलक और भीगे किशन मुरारी भी।। | ||
+ | डफ बाजे, राग और रंग हुए, होली खेलन की झमकन में। | ||
+ | गुलशोर गुलाल और रंग पड़े हुई धूम कदम की छैयन में।।<ref name="himi">{{cite web |url=http://www.hindimedia.in/index.php?option=com_content&task=view&id=1508&Itemid=32#14 |title=उर्दू साहित्य में होली |accessmonthday=10 मार्च |accessyear=2011 |last= |first= |authorlink= |format=पी.एच.पी |publisher=हिन्दी मीडिया डॉट इन |language=हिन्दी }}</ref></poem></blockquote> | ||
+ | *[[अमीर खुसरो]] ने होली को अपने सूफी अंदाज़ में कुछ ऐसे देखा है- | ||
+ | <blockquote><poem>दैय्या रे मोहे भिजोया री, शाह निजाम के रंग में | ||
+ | कपड़े रंग के कुछ न होत है, या रंग में तन को डुबोया री।<ref name="himi"></ref></poem></blockquote> | ||
+ | *अंतिम मुग़ल बादशाह [[बहादुर शाह जफर]] के शब्दों में होली की मस्ती का रंग कुछ इस तरह दिखाई देता है | ||
+ | <blockquote><poem>क्यों मो पे रंग की मारी पिचकारी | ||
+ | देखो कुँवरजी दूँगी मैं गारी...<ref name="himi"></ref></poem></blockquote> | ||
+ | ====भक्ति काल में होली==== | ||
+ | *भक्तिकाल के महाकवि [[bk:घनानंद कवि|घनानंद]] ने होली की मस्ती को अपने शब्दों में कुछ यों पिरोया है- | ||
+ | <blockquote><poem>प्रिय देह अछेह भरी दुति देह, दियै तरुनाई के तेह तुली। | ||
+ | अति ही गति धीर समीर लगै, मृदु हेमलता जिमि जाति डुली। | ||
+ | घनानंद खेल उलैल दतै, बिल सैं, खुल सैं लट भूमि झुली। | ||
+ | सुढि सुंदर भाल पै मौंहनि बीच, गुलाल की कैसी खुली टिकुली।<ref name="himi"></ref></poem></blockquote> | ||
+ | *भक्ति काल के महाकवि पद्माकर ने कृष्ण और राधा की होली की मस्ती को कुछ यों बयान करते हैं- | ||
+ | <blockquote><poem>फाग की मीर अमीरनि ज्यों, गहि गोविंद लै गई भीतर गोरी, | ||
+ | माय करी मन की पद्माकर, ऊपर नाय अबीर की झोरी। | ||
+ | छीन पितंबर कम्मर ते, सुबिदा दई मीड कपोलन रोरी, | ||
+ | नैन नचाय मुस्काय कहें, लला फिर अइयो खेलन होरी।<ref name="himi"></ref></poem></blockquote> | ||
+ | *[[bk:भारतेंदु हरिश्चंद्र|भारतेंदुजी]] भी तो फगुनिया जाते हैं और फिर गाते भी हैं- | ||
+ | <blockquote><poem>गले मुझको लगा लो ऐ मेरे दिलदार होली में, | ||
+ | बुझे दिल की लगी मेरी भी ए यार होली में।<ref name="himi"></ref></poem></blockquote> | ||
+ | ==दुलेंडी== | ||
+ | [[चित्र:Holi-1.jpg|thumb|150px|बाज़ार में विभिन्न रंगो का दृश्य ]] | ||
+ | यह त्योहार आगामी दिन, रंग दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस पर्व पर किशोर-किशोरियाँ, वयस्क व वृद्ध सभी एक-दूसरे पर गुलाल बरसाते हैं तथा पिचकारियों से गीले रंग लगाते हैं। पारंपरिक रूप से केवल प्राकृतिक व जड़ी-बूटियों से निर्मित रंगों का प्रयोग होता है, परंतु आज कल कृत्रिम रंगों ने इनका स्थान ले लिया है। आजकल तो लोग जिस-किसी के साथ भी शरारत या मजाक करना चाहते हैं। उसी पर रंगीले झाग व रंगों से भरे गुब्बारे मारते हैं। प्रेम से भरे यह - [[bk:नारंगी रंग|नारंगी]], [[bk:लाल रंग|लाल]], [[bk:हरा रंग|हरे]], [[bk:नीला रंग|नीले]], [[bk:बैंगनी रंग|बैंगनी]] तथा [[bk:काला रंग|काले]] रंग सभी के मन से कटुता व वैमनस्य को धो देते हैं तथा सामुदायिक मेल-जोल को बढ़ाते हैं। इस दिन सभी के घर पकवान व मिष्टान बनते हैं। लोग एक- दूसरे के घर जाकर गले मिलते हैं और पकवान खाते हैं। | ||
+ | ==स्वादिष्ट व्यंजन== | ||
+ | मिष्ठान इस पर्व की विशेषता हैं। उत्तर भारत में आप गुझिया का आनन्द ले सकते हैं व पश्चिम में, [[bk:महाराष्ट्र|महाराष्ट्र]] में पूरनपोली का। ठंडाई (शीतल पेय जिसे [[bk:दूध|दूध]], भांग, बादाम मिलाकर घोटकर बनाया जाता है) भांग ( यह एक नशीले पौधे की पत्तियों का घोल है) परंतु इस मिश्रण से सावधान ही रहना चाहिए, [[चित्र:Gujia.jpg|thumb|गुझिया|left]] क्योंकि यह पेय होली पर प्रायः सभी जगह बनाया व विपरित किया जाता है। इसका नशा जल्दी उतरता नहीं, और भूख बढ़ती ही जाती है, इसके पीने से दिमाग पर बुरा प्रभाव पड़ता है। | ||
==अन्य प्रान्तों में होलिका== | ==अन्य प्रान्तों में होलिका== | ||
− | आनन्दोल्लास से परिपूर्ण एवं अश्लील गान-नृत्यों में लीन लोग जब अन्य प्रान्तों में होलिका का उत्सव मनाते हैं तब बंगाल में दोलयात्रा का उत्सव होता है। देखिए शूलपाणिकृत 'दोलयात्राविवेक।' यह उत्सव पाँच या तीन दिनों तक चलता है। पूर्णिमा के पूर्व चतुर्दशी को | + | आनन्दोल्लास से परिपूर्ण एवं अश्लील गान-नृत्यों में लीन लोग जब अन्य प्रान्तों में होलिका का उत्सव मनाते हैं तब बंगाल में दोलयात्रा का उत्सव होता है। देखिए शूलपाणिकृत 'दोलयात्राविवेक।' यह उत्सव पाँच या तीन दिनों तक चलता है। पूर्णिमा के पूर्व चतुर्दशी को सन्ध्या के समय मण्डप के पूर्व में अग्नि के सम्मान में एक उत्सव होता है। गोविन्द की प्रतिमा का निर्माण होता है। एक वेदिका पर 16 खम्भों से युक्त मण्डप में प्रतिमा रखी जाती है। इसे पंचामृत से नहलाया जाता है, कई प्रकार के कृत्य किये जाते हैं, मूर्ति या प्रतिमा को इधर-उधर सात बार डोलाया जाता है। प्रथम दिन की प्रज्वलित अग्नि उत्सव के अन्त तक रखी जाती है। अन्त में प्रतिमा 21 बार डोलाई या झुलाई जाती है। ऐसा आया है कि इन्द्रद्युम्न राजा ने [[वृन्दावन]] में इस झूले का उत्सव आरम्भ किया था। इस उत्सव के करने से व्यक्ति सभी पापों से मुक्त हो जाता है। शूलपाणि ने इसकी तिथि, प्रहर, नक्षत्र आदि के विषय में विवेचन कर निष्कर्ष निकाला है कि दोलयात्रा पूर्णिमा तिथि की उपस्थिति में ही होनी चाहिए, चाहे उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र हो या न हो। |
− | होलिकोत्सव के विषय में नि0 सि0 | + | होलिकोत्सव के विषय में नि0 सि0<balloon title="नि0 सि0, पृ0 227" style=color:blue>*</balloon>, [[स्मृतिकौस्तुभ]]<balloon title="(स्मृतिकौस्तुभ, पृ0 516-519), पृ0 चि0 (पृ0 308-319)" style=color:blue>*</balloon> आदि निबन्धों में वर्णन आया है। |
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==शताब्दियों पूर्व से होलिका उत्सव प्रचलित था== | ==शताब्दियों पूर्व से होलिका उत्सव प्रचलित था== | ||
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+ | * [[बलदेव होली चित्र वीथिका|बलदेव]] | ||
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+ | [[जैमिनि]] एवं काठकगृह्य में वर्णित होने के कारण यह कहा जा सकता है कि ईसा की कई शताब्दियों पूर्व से होलाका का उत्सव प्रचलित था। कामसूत्र एवं [[भविष्य पुराण|भविष्योत्तर पुराण]] इसे [[वसन्त]] से संयुक्त करते हैं, अत: यह उत्सव पूर्णिमान्त गणना के अनुसार वर्ष के अन्त में होता था। अत: होलिका हेमन्त या पतझड़ के अन्त की सूचक है और वसन्त की कामप्रेममय लीलाओं की द्योतक है। मस्तीभरे गाने, नृत्य एवं संगीत वसन्तागमन के उल्लासपूर्ण क्षणों के परिचायक हैं। वसन्त की आनन्दाभिव्यक्ति रंगीन जल एवं लाल रंग, अबीर-गुलाल के पारस्परिक आदान-प्रदान से प्रकट होती है। कुछ प्रदेशों में यह रंग युक्त वातावरण होलिका के दिन ही होता है, किन्तु दक्षिण में यह होलिका के पाँचवें दिन (रंग-पंचमी) मनायी जाती है। कहीं-कहीं रंगों के खेल पहले से आरम्भ कर दिये जाते हैं और बहुत दिनों तक चलते रहते हैं; होलिका के पूर्व ही 'पहुनई' में आये हुए लोग एक-दूसरे पर पंक (कीचड़) भी फेंकते हैं। <ref>वर्षकृत्यदीपक (पृ0 301) में निम्न श्लोक आये हैं- <br /> | ||
'प्रभाते बिमले जाते ह्यंगे भस्म च कारयेत्। सर्वागे च ललाटे च क्रीडितव्यं पिशाचवत्॥<br /> | 'प्रभाते बिमले जाते ह्यंगे भस्म च कारयेत्। सर्वागे च ललाटे च क्रीडितव्यं पिशाचवत्॥<br /> | ||
सिन्दरै: कुंकुमैश्चैव धूलिभिर्धूसरो भवेत्। गीतं वाद्यं च नृत्यं च कृर्याद्रथ्योपसर्पणम् ॥ <br /> | सिन्दरै: कुंकुमैश्चैव धूलिभिर्धूसरो भवेत्। गीतं वाद्यं च नृत्यं च कृर्याद्रथ्योपसर्पणम् ॥ <br /> | ||
− | ब्राह्मणै: क्षत्रियैर्वैश्यै: शूद्रैश्चान्यैश्च जातिभि:। एकीभूय प्रकर्तव्या क्रीडा या फाल्गुने सदा। बालकै: वह गन्तव्यं फाल्गुन्यां च युधिष्ठिर ॥'</ref> कही-कहीं दो-तीन दिनों तक मिट्टी, पंक, रंग, गान आदि से लोग मतवाले होकर दल बना कर होली का हुड़दंग मचाते हैं, सड़कें | + | ब्राह्मणै: क्षत्रियैर्वैश्यै: शूद्रैश्चान्यैश्च जातिभि:। एकीभूय प्रकर्तव्या क्रीडा या फाल्गुने सदा। बालकै: वह गन्तव्यं फाल्गुन्यां च युधिष्ठिर ॥'</ref> कही-कहीं दो-तीन दिनों तक मिट्टी, पंक, रंग, गान आदि से लोग मतवाले होकर दल बना कर होली का हुड़दंग मचाते हैं, सड़कें लाल हो जाती हैं। कहीं-कहीं लोग भद्दे मजाकों, अश्लील गानों से अपनी कामेच्छाओं की बाह्य तृप्ति करते हैं। वास्तव में यह उत्सव प्रेम करने से सम्बन्धित है, किन्तु शिष्ट जनों की नारियाँ इन दिनों बाहर नहीं निकल पातीं, क्योंकि उन्हें भय रहता है कि लोग भद्दी गालियाँ न दे बैठें। श्री गुप्ते ने अपने लेख<balloon title="हिन्दू हालीडेज एवं सेरीमनीज'(पृ0 92)" style="color:blue">*</balloon> में प्रकट किया है कि यह उत्सव ईजिप्ट (मिस्त्र) या ग्रीस (यूनान) से लिया गया है। किन्तु यह भ्रामक दृष्टिकोण है। लगता है, उन्होंने भारतीय प्राचीन ग्रन्थों का अवलोकन नहीं किया है, दूसरे, वे इस विषय में भी निश्चित नहीं हैं कि इस उत्सव का उद्गम मिस्त्र से है या यूनान से। उनकी धारणा को गम्भीरता से नहीं लेना चाहिए। |
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− | चित्र:Baldev-Temple-3.jpg|होली, दाऊजी मन्दिर, [[ | + | चित्र:Baldev-Temple-3.jpg|होली, [[बलदेव मन्दिर|दाऊजी मन्दिर]], [[बलदेव]]<br />Holi, Dauji Temple, Baldev |
चित्र:Lathmar-Holi-Barsana-Mathura-19.jpg|[[होली बरसाना विडियो 1|लट्ठामार होली]], [[बरसाना]]<br />Lathmar Holi, Barsana | चित्र:Lathmar-Holi-Barsana-Mathura-19.jpg|[[होली बरसाना विडियो 1|लट्ठामार होली]], [[बरसाना]]<br />Lathmar Holi, Barsana | ||
− | चित्र:Holi | + | चित्र:Holi Barsana Mathura 4.jpg|लड्डू होली, [[राधा रानी मंदिर]], [[बरसाना]]<br />Laddu Holi, Radha Rani Temple, Barsana |
− | चित्र:Baldev-Holi-Mathura-21.jpg|दाऊजी मन्दिर का हुरंगा, [[ | + | चित्र:Baldev-Holi-Mathura-21.jpg|[[बलदेव मन्दिर|दाऊजी मन्दिर]] का हुरंगा, [[बलदेव]]<br />Huranga in Dauji Temple, Baldev |
− | चित्र:Baldev-Holi-Mathura-28.jpg|दाऊजी मन्दिर का हुरंगा, [[ | + | चित्र:Baldev-Holi-Mathura-28.jpg|[[बलदेव मन्दिर|दाऊजी मन्दिर]] का हुरंगा, [[बलदेव]]<br />Huranga in Dauji Temple, Baldev |
चित्र:Holi-Holigate-Mathura-12.jpg|होली, [[होली दरवाज़ा]], [[मथुरा]]<br /> Holi, Holi Gate, Mathura | चित्र:Holi-Holigate-Mathura-12.jpg|होली, [[होली दरवाज़ा]], [[मथुरा]]<br /> Holi, Holi Gate, Mathura | ||
चित्र:Holi-Barsana-Mathura-13.jpg|होली, [[बरसाना]]<br />Holi, Barsana | चित्र:Holi-Barsana-Mathura-13.jpg|होली, [[बरसाना]]<br />Holi, Barsana | ||
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चित्र:Holi-Holigate-Mathura-16.jpg|होली, [[होली दरवाज़ा]], [[मथुरा]]<br /> Holi, Holi Gate, Mathura | चित्र:Holi-Holigate-Mathura-16.jpg|होली, [[होली दरवाज़ा]], [[मथुरा]]<br /> Holi, Holi Gate, Mathura | ||
− | चित्र:Holi- | + | चित्र:Holi-Holigate-Mathura-1.jpg|होली, [[होली दरवाज़ा]], [[मथुरा]]<br /> Holi, Holi Gate, Mathura |
− | चित्र:Baldev-Holi-Mathura-25.jpg|दाऊजी मन्दिर का हुरंगा, [[ | + | चित्र:Baldev-Holi-Mathura-25.jpg|[[बलदेव मन्दिर|दाऊजी मन्दिर]] का हुरंगा, [[बलदेव]]<br />Huranga in Dauji Temple, Baldev |
चित्र:Lathmar-Holi-Barsana-Mathura-23.jpg|[[होली बरसाना विडियो 1|लट्ठामार होली]], [[बरसाना]]<br />Lathmar Holi, Barsana | चित्र:Lathmar-Holi-Barsana-Mathura-23.jpg|[[होली बरसाना विडियो 1|लट्ठामार होली]], [[बरसाना]]<br />Lathmar Holi, Barsana | ||
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चित्र:Holi-Holigate-Mathura-3.jpg|होली, [[होली दरवाज़ा]], [[मथुरा]]<br /> Holi, Holi Gate, Mathura | चित्र:Holi-Holigate-Mathura-3.jpg|होली, [[होली दरवाज़ा]], [[मथुरा]]<br /> Holi, Holi Gate, Mathura | ||
+ | चित्र:Holika Statue Mathura.jpg|होलिका की मूर्ति पर, [[मथुरा]] के शिल्पकार काम करते हुए<br /> Craftsmen Of Mathura Doing Work On Holika Statue | ||
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होली / Holi
फाग उत्सव
फाल्गुन के माह रंगभरनी एकादशी से सभी मन्दिरों में फाग उत्सव प्रारम्भ होते हैं जो दौज तक चलते हैं। दौज को बल्देव (दाऊजी) में हुरंगा होता है। बरसाना, नन्दगांव, जाव, बठैन, जतीपुरा, आन्यौर आदि में भी होली खेली जाती है। यह ब्रज विशेष त्योहार है यों तो पुराणों के अनुसार इसका सम्बन्ध पुराणकथाओं से है और ब्रज में भी होली इसी दिन जलाई जाती है। इसमें यज्ञ रूप में नवीन अन्न की बालें भूनी जाती है। प्रह्लाद की कथा की प्रेरणा इससे मिलती हैं। होली दहन के दिन कोसी के निकट फालैन गांव में प्रह्लाद कुण्ड के पास भक्त प्रह्लाद का मेला लगता है। यहाँ तेज जलती हुई होली में से नंगे बदन और नंगे पांव पण्डा निकलता है।
श्रीकृष्ण राधा और गोपियों–ग्वालों के बीच की होली के रूप में गुलाल, रंग केसर की पिचकारी से ख़ूब खेलते हैं। होली का आरम्भ फाल्गुन शुक्ल 9 बरसाना से होता है। वहां की लठामार होली जग प्रसिद्ध है। दसवीं को ऐसी ही होली नन्दगांव में होती है। इसी के साथ पूरे ब्रज में होली की धूम मचती है। धूलेंड़ी को प्राय: होली पूर्ण हो जाती है, इसके बाद हुरंगे चलते हैं, जिनमें महिलायें रंगों के साथ लाठियों, कोड़ों आदि से पुरुषों को घेरती हैं। यह सब धार्मिक वातावरण होता है।
होली या होलिका आनन्द एवं उल्लास का ऐसा उत्सव है जो सम्पूर्ण देश में मनाया जाता है। उत्सव मनाने के ढंग में कहीं-कहीं अन्तर पाया जाता है। बंगाल को छोड़कर होलिका दहन सर्वत्र देखा जाता है। बंगाल में फाल्गुन पूर्णिमा पर कृष्ण-प्रतिमा का झूला प्रचलित है किन्तु यह भारत के अधिकांश स्थानों में नहीं दिखाई पड़ता। इस उत्सव की अवधि विभिन्न प्रान्तों में विभिन्न है। इस अवसर पर लोग बाँस या धातु की पिचकारी से रंगीन जल छोड़ते हैं या अबीर-गुलाल लगाते हैं। कहीं-कहीं अश्लील गाने गाये जाते हैं। इसमें जो धार्मिक तत्त्व है वह है बंगाल में कृष्ण-पूजा करना तथा कुछ प्रदेशों में पुरोहित द्वारा होलिका की पूजा करवाना। लोग होलिका दहन के समय परिक्रमा करते हैं, अग्नि में नारियल फेंकते हैं, गेहूँ, जौ आदि के डंठल फेंकते हैं और इनके अधजले अंश का प्रसाद बनाते हैं। कहीं-कहीं लोग हथेली से मुख-स्वर उत्पन्न करते हैं।
होली विडियो होली मथुरा
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इतिहास
प्रचलित मान्यता के अनुसार यह त्योहार हिरण्यकशिपु की बहन होलिका के मारे जाने की स्मृति में भी मनाया जाता है। पुराणों में वर्णित है कि हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन होलिका वरदान के प्रभाव से नित्य अग्निस्नान करती और जलती नहीं थी हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन होलिका से प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्निस्नान करने को कहा। उसने समझा कि ऐसा करने से प्रह्लाद अग्नि में जल जाएगा तथा होलिका बच जाएगी। होलिका ने ऐसा ही किया, किंतु होलिका जल गयी, प्रह्लाद बच गये। होलिका को यह स्मरण ही नहीं रहा कि अग्नि स्नान वह अकेले ही कर सकती है। तभी से इस त्योहार के मनाने की प्रथा चल पड़ी।
आरम्भिक शब्दरूप
यह बहुत प्राचीन उत्सव है। इसका आरम्भिक शब्दरूप होलाका था।[१] भारत में पूर्वी भागों में यह शब्द प्रचलित था। जैमिनि एवं शबर का कथन है कि होला का सभी आर्यो द्वारा सम्पादित होना चाहिए। काठकगृह्य[२] में एक सूत्र है 'राका होला के', जिसकी व्याख्या टीकाकार देवपाल ने यों की है-'होला एक कर्म-विशेष है जो स्त्रियों के सौभाग्य के लिए सम्पादित होता है, उस कृत्य में राका (पूर्णचन्द्र) देवता है।'[३] अन्य टीकाकारों ने इसकी व्याख्या अन्य रूपों में की है। होला का उन बीस क्रीड़ाओं में एक है जो सम्पूर्ण भारत में प्रचलित हैं। इसका उल्लेख वात्स्यायन के कामसूत्र[४] में भी हुआ है जिसका अर्थ टीकाकार जयमंगल ने किया है। फाल्गुन की पूर्णिमा पर लोग श्रृंग से एक-दूसरे पर रंगीन जल छोड़ते हैं और सुगंधित चूर्ण बिखेरते हैं। हेमाद्रि[५] ने बृहद्यम का एक श्लोक उद्भृत किया है। जिसमें होलिका-पूर्णिमा को हुताशनी (आलकज की भाँति) कहा गया है। लिंग पुराण में आया है- 'फाल्गुन पूर्णिमा को 'फाल्गुनिका' कहा जाता है, यह बाल-क्रीड़ाओं से पूर्ण है और लोगों को विभूति (ऐश्वर्य) देने वाली है।' वराह पुराण में आया है कि यह 'पटवास-विलासिनी' (चूर्ण से युक्त क्रीड़ाओं वाली) है। [६]
शताब्दियों पूर्व से होलिका उत्सव
जैमिनि एवं काठकगृह्य में वर्णित होने के कारण यह कहा जा सकता है कि ईसा की कई शताब्दियों पूर्व से होलाका का उत्सव प्रचलित था। कामसूत्र एवं भविष्योत्तर पुराण इसे वसन्त से संयुक्त करते हैं, अत: यह उत्सव पूर्णिमान्त गणना के अनुसार वर्ष के अन्त में होता था। अत: होलिका हेमन्त या पतझड़ के अन्त की सूचक है और वसन्त की कामप्रेममय लीलाओं की द्योतक है। मस्तीभरे गाने, नृत्य एवं संगीत वसन्तागमन के उल्लासपूर्ण क्षणों के परिचायक हैं। वसन्त की आनन्दाभिव्यक्ति रंगीन जल एवं लाल रंग, अबीर-गुलाल के पारस्परिक आदान-प्रदान से प्रकट होती है। कुछ प्रदेशों में यह रंग युक्त वातावरण होलिका के दिन ही होता है, किन्तु दक्षिण में यह होलिका के पाँचवें दिन (रंग-पंचमी) मनायी जाती है। कहीं-कहीं रंगों के खेल पहले से आरम्भ कर दिये जाते हैं और बहुत दिनों तक चलते रहते हैं; होलिका के पूर्व ही 'पहुनई' में आये हुए लोग एक-दूसरे पर पंक (कीचड़) भी फेंकते हैं। [७] कही-कहीं दो-तीन दिनों तक मिट्टी, पंक, रंग, गान आदि से लोग मतवाले होकर दल बना कर होली का हुड़दंग मचाते हैं, सड़कें लाल हो जाती हैं। कहीं-कहीं लोग भद्दे मजाकों, अश्लील गानों से अपनी कामेच्छाओं की बाह्य तृप्ति करते हैं। वास्तव में यह उत्सव प्रेम करने से सम्बन्धित है, किन्तु शिष्ट जनों की नारियाँ इन दिनों बाहर नहीं निकल पातीं, क्योंकि उन्हें भय रहता है कि लोग भद्दी गालियाँ न दे बैठें। श्री गुप्ते ने अपने लेख[८] में प्रकट किया है कि यह उत्सव ईजिप्ट (मिस्र) या ग्रीस (यूनान) से लिया गया है। किन्तु यह भ्रामक दृष्टिकोण है। लगता है, उन्होंने भारतीय प्राचीन ग्रन्थों का अवलोकन नहीं किया है, दूसरे, वे इस विषय में भी निश्चित नहीं हैं कि इस उत्सव का उद्गम मिस्त्र से है या यूनान से। उनकी धारणा को गम्भीरता से नहीं लेना चाहिए।
होलिका
हेमाद्रि[९] ने भविष्योत्तर[१०] से उद्धरण देकर एक कथा दी है। युधिष्ठिर ने कृष्ण से पूछा कि फाल्गुन-पूर्णिमा को प्रत्येक गाँव एवं नगर में एक उत्सव क्यों होता है, प्रत्येक घर में बच्चे क्यों क्रीड़ामय हो जाते हैं और होलाका क्यों जलाते हैं, उसमें किस देवता की पूजा होती है, किसने इस उत्सव का प्रचार किया, इसमें क्या होता है और यह 'अडाडा' क्यों कही जाती है। कृष्ण ने युधिष्ठिर से राजा रघु के विषय में एक किंवदन्ती कही। राजा रघु के पास लोग यह कहने के लिए गये कि 'ढोण्ढा' नामक एक राक्षसी है जिसे शिव ने वरदान दिया है कि उसे देव, मानव आदि नहीं मार सकते हैं और न वह अस्त्र शस्त्र या जाड़ा या गर्मी या वर्षा से मर सकती है, किन्तु शिव ने इतना कह दिया है कि वह क्रीड़ायुक्त बच्चों से भय खा सकती है। पुरोहित ने यह भी बताया कि फाल्गुन की पूर्णिमा को जाड़े की ऋतु समाप्त होती है और ग्रीष्म ऋतु का आगमन होता है, तब लोग हँसें एवं आनन्द मनायें, बच्चे लकड़ी के टुकड़े लेकर बाहर प्रसन्नतापूर्वक निकल पड़ें, लकड़ियाँ एवं घास एकत्र करें, रक्षोघ्न मन्त्रों के साथ उसमें आग लगायें, तालियाँ बजायें, अग्नि की तीन बार प्रदक्षिणा करें, हँसें और प्रचलित भाषा में भद्दे एवं अश्लील गाने गायें, इसी शोरगुल एवं अट्टहास से तथा होम से वह राक्षसी मरेगी। जब राजा ने यह सब किया तो राक्षसी मर गयी और वह दिन अडाडा या होलिका कहा गया। आगे आया है कि दूसरे दिन चैत्र की प्रतिपदा पर लोगों को होलिकाभस्म को प्रणाम करना चाहिए, मन्त्रोच्चारण करना चाहिए, घर के प्रांगण में वर्गाकार स्थल के मध्य में काम-पूजा करनी चाहिए। काम-प्रतिमा पर सुन्दर नारी द्वारा चन्दन-लेप लगाना चाहिए और पूजा करने वाले को चन्दन-लेप से मिश्रित आम्र-बौर खाना चाहिए। इसके उपरान्त यथाशक्ति ब्राह्मणों, भाटों आदि को दान देना चाहिए और 'काम देवता मुझ पर प्रसन्न हों' ऐसा कहना चाहिए। इसके आगे पुराण में आया है- 'जब शुक्ल पक्ष की 15वीं तिथि पर पतझड़ समाप्त हो जाता है और वसन्त ऋतु का प्रात: आगमन होता है तो जो व्यक्ति चन्दन-लेप के साथ आम्र-मंजरी खाता है वह आनन्द से रहता है।'होलिका दहन
पूर्ण चंद्रमा (फाल्गुनपूर्णिमा) के दिन ही प्रारंभ होता है। इस दिन सायंकाल को होली जलाई जाती है। इसके एक माह पूर्व अर्थात् माघ पूर्णिमा को 'एरंड' या गूलर वृक्ष की टहनी को गाँव के बाहर किसी स्थान पर गाड़ दिया जाता है, और उस पर लकड़ियाँ, सूखे उपले, खर-पतवार आदि चारों से एकत्र किया जाता है और फाल्गुन पूर्णिमा की रात या सायंकाल इसे जलाया जाता है। परंपरा के अनुसार सभी लोग अलाव के चारों ओर एकत्रित होते हैं। इसी अलाव को होली कहा जाता है। होली की अग्नि में सूखी पत्तियाँ, टहनियाँ, व सूखी लकड़ियाँ डाली जाती हैं, तथा लोग इसी अग्नि के चारों ओर नृत्य व संगीत का आनन्द लेते हैं।
होली की प्राचीन कथाएँ
- एक कहानी यह भी है कि कंस के निर्देश पर जब राक्षसी पूतना श्रीकृष्ण को मारने के लिए उनको विषपूर्ण दुग्धपान कराना शुरू किया लेकिन श्रीकृष्ण ने दूध पीते-पीते उसे ही मार डाला। कहते हैं कि उसका शरीर भी लुप्त हो गया तो गाँव वालों ने पूतना का पुतला बना कर दहन किया और खुशियाँ मनायी। तभी से मथुरा मे होली मनाने की परंपरा है।[११]
- एक अन्य मुख्य धारणा है कि हिमालय पुत्री पार्वती भगवान शंकर से विवाह करना चाहती थी। चूँकि शंकर जी तपस्या में लीन थे इसलिए कामदेव पार्वती की मदद के लिए आए। कामदेव ने अपना प्रेमवाण चलाया जिससे भगवान शिव की तपस्या भंग हो गई। शिवशंकर ने क्रोध में आकर अपनी तीसरा नेत्र खोल दिया। जिससे भगवान शिव की क्रोधाग्नि में जलकर कामदेव भस्म हो गए। फिर शंकर जी की नज़र पार्वतीजी पर गई। शिवजी ने पार्वती जी को अपनी पत्नी बना लिया और शिव जी को पति के रूप में पाने की पार्वती जी की अराधना सफल हो गई। होली के अग्नि में वासनात्मक आकर्षण को प्रतीकात्मक रूप से जलाकर सच्चे प्रेम के विजय के रूप में यह त्यौहार विजयोत्सव के रूप मे मनाया जाता है।[११]
- मनुस्मृति में इसी दिन मनु के जन्म का उल्लेख है। कहा जाता है मनु ही इस पृथ्वी पर आने वाले सर्वप्रथम मानव थे। इसी दिन नर-नारायणके जन्म का भी वर्णन है जिन्हें भगवान विष्णु का चौथा अवतार माना जाता है।[११]
- सतयुग में भविष्योतरापूरन नगर में छोटे से लेकर बड़ों को सर्दी-जुकाम जैसी बीमारियाँ लग गई। वहाँ के लोग द्युँधा नाम की राक्षसी का प्रभाव मान रहे थे। इससे रक्षा के लिए वे लोग आग के पास रहते थे। सामान्यतौर पर मौसम परिवर्तन के समय लोगों को इस तरह की बीमारीयाँ हो जाती हैं, जिसमे अग्नि राहत पहुँचाती है। ‘शामी’ का पेड़ जिसे अग्नि-शक्ति का प्रतीक माना गया था, उसे जलाया गया और अगले दिन सत्ययुगीन राजा रघु ने होली मनायी।[११]
इस तरह देखते हैं कि होली विभिन्न युगों में तरह-तरह से और अनेक नामों से मनायी गयी और आज भी मनाई जा रही है। इस तरह कह सकते हैं कि असत्य पर सत्य की या बुराई पर अच्छाई पर जीत की खुशी के रूप मे होली मनायी जाती है। इसके रंगो मे रंग कर हम तमाम खुशियों को आत्मसात कर लेते हैं।
साहित्य में होली की झलक
संस्कृत शब्द होलक्का से होली शब्द का जन्म हुआ है। वैदिक युग में (होलक्का) को ऐसा अन्न माना जाता था, जो देवों का मुख्य रूप से खाद्य-पदार्थ था। बंगाल मे होली को डोल यात्रा या झूलन पर्व, दक्षिण भारत में कामथनम, मध्य प्रदेश के छत्तीसगढ़ में ’गोल बढ़ेदो’ नाम से उत्सव मनाया जाता है और उत्तरांचल में लोक संगीत व शास्त्रीय संगीत की प्रधानता है। 'प्रियदर्शिका', 'रत्नावली', 'कुमार सम्भव' सभी में रंग का वर्णन आया है। कालिदास रचित 'ऋतुसंहार' में पूरा एक सर्ग ही 'वसन्तोत्सव' को अर्पित है। 'भारवि', 'माघ' जैसे संस्कृत कवियों ने भी वसन्त और होली पर्व का उल्लेख अपनी रचनाओं में किया है। 'पृथ्वीराज रासो' में होली का वर्णन है। महाकवि सूरदास ने वसन्त एवं होली पर 78 पद लिखे हैं। पद्माकर ने भी होली को लेकर कई मस्ती भरे पद लिखे हैं जिनमें प्रकृति और धरती माता के होली खेलने के भावों को प्रकट किया गया है। [१२]
उर्दू साहित्य में होली
होली, कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा |
होली, कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा |
कृष्ण होली लीला |
होली, रमण रेती, महावन |
मुग़ल काल में रचे गए उर्दू साहित्य में फायज देहलवी, हातिम, मीर, कुली कुतुबशाह, महज़ूर, बहादुर शाह ज़फ़र, नज़ीर, आतिश, ख्वाजा हैदर अली 'आतिश', इंशा और तांबा जैसे कई नामी शायरों ने होली की मस्ती और राधा कृष्ण के निश्छल प्यार को अपनी शायरी में बहुत खूबसूरती से पिरोया है। उर्दू के जाने माने शायर नजीर अकबराबादी पर उर्दू अदब के भारत की संस्कृति और परंपराओ का ज़बर्दस्त असर था। 150 साल पहले लिखी गई उनकी रचनाएं नजीर की बानी के नाम से प्रसिद्ध है उन्होंने जिस मस्ती के साथ होली का वर्णन किया है उसको पढ़कर ही उस दौर में खेली जाने वाली होली की मस्ती की महक मदमस्त कर देती है।
- उर्दू के जाने माने शायर नजीर अकबराबादी की एक कविता
जब ठहरी लपधप होरी की और चलने लगी पिचकारी भी।
कुछ सुर्खी रंग गुलालों की, कुछ केसर की जरकारी भी।।
होरी खेलें हँस हँस मनमोहन और उनसे राधा प्यारी भी।
यह भीगी सर से पाँव तलक और भीगे किशन मुरारी भी।।
डफ बाजे, राग और रंग हुए, होली खेलन की झमकन में।
गुलशोर गुलाल और रंग पड़े हुई धूम कदम की छैयन में।।[१३]
- अमीर खुसरो ने होली को अपने सूफी अंदाज़ में कुछ ऐसे देखा है-
दैय्या रे मोहे भिजोया री, शाह निजाम के रंग में
कपड़े रंग के कुछ न होत है, या रंग में तन को डुबोया री।[१३]
- अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह जफर के शब्दों में होली की मस्ती का रंग कुछ इस तरह दिखाई देता है
क्यों मो पे रंग की मारी पिचकारी
देखो कुँवरजी दूँगी मैं गारी...[१३]
भक्ति काल में होली
- भक्तिकाल के महाकवि घनानंद ने होली की मस्ती को अपने शब्दों में कुछ यों पिरोया है-
प्रिय देह अछेह भरी दुति देह, दियै तरुनाई के तेह तुली।
अति ही गति धीर समीर लगै, मृदु हेमलता जिमि जाति डुली।
घनानंद खेल उलैल दतै, बिल सैं, खुल सैं लट भूमि झुली।
सुढि सुंदर भाल पै मौंहनि बीच, गुलाल की कैसी खुली टिकुली।[१३]
- भक्ति काल के महाकवि पद्माकर ने कृष्ण और राधा की होली की मस्ती को कुछ यों बयान करते हैं-
फाग की मीर अमीरनि ज्यों, गहि गोविंद लै गई भीतर गोरी,
माय करी मन की पद्माकर, ऊपर नाय अबीर की झोरी।
छीन पितंबर कम्मर ते, सुबिदा दई मीड कपोलन रोरी,
नैन नचाय मुस्काय कहें, लला फिर अइयो खेलन होरी।[१३]
- भारतेंदुजी भी तो फगुनिया जाते हैं और फिर गाते भी हैं-
गले मुझको लगा लो ऐ मेरे दिलदार होली में,
बुझे दिल की लगी मेरी भी ए यार होली में।[१३]
दुलेंडी
यह त्योहार आगामी दिन, रंग दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस पर्व पर किशोर-किशोरियाँ, वयस्क व वृद्ध सभी एक-दूसरे पर गुलाल बरसाते हैं तथा पिचकारियों से गीले रंग लगाते हैं। पारंपरिक रूप से केवल प्राकृतिक व जड़ी-बूटियों से निर्मित रंगों का प्रयोग होता है, परंतु आज कल कृत्रिम रंगों ने इनका स्थान ले लिया है। आजकल तो लोग जिस-किसी के साथ भी शरारत या मजाक करना चाहते हैं। उसी पर रंगीले झाग व रंगों से भरे गुब्बारे मारते हैं। प्रेम से भरे यह - नारंगी, लाल, हरे, नीले, बैंगनी तथा काले रंग सभी के मन से कटुता व वैमनस्य को धो देते हैं तथा सामुदायिक मेल-जोल को बढ़ाते हैं। इस दिन सभी के घर पकवान व मिष्टान बनते हैं। लोग एक- दूसरे के घर जाकर गले मिलते हैं और पकवान खाते हैं।
स्वादिष्ट व्यंजन
मिष्ठान इस पर्व की विशेषता हैं। उत्तर भारत में आप गुझिया का आनन्द ले सकते हैं व पश्चिम में, महाराष्ट्र में पूरनपोली का। ठंडाई (शीतल पेय जिसे दूध, भांग, बादाम मिलाकर घोटकर बनाया जाता है) भांग ( यह एक नशीले पौधे की पत्तियों का घोल है) परंतु इस मिश्रण से सावधान ही रहना चाहिए,अन्य प्रान्तों में होलिका
आनन्दोल्लास से परिपूर्ण एवं अश्लील गान-नृत्यों में लीन लोग जब अन्य प्रान्तों में होलिका का उत्सव मनाते हैं तब बंगाल में दोलयात्रा का उत्सव होता है। देखिए शूलपाणिकृत 'दोलयात्राविवेक।' यह उत्सव पाँच या तीन दिनों तक चलता है। पूर्णिमा के पूर्व चतुर्दशी को सन्ध्या के समय मण्डप के पूर्व में अग्नि के सम्मान में एक उत्सव होता है। गोविन्द की प्रतिमा का निर्माण होता है। एक वेदिका पर 16 खम्भों से युक्त मण्डप में प्रतिमा रखी जाती है। इसे पंचामृत से नहलाया जाता है, कई प्रकार के कृत्य किये जाते हैं, मूर्ति या प्रतिमा को इधर-उधर सात बार डोलाया जाता है। प्रथम दिन की प्रज्वलित अग्नि उत्सव के अन्त तक रखी जाती है। अन्त में प्रतिमा 21 बार डोलाई या झुलाई जाती है। ऐसा आया है कि इन्द्रद्युम्न राजा ने वृन्दावन में इस झूले का उत्सव आरम्भ किया था। इस उत्सव के करने से व्यक्ति सभी पापों से मुक्त हो जाता है। शूलपाणि ने इसकी तिथि, प्रहर, नक्षत्र आदि के विषय में विवेचन कर निष्कर्ष निकाला है कि दोलयात्रा पूर्णिमा तिथि की उपस्थिति में ही होनी चाहिए, चाहे उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र हो या न हो। होलिकोत्सव के विषय में नि0 सि0<balloon title="नि0 सि0, पृ0 227" style=color:blue>*</balloon>, स्मृतिकौस्तुभ<balloon title="(स्मृतिकौस्तुभ, पृ0 516-519), पृ0 चि0 (पृ0 308-319)" style=color:blue>*</balloon> आदि निबन्धों में वर्णन आया है।
शताब्दियों पूर्व से होलिका उत्सव प्रचलित था
होली चित्र वीथिका |
जैमिनि एवं काठकगृह्य में वर्णित होने के कारण यह कहा जा सकता है कि ईसा की कई शताब्दियों पूर्व से होलाका का उत्सव प्रचलित था। कामसूत्र एवं भविष्योत्तर पुराण इसे वसन्त से संयुक्त करते हैं, अत: यह उत्सव पूर्णिमान्त गणना के अनुसार वर्ष के अन्त में होता था। अत: होलिका हेमन्त या पतझड़ के अन्त की सूचक है और वसन्त की कामप्रेममय लीलाओं की द्योतक है। मस्तीभरे गाने, नृत्य एवं संगीत वसन्तागमन के उल्लासपूर्ण क्षणों के परिचायक हैं। वसन्त की आनन्दाभिव्यक्ति रंगीन जल एवं लाल रंग, अबीर-गुलाल के पारस्परिक आदान-प्रदान से प्रकट होती है। कुछ प्रदेशों में यह रंग युक्त वातावरण होलिका के दिन ही होता है, किन्तु दक्षिण में यह होलिका के पाँचवें दिन (रंग-पंचमी) मनायी जाती है। कहीं-कहीं रंगों के खेल पहले से आरम्भ कर दिये जाते हैं और बहुत दिनों तक चलते रहते हैं; होलिका के पूर्व ही 'पहुनई' में आये हुए लोग एक-दूसरे पर पंक (कीचड़) भी फेंकते हैं। [१४] कही-कहीं दो-तीन दिनों तक मिट्टी, पंक, रंग, गान आदि से लोग मतवाले होकर दल बना कर होली का हुड़दंग मचाते हैं, सड़कें लाल हो जाती हैं। कहीं-कहीं लोग भद्दे मजाकों, अश्लील गानों से अपनी कामेच्छाओं की बाह्य तृप्ति करते हैं। वास्तव में यह उत्सव प्रेम करने से सम्बन्धित है, किन्तु शिष्ट जनों की नारियाँ इन दिनों बाहर नहीं निकल पातीं, क्योंकि उन्हें भय रहता है कि लोग भद्दी गालियाँ न दे बैठें। श्री गुप्ते ने अपने लेख<balloon title="हिन्दू हालीडेज एवं सेरीमनीज'(पृ0 92)" style="color:blue">*</balloon> में प्रकट किया है कि यह उत्सव ईजिप्ट (मिस्त्र) या ग्रीस (यूनान) से लिया गया है। किन्तु यह भ्रामक दृष्टिकोण है। लगता है, उन्होंने भारतीय प्राचीन ग्रन्थों का अवलोकन नहीं किया है, दूसरे, वे इस विषय में भी निश्चित नहीं हैं कि इस उत्सव का उद्गम मिस्त्र से है या यूनान से। उनकी धारणा को गम्भीरता से नहीं लेना चाहिए।
वीथिका / Gallery
होली, दाऊजी मन्दिर, बलदेव
Holi, Dauji Temple, Baldevलट्ठामार होली, बरसाना
Lathmar Holi, Barsanaलड्डू होली, राधा रानी मंदिर, बरसाना
Laddu Holi, Radha Rani Temple, Barsanaदाऊजी मन्दिर का हुरंगा, बलदेव
Huranga in Dauji Temple, Baldevदाऊजी मन्दिर का हुरंगा, बलदेव
Huranga in Dauji Temple, Baldevहोली, होली दरवाज़ा, मथुरा
Holi, Holi Gate, Mathuraहोली, बरसाना
Holi, Barsanaहोली, रमण रेती, महावन
Holi, Ramanreti, Mahavanहोली, राधा रानी मंदिर, बरसाना
Holi, Radha Rani Temple, Barsanaहोली, होली दरवाज़ा, मथुरा
Holi, Holi Gate, Mathuraहोली, होली दरवाज़ा, मथुरा
Holi, Holi Gate, Mathuraदाऊजी मन्दिर का हुरंगा, बलदेव
Huranga in Dauji Temple, Baldevलट्ठामार होली, बरसाना
Lathmar Holi, Barsanaहोली, दाऊजी मन्दिर, बलदेव
Holi, Dauji Temple, Baldevहोली, होली दरवाज़ा, मथुरा
Holi, Holi Gate, Mathuraहोलिका की मूर्ति पर, मथुरा के शिल्पकार काम करते हुए
Craftsmen Of Mathura Doing Work On Holika Statueहोली, कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा
Holi, Krishna Janm Bhumi, Mathuraहोली, कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा
Holi, Krishna Janm Bhumi, Mathuraहोली, कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा
Holi, Krishna Janm Bhumi, Mathuraहोली, कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा
Holi, Krishna Janm Bhumi, Mathura
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जैमिनि, 1।3।15-16)
- ↑ 73,1
- ↑ राका होलाके। काठकगृह्य (73।1)। इस पर देवपाल की टीकायों है: 'होला कर्मविशेष: सौभाग्याय स्त्रीणां प्रातरनुष्ठीयते। तत्र होला के राका देवता। यास्ते राके सुभतय इत्यादि।'
- ↑ कामसूत्र, 1।4।42
- ↑ काल, पृ. 106
- ↑ लिंगपुराणे। फाल्गुने पौर्णमासी च सदा बालविकासिनी। ज्ञेया फाल्गुनिका सा च ज्ञेया लोकर्विभूतये।। वाराहपुराणे। फाल्गुने पौर्णिमास्यां तु पटवासविलासिनी। ज्ञेया सा फाल्गुनी लोके कार्या लोकसमृद्धये॥ हे. (काल, पृ. 642)। इसमें प्रथम का.वि. (पृ. 352) में भी आया है जिसका अर्थ इस प्रकार है-बालवज्जनविलासिन्यामित्यर्थ:
- ↑ वर्षकृत्यदीपक (पृ0 301) में निम्न श्लोक आये हैं-
'प्रभाते बिमले जाते ह्यंगे भस्म च कारयेत्। सर्वागे च ललाटे च क्रीडितव्यं पिशाचवत्॥
सिन्दरै: कुंकुमैश्चैव धूलिभिर्धूसरो भवेत्। गीतं वाद्यं च नृत्यं च कृर्याद्रथ्योपसर्पणम् ॥
ब्राह्मणै: क्षत्रियैर्वैश्यै: शूद्रैश्चान्यैश्च जातिभि:। एकीभूय प्रकर्तव्या क्रीडा या फाल्गुने सदा। बालकै: वह गन्तव्यं फाल्गुन्यां च युधिष्ठिर ॥' - ↑ हिन्दू हालीडेज एवं सेरीमनीज'(पृ. 92)
- ↑ (व्रत, भाग 2, पृ0 174-190)
- ↑ भविष्योत्तर, 132।1।51
- ↑ ११.० ११.१ ११.२ ११.३ होली की प्राचीन कथाएं (हिन्दी) (पी.एच.पी)। हिन्दी मीडिया डॉट इन। अभिगमन तिथि: 10 मार्च, 2011।
- ↑ भारतीय साहित्य, संस्कृति और परंपरा में होली (हिन्दी) (पी.एच.पी)। हिन्दी मीडिया डॉट इन। अभिगमन तिथि: 10 मार्च, 2011।
- ↑ १३.० १३.१ १३.२ १३.३ १३.४ १३.५ उर्दू साहित्य में होली (हिन्दी) (पी.एच.पी)। हिन्दी मीडिया डॉट इन। अभिगमन तिथि: 10 मार्च, 2011।
- ↑ वर्षकृत्यदीपक (पृ0 301) में निम्न श्लोक आये हैं-
'प्रभाते बिमले जाते ह्यंगे भस्म च कारयेत्। सर्वागे च ललाटे च क्रीडितव्यं पिशाचवत्॥
सिन्दरै: कुंकुमैश्चैव धूलिभिर्धूसरो भवेत्। गीतं वाद्यं च नृत्यं च कृर्याद्रथ्योपसर्पणम् ॥
ब्राह्मणै: क्षत्रियैर्वैश्यै: शूद्रैश्चान्यैश्च जातिभि:। एकीभूय प्रकर्तव्या क्रीडा या फाल्गुने सदा। बालकै: वह गन्तव्यं फाल्गुन्यां च युधिष्ठिर ॥'
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