"उपनिषद" के अवतरणों में अंतर

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[[वेद]] का वह भाग जिसमें विशुद्ध रीति से आध्यात्मिक चिन्तन को ही प्रधानता दी गयी है और फल सम्बन्धी कर्मों के दृढानुराग को शिथिल करना सुझाया गया है, 'उपनिषद' कहलाता है। वेद का यह भाग उसकी सभी शाखाओं में है, परंतु यह बात स्पष्ट-रूप से समझ लेनी चाहिये कि वर्तमान में उपनिषद संज्ञा के नाम से जितने ग्रन्थ उपलब्ध हैं, उनमें से कुछ उपनिषदों (ईशावास्य, बृहदारण्यक, तैत्तिरीय, छान्दोग्य आदि)- को छोड़कर बाकी के सभी उपनिषद–भाग में उपलब्ध हों, ऐसी बात नहीं है। शाखागत उपनिषदों में से कुछ अंश को सामयिक, सामाजिक या वैयक्तिक आवश्यकता के आधार पर उपनिषद संज्ञा दे दी गयी है। इसीलिए इनकी संख्या एवं उपलब्धियों में विविधता मिलती है। वेदों में जो उपनिषद-भाग हैं, वे अपनी शाखाओं में सर्वथा अक्षुण्ण हैं। उनको तथा उन्हीं शाखाओं के नाम से जो उपनिषद-संज्ञा के ग्रन्थ उपलब्ध हैं, दोनों को एक नहीं समझना चाहिये। उपलब्ध उपनिषद-ग्रन्थों की संख्या में से ईशादि 10 उपनिषद तो सर्वमान्य हैं। इनके अतिरिक्त 5 और उपनिषद् (श्वेताश्वतरादि), जिन पर आचार्यो की टीकाएँ तथा प्रमाण-उद्धरण आदि मिलते हैं, सर्वसम्मत कहे जाते हैं। इन 15 के अतिरिक्त जो उपनिषद उपलब्ध हैं, उनकी शब्दगत ओजस्विता तथा प्रतिपादनशैली आदि की विभिन्नता होने पर भी यह अवश्य कहा जा सकता है कि इनका प्रतिपाद्य ब्रह्म या आत्मतत्त्व निश्चयपूर्वक अपौरूषेय, नित्य, स्वत:प्रमाण वेद-शब्द-राशि से सम्बद्ध है
 
[[वेद]] का वह भाग जिसमें विशुद्ध रीति से आध्यात्मिक चिन्तन को ही प्रधानता दी गयी है और फल सम्बन्धी कर्मों के दृढानुराग को शिथिल करना सुझाया गया है, 'उपनिषद' कहलाता है। वेद का यह भाग उसकी सभी शाखाओं में है, परंतु यह बात स्पष्ट-रूप से समझ लेनी चाहिये कि वर्तमान में उपनिषद संज्ञा के नाम से जितने ग्रन्थ उपलब्ध हैं, उनमें से कुछ उपनिषदों (ईशावास्य, बृहदारण्यक, तैत्तिरीय, छान्दोग्य आदि)- को छोड़कर बाकी के सभी उपनिषद–भाग में उपलब्ध हों, ऐसी बात नहीं है। शाखागत उपनिषदों में से कुछ अंश को सामयिक, सामाजिक या वैयक्तिक आवश्यकता के आधार पर उपनिषद संज्ञा दे दी गयी है। इसीलिए इनकी संख्या एवं उपलब्धियों में विविधता मिलती है। वेदों में जो उपनिषद-भाग हैं, वे अपनी शाखाओं में सर्वथा अक्षुण्ण हैं। उनको तथा उन्हीं शाखाओं के नाम से जो उपनिषद-संज्ञा के ग्रन्थ उपलब्ध हैं, दोनों को एक नहीं समझना चाहिये। उपलब्ध उपनिषद-ग्रन्थों की संख्या में से ईशादि 10 उपनिषद तो सर्वमान्य हैं। इनके अतिरिक्त 5 और उपनिषद् (श्वेताश्वतरादि), जिन पर आचार्यो की टीकाएँ तथा प्रमाण-उद्धरण आदि मिलते हैं, सर्वसम्मत कहे जाते हैं। इन 15 के अतिरिक्त जो उपनिषद उपलब्ध हैं, उनकी शब्दगत ओजस्विता तथा प्रतिपादनशैली आदि की विभिन्नता होने पर भी यह अवश्य कहा जा सकता है कि इनका प्रतिपाद्य ब्रह्म या आत्मतत्त्व निश्चयपूर्वक अपौरूषेय, नित्य, स्वत:प्रमाण वेद-शब्द-राशि से सम्बद्ध है
  
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[[अक्षमालिकोपनिषद]] | [[आत्मबोधोपनिषद]] | [[ऐतरेयोपनिषद]] | [[कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद]] | [[नादबिन्दुपनिषद]] | [[निर्वाणोपनिषद]] | [[बहवृचोपनिषद]] | [[मृदगलोपनिषद]] | [[राधोपनिषद]] | [[सौभाग्यलक्ष्म्युपनिषद]]             
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[[अद्वयतारकोपनिषद]] | [[अध्यात्मोपनिषद]] | [[ईशावास्योपनिषद]] | [[जाबालोपनिषद]]
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[[अक्षि उपनिषद]] | [[अमृतनादोपनिषद]] | [[कठोपनिषद]] | [[कठरूद्रोपनिषद]] | [[कलिसन्तरणोपनिषद]] | [[कैवल्योपनिषद]] | [[कालाग्निरूद्रोपनिषद]] | [[चाक्षुषोपनिषद]] | [[क्षुरिकोपनिषद]] | [[तैत्तिरीयोपनिषद]] | [[दक्षिणामूर्ति उपनिषद]] | [[ध्यानबिन्दु उपनिषद]] | [[नारायणोपनिषद]] | [[रूद्रहृदयोपनिषद]] |  [[शारीरिकोपनिषद]] | [[शुकरहस्योपनिषद]] | [[श्वेताश्वतरोपनिषद]]
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[[आरूणकोपनिषद]] | [[केनोपनिषद]] | [[कुण्डिकोपनिषद]] | [[छान्दोग्य उपनिषद]] | [[जाबाल्युपनिषद]] | [[जाबालदर्शनोपनिषद]] | [[महोपनिषद]] | [[मैत्रेय्युग्पनिषद]] | [[योगचूडाण्युपनिषद]] | [[रूद्राक्षजाबालोपनिषद]] |  [[वज्रसूचिकोपनिषद]] | [[संन्यासोपनिषद]] | [[सावित्र्युपनिषद]]
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[[अथर्वशिर उपनिषद]] | [[गणपति उपनिषद]] | [[गोपालपूर्वतापनीयोपनिषद]] | [[नृसिंहोत्तरतापनीयोपनिषद]] | [[नारदपरिव्राजकोपनिषद]] | [[परब्रह्मोपनिषद]] | [[प्रश्नोपनिषद]] | [[महावाक्योपनिषद]] | [[माण्डूक्योपनिषद]] | [[मुण्डकोपनिषद]] | [[श्रीरामपूर्वतापनीयोपनिषद]] | [[शाण्डिल्योपनिषद]] | [[सीता उपनिषद]] | [[सूर्योपनिषद]]
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[[श्रेणी:कोश]]
 
[[श्रेणी:कोश]]

०९:५७, १८ नवम्बर २००९ का अवतरण


उपनिषद / Upnishad

वेद का वह भाग जिसमें विशुद्ध रीति से आध्यात्मिक चिन्तन को ही प्रधानता दी गयी है और फल सम्बन्धी कर्मों के दृढानुराग को शिथिल करना सुझाया गया है, 'उपनिषद' कहलाता है। वेद का यह भाग उसकी सभी शाखाओं में है, परंतु यह बात स्पष्ट-रूप से समझ लेनी चाहिये कि वर्तमान में उपनिषद संज्ञा के नाम से जितने ग्रन्थ उपलब्ध हैं, उनमें से कुछ उपनिषदों (ईशावास्य, बृहदारण्यक, तैत्तिरीय, छान्दोग्य आदि)- को छोड़कर बाकी के सभी उपनिषद–भाग में उपलब्ध हों, ऐसी बात नहीं है। शाखागत उपनिषदों में से कुछ अंश को सामयिक, सामाजिक या वैयक्तिक आवश्यकता के आधार पर उपनिषद संज्ञा दे दी गयी है। इसीलिए इनकी संख्या एवं उपलब्धियों में विविधता मिलती है। वेदों में जो उपनिषद-भाग हैं, वे अपनी शाखाओं में सर्वथा अक्षुण्ण हैं। उनको तथा उन्हीं शाखाओं के नाम से जो उपनिषद-संज्ञा के ग्रन्थ उपलब्ध हैं, दोनों को एक नहीं समझना चाहिये। उपलब्ध उपनिषद-ग्रन्थों की संख्या में से ईशादि 10 उपनिषद तो सर्वमान्य हैं। इनके अतिरिक्त 5 और उपनिषद् (श्वेताश्वतरादि), जिन पर आचार्यो की टीकाएँ तथा प्रमाण-उद्धरण आदि मिलते हैं, सर्वसम्मत कहे जाते हैं। इन 15 के अतिरिक्त जो उपनिषद उपलब्ध हैं, उनकी शब्दगत ओजस्विता तथा प्रतिपादनशैली आदि की विभिन्नता होने पर भी यह अवश्य कहा जा सकता है कि इनका प्रतिपाद्य ब्रह्म या आत्मतत्त्व निश्चयपूर्वक अपौरूषेय, नित्य, स्वत:प्रमाण वेद-शब्द-राशि से सम्बद्ध है

ॠग्वेदीय उपनिषद

अक्षमालिकोपनिषद | आत्मबोधोपनिषद | ऐतरेयोपनिषद | कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद | नादबिन्दुपनिषद | निर्वाणोपनिषद | बहवृचोपनिषद | मृदगलोपनिषद | राधोपनिषद | सौभाग्यलक्ष्म्युपनिषद

शुक्ल यजुर्वेदीय उपनिषद

अद्वयतारकोपनिषद | अध्यात्मोपनिषद | ईशावास्योपनिषद | जाबालोपनिषद

कृष्ण यजुर्वेदीय उपनिषद

अक्षि उपनिषद | अमृतनादोपनिषद | कठोपनिषद | कठरूद्रोपनिषद | कलिसन्तरणोपनिषद | कैवल्योपनिषद | कालाग्निरूद्रोपनिषद | चाक्षुषोपनिषद | क्षुरिकोपनिषद | तैत्तिरीयोपनिषद | दक्षिणामूर्ति उपनिषद | ध्यानबिन्दु उपनिषद | नारायणोपनिषद | रूद्रहृदयोपनिषद | शारीरिकोपनिषद | शुकरहस्योपनिषद | श्वेताश्वतरोपनिषद

सामवेदीय उपनिषद

आरूणकोपनिषद | केनोपनिषद | कुण्डिकोपनिषद | छान्दोग्य उपनिषद | जाबाल्युपनिषद | जाबालदर्शनोपनिषद | महोपनिषद | मैत्रेय्युग्पनिषद | योगचूडाण्युपनिषद | रूद्राक्षजाबालोपनिषद | वज्रसूचिकोपनिषद | संन्यासोपनिषद | सावित्र्युपनिषद

अथर्ववेदीय उपनिषद

अथर्वशिर उपनिषद | गणपति उपनिषद | गोपालपूर्वतापनीयोपनिषद | नृसिंहोत्तरतापनीयोपनिषद | नारदपरिव्राजकोपनिषद | परब्रह्मोपनिषद | प्रश्नोपनिषद | महावाक्योपनिषद | माण्डूक्योपनिषद | मुण्डकोपनिषद | श्रीरामपूर्वतापनीयोपनिषद | शाण्डिल्योपनिषद | सीता उपनिषद | सूर्योपनिषद