"गीता 3:18" के अवतरणों में अंतर
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− | यहाँ तक भगवान् ने बहुत-से हेतु बतलाकर यह बात सिद्ध की कि जब तक मनुष्य को परम श्रेयरूप परमात्मा की प्राप्ति न हो जाये, तब तक उसके लिये स्वधर्म का पालन करना अर्थात् अपने वर्णाश्रम के अनुसार विहित कर्मों का अनुष्ठान नि:स्वार्थ भाव से करना अवश्य कर्तव्य है और परमात्मा को प्राप्त हुए | + | यहाँ तक भगवान् ने बहुत-से हेतु बतलाकर यह बात सिद्ध की कि जब तक मनुष्य को परम श्रेयरूप परमात्मा की प्राप्ति न हो जाये, तब तक उसके लिये स्वधर्म का पालन करना अर्थात् अपने वर्णाश्रम के अनुसार विहित कर्मों का अनुष्ठान नि:स्वार्थ भाव से करना अवश्य कर्तव्य है और परमात्मा को प्राप्त हुए पुरुष के लिये किसी प्रकार का कर्तव्य न रहने पर उसके मन-इन्द्रियों द्वारा लोक संग्रह के लिये प्रारब्धानुसार कर्म होते हैं । अब उपर्युक्त वर्णन का लक्ष्य कराते हुए भगवान [[अर्जुन]] को अनासक्त भाव से कर्तव्य कर्म करने के लिये आज्ञा देते हैं- |
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− | उस | + | उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है । तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किज्चिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता ।।18।। |
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− | इह = इस संसारमे ; तस्य = उस ( | + | इह = इस संसारमे ; तस्य = उस (पुरुष) का ; कृतेन = किये जानेसे ; एव = भी (कोई) ; अर्थ: = प्रयोजन ; न = नहीं है (और) ; अकृतेन = न किये जानेसे (भी) ; कश्र्चन = कोई (प्रयोजन) ; न = नहीं है ; च = तथा ; अस्य = इसका ; सर्वभूतेषु = संपूर्ण भूतोंमें ; कश्र्चित् = कुछ भी ; अर्थव्यपाश्रय: = स्वार्थका सम्बन्ध ; न = नहीं है ; |
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१२:१५, १४ फ़रवरी २०१० का अवतरण
गीता अध्याय-3 श्लोक-18 / Gita Chapter-3 Verse-18
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