"प्रह्लाद" के अवतरणों में अंतर
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प्राचीन भारतीय साहित्य में प्रह्लाद की कथा आती है, जो इसका महत्त्व बताती है। राक्षसराज प्रह्लाद ने अपनी तपस्या एवं अच्छे कार्यों के बल पर देवताओं के राजा [[इन्द्र]] को गद्दी से हटा दिया और स्वयं राजा बन गया। इन्द्र परेशान होकर देवताओं के गुरु आचार्य [[बृहस्पति]] के पास गये और उन्हें अपनी समस्या बतायी। बृहस्पति ने कहा कि प्रह्लाद को ताक़त के बल पर तो हराया नहीं जा सकता। इसके लिए कोई और उपाय करना पड़ेगा। वह यह है कि प्रह्लाद प्रतिदिन प्रात:काल दान देते हैं। उस समय वह किसी याचक को ख़ाली हाथ नहीं लौटाते। उनके इस गुण का उपयोग कर ही उन्हें पराजित किया जा सकता है। इन्द्र द्वारा जिज्ञासा करने पर आचार्य बृहस्पति ने आगे बताया कि प्रात:काल दान-पुण्य के इस समय में तुम एक भिक्षुक का रूप लेकर जाओ। जब तुम्हारा माँगने का क्रम आये, तो तुम उनसे उनका चरित्र माँग लेना। बस तुम्हारा काम हो जाएगा। इन्द्र ने ऐसा ही किया। जब उन्होंने प्रह्लाद से उनका शील माँगा, तो प्रह्लाद चौंक गये। | प्राचीन भारतीय साहित्य में प्रह्लाद की कथा आती है, जो इसका महत्त्व बताती है। राक्षसराज प्रह्लाद ने अपनी तपस्या एवं अच्छे कार्यों के बल पर देवताओं के राजा [[इन्द्र]] को गद्दी से हटा दिया और स्वयं राजा बन गया। इन्द्र परेशान होकर देवताओं के गुरु आचार्य [[बृहस्पति]] के पास गये और उन्हें अपनी समस्या बतायी। बृहस्पति ने कहा कि प्रह्लाद को ताक़त के बल पर तो हराया नहीं जा सकता। इसके लिए कोई और उपाय करना पड़ेगा। वह यह है कि प्रह्लाद प्रतिदिन प्रात:काल दान देते हैं। उस समय वह किसी याचक को ख़ाली हाथ नहीं लौटाते। उनके इस गुण का उपयोग कर ही उन्हें पराजित किया जा सकता है। इन्द्र द्वारा जिज्ञासा करने पर आचार्य बृहस्पति ने आगे बताया कि प्रात:काल दान-पुण्य के इस समय में तुम एक भिक्षुक का रूप लेकर जाओ। जब तुम्हारा माँगने का क्रम आये, तो तुम उनसे उनका चरित्र माँग लेना। बस तुम्हारा काम हो जाएगा। इन्द्र ने ऐसा ही किया। जब उन्होंने प्रह्लाद से उनका शील माँगा, तो प्रह्लाद चौंक गये। | ||
− | *उन्होंने पूछा - क्या मेरे शील से तुम्हारा काम बन जाएगा ? इन्द्र ने हाँ में सिर हिला दिया। प्रह्लाद ने अपने शील अर्थात चरित्र को अपने शरीर से जाने को कह दिया। ऐसा कहते ही एक तेजस्वी आकृति प्रह्लाद के शरीर से निकली और भिक्षुक के शरीर में समा गयी। पूछने पर उसने कहा - 'मैं आपका चरित्र हूँ। आपके कहने पर ही आपको छोड़कर जा रहा हूँ।' | + | *उन्होंने पूछा - क्या मेरे शील से तुम्हारा काम बन जाएगा ? इन्द्र ने हाँ में सिर हिला दिया। प्रह्लाद ने अपने शील अर्थात चरित्र को अपने शरीर से जाने को कह दिया। ऐसा कहते ही एक तेजस्वी आकृति प्रह्लाद के शरीर से निकली और भिक्षुक के शरीर में समा गयी। पूछने पर उसने कहा - 'मैं आपका चरित्र हूँ। आपके कहने पर ही आपको छोड़कर जा रहा हूँ।' [[चित्र:Holika-Prahlad-1.jpg|thumb|प्रह्लाद को गोद में बिठाकर बैठी होलिका|left]] |
*कुछ समय बाद प्रह्लाद के शरीर से पहले से भी अधिक तेजस्वी एक आकृति और निकली। प्रह्लाद के पूछने पर उसने बताया कि 'मैं आपका शौर्य हूँ। मैं सदा से शील वाले व्यक्ति के साथ ही रहता हूँ, चूँकि आपने शील को छोड़ दिया है, इसलिए अब मेरा भी यहाँ रहना संभव नहीं है।' | *कुछ समय बाद प्रह्लाद के शरीर से पहले से भी अधिक तेजस्वी एक आकृति और निकली। प्रह्लाद के पूछने पर उसने बताया कि 'मैं आपका शौर्य हूँ। मैं सदा से शील वाले व्यक्ति के साथ ही रहता हूँ, चूँकि आपने शील को छोड़ दिया है, इसलिए अब मेरा भी यहाँ रहना संभव नहीं है।' | ||
*प्रह्लाद कुछ सोच ही रहे थे कि इतने में एक आकृति और उनके शरीर को छोड़कर जाने लगी। पूछने पर उसने स्वयं को वैभव बताया और कहा कि 'शील के बिना मेरा रहना संभव नहीं है। इसलिए मैं भी जा रहा हूँ।' इसी प्रकार एक-एक कर प्रह्लाद के शरीर से अनेक ज्योतिपुंज निकलकर भिक्षुक के शरीर में समा गये। प्रह्लाद निढाल होकर धरती पर गिर गये। | *प्रह्लाद कुछ सोच ही रहे थे कि इतने में एक आकृति और उनके शरीर को छोड़कर जाने लगी। पूछने पर उसने स्वयं को वैभव बताया और कहा कि 'शील के बिना मेरा रहना संभव नहीं है। इसलिए मैं भी जा रहा हूँ।' इसी प्रकार एक-एक कर प्रह्लाद के शरीर से अनेक ज्योतिपुंज निकलकर भिक्षुक के शरीर में समा गये। प्रह्लाद निढाल होकर धरती पर गिर गये। | ||
− | *सबसे अंत में एक बहुत ही प्रकाशमान पुंज निकला। प्रह्लाद ने चौंककर उसकी ओर देखा, तो वह बोला - 'मैं आपकी राज्यश्री हूँ। चँकि अब आपके पास न शील है न शौर्य; न वैभव है न तप; न प्रतिष्ठा है न सम्पदा। इसलिए अब मेरे | + | *सबसे अंत में एक बहुत ही प्रकाशमान पुंज निकला। प्रह्लाद ने चौंककर उसकी ओर देखा, तो वह बोला - 'मैं आपकी राज्यश्री हूँ। चँकि अब आपके पास न शील है न शौर्य; न वैभव है न तप; न प्रतिष्ठा है न सम्पदा। इसलिए अब मेरे यहाँ रहने का भी कोई लाभ नहीं है। अत: मैं भी आपको छोड़ रही हूँ।' इस प्रकार इन्द्र ने केवल शील लेकर ही प्रह्लाद का सब कुछ ले लिया। |
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०७:४४, १९ नवम्बर २०१० के समय का अवतरण
प्रह्लाद / Prahlad
प्राचीन भारतीय साहित्य में प्रह्लाद की कथा आती है, जो इसका महत्त्व बताती है। राक्षसराज प्रह्लाद ने अपनी तपस्या एवं अच्छे कार्यों के बल पर देवताओं के राजा इन्द्र को गद्दी से हटा दिया और स्वयं राजा बन गया। इन्द्र परेशान होकर देवताओं के गुरु आचार्य बृहस्पति के पास गये और उन्हें अपनी समस्या बतायी। बृहस्पति ने कहा कि प्रह्लाद को ताक़त के बल पर तो हराया नहीं जा सकता। इसके लिए कोई और उपाय करना पड़ेगा। वह यह है कि प्रह्लाद प्रतिदिन प्रात:काल दान देते हैं। उस समय वह किसी याचक को ख़ाली हाथ नहीं लौटाते। उनके इस गुण का उपयोग कर ही उन्हें पराजित किया जा सकता है। इन्द्र द्वारा जिज्ञासा करने पर आचार्य बृहस्पति ने आगे बताया कि प्रात:काल दान-पुण्य के इस समय में तुम एक भिक्षुक का रूप लेकर जाओ। जब तुम्हारा माँगने का क्रम आये, तो तुम उनसे उनका चरित्र माँग लेना। बस तुम्हारा काम हो जाएगा। इन्द्र ने ऐसा ही किया। जब उन्होंने प्रह्लाद से उनका शील माँगा, तो प्रह्लाद चौंक गये।
- उन्होंने पूछा - क्या मेरे शील से तुम्हारा काम बन जाएगा ? इन्द्र ने हाँ में सिर हिला दिया। प्रह्लाद ने अपने शील अर्थात चरित्र को अपने शरीर से जाने को कह दिया। ऐसा कहते ही एक तेजस्वी आकृति प्रह्लाद के शरीर से निकली और भिक्षुक के शरीर में समा गयी। पूछने पर उसने कहा - 'मैं आपका चरित्र हूँ। आपके कहने पर ही आपको छोड़कर जा रहा हूँ।' थंबनेल बनाने में त्रुटि हुई है: /bin/bash: /usr/local/bin/convert: No such file or directory Error code: 127
- कुछ समय बाद प्रह्लाद के शरीर से पहले से भी अधिक तेजस्वी एक आकृति और निकली। प्रह्लाद के पूछने पर उसने बताया कि 'मैं आपका शौर्य हूँ। मैं सदा से शील वाले व्यक्ति के साथ ही रहता हूँ, चूँकि आपने शील को छोड़ दिया है, इसलिए अब मेरा भी यहाँ रहना संभव नहीं है।'
- प्रह्लाद कुछ सोच ही रहे थे कि इतने में एक आकृति और उनके शरीर को छोड़कर जाने लगी। पूछने पर उसने स्वयं को वैभव बताया और कहा कि 'शील के बिना मेरा रहना संभव नहीं है। इसलिए मैं भी जा रहा हूँ।' इसी प्रकार एक-एक कर प्रह्लाद के शरीर से अनेक ज्योतिपुंज निकलकर भिक्षुक के शरीर में समा गये। प्रह्लाद निढाल होकर धरती पर गिर गये।
- सबसे अंत में एक बहुत ही प्रकाशमान पुंज निकला। प्रह्लाद ने चौंककर उसकी ओर देखा, तो वह बोला - 'मैं आपकी राज्यश्री हूँ। चँकि अब आपके पास न शील है न शौर्य; न वैभव है न तप; न प्रतिष्ठा है न सम्पदा। इसलिए अब मेरे यहाँ रहने का भी कोई लाभ नहीं है। अत: मैं भी आपको छोड़ रही हूँ।' इस प्रकार इन्द्र ने केवल शील लेकर ही प्रह्लाद का सब कुछ ले लिया।