"युक्तिदीपिका" के अवतरणों में अंतर

ब्रज डिस्कवरी, एक मुक्त ज्ञानकोष से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
 
पंक्ति १: पंक्ति १:
 
{{Menu}}
 
{{Menu}}
{{सांख्य दर्शन}}
 
 
==युक्तिदीपिका / Yuktideepika==
 
==युक्तिदीपिका / Yuktideepika==
 
*युक्तिदीपिका भी सांख्यकारिका की एक प्राचीन व्याख्या है तथा अन्य व्याख्याओं की तुलना में अधिक विस्तृत भी है। इसके रचनाकाल या रचनाकार के बारे में निश्चयपूर्वक कुछ कह पाना कठिन है। आचार्य उदयवीर शास्त्री ने जयन्तभट्ट की न्यायमंजरी में 'यत्तु राजा व्याख्यातवान्-प्रतिराभिमुख्ये वर्तते' तथा युक्तिदीपिका में 'प्रतिना तु अभिमुख्यं' – के साम्य तथा वाचस्पति मिश्र द्वारा 'तथा च राजवार्तिकं' (72वीं कारिका पर तत्त्वकौमुदी) कहकर युक्तिदीपिका के आरंभ में दिए श्लोकों में से 10-12 श्लोकों को उद्धृत करते देख युक्तिदीपिकाकार का नाम 'राजा' संभावित माना है। साथ ही युक्तिदीपिका का अन्य प्रचलित नाम राजवार्तिक भी रहा होगा<balloon title="(सां.द.इ. पृष्ठ 477)" style=color:blue>*</balloon>  *सुरेन्द्रनाथदास गुप्त भी राजा कृत कारिकाटीका को राजवार्तिक स्वीकार करते हैं जिसका उद्धरण वाचस्पति मिश्र ने दिया है<balloon title="(भा.द.का.इ. भाग-1, पृष्ठ 203)" style=color:blue>*</balloon>।  उदयवीर शास्त्री के अनुसार युक्तिदीपिकाकार का संभावित समय ईसा की चतुर्थ शती है। जबकि डॉ॰ रामचन्द्र पाण्डेय इसे दिङ्नाग (6वीं शती) तथा वाचस्पति मिश्र (नवम शती) के मध्य मानते हैं। युक्तिदीपिका में सांख्य के विभिन्न आचार्यों के मतों के साथ-साथ आलोचनाओं का समाधान भी प्रस्तुत किया है। यदि युक्तिदीपिका की रचना शंकराचार्य के बाद हुई होती तो शंकर कृत सांख्य खण्डन पर युक्तिदीपिकाकार के विचार होते। अत: युक्तिदीपिकाकार को शंकरपूर्ववर्ती माना जा सकता है। युक्तिदीपिका में उपलब्ध सभी उद्धरणों के मूल का पता लगने पर संभव है रचनाकाल के बारे में और अधिक सही अनुमान लगाया जा सके।  
 
*युक्तिदीपिका भी सांख्यकारिका की एक प्राचीन व्याख्या है तथा अन्य व्याख्याओं की तुलना में अधिक विस्तृत भी है। इसके रचनाकाल या रचनाकार के बारे में निश्चयपूर्वक कुछ कह पाना कठिन है। आचार्य उदयवीर शास्त्री ने जयन्तभट्ट की न्यायमंजरी में 'यत्तु राजा व्याख्यातवान्-प्रतिराभिमुख्ये वर्तते' तथा युक्तिदीपिका में 'प्रतिना तु अभिमुख्यं' – के साम्य तथा वाचस्पति मिश्र द्वारा 'तथा च राजवार्तिकं' (72वीं कारिका पर तत्त्वकौमुदी) कहकर युक्तिदीपिका के आरंभ में दिए श्लोकों में से 10-12 श्लोकों को उद्धृत करते देख युक्तिदीपिकाकार का नाम 'राजा' संभावित माना है। साथ ही युक्तिदीपिका का अन्य प्रचलित नाम राजवार्तिक भी रहा होगा<balloon title="(सां.द.इ. पृष्ठ 477)" style=color:blue>*</balloon>  *सुरेन्द्रनाथदास गुप्त भी राजा कृत कारिकाटीका को राजवार्तिक स्वीकार करते हैं जिसका उद्धरण वाचस्पति मिश्र ने दिया है<balloon title="(भा.द.का.इ. भाग-1, पृष्ठ 203)" style=color:blue>*</balloon>।  उदयवीर शास्त्री के अनुसार युक्तिदीपिकाकार का संभावित समय ईसा की चतुर्थ शती है। जबकि डॉ॰ रामचन्द्र पाण्डेय इसे दिङ्नाग (6वीं शती) तथा वाचस्पति मिश्र (नवम शती) के मध्य मानते हैं। युक्तिदीपिका में सांख्य के विभिन्न आचार्यों के मतों के साथ-साथ आलोचनाओं का समाधान भी प्रस्तुत किया है। यदि युक्तिदीपिका की रचना शंकराचार्य के बाद हुई होती तो शंकर कृत सांख्य खण्डन पर युक्तिदीपिकाकार के विचार होते। अत: युक्तिदीपिकाकार को शंकरपूर्ववर्ती माना जा सकता है। युक्तिदीपिका में उपलब्ध सभी उद्धरणों के मूल का पता लगने पर संभव है रचनाकाल के बारे में और अधिक सही अनुमान लगाया जा सके।  
पंक्ति ६: पंक्ति ५:
 
*[[सांख्य साहित्य]] में युक्तिदीपिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। सांख्य के प्राचीन आचार्यों के विभिन्न मतों का संकेत युक्तिदीपिका में उपलब्ध है। वार्षगण्य-जिनकी कोई कृति आज उपलब्ध नहीं है, के मत का सर्वाधिक परिचय युक्तिदीपिका में ही उपलब्ध है। इसी तरह विन्ध्यवासी, पौरिक, पंचाधिकरण इत्यादि प्राचीन आचार्यों के मत भी युक्तिदीपिका में हैं। सांख्य परंपरा में अहंकार की उत्पत्ति महत से मानी गई है, लेकिन विंध्यवासी के मत में महत से अहंकार के अतिरिक्त पंचतन्मात्रायें भी उत्पन्न होती हैं। 22वीं कारिका की युक्तिदीपिका में विन्ध्यवासी का मत इस प्रकार रखा गया है।  
 
*[[सांख्य साहित्य]] में युक्तिदीपिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। सांख्य के प्राचीन आचार्यों के विभिन्न मतों का संकेत युक्तिदीपिका में उपलब्ध है। वार्षगण्य-जिनकी कोई कृति आज उपलब्ध नहीं है, के मत का सर्वाधिक परिचय युक्तिदीपिका में ही उपलब्ध है। इसी तरह विन्ध्यवासी, पौरिक, पंचाधिकरण इत्यादि प्राचीन आचार्यों के मत भी युक्तिदीपिका में हैं। सांख्य परंपरा में अहंकार की उत्पत्ति महत से मानी गई है, लेकिन विंध्यवासी के मत में महत से अहंकार के अतिरिक्त पंचतन्मात्रायें भी उत्पन्न होती हैं। 22वीं कारिका की युक्तिदीपिका में विन्ध्यवासी का मत इस प्रकार रखा गया है।  
 
*'महत: षाड्विशेषा:सृज्यन्ते तन्मात्राण्यहंकारश्चेति विंध्यवासिमतम्' पंचाधिकरण इन्द्रियों को भौतिक मानते हैं- 'भौतिकानीन्द्रियाणीति पंचाधिकरणमतम्' (22वीं कारिका पर युक्तिदीपिका) संभवत: वार्षगण्य ही ऐसे सांख्याचार्य हैं जो मानते हैं कि प्रधानप्रवृत्तिरप्रत्ययापुरुषेणाऽपरिगृह्यमाणाऽदिसर्गे वर्तन्ते<balloon title="(19वीं कारिका पर युक्तिदीपिका)" style=color:blue>*</balloon>'  साथ ही वार्षगण्य के मत में एकादशकरण मान्य है जबकि प्राय: सांख्य परम्परा त्रयोदशकरण को मानती है युक्तिदीपिका के उक्त उल्लेखों से यह स्पष्ट हो जाता है कि उस समय तक सांख्यदर्शन में अनेक मत प्रचलित हो चुके थे।  
 
*'महत: षाड्विशेषा:सृज्यन्ते तन्मात्राण्यहंकारश्चेति विंध्यवासिमतम्' पंचाधिकरण इन्द्रियों को भौतिक मानते हैं- 'भौतिकानीन्द्रियाणीति पंचाधिकरणमतम्' (22वीं कारिका पर युक्तिदीपिका) संभवत: वार्षगण्य ही ऐसे सांख्याचार्य हैं जो मानते हैं कि प्रधानप्रवृत्तिरप्रत्ययापुरुषेणाऽपरिगृह्यमाणाऽदिसर्गे वर्तन्ते<balloon title="(19वीं कारिका पर युक्तिदीपिका)" style=color:blue>*</balloon>'  साथ ही वार्षगण्य के मत में एकादशकरण मान्य है जबकि प्राय: सांख्य परम्परा त्रयोदशकरण को मानती है युक्तिदीपिका के उक्त उल्लेखों से यह स्पष्ट हो जाता है कि उस समय तक सांख्यदर्शन में अनेक मत प्रचलित हो चुके थे।  
 
+
==सम्बंधित लिंक==
 
+
{{सांख्य दर्शन2}}
 
+
{{सांख्य दर्शन}}
 
 
 
[[Category:कोश]]
 
[[Category:कोश]]
 
[[Category:सांख्य दर्शन]]
 
[[Category:सांख्य दर्शन]]
 
__INDEX__
 
__INDEX__

०७:४१, ९ जुलाई २०१० के समय का अवतरण

युक्तिदीपिका / Yuktideepika

  • युक्तिदीपिका भी सांख्यकारिका की एक प्राचीन व्याख्या है तथा अन्य व्याख्याओं की तुलना में अधिक विस्तृत भी है। इसके रचनाकाल या रचनाकार के बारे में निश्चयपूर्वक कुछ कह पाना कठिन है। आचार्य उदयवीर शास्त्री ने जयन्तभट्ट की न्यायमंजरी में 'यत्तु राजा व्याख्यातवान्-प्रतिराभिमुख्ये वर्तते' तथा युक्तिदीपिका में 'प्रतिना तु अभिमुख्यं' – के साम्य तथा वाचस्पति मिश्र द्वारा 'तथा च राजवार्तिकं' (72वीं कारिका पर तत्त्वकौमुदी) कहकर युक्तिदीपिका के आरंभ में दिए श्लोकों में से 10-12 श्लोकों को उद्धृत करते देख युक्तिदीपिकाकार का नाम 'राजा' संभावित माना है। साथ ही युक्तिदीपिका का अन्य प्रचलित नाम राजवार्तिक भी रहा होगा<balloon title="(सां.द.इ. पृष्ठ 477)" style=color:blue>*</balloon> *सुरेन्द्रनाथदास गुप्त भी राजा कृत कारिकाटीका को राजवार्तिक स्वीकार करते हैं जिसका उद्धरण वाचस्पति मिश्र ने दिया है<balloon title="(भा.द.का.इ. भाग-1, पृष्ठ 203)" style=color:blue>*</balloon>। उदयवीर शास्त्री के अनुसार युक्तिदीपिकाकार का संभावित समय ईसा की चतुर्थ शती है। जबकि डॉ॰ रामचन्द्र पाण्डेय इसे दिङ्नाग (6वीं शती) तथा वाचस्पति मिश्र (नवम शती) के मध्य मानते हैं। युक्तिदीपिका में सांख्य के विभिन्न आचार्यों के मतों के साथ-साथ आलोचनाओं का समाधान भी प्रस्तुत किया है। यदि युक्तिदीपिका की रचना शंकराचार्य के बाद हुई होती तो शंकर कृत सांख्य खण्डन पर युक्तिदीपिकाकार के विचार होते। अत: युक्तिदीपिकाकार को शंकरपूर्ववर्ती माना जा सकता है। युक्तिदीपिका में उपलब्ध सभी उद्धरणों के मूल का पता लगने पर संभव है रचनाकाल के बारे में और अधिक सही अनुमान लगाया जा सके।
  • युक्तिदीपिका में अधिकांश कारिकाओं को सूत्र रूप में विच्छेद करके उनकी अलग-अलग व्याख्या की गई है। युक्तिदीपिका में समस्त कारिकाओं को चार प्रकरणों में विभक्त किया गया है। प्रथम प्रकरण 1 से 14वीं कारिका तक, द्वितीय 15 से 21वीं कारिका तक, तृतीय प्रकरण 22 से 45वीं कारिका तक तथा शेष कारिकाएँ चतुर्थ प्रकरण में। प्रत्येक प्रकरण को आह्निकों में बांटा गया है। कुल आह्निक हैं। कारिका 11,12, 60-63 तथा 65, 66 की व्याख्या उपलब्ध नहीं है। साथ ही कुछ व्याख्यांश खण्डित भी हैं।
  • सांख्य साहित्य में युक्तिदीपिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। सांख्य के प्राचीन आचार्यों के विभिन्न मतों का संकेत युक्तिदीपिका में उपलब्ध है। वार्षगण्य-जिनकी कोई कृति आज उपलब्ध नहीं है, के मत का सर्वाधिक परिचय युक्तिदीपिका में ही उपलब्ध है। इसी तरह विन्ध्यवासी, पौरिक, पंचाधिकरण इत्यादि प्राचीन आचार्यों के मत भी युक्तिदीपिका में हैं। सांख्य परंपरा में अहंकार की उत्पत्ति महत से मानी गई है, लेकिन विंध्यवासी के मत में महत से अहंकार के अतिरिक्त पंचतन्मात्रायें भी उत्पन्न होती हैं। 22वीं कारिका की युक्तिदीपिका में विन्ध्यवासी का मत इस प्रकार रखा गया है।
  • 'महत: षाड्विशेषा:सृज्यन्ते तन्मात्राण्यहंकारश्चेति विंध्यवासिमतम्' पंचाधिकरण इन्द्रियों को भौतिक मानते हैं- 'भौतिकानीन्द्रियाणीति पंचाधिकरणमतम्' (22वीं कारिका पर युक्तिदीपिका) संभवत: वार्षगण्य ही ऐसे सांख्याचार्य हैं जो मानते हैं कि प्रधानप्रवृत्तिरप्रत्ययापुरुषेणाऽपरिगृह्यमाणाऽदिसर्गे वर्तन्ते<balloon title="(19वीं कारिका पर युक्तिदीपिका)" style=color:blue>*</balloon>' साथ ही वार्षगण्य के मत में एकादशकरण मान्य है जबकि प्राय: सांख्य परम्परा त्रयोदशकरण को मानती है युक्तिदीपिका के उक्त उल्लेखों से यह स्पष्ट हो जाता है कि उस समय तक सांख्यदर्शन में अनेक मत प्रचलित हो चुके थे।

सम्बंधित लिंक