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गीता अध्याय-13 श्लोक-20 / Gita Chapter-13 Verse-20
प्रसंग-
तीसरे श्लोक में, जिससे जो उत्पन्न हुआ है, यह बात सुनने के लिये कहा गया था, उसका वर्णन पूर्व श्लोक के उत्तरार्द्ध में कुछ किया गया । अब उसी की कुछ बात इस श्लोक के पूर्वार्द्ध में कहते हुए इसके उत्तरार्द्ध में और इक्कीसवें श्लोक में प्रकृति में स्थित पुरुष के स्वरूप का वर्णन किया जाता है –
कार्यकरणकर्तृत्वे हेतु: प्रकृतिरूच्यते ।
पुरुष: सुखदु:खानां भोक्तृत्वे हेतुरूच्यते ।।20।।
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कार्य और करण को उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही जाती है और जीवात्मा सुख-दुखों के भोक्तापन में अर्थात् भोगने में हेतु कहा जाता है ।।20।।
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Nature is said to be responsible for bringing forth the evolutes and the instruments; while the individual soul is decared to be the cause of experience of joys and sorrows. (20)
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कार्यकरणकर्तृत्वे = कार्य और करण के उत्पन्न करने में (और) ; पुरुष: = जीवात्मा ; सुखदु:खानाम् = सुखदु:खों के ; हेतु: = हेतु ; प्रकृति: = प्रकृति ; उच्यते = कही जाती है ; भोक्तृत्वे = भोक्तापन में अर्थात् भोगने में ; हेतु: = हेतु ; उच्यते = कहा जाता है ;
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