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गीता अध्याय-4 श्लोक-31 / Gita Chapter-4 Verse-31
प्रसंग-
सोलहवें श्लोक में भगवान् ने यह बात कही थी कि मैं तुम्हें वह कर्मतत्व बतलाऊँगा, जिसे जानकर तुम अशुभ से मुक्त हो जाओगे । उस प्रतिज्ञा के अनुसार अठाहवें श्लोक से यहाँ तक उस कर्मतत्व का वर्णन करके अब उसका उपसंहार करते हैं-
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्रा सनातनम् ।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्य: कुरूसत्तम ।।31।।
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हे कुरूक्षेष्ठ अर्जुन ! यज्ञ से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले योगी जन सनातन परब्रह्रा परमात्मा को प्राप्त होते हैं । और यज्ञ न करने वाले पुरूष के लिये तो यह मनुष्य लोक भी सुखदायक नहीं हैं, फिर परलोक कैसे सुखदायक हो सकता है ? ।।31।।
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arjuna, Yogis who enjoy the nectar that has been left over after the performance of a sacrifice attain the eternal Brahma. To the man who does not offer sacrifice, even this world is not happy; how, then, can the other world be happy (31)
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कुरूसत्तम = हे कुरूश्रेष्ठ अर्जुन; यज्ञ शिष्टामृतभुज: = यज्ञों के परिणामरूप ज्ञानामृत को भोगने वाले योगीजन; सनातनम् = सनातन; ब्रह्म = परब्रह्म परमात्मा को; यान्ति =प्राप्त होते हैं (और); अयज्ञस्य = यज्ञरहित पुरूष को; अयम् = यह; लोक: = मनुष्य लोक (भी सुखदायक); न = नहीं; अस्ति = है; (फिर) अन्य: = परलोक; कुत: = कैसे (सुखदायक होगा)
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