गोपथ ब्राह्मण

ब्रज डिस्कवरी, एक मुक्त ज्ञानकोष से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.

गोपथ ब्राह्मण / Gopath Brahman

अथर्ववेद का एकमात्र उपलब्ध ब्राह्मणग्रन्थ गोपथ-ब्राह्मण है। सुदीर्घकाल तक इसके शाखा-सम्बन्ध के विषय में अनिश्चय की स्थिति रही, क्योंकि अथर्ववेद की नौ शाखाओं में से शौनकीया शाखा विशेष प्रसिद्ध और प्रचलित रही है। गोपथ-ब्राह्मण में शौनकीया शाखा के मन्त्रों का भी निर्देश प्रतीकों के द्वारा किया गया है, इसलिए इस शाखा से भी इसका सम्बद्ध मान लिया गया था। अब गोपथ-ब्राह्मण का सम्बन्ध पैप्पलाद शाखा से सुनिश्चित हो गया है, क्योंकि पतंजलि ने व्याकरण-महाभाष्य में अथर्ववेद के प्रथम मन्त्र के रूप में 'शन्नो देवीरभिष्टये' प्रभृति मन्त्र का उल्लेख किया है जो पैप्पलादशाखीय अथर्ववेद में ही प्राप्त होता है। इसका विवरण गोपथ-ब्राह्मण में भी है। वेङ्कटमाधव की 'ऋग्वेदानुक्रमणी' से भी इसकी पुष्टि होती है-
ऐतरेयमस्माकं पैप्पलादमथर्वणाम्। तृतीयं तित्तिरिप्रोक्तं जानन् वृद्ध इहोच्यते<balloon title="ऋग्वेदानु. 8.1.13" style=color:blue>*</balloon>

गोपथ-ब्राह्मण का नामकरण

गोपथ-ब्राह्मण के नामकरण के विषय में सामान्यत: चार प्रकार के मत उपलब्ध हैं-

  • ऋषि गोपथ इस ब्राह्मण के प्रवक्ता हैं। उन्हीं के नाम से इस ग्रन्थ की प्रसिद्धि हुई। स्मरणीय है कि शौनकीय अथर्ववेदी के चार सूक्तों<balloon title="शौनकीय अथर्ववेदी 19.47-50" style=color:blue>*</balloon> के द्रष्टा गोपथ माने जाते हैं। ऐतरेय ब्राह्मण, कौषीतकि ब्राह्मण और तैत्तिरीय ब्राह्मण प्रभृति अन्य ब्राह्मण-ग्रन्थों की प्रसिद्धि भी प्रवचनकर्ता आचार्यो के नाम पर है।
  • 'गोपथ' शब्द यहाँ 'गोप्ता' से निष्पन्न माना गया है। अथर्वाङ्गिरसो की प्रसिद्धि यज्ञ के गोप्ता (रक्षक) रूप में है- 'अथर्वाङ्गिरसो हि गोप्तार:'।<balloon title="गोपथ ब्राह्मण 1.1.13" style=color:blue>*</balloon> 'गुप्' धातु में 'अथ' के योग से 'गोपथ' शब्द व्युत्पन्न हो जाता है। इन्हीं गोपथों से सम्बद्ध रहा है यह ब्राह्मणग्रन्थ।
  • शतपथ ब्राह्मण से गोपथ-ब्राह्मण ने पुष्कल सामग्री ग्रहण की है, इसलिए नामकरण में भी यहाँ उसी परम्परा का अनुवर्तन हुआ। 'शतपथ' के नामकरण में 100 अध्यायों की सत्ता हेतुभूत थी- और 'गोपथ', जिसका अर्थ है इन्द्रियाँ और जिनकी संख्या 11 है, में इन्द्रियों के साम्य से 11 प्रपाठक हैं। इस प्रकार संख्या-साम्य ही गोपथ के नामकरण में निमित्तभूत है।
  • डॉ. सूर्यकान्त ने एक अपना मत व्यक्त किया है जो ऋग्वेद के 'सरमा-पणि' संवाद-सूक्त पर आधृत है।[१] उस सूक्त में कहा गया है कि देव-शुनी सरमा से प्राप्त सूचना के आधार पर इन्द्र ने पणियों के द्वारा छिपाई हुई गायों का उद्धार किया था। इन्द्र के इस साहस-कृत्य में अङ्गिरसों ने उनका सहयोग किया था। गायों के पथ को ऋषि अङ्गिरस् जानते थे, और यह उनका ब्राह्मण है।

इन सभी मतों में अंशत: कुछ-न-कुछ उपादेय हो सकता है, किन्तु अधिक विश्वसनीय प्रथम मत ही प्रतीत होता है कि ऋषि गोपथ के प्रवक्ता होने के कारण इस ब्राह्मण का ऐसा नामकरण हुआ।

गोपथ-ब्राह्मण का विभाग

आथर्वणपरिशिष्ट 'चरणव्यूह' के अनुसार गोपथ-ब्राह्मण में 100 प्रपाठक कभी थे- 'तत्र गोपथ: शतप्रपाठकं ब्राह्मणम् आसीत्। तस्यावशिष्टे द्वे ब्राह्मणे पूर्वम् उत्तरं च'। सम्प्रति गोपथब्राह्मण में दो भाग हैं- पूर्व और उत्तर। पूर्वभाग में पाँच प्रपाठक हैं और उत्तरभाग में छ:। इस प्रकार समग्र प्रपाठकों की संख्या केवल 11 है। पूर्वभाग के पाँचों प्रपाठकों की कुल कण्डिकाएँ 135 हैं और उत्तर भाग में 123।

गोपथ-ब्राह्मण का आदान

ब्लूमफील्ड ने गोपथ-ब्राह्मण के उत्तरभागस्थ उन अंशों को रेखाङ्कित करने की चेष्टा की है,<balloon title="पृष्ठ. 213-220" style=color:blue>*</balloon> जो उन्हें पूर्ववर्ती साहित्य से गृहीत प्रतीत हुए हैं। नि:सन्देह उत्तरभाग में ऐसे अनेक स्थल हैं, जिनका विपुल साम्य कौषीतकि-ब्राह्मण, शतपथ-ब्राह्मण तथा ऐतरेय-ब्राह्मण के सन्दर्भित अंशों से है। कुछ स्थलों पर तैत्तिरीय-संहिता और मैत्रायणी-संहिता की प्रतिच्छाया भी उन्हें प्रतीत हुई है, लेकिन वास्तव में ये वे अंश हैं, जो ब्रह्मवादियों के मध्य यज्ञस्वरूप के प्रसंग में अत्यन्त प्रचलित थे और सभी की साझी सम्पत्ति समझे जाते थे। इनके आदान का प्रयोजन अपने प्रतिपाद्य को पूर्णता भर प्रदान करना था। गहराई से सन्धान करने पर ऐसे आदान के कुछ-न-कुछ अंश सभी ब्राह्मणों में दिखाई दे जाते हैं। इन्हीं के आधार पर कुछ विद्वानों ने मूलवेद के साम्य पर किसी 'मूल ब्राह्मणग्रन्थ' का विचार भी प्रकट किया है। ब्लूमफील्ड के समय तक ब्राह्मणग्रन्थों का अनुशीलन प्रारम्भिक स्थिति में था, इसलिए उनके लिए 'गोपथ-ब्राह्मण' के प्रति समुचित न्याय कर पाना असंभव ही था। स्वयं 'गोपथ-ब्राह्मण' का ही कोई सुसम्पादित संस्करण उनके सामने नहीं था। वास्तव में, विभिन्न ब्राह्मण-ग्रन्थों में विद्यमान समानस्थल, उनकी पारस्परिक संवादशीलता के परिचायक हैं। ब्राह्मणग्रन्थों के प्रवक्ताओं का मुख्य उद्देश्य यज्ञों की अङ्गविकलता से रक्षा करना ही था, न कि अपनी मौलिकता अथवा रचना-कौशल की प्रतीति कराना। इस दृष्टि से, गोपथ-ब्राह्मण के प्रवक्ता श्लाघा के आस्पद ही सिद्ध होते हैं।

अथर्ववेदीय संहितेतर

साहित्य की आनुपूर्वी- इस सन्दर्भ में भी ब्लूमफील्ड की यह अवधारणा, कि अथर्व-साहित्य में ब्राह्मण, श्रौतसूत्र और गृह्यसूत्र के संकलन का कालगत सम्बन्ध उलट जाता है तथा कौशिक-गृह्यसूत्र वैतान-श्रौतसूत्र से पहले रचा गया था और वैतान-श्रौतसूत्र गोपथ-ब्राह्मण से पहले<balloon title="ब्लूमफील्ड पृष्ठ 213" style=color:blue>*</balloon>, अग्राह्य प्रतीत होती है। वस्तुत: वैतान-श्रौतसूत्र गोपथ-ब्राह्मण के उत्तरभाग पर ही आश्रित दिखलाई देता है। इसी प्रकार 'कौशिक सूत्र' के 'संहिता-विधि' होने का तात्पर्य भी भिन्न है। संहिता-विधि का प्रयोजन ऋत्विजों के लिए दैनन्दिन कर्मकाण्डीय आवश्यकता की पूर्ति रहा है, जो श्रौतसूत्र अथवा गृह्यसूत्र ही कर सकते हैं। आगे चलकर, यह स्थान पद्धतियों ने ले लिया। ब्राह्मणग्रन्थों की विषय-विवेचना में विधि के साथ ही अर्थवाद, हेतुवाद, आख्यान तथा निर्वचनादि भी अनिवार्य तथा समाविष्ट रहे है, इसलिए वे दैनन्दिन अनुष्ठान-विधियों के सुबोध प्रस्तावक नहीं ही हो सकते थे। इस कार्य के लिए तो कल्प ही उपादेय हो सकता था। यहाँ तक विषय-वस्तु की व्यापकता का प्रश्न है, कौशिक ही नहीं, अन्य वेदों के गृह्यसूत्र भी कभी-कभी अपनी गृह्यकर्मों की सीमा से निकलकर श्रौत एवं अभिचार कर्मों के प्रतिपादन में संलग्न दिखलाई देते हैं। यहाँ भी इस तर्क का आश्रय लिया जा सकता है कि ब्लूमफील्ड के समय में वैदिक कर्मानुष्ठानों का अध्ययन शैशवावस्था में था, अत: उनका भ्रान्तिग्रस्त होना भी अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। इसीलिए कीथ और कलान्द-सदृश मनीषियों ने ब्लूमफील्ड के द्वारा प्रस्तावित आनुपूर्वी से वैमत्य प्रकट करते हुए गोपथ-ब्राह्मण की पर्याप्त प्राचीनता के प्रति आस्था व्यक्त की है। सन्दर्भित मतों के तारतम्य की विचेना के प्रसंग में अधिक-से-अधिक यह स्वीकार किया जा सकता है कि गोपथ-ब्राह्मण, ब्राह्मण-काल के अन्तिम चरण की रचना है।

गोपथ-ब्राह्मण में प्रतिपादित विषयवस्तु

अन्य ब्राह्मण ग्रन्थों की अपेक्षा गोपथ-ब्राह्मण में निरूपित विषय-वस्तु अत्यन्त व्यापक है। पूर्वभाग के प्रथम प्रपाठक में सर्वप्रथम अथर्ववेद के अनुसार सृष्टि-प्रक्रिया का निरूपण है। तदनुसार सृष्टि की कामना से स्वयम्भू ब्रह्म का तप, जल-सृष्टि, जल में रेत:स्खलन, शान्तजल के समुद्र से भृगु, अथर्वा आथर्वण ऋषि, अथर्ववेद, ओङ्कार, लोक और त्रयी का आविर्भाव वर्णित है। अशान्त जल के समुद्र से वरुण, मृत्यु, अङ्गिरा, आङ्गिरस ऋषि, आङ्गिरस वेद, जगत्, वेद, व्याहृतियों, शम्, चन्द्रादि तथा यज्ञ की उत्पत्ति बतलाई गई है। देवयज्ञों के संरक्षक-रूप में अथर्वाङ्गिरसों तथा दक्षिणा का भी यहीं वर्णन है। तदनन्तर प्रणवोपनिषद है जिसमें पुष्कर में ब्रह्म के द्वारा ब्रह्मा की सृष्टि, ओङ्कार-दर्शन तथा ओङ्कार की मात्राओं से आथर्वणिक तत्त्वों, देवो, वेदों, इतिहासादि वाङमय, ओङ्कार-जप का फल, प्रश्नोत्तररूप में निरूपित है। इसके पश्चात गायत्र्युपनिषद है, जिसमें गायत्री मन्त्र की अत्यन्त विशद व्याख्या प्राप्त होती है। इस प्रपाठक के अन्त में आचमन-विधि वर्णित है। द्वितीय प्रपाठक की प्रथम आठ कण्डिकाओं में ब्रह्मचारी के महत्त्व और कर्त्तव्यों का निरूपण किया गया हा। तदनन्तर यज्ञ में होता प्रभृति चारों ऋत्विजों की भूमिका का विचार है। विचारक कबन्धि का उल्लेख करते हुए देवयजनादि यज्ञीय तत्त्वों की विशद मीमांसा की गई है। तृतीय प्रपाठक का विषय भी यज्ञ-विवेचन ही है। इसमें ब्रह्मा का महत्त्व विशेषरूप से निरूपित है। दर्शपूर्णमास, ब्रह्मोद्य, अग्निहोत्र, अग्निष्टोम प्रभृति का विचार बड़े व्यापक पटल पर किया गया है। चतुर्थ प्रपाठक में गवामयनादि सत्रयागों की मीमांसा की गई है। यही क्रम पंचम प्रपाठक में भी चलता रहता है। इसमें यज्ञ-क्रम, विभिन्न ऋत्विजों की वाणी आदि की प्राप्ति, अंगिरा की उत्पत्ति, ऋत्विजों के कृत्यों की विवेचना है। अन्त में बहुसंख्यक कारिकाएँ भी दी गई हैं जिनका प्रयोजन यज्ञ-क्रम के स्मरण को सुगम बनाना है। उत्तरभाग में-

  • प्रथम प्रपाठक का आरम्भ ब्रह्माख्य ऋत्विक् की प्ररोचना से होता है। तदनन्तर 12वीं काण्डिका तक दर्शपूर्णमास का वर्णन है। इसके पश्चात चार कण्डिकाओं<balloon title="13-16 तक" style=color:blue>*</balloon> काम्येष्टियों का निरूपण है। तदनन्तर 10 काण्डिकाओं<balloon title="17 से 26 तक" style=color:blue>*</balloon> आग्रयण, अग्निचयन और चातुर्मास्यों का विवरण है।
  • द्वितीय प्रपाठक की प्रथममण्डिका में काम्येष्टियों का उल्लेख है। तत्पश्चात क्रमश: तानूनप्त्रेष्टि<balloon title="2-4" style=color:blue>*</balloon>, प्रवर्ग्येष्टि<balloon title="5-6" style=color:blue>*</balloon>, यज्ञ-शरीर के भेद, दूसरे के सोमयाग के ध्वंस और सोमस्कन्द-प्रायश्चित्त<balloon title="7-12" style=color:blue>*</balloon> का वर्णन है। आगे स्तोमभाग<balloon title="13-15" style=color:blue>*</balloon>, आग्नीध्रविभाग, प्रवृत्ताहुतियों, सदस्जन्यकर्म, प्रस्थित ग्रहों तथा दर्शपूर्णमास<balloon title="16-23" style=color:blue>*</balloon> का निरूपण है।
  • तृतीय प्रपाठक की विषवस्तु क्रमश: यह है- वषट्कार और अनुवषट्कार<balloon title="1 से 6" style=color:blue>*</balloon>, ऋतुग्रहादि<balloon title="7-11" style=color:blue>*</balloon>, एकाहप्रात:सवन<balloon title="12-19" style=color:blue>*</balloon>, एकाह-माध्यन्दिनसवन।<balloon title="20-23" style=color:blue>*</balloon>
  • चतुर्थ प्रपाठक में पूर्वक्रम का अनुवरृतन करते हुए एकाह के तृतीय सवन का निरूपण करने के अनन्तर षोडशियाग का विधान है। इसी क्रम में पंचम और षष्ठ प्रपाठकों की सामग्री भी है, जिनमें अतिरात्र<balloon title="1-5" style=color:blue>*</balloon>, सौत्रामणी<balloon title="6-7" style=color:blue>*</balloon>, वाजपेय<balloon title="8" style=color:blue>*</balloon>, अप्तोर्याम<balloon title="9-10" style=color:blue>*</balloon>, अहीन और सत्रयाग निरूपित हैं।

गोपथ-ब्राह्मण में याग-मीमांसा

'अग्निर्यज्ञ त्रिवृतं सप्ततन्तुम्'<balloon title="पैप्पलाद.संहिता. 5.28.1" style=color:blue>*</balloon> इस आथर्वण-श्रुति का आधार लेकर गोपथ-ब्राह्मणकार ने यज्ञ के 21 प्रभेद बतलाये हैं- 'सप्तसुत्या: सप्त च पाकयज्ञा हविर्यज्ञा: सप्त तथैकविंशति:। सर्वे ते यज्ञा अङ्गिरसोऽपि यन्ति नूतना यानृषयों सृजन्ति ये च सृष्टा पुराणे॥'<balloon title="गोपथ-ब्राह्मण 1.5.15" style=color:blue>*</balloon> इनका पृथक्-पृथक् उल्लेख भी किया गया है-
सायं प्रातर्होमौ स्थालीपाको नवश्य य:।
बलिश्च पितृयज्ञश्चाष्टका सप्तम: पशु:॥ इत्येते पाकयज्ञा:
अग्न्याधेयमग्निहोत्रं पौर्णमास्यमावास्ये।
नवेष्टिश्चातुर्मास्यानि पशुबन्धोऽत्यग्निष्टोम उक्थ्य: षोडशिमांस्तत:।
वाजपेयोऽतिरात्रश्चाप्तोर्यामात्र सप्तम:। इत्येते सुत्या:॥<balloon title="गोपथ-ब्राह्मण 1.5.23" style=color:blue>*</balloon>

अकुशल ऋत्विजों से यज्ञ नष्ट हो जाता है- 'यद् वै यज्ञे कुशला ऋत्विजो भवन्त्यचरितिनो ब्रह्मचर्यमपरार्ध्या वा तद् वै यज्ञस्य विरिष्टमित्याचक्षते।'<balloon title="गोपथ-ब्राह्मण 1.1.13" style=color:blue>*</balloon> अथर्ववेदियों के बिना सोम-यागों का सम्पादन नहीं हो सकता- 'नर्ते भृग्वङ्गिरोविद्भ्य: सोम: पातव्य:। ऋत्विज: पराभवन्ति, यजमानो रजसापवध्यति, श्रुतिश्चापध्वस्था तिष्ठति।'<balloon title="गोपथ-ब्राह्मण1.1.28" style=color:blue>*</balloon> यज्ञ का स्वरूप, गति और तेज यदि ऋक्, यजुष् और साम पर निर्भर है, तो माया भृग्वङ्गिरसों अर्थात् अथर्ववेद पर।<balloon title="अथर्ववेद 1.2.9" style=color:blue>*</balloon> इसी प्रकार ऋग्वेदीय मण्डलों से यज्ञ के पार्थिवरूप, का, अन्तरिक्षरूप का यजुष् से और सामवेद से द्युलोक का आप्यायन होता है, अथर्ववेद से जलरूप का। ब्रह्मा अथर्ववेदीय मन्त्रों से यज्ञ के हानिकारक तत्त्वों को शान्त करता है- 'तद् यथेमां पृथिवीमुदीर्णा ज्योतिषा धूमायमानां वर्षं शमयति, एवं ब्रह्मा भृग्वङ्गिरोभिर्व्याहृतिभिर्यज्ञस्य विरिष्टं शमयति।<balloon title="गोपथ-ब्राह्मण 1.2.9" style=color:blue>*</balloon> विभिन्न इन्द्रियों की दृष्टि से भी ब्रह्मा के वैशिष्ट्य का निरूपण गोपथ-ब्राह्मण में हुआ है। तदनुसार होता वाणी से, अध्वर्यु प्राण और अपान से, उद्गाता नेत्रों से तथा ब्रह्मा मन से यज्ञ का सम्पादन करता है- 'मनसैव ब्रह्मा ब्रह्मत्वं करोति।'।<balloon title="गोपथ-ब्राह्मण 1.2.11" style=color:blue>*</balloon> 'चत्वारि श्रृङ्गा.' प्रभृति सुप्रसिद्ध मन्त्र की यज्ञपरक व्याख्या गोपथब्राह्मणकार ने की है।

'महो देव:' की व्याख्या करते हुए यज्ञ को ही महान् देवता बतलाया गया है।<balloon title="गोपथ-ब्राह्मण 1.2.16" style=color:blue>*</balloon> यज्ञ के अशान्त अश्व को तीनों वेद शान्त नहीं कर सके, तब उसे अथर्ववेद से ही शान्त किया जा सका।<balloon title="गोपथ-ब्राह्मण 1.2.18" style=color:blue>*</balloon> ब्रह्मा की प्ररोचना गोपथ में सर्ववेत्ता के रूप में की गई है- 'एष ह वै विद्वान् सर्वविद् ब्रह्मा यद् भृग्वङ्गिरोविदिति ब्राह्मणम्'<balloon title="गोपथ-ब्राह्मण 1.2.18" style=color:blue>*</balloon>। मानव-शरीर के विभिन्न अंगों से यज्ञ की समानता प्रदर्शित करने की ब्राह्मण-ग्रन्थों की परम्परा का अनुपालन गोपथ-ब्राह्मणकार ने भी किया है। ब्लूमफील्ड का यह आरोप भी सही नहीं प्रतीत होता कि गोपथ-ब्राह्मण के पूर्वभाग में किसी यज्ञ-क्रम का पालन नहीं हुआ है। वास्तव में पूर्वभाग का प्रयोजन विभिन्न यागों की सामान्य बातों, इष्टियों और अन्तर्विहित तत्त्वों का उपपादन ही है, लेकिन जहाँ क्रम की आवश्यकता अनुभव हुई हैं, उसकी ओर गोपथब्राह्मणकार ने दुर्लक्ष्य नहीं किया है। 'अथातो यज्ञक्रमा:' से प्रारम्भ कर एक सम्पूर्ण कण्डिका में अग्न्याधेय से लेकर सर्वमेध तक विभिन्न यागों के क्रम-निर्धारण का कार्य उसने किया है।<balloon title="गोपथ-ब्राह्मण 1.5.7" style=color:blue>*</balloon> सहस्त्रसंवत्सरसाध्य याग का अनुष्ठान कैसे दिया जाय, इस ओर सभी ब्राह्मणों का विशेष ध्यान रहा हे। गोपथ-ब्राह्मण में भी इसके समाधान की चेष्टा दिखलाई देती है।<balloon title="गोपथ-ब्राह्मण 1.5.10" style=color:blue>*</balloon> यज्ञ के द्रव्यात्मक रूप की तुलना में आध्यात्मिक रूप को वरीयता देते हुए उसके प्रतिपादन की परम्परा का आरम्भ-बिन्दु यदि शतपथ-ब्राह्मण में है, तो उसके विकास का शिखर गोपथ-ब्राह्मण में दिखलाई देता है। इसे न समझ पाने के कारण ही पश्चिमी विद्वान् गोपथ-ब्राह्मण की याग-मीमांसा के प्रति न्याय नहीं कर सके हैं। पूर्वभाग की अपेक्षा ब्राह्मण का उत्तर भाग यज्ञों के व्यावहारिक अनुष्ठांन पर अधिक केन्द्रित प्रतीतत होता है- वैतान- श्रौत्रसूत्र के लिए, इसी कारण उसका अनुगमन स्वाभाविक और सुगम था।

गोपथ-ब्राह्मण में निरूपित यागेतर आध्यात्मिक तत्त्व-सम्पत्

आथर्वण-परम्परा का पालन करते हुए गोपथ-ब्राह्मण में आध्यात्मिक तत्त्वों का प्रचुरता से निरूपण हुआ है। ओङ्कार, महाव्याहृतियों, गायत्री (सावित्री) मन्त्र और मानसिक संयम पर इस ब्राह्मणग्रन्थ में विशेष बल दिया गया है। ओङ्कार के सहस्त्रसंख्यक जप से समस्त कामनाएँ पूरी हो जाती हैं-
तदेतदक्षरं ब्राह्मणो यं काममिच्छेत्, त्रिरात्रोपोषित: प्राङमुखों वाग्यतो बर्हिष्युपविश्य सहस्त्रकृत्व आवर्त्तयेत्। सिद्ध्यन्त्यस्यार्था: सर्वकर्माणि चेति ब्राह्मणम्<balloon title="गोपथ-ब्राह्मण1.1.22" style=color:blue>*</balloon>
ओङ्कार के बिना वेद-मन्त्रों का पाठ नहीं होता। वह ऋक्, यजुष्, साम, प्रत्येक सूत्रग्रन्थ, ब्राह्मण-ग्रन्थ और श्लोक में अनुस्यूत है-
..न मामनीरयित्वा ब्राह्मणा ब्रह्म वदेयु:, यदि वदेयु: अब्रह्म तत् स्यात्। तस्मादोङ्कार: पूर्वमुच्यते। ओङ्कार ऋचि ऋग्भवति, यजुषि यजु:, साम्नि साम, सूत्रे सूत्रं, ब्राह्मणे ब्राह्मणम् श्लोके श्लोक:, प्रणवे प्रणव इति ब्राह्मणम्।<balloon title="गोपथ-ब्राह्मण 1.1.23" style=color:blue>*</balloon>
भू:, भुव: स्व: इन व्याहृतियों के साथ गायत्री की भी इसमें विभिन्न दृष्टियों से विशद विवेचना की गई है। स्वरूप से देवों की गायत्री की भी इसमें विभिन्न दृष्टियों से विशद विवेचना की गई है। स्वरूप से देवों की गायत्री एकाक्षरा और श्वेतावर्णा है- 'गायत्री वै देवानामेकाक्षरा श्वेतवर्णा च व्याख्याता।<balloon title="गोपथ-ब्राह्मण 1.1.27" style=color:blue>*</balloon> 'क: सविता। का सावित्री।<balloon title="गोपथ-ब्राह्म ण1.1.30-33" style=color:blue>*</balloon> - (सविता कौन है और सावित्री क्या है?)- इस रूप में प्रशन उठाकर सावित्री की बहुविध व्याख्या की गई है। तदनुसार मन सविता है और वाणी सावित्री। दूसरे उल्लेख के अनुसार अग्नि सविता है और पृथ्वी सावित्री। इसी प्रकार के अन्य अनेक युग्मों-वायु और अन्तरिक्ष, आदित्य और द्यु, चन्द्रमा और नक्षत्र, दिन और रात्रि, ग्रीष्म और शीत, मेघ और वर्षा, विद्युत् और गर्जना, प्राण और अन्न, वेद और छन्द, यज्ञ तथा दक्षिणा-इत्यादि के माध्यम से सविता और सावित्री का विवेचन किया गया है। पूर्वभाग के प्रथम प्रपाठक की 31वीं कण्डिका से 38वीं कण्डिका तक मौद्गल्य और मैत्रेय के आख्यान के माध्यम से, गायत्र्युपनिषद के अन्तर्गत सावित्री पर जितनी सामग्री मिलती है, वह अत्यन्त उपादेय है। वेदमाता गायत्री का उपासक अनन्त पुण्य, श्री एवं कीर्ति का भाजन बनता है-
पुण्यां च कीर्ति लभते सुरभीश्च गन्धान्। सोऽपहतपाप्मा। अनन्तां श्रियमश्नुते य एवं वेद, यश्चैवं विद्वानेवमेता वेदानां मातरं सावित्री सम्पदमुपनिषदमुपास्ते।<balloon title="गोपथ-ब्राह्मण1.1.38" style=color:blue>*</balloon>
प्रजापति का उल्लेख यद्यपि गोपथब्राह्मण में है, किन्तु ब्रह्म का महत्त्व सर्वोपरि है। सृष्टि उसी से प्रादुर्भूत हुई। कैवल्य की अवधारणा का उल्लेख भी इसमें है।<balloon title="गोपथ-ब्राह्मण1.1.30" style=color:blue>*</balloon>

सृष्टि-प्रक्रिया और आचार-दर्शन

सृष्टि का प्रारम्भ ब्रह्म के श्रम और तप से हुआ। भृगु और अथर्वा प्रभृति ऋषियों ने भी श्रम और तप का अनुष्ठान किया। श्रम और तप से ही देव-सृष्टि और लोक-सृष्टि सम्भव हुई। इसी से तीनों वेदों और महाव्याहृतियों का निर्माण हुआ।<balloon title="गोपथ-ब्राह्मण 1.1-6" style=color:blue>*</balloon> गोपथ-ब्राह्मण के अनुसार मन का बहुत महत्त्व है। आदमी मन से जो सोचता है, वही होता है- 'स मनसा ध्यायेद्, यद् वां अहं किं च मनसा ध्यास्यामि तथैव तद् भविष्यति। तद्ध स्म तथैव भवति'।<balloon title="गोपथ-ब्राह्मण 1.1.9" style=color:blue>*</balloon> ब्राह्मणकार ने आधे-अधूरेपन से कार्य करने का भी निषेध किया है। द्वितीय प्रपाठक में ब्रह्मचारी के कर्त्तव्यों का विस्तार से निरूपरण है। ऐन्द्रिक रागों और आकर्षणों से उसे बचना चाहिए। स्त्री-सम्पर्क, दूसरों को कष्ट पहुँचाने, ऊँचे आसन पर बैठने से उसे बचना चाहिए। संरक्षित धर्म ही उसकी रक्षा करता है- 'धर्मों हैनं गुप्तो गोपायति'<balloon title="गोपथ-ब्राह्मण 1.2.4" style=color:blue>*</balloon> सम्भवत: यही गोपथ-ब्राह्मणोक्त सूक्ति लौकिक संस्कृत में 'धर्मो रक्षति रक्षित:' में परिणत हो गई। यज्ञ-दीक्षा के प्रकरण में अनेक नैतिक नियमों का उल्लेख है। श्रेष्ठ बुद्धि से युक्त व्यक्ति को ही 'दीक्षित' माना गया है-'श्रेष्ठां धियं क्षियतीति। तं वा एतं धीक्षितं सन्तं दीक्षित इत्याचक्षते परोक्षेण।'<balloon title="गोपथ-ब्राह्मण 1.3.19" style=color:blue>*</balloon> आचार की दृष्टि से गोपथ-ब्राह्मण का स्तर अत्यन्त उच्च और उदात्त है।

निर्वचन-प्रक्रिया

अन्य ब्राह्मणों की तरह गोपथ में भी अनेक रोचक निर्वचन प्राप्त होते हैं। उदाहरण के लिए 'धारा' शब्द धारण करने से जन्म देने के कारण 'जाया' , 'वरण', से वरुण, 'मुच्चु से मृत्यु, प्रजापालन के कारण प्रजापति, भरण करने के कारण भृगु, अथ और अर्वाक् के योग से अथर्वा अङ्ग और रस के योग से अंगरस या अंगिरस, की निरुक्ति निरूपित हैं। रस और रथ का समीकरण भी विलक्षण प्रतीत होता है- 'तं वा एवं रसं सन्तं रथ इत्याचक्षते परोक्षेण'। <balloon title="गोपथ-ब्राह्मण 1.2.21" style=color:blue>*</balloon>

गोपथ-ब्राह्मण की अन्य विशेषताएँ

  • अथर्ववेद और उसके भृगु, अंगिरा, अथर्वा प्रभृति ऋषियों के आविर्भाव पर गोपथ से विशिष्ट प्रकाश पड़ता है।
  • ऋग्वेद में वरुण आकाश के देवता हैं, लेकिन धीरे-धीरे वे जल से कैसे सम्बन्ध हो गये, इसका ज्ञान गोपथ-ब्राह्मण से होता है।<balloon title="गोपथ-ब्राह्मण 1.1.7" style=color:blue>*</balloon>
  • परिनिष्ठित वेदों के साथ ही सर्पवेद, पिशाचवेद, असुरवेद, इतिहासवेद और पुराण वेदों का उल्लेख पाँच इतर वेदों के रूप में किया गया है।<balloon title="गोपथ-ब्राह्मण 1.1.10" style=color:blue>*</balloon>
  • ब्रह्मा के 48 हज़ार वर्षों तक, सलिल-पृष्ठ पर शिव के तपस्या करने का उल्लेख है।<balloon title="गोपथ-ब्राह्मण 1.2.8" style=color:blue>*</balloon>
  • दोषपति, जिसकी मान्यता बौद्धकालिकरूप में है, की इसमें चर्चा है।<balloon title="गोपथ-ब्राह्मण 1.1.28" style=color:blue>*</balloon>
  • व्याकरण की उस शब्दावली, जिसका विकास सूत्र-काल में हुआ, का यहाँ उल्लेख है। धातु, प्रातिपादिक, विभक्ति, प्रत्यय, विकार, विकारी, स्थानानुप्रदान आदि ऐसे ही कुछ शब्द हैं।<balloon title="गोपथ-ब्राह्मण 1.1.25-27" style=color:blue>*</balloon> अव्यय की वह परिभाषा भी प्राप्त होती है, जो अद्यावधि प्रचलित है-

सदृशं त्रिषु लिङ्गेषु सर्वासु च विभक्तिषु। वचनेषु च सर्वेषु यत्र व्येति तदव्ययम्।

  • ऋषियों में वसिष्ठ, विश्वामित्र, जमदग्नि, गौतम, भारद्वाज, गुंगु, अगस्त्य, कश्यप प्रभृति के, आचार्यों के आश्रमों के रूप में विपाशा नदी, वसिष्ठ शिला, प्रभव, गुंगुवास, अगस्थ्यतीर्थ, कश्यपतुङ्ग इत्यादि भौगोलिक महत्त्व के स्थानों का उल्लेख है।<balloon title="गोपथ-ब्राह्मण 1.2.8" style=color:blue>*</balloon>
  • जनपदों में कुरु-पांचाल, अङ्ग, मगध, काशी, शाल्व, मत्स्य, सवश, उशीनर और वत्स के नाम दिये गये हैं।<balloon title="गोपथ-ब्राह्मण 1.2.10" style=color:blue>*</balloon>
  • राजाओं में परीक्षितपुत्र जनमेजय तथा सार्वभौम राजा यौवनाश्व मान्धाता के नामों का उल्लेख है।<balloon title="गोपथ-ब्राह्मण 1.2.10" style=color:blue>*</balloon>
  • स्वाहा की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए गोपथ-ब्राह्मण ने उसको लामगायनों की सगोत्रीय बतलाया।<balloon title="गोपथ-ब्राह्मण 1.3.16" style=color:blue>*</balloon> ये लामगायन अन्यत्र सामवेद की शाखाओं के प्रसंग में उल्लिखित हैं।

निष्कर्ष यह कि अपनी अनेक विलक्षणताओं के कारण गोपथ-ब्राह्मण समस्त ब्राह्मणग्रन्थों के मध्य विशेष महत्त्व का आस्पद है।

संस्करण

अद्यावधि 'गोपथ-ब्राह्मण' के निम्नलिखित मूल, अनूदित और सम्पादित संस्करण उपलब्ध हैं-

  • राजेन्द्रलाल मित्र तथा हरचन्द्र विद्याभूषण के द्वारा संपादित तथा सन् 1872 ई. में, कलकत्ता से प्रकाशित संस्करण।
  • जीवानन्द विद्यासागर के द्वारा सन् 1891 ई. में कलकत्ता से ही प्रकाशित संस्करण।
  • ड्यूक गास्ट्रा (Dieuke Gaastre) के द्वारा सुसम्पादित संस्करण, लाइडेन से 1919 ई. में प्रकाशित। 1972 ई. में, इण्डोलॉजिकल बुक हाउस के द्वारा फोटो-प्रति के रूप में इसी का पुनर्मुद्रण।
  • क्षेमकरणदासत्रिवेदी के द्वारा 1924 ई. में हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित संस्करण। इसी का प्रज्ञा देवी के द्वारा पुन: सम्पादित रूप में 1977 ई. में प्रकाशन हुआ है।
  • डॉ॰ विजयपाल विद्यावारिधि के द्वारा सम्पादित तथा सन् 1980 में रामलाल कपूर ट्रस्ट, सोनीपत (हरियाणा) से मुद्रित-वितरित संस्करण। नि:सन्देह उपर्युक्त सभी संस्करणों में यह सर्वश्रेष्ठ है। प्रस्तुत विवरण में इसी के सन्दर्भ दिये गये हैं।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अथर्ववेद एवं गोपथब्राह्मण (ब्लूमफील्ड-कृत), हिन्दी अनुवाद, भूमिका, 1964 ई.पृष्ठ 9,

सम्बंधित लिंक