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==भविष्य पुराण / [[:en:Bhavishya Puran|Bhavishya Purana]]==
==भविष्य पुराण / Bhavishya Puran==
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[[चित्र:Cover-Bhavishya-Purana.jpg|thumb|भविष्य पुराण, गीताप्रेस गोरखपुर का आवरण पृष्ठ]]
[[category:पौराणिक ग्रन्थ]][[श्रेणी:कोश]]
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[[सूर्योपासना]] और उसके महत्व का जैसा व्यापक वर्णन 'भविष्य पुराण' में प्राप्त होता है। वैसा किसी अन्य [[पुराण]] में नहीं उपलब्ध होता। इसलिए इस पुराण को 'सौर ग्रंथ' भी कहते हैं। यह ग्रंथ बहुत अधिक प्राचीन नहीं है। इस पुराण में दो हज़ार वर्ष का अत्यन्त सटीक विवरण प्राप्त होता है। 'भविष्य पुराण' के अनुसार, इसके श्लोकों की संख्या पचास हज़ार के लगभग होनी चाहिए, परन्तु वर्तमान में कुल अट्ठाईस हज़ार [[श्लोक]] ही उपलब्ध हैं। इस पुराण को चार खण्डों में विभाजित किया गया है- ब्राह्म पर्व, मध्यम पर्व, प्रतिसर्ग पर्व और उत्तर पर्व।
[[सूर्योपासना]] और उसके महत्व का जैसा व्यापक वर्णन 'भविष्य पुराण' में प्राप्त होता है। वैसा किसी अन्य [[पुराण]] में नहीं उपलब्ध होता। इसलिए इस पुराण को 'सौर ग्रंथ' भी कहते हैं। यह ग्रंथ बहुत अधिक प्राचीन नहीं है। इस पुराण में दो हजार वर्ष का अत्यन्त सटीक विवरण प्राप्त होता है। 'भविष्य पुराण' के अनुसार, इसके श्लोकों की संख्या पचास हजार के लगभग होनी चाहिए, परन्तु वर्तमान में कुल अट्ठाईस हजार [[श्लोक]] ही उपलब्ध हैं। इस पुराण को चार खण्डों में विभाजित किया गया है- ब्राह्म पर्व, मध्यम पर्व, प्रतिसर्ग पर्व और उत्तर पर्व।
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'भविष्य पुराण' की विषय वस्तु में [[सूर्य देवता|सूर्य]] की महिमा, उनके परम तेजस्वी स्वरूप, उनके परिवार, उनकी उपासना पद्धति, विविध व्रत-उपवास, उनको करने की विधि, सामुद्रिक शास्त्र, स्त्री-पुरुष के शारीरिक लक्षण, रत्नों एवं मणियों की परीक्षा का विधान, विभिन्न प्रकार के स्त्रोत, अनेक सप्रकार की औषधियों का वर्णन, वर्प विद्या का विशद् ज्ञान, विविध राजवंशों का उल्लेख, विविध [[भारतीय संस्कार]], तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था, शिक्षा-प्रणाली तथा वास्तु शिल्प आदि शामिल हैं जिन पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।
 
 
'भविष्य पुराण' की विषय वस्तु में [[सूर्य]] की महिमा, उनके परम तेजस्वी स्वरूप, उनके परिवार, उनकी उपासना पद्धति, विविध व्रत-उपवास, उनको करने की विधि, सामुद्रिक शास्त्र, स्त्री-पुरूष के शारीरिक लक्षण, रत्नों एवं मणियों की परीक्षा का विधान, विभिन्न प्रकार के स्त्रोत, अनेक सप्रकार की औषधियों का वर्णन, वर्प विद्या का विशद् ज्ञान, विविध राजवंशों का उल्लेख, विविध [[भारतीय संस्कार]], तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था, शिक्षा-प्रणाली तथा वास्तु शिल्प आदि शामिल हैं जिन पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।
 
 
 
 
==ब्राह्म पर्व==
 
==ब्राह्म पर्व==
ब्राह्म पर्व में [[व्यास]] शिष्य महर्षि सुमंतु एवं राजा शतानीक के संवादों द्वारा इस पुराण का शुभारम्भ होता है। प्रारम्भ में इस पुराण की महिमा, [[वेद|वेदों]] तथा पुराणों की उत्पत्ति, काल गणना, [[युग|युगों]] का विभाजन, गर्भाधान के समय से लेकर [[यज्ञोपवीत]] संस्कारों तक की संक्षिप्त विधि, भोजन विधि, दाएं हाथ में स्थित विविध पांच प्रकार के तीर्थों, [[ओंकार]] एवं [[गायत्री]] जप का महत्त्व, अभिवादन विधि, माता-पिता तथा गुरू की महिमा का वर्णन, विवाह योग्य स्त्रियों के शुभ-अशुभ लक्षण, पंच महायज्ञों, पुरूषों एवं राजपुरूषों के शुभ-अशुभ लक्षण, व्रत-उपवास पूजा विधि, सूर्योपासना का माहात्म्य और उनसे जुड़ी कथाओं का विवरण प्राप्त होता है।
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ब्राह्म पर्व में [[व्यास]] शिष्य महर्षि सुमंतु एवं राजा शतानीक के संवादों द्वारा इस [[पुराण]] का शुभारम्भ होता है। प्रारम्भ में इस पुराण की महिमा, [[वेद|वेदों]] तथा पुराणों की उत्पत्ति, काल गणना, [[युग|युगों]] का विभाजन, गर्भाधान के समय से लेकर [[यज्ञोपवीत]] संस्कारों तक की संक्षिप्त विधि, भोजन विधि, दाएं हाथ में स्थित विविध पांच प्रकार के तीर्थों, [[ओंकार]] एवं [[गायत्री]] जप का महत्त्व, अभिवादन विधि, माता-पिता तथा गुरु की महिमा का वर्णन, विवाह योग्य स्त्रियों के शुभ-अशुभ लक्षण, पंच महायज्ञों, पुरुषों एवं राजपुरुषों के शुभ-अशुभ लक्षण, व्रत-उपवास पूजा विधि, सूर्योपासना का माहात्म्य और उनसे जुड़ी कथाओं का विवरण प्राप्त होता है।
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[[चित्र:gayatri-devi.jpg|thumb|200px|[[गायत्री|गायत्री देवी]]<br />Gayatri Devi]]
इस पर्व में दाएं हाथ में स्थित पांच तीर्थों में – देव तीर्थ, पितृ तीर्थ, ब्रह्म तीर्थ, प्रजापत्य तीर्थ और सौम्य तीर्थ बताए गए हैं।<br />
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*इस पर्व में दाएं हाथ में स्थित पांच तीर्थों में– देव तीर्थ, पितृ तीर्थ, ब्रह्म तीर्थ, प्रजापत्य तीर्थ और सौम्य तीर्थ बताए गए हैं।
देव तीर्थ में ब्राह्मण को दाएं हाथ से दी गई दक्षिणा आदि कर्म आते हैं। <br />
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*देव तीर्थ में ब्राह्मण को दाएं हाथ से दी गई दक्षिणा आदि कर्म आते हैं।
पितृ तीर्थ में तर्पण एवं पिण्डदान आदि कर्मों का उल्लेख मिलता है। <br />
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*पितृ तीर्थ में तर्पण एवं पिण्ड दान आदि कर्मों का उल्लेख मिलता है।
ब्रह्म तीर्थ में आचमन आदि कर्म आते हैं। <br />
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*ब्रह्म तीर्थ में आचमन आदि कर्म आते हैं।  
प्रजापत्य तीर्थ में विवाह के समय लग्नहोत्र आदि कर्म आते हैं।<br />
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*प्रजापत्य तीर्थ में विवाह के समय लग्नहोत्र आदि कर्म आते हैं।
सौम्य तीर्थ में देवकार्य के लिए किए गए कर्म, पूजा-अर्चना आदि हैं <br />
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*सौम्य तीर्थ में देव कार्य के लिए किए गए कर्म, पूजा-अर्चना आदि हैं।
इसी पूर्व में जिन पंच महायज्ञों का उल्लेख किया गया है, वे इस प्रकार हैं- ब्रह्म यज्ञ, पितृ यज्ञ, देव यज्ञ,यज्ञ तथा अतिथि यज्ञ। ये यज्ञ अपने नामानुसार ही किए जाते हैं। यथा-ब्रह्म मुहूर्त में ईश्वर के लिए किया जाने वाला यज्ञ 'ब्रह्म यज्ञ' , पितरों की सन्तुष्टि और प्रसन्नता के लिए किया जाने वाला यज्ञ 'पितृ यज्ञ' , देवतों की सन्तुष्टि के लिए किया जाने वाला यज्ञ 'देव यज्ञ' , समस्त प्राणियों की सुख-शान्ति के लिए किया जाने वाला यज्ञ 'भूत यज्ञ' और अतिथि की सेवा में रत रहना ही ' अतिथि यज्ञ' कहलाता है।  
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इसी पूर्व में जिन पंच महायज्ञों का उल्लेख किया गया है, वे इस प्रकार हैं-  
इसी पर्व में स्त्री-पुरूषों के शुभ-अशुभ लक्षणों के विषय में चर्चा करते हुए ब्रह्मा जी कार्तिकेय से कहते हैं। कि जिस स्त्री की ग्रीवा में रेखाएं हों और नेत्रों के कोरों का कुछ सफेद भाग लाली लिए हो; वह स्त्री जिस घर में जाती है, उस घर की उत्तरोत्तर वृद्धि होती है। जिसके बाएं हाथ, कान या गले पर तिल या मस्सा हो; उसकी पहली सन्तान पुत्र होती है।  
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#ब्रह्म यज्ञ,  
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#पितृ यज्ञ,  
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#देव यज्ञ,
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#भूत यज्ञ तथा  
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#अतिथि यज्ञ। ये यज्ञ अपने नामानुसार ही किए जाते हैं। यथा-ब्रह्म मुहूर्त में ईश्वर के लिए किया जाने वाला यज्ञ 'ब्रह्म यज्ञ', पितरों की सन्तुष्टि और प्रसन्नता के लिए किया जाने वाला यज्ञ 'पितृ यज्ञ', देवतों की सन्तुष्टि के लिए किया जाने वाला यज्ञ 'देव यज्ञ', समस्त प्राणियों की सुख-शान्ति के लिए किया जाने वाला यज्ञ 'भूत यज्ञ' और अतिथि की सेवा में रत रहना ही 'अतिथि यज्ञ' कहलाता है। इसी पर्व में स्त्री-पुरुषों के शुभ-अशुभ लक्षणों के विषय में चर्चा करते हुए [[ब्रह्मा]] जी [[कार्तिकेय]] से कहते हैं। कि जिस स्त्री की ग्रीवा में रेखाएं हों और नेत्रों के कोरों का कुछ सफेद भाग लाली लिए हो; वह स्त्री जिस घर में जाती है, उस घर की उत्तरोत्तर वृद्धि होती है। जिसके बाएं हाथ, कान या गले पर तिल या मस्सा हो; उसकी पहली सन्तान पुत्र होती है।
  
 
==मध्यम पर्व==
 
==मध्यम पर्व==
इस पर्व में मुख्य रूप से यज्ञ कर्मों का शास्त्रीय विवेचन प्राप्त होता है। चार प्रकार के मासों-चन्द्र मास, सौर मास, नक्षत्र मास और श्रावण मास का वर्णन भी इस पर्व में किया गया है। शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक का मास 'चन्द्र मास' , सूर्य द्वारा एक राशि में संक्राति से दूसरी संक्राति में प्रवेश करने का समय 'सौर मास' , आश्विन नक्षत्र से रेवती नक्षत्र पर्यन्त 'नक्षत्र मास' और पूरे तीस दिन का या किसी तिथि को लेकर तीस दिन बाद आने वाली तिथि तक का समय '[[श्रावण मास]]' कहलाता है।
+
इस पर्व में मुख्य रूप से यज्ञ कर्मों का शास्त्रीय विवेचन प्राप्त होता है। चार प्रकार के मासों-  
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#चन्द्र मास,  
[[श्राद्ध|श्राद्धकर्म]], [[पितृकर्म]] आदि '[[चन्द्र मास]]' में करने चाहिए। विवाह-संस्कार, [[यज्ञ]], व्रत, स्नान आदि सत्कर्म 'सौर मास' में करने का विधान है। सोम या पितृगण के कार्य 'नक्षत्र मास' में किए जाते हैं। प्रायश्चित, अन्नप्राशन, मंत्रोपासना, राज कर देना, यज्ञ के दिनों की गणना आदि कर्म 'श्रावण मास' में करना चाहिए।
+
#सौर मास,  
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#नक्षत्र मास और  
सूर्य-चन्द्र की तिथियों के योग से जिस माह में पूर्णिमा का योग न हो और तीस दिनों तक संक्रमण न हो, वह 'मल मास' कहलाता है। इस मास में कोई भी शुभ कर्म नहीं किए जाते ।
+
#श्रावण मास का वर्णन भी इस पर्व में किया गया है।  
इसी पर्व में सूत जी विभिन्न तिथियों में किए गए कर्म विशेष के फलों का वर्णन भी करते हैं। शुक्ल पक्ष में द्वितीया तिथि को यदि बृहस्पतिवार हो तो उस दिन अग्नि पूजन करने से ऐश्वर्य और इच्छापूर्ति के अनुसार धन लाभ होता है। [[आषाढ़]] एवं श्रावण मास में मिथुन-कर्क राशि के सूर्य में द्वितीया तिथि को उपवास करके विष्णु पूजन करने से स्त्री जल्दी विधवा नहीं होती। इसी प्रकार अन्य तिथियों में किए गए पूजन से क्या-क्या प्राप्त होते हैं, उनका विस्तार से उल्लेख किया गया है।  
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*शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक का मास 'चन्द्र मास',  
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*सूर्य द्वारा एक राशि में संक्राति से दूसरी संक्राति में प्रवेश करने का समय 'सौर मास',  
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*आश्विन [[नक्षत्र]] से रेवती नक्षत्र पर्यन्त 'नक्षत्र मास' और  
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*पूरे तीस दिन का या किसी तिथि को लेकर तीस दिन बाद आने वाली तिथि तक का समय '[[श्रावण मास]]' कहलाता है।
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*[[श्राद्ध|श्राद्धकर्म]], [[पितृकर्म]] आदि '[[चन्द्र मास]]' में करने चाहिए।  
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*विवाह-संस्कार, [[यज्ञ]], व्रत, स्नान आदि सत्कर्म 'सौर मास' में करने का विधान है।  
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*सोम या पितृगण के कार्य 'नक्षत्र मास' में किए जाते हैं।  
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*प्रायश्चित्त, अन्नप्राशन, मन्त्रोपासना, राज कर देना, यज्ञ के दिनों की गणना आदि कर्म 'श्रावण मास' में करना चाहिए।
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*[[सूर्य देवता|सूर्य]]-[[चन्द्र]] की तिथियों के योग से जिस माह में पूर्णिमा का योग न हो और तीस दिनों तक संक्रमण न हो, वह 'मल मास' कहलाता है। इस मास में कोई भी शुभ कर्म नहीं किए जाते। इसी पर्व में सूत जी विभिन्न तिथियों में किए गए कर्म विशेष के फलों का वर्णन भी करते हैं।  
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*शुक्ल पक्ष में द्वितीया तिथि को यदि बृहस्पतिवार हो तो उस दिन अग्नि पूजन करने से ऐश्वर्य और इच्छापूर्ति के अनुसार धन लाभ होता है।  
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*[[आषाढ़]] एवं श्रावण मास में मिथुन-कर्क राशि के सूर्य में द्वितीया तिथि को उपवास करके [[विष्णु]] पूजन करने से स्त्री जल्दी विधवा नहीं होती। इसी प्रकार अन्य तिथियों में किए गए पूजन से क्या-क्या प्राप्त होते हैं, उनका विस्तार से उल्लेख किया गया है।
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इसी पर्व में उद्यानों, गोचर भूमियों, जलाशयों, [[तुलसी]] और मण्डप आदि की प्रतिष्ठा की शास्त्रीय विधियों का उल्लेख किया गया है। गृहस्थाश्रम की उपयोगिता, सृष्टि, पाताल लोक, भूगोल, ज्योतिष, ब्राह्मणों की महानता, माता-पिता एवं गुरुओं की महिमा, वृक्षारोपण का महत्व आदि का विस्तार से वर्णन है। वृक्षारोपण के लिए [[वैशाख]], [[आषाढ़]], [[श्रावण]] तथा [[भादों]] मास सर्वश्रेष्ठ और [[ज्येष्ठ]], [[आश्विन]], [[कार्तिक]] मास अशुभ एवं विनाशकारी माने जाते हैं। इसी पर्व में दस प्रकार के यज्ञ कुण्डों का वर्णन भी किया गया है।
  
इसी पर्व में उद्यानों, गोचर भूमियों, जलाशयों, [[तुलसी]] और मण्डप आदि की प्रतिष्ठा की शास्त्रीय विधियों का उल्लेख किया गया है। गृहस्थाश्रम की उपयोगिता, सृष्टि, पाताल लोक, भूगोल, ज्योतिष, ब्राह्मणों की महानता, माता-पिता एवं गुरूओं की महिमा, वृक्षारोपण का महत्व आदि का विस्तार से वर्णन है। वृक्षारोपण के लिए [[वैशाख]], आषाढ़, श्रावण तथा [[भादों]] मास सर्वश्रेष्ठ और [[ज्येष्ठ]], [[आश्विन]], [[कार्तिक]] मास अशुभ एवं विनाशकारी माने जाते हैं।  इसी पर्व में दस प्रकार के यज्ञ कुण्डों का वर्णन भी किया गया है।
 
 
==प्रतिसर्ग पर्व==
 
==प्रतिसर्ग पर्व==
प्रतिसर्ग पर्व इतिहास का सुन्दर विवेचन प्रस्तुत करता है। इसमें आधुनिक घटनाओं का क्रमवार वर्णन है। ईसा मसीह के जन्म, उनकी भारत यात्रा, मुहम्मद साहब का आविर्भाव, महारानी विक्टोरिया का राज्यारोहण, सतयुग के राजवंशों का वर्णन, त्रेतायुग के सूर्यवंशी और चन्द्रवंशी राजाओं का वर्णन , द्वापर युग के चन्द्रवंशी राजाओं का वर्णन, कलियुग में होने वाले म्लेच्छ राजाओं एवं उनकी भाषाओं का वर्णन, नूह की प्रलय गाथा, मगध के राजवंश राजा नन्द, बौद्ध राजाओं तथा चौहान व परमार वंश के राजाओं तक का वर्णन इसमें प्राप्त होता है।  
+
[[चित्र:Statue-Jesus.jpg|thumb|ईसा मसीह<br /> Jesus]]
राजवंशों से सम्बंधित कई कथाओं के माध्यम से मानव-जीवन के आदर्श मूल्यों के स्थापना की प्रेरणा देने में 'भविष्य पुराण' अग्रणी है। इस पुराण में प्रसिद्ध बैताल कथाओं (विक्रम-बैताल कथाएं) या बैताल पच्चीसी की कथाओं का उल्लेख भी मिलता हैं जीमूतवाहन और शंखचूड़ की प्रसिद्ध कथा भी इस पुराण में उपलब्ध होती है।
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प्रतिसर्ग पर्व इतिहास का सुन्दर विवेचन प्रस्तुत करता है। इसमें आधुनिक घटनाओं का क्रमवार वर्णन है। [[ईसा मसीह]] के जन्म, उनकी भारत यात्रा, मुहम्मद साहब का आविर्भाव, महारानी विक्टोरिया का राज्यारोहण, [[सत युग]] के राजवंशों का वर्णन, [[त्रेता युग]] के सूर्यवंशी और चन्द्रवंशी राजाओं का वर्णन , [[द्वापर युग]] के चन्द्रवंशी राजाओं का वर्णन, [[कलि युग]] में होने वाले म्लेच्छ राजाओं एवं उनकी भाषाओं का वर्णन, नूह की प्रलय गाथा, [[मगध]] के राजवंश राजा [[नन्द]], बौद्ध राजाओं तथा चौहान व परमार वंश के राजाओं तक का वर्णन इसमें प्राप्त होता है। राजवंशों से सम्बंधित कई कथाओं के माध्यम से मानव-जीवन के आदर्श मूल्यों के स्थापना की प्रेरणा देने में 'भविष्य पुराण' अग्रणी है। इस पुराण में प्रसिद्ध बेताल कथाओं (विक्रम-बैताल कथाएं) या बेताल पच्चीसी की कथाओं का उल्लेख भी मिलता हैं जीमूतवाहन और शंखचूड़ की प्रसिद्ध कथा भी इस पुराण में उपलब्ध होती है।
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*'श्री [[सत्यनारायण व्रत कथा]]' का उल्लेख इसी पर्व के तेइसवें से उनतीसवें अध्याय में किया गया हें यह कथा हिन्दुओं के सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन के लिए अत्यन्त लोकोपकारी, मंगलकारी और पुण्य देने वाली है।
'श्री [[सत्यनारायण व्रत कथा]]' का उल्लेख इसी पर्व के तेइसवें से उनतीसवें अध्याय में किया गया हें यह कथा हिन्दुओं के सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन के लिए अत्यन्त लोकोपकारी, मंगलकारी और पुण्य देने वाली है।
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*इस पर्व में भारत के लगभग एक सहस्त्र वर्ष के इतिहास पर सुन्दर प्रकाश डाला गया है। इस वजह से इस पुराण को वर्तमान भारतीय संस्कृति, धर्म और सभ्यता का महान ग्रन्थ कहना अनुचित नहीं होगा।  प्रसंगवश इसमें '[[मार्कण्डेय पुराण]]' की भांति '[[दुर्गा सप्तशती]]' के चरित्रों का भी वर्णन प्राप्त होता है।
 
इस पर्व में भारत के लगभग एक सहस्त्र वर्ष के इतिहास पर सुन्दर प्रकाश डाला गया है। इस वजह से इस पुराण को वर्तमान भारतीय संस्कृति, धर्म और सभ्यता का महान ग्रन्थ कहना अनुचित नहीं होगा।  प्रसंगवश इसमें '[[मार्कण्डेय पुराण]]' की भांति '[[दुर्गा सप्तशती]]' के चरित्रों का भी वर्णन प्राप्त होता है।  
 
  
 
==उत्तर पर्व==
 
==उत्तर पर्व==
इस पर्व में [[विष्णु]]-माया से मोहित [[नारद]] का वर्णन, चित्रलेखा चरित्र वर्णन, अशोक तथा करवीर व्रत का माहात्म्य गोपनीय कोकिला व्रत का वर्णन (पति-पत्नी में प्रेम की प्रगाढ़ता के लिए) तथा स्त्रियों को सौभाग्य प्रदा करने वाले अन्य व्रतों का वर्णन विस्तारपूर्वक किया गया है।
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[[चित्र:Narada-Muni.jpg|thumb|200px|[[नारद|नारद मुनि]]<br /> Narad Muni]]
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*इस पर्व में [[विष्णु]]-माया से मोहित [[नारद]] का वर्णन, चित्रलेखा चरित्र वर्णन, अशोक तथा करवीर व्रत का माहात्म्य गोपनीय कोकिला व्रत का वर्णन (पति-पत्नी में प्रेम की प्रगाढ़ता के लिए) तथा स्त्रियों को सौभाग्य प्रदा करने वाले अन्य व्रतों का वर्णन विस्तारपूर्वक किया गया है।
'भविष्य पुराण' की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसका पारायण और रचना मग ब्राह्मणों द्वारा की गई है। ये मग ब्राह्मण ईरानी पुरोहित थे, जो ईसा की तीसरी शताब्दी में भारत आकर बस गए थे। ये सूर्य के उपासक थे। सूर्य की उपासना वैदिक काल से भारत में होती रही है। मग ब्राह्मणों ने सूर्योपासना के साथ 'खगोल विद्या' और 'ज्योतिष' का प्रचलन किया। ज्योतिष शास्त्र के प्रसिद्ध आचार्य [[वराह मिहिर]] (खगोल विद्या के ज्ञाता) मग ब्राह्मण ही थे। ये मग ब्राह्मण शनै:-शनै: भारतीय जन-जीवन में पूरी तरह से घुल-मिल गए।  
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*'भविष्य पुराण' की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसका पारायण और रचना मग ब्राह्मणों द्वारा की गई है। ये मग ब्राह्मण ईरानी पुरोहित थे, जो ईसा की तीसरी शताब्दी में भारत आकर बस गए थे। ये [[सूर्य देवता|सूर्य]] के उपासक थे। सूर्य की उपासना वैदिक काल से भारत में होती रही है। मग ब्राह्मणों ने सूर्योपासना के साथ 'खगोल विद्या' और 'ज्योतिष' का प्रचलन किया। ज्योतिष शास्त्र के प्रसिद्ध आचार्य [[वराह मिहिर]],खगोल विद्या के ज्ञाता मग ब्राह्मण ही थे। ये मग ब्राह्मण शनै:-शनै: भारतीय जन-जीवन में पूरी तरह से घुल-मिल गए।  
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*भविष्य पुराण तत्कालीन समाज-व्यवस्था पर भी अच्छा प्रकाश डालता है। उस काल की जाति-व्यवस्था के बारे में यह पुराण कहता है-'जाति न तो जन्म से होती है, न वंश से और न ही व्यवसाय से, बल्कि कर्म तथा आचरण से होती है।
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*ऐसे अनेक उदाहरण इतिहास में मिल जाएंगे, जो शूद्र कुल में जन्म लेकर भी सत्कर्म के आधार पर पूजनीय बने। स्वयं [[व्यास|कृष्ण द्वैपायन व्यास]] जी महर्षि [[पराशर]] और मत्स्य कन्या [[सत्यवती]] के संसर्ग से उत्पन्न हुए थे। 'भविष्य पुराण' के अनुसार वर्ण-व्यवस्था [[ईरान]] के ब्राह्मणों की देन है। उन्होंने ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जातियों में समाज को बांटा था। यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि ईरानी पुरोहित मग ज्योतिष विद्या में पारंगत थे। मग ब्राह्मणों के अतिरिक्त भोजक और अग्नि उपासक भी ईरान से यहाँ आए थे, जो बाद में '[[आर्य]]' कहलाने लगे।
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[[चित्र:Ramayana.jpg|thumb|[[राम]],[[लक्ष्मण]] और [[सीता]]<br /> Ram, Laxman and Sita|thumb|left]]
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*'भविष्य पुराण' के अनुसार [[दक्ष]] की पुत्री [[संज्ञा (सूर्य की पत्नी)|संज्ञा]] का विवाह [[सूर्य देवता|सूर्य]] के साथ हुआ था। उसी से [[यमराज|यम]] और [[यमुना नदी|यमुना]] पैदा हुए। इस पुराण में सूर्य पूजा की विधि विस्तार से बताई गई है। रक्त चन्दन, करवीर पुष्प तथा गुड़ से बनी खाद्य-सामग्री सूर्योपासना में उपयुक्त मानी गई है। सूर्य के अतिरिक्त इस पुराण में [[गणेश]] जी की पूजा और स्वर्ग-नरक का विस्तृत वर्णन भी प्राप्त होता है। इसमें बताया गया हे कि जो मनुष्य सुसंस्कृत होते हुए भी दुराचार से लिप्त रहता है, उसे रौरव नरक का दुख सहन करना पड़ेगा-चाहे वह ब्राह्मण की क्यों न हो।
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*शिक्षा-प्रणाली के बारे में विस्तार से चर्चा करते हुए 'भविष्य पुराण' कहता है कि केवल पांच प्रकार के गुरु होते हैं।
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#आचार्य जो [[वेद|वेदों]] का रहस्य समझाएं।
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#उपाध्याय जो जीविकोपार्जन हेतु वेद पाठ कराएं।
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#गुरु या पिता जो अपने शिष्यों और सन्तान को शिक्षित करें तथा उनमें किसी तरह का भेदभाव न करें।
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#ऋत्विक जो अग्निहोत्र या यज्ञ कराएं।
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#महागुरु जो गुरुओं का भी गुरु हो; जिसने '[[वेद]]', '[[पुराण]]', '[[रामायण]]' और '[[महाभारत]]' की पूरी तरह अध्ययन किया हो तथा [[सूर्य देवता|सूर्य]], [[शिव]], [[विष्णु]] आदि की उपासना विधियों का पूरा ज्ञान रखता हो।
 +
*'भविष्य पुराण' में व्रतों और उपवासों के विस्तृत वर्णन के साथ-साथ मन्दिर निर्माण की प्रक्रिया का भी विस्तार से उल्लेख है। मन्दिरों के निर्माण में [[स्थापत्य कला]] का विशद वर्णन भी इस पुराण में प्राप्त होता है। सूर्य मन्दिर में सूर्य प्रतिमाओं के बारे में भी विस्तार से बताया गया है।
 +
*समाज की आर्थिक स्थिति के बारे में 'भविष्य पुराण' में अधिक जानकारी नहीं उपलब्ध होती। केवल कुछ प्रकार की मजदूरी का उल्लेख प्राप्त होता है। यदि पहले से मजदूरी तय न हो तो कुल किए गए काम का हिसाब लगाकर मजदूरी देनी चाहिए। साधारण तौर पर उस काल में मजदूरी 'पण' के रूप में दी जाती थी। बीस कौड़ी की एक काकिणी और चार काकिणी का एक पण होता था।
  
'''भविष्य पुराण तत्कालीन समाज-व्यवस्था पर भी अच्छा प्रकाश डालता है। उस काल की जाति-व्यवस्था के बारे में यह पुराण कहता है-"जाति न तो जन्म से होती है, न वंश से और न ही व्यवसाय से, बल्कि कर्म तथा आचरण से होती है।"'''
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==संबंधित लेख==
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{{पुराण2}}
 +
{{संस्कृत साहित्य}}
  
ऐसे अनेक उदाहरण इतिहास में मिल जाएंगे, जो शूद्र कुल में जन्म लेकर भी सत्कर्म के आधार पर पूजनीय बने।  स्वयं [[कृष्ण द्वैपायन व्यास]] जी महर्षि [[पराशर]] और मत्स्य कन्या [[सत्यवती]] के संसर्ग से उत्पन्न हुए थे।  'भविष्य पुराण' के अनुसार वर्ण-व्यवस्था ईरान के ब्राह्मणों की देन है। उन्होंने ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जातियों में समाज को बांटा था। यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि ईरानी पुरोहित मग ज्योतिष विद्या में पारंगत थे। मग ब्राह्मणों के अतिरिक्त भोजक और अग्नि उपासक भी ईरान से यहां आए थे, जो बाद में '[[आर्य]]' कहलाने लगे।
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[[Category:कोश]]
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[[Category:पुराण]]
'भविष्य पुराण' के अनुसार [[दक्ष]] की पुत्री [[संज्ञा]] का विवाह [[सूर्य]] के साथ हुआ था। उसी से [[यम]] और [[यमुना]] पैदा हुए। इस पुराण में सूर्य पूजा की विधि विस्तार से बताई गई है। रक्त चन्दन, करवीर पुष्प तथा गुड़ से बनी खाद्य-सामग्री सूर्योपासना में उपयुक्त मानी गई है।  सूर्य के अतिरिक्त इस पुराण में गणेश जी की पूजा और स्वर्ग-नरक का विस्तृत वर्णन भी प्राप्त होता है। इसमें बताया गया हे कि जो मनुष्य सुसंस्कृत होते हुए भी दुराचार से लिप्त रहता है, उसे रौरव नरक का दुख सहन करना पड़ेगा- चाहे वह ब्राह्मण की क्यों न हो।
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[[Category:पौराणिक ग्रन्थ]]
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शिक्षा-प्रणाली के बारे में विस्तार से चर्चा करते हुए 'भविष्य पुराण' कहता है कि केवल पांच प्रकार के गुरू होते हैं। पहले, आचार्य जो [[वेदों]] का रहस्य समझाएं।  दूसरे, उपाध्याय जो जीविकोपार्जन हेतु वेद पाठ कराएं। तीसरे, गुरू या पिता जो अपने शिष्यों और सन्तान को शिक्षित करें तथा उनमें किसी तरह का भेदभाव न करें।  चौथे, ऋत्विक् जो अग्निहोत्र या यज्ञ कराएं। पांचवें, महागुरू जो गुरूओं का भी गुरू हो; जिसने 'वेद', 'पुराण' , '[[रामायण]]' और '[[महाभारत]]' की पूरी तरह अध्ययन किया हो तथा सूर्य, [[शिव]], [[विष्णु]] आदि की उपासना विधियों का पूरा ज्ञान रखता हो।
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'भविष्य पुराण' में व्रतों और उपवासों के विस्तृत वर्णन के साथ-साथ मन्दिर निर्माण की प्रक्रिया का भी विस्तार से उल्लेख है।  मन्दिरों के निर्माण में स्थापत्य कला का विशद् वर्णन भी इस पुराण में प्राप्त होता है। सूर्य मन्दिर में सूर्य प्रतिमाओं के बारे में भी विस्तार से बताया गया है।
 
 
समाज की आर्थिक स्थिति के बारे में 'भविष्य पुराण' में अधिक जानकारी नहीं उपलब्ध होती।  केवल कुछ प्रकार की मजदूरी का उल्लेख प्राप्त होता है।  यदि पहले से मजदूरी तय न हो तो कुल किए गए काम का हिसाब लगाकर मजदूरी देनी चाहिए।  साधारण तौर पर उस काल में मजदूरी 'पण' के रूप में दी जाती थी।  बीस कौड़ी की एक काकिणी और चार काकिणी का एक पण होता था।
 

०९:२२, २७ अक्टूबर २०११ के समय का अवतरण

भविष्य पुराण / Bhavishya Purana

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भविष्य पुराण, गीताप्रेस गोरखपुर का आवरण पृष्ठ

सूर्योपासना और उसके महत्व का जैसा व्यापक वर्णन 'भविष्य पुराण' में प्राप्त होता है। वैसा किसी अन्य पुराण में नहीं उपलब्ध होता। इसलिए इस पुराण को 'सौर ग्रंथ' भी कहते हैं। यह ग्रंथ बहुत अधिक प्राचीन नहीं है। इस पुराण में दो हज़ार वर्ष का अत्यन्त सटीक विवरण प्राप्त होता है। 'भविष्य पुराण' के अनुसार, इसके श्लोकों की संख्या पचास हज़ार के लगभग होनी चाहिए, परन्तु वर्तमान में कुल अट्ठाईस हज़ार श्लोक ही उपलब्ध हैं। इस पुराण को चार खण्डों में विभाजित किया गया है- ब्राह्म पर्व, मध्यम पर्व, प्रतिसर्ग पर्व और उत्तर पर्व। 'भविष्य पुराण' की विषय वस्तु में सूर्य की महिमा, उनके परम तेजस्वी स्वरूप, उनके परिवार, उनकी उपासना पद्धति, विविध व्रत-उपवास, उनको करने की विधि, सामुद्रिक शास्त्र, स्त्री-पुरुष के शारीरिक लक्षण, रत्नों एवं मणियों की परीक्षा का विधान, विभिन्न प्रकार के स्त्रोत, अनेक सप्रकार की औषधियों का वर्णन, वर्प विद्या का विशद् ज्ञान, विविध राजवंशों का उल्लेख, विविध भारतीय संस्कार, तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था, शिक्षा-प्रणाली तथा वास्तु शिल्प आदि शामिल हैं जिन पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।

ब्राह्म पर्व

ब्राह्म पर्व में व्यास शिष्य महर्षि सुमंतु एवं राजा शतानीक के संवादों द्वारा इस पुराण का शुभारम्भ होता है। प्रारम्भ में इस पुराण की महिमा, वेदों तथा पुराणों की उत्पत्ति, काल गणना, युगों का विभाजन, गर्भाधान के समय से लेकर यज्ञोपवीत संस्कारों तक की संक्षिप्त विधि, भोजन विधि, दाएं हाथ में स्थित विविध पांच प्रकार के तीर्थों, ओंकार एवं गायत्री जप का महत्त्व, अभिवादन विधि, माता-पिता तथा गुरु की महिमा का वर्णन, विवाह योग्य स्त्रियों के शुभ-अशुभ लक्षण, पंच महायज्ञों, पुरुषों एवं राजपुरुषों के शुभ-अशुभ लक्षण, व्रत-उपवास पूजा विधि, सूर्योपासना का माहात्म्य और उनसे जुड़ी कथाओं का विवरण प्राप्त होता है।

  • इस पर्व में दाएं हाथ में स्थित पांच तीर्थों में– देव तीर्थ, पितृ तीर्थ, ब्रह्म तीर्थ, प्रजापत्य तीर्थ और सौम्य तीर्थ बताए गए हैं।
  • देव तीर्थ में ब्राह्मण को दाएं हाथ से दी गई दक्षिणा आदि कर्म आते हैं।
  • पितृ तीर्थ में तर्पण एवं पिण्ड दान आदि कर्मों का उल्लेख मिलता है।
  • ब्रह्म तीर्थ में आचमन आदि कर्म आते हैं।
  • प्रजापत्य तीर्थ में विवाह के समय लग्नहोत्र आदि कर्म आते हैं।
  • सौम्य तीर्थ में देव कार्य के लिए किए गए कर्म, पूजा-अर्चना आदि हैं।

इसी पूर्व में जिन पंच महायज्ञों का उल्लेख किया गया है, वे इस प्रकार हैं-

  1. ब्रह्म यज्ञ,
  2. पितृ यज्ञ,
  3. देव यज्ञ,
  4. भूत यज्ञ तथा
  5. अतिथि यज्ञ। ये यज्ञ अपने नामानुसार ही किए जाते हैं। यथा-ब्रह्म मुहूर्त में ईश्वर के लिए किया जाने वाला यज्ञ 'ब्रह्म यज्ञ', पितरों की सन्तुष्टि और प्रसन्नता के लिए किया जाने वाला यज्ञ 'पितृ यज्ञ', देवतों की सन्तुष्टि के लिए किया जाने वाला यज्ञ 'देव यज्ञ', समस्त प्राणियों की सुख-शान्ति के लिए किया जाने वाला यज्ञ 'भूत यज्ञ' और अतिथि की सेवा में रत रहना ही 'अतिथि यज्ञ' कहलाता है। इसी पर्व में स्त्री-पुरुषों के शुभ-अशुभ लक्षणों के विषय में चर्चा करते हुए ब्रह्मा जी कार्तिकेय से कहते हैं। कि जिस स्त्री की ग्रीवा में रेखाएं हों और नेत्रों के कोरों का कुछ सफेद भाग लाली लिए हो; वह स्त्री जिस घर में जाती है, उस घर की उत्तरोत्तर वृद्धि होती है। जिसके बाएं हाथ, कान या गले पर तिल या मस्सा हो; उसकी पहली सन्तान पुत्र होती है।

मध्यम पर्व

इस पर्व में मुख्य रूप से यज्ञ कर्मों का शास्त्रीय विवेचन प्राप्त होता है। चार प्रकार के मासों-

  1. चन्द्र मास,
  2. सौर मास,
  3. नक्षत्र मास और
  4. श्रावण मास का वर्णन भी इस पर्व में किया गया है।
  • शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक का मास 'चन्द्र मास',
  • सूर्य द्वारा एक राशि में संक्राति से दूसरी संक्राति में प्रवेश करने का समय 'सौर मास',
  • आश्विन नक्षत्र से रेवती नक्षत्र पर्यन्त 'नक्षत्र मास' और
  • पूरे तीस दिन का या किसी तिथि को लेकर तीस दिन बाद आने वाली तिथि तक का समय 'श्रावण मास' कहलाता है।
  • श्राद्धकर्म, पितृकर्म आदि 'चन्द्र मास' में करने चाहिए।
  • विवाह-संस्कार, यज्ञ, व्रत, स्नान आदि सत्कर्म 'सौर मास' में करने का विधान है।
  • सोम या पितृगण के कार्य 'नक्षत्र मास' में किए जाते हैं।
  • प्रायश्चित्त, अन्नप्राशन, मन्त्रोपासना, राज कर देना, यज्ञ के दिनों की गणना आदि कर्म 'श्रावण मास' में करना चाहिए।
  • सूर्य-चन्द्र की तिथियों के योग से जिस माह में पूर्णिमा का योग न हो और तीस दिनों तक संक्रमण न हो, वह 'मल मास' कहलाता है। इस मास में कोई भी शुभ कर्म नहीं किए जाते। इसी पर्व में सूत जी विभिन्न तिथियों में किए गए कर्म विशेष के फलों का वर्णन भी करते हैं।
  • शुक्ल पक्ष में द्वितीया तिथि को यदि बृहस्पतिवार हो तो उस दिन अग्नि पूजन करने से ऐश्वर्य और इच्छापूर्ति के अनुसार धन लाभ होता है।
  • आषाढ़ एवं श्रावण मास में मिथुन-कर्क राशि के सूर्य में द्वितीया तिथि को उपवास करके विष्णु पूजन करने से स्त्री जल्दी विधवा नहीं होती। इसी प्रकार अन्य तिथियों में किए गए पूजन से क्या-क्या प्राप्त होते हैं, उनका विस्तार से उल्लेख किया गया है।

इसी पर्व में उद्यानों, गोचर भूमियों, जलाशयों, तुलसी और मण्डप आदि की प्रतिष्ठा की शास्त्रीय विधियों का उल्लेख किया गया है। गृहस्थाश्रम की उपयोगिता, सृष्टि, पाताल लोक, भूगोल, ज्योतिष, ब्राह्मणों की महानता, माता-पिता एवं गुरुओं की महिमा, वृक्षारोपण का महत्व आदि का विस्तार से वर्णन है। वृक्षारोपण के लिए वैशाख, आषाढ़, श्रावण तथा भादों मास सर्वश्रेष्ठ और ज्येष्ठ, आश्विन, कार्तिक मास अशुभ एवं विनाशकारी माने जाते हैं। इसी पर्व में दस प्रकार के यज्ञ कुण्डों का वर्णन भी किया गया है।

प्रतिसर्ग पर्व

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ईसा मसीह
Jesus

प्रतिसर्ग पर्व इतिहास का सुन्दर विवेचन प्रस्तुत करता है। इसमें आधुनिक घटनाओं का क्रमवार वर्णन है। ईसा मसीह के जन्म, उनकी भारत यात्रा, मुहम्मद साहब का आविर्भाव, महारानी विक्टोरिया का राज्यारोहण, सत युग के राजवंशों का वर्णन, त्रेता युग के सूर्यवंशी और चन्द्रवंशी राजाओं का वर्णन , द्वापर युग के चन्द्रवंशी राजाओं का वर्णन, कलि युग में होने वाले म्लेच्छ राजाओं एवं उनकी भाषाओं का वर्णन, नूह की प्रलय गाथा, मगध के राजवंश राजा नन्द, बौद्ध राजाओं तथा चौहान व परमार वंश के राजाओं तक का वर्णन इसमें प्राप्त होता है। राजवंशों से सम्बंधित कई कथाओं के माध्यम से मानव-जीवन के आदर्श मूल्यों के स्थापना की प्रेरणा देने में 'भविष्य पुराण' अग्रणी है। इस पुराण में प्रसिद्ध बेताल कथाओं (विक्रम-बैताल कथाएं) या बेताल पच्चीसी की कथाओं का उल्लेख भी मिलता हैं जीमूतवाहन और शंखचूड़ की प्रसिद्ध कथा भी इस पुराण में उपलब्ध होती है।

  • 'श्री सत्यनारायण व्रत कथा' का उल्लेख इसी पर्व के तेइसवें से उनतीसवें अध्याय में किया गया हें यह कथा हिन्दुओं के सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन के लिए अत्यन्त लोकोपकारी, मंगलकारी और पुण्य देने वाली है।
  • इस पर्व में भारत के लगभग एक सहस्त्र वर्ष के इतिहास पर सुन्दर प्रकाश डाला गया है। इस वजह से इस पुराण को वर्तमान भारतीय संस्कृति, धर्म और सभ्यता का महान ग्रन्थ कहना अनुचित नहीं होगा। प्रसंगवश इसमें 'मार्कण्डेय पुराण' की भांति 'दुर्गा सप्तशती' के चरित्रों का भी वर्णन प्राप्त होता है।

उत्तर पर्व

  • इस पर्व में विष्णु-माया से मोहित नारद का वर्णन, चित्रलेखा चरित्र वर्णन, अशोक तथा करवीर व्रत का माहात्म्य गोपनीय कोकिला व्रत का वर्णन (पति-पत्नी में प्रेम की प्रगाढ़ता के लिए) तथा स्त्रियों को सौभाग्य प्रदा करने वाले अन्य व्रतों का वर्णन विस्तारपूर्वक किया गया है।
  • 'भविष्य पुराण' की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसका पारायण और रचना मग ब्राह्मणों द्वारा की गई है। ये मग ब्राह्मण ईरानी पुरोहित थे, जो ईसा की तीसरी शताब्दी में भारत आकर बस गए थे। ये सूर्य के उपासक थे। सूर्य की उपासना वैदिक काल से भारत में होती रही है। मग ब्राह्मणों ने सूर्योपासना के साथ 'खगोल विद्या' और 'ज्योतिष' का प्रचलन किया। ज्योतिष शास्त्र के प्रसिद्ध आचार्य वराह मिहिर,खगोल विद्या के ज्ञाता मग ब्राह्मण ही थे। ये मग ब्राह्मण शनै:-शनै: भारतीय जन-जीवन में पूरी तरह से घुल-मिल गए।
  • भविष्य पुराण तत्कालीन समाज-व्यवस्था पर भी अच्छा प्रकाश डालता है। उस काल की जाति-व्यवस्था के बारे में यह पुराण कहता है-'जाति न तो जन्म से होती है, न वंश से और न ही व्यवसाय से, बल्कि कर्म तथा आचरण से होती है।
  • ऐसे अनेक उदाहरण इतिहास में मिल जाएंगे, जो शूद्र कुल में जन्म लेकर भी सत्कर्म के आधार पर पूजनीय बने। स्वयं कृष्ण द्वैपायन व्यास जी महर्षि पराशर और मत्स्य कन्या सत्यवती के संसर्ग से उत्पन्न हुए थे। 'भविष्य पुराण' के अनुसार वर्ण-व्यवस्था ईरान के ब्राह्मणों की देन है। उन्होंने ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जातियों में समाज को बांटा था। यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि ईरानी पुरोहित मग ज्योतिष विद्या में पारंगत थे। मग ब्राह्मणों के अतिरिक्त भोजक और अग्नि उपासक भी ईरान से यहाँ आए थे, जो बाद में 'आर्य' कहलाने लगे।
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  • 'भविष्य पुराण' के अनुसार दक्ष की पुत्री संज्ञा का विवाह सूर्य के साथ हुआ था। उसी से यम और यमुना पैदा हुए। इस पुराण में सूर्य पूजा की विधि विस्तार से बताई गई है। रक्त चन्दन, करवीर पुष्प तथा गुड़ से बनी खाद्य-सामग्री सूर्योपासना में उपयुक्त मानी गई है। सूर्य के अतिरिक्त इस पुराण में गणेश जी की पूजा और स्वर्ग-नरक का विस्तृत वर्णन भी प्राप्त होता है। इसमें बताया गया हे कि जो मनुष्य सुसंस्कृत होते हुए भी दुराचार से लिप्त रहता है, उसे रौरव नरक का दुख सहन करना पड़ेगा-चाहे वह ब्राह्मण की क्यों न हो।
  • शिक्षा-प्रणाली के बारे में विस्तार से चर्चा करते हुए 'भविष्य पुराण' कहता है कि केवल पांच प्रकार के गुरु होते हैं।
  1. आचार्य जो वेदों का रहस्य समझाएं।
  2. उपाध्याय जो जीविकोपार्जन हेतु वेद पाठ कराएं।
  3. गुरु या पिता जो अपने शिष्यों और सन्तान को शिक्षित करें तथा उनमें किसी तरह का भेदभाव न करें।
  4. ऋत्विक जो अग्निहोत्र या यज्ञ कराएं।
  5. महागुरु जो गुरुओं का भी गुरु हो; जिसने 'वेद', 'पुराण', 'रामायण' और 'महाभारत' की पूरी तरह अध्ययन किया हो तथा सूर्य, शिव, विष्णु आदि की उपासना विधियों का पूरा ज्ञान रखता हो।
  • 'भविष्य पुराण' में व्रतों और उपवासों के विस्तृत वर्णन के साथ-साथ मन्दिर निर्माण की प्रक्रिया का भी विस्तार से उल्लेख है। मन्दिरों के निर्माण में स्थापत्य कला का विशद वर्णन भी इस पुराण में प्राप्त होता है। सूर्य मन्दिर में सूर्य प्रतिमाओं के बारे में भी विस्तार से बताया गया है।
  • समाज की आर्थिक स्थिति के बारे में 'भविष्य पुराण' में अधिक जानकारी नहीं उपलब्ध होती। केवल कुछ प्रकार की मजदूरी का उल्लेख प्राप्त होता है। यदि पहले से मजदूरी तय न हो तो कुल किए गए काम का हिसाब लगाकर मजदूरी देनी चाहिए। साधारण तौर पर उस काल में मजदूरी 'पण' के रूप में दी जाती थी। बीस कौड़ी की एक काकिणी और चार काकिणी का एक पण होता था।

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