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− | हे [[कुन्ती]] पुत्र ! सर्दी-गर्मी और सुख-दु:ख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति, विनाशशील और अनित्य हैं; इसलिये हे भारत ! उनको तू सहन कर ।।14।। | + | हे [[कुन्ती]] पुत्र ! सर्दी-गर्मी और सुख-दु:ख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति, विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिये हे भारत ! उनको तू सहन कर ।।14।। |
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− | O son of kunti, the contacts between the senses and their objects, which give rise to the feeling of heat and cold, pleasure and pain etc., are transitory and fleeting; therefore, arjuna, ignore them.(14) | + | O son of Kunti, the contacts between the senses and their objects, which give rise to the feeling of heat and cold, pleasure and pain etc., are transitory and fleeting, therefore, Arjuna, ignore them.(14) |
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११:२४, १२ नवम्बर २००९ का अवतरण
गीता अध्याय-2 श्लोक-14 / Gita Chapter-2 Verse-14
प्रसंग-
इन सबको सहन करने से क्या लाभ होगा ? इस जिज्ञासा पर कहते हैं-
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदु:खदा:।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ।।14।।
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हे कुन्ती पुत्र ! सर्दी-गर्मी और सुख-दु:ख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति, विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिये हे भारत ! उनको तू सहन कर ।।14।।
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O son of Kunti, the contacts between the senses and their objects, which give rise to the feeling of heat and cold, pleasure and pain etc., are transitory and fleeting, therefore, Arjuna, ignore them.(14)
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कौन्तेय = हे कुन्तीपुत्र ; शीतोष्णसुखदु:खदा: = दु:खको देने वाले ; मात्रास्पर्शा: = विषयोंके संयोग ; तान् = उनको (तूं) ; तु = तो ; आगमापायिन: = क्षणभग्डुंर (और) ; अनित्या: = अनित्य हैं (इसलिये) ; भारत = हे भरतवंशी अर्जुन ; तितिक्षस्व = सहन कर ;
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