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०४:३९, २४ अक्टूबर २००९ का अवतरण


गीता अध्याय-2 श्लोक-28 / Gita Chapter-2 Verse-28

प्रसंग-


आत्मतत्त्व अत्यन्त दुर्बोध होने के कारण उसे समझाने के लिये भगवान् ने उपर्युक्त श्लोकों द्वारा भित्र-भित्र प्रकार से उसके स्वरूप का वर्णन किया; अब अगले श्लोक में उस आत्मतत्व दर्शन, वर्णन और श्रवण की अलौकिकता और दुर्लभता का निरूपण करते हैं-


अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्तनिधानान्येव तत्र का परिदेवना ।।28।।




हे अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं, केवल बीच में प्रकट हैं; फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना हैं ? ।।28।।


arjuna, before birth beings are not manifest to our human senses; at death they return to the unmanifest again. They are manifest only in the interin between birth and death. What occasion, then, for lamentation ?(28)


भारत = हे अर्जुन ; भूतानि = संपूर्ण प्राणी ; अव्यक्तादीनि = जन्मसे पहिले बिना शरीरवाले (और) ; अव्यक्तनिधनानिएव = मरनेके बाद भी बिना शरीरवाले ही हैं (केवल); व्यक्तमध्यानि = बीचमें ही शरीरवाले (प्रतीत होते) हैं (फिर) ; तत्र = उस विषयमें ; का = क्या ; परिदेवना = चिन्ता है



अध्याय दो श्लोक संख्या
Verses- Chapter-2

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 , 43, 44 | 45 | 46 | 47 | 48 | 49 | 50 | 51 | 52 | 53 | 54 | 55 | 56 | 57 | 58 | 59 | 60 | 61 | 62 | 63 | 64 | 65 | 66 | 67 | 68 | 69 | 70 | 71 | 72

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