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२२:४६, ४ मार्च २०१० का अवतरण

गीता अध्याय-2 श्लोक-59 / Gita Chapter-2 Verse-59

प्रसंग-


आसक्ति का नाश और इन्द्रिय संयम नहीं होने से क्या हानि है ? इस पर कहते हैं-


विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिन: ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ।।59।।




इन्द्रियों के द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परंतु उनमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती ।।59।।


The embodied soul may be restricted from sense enjoyment, though the taste for sense objects remains. But, ceasing such engagements by experiencing a higher taste, he is fixed in consciousness.(59)


निराहारस्य = (इन्द्रियोंके द्वारा) विषयोंको न ग्रहण करने वाले ; देहिन: = पुरुषके (भी) (केवल) ; विषया: = विषय (तो) ; विनिवर्तन्ते = निवृत्त हो जाते हैं (परन्तु) ; रसवर्जम् = राग नहीं (निवृत्त होता) (और) ; अस्य = इस पुरुषका (तो) ; रस: = राग ; अपि = भी ; परम् = परमात्माको ; छष्टा = साक्षात् करके ; निवर्तते = निवृत्त हो जाता है



अध्याय दो श्लोक संख्या
Verses- Chapter-2

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 , 43, 44 | 45 | 46 | 47 | 48 | 49 | 50 | 51 | 52 | 53 | 54 | 55 | 56 | 57 | 58 | 59 | 60 | 61 | 62 | 63 | 64 | 65 | 66 | 67 | 68 | 69 | 70 | 71 | 72

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