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==जाट−मराठा काल / Jat - Maratha==
  
'''[[जाट-मराठा काल]]'''
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(सन 1748 से सन 1826 तक)
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==जाट−मराठा काल (सन् 1748 से सन् 1826तक )==
 
  
'''जाट−मराठा शक्तियाँ'''
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'''जाट−मराठा शक्तियाँ'''<br />
 
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मुगल सल्तनत के आखरी समय में जो शक्तियाँ उभरी; जिन्होंने ब्रज मंडल के इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, उन जाट और मराठा सरदारों के नाम इतिहास में बहुत मशहूर हैं ।
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मुग़ल सल्तनत के आख़री समय में जो शक्तियाँ उभरी; जिन्होंने [[ब्रज]] मंडल के इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, उन [[जाट]] और [[मराठा]] सरदारों के नाम इतिहास में बहुत मशहूर हैं। [[जाटों का इतिहास]] पुराना है। जाट मुख्यतः खेती करने वाली जाति है; लेकिन [[औरंगज़ेब]] के अत्याचारों और निरंकुश प्रवृति ने उन्हें एक बड़ी सैन्य शक्ति का रूप दे दिया। उधर मराठों ने [[शिवाजी |छत्रपति शिवाजी]] के नेतृत्व में औरगंज़ब को भीषण चुनौती दी और सफलता भी प्राप्त की जिससे मराठा भी उत्तर भारत में मशहूर हुए। कुछ समय के बाद [[पेशवाओं]] और उनके सैनिक सरदारों इतने शक्तिशाली हो गये कि उन्हें पूरे भारत में जाना जाने लगा। मुग़लिया सल्तनत के अन्त से अंगेज़ों के शासन तक ब्रज मंडल में जाटों और मराठाओं का प्रभुत्व रहा । इन्होंने ब्रज के राजनैतिक और सामाजिक जीवन को बहुत प्रभावित किया। यह समय ब्रज के इतिहास में  'जाट−मराठा काल' के नाम से जाना जाता है । इस काल का विशेष महत्व है ।  
जाटों का इतिहास पुराना है । जाट मुख्यतः खेती करने वाली जाति है; लेकिन औरंगजेब के अत्याचारों और निरंकुश प्रवृति ने उन्हें एक बड़ी सैन्य शक्ति का रूप दे दिया । उधर मराठों ने छत्रपति शिवाजी के नेतृत्व में औरगंजेब को भीष्ण चुनौती दी और सफलता भी प्राप्त की जिससे मराठा भी उत्तर भारत में मशहूर हुए । कुछ समय के बाद पेशवाओं और उनके सैनिक सरदारों इतने शक्तिशाली हो गये कि उन्हें पूरे भारत में जाना जाने लगा । मुग़लिया सल्तनत के अन्त से अंग्रेजों के शासन तक ब्रज मंड़ल में जाटों और मराठाओं का प्रभुत्व रहा । इन्होंने ब्रज के राजनैतिक और सामाजिक जीवन को बहुत प्रभावित किया । यह समय ब्रज के इतिहास में  'जाट−मराठा काल' के नाम से जाना जाता है । इस काल का विशेष महत्व है ।  
 
 
 
 
'''राजनीति में जाटों का प्रभाव'''
 
'''राजनीति में जाटों का प्रभाव'''
  
ब्रज की समकालीन राजनीति में जाट  शक्तिशाली बन कर उभरे । जाट नेताओं ने इस समय में ब्रज में अनेक जगहों पर, जैसे सिनसिनी, डीग, भरतपुर, मुरसान और हाथरस जैसे कई राज्यों को स्थापित किया । इन राजाओं में डीग−भरतपुर के राजा महत्वपूर्ण हैं । इन राजाओं ने ब्रज का गौरव बढ़ाया, इन्हें 'ब्रजेन्द्र' अथवा 'ब्रजराज' भी कहा गया । ब्रज के इतिहास में कृष्ण के पश्चात् जिन कुछ हिन्दू राजाओं ने शासन किया , उनमें डीग और भरतपुर के राजा विशेष थे । इन राजाओं ने लगभग सौ सालों तक ब्रज मंड़ल के एक बड़े भाग पर राज्य किया । इन जाट शासकों में महाराजा सूरजमल (शासनकाल सन् 1755 से सन् 1763 तक )और उनके पुत्र जवाहर सिंह (शासन काल सन् 1763 से सन् 1768 तक )ब्रज के इतिहास में बहुत प्रसिद्ध हैं ।
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ब्रज की समकालीन राजनीति में जाट  शक्तिशाली बन कर उभरे । जाट नेताओं ने इस समय में [[ब्रज]] में अनेक जगहों पर, जैसे [[सिनसिनी]], [[डीग]], [[भरतपुर]], [[मुरसान]] और [[हाथरस]] जैसे कई राज्यों को स्थापित किया । इन राजाओं में [[डीग−भरतपुर के राजा]] महत्वपूर्ण हैं । इन राजाओं ने ब्रज का गौरव बढ़ाया, इन्हें 'ब्रजेन्द्र' अथवा 'ब्रजराज' भी कहा गया । ब्रज के इतिहास में [[कृष्ण]] के पश्चात जिन कुछ हिन्दू राजाओं ने शासन किया , उनमें डीग और भरतपुर के राजा विशेष थे । इन राजाओं ने लगभग सौ सालों तक [[ब्रजमंडल]] के एक बड़े भाग पर राज्य किया । इन जाट शासकों में महाराजा [[सूरजमल]] (शासनकाल सन् 1755 से सन् 1763 तक )और उनके पुत्र [[जवाहर सिंह]] (शासन काल सन् 1763 से सन् 1768 तक ) ब्रज के इतिहास में बहुत प्रसिद्ध हैं ।
 
   
 
   
'''जाटों के क्रियाकलाप'''
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'''जाटों के क्रियाकलाप'''
  
इन जाट राजाओं ने ब्रज में हिन्दू शासन को स्थापित किया । इनकी राजधानी पहले डीग थी, फिर भरतपुर बनायी गयी । महाराजा सूरजमल और उनके बेटे जवाहर सिंह के समय में जाट राज्य बहुत फैला, लेकिन धीरे धीरे वह घटता गया । भरतपुर, मथुरा और उसके आसपास अंग्रेजों के शासन से पहले जाट बहुत प्रभावशाली थे और अपने राज्य के सम्पन्न स्वामी थे । वे  कर और लगान वसूलते थे और अपने सिक्के चलाते थे । उनकी टकसाल डीग, भरतपुर, मथुरा और वृंदावन के अतिरिक्त आगरा और इटावा में भी थीं । जाट राजाओं के सिक्के अंग्रेजों के शासन काल में भी भरतपुर राज्य के अलावा मथुरा मंडल में प्रचलित थे ।
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जाट राजाओं ने ब्रज में हिन्दू शासन को स्थापित किया । इनकी राजधानी पहले डीग थी, फिर भरतपुर बनायी गयी । महाराजा सूरजमल और उनके बेटे जवाहर सिंह के समय में जाट राज्य बहुत फैला, लेकिन धीरे धीरे वह घटता गया । भरतपुर, मथुरा और उसके आसपास अंगेज़ों के शासन से पहले जाट बहुत प्रभावशाली थे और अपने राज्य के सम्पन्न स्वामी थे । वे  कर और [[लगान]] वसूलते थे और अपने सिक्के चलाते थे । उनकी [[टकसाल]] डीग, [[भरतपुर]], मथुरा और [[वृन्दावन]] के अतिरिक्त [[आगरा]] और इटावा में भी थीं । जाट राजाओं के सिक्के अंगेज़ों के शासन काल में भी भरतपुर राज्य के अलावा [[मथुरा]] मंडल में प्रचलित थे ।
 
   
 
   
'''जाट राज्य की नींव'''
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'''जाट राज्य की नींव'''
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मुग़लों के आख़री समय में जाट सरकारी ख़ज़ाना और शस्त्रों का भंडार लूट लेते थे । जाटों के नेताओं में नंदराम, [[गोकुल सिंह]] और [[राजाराम]] विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं । राजाराम के कार्य विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं ।
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'''राजाराम का  विद्रोह'''
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सन् 1685 में जाटों  की बग़ावत का नायक 'सिनसिनी' का राजाराम था । सिनसिनी ब्रज में एक छोटी सी ग्रामीण बस्ती थी, जो डीग से  दक्षिण में और भरतपुर से 13 मील उत्तर पश्चिम में आज भी है । वहाँ जाटों की 'गढ़ी' नाम से एक सैनिक छावनी थी । यह गढ़ी भरतपुर के जाट राजाओं के पूर्वजों  की थी । इस राजघराने को 'सिनसिनी वार' के नाम से जाना जाता है ।
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राजाराम की गतिविधियाँ सिनसिनी से [[धौलपुर]] और मथुरा से [[आमेर]] राज्य थी । इन जगहों पर मुग़ल  प्रभावशाली नहीं थे । यहाँ जाटों के दल लूटमार करते थे । औरंगज़ेब इस समय दक्षिण के युद्ध में व्यस्त था । वह जाटों की गतिविधियों से बहुत परेशान था । वह इस विद्रोह को ख़त्म करने की आज्ञा देता था ; किंतु उसके सेनानायक नाक़ाम रहे ।
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'''चूड़ामन का संगठन'''
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[[चूड़ामन]], जो नेतृत्व में बहुत ही कुशल था, राजाराम के बाद जाटों का नेता बना । उसने जाटों को संगठित किया और जाट राज्य की नींव डाली । इसका फ़ायदा [[बदनसिंह]] नामक जाट सरदार को हुआ, जिसने पूरी तरह से जाट राज्य को स्थापित किया ।
  
मुगलों के आखरी समय में जाट सरकारी खजाना और शस्त्रों का भंडार लूट लेते थे । जाटों के नेताओं में नंदराम, गोकुल और राजाराम विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं । राजाराम के कार्य विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं ।
 
==राजाराम का  विद्रोह==
 
सन् 1685 में जाटों  की बगावत का नायक 'सिनसिनी' का राजाराम था । सिनसिनी ब्रज में एक छोटी सी ग्रामीण बस्ती थी, जो डीग से  दक्षिण में और भरतपुर से 13 मील उत्तर पश्चिम में आज भी है । वहाँ जाटों की 'गढ़ी' नाम से एक सैनिक छावनी थी । यह गढ़ी भरतपुर के जाट राजाओं के पूर्वजों  की थी । इस राजघराने को 'सिनसिनी वार' के नाम से जाना जाता है ।
 
राजाराम की गतिविधियाँ सिनसिनी से धौलपुर और मथुरा से आमेर राज्य थी । इन जगहों पर मुगल  प्रभावशाली नहीं थे । यहाँ जाटों के दल लूटमार करते थे । औरंगजेब इस समय दक्षिण के युद्ध में व्यस्त था । वह जाटों की गतिविधियों से बहुत परेशान था । वह इस विद्रोह को खत्म करने की आज्ञा देता था ; किंतु उसके सेनानायक नाकाम रहे ।
 
==चूड़ामन का संगठन==
 
चूड़ामन, जो नेतृत्व में बहुत ही कुशल था, राजाराम के बाद जाटों का नेता बना । उसने जाटों को संगठित किया और जाट राज्य की नींव ड़ाली । इसका फायदा बदनसिंह नामक जाट सरदार को हुआ, जिसने पूरी तरह से जाट राज्य को स्थापित किया ।
 
 
==जाट राज्य के संस्थापक बदन सिंह==
 
==जाट राज्य के संस्थापक बदन सिंह==
चूड़ामन के भतीजे का नाम बदन सिंह था । आपसी कलह की वजह से उसे जेल में डाल दिया था । तभी मुगल शासक मुहम्मदशाह ने आमेर के सवाई राजा जयसिंह को आगरा का सूबेदार बनाकर जाटों की बगावत पर काबू करने का हुक्म दिया । सवाई राजा जयसिंह ने जाटों के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी । इसी समय बदनसिंह जेल से निकल कर भाग गया । बदन सिंह राजा जयसिंह से मिला । उसने जयसिंह से संधि की । इसके बाद सन् 1719 में बदन सिंह को सर्वसम्मति से नेता मान लिया गया । बदनसिंह में कुशल नेतृत्व और राजप्रबन्ध के सभी गुण थे । वह  वीर, कुशल सेनापति और व्यवहार कुशल राजनीतिज्ञ और योग्य शासक था । उसने थूण और सिनसिनी के पुराने किलों को छोड़ सारा ध्यान डीग और कुम्हेर के जाट बहुल क्षेत्र पर लगाकर अपने अधिकार में ले लिया और मजबूत किलों को निर्मित किया । जनता उसे ठाकुर कहने लगी । बदनसिंह ने सन् 1719−1723 तक शासन की नींव रख डीग को अपनी राजधानी बनाया । उसने मुगल शासक मुहम्मदशाह और उसके सबसे प्रभावशाली नायक जयसिंह से बहुत ही अच्छे संबंध बनाये और अपने राज्य को सुरक्षित कर लिया । बदनसिंह ने सन् 1719 से सन् 1755 तक 33 सालों तक राज्य किया । इसके बाद उसने अपने बड़े बेटे सूरजमल( सुजानसिंह )को सत्ता सौंप दी और छोटे बेटे प्रतापसिंह को वयर का किला और जागीर दी । बदनसिंह ने अपना आखरी समय ब्रज के 'सहार' में साहित्यक परिचर्चा और काव्य रचना करते हुए बिताया । बदनसिंह योग्य प्रशासक होने के साथ ही साहित्य और कला का प्रेमी था । उसने कला और साहित्य को प्रोत्साहित किया ।  उसके राज्य में कवियों को शासन की ओर से आश्रय प्राप्त था । उसके द्वारा रचित कुछ छंद प्राप्य हैं । उसका निधन सन् 1755 की ज्येष्ठ शु. 10 को हो गया था । उसके बाद उसका बड़ा बेटा सूरजमल जाटों का शासक बना ।
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चूड़ामन के भतीजे का नाम बदन सिंह था । आपसी कलह की वजह से उसे जेल में डाल दिया था । तभी मुग़ल शासक मुहम्मदशाह ने आमेर के [[सवाई राजा जयसिंह]] को आगरा का सूबेदार बनाकर जाटों की बग़ावत पर काबू करने का हुक्म दिया । सवाई राजा जयसिंह ने जाटों के ख़िलाफ़ लड़ाई छेड़ दी । इसी समय बदनसिंह जेल से निकल कर भाग गया । बदन सिंह राजा जयसिंह से मिला । उसने जयसिंह से संधि की । इसके बाद सन् 1719 में बदन सिंह को सर्वसम्मति से नेता मान लिया गया । बदनसिंह में कुशल नेतृत्व और राजप्रबन्ध के सभी गुण थे । वह  वीर, कुशल सेनापति और व्यवहार कुशल राजनीतिज्ञ और योग्य शासक था । उसने [[थूण]] और सिनसिनी के पुराने क़िलों को छोड़ सारा ध्यान डीग और [[कुम्हेर]] के जाट बहुल क्षेत्र पर लगाकर अपने अधिकार में ले लिया और मज़बूत क़िलों को निर्मित किया । जनता उसे ठाकुर कहने लगी । बदनसिंह ने सन् 1719−1723 तक शासन की नींव रख डीग को अपनी राजधानी बनाया । उसने मुग़ल शासक मुहम्मदशाह और उसके सबसे प्रभावशाली नायक जयसिंह से बहुत ही अच्छे संबंध बनाये और अपने राज्य को सुरक्षित कर लिया । बदनसिंह ने सन् 1719 से सन् 1755 तक 33 वर्षों तक राज्य किया । इसके बाद उसने अपने बड़े बेटे सूरजमल( सुजानसिंह )को सत्ता सौंप दी और छोटे बेटे प्रतापसिंह को वयर का क़िला और जागीर दी । बदनसिंह ने अपना आख़री समय ब्रज के 'सहार' में साहित्यक परिचर्चा और काव्य रचना करते हुए बिताया । बदनसिंह योग्य प्रशासक होने के साथ ही साहित्य और कला का प्रेमी था । उसने कला और साहित्य को प्रोत्साहित किया ।  उसके राज्य में कवियों को शासन की ओर से आश्रय प्राप्त था । उसके द्वारा रचित कुछ छंद प्राप्य हैं । उसका निधन सन् 1755 की ज्येष्ठ शु. 10 को हो गया था । उसके बाद उसका बड़ा बेटा [[सूरजमल]] जाटों का शासक बना ।
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==राजा सूरजमल (सन् 1755−1763 )==
 
==राजा सूरजमल (सन् 1755−1763 )==
राजा सूरजमल सुयोग्य शासक था । उसने ब्रज में एक स्वतंत्र हिन्दू राज्य को बना इतिहास में गौरव प्राप्त किया । उसके शासन का समय सन् 1755 से सन् 1763 है । वह सन् 1755 से कई साल पहले से अपने पिता बदनसिंह के शासन के समय से ही वह राजकार्य सम्भालता था । राजा सूरजमल के दरबारी कवि 'सूदन' ने राजा की तारीफ में 'सुजानचरित्र' नामक ग्रंथ लिखा । इस ग्रंथ में सूदन ने राजा सूरजमल द्वारा लड़ी लड़ाईयों का आँखों देखा वर्णन किया है । इस ग्रन्थ में सन् 1745 से सन् 1753 तक के समय में लड़ी गयी लड़ाईयों (7 युध्दों )का वर्णन है । इन लड़ाईयों में सूदन ने भी भाग लिया था, इसलिए उसका वर्णन विश्वसनीय कहा जा सकता है । इस ग्रंथ में आमेर के राजा जयसिंह के निधन के बाद उसके बड़े बेटे ईश्वरीसिंह का मराठों के खिलाफ लड़ा गया सन् 1747 का युध्द, आगरा और अजमेर के सूबेदार सलावत खाँ से लड़ा गया सन् 1748 का युध्द और सन् 1753 की दिल्ली की लूट का वर्णन उल्लेखनीय है ।
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राजा सूरजमल सुयोग्य शासक था । उसने ब्रज में एक स्वतंत्र हिन्दू राज्य को बना इतिहास में गौरव प्राप्त किया । उसके शासन का समय सन् 1755 से सन् 1763 है । वह सन् 1755 से कई साल पहले से अपने पिता बदनसिंह के शासन के समय से ही वह राजकार्य सम्भालता था । राजा सूरजमल के दरबारी कवि 'सूदन' ने राजा की तारीफ़ में 'सुजानचरित्र' नामक ग्रंथ लिखा । इस ग्रंथ में सूदन ने राजा सूरजमल द्वारा लड़ी लड़ाइयों का आँखों देखा वर्णन किया है । इस ग्रन्थ में सन् 1745 से सन् 1753 तक के समय में लड़ी गयी लड़ाईयों (7 युद्धों )का वर्णन है । इन लड़ाइयों में सूदन ने भी भाग लिया था, इसलिए उसका वर्णन विश्वसनीय कहा जा सकता है । इस ग्रंथ में आमेर के राजा जयसिंह के निधन के बाद उसके बड़े बेटे ईश्वरीसिंह का मराठों के ख़िलाफ़़ लड़ा गया सन् 1747 का युद्ध, आगरा और [[अजमेर]] के सूबेदार सलावत खाँ से लड़ा गया सन् 1748 का युद्ध और सन् 1753 की [[दिल्ली]] की लूट का वर्णन उल्लेखनीय है।
इस ग्रंथ में सूरजमल की सन् 1753 के बाद की घटनाओं का वर्णन नहीं है । राजकवि सूदन का निधन सम्भवतः  सन् 1753 के लगभग ही हो गया होगा । सम्भवतः  इसी से बाद में लड़ी लड़ाईयों का विवरण नहीं मिलता है । इस पुस्तक में दिल्ली की लूट का विवरण महत्वपूर्ण है ।
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इस ग्रंथ में सूरजमल की सन् 1753 के बाद की घटनाओं का वर्णन नहीं है । राजकवि सूदन का निधन सम्भवतः  सन् 1753 के लगभग ही हो गया होगा । सम्भवतः  इसी से बाद में लड़ी लड़ाइयों का विवरण नहीं मिलता है । इस पुस्तक में दिल्ली की लूट का विवरण महत्वपूर्ण है ।
  
'''दिल्ली की लूट'''
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'''सूरजमल का मूल्यांकन'''
  
सल्तनत काल से मुगलकाल तक लगभग छह सौ सालों में ब्रज पर आयीं मुसीबतों का कारण दिल्ली के मुस्लिम शासक थे, इस कारण ब्रज में इन शासकों के लिए बदले, क्रोध और हिंसा की भावना थी जिसका किए गये विद्रोहों से पता चलता है दिल्ली प्रशासन के सैनिक अधिकारी अपनी धर्मान्धता की वजह से लूटमार थे । महाराजा सूरजमल के समय में परिस्थितियाँ बदल गईं थी । यहाँ के वीर व साहसी पुरूष किसी हमलावर से स्वसुरक्षा में ही नहीं, बल्कि उस पर हमला करने में खुद को काबिल समझने लगे । सूरजमल द्वारा की गई 'दिल्ली की लूट' का विवरण उनके राजकवि सूदन द्वारा रचित 'सुजान चरित्र' में मिलता है सूदन ने लिखा है कि महाराजा सूरजमल ने अपने वीर एवं साहसी सैनिकों के साथ सन् 1753 के बैसाख माह में दिल्ली कूच किया । मुगल सम्राट की सेना के साथ राजा सूरजमल का संघर्ष कई माह तक होता रहा और कार्तिक के महीने में राजा सूरजमल दिल्ली में दाखिल हुआ । दिल्ली उस समय मुगलों की राजधानी थी । दिल्ली की लूट में उसे अथाह सम्पत्ति मिली, इसी घटना का विवरण काव्य के रूप में 'सुजान−चरित्र' में इस प्रकार किया है <ref>देस देस तजि लच्छमी, दिल्ली कियौ निवास।
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ब्रज के जाट राजाओं में सूरजमल सबसे प्रसिद्ध शासक, कुशल सेनानी, साहसी योद्धा और सफल राजनीतिज्ञ था उसने जाटों में सब से पहले राजा की पदवी धारण की थी; और एक शक्तिशाली हिन्दू राज्य का संचालन किया था उसका राज्य विस्तृत था, जिसमें डीग−[[भरतपुर]] के अतिरिक्त [[मथुरा]], [[आगरा]], [[धौलपुर]], [[हाथरस]], [[अलीगढ़]], [[एटा]], [[मैनपुरी]], [[गुडगाँव]], [[रोहतक]], [[रेवाड़ी]], [[फर्रूखनगर]] और [[मेरठ]] के ज़िले थे। एक ओर [[यमुना]] में [[गंगा]] तक और दूसरी ओर [[चंबल]] तक का सारा प्रदेश उसके राज्य में सम्मिलित था । सूरजमल की सेना विशाल थी । उसमें 60 हाथी, 500 घोड़े, 1500 अश्वारोही, 25000 पैदल और 300 तोपें थीं । अपनी मृत्यु के समय उसने लगभग 10 करोड़ रुपया राजकोश में छोड़ा था ।<balloon title="(ब्रजभारती वर्ष 13 अंक 2 )" style="color:blue">*</balloon><br />
अति अधर्म लखि लूट मिस, चली करन ब्रज−वास ।।
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सूरजमल [[ब्रजभाषा]] साहित्य का प्रेमी और कवियों का आश्रयदाता था । उसके दरबार में अनेक कवि थे, जिनमें सूदन कवि का नाम प्रसिद्ध था सूरजमल की कई रानियाँ थी; जिनमें किशोरी और हंसा प्रमुख थीं । उसके 5 पुत्र थे, जिनके नाम निन्नांकित हैं −[[जवाहर सिंह]], रतन सिंह, नवल सिंह, रणजीत सिंह  और नाहर सिंह सूरजमल के बाद जवाहर सिंह जाटों का राजा हुआ । जाटों की आरंभिक राजधानी डीग थी ; किंतु सूरजमल ने भरतपुर के कच्चे किले को पक्का बना कर वहाँ अपनी राजधानी बनाई थी ।
अथवा−कलि क आदि क्रूर मघवा ने ब्रज पर कोप जनायौ है।
 
वही अकस धरि श्री ब्रजेश−सुत, इंद्रपुरहि लुटवायौ है।।"।</ref> −महाराजा सूरजमल का यह युध्द जाटों का ही नहीं वरन् ब्रज के वीरों की मिलीजुली कोशिश का परिणाम था । इस युध्द में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के अलावा गूजर, मैना और अहीरों ने भी बहुत उल्लास के साथ भाग लिया । सूदन ने लिखा है <ref>"गूजर गरूर गाढ़े गरजि मैना मलूक मदमत्त धीर। बेपीर वीर चाले अहीर।।"</ref>इस युद्ध में गोसाईं राजेन्द्र गिरि और उमराव गिरि भी अपने नागा सैनिकों के साथ शामिल थे । महाराजा सूरजमल को दिल्ली की लूट में जो अपार धन मिला था, उसे जनहित कार्यों और निर्माण कार्यों में प्रयोग किया गया दिल्ली विजय के बाद महाराजा सूरजमल ने गोवर्धन जाकर श्री गिरिराज जी की पूजा थी; और मानसी गंगा पर दीपोत्सव मनाया
 
  
'''मराठों की गतिविधियाँ'''
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==जवाहर सिंह (शासन सं. 1820 से सं. 1825)==
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वह जाट राजा सूरजमल का प्रतापी ज्येष्ठ पुत्र था। वह अपने बाबा−दादा के सद्श्य वीर और साहसी था ; लेकिन वह उनके समान नीति−निपुण एवं विनम्र नहीं था । उसके उद्धत स्वभाव और उग्र व्यवहार से पिता सूरजमल उससे अप्रसन्न रहता था । प्रमुख जाट सरदार भी उससे असंतुष्ट रहते थे, किंतु उसकी वीरता के सभी प्रशंसक थे । सूरजमल की मृत्यु के पश्चात जब जवाहर सिंह जाटों का राजा हो गया, तब सभी जाट सरदार उसके साथ हो गये ।
  
जब ब्रज और उसके आसपास महाराजा सूरजमल का साम्राज्य था, उसी समय मराठा पेशवाओं की सैनिक गतिविधियाँ भी तेज हो गयीं । पेशवाओं की शक्ति का विस्तार दक्षिण से दिल्ली तक हो गया था और मुगल शासक भी भयभीत था । ऐसे समय में सूरजमल को मुगलों के साथ साथ मराठों से भी अपने राज्य की रक्षा और अधिकार के लिए लड़ना पड़ा । उसकी शक्ति धीरे धीरे क्षीण हो रही थी ।
+
'''पुष्कर−यात्रा और मृत्यु'''
== अब्दाली के आक्रमण==
 
इसी समय  अहमदशाह अब्दाली ने देश पर हमला कर दिया, मराठों ने उधर ध्यान नहीं दिया वे जाटों और राजपूतों से लड़कर कमजोर होते रहे । मराठों ने जहाँ खुद को कमजोर किया वहीं राजपूतों को भी कमजोर किया और अहमदशाह अब्दाली को आक्रमण करने का मौका दे दिया ।
 
  
'''लूट के बाद का ब्रज'''
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जवाहर सिंह राजपूत राजाओं पर अपना रौब जमाना चाहता था । उसने जाटों की सेना के साथ [[पुष्कर]]−यात्रा के लिए प्रस्थान किया । [[जयपुर]] के राजा माधवसिंह को सूचना  दिये बगैर राज्य की सीमा से होकर जाटों की पताका फहराता वह पुष्कर पहुँच गया । जयपुर की सेना का उसे रोकने का साहस नहीं हुआ; जब वह वहाँ से वापिस लौटा तब दोनों सेनाओं में युद्ध छिड़ गया । जवाहर सिंह अपनी सेना के साथ राजपूतों से वीरतापूर्वक लड़ता हुआ जयपुर की सीमा पार कर सकुशल आगरा आ गया; किंतु उसे बड़ी हानि उठानी पड़ी । इस युद्ध में राजपूतों के साथ जाटों के भी अनेक योद्धा मारे गये । तबसे जयपुर नरेश और जवाहरसिंह में कटुता और विद्वेष की वृद्धि होती रही, जिससे दोनों की शक्ति क्षीण हुई । सं. 1825 में आगरा में किसी अज्ञात सैनिक ने जवाहरसिंह का धोखे से वध कर दिया । कहा जाता है, वह एक गुप्त षड़्यंत्र था, जिसमें जयपुर नरेश का हाथ था ।
  
अब्दाली की लूटमार सन्  1756−57 में हुई थी । किसी ने भी लुटेरों का विरोध नहीं किया । लुटेरे आये और दिल्ली से आगरा तक के ही समृद्धिशाली राज्य को लूट कर चले गये । औरंगजेब के अत्याचारों से सहमा ब्रजमंड़ल लम्बे समय तक संभल नहीं पाया । ऐसी परिस्थिति में मराठा सरदार चुप्पी लगा  गये और सूरजमल अपने किले में  छिपा रहा ।
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'''जवाहरसिंह का मूल्यांकन'''
इसके बाद अब्दाली ने कई हमले किये, जिनमें वह हमेशा कामयाब रहा ।
 
==पानीपत की लड़ाई==
 
सन् 1761 में पानीपत का ऐतिहासिक युध्द हुआ, जिसमें राजपूत−जाट−मराठा जैसे शक्तिशाली और वीर सैनिकों के होते हुए भी देश को हार का सामना करना पड़ा । मुख्य कारण हिन्दू शासकों का आपस में मेल न होना था ।  अहमदशाह अब्दाली के आक्रमणों से सबक लेकर मराठों और जाटों ने संधि की; लेकिन वे राजपूतों से गठजोड़ करने में कामयाब नहीं हुए । वे अपने ही बलबूते पर अब्दाली को खत्म करने के लिए प्रतिज्ञाबध्द थे । इस लड़ाई में मराठा सरदार सदाशिवराव भाऊ और सूरजमल नीतिगत मतभेद हो गये । भाऊ ने सूरजमल के साथ अपमान पूर्ण वार्ता की थी । सूरजमल नाराज़ होकर अपनी सेना के साथ वापिस चला गया । मराठा सरदार को अपनी ताकत पर बहुत भरोसा था, उसने जाटों की बिल्कुल परवाह नहीं की ।
 
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युद्ध में अफगान सैनिक और भारत के मुसलमान रूहेले थे, जो लगभग 62 हजार थे, दूसरी तरफ अकेले मराठा सैनिक थे, जिनकी संख्या 45 हजार थीं । दोनों सेनाओं में भीषण युध्द हुआ । उसमें मराठाओं ने बहुत वीरता दिखलाई ; किंतु संख्या की कमी और प्रबंधकीय शिथिलता होने के कारण मराठा हार गये । उस युद्ध में  सैनिक बहुत संख्या में मारे गये । भरतपुर के 'मथुरेश' कवि ने इस स्थिति पर दुख जताते हुए कहा है  −
 
  
'''"नाँच उठी भारत की भावी सदाशिव शीश, ओंधी हुई बुद्धि उस जनरल महान् की '''
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जवाहरसिंह सं. 1820 से सं. 1825 तक के वर्षों तक ही भरतपुर की राजगद्दी पर रहा ;  उसी समय में वह अपने अद्भुत साहस और अनुपम शौर्य से अपना नाम अमर कर गया और जाट राज्य के गौरव को भी चरम सीमा पर पहुँचा दिया था । जाट राजवंश में चूड़ामन से लेकर अब तक जो वीर पुरुष हुए थे, उनमें जवाहरसिंह किसी से कम नहीं था । यदि वीरता और साहस के साथ उसमें गंभीरता, नीतिज्ञता और व्यवहार−कुशलता भी होती तो वह [[ब्रज]] के इतिहास को एक नया मोड़ दे सकता था । किंतु उसने अपनी शक्ति को व्यर्थ के युद्धों में नष्ट कर दिया, इस कारण उसके बाद ही जाट राज्य का महत्व कम होने लगा । जवाहरसिंह साहसी योद्धा होने के साथ ही साथ साहित्य और कला का प्रेमी तथा प्रोत्साहनकर्त्ता भी था । उसके आश्रित कवियों में [[भूधर]], [[रंगलाल]] और [[मोतीराम]] के नाम उल्लेखनीय हैं । [[ब्रजभाषा]] का विख्यात [[महाकवि देव]] अपनी वृद्धावस्था में उसके दरबार में उपस्थित हुआ था
  
'''होती न हीन दशा हिन्दी−हिन्द−हिन्दुओं की, मानता जो भाऊ, कहीं सम्मति सुजान की।।" '''
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==जाट राज्य का ह्रास (सं. 1825 − सं. 1883)==
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जवाहरसिंह तक जाट राज्य की निरंतर उन्नति होती रही थी । उसके बाद उसका ह्रास आरंभ हुआ । जवाहरसिंह की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई रत्नसिंह जाटों का राजा हुआ था । वह थोड़े समय तक ही राजगद्दी पर रह सका । राजा बनने के कुछ समय बाद वह [[वृन्दावन]] गया और वहाँ [[रासलीला]] में लीन हो गया । वहाँ के गोसाई रूपानंद नाम के मायावी तांत्रिक ने अद्भुत चमत्कार दिखाकर भुलावे में डाल कर सं. 1826 वि. में मार डाला । उसकी मृत्यु भी संभवत: उसी षड्यंत्र का परिणाम थी, जिसका शिकार उसका बड़ा भाई जवाहरसिंह हुआ था ।
  
पानीपत के युद्ध में पराजित और घायल सैनिकों के खान−पान और सेवा−शुश्रूषा और दवा−दारू की व्यवस्था सूरजमल की ओर से की गई थी
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==केहरी सिंह (शासन सं. 1826−सं. 1834)==
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वह रत्नसिंह के बाद जाटों का राजा हुआ था । उस समय वह कम आयु का बालक था । उसका संरक्षक होने के लिए उसके दोनों चाचा नवल सिंह और रणवीर सिंह में प्रतिद्वंद्विता होने लगी, जिससे जाट सरदार दो गुटों में बँट गये । इस गृह−कलह से जाट राज्य की बड़ी हानि हुई । उसके कुछ समय बाद जाट−मुग़ल संघर्ष छिड़ गया
  
'''जाटों का  विस्तार'''
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'''जाट−मुग़ल संघर्ष'''
  
पानीपत में अफगानी पठानों और रूहेलों की जीत ज़रूर हुई ; लेकिन हानि मराठाओं से कम नहीं हुई । अहमदशाह अब्दाली अफगानिस्तान लौट गया । रूहेले भी थके होने से प्रभावशाली कदम उठाने में असमर्थ थे । पराजय से मराठों की तो जैसे कमर ही टूट गई थी । हालांकि वे शीघ्र ही फिर से बलशाही हो गये थे, निजाम दक्षिणी शक्तियों का दमन करने के कारण उत्तर की ओर देखने की स्थिति में नहीं थे । यह परिस्थितियाँ सूरजमल को अपनी शक्ति  विस्तृत करने के लिए अनुकूल लगी  ।पानीपत से बिना लड़े वापिस आने से उसकी शक्ति सुरक्षित थी । सूरजमल ने मुगलों की राजधानी आगरा को लूटा और अधिकार कर अपने राज्य में मिला लिया इसके बाद हरियाणा के बलूची शासक मुसब्बीखाँ पर हमला कर उसे हराया और कैद कर भरतपुर भेज दिया । उसकी राजधानी फर्रूखनगर को उसने अपने बड़े पुत्र जवाहरसिंह को सौंपा और उसे मेवाती क्षेत्र का स्वामी बना दिया । आगरा से लेकर दिल्ली के पास तक  सूरजमल की तूती बोलने लगी । उसे अपने अधिकृत क्षेत्र की प्रभु−सत्ता को दिल्ली के मुगल सम्राट् से स्वीकृत कराना था । उस समय  शक्तिहीन मुगल सम्राट का संरक्षक उसका शक्तिशाली रूहेला वज़ीर नजीबुद्धोला था, जिसे अहमदशाह अब्दाली का भी समर्थन प्राप्त था । वह जाटों का कट्टर बैरी था । उसने मुगल सम्राट की ओर से जाट राजा की इस माँग को ठुकरा दिया । सूरजमल ने अपने अधिकार को स्वीकृत कराने के उद्देश्य से अपनी सेना को दिल्ली चलने का आदेश किया । रूहेला वज़ीर भी जाटों का सामना करने की तैयारी करने लगा । उसने अहमदशाह अब्दाली और अन्य रूहेले सरदारों के पास संदेश भेजकर सहायतार्थ दिल्ली आने का निमंत्रण भेजा । फिर उसने चारों ओर के फाटक बंद करा कर उसकी समुचित रक्षा के लिए शाही सेना को तैनात कर दिया जाट सेना ने दिल्ली पहुँच कर उसे चारों ओर से घेर लिया ।
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जाटों के गृह−कलह का लाभ मुग़ल सम्राट शाहआलम की ओर से वज़ीर मिर्जा नजफ़ख़ाँ ने उठाया उसने जाटों के क्षेत्र में अपने प्रभाव के लिए उनसे युद्ध छेड़ दिया । जिससे सं. 1831 तक जाटों के राज्य का बड़ा भाग छिन्न−भिन्न हो गया । जाटों की शासन−सत्ता सीमित क्षेत्र में सिमट गई थी । उसी समय सं. 1832 में जाट सरदार नवल सिंह की मृत्यु हो गई थी  ।  
==सूरजमल की मृत्यु==
 
रूहेला वज़ीर अब्दाली की सेना आने तक युद्ध को टालना चाहता था ; किंतु सूरजमल इसके लिए तैयार न था ।  जाटों की सेना दिल्ली के निकट यमुना और हिंडन नदियों के दोआब में एकत्र थी और शाही सेना दिल्ली नगर की चारदीवारी के अंदर थी । सूरजमल की सेना की एक टुकड़ी ने दिल्ली पर गोलाबारी आरंभ कर दी । जवाब देने के लिए शाही सेना को भी बाहर आकर मोर्चा जमाना पड़ा ; किंतु उन्हें जाटों की मार के कारण पीछे हटना पड़ा । उसी समय सूरजमल ने केवल 30 घुड़सवारों के साथ शत्रु की सेना में घुसने की दुस्साहसपूर्ण मूर्खता कर डाली और व्यर्थ में ही अपनी जान गँवानी पड़ी । सूरजमल की मृत्यु अचानक और अप्रत्याशित ढंग से हुई । एक विवरण के अनुसार सूरजमल अपने कुछ घुड़सवारों के साथ युद्ध स्थल का निरीक्षण कर रहा था कि अचानक ही वह शत्रु सेना से घिर गया । उसने अपने मुट्ठी भर सैनिकों से एक बड़ी सेना का सामना किया और वीरता पूर्वक युद्ध करता हुआ मारा गया।<ref> (हिस्ट्री ऑफ दि जाट्स, पृष्ठ 155)</ref>उसकी मृत्यु सं. 1820 (ता. 25 दिसंबर सन् 1763 रविवार) में हुई थी । उस समय उसकी आयु 55 वर्ष की थी ।
 
==सूरजमल का मूल्यांकन==
 
ब्रज के जाट राजाओं में सूरजमल सबसे प्रसिद्ध शासक, कुशल सेनानी, साहसी योद्धा और सफल राजनीतिज्ञ था । उसने जाटों में सब से पहले राजा की पदवी धारण की थी; और एक शक्तिशाली हिन्दू राज्य का संचालन किया था । उसका राज्य विस्तृत था, जिसमें डीग−भरतपुर के अतिरिक्त मथुरा, आगरा, धौलपुर, हाथरस, अलीगढ़, एटा मैनपुरी, गुडगाँव, रोहतक, रेवाड़ी, फर्रूखनगर और मेरठ के जिले थे। एक ओर यमुना में गंगा तक और दूसरी ओर चंबल तक का सारा प्रदेश उसके राज्य में सम्मिलित था । सूरजमल की सेना विशाल थी । उसमें 60 हाथी, 500 घोड़े, 1500 अश्वारोही, 25000 पैदल और 300 तोपें थीं । अपनी मृत्यु के समय उसने लगभग 10 करोड़ रूपया राजकोश में छोड़ा था । <ref> (ब्रजभारती वर्ष 13 अंक 2 )<ref>
 
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सूरजमल ब्रजभाषा साहित्य का प्रेमी और कवियों का आश्रयदाता था । उसके दरबार में अनेक कवि थे, जिनमें सूदन कवि का नाम प्रसिद्ध था ।
 
सूरजमल की कई रानियाँ थी; जिनमें किशोरी और हंसा प्रमुख थीं । उसके 5 पुत्र थे, जिनके नाम निन्नांकित हैं −
 
# जवाहर सिंह
 
# रतन सिंह
 
# नवल सिंह
 
# रणजीत सिंह और
 
# नाहर सिंह ।  
 
  
सूरजमल के बाद जवाहर सिंह जाटों का राजा हुआ । जाटों की आरंभिक राजधानी डीग थी ; किंतु सूरजमल ने भरतपुर के कच्चे किले को पक्का बना कर वहाँ अपनी राजधानी बनाई थी ।
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'''रणजीत सिंह (सं. 1832 − सं. 1862)'''
==जवाहर सिंह (शासन सं. 1820 से सं. 1825)==
 
वह जाट राजा सूरजमल का प्रतापी ज्येष्ठ पुत्र था। वह अपने बाबा−दादा के सद्श्य वीर और साहसी था ; लेकिन वह उनके समान नीति−निपुण एवं विनम्र नहीं था । उसके उद्धत स्वभाव और उग्र व्यवहार से पिता सूरजमल उससे अप्रसन्न रहता था । प्रमुख जाट सरदार भी उससे असंतुष्ट रहते थे, किंतु उसकी वीरता के सभी प्रशंसक थे । सूरजमल की मृत्यु के पश्चात जब जवाहर सिंह जाटों का राजा हो गया, तब सभी जाट सरदार उसके साथ हो गये । उनकी दूरदर्शिता से जाटों की शक्ति गृह−कलह से क्षीण नहीं हो सकी थी । एक बार जवाहर सिंह डीग के राजमहल में अपनी माता को प्रणाम करने के लिए गया । उसके सिर पर शानदार पगड़ी बँधी हुई थी । उस पगड़ी को देख कर राजमाता ने रोते हुए कहा − '''"बेटा तेरे बाप की पगड़ी तो दिल्ली में पड़ी हुई मुगलों की ठोकर खा रही है; और तू यह शानदार पगड़ी बाँधे हुए है । इसकी शान तो तब रहेगी जब अपने पिता की मृत्यु का बदला दिल्ली के शासकों से लेगा ।"''' इसका वर्णन एक कवि ने इस प्रकार किया है,−
 
  
'''"पड़ी बाप की पगड़ी दिल्ली, रही मुगल की ठोकर खाय ।'''
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वह नवलसिंह की मृत्यु के पश्चात जाट राज्य का स्वामी बना शासन सँभालते ही उसे मुग़ल आक्रमण का सामना करना पड़ा, जिसमें जाटों की पराजय हुई थी । रणजीत के अधिकार में केवल [[भरतपुर]] का क़िला और उसका निकटवर्ती क्षेत्र रह गया । उसकी वार्षिक आय घट कर केवल 5 लाख रुपया रह गई ।  
'''दिल्ली सर कर इन कथन हाथन तें, छत्रिन की लेइ लाज बचाय ।।"'''
 
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माता के मर्मस्पर्शी वचनों को सुन वीरवर जवाहरसिंह का खून खौलने लगा उसने माता को चरण छू प्रतिज्ञा की, कि वह शीघ्र ही उस अपमान का बदला लेने के लिए दिल्ली प्रस्थान कर देगा । कुछ धन का प्रबंध करना बाकी है । कहते हैं, राजामाता ने अपने निजी कोश से उस युद्ध के लिए आवश्यक धन की पूरी व्यवस्था कर दी थी । <ref>(हिस्ट्री ऑफ दि जाट्स, पृष्ठ 113 )<ref>
 
==दिल्ली अभियान==
 
सं. 1821 (अक्टूबर, सन् 1763) में जवाहरसिंह ने विशाल सेना के साथ दिल्ली की ओर कूच कर दिया । उसके साथ 60 हजार जवान और 100 तोपों की जाट सेना थी, 25 हजार मरहठों की सेना मल्हारराव होल्कर की कमान में थी, और 15 हजार सिक्ख सेना थी । <ref>(हिस्ट्री ऑफ दि जाट्स, पृष्ठ 114 )<ref> जवाहरसिंह का उद्देश्य दिल्ली के नवाब वजीर नजीबुद्दोला रूहेले से सूरजमल के खून का बदला लेना और पानीपत में हार जाने से हिन्दुओं के स्वाभिमान को जो ठेस पहुँची थी, उसका बदला लेना भी था । जब रूहेला वज़ीर ने जाटों के प्रतिहिंसात्मक युद्ध अभियान का समाचार सुना, तो उसने सहायता के लिए अहमदशाह अब्दाली के पास विशेष दूत भेजा और उसे  बुलाया और दूसरे रूहेले सरदारों को भी बुलावा भेजा । उसने शाही खजाने और स्त्री−बच्चों को सुरक्षित स्थान पर भेजने का प्रबंध किया । उसके बाद दिल्ली के चारों ओर नाकेबंदी कर दीर्घकालीन संघर्ष के लिए तैयार हो गया । उसका साहस जाटों से युद्ध करने का नहीं हुआ, वह दिल्ली के चारों ओर के फाटकों को बंद करा आत्मरक्षा की व्यवस्था करता रहा । सेना ने चारों ओर से दिल्ली को घेर कर गोलाबारी आरंभ कर दी । गोलाबारी को विफल करने के लिए शाही सेना के कई दलों ने जाटों से संघर्ष किया; किंतु उन्हें सदैव पीछे हटना पड़ा । उसी समय जवाहरसिंह ने दिल्ली के निकटवर्ती शाहदरा नगर को लूटा और दिल्ली के किले पर प्रभावशाली गोलाबारी करने के लिए अपना तोपखाना जमा दिया । तोपों के गोले दिल्ली नगर की सीमा में गिरे, जिससे वहाँ भीषण बर्बादी होने लगी ।
 
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इस घेराबंदी और गोलाबारी में तीन महीने निकल गये । दिल्ली की जनता को बड़ी कठिनाई और परेशानियाँ उठानी पड़ी, खाद्य वस्तुओं के अभाव में लोगों के भूखे मरने की नौबत आ गई । नजीबुद्दोला ने समझाने−बुझाने की बहुत चेष्टा की ; किंतु भूखी जनता नगर के फाटकों को तोड़ कर बाहर निकल पड़ी और जाट सेना के शिविर में जा कर खाद्यान की भीख माँगने लगी । जवाहरसिंह ने उस अवसर पर खाद्यान का वितरण कराया । उस विषम परिस्थिति से घबराकर रूहेला वज़ीर−नजीबुद्दोला ने जाटों के साथ संधि का प्रस्ताव किया ; जवाहरसिंह ने अपने पिता सूरजमल की मृत्यु के बदले में पूरा मुआवजा लेकर संधि कर ली ।  
 
  
''' जाटों की गौरव−वृद्धि'''
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'''ब्रज की दुर्दशा'''
  
दिल्ली अभियान के बाद जवाहरसिंह ने पूरी तरह शासन−सत्ता सँभाल ली उसने सेना को नये ढंग से संगठित किया; और राज्य को समृद्ध किया उसने बड़े−बड़े युद्ध किये और उन सब में सफलता प्राप्त की । उसके रण−कौशल, साहस और पराक्रम की दुंदभी चारों ओर बज रही थी उसका यश, वैभव शौर्य चरम सीमा पर था उससे वह बड़ा अभिमानी और दु:साहसी हो गया था । यही दुर्गुण बाद में उसके पतन का कारण बना ।  
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जाटों की पराजय से ब्रज की स्थिति संकटग्रस्त हो गई । इस समय में इस प्रदेश के सुप्रसिद्ध धार्मिक स्थलों का कोई रखवाला नहीं रहा और रूहेले सैनिक जब चाहें यहाँ आकर लूट−मार मचा देते थे ब्रज में निवास करते भक्तगण अनिच्छा पूर्वक ब्रज को छोड़ कर इधर−उधर भागते फिरते थे । [[वृन्दावन]] के [[भक्त वृन्दावनदास]] उसी समय वृन्दावन से [[कृष्णगढ़]] गये थे उन्होंने अपनी एक रचना 'श्री बेलि' में सं. 1831 के संकट का वर्णन करते हुए लिखा है<balloon title="जमन कछू संका दई, ब्रज जन भये उदास ता समयै चलि तहाँ ते, कियों कृष्णगण पयान" style="color:blue">*</balloon> सं. 1814 से 1832 तक ब्रज प्रदेश पर [[यवन]] सेना ने बार−बार आक्रमण किए जिससे यह समय ब्रज के लिए भीषण संकट का रहा ब्रज जन हताश हो गये थे । चाचा वृन्दावनदास ने दुर्व्यवस्था का कथन करते हुए लिखा है<ref>जमन कि जम जातना, भुगताई इह देह ।<br /> अब अपने अपनाइ लेउ, बास काँपत कपिला गाय ज्यों, कहत मरत हौं लाज।<br /> कलि केहरि ते अब करौ, रच्छा सुरच्छा आज।</ref><br />
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रणजीत सिंह के शासन काल की पराजयों से ब्रज में घोर संकट था । उस समय ब्रजवासी भक्त ब्रज को छोड़ कर इधर−उधर भटक रहे थे । वृन्दावनदास उस समय में कृष्णगढ़ में ही थे । सं. 1835 में उन्होंने अपनी 'आरती पत्रिका' कृष्णगढ़ में ही लिखी थी । उसमें अपनी मनोदशा का वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा<balloon title="एक धाम बिछुर जु दुख दूबर है जु शरीर । तीजै निर अपराध दुख देत नीरज ।  'आरती पत्रिका'" style="color:blue">*</balloon> ब्रज की दुर्दशा करने वाले और जाटों के प्रबल शत्रु मुग़ल नजफ़ख़ाँ की मृत्यु सं. 1839 में हो गई थी
  
'''पुष्कर−यात्रा और मृत्यु'''
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'''ब्रज की अव्यवस्था में अंगरेजों की सैनिक हलचलें'''
  
जवाहर सिंह राजपूत राजाओं पर अपना रौब जमाना चाहता था । उसने जाटों की सेना के साथ पुष्कर−यात्रा के लिए प्रस्थान किया ।  जयपुर के राजा माधवसिंह को सूचना  दिये बगैर राज्य की सीमा से होकर जाटों की पताका फहराता वह पुष्कर पहुँच गया जयपुर की सेना का उसे रोकने का साहस नहीं हुआ ; जब वह वहाँ से वापिस लौटा तब दोनों सेनाओं में युद्ध छिड़ गया जवाहरसिंह अपनी सेना के साथ राजपूतों से वीरतापूर्वक लड़ता हुआ जयपुर की सीमा पार कर सकुशल आगरा आ गया ; किंतु उसे बड़ी हानि उठानी पड़ी । इस युद्ध में राजपूतों के साथ जाटों के भी अनेक योद्धा मारे गये । तबसे जयपुर नरेश और जवाहरसिंह में कटुता और विद्वेष की वृद्धि होती रही, जिससे दोनों की शक्ति क्षीण हुई । सं. 1825 में आगरा में किसी अज्ञात सैनिक ने जवाहरसिंह का धोखे से वध कर दिया । कहा जाता है, वह एक गुप्त षड़्यंत्र था, जिसमें जयपुर नरेश का हाथ था ।  
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[[माधवजी सिंधिया]] की मृत्यु के बाद ही मराठा राज्य के शासक पेशवा और [[अहिल्याबाई होलकर]] का देहावसान हुआ था उन सबके अभाव में मराठों की शक्ति डगमगाने लगी और उनकी शासननीति में अनेक उलट−फेर होने लगे माधव जी का उत्तराधिकारी दौलतराव सिंधिया हुआ तथा अहिल्याबाई का उत्तराधिकारी तुकोजीराव और उनकी मृत्यु होने पर यशवंतराव होलकर हुआ । उत्तर भारत में सत्ता को लेकर सिधिंया और होलकर में निरंतर संघर्ष होने लगा मराठा,  जाट और मुसलमानों में भी नित्य झगड़े होने लगे । इस सिद्धांतहीन संघर्ष के कारण ब्रजंमडल और उसके आसपास अव्यवस्था फैल गई थी जिसका लाभ अंगरेजों ने उठा कर ब्रजमंडल में अपनी सैनिक हलचलों से झकझोर दिया ।
  
'''जवाहरसिंह का मूल्यांकन'''
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'''जाट−अंगरेज़ युद्ध'''
  
जवाहरसिंह सं. 1820 से सं. 1825 तक के वर्षों तक ही भरतपुर की राजगद्दी पर रहा ;  उसी समय में वह अपने अद्भुत साहस और अनुपम शौर्य से अपना नाम अमर कर गया और जाट राज्य के गौरव को भी चरम सीमा पर पहुँचा दिया था जाट राजवंश में चूड़ामन से लेकर अब तक जो वीर पुरूष हुए थे, उनमें जवाहरसिंह किसी से कम नहीं था । यदि वीरता और साहस के साथ उसमें गंभीरता, नीतिज्ञता और व्यवहार−कुशलता भी होती तो वह ब्रज के इतिहास को एक नया मोड़ दे सकता था किंतु उसने अपनी शक्ति को व्यर्थ के युद्धों में नष्ट कर दिया, इस कारण उसके बाद ही जाट राज्य का महत्व कम होने लगा । जवाहरसिंह साहसी योद्धा होने के साथ ही साथ साहित्य और कला का प्रेमी तथा प्रोत्साहनकर्त्ता भी था उसके आश्रित कवियों में भूधर, रंगलाल और मोतीराम के नाम उल्लेखनीय हैं ब्रजभाषा का विख्यात महाकवि देव अपनी वृद्धावस्था में उसके दरबार में उपस्थित हुआ था
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सं. 1860 में अंगरेज़ी सेना ने दौलतराव सिंधिया के विरुद्ध सफल अभियान करके मथुरा पर अधिकार कर लिया । उधर जनरल लेक की कमान यशवंतराव होलकर का पीछा कर रही थी । होलकर ने भाग कर भरतपुर में शरण ली । उस समय भरतपुर में जाट राजा रणजीत सिंह का शासन था । जनरल लेक ने भरतपुर नरेश से माँग की कि वह होलकर को अंगरेजों के सुपुर्द कर दे । रणजीत सिंह ने इस माँग को स्वीकार नहीं किया । अंगरेज़ों ने भरतपुर पर आक्रमण कर दिया । जाटों ने बहुत वीरता से अंगरेज़ी सेना का मुक़ाबला किया कि उसे पीछे हटना पड़ा । जनरल लेक जैसे वीर सेनापति की अध्यक्षता में अंगरेज़ों ने चार बार भरतपुर पर आक्रमण किया किंतु हर बार उन्हें मुँह की खानी पड़ी । इससे भरतपुर क़िले की अजेयता, जाटों की वीरता और रणजीत सिंह की प्रबंध−कुशलता की सर्वत्र ख्याति हो गई  । रणजीत सिंह की पराजयों के कारण जाटों की जो अप्रतिष्ठा हुई थी, वह अंगरेज़ों से सफलतापूर्वक युद्ध करने के कारण दूर हो गई । जाट राज्य के इतिहास में सूरजमल और जवाहरसिंह द्वारा दिल्ली में की गई लूट की भाँति रणजीत सिंह द्वारा अंगरेज़ों से सफल संघर्ष करने की घटना भी बड़ी प्रसिद्ध है ब्रज के अनेक कवियों और लोक गायकों ने भरतपुर पर अंगरेज़ों की चढ़ाई, जाटों की वीरता और अंगरेज़ों की पराजय का अत्यंत ओजपूर्ण वर्णन किया है -<ref> चढ़े फिरंगी भयौ भारत भरतपुर में, तोपन तरपि कै, हलान पै हलान की ।<br /> काली करी तृपत ,फिरंगी सो कुरंगी भए,एक हू कला न चली ,पथरकलान की ॥  (­प्रेमकवि)</ref><ref> मच्यौ घमासान, कोस तीन लगि लोथ परीं,  मर गये सूर साँचे मौहरा अगाह तें <br /> कहै 'जसराम' अंगरेज़ जंग हार गये, जीते जदुवंशी सूर, लड़त उछाह तें ॥ (जसराम)</ref> <balloon title="तेरे तेज तत्ता तें, चकत्ता में रही न सत्ता, लत्ता से उड़ाये, सब गोरे कलकत्ता के ।।(भागमल्ल)" style="color:blue">*</balloon> <balloon title="तेफिरका फिरंगिन के फारिकै फतूह करे, जीत के नगारे रनजीत के बजत हैं ।(गंगाधर)" style="color:blue">*</balloon> <balloon title="भेजौ फोरि पटक−पछार खात खंभन सों, लेडी अंगरेज़न की रोंवे कलकत्ता में।(प्रसिद्ध कवि)" style="color:blue">*</balloon>
==जाट राज्य का ह्रास (सं. 1825 − सं. 1883)==
 
जवाहरसिंह तक जाट राज्य की निरंतर उन्नति होती रही थी । उसके बाद उसका ह्रास आरंभ हुआ । जवाहरसिंह की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई रत्नसिंह जाटों का राजा हुआ था । वह थोड़े समय तक ही राजगद्दी पर रह सका । राजा बनने के कुछ समय बाद वह वृंदावन  गया और वहाँ रासलीला में लीन हो गया । वहाँ के गोसाई रूपानंद नाम के मायावी तांत्रिक ने अद्भुत चमत्कार दिखाकर भुलावे में डाल कर सं. 1826 वि. में मार डाला उसकी मृत्यु भी संभवत: उसी षड्यंत्र का परिणाम थी, जिसका शिकार उसका बड़ा भाई जवाहरसिंह हुआ था ।
 
==केहरी सिंह (शासन सं. 1826−सं. 1834)==
 
वह रत्नसिंह के बाद जाटों का राजा हुआ था । उस समय वह कम आयु का बालक था । उसका संरक्षक होने के लिए उसके दोनों चाचा नवल सिंह और रणवीर सिंह में प्रतिद्वंद्विता होने लगी, जिससे जाट सरदार दो गुटों में बँट गये । इस गृह−कलह से जाट राज्य की बड़ी हानि हुई । उसके कुछ समय बाद जाट−मुगल संघर्ष छिड़ गया ।
 
  
'''जाट−मुगल संघर्ष'''
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'''रणधीर सिंह (शासन सं. 1862−सं. 1879)'''
  
जाटों के गृह−कलह का लाभ मुगल सम्राट शाहआलम की ओर से वजीर मिर्जा नजफखाँ ने उठाया । उसने जाटों के क्षेत्र में अपने प्रभाव के लिए उनसे युद्ध छेड़ दिया । जिससे सं. 1831 तक जाटों के राज्य का बड़ा भाग छिन्न−भिन्न हो गया जाटों की शासन−सत्ता सीमित क्षेत्र में सिमट गई थी । उसी समय सं. 1832 में जाट सरदार नवल सिंह की मृत्यु हो गई थी  ।
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वह रणजीत सिंह के बाद जाटों का राजा हुआ रणजीत सिंह की मृत्यु सं. 1862 वि. में हुई । रणधीर उसका ज्येष्ठ पुत्र था उसके शासन काल में इस भू−भाग में कोई घटना नहीं हुई, जिसने जाट राज्य की शांति को भंग किया हो फलत: रणधीर अपने सीमित अधिकृत क्षेत्र पर बिना झगड़े−झंझट के शासन करता हुआ अपना राज्य काल पूरा कर गया । उसकी मृत्यु सं. 1879 में हुई थी ।  
==रणजीत सिंह (सं. 1832 − सं. 1862)==
 
वह नवलसिंह की मृत्यु के पश्चात् जाट राज्य का स्वामी बना । शासन सँभालते ही उसे मुगल आक्रमण का सामना करना पड़ा, जिसमें जाटों की पराजय हुई थी रणजीत के अधिकार में केवल भरतपुर का किला और उसका निकटवर्ती क्षेत्र रह गया । उसकी वार्षिक आय घट कर केवल 5 लाख रूपया रह गई ।  
 
  
'''ब्रज की दुर्दशा'''
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'''बलदेव सिंह का शासन (सं. 1879 −सं. 1882)'''
  
जाटों की पराजय से ब्रज की स्थिति संकटग्रस्त हो गई । इस समय में इस प्रदेश के सुप्रसिद्ध धार्मिक स्थलों का कोई रखवाला नहीं रहा और रूहेले सैनिक जब चाहें यहाँ आकर लूट−मार मचा देते थे ब्रज में निवास करते भक्तगण अनिच्छा पूर्वक ब्रज को छोड़ कर इधर−उधर भागते फिरते थे वृन्दावन के भक्त वृन्दावनदास उसी समय वृन्दावन से कृष्णगढ़ गये थे उन्होंने अपनी एक रचना 'श्री बेलि' में सं. 1831 के संकट का वर्णन करते हुए लिखा है−
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वह रणधीर सिंह का छोटा भाई था वह केवल 2 वर्ष तक ही शासन कर सका था उसके बाद उसकी मृत्यु हो गई थी
  
''"जमन कछू संका दई, ब्रज जन भये उदास ता समयै चलि तहाँ ते, कियों कृष्णगण पयान"''
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==परवर्ती जाट राजा==
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बलदेव सिंह के बाद उसका पुत्र बलवंत सिंह (सं. 1882−1910) भरतपुर का राजा हुआ । बलवंत सिंह के पश्चात उसका पुत्र यशवंत सिंह (सं. 1910 − सं. 1950) जाटों का राजा हुआ । उसके शासनकाल में अंग्रेज़ो के विरुद्ध सैनिक विद्रोह हुआ था, जिसमें देश की जनता ने भी आंशिक रूप से भाग लिया । जिससे अंग्रेज़ी कंपनी का अधिकार समाप्त हो गया; और इंगलेंड की महारानी विक्टोरिया ने इस देश की शासन−सत्ता अपने हाथ में ले ली
  
सं. 1814 से 1832 तक ब्रज प्रदेश पर यवन सेना ने बार−बार आक्रमण किए जिससे यह समय ब्रज के लिए भीषण संकट का रहा ब्रज जन हताश हो गये थे चाचा वृंदावनदास ने दुर्व्यवस्था का कथन करते हुए लिखा है−
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==मराठों के प्रभाव में वृद्धि==
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मुग़ल शासन के अंतिम काल में मराठों ने उत्तर भारत में प्रभाव बढ़ा लिया था । मुग़ल सम्राट शाहआलम को अपने शेष साम्राज्य की बिगड़ी शासन−व्यवस्था को ठीक करने के लिए मराठों की सहायता लेने को बाध्य होना पड़ा । उसने मराठा सरदार माधव जी सिंधिया को अपना मीर बख़्शी (मुख्य मन्त्री) और प्रधान सेनापति बना दिया उस समय भरतपुर की राजगद्दी पर जाट राजा रणजीत सिंह था माधव जी सिंधिया का प्रभाव मुग़ल सम्राट और जाट राजा दोनों पर था । उनका संक्षिप्त विवरण यह है, −
  
''जमन कि जम जातना, भुगताई इह देह अब अपने अपनाइ लेउ, बास
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==माधव जी सिंधिया==
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उसका जन्म मराठों की एक नीची जाति और निम्न परिवार में हुआ था । उसका पिता रानोजी आरंभ में पेशवा का एक साधारण सेवक था और उसके जूतों की देख−भाल करता था । उसकी स्वामिभक्ति और बुद्धिमत्ता से प्रसन्न होकर पेशवा ने उसे सेना में भर्ती कर लिया, जहाँ वह उन्नति करता हुआ सेना नायक के पद पर पहुँच गया । उसके पुत्र माधव जी ने अपनी वीरता, बुद्धिमता और नीति−निपुणता से उन्नति की और वह मराठा सेना के योग्यतम सेनानायकों में गिना जाने लगा । पानीपत के युद्ध में अन्य मराठा सरदारों की भाँति वह भी सम्मिलित था और शत्रुओं से लड़ता हुआ घायल हो गया था । उसके बाद उत्तर भारत में आश्चर्यजनक रूप से मराठा शक्ति के विस्तार का श्रेय जिन्हें है उनमें माधव जी का नाम सबसे पहले लिया जाता है ।
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दिल्ली दरबार के वजीर मिर्जा नजफ़ख़ाँ की सं. 1839 में मृत्यु होने के बाद मुग़ल साम्राज्य में अव्यवस्था फैल गई, जिसे दूर करने के लिए तत्कालीन मुग़ल सम्राट शाहआलम ने माधव जी सिंधिया को अपना मुख्यमन्त्री (मीर बख़्शी) बनाया । पेशवा की ओर से उत्तर भारत में जो मराठा सेना थी, उसके सेनापतियों में माधव जी ही सबसे अधिक योग्य था । उसने मुग़ल साम्राज्य की अव्यवस्था दूर कर मुग़ल दरबार के उपद्रवी रूहेले सरदारों को दबा दिया और जयपुर राज्य से बक़ाया कर वसूल किया । फिर [[डीग]], [[आगरा]], [[अलीगढ़]], [[मथुरा]] आदि प्रमुख स्थानों पर अधिकार कर अपनी योग्यता, शक्ति और सत्ता की धाक जमा दी । वह मुग़ल साम्राज्य का मुख्यमन्त्री होने के साथ ही साथ प्रधान सेनापति और सम्राट का संरक्षक (वकीले मुत्लक़) भी था । इसलिए वह सम्राट् शाहआलम के नाम पर शासन करने लगा । उसके कारण मराठों का प्रभाव उत्तर भारत में बहुत बढ़ गया और मराठों की भगवा पताका दिल्ली के लाल किले पर फहराने लगी ।
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सं. 1844 में माधव जी को अपनी सेना के पुनर्गठन के लिए मालवा जाना पड़ा । उसकी अनुपस्थिति में ग़ुलाम क़ादिर रूहेला ने दिल्ली पर और इस्मायल बेग ने आगरा पर अधिकार कर लिया । उन दोनों यवन तानाशाहों ने दिल्ली और ब्रज में अत्याचार करना आरंभ कर दिया था । ग़ुलाम क़ादिर ने शाहआलम, उसकी बेगमों और परिवार वालों पर ऐसे अत्याचार किये, जो मुग़ल सम्राटों में से किसी को कभी सहन नहीं करने पड़े थे । उसने बादशाह की आँखे निकलवा कर उसे अंधा कर दिया और उसकी स्त्रियों को बेइज्ज़ती की । उस समय अंधे बादशाह ने माधव जी पास ख़बर भेजी कि वह उसकी दयनीय दशा में सहायता करने को शीघ्र ही दिल्ली आये । उसने माधव जी को अपने प्रिय पुत्र की तरह संबोधन करते हुए (माधौ जी सिंधिया फ़र्ज़न्दे जिगरबंदे मनअस्त) एक मार्मिक कविता लिखी थी ।<ref> उसमें कहा गया था−"मेरे राज्य को दु:ख की आँधी ने छिन्न−भिन्न कर दिया है । जो राज्य सूर्य की तरह प्रकशित था, उसे ग़ुलाम कादिर ने तिमिरावृत कर दिया । अल्लाह मदद करे, मेरा प्रिय पुत्र माधव जी सिंधिया मेरी अवश्य रक्षा करेगा और मेरे अपमान का बदला लेगा "</ref>
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बादशाह की पुकार सुन माधव जी ने रानाख़ाँ और जिब्बादादा के नेतृत्व में एक शक्तिशाली मराठा सेना दिल्ली भेजी, जिसने ग़ुलाम क़ादिर को हराकर उसे दिल्ली से भागने के लिए बाध्य किया । सं. 1845 में मराठों का अधिकार पुन: दिल्ली के क़िले और नगर पर हो गया । उस समय माधव जी भी वहाँ पहुँच गया । दिल्ली से भागते हुए ग़ुलाम क़ादिर को मराठा सेना ने मेरठ के पास पकड़ लिया और उसे मथुरा में माधवजी के सन्मुख उपस्थित किया । शाहआलम ने माधव जी से आग्रह किया कि ग़ुलाम क़ादिर के साथ भी वही सलूक किया जावे जो उसने मेरे साथ किया था और फिर उसे क़त्ल कर दिया जाए । बादशाह की इच्छानुसार ग़ुलाम क़ादिर की दंड स्वरूप आँखे निकलवाई गई और फिर उसे मार दिया गया । माधव जी सफलता और उसके प्रभाव के कारण कुछ मराठा सरदार भी उससे ईर्ष्या करने लगे थे । होलकर उसका सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी और विरोधी था । पेशवा के दरबार में भी उसके विरुद्ध षड्यंत्र होने लगा था । इन समस्याओं के समाधान के लिए माधव जी का पूना जाना आवश्यक हो गया । वहाँ पहुँच कर उसने पेशवा के समक्ष उसी प्रकार दीनता प्रदर्शित की, जिस प्रकार उसके पूर्वज किया करते थे; किंतु उसका पूना दरबार पर कोई  प्रभाव नहीं पड़ा था । सं. 1851 (12 फरवरी सन् 1795) में माधव जी का देहांत हो गया ।
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'''माधव जी की देन'''
  
काँपत कपिला गाय ज्यों, कहत मरत हौं लाज। कलि केहरि ते अब करौ, रच्छा सुरच्छा आज।''
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माधव जी सिंधिया एक युगांतरकारी पुरुष थे । उनकी वीरता, नीतिज्ञता और दूरदर्शिता अनुपम थी । उन्होंने अपने पुरुषार्थ से मराठों की पताका दिल्ली के किले पर फहराई और उत्तर भारत में मराठों की शक्ति, सत्ता और प्रभुता को चरम सीमा पर पहुँचा दिया था । उनकी ब्रज को देन भी बड़ी महत्वपूर्ण थी । जाट राज्य का ह्रास होने से [[ब्रज]] में जो भीषण संकट पैदा हुआ था, वह माधव जी के कारण दूर हो गया था
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रणजीत सिंह के शासन काल की पराजयों से ब्रज में घोर संकट था । उस समय ब्रजवासी भक्त ब्रज को छोड़ कर इधर−उधर भटक रहे थे । चाचा वृंदावनदास उस समय में कृष्णगढ़ में ही थे । सं. 1835 में उन्होंने अपनी 'आरती पत्रिका' कृष्णगढ़ में ही लिखी थी । उसमें अपनी मनोदशा का वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा :−
 
"एक धाम बिछुर जु दुख दूबर है जु शरीर । तीजै निर अपराध दुख देत नीरज ।
 
ब्रज की दुर्दशा करने वाले और जाटों के प्रबल शत्रु मुगल नजफखाँ की मृत्यु सं. 1839 में हो गई थी ।
 
==ब्रज की अव्यवस्था में अंगरेजों की सैनिक हलचलें==
 
माधवजी सिंधिया की मृत्यु के बाद ही मराठा राज्य के शासक पेशवा और अहिल्याबाई होलकर का देहावसान हुआ था । उन सबके  अभाव में मराठों की शक्ति डगमगाने लगी और उनकी शासननीति में अनेक उलट−फेर होने लगे माधव जी का उत्तराधिकारी दौलतराव सिंधिया हुआ तथा अहिल्याबाई का उत्तराधिकारी तुकोजीराव और उनकी मृत्यु होने पर यशवंतराव होलकर हुआ । उत्तर भारत में सत्ता को लेकर सिधिंया और होलकर में निरंतर संघर्ष होने लगा । मराठा,  जाट और मुसलमानों में भी नित्य झगड़े होने लगे । इस सिद्धांतहीन संघर्ष के कारण ब्रजंमडल और उसके आसपास अव्यवस्था फैल गई थी जिसका लाभ अंगरेजों ने उठा कर ब्रजमंडल में अपनी सैनिक हलचलों से झकझोर दिया ।  
 
==जाट−अंगरेज युद्ध==
 
सं. 1860 में अंगरेजी सेना ने दौलतराव सिंधिया के विरूद्ध सफल अभियान करके मथुरा पर अधिकार कर लिया । उधर जनरल लेक की कमान यशवंतराव होलकर का पीछा कर रही थी । होलकर ने भाग कर भरतपुर में शरण ली । उस समय भरतपुर में जाट राजा रणजीत सिंह का शासन था । जनरल लेक ने भरतपुर नरेश से माँग की कि वह होलकर को अंगरेजों के सुपुर्द कर दे । रणजीत सिंह ने इस माँग को स्वीकार नहीं किया । अंगरेजों ने भरतपुर पर आक्रमण कर दिया ।  जाटों ने बहुत वीरता से अंगरेजी सेना का मुकाबला किया कि उसे पीछे हटना पड़ा । जनरल लेक जैसे वीर सेनापति की अध्यक्षता में अंगरेजों ने चार बार भरतपुर पर आक्रमण किया  किंतु हर बार उन्हें मुँह की खानी पड़ी । इससे भरतपुर किले की अजेयता, जाटों की वीरता और रणजीत सिंह की प्रबंध−कुशलता की सर्वत्र ख्याति हो गई  । रणजीत सिंह की पराजयों के कारण जाटों की जो अप्रतिष्ठा हुई थी, वह अंगरेजों से सफलतापूर्वक युद्ध करने के कारण दूर हो गई । जाट राज्य के इतिहास में सूरजमल और जवाहरसिंह द्वारा दिल्ली में की गई लूट की भाँति रणजीत सिंह द्वारा अंगरेजों से सफल संघर्ष करने की घटना भी बड़ी प्रसिद्ध है ब्रज के अनेक कवियों और लोक गायकों ने भरतपुर पर अंगरेजों की चढ़ाई, जाटों की वीरता और अंगरेजों की पराजय का अत्यंत ओजपूर्ण वर्णन किया है । -
 
# चढ़े फिरंगी भयौ भारत भरतपुर में, तोपन तरपि कै, हलान पै हलान की । काली करी तृपत ,फिरंगी सो कुरंगी भए,एक हू कला न चली ,पथरकलान की ॥  '''(­प्रेमकवि)'''
 
# मच्यौ घमासान, कोस तीन लगि लोथ परीं,  मर गये सूर साँचे मौहरा अगाह तें । कहै 'जसराम' अंगरेज जंग हार गये, जीते जदुवंशी सूर, लड़त उछाह तें ॥  '''(जसराम)'''
 
# तेरे तेज तत्ता तें, चकत्ता में रही न सत्ता, लत्ता से उड़ाये, सब गोरे कलकत्ता के ।।    '''(भागमल्ल)'''
 
# फिरका फिरंगिन के फारिकै फतूह करे, जीत के नगारे रनजीत के बजत हैं ।        '''(गंगाधर)'''
 
# भेजौ फोरि पटक−पछार खात खंभन सों, लेडी अंगरेजन की रोंवे कलकत्ता में।        ''' (प्रसिद्ध कवि)'''
 
  
रणधीर सिंह (शासन सं. 1862−सं. 1879) :− वह रणजीत सिंह के बाद जाटों का राजा हुआ । रणजीत सिंह की मृत्यु सं. 1862 वि. में हुई । रणधीर उसका ज्येष्ठ पुत्र था । उसके शासन काल में इस भू−भाग में कोई घटना नहीं हुई, जिसने जाट राज्य की शांति को भंग किया हो । फलत रणधीर अपने सीमित अधिकृत क्षेत्र पर बिना झगड़े−झंझट के शासन करता हुआ अपना राज्य काल पूरा कर गया । उसकी मृत्यु सं. 1879 में हुई थी ।
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'''हिम्मतबहादुर'''
  
जाट राजाओं का वंशवृक्ष
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वह माधव जी सिंधिया का समकालीन एक नागा गुंसाईं था और एक वीर, साहसी एवं कुशल सेनानायक के रूप में प्रसिद्ध था । उसके अधिकार में नागा सन्यासियों की सशस्त्र सेना थी, जिनके द्वारा वह उस समय की राजनैतिक हलचलों में सक्रिय भाग लेता था । ब्रज की तत्कालीन राजनीति से उसका घनिष्ठ सम्बन्ध रहा था, अत: उसका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है । वह कुलपहाड़ का निवासी ब्राह्मण था और बचपन में ही सन्यासी होकर राजेन्द्र गिरि का शिष्य हो गया था । तब उसका नाम अनूपगिरि रखा गया था । उसकी रूचि सैनिक कार्यों में अधिक थी, अत: वह लखनऊ के नवाब शुजाउद्दौला की घुड़सवार सेना में भर्ती हो गया था । वहाँ उसने वीरता में बड़ा नाम पैदा किया, जिसके कारण नवाब ने उसे 'हिम्मतबहादुर' की पदवी और जागीर प्रदान की थी । बाद में वह अनूपगिरि के बजाय हिम्मतबहादुर के नाम से ही प्रसिद्ध हुआ । उसने युद्ध को अपनी जीविका का साधन बनाया । उसे जिस व्यक्ति से धन मिलता, उसी के पक्ष में वह सेना लेकर युद्ध करता था । इस प्रकार उसने अवध के नवाब, बुंदेलखंड के राजा, दिल्ली के मुग़ल सम्राट मराठों और अंग्रेज़ सभी के पक्ष में अनेक युद्ध किये थे । इस संबंध में उसका न कोई सिद्धांत था और न कोई नीति । उसने रुपये के लिए विदेशी मुसलमान और अंग्रेज़ आक्रमणकारियों का साथ दिया था ।
#बदन सिंह (सं. 1776 − 1812
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# सूरजमल (सं. 1812−20) प्रताप सिंह शोभराम वीरनारायण
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अपने समय में उसकी वीरता की धाक थी । मुग़ल दरबार का साथ देकर उसने माधव जी सिंधिया को नीचा दिखाना चाहा था, किंतु उसमें वह सफल नहीं हुआ । वह माधव जी को सदा परेशान करता था । माधव जी ने उसकी जागीर का बड़ा भाग छीन लिया था और उसके अधिकार में केवल [[माँट]] और [[वृन्दावन]] की जागीरें रहने दी थीं । वृन्दावन में राजाओं की भाँति बड़ी शान से रहता था और माधव जी से शत्रुता रखने के कारण सदैव उनके विरुद्ध चालें चला करता था । उसने सैनिक दाँव−पेच और कूटनीति के अतिरिक्त मन्त्र−तंत्र का प्रयोग भी किया था । वह कुशल सेनानी एवं कूटनीतिज्ञ होने के साथ ही साथ कवि, काव्य−प्रेमी और कवियों का आश्रयदाता था । ब्रजभाषा के सुप्रसिद्ध कवि 'पद्माकर' ने उसी के आश्रय में अपने एक मात्र वीर काव्य 'हिम्मतबहादुर विरूदावली' की रचना की थी । हिम्मत बहादुर का  देहान्त सं. 1861 में हुआ था ।
# जवाहर सिंह
 
#रतन सिह(सं. 1820−25)
 
# नवल सिंह(सं. 1825−26)               
 
#केहरी सिंह (सं. 1826−34)
 
#रणजीत सिंह नाहर सिंह(1835−62)
 
#रणधीर सिंह (सं. 1862−76)
 
#बलदेव सिंह हरिदेव सिंह लक्षमण सिंह(सं 1879−81)
 
# बलबंत सिंह (सं. 1882−1910)
 
# यशवंत सिंह (सं. 1910−1950)
 
# रामसिंह (सं. 1950−1957)
 
# कृष्ण सिंह (सं. 1957 − 1985)
 
# ब्रजेन्द्र सिंह (सं. 1985 − 2004)'''(ब्रज का सांस्कृतिक इतिहास (प्रथम संस्करण )'''पृष्ठ 505 - 533 पर आधारित )
 
 
 
बलदेव सिंह का शासन (सं. 1879 −सं. 1882) :− वह रणधीर सिंह का छोटा भाई था । वह केवल 2 वर्ष तक ही शासन कर सका था । उसके बाद उसकी मृत्यु हो गई थी ।
 
परवर्ती जाट राजा − बलदेव सिंह के बाद उसका पुत्र बलवंत सिंह (सं. 1882−1910) भरतपुर का राजा हुआ । बलवंत सिंह के पश्चात् उसका पुत्र यशवंत सिंह (सं. 1910 − सं. 1950) जाटों का राजा हुआ । उसके शासनकाल में अंग्रेजो के विरूद्ध सैनिक विद्रोह हुआ था, जिसमें देश की जनता ने भी आंशिक रूप से भाग लिया । जिससे अंग्रेजी कंपनी का अधिकार समाप्त हो गया; और इंगलेंड की महारानी विक्टोरिया ने इस देश की शासन−सत्ता अपने हाथ में ले ली ।
 
मराठों के प्रभाव में वृद्धि : − मुगल शासन के अंतिम काल में मराठों ने उत्तर भारत में प्रभाव बढ़ा लिया था । मुगल सम्राट शाहआलम को अपने शेष साम्राज्य की बिगड़ी शासन−व्यवस्था को ठीक करने के लिए मराठों की सहायता लेने को बाध्य होना पड़ा । उसने मराठा सरदार माधव जी सिंधिया को अपना मीर बख्शी (मुख्य मंत्री) और प्रधान सेनापति बना दिया । उस समय भरतपुर की राजगद्दी पर जाट राजा रणजीत सिंह था । माधव जी सिंधिया का प्रभाव मुगल सम्राट और जाट राजा दोनों पर था । उनका संक्षिप्त विवरण यह है, −
 
माधव जी सिंधिया:− उसका जन्म मराठों की एक नीची जाति और निम्न परिवार में हुआ था । उसका पिता रानोजी आरंभ में पेशवा का एक साधारण सेवक था और उसके जूतों की देख−भाल करता था । उसकी स्वामिभक्ति और बुद्धिमत्ता से प्रसन्न होकर पेशवा ने उसे सेना में भर्ती कर लिया, जहाँ वह उन्नति करता हुआ सेना नायक के पद पर पहुँच गया । उसके पुत्र माधव जी ने अपनी वीरता, बुद्धिमता और नीति−निपुणता से उन्नति की और वह मराठा सेना के योग्यतम सेनानायकों में गिना जाने लगा । पानीपत के युद्ध में अन्य मराठा सरदारों की भाँति वह भी सम्मिलित था और शत्रुओं से लड़ता हुआ घायल हो गया था । उसके बाद उत्तर भारत में आश्चर्यजनक रूप से मराठा शक्ति के विस्तार का श्रेय जिन्हें है उनमें माधव जी का नाम सबसे पहिले लिया जाता है ।
 
दिल्ली दरबार के वजीर मिर्जा नजफखाँ की सं. 1839 में मृत्यु होने के बाद मुगल साम्राज्य में अव्यवस्था फैल गई, जिसे दूर करने के लिए तत्कालीन मुगल सम्राट शाहआलम ने माधव जी सिंधिया को अपना मुख्यमंत्री (मीर बख्शी) बनाया । पेशवा की ओर से उत्तर भारत में जो मराठा सेना थी, उसके सेनापतियों में माधव जी ही सबसे अधिक योग्य था । उसने मुगल साम्राज्य की अव्यवस्था दूर कर मुगल दरबार के उपद्रवी रूहेले सरदारों को दबा दिया और जयपुर राज्य से बकाया कर वसूल किया । फिर डीग, आगरा, अलीगढ़, मथुरा आदि प्रमुख स्थानों पर अधिकार कर अपनी योग्यता, शक्ति और सत्ता की धाक जमा दी । वह मुगल साम्राज्य का मुख्यमंत्री होने के साथ ही साथ प्रधान सेनापति और सम्राट का संरक्षक (वकील मुत्तलक) भी था । इसलिए वह सम्राट् शाहआलम के नाम पर शासन करने लगा । उसके कारण मराठों का प्रभाव उत्तर भारत में बहुत बढ़ गया और मराठों की भगवा पताका दिल्ली के लाल किले पर फहराने लगी ।
 
सं. 1844 में माधव जी को अपनी सेना के पुनर्गठन के लिए मालवा जाना पड़ा । उसकी अनुपस्थिति में गुलाम कादिर रूहेला ने दिल्ली पर और इस्मायल बेग ने आगरा पर अधिकार कर लिया । उन दोनों यवन तानाशाहों ने दिल्ली और ब्रज में अत्याचार करना आरंभ कर दिया था । गुलाम कादिर ने शाहआलम, उसकी बेगमों और परिवार वालों पर ऐसे अत्याचार किये, जो मुगल सम्राटों में से किसी को कभी सहन नहीं करने पड़े थे । उसने बादशाह की आँखे निकलवा कर उसे अंधा कर दिया और उसकी स्त्रियों को बेइज्जती की । उस समय अंधे बादशाह ने माधव जी पास खबर भेजी कि वह उसकी दयनीय दशा में सहायता करने को शीघ्र ही दिल्ली आये । उसने माधव जी को अपने प्रिय पुत्र की तरह संबोधन करते हुए (माधौ जी सिंधिया फर्जन्दे जिगरबंदे मनअस्त) एक मार्मिक कविता लिखी थी । उसमें कहा गया था−"मेरे राज्य को दु:ख की आँधी ने छिन्न−भिन्न कर दिया है । जो राज्य सूर्य की तरह प्रकशित था, उसे गुलाम कादिर ने तिमिरावृत कर दिया । अल्लाह मदद करे, मेरा प्रिय पुत्र माधव जी सिंधिया मेरी अवश्य रक्षा करेगा और मेरे अपमान का बदला लेगा ।"
 
बादशाह की पुकार सुन माधव जी ने रानाखाँ और जिब्बादादा के नेतृत्व में एक शक्तिशाली मराठा सेना दिल्ली भेजी, जिसने गुलामकादिर को हराकर उसे दिल्ली से भागने के लिए बाध्य किया । सं. 1845 में मराठों का अधिकार पुन: दिल्ली के किले और नगर पर हो गया । उस समय माधव जी भी वहाँ पहुँच गया । दिल्ली से भागते हुए गुलामकादिर को मराठा सेना ने मेरठ के पास पकड़ लिया और उसे मथुरा में माधवजी के सन्मुख उपस्थित किया । शाहआलम ने माधव जी से आग्रह किया कि गुलामकादिर के साथ भी वही सलूक किया जावे जो उसने मेरे साथ किया था और फिर उसे कत्ल कर दिया जाए । बादशाह की इच्छानुसार गुलामकादिर की दंड स्वरूप आँखे निकलवाई गई और फिर उसे मार दिया गया ।
 
माधव जी सफलता और उसके प्रभाव के कारण कुछ मराठा सरदार भी उससे ईर्ष्या करने लगे थे । होलकर उसका सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी और विरोधी था । पेशवा के दरबार में भी उसके विरूद्ध षड्यंत्र होने लगा था । इन समस्याओं के समाधान के लिए माधव जी का पूना जाना आवश्यक हो गया । वहाँ पहुँच कर उसने पेशवा के समक्ष उसी प्रकार दीनता प्रदर्शित की, जिस प्रकार उसके पूर्वज किया करते थे; किंतु उसका पूना दरबार पर कोई  प्रभाव नहीं पड़ा था । सं. 1851 (12 फरवरी सन् 1795) में माधव जी का देहांत हो गया ।
 
माधव जी की देन ;− माधव जी सिंधिया एक युगांतरकारी पुरूष थे । उनकी वीरता, नीतिज्ञता और दूरदर्शिता अनुपम थी । उन्होंने अपने पुरूषार्थ से मराठों की पताका दिल्ली के किले पर फहराई और उत्तर भारत में मराठों की शक्ति, सत्ता और प्रभुता को चरम सीमा पर पहुँचा दिया था । उनकी ब्रज को देन भी बड़ी महत्वपूर्ण थी । जाट राज्य का ह्रास होने से ब्रज में जो भीषण संकट पैदा हुआ था, वह माधव जी के कारण दूर हो गया था ।
 
हिम्मतबहादुर :− वह माधव जी सिंधिया का समकालीन एक नागा गुंसाईं था और एक वीर, साहसी एवं कुशल सेनानायक के रूप में प्रसिद्ध था । उसके अधिकार में नागा सन्यासियों की सशस्त्र सेना थी, जिनके द्वारा वह उस समय की राजनैतिक हलचलों में सक्रिय भाग लेता था । ब्रज की तत्कालीन राजनीति से उसका घनिष्ठ सम्बन्ध रहा था, अत: उसका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है । वह कुलपहाड़ का निवासी ब्राह्मण था और बचपन में ही सन्यासी होकर राजेन्द्र गिरि का शिष्य हो गया था । तब उसका नाम अनूपगिरि रखा गया था । उसकी रूचि सैनिक कार्यों में अधिक थी, अत: वह लखनऊ के नवाब शुजाउद्दौला की घुड़सवार सेना में भर्ती हो गया था । वहाँ उसने वीरता में बड़ा नाम पैदा किया, जिसके कारण नवाब ने उसे 'हिम्मतबहादुर' की पदवी और जागीर प्रदान की थी । बाद में वह अनूपगिरि के बजाय हिम्मतबहादुर के नाम से ही प्रसिद्ध हुआ । उसने युद्ध को अपनी जीविका का साधन बनाया । उसे जिस व्यक्ति से धन मिलता, उसी के पक्ष में वह सेना लेकर युद्ध करता था । इस प्रकार उसने अवध के नवाब, बुंदेलखंड के राजा, दिल्ली के मुगल सम्राट मराठों और अंग्रेज सभी के पक्ष में अनेक युद्ध किये थे । इस संबंध में उसका न कोई सिद्धांत था और न कोई नीति । उसने रूपये के लिए मुसलमान और अंग्रेज विदेशी आक्रमणकारियों का साथ दिया था ।  
 
अपने समय में उसकी वीरता की धाक थी । मुगल दरबार का साथ देकर उसने माधव जी सिंधिया को नीचा दिखाना चाहा था, किंतु उसमें वह सफल नहीं हुआ । वह माधव जी को सदा परेशान करता था । माधव जी ने उसकी जागीर का बड़ा भाग छीन लिया था और उसके अधिकार में केवल मोंठ और वृंदावन की जागीरें रहने दी थीं । वृन्दावन में राजाओं की भाँति बड़ी शान से रहता था और माधव जी से शत्रुता रखने के कारण सदैव उनके विरूद्ध चालें चला करता था । उसने सैनिक दाँव−पेच और कूटनीति के अतिरिक्त मंत्र−तंत्र का प्रयोग भी किया था ।  
 
वह कुशल सेनानी एवं कूटनीतिज्ञ होने के साथ ही साथ कवि, काव्य−प्रेमी और कवियों का आश्रयदाता था । ब्रजभाषा के सुप्रसिद्ध कवि 'पद्माकर' ने उसी के आश्रय में अपने एक मात्र वीर काव्य 'हिम्मतबहादुर विरूदावली' की रचना की थी । हिम्मत बहादुर का  देहान्त सं. 1861 में हुआ था
 
अली बहादुर:− उस काल में पेशवा की ओर से उत्तर भारत में जो मराठा सेना थी, उसका एक सेनानायक अलीबहादुर नामक मराठा था । वह बाजीराव पेशवा की मुस्लिम उपपत्नी मस्तानी का पौत्र था । पेशवा का वंशज होने से मराठा राज्य में उसका प्रभाव था और उसकी गणना बड़े सरदारों में होती थी । पेशवा ने अलीबहादुर को आदेश दिया था कि वह उत्तर भारत में मराठों की शक्ति का विस्तार करे, किंतु उसमें उसे आंशिक सफलता ही मिली थी
 
  
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'''अली बहादुर'''
  
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उस काल में पेशवा की ओर से उत्तर भारत में जो मराठा सेना थी, उसका एक सेनानायक अलीबहादुर नामक मराठा था । वह बाजीराव पेशवा की मुस्लिम उपपत्नी मस्तानी का पौत्र था । पेशवा का वंशज होने से मराठा राज्य में उसका प्रभाव था और उसकी गणना बड़े सरदारों में होती थी । पेशवा ने अलीबहादुर को आदेश दिया था कि वह उत्तर भारत में मराठों की शक्ति का विस्तार करे, किंतु उसमें उसे आंशिक सफलता ही मिली थी ।
  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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<references/>
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==सम्बंधित लिंक==
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{{History3}}
  
==टीका-टिप्पणी==
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[[Category:आधुनिक इतिहास]]
<references/>
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__INDEX__

१०:०८, २७ अक्टूबर २०११ के समय का अवतरण

जाट−मराठा काल / Jat - Maratha

(सन 1748 से सन 1826 तक)

जाट−मराठा शक्तियाँ

मुग़ल सल्तनत के आख़री समय में जो शक्तियाँ उभरी; जिन्होंने ब्रज मंडल के इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, उन जाट और मराठा सरदारों के नाम इतिहास में बहुत मशहूर हैं। जाटों का इतिहास पुराना है। जाट मुख्यतः खेती करने वाली जाति है; लेकिन औरंगज़ेब के अत्याचारों और निरंकुश प्रवृति ने उन्हें एक बड़ी सैन्य शक्ति का रूप दे दिया। उधर मराठों ने छत्रपति शिवाजी के नेतृत्व में औरगंज़ब को भीषण चुनौती दी और सफलता भी प्राप्त की जिससे मराठा भी उत्तर भारत में मशहूर हुए। कुछ समय के बाद पेशवाओं और उनके सैनिक सरदारों इतने शक्तिशाली हो गये कि उन्हें पूरे भारत में जाना जाने लगा। मुग़लिया सल्तनत के अन्त से अंगेज़ों के शासन तक ब्रज मंडल में जाटों और मराठाओं का प्रभुत्व रहा । इन्होंने ब्रज के राजनैतिक और सामाजिक जीवन को बहुत प्रभावित किया। यह समय ब्रज के इतिहास में 'जाट−मराठा काल' के नाम से जाना जाता है । इस काल का विशेष महत्व है ।

राजनीति में जाटों का प्रभाव

ब्रज की समकालीन राजनीति में जाट शक्तिशाली बन कर उभरे । जाट नेताओं ने इस समय में ब्रज में अनेक जगहों पर, जैसे सिनसिनी, डीग, भरतपुर, मुरसान और हाथरस जैसे कई राज्यों को स्थापित किया । इन राजाओं में डीग−भरतपुर के राजा महत्वपूर्ण हैं । इन राजाओं ने ब्रज का गौरव बढ़ाया, इन्हें 'ब्रजेन्द्र' अथवा 'ब्रजराज' भी कहा गया । ब्रज के इतिहास में कृष्ण के पश्चात जिन कुछ हिन्दू राजाओं ने शासन किया , उनमें डीग और भरतपुर के राजा विशेष थे । इन राजाओं ने लगभग सौ सालों तक ब्रजमंडल के एक बड़े भाग पर राज्य किया । इन जाट शासकों में महाराजा सूरजमल (शासनकाल सन् 1755 से सन् 1763 तक )और उनके पुत्र जवाहर सिंह (शासन काल सन् 1763 से सन् 1768 तक ) ब्रज के इतिहास में बहुत प्रसिद्ध हैं ।

जाटों के क्रियाकलाप

जाट राजाओं ने ब्रज में हिन्दू शासन को स्थापित किया । इनकी राजधानी पहले डीग थी, फिर भरतपुर बनायी गयी । महाराजा सूरजमल और उनके बेटे जवाहर सिंह के समय में जाट राज्य बहुत फैला, लेकिन धीरे धीरे वह घटता गया । भरतपुर, मथुरा और उसके आसपास अंगेज़ों के शासन से पहले जाट बहुत प्रभावशाली थे और अपने राज्य के सम्पन्न स्वामी थे । वे कर और लगान वसूलते थे और अपने सिक्के चलाते थे । उनकी टकसाल डीग, भरतपुर, मथुरा और वृन्दावन के अतिरिक्त आगरा और इटावा में भी थीं । जाट राजाओं के सिक्के अंगेज़ों के शासन काल में भी भरतपुर राज्य के अलावा मथुरा मंडल में प्रचलित थे ।

जाट राज्य की नींव

मुग़लों के आख़री समय में जाट सरकारी ख़ज़ाना और शस्त्रों का भंडार लूट लेते थे । जाटों के नेताओं में नंदराम, गोकुल सिंह और राजाराम विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं । राजाराम के कार्य विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं ।

राजाराम का विद्रोह

सन् 1685 में जाटों की बग़ावत का नायक 'सिनसिनी' का राजाराम था । सिनसिनी ब्रज में एक छोटी सी ग्रामीण बस्ती थी, जो डीग से दक्षिण में और भरतपुर से 13 मील उत्तर पश्चिम में आज भी है । वहाँ जाटों की 'गढ़ी' नाम से एक सैनिक छावनी थी । यह गढ़ी भरतपुर के जाट राजाओं के पूर्वजों की थी । इस राजघराने को 'सिनसिनी वार' के नाम से जाना जाता है । राजाराम की गतिविधियाँ सिनसिनी से धौलपुर और मथुरा से आमेर राज्य थी । इन जगहों पर मुग़ल प्रभावशाली नहीं थे । यहाँ जाटों के दल लूटमार करते थे । औरंगज़ेब इस समय दक्षिण के युद्ध में व्यस्त था । वह जाटों की गतिविधियों से बहुत परेशान था । वह इस विद्रोह को ख़त्म करने की आज्ञा देता था ; किंतु उसके सेनानायक नाक़ाम रहे ।

चूड़ामन का संगठन

चूड़ामन, जो नेतृत्व में बहुत ही कुशल था, राजाराम के बाद जाटों का नेता बना । उसने जाटों को संगठित किया और जाट राज्य की नींव डाली । इसका फ़ायदा बदनसिंह नामक जाट सरदार को हुआ, जिसने पूरी तरह से जाट राज्य को स्थापित किया ।

जाट राज्य के संस्थापक बदन सिंह

चूड़ामन के भतीजे का नाम बदन सिंह था । आपसी कलह की वजह से उसे जेल में डाल दिया था । तभी मुग़ल शासक मुहम्मदशाह ने आमेर के सवाई राजा जयसिंह को आगरा का सूबेदार बनाकर जाटों की बग़ावत पर काबू करने का हुक्म दिया । सवाई राजा जयसिंह ने जाटों के ख़िलाफ़ लड़ाई छेड़ दी । इसी समय बदनसिंह जेल से निकल कर भाग गया । बदन सिंह राजा जयसिंह से मिला । उसने जयसिंह से संधि की । इसके बाद सन् 1719 में बदन सिंह को सर्वसम्मति से नेता मान लिया गया । बदनसिंह में कुशल नेतृत्व और राजप्रबन्ध के सभी गुण थे । वह वीर, कुशल सेनापति और व्यवहार कुशल राजनीतिज्ञ और योग्य शासक था । उसने थूण और सिनसिनी के पुराने क़िलों को छोड़ सारा ध्यान डीग और कुम्हेर के जाट बहुल क्षेत्र पर लगाकर अपने अधिकार में ले लिया और मज़बूत क़िलों को निर्मित किया । जनता उसे ठाकुर कहने लगी । बदनसिंह ने सन् 1719−1723 तक शासन की नींव रख डीग को अपनी राजधानी बनाया । उसने मुग़ल शासक मुहम्मदशाह और उसके सबसे प्रभावशाली नायक जयसिंह से बहुत ही अच्छे संबंध बनाये और अपने राज्य को सुरक्षित कर लिया । बदनसिंह ने सन् 1719 से सन् 1755 तक 33 वर्षों तक राज्य किया । इसके बाद उसने अपने बड़े बेटे सूरजमल( सुजानसिंह )को सत्ता सौंप दी और छोटे बेटे प्रतापसिंह को वयर का क़िला और जागीर दी । बदनसिंह ने अपना आख़री समय ब्रज के 'सहार' में साहित्यक परिचर्चा और काव्य रचना करते हुए बिताया । बदनसिंह योग्य प्रशासक होने के साथ ही साहित्य और कला का प्रेमी था । उसने कला और साहित्य को प्रोत्साहित किया । उसके राज्य में कवियों को शासन की ओर से आश्रय प्राप्त था । उसके द्वारा रचित कुछ छंद प्राप्य हैं । उसका निधन सन् 1755 की ज्येष्ठ शु. 10 को हो गया था । उसके बाद उसका बड़ा बेटा सूरजमल जाटों का शासक बना ।

राजा सूरजमल (सन् 1755−1763 )

राजा सूरजमल सुयोग्य शासक था । उसने ब्रज में एक स्वतंत्र हिन्दू राज्य को बना इतिहास में गौरव प्राप्त किया । उसके शासन का समय सन् 1755 से सन् 1763 है । वह सन् 1755 से कई साल पहले से अपने पिता बदनसिंह के शासन के समय से ही वह राजकार्य सम्भालता था । राजा सूरजमल के दरबारी कवि 'सूदन' ने राजा की तारीफ़ में 'सुजानचरित्र' नामक ग्रंथ लिखा । इस ग्रंथ में सूदन ने राजा सूरजमल द्वारा लड़ी लड़ाइयों का आँखों देखा वर्णन किया है । इस ग्रन्थ में सन् 1745 से सन् 1753 तक के समय में लड़ी गयी लड़ाईयों (7 युद्धों )का वर्णन है । इन लड़ाइयों में सूदन ने भी भाग लिया था, इसलिए उसका वर्णन विश्वसनीय कहा जा सकता है । इस ग्रंथ में आमेर के राजा जयसिंह के निधन के बाद उसके बड़े बेटे ईश्वरीसिंह का मराठों के ख़िलाफ़़ लड़ा गया सन् 1747 का युद्ध, आगरा और अजमेर के सूबेदार सलावत खाँ से लड़ा गया सन् 1748 का युद्ध और सन् 1753 की दिल्ली की लूट का वर्णन उल्लेखनीय है। इस ग्रंथ में सूरजमल की सन् 1753 के बाद की घटनाओं का वर्णन नहीं है । राजकवि सूदन का निधन सम्भवतः सन् 1753 के लगभग ही हो गया होगा । सम्भवतः इसी से बाद में लड़ी लड़ाइयों का विवरण नहीं मिलता है । इस पुस्तक में दिल्ली की लूट का विवरण महत्वपूर्ण है ।

सूरजमल का मूल्यांकन

ब्रज के जाट राजाओं में सूरजमल सबसे प्रसिद्ध शासक, कुशल सेनानी, साहसी योद्धा और सफल राजनीतिज्ञ था । उसने जाटों में सब से पहले राजा की पदवी धारण की थी; और एक शक्तिशाली हिन्दू राज्य का संचालन किया था । उसका राज्य विस्तृत था, जिसमें डीग−भरतपुर के अतिरिक्त मथुरा, आगरा, धौलपुर, हाथरस, अलीगढ़, एटा, मैनपुरी, गुडगाँव, रोहतक, रेवाड़ी, फर्रूखनगर और मेरठ के ज़िले थे। एक ओर यमुना में गंगा तक और दूसरी ओर चंबल तक का सारा प्रदेश उसके राज्य में सम्मिलित था । सूरजमल की सेना विशाल थी । उसमें 60 हाथी, 500 घोड़े, 1500 अश्वारोही, 25000 पैदल और 300 तोपें थीं । अपनी मृत्यु के समय उसने लगभग 10 करोड़ रुपया राजकोश में छोड़ा था ।<balloon title="(ब्रजभारती वर्ष 13 अंक 2 )" style="color:blue">*</balloon>
सूरजमल ब्रजभाषा साहित्य का प्रेमी और कवियों का आश्रयदाता था । उसके दरबार में अनेक कवि थे, जिनमें सूदन कवि का नाम प्रसिद्ध था । सूरजमल की कई रानियाँ थी; जिनमें किशोरी और हंसा प्रमुख थीं । उसके 5 पुत्र थे, जिनके नाम निन्नांकित हैं −जवाहर सिंह, रतन सिंह, नवल सिंह, रणजीत सिंह और नाहर सिंह । सूरजमल के बाद जवाहर सिंह जाटों का राजा हुआ । जाटों की आरंभिक राजधानी डीग थी ; किंतु सूरजमल ने भरतपुर के कच्चे किले को पक्का बना कर वहाँ अपनी राजधानी बनाई थी ।

जवाहर सिंह (शासन सं. 1820 से सं. 1825)

वह जाट राजा सूरजमल का प्रतापी ज्येष्ठ पुत्र था। वह अपने बाबा−दादा के सद्श्य वीर और साहसी था ; लेकिन वह उनके समान नीति−निपुण एवं विनम्र नहीं था । उसके उद्धत स्वभाव और उग्र व्यवहार से पिता सूरजमल उससे अप्रसन्न रहता था । प्रमुख जाट सरदार भी उससे असंतुष्ट रहते थे, किंतु उसकी वीरता के सभी प्रशंसक थे । सूरजमल की मृत्यु के पश्चात जब जवाहर सिंह जाटों का राजा हो गया, तब सभी जाट सरदार उसके साथ हो गये ।

पुष्कर−यात्रा और मृत्यु

जवाहर सिंह राजपूत राजाओं पर अपना रौब जमाना चाहता था । उसने जाटों की सेना के साथ पुष्कर−यात्रा के लिए प्रस्थान किया । जयपुर के राजा माधवसिंह को सूचना दिये बगैर राज्य की सीमा से होकर जाटों की पताका फहराता वह पुष्कर पहुँच गया । जयपुर की सेना का उसे रोकने का साहस नहीं हुआ; जब वह वहाँ से वापिस लौटा तब दोनों सेनाओं में युद्ध छिड़ गया । जवाहर सिंह अपनी सेना के साथ राजपूतों से वीरतापूर्वक लड़ता हुआ जयपुर की सीमा पार कर सकुशल आगरा आ गया; किंतु उसे बड़ी हानि उठानी पड़ी । इस युद्ध में राजपूतों के साथ जाटों के भी अनेक योद्धा मारे गये । तबसे जयपुर नरेश और जवाहरसिंह में कटुता और विद्वेष की वृद्धि होती रही, जिससे दोनों की शक्ति क्षीण हुई । सं. 1825 में आगरा में किसी अज्ञात सैनिक ने जवाहरसिंह का धोखे से वध कर दिया । कहा जाता है, वह एक गुप्त षड़्यंत्र था, जिसमें जयपुर नरेश का हाथ था ।

जवाहरसिंह का मूल्यांकन

जवाहरसिंह सं. 1820 से सं. 1825 तक के वर्षों तक ही भरतपुर की राजगद्दी पर रहा ; उसी समय में वह अपने अद्भुत साहस और अनुपम शौर्य से अपना नाम अमर कर गया और जाट राज्य के गौरव को भी चरम सीमा पर पहुँचा दिया था । जाट राजवंश में चूड़ामन से लेकर अब तक जो वीर पुरुष हुए थे, उनमें जवाहरसिंह किसी से कम नहीं था । यदि वीरता और साहस के साथ उसमें गंभीरता, नीतिज्ञता और व्यवहार−कुशलता भी होती तो वह ब्रज के इतिहास को एक नया मोड़ दे सकता था । किंतु उसने अपनी शक्ति को व्यर्थ के युद्धों में नष्ट कर दिया, इस कारण उसके बाद ही जाट राज्य का महत्व कम होने लगा । जवाहरसिंह साहसी योद्धा होने के साथ ही साथ साहित्य और कला का प्रेमी तथा प्रोत्साहनकर्त्ता भी था । उसके आश्रित कवियों में भूधर, रंगलाल और मोतीराम के नाम उल्लेखनीय हैं । ब्रजभाषा का विख्यात महाकवि देव अपनी वृद्धावस्था में उसके दरबार में उपस्थित हुआ था ।

जाट राज्य का ह्रास (सं. 1825 − सं. 1883)

जवाहरसिंह तक जाट राज्य की निरंतर उन्नति होती रही थी । उसके बाद उसका ह्रास आरंभ हुआ । जवाहरसिंह की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई रत्नसिंह जाटों का राजा हुआ था । वह थोड़े समय तक ही राजगद्दी पर रह सका । राजा बनने के कुछ समय बाद वह वृन्दावन गया और वहाँ रासलीला में लीन हो गया । वहाँ के गोसाई रूपानंद नाम के मायावी तांत्रिक ने अद्भुत चमत्कार दिखाकर भुलावे में डाल कर सं. 1826 वि. में मार डाला । उसकी मृत्यु भी संभवत: उसी षड्यंत्र का परिणाम थी, जिसका शिकार उसका बड़ा भाई जवाहरसिंह हुआ था ।

केहरी सिंह (शासन सं. 1826−सं. 1834)

वह रत्नसिंह के बाद जाटों का राजा हुआ था । उस समय वह कम आयु का बालक था । उसका संरक्षक होने के लिए उसके दोनों चाचा नवल सिंह और रणवीर सिंह में प्रतिद्वंद्विता होने लगी, जिससे जाट सरदार दो गुटों में बँट गये । इस गृह−कलह से जाट राज्य की बड़ी हानि हुई । उसके कुछ समय बाद जाट−मुग़ल संघर्ष छिड़ गया ।

जाट−मुग़ल संघर्ष

जाटों के गृह−कलह का लाभ मुग़ल सम्राट शाहआलम की ओर से वज़ीर मिर्जा नजफ़ख़ाँ ने उठाया । उसने जाटों के क्षेत्र में अपने प्रभाव के लिए उनसे युद्ध छेड़ दिया । जिससे सं. 1831 तक जाटों के राज्य का बड़ा भाग छिन्न−भिन्न हो गया । जाटों की शासन−सत्ता सीमित क्षेत्र में सिमट गई थी । उसी समय सं. 1832 में जाट सरदार नवल सिंह की मृत्यु हो गई थी ।

रणजीत सिंह (सं. 1832 − सं. 1862)

वह नवलसिंह की मृत्यु के पश्चात जाट राज्य का स्वामी बना । शासन सँभालते ही उसे मुग़ल आक्रमण का सामना करना पड़ा, जिसमें जाटों की पराजय हुई थी । रणजीत के अधिकार में केवल भरतपुर का क़िला और उसका निकटवर्ती क्षेत्र रह गया । उसकी वार्षिक आय घट कर केवल 5 लाख रुपया रह गई ।

ब्रज की दुर्दशा

जाटों की पराजय से ब्रज की स्थिति संकटग्रस्त हो गई । इस समय में इस प्रदेश के सुप्रसिद्ध धार्मिक स्थलों का कोई रखवाला नहीं रहा और रूहेले सैनिक जब चाहें यहाँ आकर लूट−मार मचा देते थे । ब्रज में निवास करते भक्तगण अनिच्छा पूर्वक ब्रज को छोड़ कर इधर−उधर भागते फिरते थे । वृन्दावन के भक्त वृन्दावनदास उसी समय वृन्दावन से कृष्णगढ़ गये थे । उन्होंने अपनी एक रचना 'श्री बेलि' में सं. 1831 के संकट का वर्णन करते हुए लिखा है<balloon title="जमन कछू संका दई, ब्रज जन भये उदास । ता समयै चलि तहाँ ते, कियों कृष्णगण पयान" style="color:blue">*</balloon> सं. 1814 से 1832 तक ब्रज प्रदेश पर यवन सेना ने बार−बार आक्रमण किए जिससे यह समय ब्रज के लिए भीषण संकट का रहा । ब्रज जन हताश हो गये थे । चाचा वृन्दावनदास ने दुर्व्यवस्था का कथन करते हुए लिखा है[१]
रणजीत सिंह के शासन काल की पराजयों से ब्रज में घोर संकट था । उस समय ब्रजवासी भक्त ब्रज को छोड़ कर इधर−उधर भटक रहे थे । वृन्दावनदास उस समय में कृष्णगढ़ में ही थे । सं. 1835 में उन्होंने अपनी 'आरती पत्रिका' कृष्णगढ़ में ही लिखी थी । उसमें अपनी मनोदशा का वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा<balloon title="एक धाम बिछुर जु दुख दूबर है जु शरीर । तीजै निर अपराध दुख देत नीरज । 'आरती पत्रिका'" style="color:blue">*</balloon> ब्रज की दुर्दशा करने वाले और जाटों के प्रबल शत्रु मुग़ल नजफ़ख़ाँ की मृत्यु सं. 1839 में हो गई थी ।

ब्रज की अव्यवस्था में अंगरेजों की सैनिक हलचलें

माधवजी सिंधिया की मृत्यु के बाद ही मराठा राज्य के शासक पेशवा और अहिल्याबाई होलकर का देहावसान हुआ था । उन सबके अभाव में मराठों की शक्ति डगमगाने लगी और उनकी शासननीति में अनेक उलट−फेर होने लगे । माधव जी का उत्तराधिकारी दौलतराव सिंधिया हुआ तथा अहिल्याबाई का उत्तराधिकारी तुकोजीराव और उनकी मृत्यु होने पर यशवंतराव होलकर हुआ । उत्तर भारत में सत्ता को लेकर सिधिंया और होलकर में निरंतर संघर्ष होने लगा । मराठा, जाट और मुसलमानों में भी नित्य झगड़े होने लगे । इस सिद्धांतहीन संघर्ष के कारण ब्रजंमडल और उसके आसपास अव्यवस्था फैल गई थी जिसका लाभ अंगरेजों ने उठा कर ब्रजमंडल में अपनी सैनिक हलचलों से झकझोर दिया ।

जाट−अंगरेज़ युद्ध

सं. 1860 में अंगरेज़ी सेना ने दौलतराव सिंधिया के विरुद्ध सफल अभियान करके मथुरा पर अधिकार कर लिया । उधर जनरल लेक की कमान यशवंतराव होलकर का पीछा कर रही थी । होलकर ने भाग कर भरतपुर में शरण ली । उस समय भरतपुर में जाट राजा रणजीत सिंह का शासन था । जनरल लेक ने भरतपुर नरेश से माँग की कि वह होलकर को अंगरेजों के सुपुर्द कर दे । रणजीत सिंह ने इस माँग को स्वीकार नहीं किया । अंगरेज़ों ने भरतपुर पर आक्रमण कर दिया । जाटों ने बहुत वीरता से अंगरेज़ी सेना का मुक़ाबला किया कि उसे पीछे हटना पड़ा । जनरल लेक जैसे वीर सेनापति की अध्यक्षता में अंगरेज़ों ने चार बार भरतपुर पर आक्रमण किया किंतु हर बार उन्हें मुँह की खानी पड़ी । इससे भरतपुर क़िले की अजेयता, जाटों की वीरता और रणजीत सिंह की प्रबंध−कुशलता की सर्वत्र ख्याति हो गई । रणजीत सिंह की पराजयों के कारण जाटों की जो अप्रतिष्ठा हुई थी, वह अंगरेज़ों से सफलतापूर्वक युद्ध करने के कारण दूर हो गई । जाट राज्य के इतिहास में सूरजमल और जवाहरसिंह द्वारा दिल्ली में की गई लूट की भाँति रणजीत सिंह द्वारा अंगरेज़ों से सफल संघर्ष करने की घटना भी बड़ी प्रसिद्ध है । ब्रज के अनेक कवियों और लोक गायकों ने भरतपुर पर अंगरेज़ों की चढ़ाई, जाटों की वीरता और अंगरेज़ों की पराजय का अत्यंत ओजपूर्ण वर्णन किया है । -[२][३] <balloon title="तेरे तेज तत्ता तें, चकत्ता में रही न सत्ता, लत्ता से उड़ाये, सब गोरे कलकत्ता के ।।(भागमल्ल)" style="color:blue">*</balloon> <balloon title="तेफिरका फिरंगिन के फारिकै फतूह करे, जीत के नगारे रनजीत के बजत हैं ।(गंगाधर)" style="color:blue">*</balloon> <balloon title="भेजौ फोरि पटक−पछार खात खंभन सों, लेडी अंगरेज़न की रोंवे कलकत्ता में।(प्रसिद्ध कवि)" style="color:blue">*</balloon>

रणधीर सिंह (शासन सं. 1862−सं. 1879)

वह रणजीत सिंह के बाद जाटों का राजा हुआ । रणजीत सिंह की मृत्यु सं. 1862 वि. में हुई । रणधीर उसका ज्येष्ठ पुत्र था । उसके शासन काल में इस भू−भाग में कोई घटना नहीं हुई, जिसने जाट राज्य की शांति को भंग किया हो । फलत: रणधीर अपने सीमित अधिकृत क्षेत्र पर बिना झगड़े−झंझट के शासन करता हुआ अपना राज्य काल पूरा कर गया । उसकी मृत्यु सं. 1879 में हुई थी ।

बलदेव सिंह का शासन (सं. 1879 −सं. 1882)

वह रणधीर सिंह का छोटा भाई था । वह केवल 2 वर्ष तक ही शासन कर सका था । उसके बाद उसकी मृत्यु हो गई थी ।

परवर्ती जाट राजा

बलदेव सिंह के बाद उसका पुत्र बलवंत सिंह (सं. 1882−1910) भरतपुर का राजा हुआ । बलवंत सिंह के पश्चात उसका पुत्र यशवंत सिंह (सं. 1910 − सं. 1950) जाटों का राजा हुआ । उसके शासनकाल में अंग्रेज़ो के विरुद्ध सैनिक विद्रोह हुआ था, जिसमें देश की जनता ने भी आंशिक रूप से भाग लिया । जिससे अंग्रेज़ी कंपनी का अधिकार समाप्त हो गया; और इंगलेंड की महारानी विक्टोरिया ने इस देश की शासन−सत्ता अपने हाथ में ले ली ।

मराठों के प्रभाव में वृद्धि

मुग़ल शासन के अंतिम काल में मराठों ने उत्तर भारत में प्रभाव बढ़ा लिया था । मुग़ल सम्राट शाहआलम को अपने शेष साम्राज्य की बिगड़ी शासन−व्यवस्था को ठीक करने के लिए मराठों की सहायता लेने को बाध्य होना पड़ा । उसने मराठा सरदार माधव जी सिंधिया को अपना मीर बख़्शी (मुख्य मन्त्री) और प्रधान सेनापति बना दिया । उस समय भरतपुर की राजगद्दी पर जाट राजा रणजीत सिंह था । माधव जी सिंधिया का प्रभाव मुग़ल सम्राट और जाट राजा दोनों पर था । उनका संक्षिप्त विवरण यह है, −

माधव जी सिंधिया

उसका जन्म मराठों की एक नीची जाति और निम्न परिवार में हुआ था । उसका पिता रानोजी आरंभ में पेशवा का एक साधारण सेवक था और उसके जूतों की देख−भाल करता था । उसकी स्वामिभक्ति और बुद्धिमत्ता से प्रसन्न होकर पेशवा ने उसे सेना में भर्ती कर लिया, जहाँ वह उन्नति करता हुआ सेना नायक के पद पर पहुँच गया । उसके पुत्र माधव जी ने अपनी वीरता, बुद्धिमता और नीति−निपुणता से उन्नति की और वह मराठा सेना के योग्यतम सेनानायकों में गिना जाने लगा । पानीपत के युद्ध में अन्य मराठा सरदारों की भाँति वह भी सम्मिलित था और शत्रुओं से लड़ता हुआ घायल हो गया था । उसके बाद उत्तर भारत में आश्चर्यजनक रूप से मराठा शक्ति के विस्तार का श्रेय जिन्हें है उनमें माधव जी का नाम सबसे पहले लिया जाता है । दिल्ली दरबार के वजीर मिर्जा नजफ़ख़ाँ की सं. 1839 में मृत्यु होने के बाद मुग़ल साम्राज्य में अव्यवस्था फैल गई, जिसे दूर करने के लिए तत्कालीन मुग़ल सम्राट शाहआलम ने माधव जी सिंधिया को अपना मुख्यमन्त्री (मीर बख़्शी) बनाया । पेशवा की ओर से उत्तर भारत में जो मराठा सेना थी, उसके सेनापतियों में माधव जी ही सबसे अधिक योग्य था । उसने मुग़ल साम्राज्य की अव्यवस्था दूर कर मुग़ल दरबार के उपद्रवी रूहेले सरदारों को दबा दिया और जयपुर राज्य से बक़ाया कर वसूल किया । फिर डीग, आगरा, अलीगढ़, मथुरा आदि प्रमुख स्थानों पर अधिकार कर अपनी योग्यता, शक्ति और सत्ता की धाक जमा दी । वह मुग़ल साम्राज्य का मुख्यमन्त्री होने के साथ ही साथ प्रधान सेनापति और सम्राट का संरक्षक (वकीले मुत्लक़) भी था । इसलिए वह सम्राट् शाहआलम के नाम पर शासन करने लगा । उसके कारण मराठों का प्रभाव उत्तर भारत में बहुत बढ़ गया और मराठों की भगवा पताका दिल्ली के लाल किले पर फहराने लगी ।


सं. 1844 में माधव जी को अपनी सेना के पुनर्गठन के लिए मालवा जाना पड़ा । उसकी अनुपस्थिति में ग़ुलाम क़ादिर रूहेला ने दिल्ली पर और इस्मायल बेग ने आगरा पर अधिकार कर लिया । उन दोनों यवन तानाशाहों ने दिल्ली और ब्रज में अत्याचार करना आरंभ कर दिया था । ग़ुलाम क़ादिर ने शाहआलम, उसकी बेगमों और परिवार वालों पर ऐसे अत्याचार किये, जो मुग़ल सम्राटों में से किसी को कभी सहन नहीं करने पड़े थे । उसने बादशाह की आँखे निकलवा कर उसे अंधा कर दिया और उसकी स्त्रियों को बेइज्ज़ती की । उस समय अंधे बादशाह ने माधव जी पास ख़बर भेजी कि वह उसकी दयनीय दशा में सहायता करने को शीघ्र ही दिल्ली आये । उसने माधव जी को अपने प्रिय पुत्र की तरह संबोधन करते हुए (माधौ जी सिंधिया फ़र्ज़न्दे जिगरबंदे मनअस्त) एक मार्मिक कविता लिखी थी ।[४] बादशाह की पुकार सुन माधव जी ने रानाख़ाँ और जिब्बादादा के नेतृत्व में एक शक्तिशाली मराठा सेना दिल्ली भेजी, जिसने ग़ुलाम क़ादिर को हराकर उसे दिल्ली से भागने के लिए बाध्य किया । सं. 1845 में मराठों का अधिकार पुन: दिल्ली के क़िले और नगर पर हो गया । उस समय माधव जी भी वहाँ पहुँच गया । दिल्ली से भागते हुए ग़ुलाम क़ादिर को मराठा सेना ने मेरठ के पास पकड़ लिया और उसे मथुरा में माधवजी के सन्मुख उपस्थित किया । शाहआलम ने माधव जी से आग्रह किया कि ग़ुलाम क़ादिर के साथ भी वही सलूक किया जावे जो उसने मेरे साथ किया था और फिर उसे क़त्ल कर दिया जाए । बादशाह की इच्छानुसार ग़ुलाम क़ादिर की दंड स्वरूप आँखे निकलवाई गई और फिर उसे मार दिया गया । माधव जी सफलता और उसके प्रभाव के कारण कुछ मराठा सरदार भी उससे ईर्ष्या करने लगे थे । होलकर उसका सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी और विरोधी था । पेशवा के दरबार में भी उसके विरुद्ध षड्यंत्र होने लगा था । इन समस्याओं के समाधान के लिए माधव जी का पूना जाना आवश्यक हो गया । वहाँ पहुँच कर उसने पेशवा के समक्ष उसी प्रकार दीनता प्रदर्शित की, जिस प्रकार उसके पूर्वज किया करते थे; किंतु उसका पूना दरबार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था । सं. 1851 (12 फरवरी सन् 1795) में माधव जी का देहांत हो गया ।

माधव जी की देन

माधव जी सिंधिया एक युगांतरकारी पुरुष थे । उनकी वीरता, नीतिज्ञता और दूरदर्शिता अनुपम थी । उन्होंने अपने पुरुषार्थ से मराठों की पताका दिल्ली के किले पर फहराई और उत्तर भारत में मराठों की शक्ति, सत्ता और प्रभुता को चरम सीमा पर पहुँचा दिया था । उनकी ब्रज को देन भी बड़ी महत्वपूर्ण थी । जाट राज्य का ह्रास होने से ब्रज में जो भीषण संकट पैदा हुआ था, वह माधव जी के कारण दूर हो गया था ।

हिम्मतबहादुर

वह माधव जी सिंधिया का समकालीन एक नागा गुंसाईं था और एक वीर, साहसी एवं कुशल सेनानायक के रूप में प्रसिद्ध था । उसके अधिकार में नागा सन्यासियों की सशस्त्र सेना थी, जिनके द्वारा वह उस समय की राजनैतिक हलचलों में सक्रिय भाग लेता था । ब्रज की तत्कालीन राजनीति से उसका घनिष्ठ सम्बन्ध रहा था, अत: उसका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है । वह कुलपहाड़ का निवासी ब्राह्मण था और बचपन में ही सन्यासी होकर राजेन्द्र गिरि का शिष्य हो गया था । तब उसका नाम अनूपगिरि रखा गया था । उसकी रूचि सैनिक कार्यों में अधिक थी, अत: वह लखनऊ के नवाब शुजाउद्दौला की घुड़सवार सेना में भर्ती हो गया था । वहाँ उसने वीरता में बड़ा नाम पैदा किया, जिसके कारण नवाब ने उसे 'हिम्मतबहादुर' की पदवी और जागीर प्रदान की थी । बाद में वह अनूपगिरि के बजाय हिम्मतबहादुर के नाम से ही प्रसिद्ध हुआ । उसने युद्ध को अपनी जीविका का साधन बनाया । उसे जिस व्यक्ति से धन मिलता, उसी के पक्ष में वह सेना लेकर युद्ध करता था । इस प्रकार उसने अवध के नवाब, बुंदेलखंड के राजा, दिल्ली के मुग़ल सम्राट मराठों और अंग्रेज़ सभी के पक्ष में अनेक युद्ध किये थे । इस संबंध में उसका न कोई सिद्धांत था और न कोई नीति । उसने रुपये के लिए विदेशी मुसलमान और अंग्रेज़ आक्रमणकारियों का साथ दिया था ।


अपने समय में उसकी वीरता की धाक थी । मुग़ल दरबार का साथ देकर उसने माधव जी सिंधिया को नीचा दिखाना चाहा था, किंतु उसमें वह सफल नहीं हुआ । वह माधव जी को सदा परेशान करता था । माधव जी ने उसकी जागीर का बड़ा भाग छीन लिया था और उसके अधिकार में केवल माँट और वृन्दावन की जागीरें रहने दी थीं । वृन्दावन में राजाओं की भाँति बड़ी शान से रहता था और माधव जी से शत्रुता रखने के कारण सदैव उनके विरुद्ध चालें चला करता था । उसने सैनिक दाँव−पेच और कूटनीति के अतिरिक्त मन्त्र−तंत्र का प्रयोग भी किया था । वह कुशल सेनानी एवं कूटनीतिज्ञ होने के साथ ही साथ कवि, काव्य−प्रेमी और कवियों का आश्रयदाता था । ब्रजभाषा के सुप्रसिद्ध कवि 'पद्माकर' ने उसी के आश्रय में अपने एक मात्र वीर काव्य 'हिम्मतबहादुर विरूदावली' की रचना की थी । हिम्मत बहादुर का देहान्त सं. 1861 में हुआ था ।

अली बहादुर

उस काल में पेशवा की ओर से उत्तर भारत में जो मराठा सेना थी, उसका एक सेनानायक अलीबहादुर नामक मराठा था । वह बाजीराव पेशवा की मुस्लिम उपपत्नी मस्तानी का पौत्र था । पेशवा का वंशज होने से मराठा राज्य में उसका प्रभाव था और उसकी गणना बड़े सरदारों में होती थी । पेशवा ने अलीबहादुर को आदेश दिया था कि वह उत्तर भारत में मराठों की शक्ति का विस्तार करे, किंतु उसमें उसे आंशिक सफलता ही मिली थी ।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जमन कि जम जातना, भुगताई इह देह ।
    अब अपने अपनाइ लेउ, बास काँपत कपिला गाय ज्यों, कहत मरत हौं लाज।
    कलि केहरि ते अब करौ, रच्छा सुरच्छा आज।
  2. चढ़े फिरंगी भयौ भारत भरतपुर में, तोपन तरपि कै, हलान पै हलान की ।
    काली करी तृपत ,फिरंगी सो कुरंगी भए,एक हू कला न चली ,पथरकलान की ॥ (­प्रेमकवि)
  3. मच्यौ घमासान, कोस तीन लगि लोथ परीं, मर गये सूर साँचे मौहरा अगाह तें ।
    कहै 'जसराम' अंगरेज़ जंग हार गये, जीते जदुवंशी सूर, लड़त उछाह तें ॥ (जसराम)
  4. उसमें कहा गया था−"मेरे राज्य को दु:ख की आँधी ने छिन्न−भिन्न कर दिया है । जो राज्य सूर्य की तरह प्रकशित था, उसे ग़ुलाम कादिर ने तिमिरावृत कर दिया । अल्लाह मदद करे, मेरा प्रिय पुत्र माधव जी सिंधिया मेरी अवश्य रक्षा करेगा और मेरे अपमान का बदला लेगा ।"

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